शिवमहापुराण – प्रथम विद्येश्वरसंहिता – अध्याय 1 || Shiv Mahapuran Vidyeshvar Samhita Adhyay 1

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इससे पूर्व आपने श्रीस्कन्दमहापुराण में सनत्कुमारसंहिता के अन्तर्गत शिवपुराणमाहात्म्य खण्ड का क्रमशः१ से लेकर ७ वाँ तक पढ़ा। अब यहाँ से शिवमहापुराण का पठन करेंगे। शिवमहापुराण – प्रथम विद्येश्वरसंहिता – अध्याय 01 पहला अध्याय प्रयाग में सूतजी से मुनियों का शीघ्र पापनाश करनेवाले साधन के विषय में प्रश्न।

शिवमहापुराण – प्रथम विद्येश्वरसंहिता – अध्याय 01

श्रीशिवमहापुराणम्

अथ श्रीशिवमहापुराणं विद्येश्वरसंहिता प्रारभ्यते

श्रीगणेशाय नमः॥

श्रीगुरुभ्यो नमः॥

श्रीसरस्वत्यै नमः॥

श्री साम्बसदाशिवाय नमः॥
अथ शिवपुराणे प्रथमा विद्येश्वरसंहिता प्रारभ्यते

आद्यन्तमङ्गलमजातसमानभावमार्यं तमीशमजरामरमात्मदेवम्।

पञ्चाननं प्रबलपञ्चविनोदशीलं सम्भावये मनसि शङ्करमम्बिकेशम्॥

जो आदि और अन्त में [तथा मध्य में भी] नित्य मङ्गलमय हैं, जिनकी समानता अथवा तुलना कहीं भी नहीं है, जो आत्मा के स्वरूप को प्रकाशित करनेवाले देवता (परमात्मा) हैं, जिनके पाँच मुख हैं और जो खेल-ही-खेल में-अनायास जगत् की रचना, पालन, संहार, अनुग्रह एवं तिरोभावरूप — पाँच प्रबल कर्म करते रहते हैं, उन सर्वश्रेष्ठ अजर-अमर ईश्वर अम्बिकापति भगवान् शंकरका मैं मन-ही-मन चिन्तन करता हूँ ।

शिवमहापुराण

व्यास उवाच

धर्मक्षेत्रे महाक्षेत्रे गंगाकालिन्दिसंगमे

प्रयागे परमे पुण्ये ब्रह्मलोकस्य वर्त्मनि॥ १

मुनयः शंसितात्मानस्सत्यव्रतपरायणाः

महौजसो महाभागा महासत्रं वितेनिरे ॥२

व्यासजी बोले — जो धर्म का महान् क्षेत्र है, जहाँ गंगा-यमुना का संगम हुआ है, जो ब्रह्मलोक का मार्ग है, उस परम पुण्यमय प्रयाग में सत्यव्रत में तत्पर रहनेवाले महातेजस्वी महाभाग महात्मा मुनियों ने एक विशाल ज्ञानयज्ञ का आयोजन किया ॥ १-२ ॥

तत्र सत्रं समाकर्ण्य व्यासशिष्यो महामुनिः

आजगाम मुनीन्द्र ष्टुं सूतः पौराणिकोत्तमः॥ ३

उस ज्ञानयज्ञ का समाचार सुनकर पौराणिकशिरोमणि व्यासशिष्य महामुनि सूतजी वहाँ मुनियों का दर्शन करने के लिये आये ॥ ३ ॥

तं दृष्ट्वा सूतमायांतं हर्षिता मुनयस्तदा

चेतसा सुप्रसन्नेन पूजां चक्रुर्यथाविधि ॥४

सूतजी को आते देखकर वे सब मुनि उस समय हर्ष से खिल उठे और अत्यन्त प्रसन्नचित्त से उन्होंने उनका विधिवत् स्वागत-सत्कार किया ॥ ४ ॥

ततो विनयसंयुक्ता प्रोचुः सांजलयश्च ते

सुप्रसन्ना महात्मानः स्तुतिं कृत्वायथाविधि ॥५

तत्पश्चात् उन प्रसन्न महात्माओं ने उनकी विधिवत् स्तुति करके विनयपूर्वक हाथ जोड़कर उनसे इस प्रकार कहा – ॥ ५ ॥

रोमहर्षण सर्वज्ञ भवान्वै भाग्यगौरवात्

पुराणविद्यामखिलां व्यासात्प्रत्यर्थमीयिवान् ॥६

तस्मादाश्चर्य्यभूतानां कथानां त्वं हि भाजनम्

रत्नानामुरुसाराणां रत्नाकर इवार्णवः ॥७

हे सर्वज्ञ विद्वान् रोमहर्षणजी ! आपका भाग्य बड़ा भारी है, इसीसे आपने व्यासजी से यथार्थरूप में सम्पूर्ण पुराण-विद्या प्राप्त की, इसलिये आप आश्चर्यस्वरूप कथाओं के भण्डार हैं — ठीक उसी तरह, जैसे रत्नाकर समुद्र बड़े-बड़े सारभूत रत्नों का आगार है ॥ ६-७ ॥

यच्च भूतं च भव्यं च यच्चान्यद्वस्तु वर्तते

न त्वयाऽविदितं किंचित्त्रिषु लोकेषु विद्यते ॥८

तीनों लोकों में भूत, वर्तमान और भविष्य की जो बात है तथा अन्य भी जो कोई वस्तु है, वह आपसे अज्ञात नहीं है ॥ ८ ॥

त्वं मद्दिष्टवशादस्य दर्शनार्थमिहागतः

कुर्वन्किमपि नः श्रेयो न वृथा गंतुमर्हसि ॥९

आप हमारे सौभाग्य से इस यज्ञ का दर्शन करने के लिये यहाँ आ गये हैं और इसी व्याज से हमारा कुछ कल्याण करनेवाले हैं; क्योंकि आपका आगमन निरर्थक नहीं हो सकता ॥ ९ ॥

तत्त्वं श्रुतं स्म नः सर्वं पूर्वमेव शुभाशुभम्

न तृप्तिमधिगच्छामः श्रवणेच्छा मुहुर्मुहुः ॥१०

हमने पहले भी आपसे शुभाशुभ-तत्त्व का पूरा-पूरा वर्णन सुना है, किंतु उससे तृप्ति नहीं होती, हमें उसे सुनने की बार-बार इच्छा होती है ॥ १० ॥

इदानीमेकमेवास्ति श्रोतव्यं सूत सन्मते

तद्र हस्यमपि ब्रूहि यदि तेऽनुग्रहो भवेत् ॥११

उत्तम बुद्धिवाले हे सूतजी ! इस समय हमें एक ही बात सुननी है; यदि आपका अनुग्रह हो तो गोपनीय होने पर भी आप उस विषय का वर्णन करें ॥ ११ ॥

प्राप्ते कलियुगे घोरे नराः पुण्यविवर्जिताः

दुराचाररताः सर्वे सत्यवार्तापराङ्मुखाः ॥१२

परापवादनिरताः परद्र व्याभिलाषिणः

परस्त्रीसक्तमनसः परहिंसापरायणाः ॥१३

देहात्मदृष्टया मूढा नास्तिकाः पशुबुद्धयः

मातृपितृकृतद्वेषाः स्त्रीदेवाः कामकिंकराः ॥१४

घोर कलियुग आने पर मनुष्य पुण्यकर्म से दूर रहेंगे, दुराचार में फँस जायँगे, सब-के-सब सत्यभाषण से विमुख हो जायँगे, दूसरों की निन्दा में तत्पर होंगे । पराये धन को हड़प लेने की इच्छा करेंगे, उनका मन परायी स्त्रियों में आसक्त होगा तथा वे दूसरे प्राणियों की हिंसा किया करेंगे । वे अपने शरीर को ही आत्मा समझेंगे । वे मूढ़, नास्तिक तथा पशु-बुद्धि रखनेवाले होंगे, माता-पिता से द्वेष रखेंगे तथा वे कामवश स्त्रियों की सेवामें लगे रहेंगे ॥ १२-१४ ॥

विप्रा लोभग्रहग्रस्ता वेदविक्रयजीविनः

धनार्जनार्थमभ्यस्तविद्या मदविमोहिताः ॥१५

त्यक्तस्वजातिकर्माणः प्रायशःपरवंचकाः

त्रिकालसंध्यया हीना ब्रह्मबोधविवर्जिताः ॥१६

अदयाः पंडितं मन्यास्स्वाचारव्रतलोपकाः

कृष्युद्यमरताः क्रूरस्वभावा मलिनाशयाः ॥१७

ब्राह्मण लोभरूपी ग्रह के ग्रास बन जायँगे, वेद बेचकर जीविका चलायेंगे, धन का उपार्जन करने के लिये ही विद्या का अभ्यास करेंगे, मद से मोहित रहेंगे, अपनी जाति के कर्म छोड़ देंगे, प्रायः दूसरों को ठगेंगे, तीनों काल की सन्ध्योपासना से दूर रहेंगे और ब्रह्मज्ञान से शून्य होंगे । दयाहीन, अपने को पण्डित माननेवाले, अपने सदाचार-व्रत से रहित, कृषिकार्य में तत्पर, क्रूर स्वभाववाले एवं दूषित विचारवाले होंगे ॥ १५-१७ ॥

क्षत्रियाश्च तथा सर्वे स्वधर्मत्यागशीलिनः

असत्संगाः पापरता व्यभिचारपरायणाः ॥१८

समस्त क्षत्रिय भी अपने धर्म का त्याग करनेवाले, कुसंगी, पापी और व्यभिचारी होंगे ॥ १८ ॥

अशूरा अरणप्रीताः पलायनपरायणाः

कुचौरवृत्तयः शूद्राः! कामकिंकरचेतसः ॥१९

उनमें शौर्य का अभाव होगा, वे युद्ध से विरत अर्थात् रण में प्रीति न होने से भागनेवाले होंगे । वे कुत्सित चौर्यकर्म से जीविका चलायेंगे, शूद्रों के समान बरताव करेंगे और उनका चित्त काम का किंकर बना रहेगा ॥ १९ ॥

शस्त्रास्त्रविद्यया हीना धेनुविप्रावनोज्झिताः

शरण्यावनहीनाश्च कामिन्यूतिमृगास्सदा ॥२०

वे शस्त्रास्त्रविद्या को नहीं जाननेवाले, गौ और ब्राह्मण की रक्षा न करनेवाले, शरणागत की रक्षा न करनेवाले तथा सदा कामिनी को खोजने में तत्पर रहेंगे ॥ २० ॥

प्रजापालनसद्धर्मविहीना भोगतत्पराः

प्रजासंहारका दुष्टा जीवहिंसाकरा मुदा ॥२१

प्रजापालनरूपी सदाचार से रहित, भोग में तत्पर, प्रजा का संहार करनेवाले, दुष्ट और प्रसन्नतापूर्वक जीवहिंसा करनेवाले होंगे ॥ २१ ॥

वैश्याः संस्कारहीनास्ते स्वधर्मत्यागशीलिनः

कुपथाः स्वार्जनरतास्तुलाकर्मकुवृत्तयः ॥२२

वैश्य संस्कार-भ्रष्ट, स्वधर्मत्यागी, कुमार्गी, धनोपार्जनपरायण तथा नाप-तौल में अपनी कुत्सित वृत्ति का परिचय देनेवाले होंगे ॥ २२ ॥

गुरुदेवद्विजातीनां भक्तिहीनाः कुबुद्धयः

अभोजितद्विजाः प्रायः कृपणा बद्धमुष्टयः ॥२३

कामिनीजारभावेषु सुरता मलिनाशयाः

लोभमोहविचेतस्काः पूर्तादिसुवृषोज्झिताः ॥२४

वे गुरु, देवता और द्विजातियों के प्रति भक्तिशून्य, कुत्सित बुद्धिवाले, द्विजों को भोजन न करानेवाले, प्रायः कृपणता के कारण मुट्ठी बाँधकर रखनेवाले, परायी स्त्रियों के साथ कामरत, मलिन विचारवाले, लोभ और मोह से भ्रमित चित्तवाले और वापी-कूप-तड़ाग आदि के निर्माण तथा यज्ञादि सत्कर्मों में धर्म का त्याग करनेवाले होंगे ॥ २३-२४ ॥

तद्वच्छूद्रा श्च ये केचिद्ब्राह्मणाचारतत्पराः

उज्ज्वलाकृतयो मूढाः स्वधर्मत्यागशीलिनः ॥२५

इसी तरह कुछ शूद्र ब्राह्मणों के आचार में तत्पर होंगे, उनकी आकृति उज्वल होगी अर्थात् वे अपना कर्म-धर्म छोड़कर उज्वल वेश-भूषा से विभूषित हो व्यर्थ घूमेंगे, वे मूढ़ होंगे और स्वभावतः ही अपने धर्म का त्याग करनेवाले होंगे ॥ २५ ॥

कर्तारस्तपसां भूयो द्विजतेजोपहारकाः

शिश्वल्पमृत्युकाराश्च मंत्रोच्चारपरायणाः ॥२६

शालिग्रामशिलादीनां पूजकाहोमतत्पराः

प्रतिकूलविचाराश्च कुटिला द्विजदूषकाः ॥२७

वे भाँति-भाँति के तप करनेवाले होंगे, द्विजों को अपमानित करेंगे, छोटे बच्चों की अल्पमृत्यु होने के लिये आभिचारिक कर्म करेंगे, मन्त्रों के उच्चारण करने में तत्पर रहेंगे, शालग्राम की मूर्ति आदि पूजेंगे, होम करेंगे, किसी-न-किसी के प्रतिकूल विचार सदा करते रहेंगे, कुटिल स्वभाववाले होंगे और द्विजों से द्वेष-भाव रखने वाले होंगे ॥ २६-२७ ॥

धनवंतः कुकर्म्माणो विद्यावन्तो विवादिनः

आख्यायोपासना धर्मवक्तारो धर्मलोपकाः ॥२८

वे यदि धनी हुए तो कुकर्म में लग जायँगे, यदि विद्वान् हुए तो विवाद करनेवाले होंगे, कथा और उपासना-धर्मो के वक्ता होंगे और धर्म का लोप करनेवाले होंगे ॥ २८ ॥

सुभूपाकृतयो दंभाः सुदातारो महामदाः

विप्रादीन्सेवकान्मत्वा मन्यमाना निजं प्रभुम् ॥२९

स्वधर्मरहिता मूढाः संकराः क्रूरबुद्धयः

महाभिमानिनो नित्यं चतुर्वर्णविलोपकाः ॥३०

वे सुन्दर राजाओं के समान वेष-भूषा धारण करनेवाले, दम्भी, दानमानी, अतिशय अभिमानी, विप्र आदि को अपना सेवक मानकर अपने को स्वामी माननेवाले होंगे, वे अपने धर्म से शून्य, मूढ़, वर्णसंकर, क्रूरबुद्धिवाले, महाभिमानी और सदा चारों वर्णों के धर्म का लोप करनेवाले होंगे ॥ २९-३० ॥

सुकुलीनान्निजान्मत्वा चतुर्वर्णैर्विवर्तनाः

सर्ववर्णभ्रष्टकरा मूढास्सत्कर्मकारिणः ॥३१

वे अपने को श्रेष्ठ कुलवाला मानकर चारों वर्गों से विपरीत व्यवहार करनेवाले, सभी वर्गों को भ्रष्ट करनेवाले, मूढ़ और [अनुचित रूपसे] सत्कर्म करने में तत्पर होंगे ॥ ३१ ॥

स्त्रियश्च प्रायशो भ्रष्टा भर्त्रवज्ञानकारिकाः

श्वशुरद्रो हकारिण्यो निर्भया मलिनाशनाः ॥३२

कलियुग की स्त्रियाँ प्रायः सदाचार से भ्रष्ट होंगी, पति का अपमान करनेवाली होंगी, सास-ससुर से द्रोह करेंगी । किसी से भय नहीं मानेंगी और मलिन भोजन करेंगी ॥ ३२ ॥

कुहावभावनिरताः कुशीलास्स्मरविह्वलाः

जारसंगरता नित्यं स्वस्वामिविमुखास्तथा ॥३३

वे कुत्सित हाव-भावमें तत्पर होंगी, उनका शीलस्वभाव बहुत बुरा होगा । वे काम-विह्वल, परपति से रति करनेवाली और अपने पति की सेवासे सदा विमुख रहेंगी ॥ ३३ ॥

तनया मातृपित्रोश्च भक्तिहीना दुराशयाः

अविद्यापाठका नित्यं रोगग्रसितदेहकाः ॥३४

सन्ताने माता-पिता के प्रति श्रद्धारहित, दुष्ट स्वभाववाली, असत् विद्या पढ़नेवाली और सदा रोगग्रस्त शरीरवाली होंगी ॥ ३४ ॥

एतेषां नष्टबुद्धीनां स्वधर्मत्यागशीलिनाम्

परलोकेपीह लोके कथं सूत गतिर्भवेत् ॥३५

हे सूतजी ! इस तरह जिनकी बुद्धि नष्ट हो गयी है और जिन्होंने अपने धर्म का त्याग कर दिया है, ऐसे लोगों को इहलोक और परलोक में उत्तम गति कैसे प्राप्त होगी ? ॥ ३५ ॥

इति चिंताकुलं चित्तं जायते सततं हि नः

परोपकारसदृशो नास्ति धर्मो परः खलु ॥३६

लघूपायेन येनैषां भवेत्सद्योघनाशनम्

सर्व्वसिद्धान्तवित्त्वं हि कृपया तद्वदाधुना ॥३७

इसी चिन्ता से हमारा मन सदा व्याकुल रहता है; परोपकार के समान दूसरा कोई धर्म नहीं है, अतः जिस छोटे उपाय से इन सबके पापों का तत्काल नाश हो जाय, उसे इस समय कृपापूर्वक बताइये; क्योंकि आप समस्त सिद्धान्तों के ज्ञाता हैं ॥ ३६-३७ ॥

व्यास उवाच

इत्याकर्ण्य वचस्तेषां मुनीनां भावितात्मनाम्

मनसा शंकरं स्मृत्वा सूतः प्रोवाच तान्मुनीन् ॥३८

॥इति श्रीशैवेमहापुराणे विद्येश्वरसंहितायां मुनिप्रश्नवर्णनो नाम प्रथमोऽध्यायः १॥

व्यासजी बोले — उन भावितात्मा मुनियों की यह बात सुनकर सूतजी मन-ही-मन भगवान् शंकर का स्मरण करके उन मुनियों से इस प्रकार कहने लगे – ॥ ३८ ॥

॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराण के अन्तर्गत प्रथम विद्येश्वरसंहिता में मुनियों के प्रश्न का वर्णन नामक पहला अध्याय पूर्ण हुआ ॥ १ ॥

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