शिवमहापुराण – प्रथम विद्येश्वरसंहिता – अध्याय 12 || Shiv Mahapuran Vidyeshvar Samhita Adhyay 12
इससे पूर्व आपने शिवमहापुराण – विद्येश्वरसंहिता – अध्याय 11पढ़ा, अब शिवमहापुराण –विद्येश्वरसंहिता – अध्याय 12 बारहवाँ अध्याय मोक्षदायक पुण्यक्षेत्रों का वर्णन, कालविशेष में विभिन्न नदियों के जल में स्नान के उत्तम फल का निर्देश तथा तीर्थों में पाप से बचे रहने की चेतावनी।
शिवपुराणम्/विद्येश्वरसंहिता/अध्यायः १२
शिवपुराणम् | संहिता १ (विश्वेश्वरसंहिता)
शिवमहापुराण – विद्येश्वरसंहिता – अध्याय 12
सूत उवाच
शृणुध्वमृषयः प्राज्ञाः शिवक्षेत्रं विमुक्तिदम्
तदागमांस्ततो वक्ष्ये लोकरक्षार्थमेव हि ॥१
पंचाशत्कोटिविस्तीर्णा सशैलवनकानना
शिवाज्ञया हि पृथिवी लोकं धृत्वा च तिष्ठति ॥२
तत्र तत्र शिवक्षेत्रं तत्र तत्र निवासिनाम्
मो-क्षार्थं कृपया देवः क्षेत्रं कल्पितवान्प्रभुः ॥३
सूतजी बोले — हे बुद्धिमान् महर्षियो ! मोक्षदायक शिवक्षेत्रों का वर्णन सुनिये । तत्पश्चात् मैं लोकरक्षा के लिये शिवसम्बन्धी आगमों का वर्णन करूँगा । पर्वत, वन और काननों सहित इस पृथ्वी का विस्तार पचास करोड़ योजन है । भगवान् शिव की आज्ञा से पृथ्वी सम्पूर्ण जगत् को धारण करके स्थित है । भगवान् शिव ने भूतल पर विभिन्न स्थानों में वहाँ के निवासियों को कृपापूर्वक मोक्ष देने के लिये शिवक्षेत्र का निर्माण किया है ॥ १-३ ॥
परिग्रहादृषीणां च देवानां परिग्रहात्
स्वयंभूतान्यथान्यानि लोकरक्षार्थमेव हि ॥४
तीर्थे क्षेत्रे सदाकार्यं स्नानदानजपादिकम्
अन्यथा रोगदारिद्र य्मूकत्वाद्याप्नुयान्नरः ॥५
अथास्मिन्भारते वर्षे प्राप्नोति मरणं नरः
स्वयंभूस्थानवासेन पुनर्मानुष्यमाप्नुयात् ॥६
क्षेत्रे पापस्य करणं दृढं भवति भूसुराः
पुण्यक्षेत्रे निवासे हि पापमण्वपि नाचरेत् ॥७
येन केनाप्युपायेन पुण्यक्षेत्रे वसेन्नरः॥८क
कुछ क्षेत्र ऐसे हैं, जिन्हें देवताओं तथा ऋषियों ने अपना वासस्थान बनाकर अनुगृहीत किया है । इसीलिये उनमें तीर्थत्व प्रकट हो गया है तथा अन्य बहुत-से तीर्थक्षेत्र ऐसे हैं, जो लोकों की रक्षा के लिये स्वयं प्रादुर्भूत हुए हैं । तीर्थ और क्षेत्र में जाने पर मनुष्य को सदा स्नान, दान और जप आदि करना चाहिये; अन्यथा वह रोग, दरिद्रता तथा मूकता आदि दोषों का भागी होता है । जो मनुष्य इस भारतवर्ष के भीतर स्वयम्भू तीर्थों में वास करके मरता है, उसे पुनः मनुष्ययोनि ही प्राप्त होती है । हे ब्राह्मणो ! पुण्यक्षेत्र में पापकर्म किया जाय तो वह और भी दृढ़ हो जाता है । अतः पुण्यक्षेत्र में निवास करते समय थोड़ा-सा भी पाप न करे । जिस किसी भी उपाय से मनुष्य को पुण्यक्षेत्र में वास करना चाहिये ॥ ४-८क ॥
सिंधोः शतनदीतीरे संति क्षेत्राण्यनेकशः ॥८
सरस्वती नदी पुण्या प्रोक्ता षष्टिमुखा तथा
तत्तत्तीरे वसेत्प्राज्ञः क्रमाद्ब्रह्मपदं लभेत् ॥९
हिमवद्गिरिजा गंगा पुण्या शतमुखा नदी
तत्तीरे चैव काश्यादिपुण्यक्षेत्राण्यनेकशः ॥१०
तत्र तीरं प्रशस्तं हि मृगे मृगबृहस्पतौ
शोणभद्रो दशमुखः पुण्योभीष्टफलप्रदः ॥११
तत्र स्नानोपवासेन पदं वैनायकं लभेत्
चतुर्वींशमुखा पुण्या नर्मदा च महानदी ॥१२
तस्यां स्नानेन वासेन पदं वैष्णवमाप्नुयात्
तमसा द्वादशमुखा रेवा दशमुखा नदी ॥१३
गोदावरी महापुण्या ब्रह्मगोवधनाशिनी
एकविंशमुखा प्रोक्ता रुद्र लोकप्रदायिनी ॥१४
कृष्णवेणी पुण्यनदी सर्वपापक्षयावहा
साष्टादशमुखाप्रोक्ता विष्णुलोकप्रदायिनी ॥१५
तुंगभद्रा दशमुखा ब्रह्मलोकप्रदायिनी
सुवर्णमुखरी पुण्या प्रोक्ता नवमुखा तथा ॥१६
तत्रैव सुप्रजायंते ब्रह्मलोकच्युतास्तथा
सरस्वती च पंपा च कन्याश्वेतनदी शुभा ॥१७
एतासां तीरवासेन इंद्र लोकमवाप्नुयात्
सह्याद्रि जा महापुण्या कावेरीति महानदी ॥१८
सप्तविंशमुखा प्रोक्ता सर्वाभीष्टं प्रदायिनी
तत्तीराः स्वर्गदाश्चैव ब्रह्मविष्णुपदप्रदाः ॥१९
शिवलोकप्रदा शैवास्तथाऽभीष्टफलप्रदाः॥२०क
सिन्धु और गंगा नदी के तट पर बहुत-से पुण्यक्षेत्र हैं । सरस्वती नदी परम पवित्र और साठ मुखवाली कही गयी है अर्थात् उसकी साठ धाराएँ हैं । जो विद्वान् पुरुष सरस्वती की उन-उन धाराओं के तट पर निवास करता है, वह क्रमशः ब्रह्मपद को पा लेता है । हिमालय पर्वत से निकली हुई पुण्यसलिला गंगा सौ मुखवाली नदी है, उसके तट पर काशी आदि अनेक पुण्यक्षेत्र हैं । वहाँ मकरराशि के सूर्य होने पर गंगा की तटभूमि पहले से भी अधिक प्रशस्त एवं पुण्यदायक हो जाती है । शोणभद्र नद की दस धाराएँ हैं, वह बृहस्पति के मकरराशि में आने पर अत्यन्त पवित्र तथा अभीष्ट फल देनेवाला हो जाता है । उस समय वहाँ स्नान और उपवास करने से विनायकपद की प्राप्ति होती है । पुण्यसलिला महानदी नर्मदा के चौबीस मुख (स्रोत) हैं । उसमें स्नान तथा उसके तट पर निवास करने से मनुष्य को वैष्णवपद की प्राप्ति होती है । तमसा नदी के बारह तथा रेवा के दस मुख हैं । परम पुण्यमयी गोदावरी के इक्कीस मुख बताये गये हैं । वह ब्रह्महत्या तथा गोवध के पाप का भी नाश करनेवाली एवं रुद्रलोक देनेवाली है । कृष्णवेणी नदी का जल बड़ा पवित्र है । वह नदी समस्त पापों का नाश करनेवाली है । उसके अठारह मुख बताये गये हैं तथा वह विष्णुलोक प्रदान करनेवाली है । तुंगभद्रा के दस मुख हैं, वह ब्रह्मलोक देनेवाली है । पुण्यसलिला सुवर्णमुखरी के नौ मुख कहे गये हैं । ब्रह्मलोक से लौटे हुए जीव उसी के तट पर जन्म लेते हैं । सरस्वती, पम्पा, कन्याकुमारी तथा शुभकारक श्वेत नदी — ये सभी पुण्यक्षेत्र हैं । इनके तट पर निवास करने से इन्द्रलोक की प्राप्ति होती है । सह्य पर्वत से निकली हुई महानदी कावेरी परम पुण्यमयी है । उसके सत्ताईस मुख बताये गये हैं । वह सम्पूर्ण अभीष्ट वस्तुओं को देनेवाली है । उसके तट स्वर्गलोक की प्राप्ति करानेवाले तथा ब्रह्मा और विष्णु का पद देनेवाले हैं । कावेरी के जो तट शैवक्षेत्र के अन्तर्गत हैं, वे अभीष्ट फल देने के साथ ही शिवलोक प्रदान करनेवाले भी हैं ॥ ८-२०क ॥
नैमिषे बदरे स्नायान्मेषगे च गुरौ रवौ ॥२०
ब्रह्मलोकप्रदं विद्यात्ततः पूजादिकं तथा
सिंधुनद्यां तथा स्नानं सिंहे कर्कटगे रवौ ॥२१
केदारोदकपानं च स्नानं च ज्ञानदं विदुः॥२२क
नैमिषारण्य तथा बदरिकाश्रम में सूर्य और बृहस्पति के मेषराशि में आने पर यदि स्नान करे तो उस समय वहाँ किये हुए स्नान-पूजन आदि को ब्रह्मलोक की प्राप्ति करानेवाला जानना चाहिये । सिंह और कर्कराशि में सूर्य की संक्रान्ति होनेपर सिन्धुनदी में किया हुआ स्नान तथा केदारतीर्थ के जल का पान एवं स्नान ज्ञानदायक माना गया है ॥ २०-२२क ॥
गोदावर्यां सिंहमासे स्नायात्सिंहबृहस्पतौ ॥२२
शिवलोकप्रदमिति शिवेनोक्तं तथा पुरा
यमुनाशोणयोः स्नायाद्गुरौ कन्यागते रवौ ॥२३
धर्मलोके दंतिलोके महाभोगप्रदं विदुः
कावेर्यां च तथास्नायात्तुलागे तु रवौ गुरौ ॥२४
विष्णोर्वचनमाहात्म्यात्सर्वाभीष्टप्रदं विदुः
वृश्चिके मासि संप्राप्ते तथार्के गुरुवृश्चिके ॥२५
नर्मदायां नदीस्नानाद्विष्णुलोकमवाप्नुयात्
सुवर्णमुखरीस्नानं चापगे च गुरौ रवौ ॥२६
शिवलोकप्रदमिति ब्राह्मणो वचनं यथा
मृगमासि तथा स्नायाज्जाह्नव्यां मृगगे गुरौ ॥२७
शिवलोकप्रदमिति ब्रह्मणो वचनं यथा
ब्रह्मविष्ण्वोः पदे भुक्त्वा तदंते ज्ञानमाप्नुयात् ॥२८
जब बृहस्पति सिंहराशि में स्थित हों, उस समय सिंह की संक्रान्ति से युक्त भाद्रपदमास में यदि गोदावरी के जल में स्नान किया जाय, तो वह शिवलोक की प्राप्ति करानेवाला होता है — ऐसा पूर्वकाल में स्वयं भगवान् शिव ने कहा था । जब सूर्य और बृहस्पति कन्याराशि में स्थित हों, तब यमुना और शोणभद्र में स्नान करे । वह स्नान धर्मराज तथा गणेशजी के लोक में महान् भोग प्रदान करानेवाला होता है — यह महर्षियों की मान्यता है । जब सूर्य और बृहस्पति तुलाराशि में स्थित हों, उस समय कावेरी नदी में स्नान करे । वह स्नान भगवान् विष्णु के वचन की महिमा से सम्पूर्ण अभीष्ट वस्तुओं को देनेवाला माना गया है । जब सूर्य और बृहस्पति वृश्चिक राशि पर आ जायँ, तब मार्गशीर्ष के महीने में नर्मदा में स्नान करने से विष्णुलोक की प्राप्ति होती है । सूर्य और बृहस्पति के धनुराशि में स्थित होने पर सुवर्णमुखरी नदी में किया हुआ स्नान शिवलोक प्रदान करानेवाला होता है, यह ब्रह्माजी का वचन है । जब सूर्य और बृहस्पति मकरराशि में स्थित हों, उस समय माघमास में गंगाजी के जल में स्नान करना चाहिये । ब्रह्माजी का कथन है कि वह स्नान शिवलोक की प्राप्ति करानेवाला होता है । शिवलोक के पश्चात् ब्रह्मा और विष्णु के स्थानों में सुख भोगकर अन्त में मनुष्य को ज्ञान की प्राप्ति हो जाती है ॥ २२-२८ ॥
गंगायां माघमासे तु तथाकुंभगते रवौ
श्राद्धं वा पिंडदानं वा तिलोदकमथापिवा ॥२९
वंशद्वयपितृ-णां च कुलकोट्युद्धरं विदुः
कृष्णवेण्यां प्रशंसंति मीनगे च गुरौ रवौ ॥३०
तत्तत्तीर्थे च तन्मासि स्नानमिंद्र पदप्रदम्
गंगां वा सह्यजां वापि समाश्रित्य वसेद्बुधः ॥३१
तत्कालकृतपापस्य क्षयो भवति निश्चितम्॥३२क
माघमास में तथा सूर्य के कुम्भराशि में स्थित होने पर फाल्गुनमास में गंगाजी के तट पर किया हुआ श्राद्ध, पिण्डदान अथवा तिलोदकदान पिता और नाना दोनों कुलों के पितरों की अनेकों पीढ़ियों का उद्धार करनेवाला माना गया है । सूर्य और बृहस्पति जब मीनराशि में स्थित हों, तब कृष्णवेणी नदी में किये गये स्नान की ऋषियों ने प्रशंसा की है । उन-उन महीनों में पूर्वोक्त तीर्थों में किया हुआ स्नान इन्द्रपद की प्राप्ति करानेवाला होता है । विद्वान् पुरुष गंगा अथवा कावेरी नदी का आश्रय लेकर तीर्थवास करे । ऐसा करने से उस समय में किये हुए पाप का निश्चय ही नाश हो जाता है ॥ २९-३२क ॥
रुद्र लोकप्रदान्येव संति क्षेत्राण्यनेकशः ॥३२
ताम्रपर्णी वेगवती ब्रह्मलोकफलप्रदे
तयोस्तीरे हि संत्येव क्षेत्राणि स्वर्गदानि च ॥३३
संति क्षेत्राणि तन्मध्ये पुण्यदानि च भूरिशः
तत्र तत्र वसन्प्राज्ञस्तादृशं च फलं लभेत् ॥३४
सदाचारेण सद्वृत्त्या सदा भावनयापि च
वसेद्दयालुः प्राज्ञो वै नान्यथा तत्फलं लभेत् ॥३५
पुण्यक्षेत्रे कृतं पुण्यं बहुधा ऋद्धिमृच्छति
पुण्यक्षेत्रे कृतं पापं महदण्वपि जायते ॥३६
तत्कालं जीवनार्थश्चेत्पुण्येन क्षयमेष्यति
पुण्यमैश्वर्यदं प्राहुः कायिकं वाचिकं तथा ॥३७
मानसं च तथा पापं तादृशं नाशयेद्द्विजाः
मानसं वज्रलेपं तु कल्पकल्पानुगं तथा ॥३८
रुद्रलोक प्रदान करनेवाले बहुत-से क्षेत्र हैं । ताम्रपर्णी और वेगवती — ये दोनों नदियाँ ब्रह्मलोक की प्राप्तिरूप फल देनेवाली हैं । उन दोनों के तट पर अनेक स्वर्गदायक क्षेत्र हैं । उन दोनों के मध्य में बहुत-से पुण्यप्रद क्षेत्र हैं । वहाँ निवास करनेवाला विद्वान् पुरुष वैसे फल का भागी होता है । सदाचार, उत्तम वृत्ति तथा सद्भावना के साथ मन में दयाभाव रखते हुए विद्वान् पुरुष को तीर्थ में निवास करना चाहिये, अन्यथा उसका फल नहीं मिलता । पुण्यक्षेत्र में किया हुआ थोड़ा-सा पुण्य भी अनेक प्रकार से वृद्धि को प्राप्त होता है तथा वहाँ किया हुआ छोटा-सा पाप भी महान् हो जाता है । यदि पुण्यक्षेत्र में रहकर ही जीवन बिताने का निश्चय हो, तो उस पुण्यसंकल्प से उसका पहले का सारा पाप तत्काल नष्ट हो जायगा; क्योंकि पुण्य को ऐश्वर्यदायक कहा गया है । हे ब्राह्मणो ! तीर्थवासजनित पुण्य कायिक, वाचिक और मानसिक सारे पापों का नाश कर देता है । तीर्थ में किया हुआ मानसिक पाप वज्रलेप हो जाता है । वह कई कल्पों तक पीछा नहीं छोड़ता है ॥ ३२-३८ ॥
ध्यानादेव हि तन्नश्येन्नान्यथा नाशमृच्छति
वाचिकं जपजालेन कायिकं कायशोषणात् ॥३९
दानाद्धनकृतं नश्येन्नाऽन्यथाकल्पकोटिभिः
क्वचित्पापेन पुण्यं च वृद्धिपूर्वेण नश्यति ॥४०
बीजांशश्चैव वृद्ध्यंशो भोगांशः पुण्यपापयोः
ज्ञाननाश्यो हि बीजांशो वृद्धिरुक्तप्रकारतः ॥४१
भोगांशो भोगनाश्यस्तु नान्यथा पुण्यकोटिभिः
बीजप्ररोहे नष्टे तु शेषो भोगाय कल्पते ॥४२
देवानां पूजया चैव ब्रह्मणानां च दानतः
तपोधिक्याच्च कालेन भोगः सह्यो भवेन्नृणाम्
तस्मात्पापमकृत्वैव वस्तव्यं सुखमिच्छता ॥४३
इति श्रीशिवमहापुराणे विद्येश्वरसंहितायां द्वादशोऽध्यायः १२॥
वैसा पाप केवल ध्यान से ही नष्ट होता है, अन्यथा नष्ट नहीं होता । वाचिक पाप जप से तथा कायिक पाप शरीर को सुखाने-जैसे कठोर तप से नष्ट होता है । धनोपार्जन में हुए पाप दान से नष्ट होते हैं अन्यथा करोड़ों कल्पों में भी उनका नाश नहीं होता । कभी-कभी अतिशय मात्रा में बढ़े पापों से पुण्य भी नष्ट हो जाते हैं । पुण्य और पाप दोनों का बीजांश, वृद्ध्यंश और भोगांश होता है । बीजांश का नाश ज्ञान से, वृद्ध्यंश का ऊपर लिखे प्रकार से तथा भोगांश का नाश भोगने से होता है । अन्य किसी प्रकार से करोड़ों पुण्य करके भी पाप के भोगांश नहीं मिट सकते । पाप-बीज के अंकुरित हो जाने पर उसका अंश नष्ट होने पर भी शेष पाप भोगना ही पड़ता है । देवताओं की पूजा, ब्राह्मणों को दान तथा अधिक तप करने से समय पाकर पापभोग मनुष्यों के सहनेयोग्य हो जाते हैं । इसलिये सुख चाहनेवाले व्यक्ति को पापों से बचकर ही तीर्थवास करना चाहिये ॥ ३९-४३ ॥
॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराण के अन्तर्गत प्रथम विद्येश्वरसंहिता में शिवक्षेत्र का वर्णन नामक बारहवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ १२ ॥