शिवमहापुराण – प्रथम विद्येश्वरसंहिता – अध्याय 11 || Shiv Mahapuran Vidyeshvar Samhita Adhyay 11

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इससे पूर्व आपने शिवमहापुराण – विद्येश्वरसंहिता – अध्याय 10 पढ़ा, अब शिवमहापुराण –विद्येश्वरसंहिता – अध्याय 11 ग्यारहवाँ अध्याय शिवलिंग की स्थापना, उसके लक्षण और पूजन की विधि का वर्णन तथा शिवपद की प्राप्ति करानेवाले सत्कर्मों का विवेचन।

शिवपुराणम्/ विद्येश्वरसंहिता /अध्यायः ११

शिवमहापुराण – विद्येश्वरसंहिता – अध्याय 11

ऋषय ऊचुः

कथं लिंगं प्रतिष्ठाप्यं कथं वातस्य लक्षणम्

कथं वा तत्समभ्यर्च्यं देशे काले च केन हि ॥१

ऋषिगण बोले — [हे सूतजी !] शिवलिंग की स्थापना कैसे करनी चाहिये, उसका लक्षण क्या है तथा उसकी पूजा कैसे करनी चाहिये, किस देश-काल में करनी चाहिये और किस द्रव्य के द्वारा उसका निर्माण होना चाहिये ? ॥ १ ॥

सूत उवाच

युष्मदर्थं प्रवक्ष्यामि बुद्ध्यतामवधानतः

अनुकूले शुभे काले पुण्ये तीर्थे तटे तथा ॥२

यथेष्टं लिंगमारोप्यं यत्र स्यान्नित्यमर्चनम्

पार्थिवेन तथाप्येनं तैजसेन यथारुचि ॥३

कल्पलक्षणसंयुक्तं लिंगं पूजाफलं लभेत्

सर्वलक्षणसंयुक्तं सद्यः पूजाफलप्रदम् ॥४

सूतजी बोले — [हे महर्षियो!] मैं आपलोगों के लिये इस विषय का वर्णन करता हूँ । ध्यान देकर समझिये । अनुकूल एवं शुभ समय में किसी पवित्र तीर्थ में अथवा नदी आदि के तट पर अपनी रुचि के अनुसार ऐसी जगह शिवलिंग की स्थापना करनी चाहिये, जहाँ नित्य पूजन हो सके । पार्थिव द्रव्य से, जलमय द्रव्य से अथवा धातुमय पदार्थ से अपनी रुचि के अनुसार कल्पोक्त लक्षणों से युक्त शिवलिंग का निर्माण करके उसकी पूजा करने से उपासक को उस पूजन का पूरा-पूरा फल प्राप्त होता है । सम्पूर्ण शुभ लक्षणों से युक्त शिवलिंग तत्काल पूजा का फल देनेवाला होता है ॥ २-४ ॥

चरे विशिष्यते सूक्ष्मं स्थावरे स्थूलमेव हि

सलक्षणं सपीठं च स्थापयेच्छिवनिर्मितम् ॥५

मंडलं चतुरस्रं वा त्रिकोणमथवा तथा

खट्वांगवन्मध्यसूक्ष्मं लिंगपीठं महाफलं ॥६

यदि चलप्रतिष्ठा करनी हो तो इसके लिये छोटा-सा शिवलिंग और यदि अचल प्रतिष्ठा करनी हो तो स्थूल शिवलिंग श्रेष्ठ माना जाता है । उत्तम लक्षणों से युक्त पीठसहित शिवलिंग की स्थापना करनी चाहिये । शिवलिंग का पीठ मण्डलाकार (गोल), चौकोर, त्रिकोण अथवा खट्वांग के आकार का (ऊपर गोल तथा आगे लम्बा) होना चाहिये । ऐसा लिंगपीठ महान् फल देनेवाला होता है ॥ ५-६ ॥

प्रथमं मृच्छिलादिभ्यो लिगं लोहादिभिः कृतम्

येन लिंगं तेन पीठं स्थावरे हि विशिष्यते ॥७

लिंगं पीठं चरे त्वेकं लिंगं बाणकृतं विना

लिंगप्रमाणं कर्तृ-णां द्वादशांगुलमुत्तमम् ॥८

न्यूनं चेत्फलमल्पं स्यादधिकं नैव दूष्यते

कर्तुरेकांगुलन्यूनं चरेपि च तथैव हि ॥९

पहले मिट्टी, प्रस्तर आदि से अथवा लोहे आदि से शिवलिंग का निर्माण करना चाहिये । जिस द्रव्य से शिवलिंग का निर्माण हो, उसी से उसका पीठ भी बनाना चाहिये-यही स्थावर (अचल प्रतिष्ठावाले) शिवलिंग की विशेष बात है । चर (चलप्रतिष्ठावाले) शिवलिंग में भी लिंग और पीठ का एक ही उपादान होना चाहिये, किंतु बाणलिंग के लिये यह नियम नहीं है । लिंग की लम्बाई निर्माणकर्ता के बारह अंगुल के बराबर होनी चाहिये, ऐसा ही शिवलिंग उत्तम कहा गया है । इससे कम लम्बाई हो तो फल में कमी आ जाती है, अधिक हो तो कोई दोष नहीं है । चर लिंग में भी वैसा ही नियम है, उसकी लम्बाई कम-से-कम कर्ता के एक अंगुल के बराबर होनी चाहिये ॥ ७-९ ॥

आदौ विमानं शिल्पेन कार्यं देवगणैर्युतम्

तत्र गर्भगृहे रम्ये दृढे दर्पणसंनिभे ॥१०

भूषिते नवरत्नैश्च दिग्द्वारे च प्रधानकैः

नीलं रक्तं च वै दूर्यं श्यामं मारकतं तथा ॥११

मुक्ताप्रवालगोमेदवज्राणि नवरत्नकम्

मध्ये लिंगं महद्द्रव्यं निक्षिपेत्सहवैदिके ॥१२

संपूज्य लिंगं सद्याद्यैः पंचस्थाने यथाक्रमम्

अग्नौ च हुत्वा बहुधा हविषास कलं च माम् ॥१३

अभ्यर्च्य गुरुमाचार्यमर्थैः कामैश्च बांधवम्

दद्यादैश्वर्यमर्थिभ्यो जडमप्यजडं तथा ॥१४

पहले शिल्पशास्त्र के अनुसार एक विमान या देवालय बनवाये, जो देवगणों की मूर्तियों से अलंकृत हो । उसका गर्भगृह बहुत ही सुन्दर, सुदृढ़ और दर्पण के समान स्वच्छ हो । उसे नौ प्रकार के रत्नों से विभूषित किया गया हो । उसमें पूर्व और पश्चिम दिशा में दो मुख्य द्वार हों । जहाँ शिवलिंग की स्थापना करनी हो, उस स्थान के गर्त में नीलम, लाल रत्न, वैदूर्य, श्याम रत्न, मरकत, मोती, मँगा, गोमेद और हीरा — इन नौ रत्नों को तथा अन्य महत्त्वपूर्ण द्रव्यों को वैदिक मन्त्रों के साथ छोड़े । सद्योजात आदि पाँच वैदिक मन्त्रों द्वारा शिवलिंग का पाँच स्थानों में क्रमशः पूजन करके अग्नि में हविष्य की अनेक आहुतियाँ दे और परिवारसहित मेरी पूजा करके गुरुस्वरूप आचार्य को धन तथा भाई-बन्धुओं को अभिलषित वस्तुओं से सन्तुष्ट करे । याचकों को जड़ (सुवर्ण, गृह एवं भू-सम्पत्ति) तथा चेतन (गौ आदि) वैभव प्रदान करे ॥ १०-१४ ॥

स्थावरं जंगमं जीवं सर्वं संतोष्य यत्नतः

सुवर्णपूरिते श्वभ्रे नवरत्नैश्च पूरिते ॥१५

सद्यादि ब्रह्म चोच्चार्य ध्यात्वा देवं परं शुभम्

उदीर्य च महामंत्रमॐकारं नादघोषितम् ॥१६

लिंगं तत्र प्रतिष्ठाप्य लिगं पीठेन योजयेत्

लिंगं सपीठं निक्षिप्य नित्यलेपेन बंधयेत् ॥१७

स्थावर-जंगम सभी जीवों को यत्नपूर्वक सन्तुष्ट करके एक गड्ढे में सुवर्ण तथा नौ प्रकार के रत्न भरकर सद्योजातादि*(मन्त्र नीचे दिया गया है) वैदिक मन्त्रों का उच्चारण करके परम कल्याणकारी महादेवजी का ध्यान करे । तत्पश्चात् नादघोष से युक्त महामन्त्र ओंकार का उच्चारण करके उक्त गड्ढे में शिवलिंग की स्थापना करके उसे पीठ से संयुक्त करे । इस प्रकार पीठयुक्त लिंग की स्थापना करके उसे नित्य लेप (दीर्घकालतक टिके रहनेवाले मसाले)-से जोड़कर स्थिर करे ॥ १५-१७ ॥

एवं बेरं च संस्थाप्यं तत्रैव परमं शुभम्

पंचाक्षरेण बेरं तु उत्सवार्थं वहिस्तथा ॥१८

इसी प्रकार वहाँ पंचाक्षर मन्त्र से परम सुन्दर वेर (मूर्ति)-की भी स्थापना करनी चाहिये (सारांश यह कि भूमि-संस्कार आदि की सारी विधि जैसी लिंगप्रतिष्ठा के लिये कही गयी है, वैसी ही वेर (मूर्ति)-प्रतिष्ठा के लिये भी समझनी चाहिये । अन्तर इतना ही है कि लिंगप्रतिष्ठा के लिये प्रणवमन्त्र के उच्चारण का विधान है, परंतु वेर की प्रतिष्ठा पंचाक्षरमन्त्र से करनी चाहिये)। जहाँ लिंग की प्रतिष्ठा हुई है, वहाँ भी उत्सव के लिये और बाहर सवारी निकालने आदि के निमित्त वेर (मूर्ति)-को रखना आवश्यक है ॥ १८ ॥

बेरं गुरुभ्यो गृह्णीयात्साधुभिः पूजितं तु वा

एवं लिंगे च बेरे च पूजा शिवपदप्रदा ॥१९

पुनश्च द्विविधं प्रोक्तं स्थावरं जंगमं तथा

स्थावरं लिंगमित्याहुस्तरुगुल्मादिकं तथा ॥२०

जंगमं लिंगमित्याहुः कृमिकीटादिकं तथा

स्थावरस्य च शुश्रूषा जंगमस्य च तर्पणम् ॥२१

तत्तत्सुखानुरागेण शिवपूजां विदुर्बुधाः॥२२क

वेर को बाहर से भी लिया जा सकता है । उसे गुरुजनों से ग्रहण करे । बाह्य वेर वही लेने योग्य है, जो साधुपुरुषों द्वारा पूजित हो । इस प्रकार लिंग में और वेर में भी की हुई महादेवजी की पूजा शिवपद प्रदान करनेवाली होती है । स्थावर और जंगम के भेद से लिंग भी दो प्रकार का कहा गया है । वृक्ष, लता आदि को स्थावर लिंग कहते हैं और कृमि-कीट आदि को जंगम लिंग । सींचने आदि के द्वारा स्थावर लिंग की सेवा करनी चाहिये और जंगम लिंग को आहार एवं जल आदि देकर तृप्त करना उचित है । उन स्थावर-जंगम जीवों को सुख पहुँचाने में अनुरक्त होना भगवान् शिव का पूजन है —ऐसा विद्वान् पुरुष मानते हैं । [इस प्रकार चराचर जीवों को ही भगवान् शंकर के प्रतीक मानकर उनका पूजन करना चाहिये ।] ॥ १९-२२क ॥

पीठमंबामयं सर्वं शिवलिंगं च चिन्मयम् ॥२२

यथा देवीमुमामंके धृत्वा तिष्ठति शंकरः

तथा लिंगमिदं पीठं धृत्वा तिष्ठति संततम् ॥२३

सभी पीठ पराप्रकृति जगदम्बा का स्वरूप हैं और समस्त शिवलिंग चैतन्यस्वरूप हैं । जैसे भगवान् शंकर देवी पार्वती को गोद में बिठाकर विराजते हैं, उसी प्रकार यह शिवलिंग सदा पीठ के साथ ही विराजमान होता है ॥ २२-२३ ॥

एवं स्थाप्य महालिंगं पूजयेदुपचारकैः

नित्यपूजा यथा शक्तिध्वजादिकरणं तथा ॥२४

इति संस्थापयेल्लिंगं साक्षाच्छिवपदप्रदम्

अथवा चरलिंगं तु षोडशैरुपचारकैः ॥२५

पूजयेच्च यथान्यायं क्रमाच्छिवपदप्रदम्

आवाहनं चासनं च अर्घ्यं पाद्यं तथैव च ॥२६

तदंगाचमनं चैव स्नानमभ्यंगपूर्वकम्

वस्त्रं गंधं तथा पुष्पं धूपं दीपं निवेदनम् ॥२७

नीराजनं च तांबूलं नमस्कारो विसर्जनम्

अथवाऽर्घ्यादिकं कृत्वा नैवेद्यां तं यथाविधि ॥२८

अथाभिषेकं नैवेद्यं नमस्कारं च तर्पणम्

यथाशक्ति सदाकुर्यात्क्रमाच्छिवपदप्रदम् ॥२९

इस तरह महालिंग की स्थापना करके विविध उपचारों द्वारा उसका पूजन करे । अपनी शक्ति के अनुसार नित्य पूजा करनी चाहिये तथा देवालय के पास ध्वजारोपण आदि करना चाहिये । इस प्रकार साक्षात् शिव का पद प्रदान करनेवाले लिंग की स्थापना करे अथवा चर लिंग में षोडशोपचारों द्वारा यथोचित रीति से क्रमशः पूजन करे; यह पूजन भी शिवपद प्रदान करनेवाला है । आवाहन, आसन, अर्घ्य, पाद्य, पाद्यांग आचमन, अभ्यंगपूर्वक स्नान, वस्त्र, गन्ध, पुष्प, धूप, दीप, नैवेद्य, ताम्बूल-समर्पण, नीराजन, नमस्कार और विसर्जन-ये सोलह उपचार हैं । अथवा अर्घ्य से लेकर नैवेद्य तक विधिवत् पूजन करे । अभिषेक, नैवेद्य, नमस्कार और तर्पण — ये सब यथाशक्ति नित्य करे । इस तरह किया हुआ शिव का पूजन शिवपद की प्राप्ति करानेवाला होता है ॥ २४-२९ ॥

अथवा मानुषे लिंगेप्यार्षे दैवे स्वयंभुवि

स्थापितेऽपूर्वके लिंगे सोपचारं यथा तथा ॥३०

पूजोपकरणे दत्ते यत्किंचित्फलमश्नुते

प्रदक्षिणानमस्कारैः क्रमाच्छिवपदप्रदम्॥ ३१

लिंगं दर्शनमात्रं वा नियमेन शिवप्रदम्

मृत्पिष्टगोशकृत्पुष्पैः करवीरेण वा फलैः ॥३२

गुडेन नवनीतेन भस्मनान्नैर्यथारुचि

लिंगं यत्नेन कृत्वांते यजेत्तदनुसारतः ॥३३

अथवा किसी मनुष्य के द्वारा स्थापित शिवलिंग में, ऋषियों द्वारा स्थापित शिवलिंग में, देवताओं द्वारा स्थापित शिवलिंग में, अपने-आप प्रकट हुए स्वयम्भूलिंग में तथा अपने द्वारा नूतन स्थापित हुए शिवलिंग में भी उपचारसमर्पणपूर्वक जैसे-तैसे पूजन करने से या पूजन की सामग्री देने से भी मनुष्य ऊपर जो कुछ कहा गया है, वह सारा फल प्राप्त कर लेता है । क्रमशः परिक्रमा और नमस्कार करने से भी शिवलिंग शिवपद की प्राप्ति करानेवाला होता है । यदि नियमपूर्वक शिवलिंग का दर्शनमात्र कर लिया जाय तो वह भी कल्याणप्रद होता है । मिट्टी, आटा, गाय के गोबर, फूल, कनेरपुष्प, फल, गुड़, मक्खन, भस्म अथवा अन्न से भी अपनी रुचि के अनुसार शिवलिंग बनाकर तदनुसार उसका पूजन करे ॥ ३०-३३ ॥

अंगुष्ठादावपि तथा पूजामिच्छंति केचन

लिंगकर्मणि सर्वत्र निषेधोस्ति न कर्हिचित् ॥३४

सर्वत्र फलदाता हि प्रयासानुगुणं शिवः

अथवा लिंगदानं वा लिंगमौल्यमथापि वा ॥३५

श्रद्धया शिवभक्ताय दत्तं शिवपदप्रदम्॥३६क

कुछ लोग हाथ के अँगूठे आदि पर भी पूजा करना चाहते हैं । लिंग का निर्माण कहीं भी करने में किसी प्रकार का निषेध नहीं है । भगवान् शिव सर्वत्र ही भक्त के प्रयत्न के अनुसार फल प्रदान कर देते हैं । अथवा श्रद्धापूर्वक शिवभक्त को शिवलिंग का दान या लिंग के मूल्य का दान करने से भी शिवलोक की प्राप्ति होती है ॥३४-३६क ॥

अथवा प्रणवं नित्यं जपेद्दशसहस्रकम् ॥३६

संध्ययोश्च सहस्रं वा ज्ञेयं शिवपदप्रदम्

जपकाले मकारांतं मनःशुद्धिकरं भजेत् ॥३७

समाधौ मानसं प्रोक्तमुपांशु सार्वकालिकम्

समानप्रणवं चेमं बिंदुनादयुतं विदुः ॥३८

अथ पंचाक्षरं नित्यं जपेदयुतमादरात्

संध्ययोश्च सहस्रं वा ज्ञेयं शिवपदप्रदम् ॥३९

अथवा प्रतिदिन दस हजार प्रणवमन्त्र का जप करे अथवा दोनों सन्ध्याओं के समय एक-एक हजार प्रणव का जप किया करे । यह क्रम भी शिवपद की प्राप्ति करानेवाला है—ऐसा जानना चाहिये । जपकाल में मकारान्त प्रणव का उच्चारण मन की शुद्धि करनेवाला होता है । समाधि में मानसिक जप का विधान है तथा अन्य सब समय उपांशु (मन्त्राक्षरों का इतने धीमे स्वर में उच्चारण करे कि उसे दूसरा कोई सुन न सके, ऐसे जप को उपांशु कहते हैं।) जप ही करना चाहिये । नाद और बिन्दु से युक्त ओंकार के उच्चारण को विद्वान् पुरुष समानप्रणव कहते हैं । यदि प्रतिदिन आदरपर्वक दस हजार पंचाक्षर मन्त्र का जप किया जाय अथवा दोनों सन्ध्याओं के समय एक-एक हजार का ही जप किया जाय तो उसे शिवपद की प्राप्ति करानेवाला समझना चाहिये ॥ ३६-३९ ॥

प्रणवेनादिसंयुक्तं ब्राह्मणानां विशिष्यते

दीक्षायुक्तं गुरोर्ग्राह्यं मंत्रं ह्यथ फलाप्तये ॥४०

कुंभस्नानं मंत्रदीक्षां मातृकान्यासमेव च

ब्राह्मणः सत्यपूतात्मा गुरुर्ज्ञानी विशिष्यते ॥४१

ब्राह्मणों के लिये आदि में प्रणव से युक्त पंचाक्षरमन्त्र अच्छा बताया गया है । फल की प्राप्ति के लिये दीक्षापूर्वक गुरु से मन्त्र ग्रहण करना चाहिये । कलश से किया हुआ स्नान, मन्त्र की दीक्षा, मातृकाओं का न्यास, सत्य से पवित्र अन्त:करणवाला ब्राह्मण तथा ज्ञानी गुरु — इन सबको उत्तम माना गया है ॥ ४०-४१ ॥

द्विजानां च नमःपूर्वमन्येषां च नमोन्तकम्

स्त्रीणां च क्वचिदिच्छंति नमो तं च यथाविधि ॥४२

विप्रस्त्रीणां नमः पूर्वमिदमिच्छंति केचन

पंचकोटिजपं कृत्वा सदा शिवसमो भवेत् ॥४३

एकद्वित्रिचतुःकोट्याब्रह्मादीनां पदं व्रजेत्

जपेदक्षरलक्षंवा अक्षराणां पृथक्पृथक् ॥४४

अथवाक्षरलक्षं वा ज्ञेयं शिवपदप्रदम्

सहस्रं तु सहस्राणां सहस्रेण दिनेन हि ॥४५

जपेन्मंत्रादिष्टसिद्धिर्नित्यं ब्राह्मणभोजनात्॥४६क

द्विजों के लिये ‘नमः शिवाय’ के उच्चारण का . विधान है । द्विजेतरों के लिये अन्त में नम:-पद के प्रयोग की विधि है अर्थात् वे ‘शिवाय नमः’ इस मन्त्र का उच्चारण करें । स्त्रियों के लिये भी कहीं-कहीं विधिपूर्वक अन्त में नमः जोड़कर उच्चारण का ही विधान है अर्थात् कोई-कोई ऋषि ब्राह्मण की स्त्रियों के लिये नमः पूर्वक शिवाय के जप की अनुमति देते हैं अर्थात् वे ‘नमः शिवाय’ का जप करें । पंचाक्षर-मन्त्र का पाँच करोड जप करके मनुष्य भगवान् सदाशिव के समान हो जाता है । एक, दो, तीन अथवा चार करोड़ का जप करने से क्रमशः ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र तथा महेश्वर का पद प्राप्त होता है अथवा मन्त्र में जितने अक्षर हैं, उनका पृथक्-पृथक् एक-एक लाख जप करे अथवा समस्त अक्षरों का एक साथ ही जितने अक्षर हों, उतने लाख जप करे । इस तरह के जप को शिवपद की प्राप्ति करानेवाला समझना चाहिये । यदि एक हजार दिनों में प्रतिदिन एक सहस्र जप के क्रम से पंचाक्षरमन्त्र का दस लाख जप पूरा कर लिया जाय और प्रतिदिन ब्राह्मण-भोजन कराया जाय तो उस मन्त्र से अभीष्ट कार्य की सिद्धि होती है ॥ ४२-४६क ॥

अष्टोत्तरसहस्रं वै गायत्रीं प्रातरेव हि ॥४६

ब्राह्मणस्तु जपेन्नित्यं क्रमाच्छिवपदप्रदान्

वेदमंत्रांस्तु सूक्तानि जपेन्नियममास्थितः ॥४७

ब्राह्मण को चाहिये कि वह प्रतिदिन प्रातःकाल एक हजार आठ बार गायत्री का जप करे । ऐसा होने पर गायत्री क्रमशः शिव का पद प्रदान करनेवाली होती है । वेदमन्त्रों और वैदिक सूक्तों का भी नियमपूर्वक जप करना चाहिये ॥ ४६-४७ ॥

एकं दशार्णं मंत्रं च शतोनं च तदूर्ध्वकम्

अयुतं च सहस्रं च शतमेकं विना भवेत् ॥४८

एकाक्षर मन्त्र दस हजार, दशार्ण मन्त्र एक हजार, सौ से कम अक्षरवाले मन्त्र एक सौ और उससे अधिक अक्षरवाले मन्त्र यथाशक्ति एक से अधिक बार जपने चाहिये ॥ ४८ ॥

वेदपारायणं चैव ज्ञेयं शिवपदप्रदम्

अन्यान्बहुतरान्मंत्राञ्जपेदक्षरलक्षतः ॥४९

वेदों के पारायण को भी शिवपद की प्राप्ति करानेवाला जानना चाहिये । अन्यान्य जो बहुत-से मन्त्र हैं, उनका भी जितने अक्षर हों, उतने लाख जप करना चाहिये ॥ ४९ ॥

एकाक्षरांस्तथा मंत्राञ्जपेदक्षरकोटितः

ततः परं जपेच्चैव सहस्रं भक्तिपूर्वकम् ॥५०

एकाक्षर मन्त्रों को उसी प्रकार करोड़ की संख्या में जपना चाहिये । अधिक अक्षरवाले मन्त्र हजार की संख्या में भक्तिपूर्वक जपने चाहिये ॥ ५० ॥

एवं कुर्याद्यथाशक्ति क्रमाच्छिव पदं लभेत्

नित्यं रुचिकरं त्वेकं मंत्रमामरणांतिकम् ॥५१

जपेत्सहस्रमोमिति सर्वाभीष्टं शिवाज्ञया॥५२क

इस प्रकार जो यथाशक्ति जप करता है. वह क्रमशः शिवपद प्राप्त कर लेता है । अपनी रुचि के अनुसार किसी एक मन्त्र को अपनाकर मृत्युपर्यन्त प्रतिदिन उसका जप करना चाहिये अथवा ‘ओम् (ॐ)’ इस मन्त्र का प्रतिदिन एक सहस्र जप करना चाहिये । ऐसा करने पर भगवान् शिव की आज्ञा से सम्पूर्ण मनोरथों की सिद्धि होती है ॥ ५१-५२क ॥

पुष्पारामादिकं वापि तथा संमार्जनादिकम् ॥५२

शिवाय शिवकार्याथे कृत्वा शिवपदं लभेत्

शिवक्षेत्रे तथा वासं नित्यं कुर्याच्च भक्तितः ॥५३

जडानामजडानां च सर्वेषां भुक्तिमुक्तिदम्

तस्माद्वासं शिवक्षेत्रे कुर्यदामरणं बुधः ॥५४

जो मनुष्य भगवान् शिव के लिये फुलवाड़ी या बगीचे आदि लगाता है तथा शिव के सेवाकार्य के लिये मन्दिर में झाड़ने-बुहारने आदि की व्यवस्था करता है, वह इस पुण्यकर्म को करके शिवपद प्राप्त कर लेता है । भगवान् शिव के जो [काशी आदि] क्षेत्र हैं, उनमें भक्तिपूर्वक नित्य निवास करे । वे जड, चेतन सभी को भोग और मोक्ष देनेवाले होते हैं । अतः विद्वान् पुरुष को भगवान् शिव के क्षेत्र में मृत्युपर्यन्त निवास करना चाहिये ॥ ५२-५४ ॥

लिंगाद्धस्तशतं पुण्यं क्षेत्रे मानुषके विदुः

सहस्रारत्निमात्रं तु पुण्यक्षेत्रे तथार्षके ॥५५

दैवलिंगे तथा ज्ञेयं सहस्रारत्निमानतः

धनुष्प्रमाणसाहस्रं पुण्यं क्षेत्रे स्वयं भुवि ॥५६

मनुष्यों द्वारा स्थापित शिवलिंग से चारों ओर सौ हाथ तक पुण्यक्षेत्र कहा गया है तथा ऋषियों द्वारा स्थापित शिवलिंग के चारों ओर एक हजार हाथ तक पुण्यक्षेत्र होता है । इसी प्रकार देवताओं द्वारा स्थापित शिवलिंग के चारों ओर भी एक हजार हाथ तक पुण्यक्षेत्र समझना चाहिये । स्वयम्भू लिंग के चारों ओर तो एक हजार धनुष (चार हजार हाथ)-तक पुण्यक्षेत्र होता है ॥ ५५-५६ ॥

पुण्यक्षेत्रे स्थिता वापी कूपाद्यं पुष्कराणि च

शिवगंगेति विज्ञेयं शिवस्य वचनं यथा ॥५७

तत्र स्नात्वा तथा दत्त्वा जपित्वा हि शिवं व्रजेत्

शिवक्षेत्रं समाश्रित्य वसेदामरणं तथा ॥५८

दाहं दशाहं मास्यं वा सपिंडीकरणं तु वा

आब्दिकं वा शिवक्षेत्रे क्षेत्रे पिंडमथापि वा ॥५९

सर्वपाप विनिर्मुक्तः सद्यः शिवपदं लभेत्

अथवा सप्तरात्रं वा वसेद्वा पंचरात्रकम् ॥६०

त्रिरात्रमेकरात्रं वा क्रमाच्छिवपदं लभेत्॥६१क

पुण्यक्षेत्र में स्थित बावड़ी, कुआँ और पोखरे आदि को शिवगंगा समझना चाहिये — भगवान् शिव का ऐसा ही वचन है । वहाँ स्नान, दान और जप करके मनुष्य भगवान् शिव को प्राप्त कर लेता है । अतः मृत्युपर्यन्त शिव के क्षेत्र का आश्रय लेकर रहना चाहिये । जो शिव के क्षेत्र में अपने किसी मृत-सम्बन्धी का दाह, दशाह, मासिक श्राद्ध, सपिण्डीकरण अथवा वार्षिक श्राद्ध करता है अथवा कभी भी शिव के क्षेत्र में अपने पितरों को पिण्ड देता है, वह तत्काल सब पापों से मुक्त हो जाता है और अन्त में शिवपद पाता है ? अथवा शिव के क्षेत्र में सात, पाँच, तीन या एक ही रात निवास कर ले । ऐसा करने से भी क्रमशः शिवपदकी प्राप्ति होती है ॥ ५७-६१क ॥

स्ववर्णानुगुणं लोके स्वाचारात्प्राप्नुते नरः ॥६१

वर्णोद्धारेण भक्त्या च तत्फलातिशयं नरः

सर्वं कृतं कामनया सद्यः फलमवाप्नुयात् ॥६२

सर्वं कृतमकामेन साक्षाच्छिवपदप्रदम्॥६३क

लोक में अपने-अपने वर्ण के अनुरूप सदाचार का पालन करने से भी मनुष्य शिवपद को प्राप्त कर लेता है । वर्णानुकूल आचरण से तथा भक्तिभाव से वह अपने सत्कर्म का अतिशय फल पाता है, कामनापूर्वक किये हुए अपने कर्म के अभीष्ट फल को शीघ्र ही पा लेता है । निष्कामभाव से किया हुआ सारा कर्म साक्षात् शिवपद की प्राप्ति करानेवाला होता है ॥ ६१-६३क ॥

प्रातर्मध्याह्नसायाह्नमहस्त्रिष्वेकतः क्रमात् ॥६३

प्रातर्विधिकरं ज्ञेयं मध्याह्नं कामिकं तथा

सायाह्नं शांतिकं ज्ञेयं रात्रावपि तथैव हि ॥६४

कालो निशीथो वै प्रोक्तोमध्ययामद्वयं निशि

शिवपूजा विशेषेण तत्कालेऽभीष्टसिद्धिदा ॥६५

एवं ज्ञात्वा नरः कुर्वन्यथोक्तफलभाग्भवेत्

कलौ युगे विशेषेण फलसिद्धिस्तु कर्मणा ॥६६

उक्तेन केनचिद्वापि अधिकारविभेदतः

सद्वृत्तिः पापभीरुश्चेत्ततत्फलमवाप्नुयात् ॥६७

दिन के तीन विभाग होते हैं—प्रातः, मध्याह्न और सायाह्न । इन तीनों में क्रमश: एक-एक प्रकार के कर्म का सम्पादन किया जाता है । प्रात:काल को शास्त्रविहित नित्यकर्मक अनुष्ठान का समय जानना चाहिये । मध्याह्नकाल सकाम-कर्म के लिये उपयोगी है तथा सायंकाल शान्ति-कर्म के लिये उपयुक्त है — ऐसा जानना चाहिये । इसी प्रकार रात्रि में भी समय का विभाजन किया गया है । रात के चार प्रहरों में से जो बीच के दो प्रहर हैं, उन्हें निशीथकाल कहा गया है । विशेषतः उस काल में की हुई भगवान् शिव की पूजा अभीष्ट फल को देनेवाली होती है — ऐसा जानकर कर्म करनेवाला मनुष्य यथोक्त फल का भागी होता है । विशेषतः कलियुग में कर्म से ही फल की सिद्धि होती है । अपने-अपने अधिकार के अनुसार ऊपर कहे गये किसी भी कर्म के द्वारा शिवाराधन करनेवाला पुरुष यदि सदाचारी है और पाप से डरता है तो वह उन-उन कर्मों का पूरा-पूरा फल अवश्य प्राप्त कर लेता है ॥ ६३-६७ ॥

ऋषय ऊचुः

अथ क्षेत्राणि पुण्यानि समासात्कथयस्व नः

सर्वाः स्त्रियश्च पुरुषा यान्याश्रित्य पदं लभेत् ॥६८

सूत योगिवरश्रेष्ठ शिवक्षेत्रागमांस्तथा॥६९क

ऋषिगण बोले — हे सूतजी ! अब आप हमें पुण्यक्षेत्र बताइये, जिनका आश्रय लेकर सभी स्त्री-पुरुष शिवपद प्राप्त कर लें । हे सूतजी ! हे योगिवरों में श्रेष्ठ ! शिवक्षेत्रों तथा शैवागमों (शिवविषयक शास्त्रों)-का भी वर्णन कीजिये ॥ ६८-६९क ॥

सूत उवाच

शृणुत श्रद्धया सर्वक्षेत्राणि च तदागमान् ॥६९

इति श्रीशिवमहापुराणे विद्येश्वरसंहितायांएकदशोऽध्यायः ११॥

सूतजी बोले — [हे ऋषियो!] सभी क्षेत्रों और आगमों का वर्णन श्रद्धापूर्वक सुनिये ॥ ६९ ॥

॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराण के अन्तर्गत प्रथम विद्येश्वरसंहिता में शिवलिंग की पूजादि का वर्णन नामक ग्यारहवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ११ ॥

* ॐ सद्योजातं प्रपद्यामि सद्योजाताय वै नमो नमः ।

भवे भवे नातिभवे भवस्व मां भवोद्भवाय नमः ॥

ॐ वामदेवाय नमो ज्येष्ठाय नमः श्रेष्ठाय नमो रुद्राय नमः

कालाय नमः कलविकरणाय नमो बलविकरणाय नमो बलाय

नमो बलप्रमथनाय नमः सर्वभूतदमनाय नमो मनोन्मनाय नमः ॥

ॐ अघोरेभ्योऽथ घोरेभ्यो घोरघोरतरेभ्यः ।

सर्वेभ्य: सर्वशर्वेभ्यो नमस्तेऽस्तु रुद्ररूपेभ्यः ॥

ॐ तत्पुरुषाय विद्महे महादेवाय धीमहि ।

तन्नो रुद्रः प्रचोदयात् ॥

ॐ ईशानः सर्वविद्यानामीश्वरः सर्वभूतानां

ब्रह्माधिपतिर्ब्रह्मणोऽधिपतिर्ब्रह्मा शिवो मे अस्तु सदा शिवोम् ॥

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