शिवमहापुराण – प्रथम विद्येश्वरसंहिता – अध्याय 18 || Shiv Mahapuran Vidyeshvar Samhita Adhyay 18

0

इससे पूर्व आपने शिवमहापुराण – विद्येश्वरसंहिता – अध्याय 17 पढ़ा, अब शिवमहापुराण –विद्येश्वरसंहिता – अध्याय 18 अठारहवाँ अध्याय बन्धन और मोक्ष का विवेचन, शिवपूजा का उपदेश, लिंग आदि में शिवपूजन का विधान, भस्म के स्वरूप का निरूपण और महत्त्व, शिव के भस्मधारण का रहस्य, शिव एवं गुरु शब्द की व्युत्पत्ति तथा विघ्नशान्ति के उपाय और शिवधर्म का निरूपण।

शिवमहापुराण – विद्येश्वरसंहिता – अध्याय 18

शिवपुराणम्/ विद्येश्वरसंहिता /अध्यायः १८

शिवपुराणम्‎ | संहिता १ (विश्वेश्वरसंहिता)

ऋषयः ऊचुः

बंधमोक्षस्वरूपं हि ब्रूहि सर्वार्थवित्तम

ऋषिगण बोले — हे सर्वज्ञों में श्रेष्ठ ! बन्धन और मोक्ष का स्वरूप क्या है ? यह हमें बताइये ॥ १/२ ॥

सूत उवाच

बंधमोक्षं तथोपायं वक्ष्येऽहं शृणुतादरात् १

प्रकृत्याद्यष्टबंधेन बद्धो जीवः स उच्यते

प्रकृत्याद्यष्टबंधेन निर्मुक्तो मुक्त उच्यते २

प्रकृत्यादिवशीकारो मोक्ष इत्युच्यते स्वतः

बद्धजीवस्तु निर्मुक्तो मुक्तजीवः स कथ्यते ३

सूतजी बोले — [हे महर्षियो!] मैं बन्धन और मोक्ष का स्वरूप तथा मोक्ष के उपाय का वर्णन करूँगा । आपलोग आदरपूर्वक सुनें । जो प्रकृति आदि आठ बन्धनों से बँधा हुआ है, वह जीव बद्ध कहलाता है और जो उन आठों बन्धनों से छूटा हुआ है, उसे मुक्त कहते हैं । प्रकृति आदि को वश में कर लेना मोक्ष कहलाता है । बन्धन आगन्तुक है और मोक्ष स्वतःसिद्ध है । बद्ध जीव जब बन्धन से मुक्त हो जाता है, तब उसे मुक्त जीव कहते हैं ॥ १-३ ॥

प्रकृत्यग्रे ततो बुद्धिरहंकारो गुणात्मकः

पंचतन्मात्रमित्येते प्रकृत्याद्यष्टकं विदुः ४

प्रकृट्याद्यष्टजो देहो देहजं कर्म उच्यते

पुनश्च कर्मजो देहो जन्मकर्म पुनः पुनः ५

प्रकृति, बुद्धि (महत्तत्त्व), त्रिगुणात्मक अहंकार और पाँच तन्मात्राएँ — इन्हें ज्ञानी पुरुष प्रकृत्याद्यष्टक मानते हैं । प्रकृति आदि आठ तत्त्वों के समूह से देह की उत्पत्ति हुई है । देह से कर्म उत्पन्न होता है और फिर कर्म से नूतन देह की उत्पत्ति होती है । इस प्रकार बारबार जन्म और कर्म होते रहते हैं ॥ ४-५ ॥

शरीरं त्रिविधं ज्ञेयं स्थूलं सूक्ष्मं च कारणम्

स्थूलं व्यापारदं प्रोक्तं सूक्ष्ममिंद्रि यभोगदम् ६

कारणं त्वात्मभोगार्थं जीवकर्मानुरूपतः

सुखं दुःखं पुण्यपापैः कर्मभिः फलमश्नुते ७

तस्माद्धि कर्मरज्ज्वा हि बद्धो जीवः पुनः पुनः

शरीरत्रयकर्मभ्यां चक्रवद्भ्राम्यते सदा ८

शरीर को स्थूल, सूक्ष्म और कारण के भेद से तीन प्रकार का जानना चाहिये । स्थूल शरीर (जाग्रत्-अवस्था में) व्यापार करानेवाला, सूक्ष्म शरीर (जाग्रत् और स्वप्न अवस्थाओं में) इन्द्रिय-भोग प्रदान करनेवाला तथा कारणशरीर (सुषुप्तावस्था में) आत्मानन्द की अनुभूति करानेवाला कहा गया है । जीव को उसके प्रारब्धकर्मानुसार सुख-दुःख प्राप्त होते हैं । वह अपने पुण्यकर्मों के फलस्वरूप सुख और पापकर्मों के फलस्वरूप दुःख प्राप्त करता है । अतः कर्मपाश से बँधा हुआ जीव अपने त्रिविध शरीर से होनेवाले शुभाशुभ कर्मों द्वारा सदा चक्र की भाँति बार-बार घुमाया जाता है ॥ ६-८ ॥

चक्रभ्रमनिवृत्यर्थं चक्रकर्तारमीडयेत्

प्रकृत्यादि महाचक्रं प्रकृतेः परतः शिवः ९

चक्रकर्ता महेशो हि प्रकृतेः परतोयतः

पिबति वाथ वमति जीवन्बालो जलं यथा १०

शिवस्तथा प्रकृत्यादि वशीकृत्याधितिष्ठति

सर्वं वशीकृतं यस्मात्तस्माच्छिव इति स्मृतः

शिव एव हि सर्वज्ञः परिपूर्णश्च निःस्पृहः ११

इस चक्रवत् भ्रमण की निवृत्ति के लिये चक्रकर्ता का स्तवन एवं आराधन करना चाहिये । प्रकृति आदि जो आठ पाश बतलाये गये हैं, उनका समुदाय ही महाचक्र है और जो प्रकृति से परे हैं, वे परमात्मा शिव हैं । भगवान् महेश्वर ही प्रकृति आदि महाचक्र के कर्ता हैं; क्योंकि वे प्रकृति से परे हैं । जैसे बकायन नामक वृक्ष का थाला जल को पीता और उगलता है, उसी प्रकार शिव प्रकृति आदि को अपने वश में करके उस पर शासन करते हैं । उन्होंने सबको वश में कर लिया है, इसीलिये वे शिव कहे गये हैं । शिव ही सर्वज्ञ, परिपूर्ण तथा नि:स्पृह हैं ॥ ९-११ ॥

सर्वज्ञता तृप्तिरनादिबोधः स्वतंत्रता नित्यमलुप्तशक्तिः

अनंतशक्तिश्च महेश्वरस्य यन्मानसैश्वर्यमवैति वेदः १२

अतः शिवप्रसादेन प्रकृत्यादिवशं भवेत्

शिवप्रसादलाभार्थं शिवमेव प्रपूजयेत् १३

सर्वज्ञता, तृप्ति, अनादिबोध, स्वतन्त्रता, नित्य अलुप्त शक्ति आदि से संयुक्त होना और अपने भीतर अनन्त शक्तियों को धारण करना — महेश्वर के इन छः प्रकार के मानसिक ऐश्वर्यों को केवल वेद जानता है । अतः भगवान् शिव के अनुग्रह से ही प्रकृति आदि आठों तत्त्व वश में होते हैं । भगवान् शिव का कृपाप्रसाद प्राप्त करने के लिये उन्हीं का पूजन करना चाहिये ॥ १२-१३ ॥

निःस्पृहस्य च पूर्णस्य तस्य पूजा कथं भवेत्

शिवोद्देशकृतं कर्म प्रसादजनकं भवेत् १४

लिंगे बेरे भक्तजने शिवमुद्दिश्य पूजयेत्

कायेन मनसा वाचा धनेनापि प्रपूजयेत् १५

पुजया तु महेशो हि प्रकृतेः परमः शिवः

प्रसादं कुरुते सत्यं पूजकस्य विशेषतः १६

शिव तो परिपूर्ण हैं, निःस्पृह हैं; उनकी पूजा कैसे हो सकती है ? [इसका उत्तर यह है कि] भगवान् शिव के उद्देश्य से — उनकी प्रसन्नता के लिये किया हुआ सत्कर्म उनके कृपाप्रसाद को प्राप्त करानेवाला होता है । शिवलिंग में, शिव की प्रतिमा में तथा शिवभक्तजनों में शिव की भावना करके उनकी प्रसन्नता के लिये पूजा करनी चाहिये । वह पूजन शरीर से, मन से, वाणी से और धन से भी किया जा सकता है । उस पूजा से प्रकृति से परे महेश्वर पूजक पर विशेष कृपा करते हैं; यह सत्य है ॥ १४-१६ ॥

शिवप्रसादात्कर्माद्यं क्रमेण स्ववशं भवेत्

कर्मारभ्य प्रकृत्यंतं यदासर्वं वशं भवेत् १७

तदामुक्त इति प्रोक्तः स्वात्मारामो विराजते

प्रसादात्परमेशस्य कर्म देहो यदावशः १८

तदा वै शिवलोके तु वासः सालोक्यमुच्यते

सामीप्यं याति सांबस्य तन्मात्रे च वशं गते १९

तदा तु शिवसायुज्यमायुधाद्यैः क्रियादिभिः

महाप्रसादलाभे च बुद्धिश्चापि वशा भवेत् २०

बुद्धिस्तु कार्यं प्रकृतेस्तत्सृष्टिरिति कथ्यते

पुनर्महाप्रसादेन प्रकृतिर्वशमेष्यति २१

शिव की कृपा से कर्म आदि सभी बन्धन अपने वश में हो जाते हैं । कर्म से लेकर प्रकृतिपर्यन्त सब कुछ जब वश में हो जाता है, तब वह जीव मुक्त कहलाता है और स्वात्मारामरूप से विराजमान होता है । परमेश्वर शिव की कृपा से जब कर्मजनित शरीर अपने वश में हो जाता है, तब भगवान् शिव के लोक में निवास प्राप्त होता है; इसी को सालोक्यमुक्ति कहते हैं । जब तन्मात्राएँ वश में हो जाती हैं, तब जीव जगदम्बासहित शिव का सामीप्य प्राप्त कर लेता है । यह सामीप्यमुक्ति है, उसके आयुध आदि और क्रिया आदि सब कुछ भगवान् शिव के समान हो जाते हैं । भगवान् का महाप्रसाद प्राप्त होनेपर बुद्धि भी वश में हो जाती है । बुद्धि प्रकृति का कार्य है । उसका वश में होना साष्टिमुक्ति कही गयी है । पुनः भगवान् का महान् अनुग्रह प्राप्त होने पर प्रकृति वश में हो जायगी ॥ १७-२१ ॥

शिवस्य मानसैश्वर्यं तदाऽयत्नं भविष्यति

सार्वज्ञाद्यं शिवैश्वर्यं लब्ध्वा स्वात्मनि राजते २२

तत्सायुज्यमिति प्राहुर्वेदागमपरायणाः

एवं क्रमेण मुक्तिः स्याल्लिंगादौ पूजया स्वतः २३

अतः शिवप्रसादार्थं क्रियाद्यैः पूजयेच्छिवम्

शिवक्रिया शिवतपः शिवमंत्रजपः सदा २४

शिवज्ञानं शिवध्यानमुत्तरोत्तरमभ्यसेत्

आसुप्तेरामृतेः कालं नयेद्वै शिवचिंतया २५

सद्यादिभिश्च कुसुमैरर्चयेच्छिवमेष्यति

उस समय भगवान् शिव का मानसिक ऐश्वर्य बिना यत्न के ही प्राप्त हो जायगा । सर्वज्ञता आदि जो शिव के ऐश्वर्य हैं, उन्हें पाकर मुक्त पुरुष अपनी आत्मा में ही विराजमान होता है । वेद और शास्त्रों में विश्वास रखनेवाले विद्वान् पुरुष इसी को सायुज्यमुक्ति कहते हैं । इस प्रकार लिंग आदि में शिव की पूजा करने से क्रमशः मुक्ति स्वतः प्राप्त हो जाती है । इसलिये शिव का कृपाप्रसाद प्राप्त करने के लिये तत्सम्बन्धी क्रिया आदि के द्वारा उन्हीं का पूजन करना चाहिये । शिवक्रिया, शिवतप, शिवमन्त्रजप, शिवज्ञान और शिवध्यान के लिये सदा उत्तरोत्तर अभ्यास बढ़ाना चाहिये । प्रतिदिन प्रातःकाल से रात को सोते समय तक और जन्मकाल से लेकर मृत्युपर्यन्त सारा समय भगवान् शिव के चिन्तन में ही बिताना चाहिये । सद्योजातादि मन्त्रों तथा नाना प्रकार के पुष्पों से जो शिव की पूजा करता है, वह शिव को ही प्राप्त होगा ॥ २२-२५१/२ ॥

ऋषय ऊचुः

लिंगादौ शिवपूजाया विधानं ब्रूहि सर्वतः २६

ऋषिगण बोले — हे सुव्रत ! अब आप लिंग आदि में शिवजी की पूजा का विधान बताइये ॥ २६ ॥

सूत उवाच

लिंगानां च क्रमं वक्ष्ये यथावच्छृणुत द्विजाः

तदेव लिंगं प्रथमं प्रणवं सार्वकामिकम् २७

सूक्ष्मप्रणवरूपं हि सूक्ष्मरूपं तु निष्फलम्

स्थूललिंगं हि सकलं तत्पंचाक्षरमुच्यते २८

तयोः पूजा तपः प्रोक्तं साक्षान्मोक्षप्रदे उभे

पौरुषप्रकृतिभूतानि लिंगानिसुबहूनि च २९

तानि विस्तरतो वक्तुं शिवो वेत्ति न चापरः

भूविकाराणि लिंगानि ज्ञातानि प्रब्रवीमि वः ३०

सूतजी बोले — हे द्विजो ! मैं लिंगों के क्रम का यथावत् वर्णन कर रहा हूँ, आप लोग सुनिये । वह प्रणव ही समस्त अभीष्ट वस्तुओं को देनेवाला प्रथम लिंग है । उसे सूक्ष्म प्रणवरूप समझिये । सूक्ष्मलिंग निष्कल होता है और स्थूललिंग सकल । पंचाक्षर मन्त्र को ही स्थूललिंग कहते हैं । उन दोनों प्रकार के लिंगों का पूजन तप कहलाता है । वे दोनों ही लिंग साक्षात् मोक्ष देनेवाले हैं । पौरुषलिंग और प्रकृतिलिंग के रूप में बहुत-से लिंग हैं । उन्हें भगवान् शिव ही विस्तारपूर्वक बता सकते हैं; दूसरा कोई नहीं जानता । पृथ्वी के विकारभूत जो-जो लिंग ज्ञात हैं, उन-उनको मैं आपलोगों को बता रहा हूँ ॥ २७-३० ॥

स्वयं भूलिंगं प्रथमं बिंदुलिंगंद्वितीयकम्

प्रतिष्ठितं चरंचैव गुरुलिंगं तु पंचमम् ३१

देवर्षितपसा तुष्टः सान्निध्यार्थं तु तत्र वै

पृथिव्यन्तर्गतः शर्वो बीजं वै नादरूपतः ३२

स्थावरांकुरवद्भूमिमुद्भिद्य व्यक्त एव सः

स्वयंभूतं जातमिति स्वयंभूरिति तं विदुः ३३

उनमें प्रथम स्वयम्भूलिंग, दूसरा बिन्दुलिंग, तीसरा प्रतिष्ठित लिंग, चौथा चरलिंग और पाँचवाँ गुरुलिंग है । देवर्षियों की तपस्या से सन्तुष्ट होकर उनके समीप प्रकट होने के लिये पृथ्वी के अन्तर्गत बीजरूप से व्याप्त हुए भगवान् शिव वृक्षों के अंकुर की भाँति भूमि को भेदकर नादलिंग रूप में व्याप्त हो जाते हैं । वे स्वतः व्यक्त हुए शिव ही स्वयं प्रकट होने के कारण स्वयम्भू नाम धारण करते हैं । ज्ञानीजन उन्हें स्वयम्भूलिंग के रूप में जानते हैं ॥ ३१-३३ ॥

तल्लिंगपूजया ज्ञानं स्वयमेव प्रवर्द्धते

सुवर्णरजतादौ वा पृथिव्यां स्थिंडिलेपि वा ३४

स्वहस्ताल्लिखितं लिंगं शुद्धप्रणवमंत्रकम्

यंत्रलिंगं समालिख्य प्रतिष्ठावाहनं चरेत् ३५

बिंदुनादमयं लिंगं स्थावरं जंगमं च यत्

भावनामयमेतद्धि शिवदृष्टं न संशयः ३६

यत्र विश्वस्य ते शंभुस्तत्र तस्मै फलप्रदः

स्वहस्ताल्लिख्यते यंत्रे स्थावरादावकृत्रिमे ३७

आवाह्य पूजयेच्छंभुं षोडशैरुपचारकैः

स्वयमैश्वर्यमाप्नोति ज्ञानमभ्यासतो भवेत् ३८

उस स्वयम्भूलिंग की पूजा से उपासक का ज्ञान स्वयं ही बढ़ने लगता है । सोने-चाँदी आदि के पत्र पर, भूमि पर अथवा वेदी पर अपने हाथ से लिखित जो शुद्ध प्रणव मन्त्ररूप लिंग है, उसमें तथा यन्त्रलिंग का आलेखन करके उसमें भगवान् शिव की प्रतिष्ठा और आवाहन करे । ऐसा बिन्दुनादमय लिंग स्थावर और जंगम दोनों ही प्रकार का होता है । इसमें शिव का दर्शन भावनामय ही है; इसमें सन्देह नहीं है । जिसको जहाँ भगवान् शंकर के प्रकट होने का विश्वास हो, उसके लिये वहीं प्रकट होकर वे अभीष्ट फल प्रदान करते हैं । अपने हाथ से लिखे हुए यन्त्र में अथवा अकृत्रिम स्थावर आदि में भगवान् शिव का आवाहन करके सोलह उपचारों से उनकी पूजा करे । ऐसा करने से साधक स्वयं ही ऐश्वर्य को प्राप्त कर लेता है और इस साधन के अभ्यास से उसको ज्ञान भी प्राप्त हो जाता है ॥ ३४-३८ ॥

देवैश्च ऋषिभिश्चापि स्वात्मसिद्ध्यर्थमेव हि

समंत्रेणात्महस्तेन कृतं यच्छुद्धमंडले ३९

शुद्धभावनया चैव स्थापितं लिंगमुत्तमम्

तल्लिंगं पौरुषं प्राहुस्तत्प्रतिष्ठितमुच्यते ४०

तल्लिंगपूजया नित्यं पौरुषैश्वर्यमाप्नुयात्

महद्भिर्ब्राह्मणैश्चापि राजभिश्च महाधनैः ४१

शिल्पिनाकल्पितं लिंगं मंत्रेण स्थापितं च यत्

प्रतिष्ठितं प्राकृतं हि प्राकृतैश्वर्यभोगदम् ४२

यदूर्जितं च नित्यं च तद्धि पौरुषमुच्यते

यद्दुर्बलमनित्यं च तद्धि प्राकृतमुच्यते ४३

देवताओं और ऋषियों ने आत्मसिद्धि के लिये अपने हाथ से वैदिक मन्त्रों के उच्चारणपूर्वक शुद्ध मण्डल में शुद्ध भावना द्वारा जिस उत्तम शिवलिंग की स्थापना की है, उसे पौरुषलिंग कहते हैं तथा वही प्रतिष्ठित लिंग कहलाता है । उस लिंग की पूजा करने से सदा पौरुष ऐश्वर्य की प्राप्ति होती है । महान् ब्राह्मणों और महाधनी राजाओं द्वारा किसी शिल्पी से शिवलिंग का निर्माण कराकर मन्त्रपूर्वक जिस लिंग की स्थापना तथा प्रतिष्ठा की गयी हो, वह प्राकृतलिंग है, वह [शिवलिंग] प्राकृत ऐश्वर्य-भोग को देनेवाला होता है । जो शक्तिशाली और नित्य होता है, उसे पौरुषलिंग कहते हैं और जो दुर्बल तथा अनित्य होता है, वह प्राकृतलिंग कहलाता है ॥ ३९-४३ ॥

लिंगं नाभिस्तथा जिह्वा नासाग्रञ्च शिखा क्रमात्

कट्यादिषु त्रिलोकेषु लिंगमाध्यात्मिकं चरम् ४४

पर्वतं पौरुषं प्रोक्तं भूतलं प्राकृतं विदुः

वृक्षादि पौरुषं ज्ञेयं गुल्मादि प्राकृतं विदुः ४५

षाष्टिकं प्राकृतं ज्ञेयं शालिगोधूमपौरुषम्

ऐश्वर्यं पौरुषं विद्यादणिमाद्यष्टसिद्धिदम् ४६

सुस्त्रीधनादिविषयं प्राकृतं प्राहुरास्तिकाः

लिंग, नाभि, जिह्वा, नासिका का अग्र भाग और शिखा के क्रम से कटि, हृदय और मस्तक तीनों स्थानों में जो लिंग की भावना की गयी है, उस आध्यात्मिक लिंग को ही चरलिंग कहते हैं । पर्वत को पौरुषलिंग बताया गया है और भूतल को विद्वान् पुरुष प्राकृतलिंग मानते हैं । वृक्ष आदि को पौरुषलिंग जानना चाहिये । गुल्म आदि को प्राकृतलिंग कहा गया है । साठी नामक धान्य को प्राकृतलिंग समझना चाहिये और शालि (अगहनी) एवं गेहूँ को पौरुषलिंग । अणिमा आदि आठों सिद्धियों को देनेवाला जो ऐश्वर्य है, उसे पौरुष ऐश्वर्य जानना चाहिये । सुन्दर स्त्री तथा धन आदि विषयों को आस्तिक पुरुष प्राकृत ऐश्वर्य कहते हैं ॥ ४४-४६१/२ ॥

प्रथमं चरलिंगेषु रसलिंगं प्रकथ्यते ४७

रसलिंगं ब्राह्मणानां सर्वाभीष्टप्रदं भवेत्

बाणलिंगं क्षत्रियाणां महाराज्यप्रदं शुभम् ४८

स्वर्णलिंगं तु वैश्यानां महाधनपतित्वदम्

शिलालिंगं तु शूद्रा णां महाशुद्धिकरं शुभम् ४९

स्फाटिकं बाणलिंगं च सर्वेषांसर्वकामदम्

स्वीयाभावेऽन्यदीयं तु पूजायां न निषिद्ध्यते ५०

स्त्रीणां तु पार्थिवं लिंगं सभर्तृणां विशेषतः

विधवानां प्रवृत्तानां स्फाटिकं परिकीर्तितम् ५१

विधवानां निवृत्तानां रसलिंगं विशिष्यते

बाल्येवायौवनेवापि वार्द्धकेवापि सुव्रताः ५२

शुद्धस्फटिकलिंगं तु स्त्रीणां तत्सर्वभोगदम्

प्रवृत्तानां पीठपूजा सर्वाभीष्टप्रदा भुवि ५३

चरलिंगों में सबसे प्रथम रसलिंग का वर्णन किया जाता है । रसलिंग ब्राह्मणों को उनकी सारी अभीष्ट वस्तुओं को देनेवाला है । शुभकारक बाणलिंग क्षत्रियों को महान् राज्य की प्राप्ति करानेवाला है । सुवर्णलिंग वैश्यों को महाधनपति का पद प्रदान करानेवाला है तथा सुन्दर शिलालिंग शूद्रों को महाशुद्धि देनेवाला है । स्फटिकलिंग तथा बाणलिंग सब लोगों को उनकी समस्त कामनाएँ प्रदान करते हैं । अपना न हो तो दूसरे का स्फटिक या बाणलिंग भी पूजा के लिये निषिद्ध नहीं है । स्त्रियों, विशेषत: सधवाओं के लिये पार्थिवलिंग की पूजा का विधान है । प्रवृत्तिमार्ग में स्थित विधवाओं के लिये स्फटिकलिंग की पूजा बतायी गयी है । परंतु विरक्त विधवाओं के लिये रसलिंग की पूजा को ही श्रेष्ठ कहा गया है । हे सुव्रतो ! बचपन में, युवावस्था में और बुढ़ापे में भी शुद्ध स्फटिकमय शिवलिंग का पूजन स्त्रियों को समस्त भोग प्रदान करनेवाला है । गृहासक्त स्त्रियों के लिये पीठपूजा भूतल पर सम्पूर्ण अभीष्ट को देनेवाली है ॥ ४७–५३ ॥

पात्रेणैव प्रवृत्तस्तु सर्वपूजां समाचरेत्

अभिषेकांते नैवेद्यं शाल्यन्नेन समाचरेत् ५४

पूजांते स्थापयेल्लिंगं संपुटेषु पृथग्गृहे

करपूजानि वृत्तानां स्वभोज्यं तु निवेदयेत् ५५

निवृत्तानां परं सूक्ष्मलिंगमेव विशिष्यते

विभूत्यभ्यर्चनं कुर्याद्विभूतिं च निवेदयेत् ५६

पूजां कृत्वाथ तल्लिंगं शिरसा धारयेत्सदा

प्रवृत्तिमार्ग में चलनेवाला पुरुष सुपात्र गुरु के सहयोग से ही समस्त पूजाकर्म सम्पन्न करे । इष्टदेव का अभिषेक करने के पश्चात् अगहनी के चावल से बने हुए [खीर आदि पक्वान्नों द्वारा] नैवेद्य अर्पण करे । पूजा के अन्त में शिवलिंग को पधराकर घर के भीतर पृथक् सम्पुट में स्थापित करे । जो निवृत्तिमार्गी पुरुष हैं, उनके लिये हाथ पर ही शिवलिंगपूजा का विधान है । उन्हें भिक्षादि से प्राप्त हुए अपने भोजन को ही नैवेद्यरूप में निवेदित करना चाहिये । निवृत्त पुरुषों के लिये सूक्ष्मलिंग ही श्रेष्ठ बताया जाता है । वे विभूति के द्वारा पूजन करें और विभूति को ही नैवेद्यरूप से निवेदित भी करें । पूजा करके उस लिंग को सदा अपने मस्तक पर धारण करें ॥ ५४-५६१/२ ॥

विभूतिस्त्रिविधा प्रोक्ता लोकवेदशिवाग्निभिः ५७

लोकाग्निजमथो भस्मद्र व्यशुद्ध्यर्थमावहेत्

मृद्दारुलोहरूपाणां धान्यानां च तथैव च ५८

तिलादीनां च द्र व्याणां वस्त्रादीनां तथैव च

तथा पर्युषितानां च भस्मना शिद्धिरिष्यते ५९

श्वादिभिर्दूषितानां च भस्मना शुद्धिरिष्यते

सजलं निर्जलं भस्म यथायोग्यं तु योजयेत् ६०

विभूति तीन प्रकार की बतायी गयी है लोकाग्नि-जनित, वेदाग्नि-जनित और शिवाग्नि-जनित । लोकाग्नि-जनित या लौकिक भस्म को द्रव्यों की शुद्धि के लिये लाकर रखे । मिट्टी, लकड़ी और लोहे के पात्रों की, धान्यों की, तिल आदि द्रव्यों की, वस्त्र आदि की तथा पर्युषित वस्तुओं की शुद्धि भस्म से होती है । कुत्ते आदि से दूषित हुए पात्रों की भी शुद्धि भस्म से ही मानी गयी है । वस्तु-विशेष की शुद्धि के लिये यथायोग्य सजल अथवा निर्जल भस्म का उपयोग करना चाहिये ॥ ५७-६० ॥

वेदाग्निजं तथा भस्म तत्कर्मांतेषु धारयेत्

मंत्रेण क्रियया जन्यं कर्माग्नौ भस्मरूपधृक् ६१

तद्भस्मधारणात्कर्म स्वात्मन्यारोपितं भवेत्

अघोरेणात्ममंत्रेण बिल्वकाष्ठं प्रदाहयेत् ६२

शिवाग्निरिति संप्रोक्तस्तेन दग्धं शिवाग्निजम्

कपिलागोमयं पूर्वं केवलं गव्यमेव वा ६३

शम्यस्वत्थपलाशान्वा वटारम्वधबिल्वकान्

शिवाग्निना दहेच्छुद्धं तद्वै भस्म शिवाग्निजम् ६४

दर्भाग्नौ वा दहेत्काष्ठं शिवमंत्रं समुच्चरन्

सम्यक्संशोध्य वस्त्रेण नवकुंभे निधापयेत् ६५

दीप्त्यर्थं तत्तु संग्राह्यं मन्यते पूज्यतेपि च

वेदाग्नि-जनित जो भस्म है, उसको उन-उन वैदिक कर्मों के अन्त में धारण करना चाहिये । मन्त्र और क्रिया से जनित जो होमकर्म है, वह अग्नि में भस्म का रूप धारण करता है । उस भस्म को धारण करने से वह कर्म आत्मा में आरोपित हो जाता है । अघोर-मूर्तिधारी शिव का जो अपना मन्त्र है, उसे पढ़कर बेल की लकड़ी को जलाये । उस मन्त्र से अभिमन्त्रित अग्नि को शिवाग्नि कहा गया है । उसके द्वारा जले हुए काष्ठ का जो भस्म है, वह शिवाग्नि-जनित है । कपिला गाय के गोबर अथवा गाय मात्र के गोबर को तथा शमी, पीपल, पलाश, वट, अमलतास और बिल्व —इनकी लकड़ियों को शिवाग्नि से जलाये । वह शुद्ध भस्म शिवाग्नि-जनित माना गया है अथवा कुश की अग्नि में शिवमन्त्र के उच्चारणपूर्वक काष्ठ को जलाये । फिर उस भस्म को कपड़े से अच्छी तरह छानकर नये घड़े में भरकर रख दे । उसे समय-समय पर अपनी कान्ति या शोभा की वृद्धि के लिये धारण करे । ऐसा करनेवाला पुरुष सम्मानित एवं पूजित होता है ॥ ६१-६५१/२ ॥

भस्मशब्दार्थ एवं हि शिवः पूर्वं तथाऽकरोत् ६६

यथा स्वविषये राजा सारं गृह्णाति यत्करम्

यथा मनुष्याः सस्यादीन्दग्ध्वा सारं भजंति वै ६७

यथा हि जाठराग्निश्च भक्ष्यादीन्विविधान्बहून्

दग्ध्वा सारतरं सारात्स्वदेहं परिपुष्यति ६८

तथा प्रपंचकर्तापि स शिवः परमेश्वरः

स्वाधिष्ठेयप्रपंचस्य दग्ध्वा सारं गृहीतवान् ६९

दग्ध्वा प्रपंचं तद्भस्म् अस्वात्मन्यारोपयच्छिवः

उद्धूलनेन व्याजेन जगत्सारं गृहीतवान् ७०

पूर्वकाल में भगवान् शिव ने भस्म शब्द का ऐसा ही अर्थ प्रकट किया था । जैसे राजा अपने राज्य में सारभूत कर को ग्रहण करता है, जैसे मनुष्य सस्य आदि को जलाकर (पकाकर) उसका सार ग्रहण करते हैं तथा जैसे जठरानल नाना प्रकार के भक्ष्य, भोज्य आदि पदार्थों को भारी मात्रा में ग्रहण करके उसे जलाकर सारतर वस्तु ग्रहण करता और उस सारतर वस्तु से स्वदेह का पोषण करता है, उसी प्रकार प्रपंचकर्ता परमेश्वर शिव ने भी अपने में आधेय रूप से विद्यमान प्रपंच को जलाकर भस्मरूप से उसके सारतत्त्व को ग्रहण किया है । प्रपंच को दग्ध करके शिव ने उसके भस्म को अपने शरीर में लगाया है । उन्होंने विभूति (भस्म) पोतने के बहाने जगत् के सार को ही ग्रहण किया है ॥ ६६-७० ॥

स्वरत्नं स्थापयामास स्वकीये हि शरीरके

केशमाकाशसारेण वायुसारेण वै मुखम् ७१

हृदयं चाग्निसारेण त्वपां सारेण वैकटिम्

जानु चावनिसारेण तद्वत्सर्वं तदंगकम् ७२

शिव ने अपने शरीर में अपने लिये रत्नस्वरूप भस्म को इस प्रकार स्थापित किया है — आकाश के सारतत्त्व से केश, वायु के सारतत्त्व से मुख, अग्नि के सारतत्त्व से हृदय, जल के सारतत्त्व से कटिभाग और पृथ्वी के सारतत्त्व से घुटने को धारण किया है । इसी तरह उनके सारे अंग विभिन्न वस्तुओं के साररूप हैं ॥ ७१-७२ ॥

ब्रह्मविष्ण्वोश्च रुद्रा णां सारं चैव त्रिपुंड्रकम्

तथा तिलकरूपेण ललाटान्ते महेश्वरः ७३

भवृद्ध्या सर्वमेतद्धि मन्यते स्वयमैत्यसौ

प्रपंचसारसर्वस्वमनेनैव वशीकृतम् ७४

तस्मादस्य वशीकर्ता नास्तीति स शिवः स्मृतः

यथा सर्वमृगाणां च हिंसको मृगहिंसकः ७५

अस्य हिंसामृगो नास्ति तस्मात्सिंह इतीरितः

महेश्वर ने अपने ललाट के मध्य में तिलकरूप से जो त्रिपुण्ड्र धारण किया है, वह ब्रह्मा, विष्णु और रुद्र का सारतत्त्व है । वे इन सब वस्तुओं को जगत् के अभ्युदय का हेतु मानते हैं । इन भगवान् शिव ने ही प्रपंच के सार-सर्वस्व को अपने वश में किया है । अतः इन्हें अपने वश में करनेवाला दूसरा कोई नहीं है, इसीलिये वे शिव कहे जाते हैं । जैसे समस्त मृगों का हिंसक मृग (पशु) सिंह कहलाता है और उसकी हिंसा करनेवाला दूसरा कोई मृग नहीं है, अतएव उसे सिंह कहा गया है ॥ ७३-७५१/२ ॥

शं नित्यं सुखमानंदमिकारः पुरुषः स्मृतः ७६

वकारः शक्तिरमृतं मेलनं शिव उच्यते

तस्मादेवं स्वमात्मानं शिवं कृत्वार्चयेच्छिवम् ७७

तस्मादुद्धूलनं पूर्वं त्रिपुंड्रं धारयेत्परम्

पूजाकाले हि सजलं शुद्ध्यर्थं निर्जलं भवेत् ७८

श-कार का अर्थ है नित्यसुख एवं आनन्द । इ-कार को पुरुष और व-कार को अमृतस्वरूपा शक्ति कहा गया है । इन सबका सम्मिलित रूप ही शिव कहलाता है । अतः इस रूप में भगवान् शिव को अपनी आत्मा मानकर उनकी पूजा करनी चाहिये । [साधक] पहले अपने अंगों में भस्म लगाये, फिर ललाट में उत्तम त्रिपुण्ड्र धारण करे । पूजाकाल में सजल भस्म का उपयोग होता है और द्रव्यशुद्धि के लिये निर्जल भस्म का ॥ ७६-७८ ॥

दिवा वा यदि वारात्रौ नारी वाथ नरोपि वा

पूजार्थं सजलं भस्म त्रिपुंड्रेणैव धारयेत् ७९

त्रिपुंड्रं सजलं भस्म धृत्वा पूजां करोति यः

शिवपूजां फलं सांगं तस्यैव हि सुनिश्चितम् ८०

भस्म वै शिवमंत्रेण धृत्वा ह्यत्याश्रमी भवेत्

शिवाश्रमीति संप्रोक्तः शिवैकपरमो यतः ८१

शिवव्रतैकनिष्ठस्य नाशौचं न च सूतकम्

ललाटेऽग्रे सितं भस्म तिलकं धारयेन्मृदा ८२

स्वहस्ताद्गुरुहस्ताद्वाशिवभक्तस्य लक्षणम्

दिन हो अथवा रात्रि, नारी हो या पुरुष, पूजा करने के लिये उसे भस्म जलसहित ही त्रिपुण्ड्ररूप में (ललाटपर) धारण करना चाहिये । जलमिश्रित भस्म को त्रिपुण्ड्ररूप में धारणकर जो व्यक्ति शिव की पूजा करता है, उसे सांग शिव की पूजा का फल तुरंत प्राप्त होता है, यह सुनिश्चित है । जो (प्राणी) शिवमन्त्र के द्वारा भस्म को धारण करता है, वह सभी (ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ तथा संन्यास) आश्रमों में श्रेष्ठ होता है । उसे शिवाश्रमी कहा जाता है; क्योंकि वह एकमात्र शिव को ही परम श्रेष्ठ मानता है । शिव-व्रत में एकमात्र शिव में ही निष्ठा रखनेवाले को न तो अशौच का दोष लगता है और न तो सूतक का । ललाट के अग्रभाग में अपने हाथ से या गुरु के हाथ से श्वेत भस्म या मिट्टी से तिलक लगाना चाहिये, यह शिवभक्त का लक्षण है ॥ ७९-८२१/२ ॥

गुणान्रुंध इति प्रोक्तो गुरुशब्दस्य विग्रहः ८३

सविकारान्राजसादीन्गुणान्रुंधे व्यपोहति

गुणातीतः परशिवो गुरुरूपं समाश्रितः ८४

गुणत्रयं व्यपोह्याग्रे शिवं बोधयतीति सः

विश्वस्तानां तु शिष्याणां गुरुरित्यभिधीयते ८५

जो गुणों का रोध करता है, वह गुरु है — यह ‘गुरु’ शब्द का विग्रह कहा गया है । गुणातीत परम शिव राजस आदि सविकार गुणों का अवरोध करते हैं — दूर हटाते हैं, इसलिये वे सबके गुरुरूप का आश्रय लेकर स्थित हैं । गुरु विश्वासी शिष्यों के तीनों गुणों को पहले दूर करके उन्हें शिवतत्त्व का बोध कराते हैं, इसीलिये गुरु कहलाते हैं ॥ ८३-८५ ॥

तस्माद्गुरुशरीरं तु गुरुलिंगं भवेद्बुधः

गुरुलिंगस्य पूजा तु गुरुशुश्रूषणं भवेत् ८६

श्रुतं करोति शुश्रूषा कायेन मनसा गिरा

उक्तं यद्गुरुणा पूर्वं शक्यं वाऽशक्यमेव वा ८७

करोत्येव हि पूतात्मा प्राणैरपि धनैरपि

तस्माद्वै शासने योग्यः शिष्य इत्यभिधीयते ८८

अतः बुद्धिमान् शिष्य को उन गुरु के शरीर को गुरुलिंग समझना चाहिये । गुरुजी की सेवा-शुश्रूषा ही गुरुलिंग की पूजा होती है । शरीर, मन और वाणी से की गयी गुरुसेवा से शास्त्रज्ञान प्राप्त होता है । अपनी शक्ति से शक्य अथवा अशक्य जिस बात का भी आदेश गुरु ने दिया हो, उसका पालन प्राण और धन लगाकर पवित्रात्मा शिष्य करता है, इसीलिये इस प्रकार अनुशासित रहनेवाले को शिष्य कहा जाता है ॥ ८६-८८ ॥

शरीराद्यर्थकं सर्वं गुरोर्दत्त्वा सुशिष्यकः

अग्रपाकं निवेद्याग्रेभुंजीयाद्गुर्वनुज्ञया ८९

शिष्यः पुत्र इति प्रोक्तः सदाशिष्यत्वयोगतः

जिह्वालिंगान्मंत्रशुक्रं कर्णयोनौ निषिच्यवै ९०

जातः पुत्रो मंत्रपुत्रः पितरं पूजयेद्गुरुम्

निमज्जयति पुत्रं वै संसारे जनकः पिता ९१

संतारयति संसाराद्गुरुर्वै बोधकः पिता

उभयोरंतरं ज्ञात्वा पितरं गुरुमर्चयेत् ९२

अंगशुश्रूषया चापि धनाद्यैः स्वार्जितैर्गुरुम्

पादादिकेशपर्यंतं लिंगान्यंगानि यद्गुरोः ९३

धनरूपैः पादुकाद्यैः पादसंग्रणादिभिः

स्नानाभिषेकनैवेद्यैर्भोजनैश्च प्रपूजयेत् ९४

सुशील शिष्य को शरीर-धारण के सभी साधन गुरु को अर्पित करके तथा अन्न का पहला पाक उन्हें समर्पित करके उनकी आज्ञा लेकर भोजन करना चाहिये । शिष्य को निरन्तर गुरु के सान्निध्य के कारण पुत्र कहा जाता है । जिह्वारूप लिंग से मन्त्ररूपी शुक्र का कानरूपी योनि में आधान करके जो पुत्र उत्पन्न होता है, उसे मन्त्रपुत्र कहते हैं । उसे अपने पितास्वरूप गुरु की सेवा करनी ही चाहिये । शरीर को उत्पन्न करनेवाला पिता तो संसारप्रपंच में पुत्र को डुबोता है । ज्ञान देनेवाला गुरुरूप पिता संसारसागर से पार कर देता है । इन दोनों पिताओं के अन्तर को जानकर गुरुरूप पिता की अपने कमाये धन से तथा अपने शरीर से विशेष सेवा-पूजा करनी चाहिये । पैर से केशपर्यन्त जो गुरु के शरीर के अंग हैं, उनकी भिन्न-भिन्न प्रकार से यथा-स्वयं अर्जित धन के द्वारा उपयोग की सामग्री प्राप्त कराकर, अपने हाथों से पैर दबाकर, स्नान-अभिषेक आदि कराकर तथा नैवेद्य-भोजनादि देकर पूजा करनी चाहिये ॥ ८९-९४ ॥

गुरुपूजैव पूजा स्याच्छिवस्य परमात्मनः

गुरुशेषं तु यत्सर्वमात्मशुद्धिकरं भवेत् ९५

गुरु की पूजा ही परमात्मा शिव की पूजा है । गुरु के उपयोग से बचा हुआ सारा पदार्थ आत्मशुद्धि करनेवाला होता है ॥ ९५ ॥

गुरोः शेषः शिवोच्छिष्टं जलमन्नादिनिर्मितम्

शिष्याणां शिवभक्तानां ग्राह्यं भोज्यं भवेद्द्विजाः ९६

गुर्वनुज्ञाविरहितं चोरवत्सकलं भवेत्

गुरोरपि विशेषज्ञं यत्नाद्गृह्णीत वै गुरुम् ९७

अज्ञानमोचनं साध्यं विशेषज्ञो हि मोचकः

हे द्विजो ! गुरु का शेष, जल तथा अन्न आदि से बना हुआ शिवोच्छिष्ट शिवभक्तों और शिष्यों के लिये ग्राह्य तथा भोज्य है । गुरु की आज्ञा के बिना उपयोग में लाया हुआ सब कुछ वैसा ही है, जैसे चोर चोरी करके लायी हुई वस्तु का उपयोग करता है । गुरु से भी विशेष ज्ञानवान् पुरुष मिल जाय, तो उसे भी यत्नपूर्वक गुरु बना लेना चाहिये । अज्ञानरूपी बन्धन से छूटना ही जीवमात्र के लिये साध्य पुरुषार्थ है । अतः जो विशेष ज्ञानवान् है, वही जीव को उस बन्धन से छुड़ा सकता है ॥ ९६-९७१/२ ॥

आदौ च विघ्नशमनं कर्तव्यं कर्म पूर्तये ९८

निर्विघ्नेन कृतं सांगं कर्म वै सफलं भवेत्

तस्मात्सकलकर्मादौ विघ्नेशं पूजयेद् बुधः ९९

सर्वबाधानिवृत्त्यर्थं सर्वान्देवान्यजेद्बुधः

कर्म की सांगोपांग पूर्ति के लिये पहले विघ्नशान्ति करनी चाहिये । निर्विघ्नतापूर्वक तथा सांग सम्पन्न हुआ कार्य ही सफल होता है । इसलिये सभी कर्मों के प्रारम्भ में बुद्धिमान् व्यक्ति को विघ्नविनाशक गणपति का पूजन करना चाहिये । सभी बाधाओं को दूर करने के लिये विद्वान् व्यक्ति को सभी देवताओं की पूजा करनी चाहिये ॥ ९८-९९१/२ ॥

ज्वरादिग्रंथिरोगाश्च बाधा ह्याध्यात्मिका मता १००

पिशाचजंबुकादीनां वल्मीकाद्युद्भवे तथा

अकस्मादेव गोधादिजंतूनां पतनेपि च १०१

गृहे कच्छपसर्पस्त्रीदुर्जनादर्शनेपि च

वृक्षनारीगवादीनां प्रसूतिविषयेपि च १०२

भाविदुःखं समायाति तस्मात्ते भौतिका मता

अमेध्या शनिपातश्च महामारी तथैव च १०३

ज्वरमारी विषूचिश्च गोमारी च मसूरिका

जन्मर्क्षग्रहसंक्रांतिग्रहयोगाः स्वराशिके १०४

दुःस्वप्नदर्शनाद्याश्च मता वै ह्यधिदैविकाः

ज्वर आदि ग्रन्थिरोग आध्यात्मिक बाधा कही जाती है । पिशाच और सियार आदि का दीखना, बाँबी का जमीन पर उठ आना, अकस्मात् छिपकली आदि जन्तुओं का गिरना, घर में कच्छप, साँप, दुष्ट स्त्री का दीखना, वृक्ष, नारी और गौ आदि की प्रसूति का दर्शन होना आगामी दुःख का संकेत होता है । अतः यह आधिभौतिक बाधा मानी जाती है । किसी अपवित्र वस्तु का गिरना, बिजली गिरना, महामारी, ज्वरमारी, हैजा, गोमारी, मसूरि का (एक प्रकार का शीतला रोग), जन्मनक्षत्र पर ग्रहण, संक्रान्ति, अपनी राशि में अनेक ग्रहों का योग होना तथा दुःस्वप्नदर्शन आदि आधिदैविक बाधा कही जाती है ॥ १००-१०४१/२ ॥

शवचांडालपतितस्पर्शाद्येंतर्गृहे गते १०५

एतादृशे समुत्पन्ने भाविदुःखस्य सूचके

शांतियज्ञं तु मतिमान्कुर्यात्तद्दोषशांतये १०६

देवालयेऽथ गोष्ठे वा चैत्ये वापि गृहांगणे

प्रादेशोन्नतधिष्ण्ये वै द्विहस्ते च स्वलंकृते १०७

भारमात्रव्रीहिधान्यं प्रस्थाप्य परिसृत्य च

मध्ये विलिख्यकमलं तथा दिक्षुविलिख्य वै १०८

तंतुना वेष्टितं कुंभं नवगुग्गुलधूपितम्

मध्ये स्थाप्य महाकुंभं तथा दिक्ष्वपि विन्यसेत् १०९

शव, चाण्डाल और पतित का स्पर्श अथवा इनका घर के भीतर आना भावी दुःख का सूचक होता है । बुद्धिमान् व्यक्ति को चाहिये कि उस दोष की शान्ति के लिये शान्तियज्ञ करे । किसी मन्दिर, गोशाला, यज्ञशाला अथवा घर के आँगन में जहाँ दो हाथ पर ऊँची जमीन हो, उसे अच्छी तरह साफ करके उसपर एक भार धान रखकर उसे फैला दे । उसके बीच में कमल बनाये तथा कोणसहित आठों दिशाओं में भी कमल बना दे । फिर प्रधान कलश में सूत्र बाँधकर तथा गुग्गुल की धूप दिखाकर उसे बीच में तथा दिशाओं में बनाये गये कमलों पर अन्य आठ कलश स्थापित कर दे ॥ १०५-१०९ ॥

सनालाम्रककूर्चादीन्कलशांश्च तथाष्टसु

पूरयेन्मंत्रपूतेन पंचद्र व्ययुतेन हि ११०

प्रक्षिपेन्नव रत्नानि नीलादीन्क्रमशस्तथा

कर्मज्ञं च सपत्नीकमाचार्यं वरयेद्बुधः १११

सुवर्णप्रतिमां विष्णोरिंद्रा दीनां च निक्षिपेत्

सशिरस्के मध्यकुंभे विष्णुमाबाह्य पूजयेत् ११२

प्रागादिषु यथामंत्रमिंद्रा दीन्क्रमशो यजेत्

तत्तन्नाम्ना चतुर्थ्यां च नमोन्ते न यथाक्रमम् ११३

आठ कलशों में कमल, आम्रपल्लव, कुशा डालकर [गन्ध आदि] पंचद्रव्यों से युक्त मन्त्रपूत जल से उन्हें भरे । उन समस्त कलशों में नीलम आदि नवरत्नों को क्रमशः डालना चाहिये । तत्पश्चात् बुद्धिमान् यजमान कर्मकाण्ड को जाननेवाले सपत्नीक आचार्य का वरण करे । भगवान् विष्णु की स्वर्णप्रतिमा तथा इन्द्रादि देवताओं की भी प्रतिमाएँ बनाकर उन कलशों में छोड़े । पूर्णपात्र से ढके मध्यकलश पर भगवान् विष्णु का आवाहन करके उनकी पूजा करे । पूर्व दिशा से प्रारम्भ करके सभी दिशाओं में मन्त्रानुसार इन्द्रादि का क्रमशः पूजन करना चाहिये । उनके नामों में चतुर्थी विभक्तिसहित नमः का प्रयोग करते हुए उनका पूजन करना चाहिये ॥ ११०-११३ ॥

आवाहनादिकं सर्वमाचार्येणैव कारयेत्

आचार्य ऋत्विजा सार्धं तन्मात्रान्प्रजपेच्छतम् ११४

कुंभस्य पश्चिमे भागे जपांते होममाचरेत्

कोटिं लक्षं सहस्रं वा शतमष्टोत्तरं बुधाः ११५

एकाहं वा नवाहं वा तथा मंडलमेव वा

यथायोग्यं प्रकुर्वीत कालदेशानुसारतः ११६

आवाहनादि सारे कार्य आचार्य द्वारा सम्पन्न कराये तथा आचार्य और ऋत्विजों सहित उन देवताओं के मन्त्रों को सौ-सौ बार जपे । कलशों की पश्चिम दिशा में जप के बाद होम करना चाहिये । हे विद्वज्जनो ! वह जपहोम करोड, लाख, हजार अथवा १०८ की संख्या में हो सकता है । इस विधि से एक दिन, नौ दिन अथवा चालीस दिनों में देश-काल की व्यवस्था के अनुसार [शान्तियज्ञ] यथोचित रूप में सम्पन्न करे ॥ ११४-११६ ॥

शमीहोमश्च शांत्यर्थे वृत्त्यर्थे च पलाशकम्

समिदन्नाज्यकैर्द्र व्यैर्नाम्ना मंत्रेण वा हुनेत् ११७

प्रारंभे यत्कृतं द्र व्यं तत्क्रियांतं समाचरेत्

पुण्याहं वाचयित्वांते दिने संप्रोक्ष्ययेज्जलैः ११८

ब्राह्मणान्भोजयेत्पश्चाद्यावदाहुतिसंख्यया

आचार्यश्च हविष्याशीऋत्विजश्च भवेद्बुधाः ११९

शान्ति के लिये शमी तथा वृत्ति (रोजगार)-के लिये पलाश की समिधा से, अन्न, घृत तथा [सुगन्धित] द्रव्यों से उन देवताओं के नाम अथवा मन्त्रों से हवन करना चाहिये । प्रारम्भ में जिस द्रव्य का उपयोग किया हो, अन्त तक उसी का प्रयोग करते रहना चाहिये । अन्तिम दिन पुण्याहवाचन कराकर कलशों के जल से प्रोक्षण करना चाहिये । तत्पश्चात् आहुति की संख्या के बराबर ब्राह्मणों को भोजन कराये । हे विद्वानो ! आचार्य और ऋत्विजों को हविष्य का भोजन कराना चाहिये ॥ ११७-११९ ॥

आदित्यादीन्ग्रहानिष्ट्वा सर्वहोमांत एव हि

ऋत्विभ्यो दक्षिणां दद्यान्नवरत्नं यथाक्रमम् १२०

दशदानं ततः कुर्याद्भूरिदानं ततः परम्

बालानामुपनीतानां गृहिणां वनिनां धनम् १२१

कन्यानां च सभर्तृ-णां विधवानां ततः परम्

तंत्रोपकरणं सर्वमाचार्याय निवेदयेत् १२२

सूर्य आदि नवग्रहों का होम के अन्त में पूजन करना चाहिये । ऋत्विजों को क्रमानुसार नवरत्नों की दक्षिणा देनी चाहिये । तत्पश्चात् दश दान करे और उसके बाद भूयसीदान करना चाहिये । बालक, यज्ञोपवीती, गृहस्थाश्रमी और वानप्रस्थियों को धन का दान करना चाहिये । तत्पश्चात् कन्या, सधवा और विधवा स्त्रियों को देने के अनन्तर बची हुई तथा यज्ञ में बची हुई सारी सामग्री आचार्य को समर्पित कर देनी चाहिये ॥ १२०-१२२ ॥

उत्पातानां च मारीणां दुःखस्वामी यमः स्मृतः

तस्माद्यमस्य प्रीत्यर्थं कालदानं प्रदापयेत् १२३

शतनिष्केण वा कुर्याद्दशनिष्केण वा पुनः

पाशांकुशधरं कालं कुर्यात्पुरुषरूपिणम् १२४

तत्स्वर्णप्रतिमादानं कुर्याद्दक्षिणया सह

तिलदानं ततः कुर्यात्पूर्णायुष्यप्रसिद्धये १२५

आज्यावेक्षणदानं च कुर्याद्व्याधिनिवृत्तये

सहस्रं भोजयेद्विप्रान्दरिद्र ः! शतमेव वा १२६

वित्ताभावे दरिद्र स्तु यथाशक्ति समाचरेत्

उत्पात, महामारी और दुःखों के स्वामी यमराज माने जाते हैं । इसलिये यमराज की प्रसन्नता के लिये कालप्रतिमा का दान करना चाहिये । सौ निष्क या दस निष्क के परिमाण की पाश और अंकुश धारण की हुई पुरुष के आकार की स्वर्णप्रतिमा बनाये । उस स्वर्णप्रतिमा का दक्षिणासहित दान करना चाहिये । उसके बाद पूर्णायु प्राप्त करनेहेतु तिल का दान करना चाहिये । रोगनिवारण के लिये घृत में अपनी परछाईं देखकर दान करना चाहिये । हजार ब्राह्मणों को भोजन कराना चाहिये, धनाभाव में सौ अथवा यथाशक्ति ब्राह्मणों को भोजन कराना चाहिये ॥ १२३-१२६१/२ ॥

भैरवस्य महापूजां कुर्याद्भूतादिशांतये १२७

महाभिषेकं नैवेद्यं शिवस्यान्ते तुकारयेत्

ब्राह्मणान्भोजयेत्पश्चाद्भूरिभोजनरूपतः १२८

भूत आदि की शान्ति के लिये भैरव की महापूजा करे । अन्त में भगवान् शिव का महाभिषेक और नैवेद्य समर्पित करके ब्राह्मणों को भूरिभोजन कराना चाहिये ॥ १२७-१२८ ॥

एवं कृतेन यज्ञेन दोषशांतिमवाप्नुयात्

शांतियज्ञमिमं कुर्याद्वर्षे वर्षे तु फाल्गुने १२९

दुर्दर्शनादौ सद्यो वै मासमात्रे समाचरेत्

महापापादिसंप्राप्तौ कुर्याद्भैरवपूजनम् १३०

महाव्याधिसमुत्पत्तौ संकल्पं पुनराचरेत्

सर्वभावे दरिद्र स्तु दीपदानमथाचरेत् १३१

तदप्यशक्तः स्नात्वा वै यत्किंचिद्दानमाचरेत्

दिवाकरं नमस्कुर्यान्मन्त्रेणाष्टोत्तरं शतम् १३२

सहस्रमयुतं लक्षं कोटिं वा कारयेद् बुधः

नमस्कारात्मयज्ञेन तुष्टाः स्युः सर्वदेवताः १३३

इस प्रकार यज्ञ सम्पन्न करने से दोषों की शान्ति हो जाती है । इस शान्तियज्ञ का प्रतिवर्ष फाल्गुनमास में आयोजन करना चाहिये । अशुभ दर्शन होने पर तुरंत अथवा एक महीने के भीतर यज्ञ का आयोजन करना चाहिये । महापाप हो जाय, तो भैरव की पूजा करनी चाहिये । महाव्याधि हो जाय, तो यज्ञ का पुनः संकल्प लेकर उसे सम्पन्न करना चाहिये । अकिंचन दरिद्र व्यक्ति तो केवल दीपदान कर दे । उतना भी न हो सके, तो स्नान करके कुछ दान कर दे । एक सौ आठ, एक हजार, दस हजार, एक लाख या एक करोड़ मन्त्रों से भगवान् सूर्य को नमस्कार करे । इस नमस्कारात्मक यज्ञ से सभी देवता प्रसन्न हो जाते हैं ॥ १२९-१३३ ॥

त्वत्स्वरूपेर्पिता बुद्धिर्नतेऽशून्ये च रोचति

या चास्त्यस्मदहंतेति त्वयि दृष्टे विवर्जिता १३४

नम्रोऽहं हि स्वदेहेन भो महांस्त्वमसि प्रभो

न शून्यो मत्स्वरूपो वै तव दासोऽस्मि सांप्रतम् १३५

यथायोग्यं स्वात्मयज्ञं नमस्कारं प्रकल्पयेत्

अथात्र शिवनैवेद्यं दत्त्वा तांबूलमाहरेत् १३६

भगवान् शिव की इस प्रकार प्रार्थना करे — ‘मेरी बुद्धि आपके ज्योतिर्मय पूर्णस्वरूप में लगी है । मुझमें जो अहंता थी, वह आपके दर्शन से नष्ट हो गयी है । मैं अपनी देह से आपको प्रणाम करता हूँ । हे प्रभो ! आप महान् हैं । आप पूर्ण हैं और मेरा स्वरूप भी आप ही हैं, तो भी इस समय मैं आपका दास हूँ ।’* इस प्रकार यथायोग्य नमस्कारपूर्वक स्वात्मयज्ञ करना चाहिये । तत्पश्चात् भगवान् शिव को नैवेद्य देकर ताम्बूल समर्पित करना चाहिये ॥ १३४-१३६ ॥

शिवप्रदक्षिणं कुर्यात्स्वयमष्टोत्तरं शतम्

सहस्रमयुतं लक्षं कोटिमन्येन कारयेत् १३७

शिवप्रदक्षिणात्सर्वं पातकं नश्यति क्षणात्

दुःखस्य मूलं व्याधिर्हि व्याधेर्मूलं हि पातकम् १३८

धर्मेणैव हि पापानामपनोदनमीरितम्

शिवोद्देशकृतो धर्मः क्षमः पापविनोदने १३९

तब स्वयं १०८ बार शिव की प्रदक्षिणा करनी चाहिये । एक हजार, दस हजार, एक लाख या करोड़ प्रदक्षिणा दूसरों के द्वारा करायी जा सकती है । शिव की प्रदक्षिणा से सारे पापों का तत्क्षण नाश हो जाता है । दु:ख का मूल व्याधि है और व्याधि का मूल पाप में होता है । धर्माचरण से ही पापों का नाश बताया गया है । भगवान् शिव के उद्देश्य से किया गया धर्माचरण पापों का नाश करने में समर्थ होता है ॥ १३७–१३९ ॥

अध्यक्षं शिवधर्मेषु प्रदक्षिणमितीरितम्

क्रियया जपरूपं हि प्रणवं तु प्रदक्षिणम् १४०

जननं मरणं द्वंद्वं मायाचक्रमितीरितम्

शिवस्य मायाचक्रं हि बलिपीठं तदुच्यते १४१

बलिपीठं समारभ्य प्रादक्षिण्यक्रमेण वै

पदे पदांतरं गत्वा बलिपीठं समाविशेत् १४२

नमस्कारं ततः कुर्यात्प्रदक्षिणमितीरितम्

निर्गमाज्जननं प्राप्तं नमस्त्वात्मसमर्पणम् १४३

शिव के धर्मों में प्रदक्षिणा को प्रधान कहा गया है । क्रिया से जपरूप होकर प्रणव ही प्रदक्षिणा बन जाता है । जन्म और मरण का द्वन्द्व ही मायाचक्र कहा गया है । शिव का मायाचक्र ही बलिपीठ कहलाता है । बलिपीठ से आरम्भ करके प्रदक्षिणा के क्रम से एक पैर के पीछे दूसरा पैर रखते हुए बलिपीठ में पुनः प्रवेश करना चाहिये । तत्पश्चात् नमस्कार करना चाहिये । इसे प्रदक्षिणा कहा जाता है । बलिपीठ से बाहर निकलना जन्म प्राप्त होना और नमस्कार करना ही आत्मसमर्पण है ॥ १४०-१४३ ॥

जननं मरणं द्वंद्वं शिवमायासमर्पितम्

शिवमायार्पितद्वंद्वो न पुनस्त्वात्मभाग्भवेत् १४४

यावद्देहं क्रियाधीनः सजीवो बद्ध उच्यते

देहत्रयवशीकारे मोक्ष इत्युच्यते बुधैः १४५

मायाचक्रप्रणेता हि शिवः परमकारणम्

शिवमायार्पितद्वंद्वं शिवस्तु परिमार्जति १४६

शिवेन कल्पितं द्वंद्वं तस्मिन्नेव समर्पयेत्

जन्म और मरणरूप द्वन्द्व भगवान् शिव की माया से प्राप्त है । जो इन दोनों को शिव की माया को ही अर्पित कर देता है, वह फिर शरीर के बन्धन में नहीं पड़ता । जबतक शरीर रहता है, तबतक जो क्रिया के ही अधीन है, वह जीव बद्ध कहलाता है । स्थूल, सूक्ष्म और कारण — तीनों शरीरों को वश में कर लेने पर जीव का मोक्ष हो जाता है, ऐसा ज्ञानी पुरुषों का कथन है । मायाचक्र के निर्माता भगवान् शिव ही परम कारण हैं । वे अपनी माया के दिये हुए द्वन्द्व का स्वयं ही परिमार्जन करते हैं । अतः शिव के द्वारा कल्पित हुआ द्वन्द्व उन्हीं को समर्पित कर देना चाहिये ॥ १४४-१४६१/२ ॥

शिवस्यातिप्रियं विद्यात्प्रदक्षिणं नमो बुधाः १४७

प्रदक्षिणनमस्काराः शिवस्य परमात्मनः

षोडशैरुपचारैश्च कृतपूजा फलप्रदा १४८

प्रदक्षिणाऽविनाश्यं हि पातकं नास्ति भूतले

तस्मात्प्रदक्षिणेनैव सर्वपापं विनाशयेत् १४९

हे विद्वानो ! प्रदक्षिणा और नमस्कार शिव को अतिप्रिय हैं, ऐसा जानना चाहिये । भगवान् शिव की प्रदक्षिणा, नमस्कार और षोडशोपचार पूजन अत्यन्त फलदायी होता है । ऐसा कोई पाप इस पृथ्वी पर नहीं है, जो शिवप्रदक्षिणा से नष्ट न हो सके । इसलिये प्रदक्षिणा का आश्रय लेकर सभी पापों का नाश कर लेना चाहिये ॥ १४७-१४९ ॥

शिवपूजापरो मौनी सत्यादिगुणसंयुतः

क्रियातपोजपज्ञानध्यानेष्वेकैकमाचरेत् १५०

ऐश्वर्यं दिव्यदेहश्च ज्ञानमज्ञानसंशयः

शिवसान्निध्यमित्येते क्रियादीनां फलं भवेत् १५१

करणेन फलं याति तमसः परिहापनात्

जन्मनः परिमार्जित्वाज्ज्ञबुद्ध्या जनितानि च १५२

यथादेशं यथाकालं यथादेहं यथाधनम्

यथायोग्यं प्रकुर्वीत क्रियादीञ्छिवभक्तिमान् १५३

जो शिव की पूजा में तत्पर हो, वह मौन रहे, सत्य आदि गुणों से संयुक्त हो तथा क्रिया, जप, तप, ज्ञान और ध्यान में से एक-एक का अनुष्ठान करता रहे । ऐश्वर्य, दिव्य शरीर की प्राप्ति, ज्ञान का उदय, अज्ञान का निवारण और भगवान् शिव के सामीप्य का लाभ — ये क्रमशः क्रिया आदि के फल हैं । निष्काम कर्म करने से अज्ञान का निवारण हो जाने के कारण शिवभक्त पुरुष उसके यथोक्त फल को पाता है । शिवभक्त पुरुष देश, काल, शरीर और धन के अनुसार यथायोग्य क्रिया आदि का अनुष्ठान करे ॥ १५०-१५३ ॥

न्यायार्जितसुवित्तेन वसेत्प्राज्ञः शिवस्थले

जीवहिंसादिरहितमतिक्लेशविवर्जितम् १५४

पंचाक्षरेण जप्तं च तोयमन्नं विदुः सुखम्

अथवाऽहुर्दरिद्र स्य भिक्षान्नंज्ञानदं भवेत् १५५

शिवभक्तस्य भिक्षान्नंशिवभक्तिविवर्धनम्

शंभुसत्रमिति प्राहुर्भिक्षान्नंशिवयोगिनः १५६

येन केनाप्युपायेन यत्र कुत्रापि भूतले

शुद्धान्नभुक्सदा मौनीरहस्यं न प्रकाशयेत् १५७

प्रकाशयेत्तु भक्तानां शिवमाहात्म्यमेव हि

रहस्यं शिवमंत्रस्य शिवो जानाति नापरः १५८

न्यायोपार्जित उत्तम धन से निर्वाह करते हुए विद्वान् पुरुष शिव के स्थान में निवास करे । जीवहिंसा आदि से रहित और अत्यन्त क्लेशशून्य जीवन बिताते हुए पंचाक्षर-मन्त्र के जप से अभिमन्त्रित अन्न और जल को सुखस्वरूप माना गया है अथवा यह भी कहते हैं कि दरिद्र पुरुष के लिये भिक्षा से प्राप्त हुआ अन्न ज्ञान देनेवाला होता है, शिवभक्त को भिक्षान्न प्राप्त हो, तो वह शिवभक्ति को बढ़ानेवाला होता है । शिवयोगी पुरुष भिक्षान्न को शम्भुसत्र कहते हैं । जिस किसी भी उपाय से जहाँ-कहीं भी भूतल पर शुद्ध अन्न का भोजन करते हुए सदा मौनभाव से रहे और अपने साधन का रहस्य किसी पर प्रकट न करे । भक्तों के समक्ष ही शिव के माहात्म्य को प्रकाशित करे । शिवमन्त्र के रहस्य को भगवान् शिव ही जानते हैं, दूसरा कोई नहीं जान पाता ॥ १५४-१५८ ॥

शिवभक्तो वसेन्नित्यं शिवलिंगं समाश्रितः

स्थाणुलिंगाश्रयेणैव स्थाणुर्भवति भूसुराः १५९

पूजया चरलिंगस्य क्रमान्मुक्तो भवेद्ध्रुवम्

सर्वमुक्तं समासेन साध्यसाधनमुत्तमम् १६०

व्यासेन यत्पुराप्रोक्तं यच्छ्रुतं हि मया पुरा

भद्र मस्तु हि वोऽस्माकं शिवभक्तिर्दृढाऽस्तुसा १६१

य इमं पठतेऽध्यायं यः शृणोति नरः सदा

शिवज्ञानं स लभतेशिवस्य कृपया बुधाः १६२

इति श्रीशैवेमहापुराणे विद्येश्वरसंहितायां साध्यसाधनखंडे शिवलिंगमहिमावर्णनं नामाष्टादशोऽध्यायः १८॥

शिवभक्त को सदा शिवलिंग के आश्रित होकर वास करना चाहिये । हे ब्राह्मणो ! शिवलिंगाश्रय के प्रभाव से वह भक्त भी शिवरूप ही हो जाता है । चरलिंग की पूजा करने से वह क्रमशः अवश्य ही मुक्त हो जाता है । महर्षि व्यास ने पूर्वकाल में जो कहा था और मैंने जैसा सुना था, उस सब साध्य और साधन का संक्षेप में मैंने वर्णन कर दिया । आप सबका कल्याण हो और भगवान् शिव में आपकी दृढ़ भक्ति बनी रहे । जो मनुष्य इस अध्याय का पाठ करता है अथवा जो इसे सुनता है, हे विज्ञजनो ! वह भगवान् शिव की कृपा से शिवज्ञान को प्राप्त कर लेता है ॥ १५९-१६२ ॥

॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराण के अन्तर्गत प्रथम विद्येश्वरसंहिता के साध्यसाधनखण्ड में शिवलिङ्ग के माहात्म्य का वर्णन नामक अठारहवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ १८ ॥

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *