शिवमहापुराण – प्रथम विद्येश्वरसंहिता – अध्याय 19 || Shiv Mahapuran Vidyeshvar Samhita Adhyay 19

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इससे पूर्व आपने शिवमहापुराण – विद्येश्वरसंहिता – अध्याय 18 पढ़ा, अब शिवमहापुराण –विद्येश्वरसंहिता – अध्याय 19 उन्नीसवाँ अध्याय पार्थिव शिवलिंग के पूजन का माहात्म्य।

शिवपुराणम्/ विद्येश्वरसंहिता /अध्यायः १९

शिवमहापुराण – प्रथम विद्येश्वरसंहिता – अध्याय 19

शिवपुराणम्‎ | संहिता १ (विश्वेश्वरसंहिता)

ऋषय ऊचुः

सूत सूत चिरंजीव धन्यस्त्वं शिवभक्तिमान्

सम्यगुक्तस्त्वया लिंगमहिमा सत्फलप्रदः १

यत्र पार्थिवमाहेशलिंगस्य महिमाधुना

सर्वोत्कृष्टश्च कथितो व्यासतो ब्रूहि तं पुनः २

ऋषिगण बोले — हे सूतजी ! आप चिरंजीवी हों । आप धन्य हैं, जो परम शिवभक्त हैं । आपने शुभ फल को देनेवाली शिवलिंग की महिमा सम्यक् प्रकार से बतायी । अब आप व्यासजी द्वारा वर्णित भगवान् शिव के सर्वोत्कृष्ट पार्थिव लिंग की महिमा का वर्णन करें ॥ १-२ ॥

सूत उवाच

शृणुध्वमृषयः सर्वे सद्भक्त्या हरतो खिलाः

शिवपार्थिवलिंगस्य महिमा प्रोच्यते मया ३

उक्तेष्वेतेषु लिंगेषु पार्थिवं लिंगमुत्तमम्

तस्य पूजनतो विप्रा बहवः सिद्धिमागताः ४

सूतजी बोले — हे ऋषियो ! मैं शिव के पार्थिव लिंग की महिमा बता रहा हूँ, आप लोग भक्ति और आदरसहित इसका श्रवण करें । हे द्विजो ! अभी तक बताये हुए सभी शिवलिंगों में पार्थिव लिंग सर्वोत्तम है । उसकी पूजा करने से अनेक भक्तों को सिद्धि प्राप्त हुई है ॥ ३-४ ॥

हरिर्ब्रह्मा च ऋषयः सप्रजापतयस्तथा

संपूज्य पार्थिवं लिंगं प्रापुःसर्वेप्सितं द्विजाः ५

देवासुरमनुष्याश्च गंधर्वोरगराक्षसाः

अन्येपि बहवस्तं संपूज्य सिद्धिं गताः परम् ६

हे ब्राह्मणो ! ब्रह्मा, विष्णु, प्रजापति तथा अनेक ऋषियों ने पार्थिव लिंग की पूजा करके अपना सम्पूर्ण अभीष्ट प्राप्त किया है । देव, असुर, मनुष्य, गन्धर्व, नाग, राक्षसगण और अन्य प्राणियों ने भी उसकी पूजा करके परम सिद्धि प्राप्त की है ॥ ५-६ ॥

कृते रत्नमयं लिंगं त्रेतायां हेमसंभवम्

द्वापरे पारदं श्रेष्ठं पार्थिवं तु कलौ युगे ७

अष्टमूर्तिषु सर्वासु मूर्तिर्वै पार्थिवी वरा

अनन्यपूजिता विप्रास्तपस्तस्मान्महत्फलम् ८

सत्ययुग में मणिलिंग, त्रेतायुग में स्वर्णलिंग, द्वापरयुग में पारदलिंग और कलियुग में पार्थिवलिंग को श्रेष्ठ कहा गया है । भगवान् शिव की सभी आठ [ पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश, सूर्य, चन्द्रमा तथा यजमान — ये शिव की आठ मूर्तियाँ हैं। ] मूर्तियों में पार्थिव मूर्ति श्रेष्ठ है । किसी अन्य द्वारा न पूजी हुई (नवनिर्मित) पार्थिव मूर्ति की पूजा करने से तपस्या से भी अधिक फल मिलता है ॥ ७-८ ॥

यथा सर्वेषु देवेषु ज्येष्ठः श्रेष्ठो महेश्वरः

एवं सर्वेषु लिंगेषु पार्थिवं श्रेष्टमुच्यते ९

यथा नदीषु सर्वासु ज्येष्ठा श्रेष्ठा सुरापगा

तथा सर्वेषु लिंगेषु पार्थिवं श्रेष्ठमुच्यते १०

यथा सर्वेषु मंत्रेषु प्रणवो हि महान्स्मृतः

तथेदं पार्थिवं श्रेष्ठमाराध्यं पूज्यमेव हि ११

यथा सर्वेषु वर्णेषु ब्राह्मणःश्रेष्ठ उच्यते

तथा सर्वेषु लिंगेषु पार्थिवं श्रेष्ठमुच्यते १२

यथा पुरीषु सर्वासु काशीश्रेष्ठतमा स्मृता

तथा सर्वेषु लिंगेषु पार्थिवं श्रेष्ठमुच्यते १३

यथा व्रतेषु सर्वेषु शिवरात्रिव्रतं परम्

तथा सर्वेषु लिंगेषु पार्थिवं श्रेष्थमुच्यते १४

यथा देवीषु सर्वासु शैवीशक्तिः परास्मृता

तथा सर्वेषु लिंगेषु पार्थिवं श्रेष्ठमुच्यते १५

जैसे सभी देवताओं में शंकर ज्येष्ठ और श्रेष्ठ कहे जाते हैं, उसी प्रकार सभी लिंगमूर्तियों में पार्थिवलिंग श्रेष्ठ कहा जाता है । जैसे सभी नदियों में गंगा ज्येष्ठ और श्रेष्ठ कही जाती है, वैसे ही सभी लिंगमूर्तियों में पार्थिव लिंग श्रेष्ठ कहा जाता है । जैसे सभी मन्त्रों में प्रणव (ॐ) महान् कहा गया है, उसी प्रकार शिव का यह पार्थिवलिंग श्रेष्ठ, आराध्य तथा पूजनीय होता है । जैसे सभी वर्गों में ब्राह्मण श्रेष्ठ कहा जाता है, उसी प्रकार सभी लिंगमूर्तियों में पार्थिवलिंग श्रेष्ठ कहा जाता है । जैसे सभी पुरियों में काशी को श्रेष्ठतम कहा गया है, वैसे ही सभी शिवलिंगों में पार्थिवलिंग श्रेष्ठ कहा जाता है । जैसे सभी व्रतों में शिवरात्रि का व्रत सर्वोपरि है, उसी प्रकार सभी शिवलिंगों में पार्थिवलिंग सर्वश्रेष्ठ कहा जाता है । जैसे सभी देवियों में शैवी शक्ति प्रधान मानी जाती है, उसी प्रकार सभी शिवलिंगों में पार्थिवलिंग प्रधान माना जाता है ॥ ९-१५ ॥

प्रकृत्यपार्थिवं लिंगं योन्यदेवं प्रपूजयेत्

वृथा भवति सा पूजा स्नानदानादिकं वृथा १६

पार्थिवाराधनं पुण्यं धन्यमायुर्विवर्धनम्

तुष्टिदं पुष्टिदंश्रीदं कार्यं साधकसत्तमैः १७

जो पार्थिवलिंग का निर्माण करने के बाद किसी अन्य देवता की पूजा करता है, उसकी वह पूजा तथा स्नान-दान आदि की क्रियाएँ व्यर्थ हो जाती हैं । पार्थिव पूजन अत्यन्त पुण्यदायी तथा सब प्रकार से धन्य करनेवाला, दीर्घायुष्य देनेवाला है । यह तुष्टि, पुष्टि और लक्ष्मी प्रदान करनेवाला है, अतः श्रेष्ठ साधकों को पूजन अवश्य करना चाहिये ॥ १६-१७ ॥

यथा लब्धोपचारैश्च भक्त्या श्रद्धासमन्वितः

पूजयेत्पार्थिवं लिंगं सर्वकामार्थसिद्धिदम् १८

यः कृत्वा पार्थिवं लिंगे पूजयेच्छुभवेदिकम्

इहैव धनवाञ्छ्रीमानंते रुद्रो भिजायते १९

त्रिसंध्यं योर्चयंल्लिंगं कृत्वा बिल्वेन पार्थिवम्

दशैकादशकंयावत्तस्य पुण्यफलं शृणु २०

अनेनैव स्वदेहेन रुद्र लोके महीयते

पापहं सर्वमर्त्यानां दर्शनात्स्पर्शनादपि २१

जीवन्मुक्तः स वैज्ञानी शिव एव न संशयः

तस्य दर्शनमात्रेण भुक्तिर्मुक्तिश्च जायते २२

उपलब्ध उपचारों से भक्ति-श्रद्धापूर्वक पार्थिव लिंग का पूजन करना चाहिये; यह सभी कामनाओं की सिद्धि देनेवाला है । जो सुन्दर वेदीसहित पार्थिव लिंग का निर्माण करके उसकी पूजा करता है, वह इस लोक में धन-धान्य से सम्पन्न होकर अन्त में रुद्रलोक को प्राप्त करता है । जो पार्थिवलिंग का निर्माण करके बिल्वपत्रों से ग्यारह वर्ष तक उसका त्रिकाल पूजन करता है, उसके पुण्यफल को सुनिये । वह अपने इसी शरीर से रुद्रलोक में प्रतिष्ठा प्राप्त करता है । उसके दर्शन और स्पर्श से मनुष्यों के सभी पाप नष्ट हो जाते हैं । वह जीवन्मुक्त ज्ञानी और शिवस्वरूप है; इसमें संशय नहीं है । उसके दर्शनमात्र से भोग और मोक्ष की प्राप्ति होती है ॥ १८-२२ ॥

शिवं यः पूजयेन्नित्यं कृत्वा लिंगं तु पार्थिवम्

यावज्जीवनपर्यंतं स याति शिवमन्दिरम् २३

मृडेनाप्रमितान्वर्षाञ्छिवलोकेहि तिष्ठति

सकामः पुनरागत्य राजेन्द्रो भारते भवेत् २४

निष्कामः पूजयेन्नित्यं पार्थिवंलिंगमुत्तमम्

शिवलोके सदा तिष्ठेत्ततः सायुज्यमाप्नुयात् २५

जो पार्थिव शिवलिंग का निर्माण करके जीवनपर्यन्त नित्य उसका पूजन करता है, वह शिवलोक प्राप्त करता है । वह असंख्य वर्षों तक भगवान् शिव के सान्निध्य में शिवलोक में वास करता है और कोई कामना शेष रहने पर वह भारतवर्ष में सम्राट् बनता है । जो निष्कामभाव से नित्य उत्तम पार्थिवलिंग का पूजन करता है, वह सदा के लिये शिवलोक में वास करता है और शिवसायुज्य को प्राप्त कर लेता है ॥ २३-२५ ॥

पार्थिवं शिवलिंगं च विप्रो यदि न पूजयेत्

स याति नरकं घोरं शूलप्रोतं सुदारुणम् २६

यथाकथंचिद्विधिना रम्यं लिंगं प्रकारयेत्

पंचसूत्रविधानां च पार्थिवेन विचारयेत् २७

यदि ब्राह्मण पार्थिव शिवलिंग का पूजन नहीं करता है, तो वह अत्यन्त दारुण शूलप्रोत नामक घोर नरक में जाता है । किसी भी विधि से सुन्दर पार्थिवलिंग का निर्माण करना चाहिये, किंतु उसमें पंचसूत्रविधान नहीं करना चाहिये ॥ २६-२७ ॥

अखण्डं तद्धि कर्तव्यं न विखण्डं प्रकारयेत्

द्विखण्डं तु प्रकुर्वाणो नैव पूजाफलं लभेत् २८

रत्नजं हेमजं लिंगं पारदं स्फाटिकं तथा

पार्थिवं पुष्परागोत्थमखंडं तु प्रकारयेत् २९

उसे अखण्ड रूप में बनाना चाहिये, खण्डितरूप में नहीं । खण्डित लिंग का निर्माण करनेवाला पूजा का फल नहीं प्राप्त करता है । मणिलिंग, स्वर्णलिंग, पारदलिंग, स्फटिकलिंग, पुष्परागलिंग और पार्थिवलिंग को अखण्ड ही बनाना चाहिये ॥ २८-२९ ॥

अखंडं तु चरं लिंगं द्विखंडमचरं स्मृतम्

खंडाखंडविचारोयं सचराचरयोः स्मृतः ३०

वेदिका तु महाविद्या लिंगं देवो महेश्वरः

अतो हि स्थावरे लिंगे स्मृता श्रेष्ठादिखंडिता ३१

अखण्ड लिंग चरलिंग होता है और दो खण्डवाला अचरलिंग कहा गया है । इस प्रकार चर और अचर लिंग का यह खण्ड-अखण्ड विधान कहा गया है । स्थावरलिंग में वेदिका भगवती महाविद्या का रूप है और लिंग भगवान् महेश्वर का स्वरूप है । इसलिये स्थावर (अचर)-लिंगों में वेदिकायुक्त द्विखण्ड लिंग ही श्रेष्ठ माना गया है ॥ ३०-३१ ॥

द्विखंडं स्थावरं लिंगं कर्तव्यं हि विधानतः

अखंडं जंगमं प्रोक्तंश् ऐवसिद्धान्तवेदिभिः ३२

द्विखंडं तु चरां लिंगं कुर्वन्त्यज्ञानमोहिताः

नैव सिद्धान्तवेत्तारो मुनयः शास्त्रकोविदाः ३३

अखंडं स्थावरं लिंगं द्विखंडं चरमेव च

येकुर्वन्तिनरामूढानपूजाफलभागिनः ३४

द्विखण्ड (वेदिकायुक्त) स्थावर लिंग का विधानपूर्वक निर्माण करना चहिये । शिवसिद्धान्त के जाननेवालों ने अखण्ड लिंग को जंगम (चर)-लिंग माना है । अज्ञानतावश ही कुछ लोग चरलिंग को दो खण्डों में (वेदिका और लिंग) बना लेते हैं, शास्त्रों को जाननेवाले सिद्धान्तमर्मज्ञ मुनिजन ऐसा नहीं करते । जो मूढजन अचरलिंग को अखण्ड तथा चरलिंग को द्विखण्ड रूप में बनाते हैं, उन्हें शिवपूजा का फल नहीं प्राप्त होता ॥ ३२-३४ ॥

तस्माच्छास्त्रोक्तविधिना अखंडं चरसंज्ञकम्

द्विखंडं स्थावरं लिंगं कर्तव्यं परया मुदा ३५

अखंडे तु चरे पूजा सम्पूर्णफलदायिनी

द्विखंडे तु चरे पूजामहाहानिप्रदा स्मृता ३६

अखंडे स्थावरे पूजा न कामफलदायिनी

प्रत्यवायकरी नित्यमित्युक्तं शास्त्रवेदिभिः ३७

इति श्रीशिवमहापुराणे विद्येश्वरसंहितायां साध्यसाधनखंडे पार्थिवशिवलिंगपूजनमाहात्म्यवर्णनं नामैकोनविंशोऽध्यायः १९॥

इसलिये अत्यन्त प्रसन्नतापूर्वक शास्त्रोक्तविधि से चरलिंग को अखण्ड तथा अचरलिंग को द्विखण्ड बनाना चाहिये । अखण्ड चरलिंग में की गयी पूजा से सम्पूर्ण फल की प्राप्ति होती है । द्विखण्ड चरलिंग की पूजा महान् अनिष्टकर कही गयी है । उसी प्रकार अखण्ड अचरलिंग की पूजा से कामना सिद्ध नहीं होती; उससे तो अनिष्ट प्राप्त होता है-ऐसा शास्त्रज्ञ विद्वानों ने कहा है ॥ ३५-३७ ॥

॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराण के अन्तर्गत प्रथम विद्येश्वरसंहिता के साध्यसाधनखण्ड में पार्थिव शिवलिंग के पूजन का माहात्म्यवर्णन नामक उन्नीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ १९ ॥

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