शिवमहापुराण – प्रथम विद्येश्वरसंहिता – अध्याय 4 || Shiv Mahapuran Vidyeshvar Samhita Adhyay 4

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इससे पूर्व आपने शिवमहापुराण – विद्येश्वरसंहिता – अध्याय 03 पढ़ा, अब शिवमहापुराण –विद्येश्वरसंहिता – अध्याय 04 चौथा अध्याय श्रवण, कीर्तन और मनन-इन तीन साधनोंकी श्रेष्ठताका प्रतिपादन।

शिवमहापुराण – विद्येश्वरसंहिता – अध्याय 04

शिवपुराणम्- विश्वेश्वरसंहिता- अध्यायः ०४

मुनय ऊचुः

मननं कीदृशं ब्रह्मञ्छ्रवणं चापि कीदृशम्

कीर्तनं वा कथं तस्य कीर्तयैतद्यथायथम् ॥१

मुनिगण बोले — हे ब्रह्मन् ! मनन कैसा होता है, श्रवण का स्वरूप कैसा है और उनका कीर्तन कैसे किया जाता है, यथार्थ रूप में आप वर्णन करें ॥ १ ॥

ब्रह्मोवाच

पूजाजपेशगुणरूपविलासनाम्नां युक्तिप्रियेण मनसा परिशोधनं यत्

तत्संततं मननमीश्वरदृष्टिलभ्यं सर्वेषु साधनवरेष्वपि मुख्यमुख्यम् ॥२

ब्रह्माजी बोले — [हे मुनियो !] भगवान् शंकर की पूजा, उनके नामों का जप तथा उनके गुण, रूप, विलास और नामों का युक्तिपरायण चित्त के द्वारा जो निरन्तर परिशोधन या चिन्तन होता है, उसी को मनन कहा गया है, वह महेश्वर की कृपादृष्टि से उपलब्ध होता है । वह समस्त श्रेष्ठ साधनों में प्रमुखतम है ॥ २ ॥

गीतात्मना श्रुतिपदेन च भाषया वा शंभुप्रतापगुणरूपविलासनाम्नाम्

वाचा स्फुटं तु रसवत्स्तवनं यदस्य तत्कीर्तनं भवति साधनमत्र मध्यम् ॥३

शम्भु के प्रताप, गुण, रूप, विलास और नाम को प्रकट करनेवाले संगीत, वेदवाक्य या भाषा के द्वारा अनुरागपूर्वक उनकी स्तुति ही मध्यम साधन है, जिसको कीर्तन शब्द से कहा जाता है ॥ ३ ॥

येनापि केन करणेन च शब्दपुंजं यत्र क्वचिच्छिवपरं श्रवणेंद्रि येण

स्त्रीकेलिवद्दृढतरं प्रणिधीयते यत्तद्वै बुधाः श्रवणमत्र जगत्प्रसिद्धम् ॥४

हे ज्ञानियो ! स्त्रीक्रीड़ा में जैसे मन की आसक्ति होती है, वैसे ही किसी कारण से किसी स्थान में शिवविषयक वाणियों में श्रवणेन्द्रिय की दृढ़तर आसक्ति ही जगत् में श्रवण के नाम से प्रसिद्ध है ॥ ४ ॥

सत्संगमेन भवति श्रवणं पुरस्तात्संकीर्तनं पशुपतेरथ तद्दृढं स्यात्

सर्वोत्तमं भवति तन्मननं तदंते सर्वं हि संभवति शंकरदृष्टिपाते ॥५

सर्वप्रथम सज्जनों की संगति से श्रवण सिद्ध होता है, बाद में शिवजी का कीर्तन दृढ़ होता है और अन्त में सभी साधनों से श्रेष्ठ शंकरविषयक मनन उत्पन्न होता है, किंतु यह सब उनकी कृपादृष्टि से ही सम्भव होता है ॥ ५ ॥

सूत उवाच

अस्मिन्साधनमाहत्म्ये पुरा वृत्तं मुनीश्वराः

युष्मदर्थं प्रवक्ष्यामि शृणुध्वमवधानतः ॥६

सूतजी बोले — मुनीश्वरो ! इस साधन का माहात्म्य बताने के प्रसंग में मैं आपलोगों के लिये एक प्राचीन वृत्तान्त का वर्णन करूँगा, उसे ध्यान देकर आपलोग सुनें ॥ ६ ॥

पुरा मम गुरुर्व्यासः पराशरमुनेः सुतः

तपश्चचार संभ्रांतः सरस्वत्यास्तटे शुभे ॥७

पूर्व काल में पराशर मुनि के पुत्र मेरे गुरु व्यासदेवजी सरस्वती नदी के सुन्दर तट पर तपस्या कर रहे थे ॥ ७ ॥

गच्छन्यदृछया तत्र विमानेनार्करोचिषा

सनत्कुमारो भगवान्ददर्श मम देशिकम् ॥८

एक दिन सूर्यतुल्य तेजस्वी विमान से यात्रा करते हुए भगवान् सनत्कुमार अकस्मात् वहाँ आ पहुँचे । उन्होंने मेरे गुरुदेव को वहाँ देखा ॥ ८ ॥

ध्यानारूढः प्रबुद्धोऽसौ ददर्श तमजात्मजम्

प्रणिपत्याह संभ्रांतः परं कौतूहलं मुनिः ॥९

दत्त्वार्घ्यमस्मै प्रददौ देवयोग्यं च विष्टिरम्

प्रसन्नः प्राह तं प्रह्वं प्रभुर्गंभीरया गिरा ॥१०

वे ध्यान में मग्न थे । उससे जगने पर उन्होंने ब्रह्मा के पुत्र सनत्कुमारजी को अपने सामने उपस्थित देखा । वे बड़े वेग से उठे और उनके चरणों में प्रणाम करके मुनि ने उन्हें अर्घ्य प्रदान करके देवताओं के बैठने योग्य आसन भी अर्पित किया । तब प्रसन्न हुए भगवान् सनत्कुमार विनीत भाव से खड़े हुए व्यासजी से गम्भीर वाणी में कहने लगे ॥ ९-१० ॥

सनत्कुमार उवाच

सत्यं वस्तु मुने दध्याः साक्षात्करणगोचरः

स शिवोथासहायोत्र तपश्चरसि किं कृते ॥११

सनत्कुमार बोले — हे मुने ! आप सत्य सनातन भगवान् शंकर का हृदय से ध्यान कीजिये, तब वे शिव प्रत्यक्ष होकर आपकी सहायता करेंगे; आप यहाँ तप किसलिये कर रहे हैं ? ॥ ११ ॥

एवमुक्तः कुमारेण प्रोवाच स्वाशयं मुनिः

धर्मार्थकाममोक्षाश्च वेदमार्गे कृतादराः ॥१२

बहुधा स्थापिता लोके मया त्वत्कृपया तथा॥१३क

इस प्रकार सनत्कुमार के कहने पर मुनि व्यास ने अपना आशय कहा — मैंने आपकी कृपा से वेदसम्मत धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की कथा को मानव समाज में अनेक प्रकार से प्रदर्शित किया है ॥१२- १३क ॥

एवं भुतस्य मेप्येवं गुरुभूतस्य सर्वतः ॥१३ख

मुक्तिसाधनकं ज्ञानं नोदेति परमाद्भुतम्

तपश्चरामि मुक्त्यर्थं न जाने तत्र कारणम् ॥१४

इस प्रकार सर्वथा गुरुस्वरूप होनेपर भी मुझमें मुक्ति के साधन ज्ञान का उदय नहीं हुआ है — यह आश्चर्य ही है । मुक्ति का साधन न जानने के कारण उसके लिये मैं तपस्या कर रहा हूँ ॥ १३-१४ ॥

इत्थं कुमारो भगवान्व्यासेन मुनिनार्थितः

समर्थः प्राह विप्रेंद्रा निश्चयं मुक्तिकारणम् ॥१५

हे विप्रेन्द्रो ! इस प्रकार जब व्यासमुनि ने भगवान् सनत्कुमार से प्रार्थना की, तब वे समर्थ सनत्कुमारजी मुक्ति का निश्चित कारण बताने लगे ॥ १५ ॥

श्रवणं कीर्तनं शंभोर्मननं च महत्तरम्

त्रयं साधनमुक्तं च विद्यते वेदसंमतम् ॥१६

भगवान् शंकर का श्रवण, कीर्तन, मनन — ये तीनों महत्तर साधन कहे गये हैं । ये तीनों ही वेदसम्मत हैं ॥ १६ ॥

पुराहमथ संभ्रांतो ह्यन्यसाधनसंभ्रमः

अचले मंदरे शैले तपश्चरणमाचरम् ॥१७

पूर्वकाल में मैं दूसरे-दूसरे साधनों के सम्भ्रम में पड़कर घूमता-घामता मन्दराचल पर जा पहुँचा और वहाँ तपस्या करने लगा ॥ १७ ॥

शिवाज्ञया ततः प्राप्तो भगवान्नंदिकेश्वरः

स मे दयालुर्भगवान्सर्वसाक्षी गणेश्वरः ॥१८

उवाच मह्यं सस्नेहं मुक्तिसाधनमुत्तमम्

श्रवणं कीर्तनं शंभोर्मननं वेदसंमतम् ॥१९

त्रिकं च साधनं मुक्तौ शिवेन मम भाषितम्

श्रवणादिं त्रिकं ब्रह्मन्कुरुष्वेति मुहुर्मुहुः ॥२०

तदनन्तर महेश्वर शिव की आज्ञा से भगवान् नन्दिकेश्वर वहाँ आये । उनकी मुझपर बड़ी दया थी । वे सबके साक्षी तथा शिवगणों के स्वामी भगवान् नन्दिकेश्वर मुझे स्नेहपूर्वक मुक्ति का उत्तम साधन बताते हुए बोले — ‘भगवान् शंकर का श्रवण, कीर्तन और मनन — ये तीनों साधन वेदसम्मत हैं और मुक्ति के साक्षात् कारण हैं; यह बात स्वयं भगवान् शिव ने मुझसे कही है । अतः हे ब्रह्मन् ! आप श्रवणादि तीनों साधनों का बार-बार अनुष्ठान करें ॥ १८-२० ॥

एवमुक्त्वा ततो व्यासं सानुगो विधिनंदनः

जगाम स्वविमानेन पदं परमशोभनम् ॥२१

एवमुक्तं समासेन पूर्ववृत्तांतमुत्तमम्॥२२क

व्यासजी से बार-बार ऐसा कहकर अनुगामियोंसहित ब्रह्मपुत्र सनत्कुमार अपने विमान से परम सुन्दर ब्रह्मधाम को चले गये । इस प्रकार पूर्वकाल के इस उत्तम वृत्तान्त का मैंने संक्षेप से वर्णन किया है ॥ २१-२२क ॥

ऋषय ऊचुः

श्रवणादित्रयं सूत मुक्त्योपायस्त्वयेरितः ॥२२ख

श्रवणादित्रिकेऽशक्तः किं कृत्वा मुच्यते जनः

अयत्नेनैव मुक्तिः स्यात्कर्मणा केन हेतुना ॥२३

इति श्रीशिवमहापुराणे प्रथमायां विद्येश्वरसंहितायं साध्यसाधनखण्डे चतुर्थोऽध्यायः ४॥

ऋषिगण बोले — हे सूतजी ! आपने श्रवण आदि तीनों साधनों को मक्ति का उपाय बताया है । जो मनष्य श्रवण आदि तीनों साधनों में असमर्थ हो, वह किस उपाय का अवलम्बन करके मुक्त हो सकता है और किस साधनभूत कर्म के द्वारा बिना यत्न के ही मोक्ष मिल सकता है ? ॥ २२-२३ ॥ ॥

इस प्रकार श्रीशिवमहापुराण के अन्तर्गत प्रथम विद्येश्वरसंहिता के ‘साध्यसाधनखण्ड में चौथा अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ४ ॥

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