शिवमहापुराण – प्रथम विद्येश्वरसंहिता – अध्याय 9 || Shiv Mahapuran Vidyeshvar Samhita Adhyay 9

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इससे पूर्व आपने शिवमहापुराण – विद्येश्वरसंहिता – अध्याय 08 पढ़ा, अब शिवमहापुराण –विद्येश्वरसंहिता – अध्याय 09 नौवाँ अध्याय महेश्वर का ब्रह्मा और विष्णु को अपने निष्कल और सकल स्वरूप का परिचय देते हुए लिंगपूजन का महत्त्व बताना ।

शिवमहापुराण –विद्येश्वरसंहिता – अध्याय 09

शिवपुराणम्- विद्येश्वरसंहिता -अध्यायः ०९

शिवपुराणम्‎ | संहिता १ (विश्वेश्वरसंहिता)

नंदिकेश्वर उवाच

तत्रांतरे तौ च नाथं प्रणम्य विधिमाधवौ

बद्धांजलिपुटौ तूष्णीं तस्थतुर्दक्षवामगौ ॥ १

तत्र संस्थाप्य तौ देवं सकुटुंबं वरासने

पूजयामासतुः पूज्यं पुण्यैः पुरुषवस्तुभिः ॥ २

नन्दिकेश्वर बोले — वे दोनों ब्रह्मा और विष्णु भगवान् शंकर को प्रणाम करके दोनों हाथ जोड़कर उनके दायें-बायें भाग में चुपचाप खड़े हो गये । फिर उन्होंने वहाँ [साक्षात् प्रकट] पूजनीय महादेवजी को कुटुम्बसहित श्रेष्ठ आसन पर स्थापित करके पवित्र पुरुष-वस्तुओं द्वारा उनका पूजन किया ॥ १-२ ॥

पौरुषं प्राकृतं वस्तुज्ञेयं दीर्घाल्पकालिकम्

हारनूपुरकेयूरकिरीटमणिकुंडलैः ॥ ३

यज्ञसूत्रोत्तरीयस्रक्क्षौममाल्यांगुलीयकैः

पुष्पतांबूलकर्पूरचंदनागुरुलेपनैः ॥ ४

धूपदीपसितच्छत्रव्यजनध्वजचामरैः

अन्यैर्दिव्योपहारैश्च वाण्मनोतीतवैभवैः ॥ ५

पतियोग्यैः पश्वलभ्यैस्तौ समर्चयतां पतिम्॥६क

दीर्घकाल तक अविकृतभाव से सुस्थित रहनेवाली वस्तुओं को पुरुषवस्तु कहते हैं और अल्पकाल तक ही टिकनेवाली वस्तुएँ प्राकृतवस्तु कहलाती हैं — इस तरह वस्तु के ये दो भेद जानने चाहिये । [किन पुरुष वस्तुओं से उन्होंने भगवान् शिव का पूजन किया, यह बताया जाता है — ] हार, नूपुर, केयूर, किरीट, मणिमय कुण्डल, यज्ञोपवीत, उत्तरीय वस्त्र, पुष्प-माला, रेशमी वस्त्र, हार, मुद्रिका (अँगूठी), पुष्प, ताम्बूल, कपूर, चन्दन एवं अगुरु का अनुलेप, धूप, दीप, श्वेतछत्र, व्यजन, ध्वजा, चँवर तथा अन्यान्य दिव्य उपहारों द्वारा उन दोनों ने अपने स्वामी महेश्वर का पूजन किया, जिन महेश्वर का वैभव वाणी और मन की पहुँच से परे था, जो केवल पशुपति परमात्मा के ही योग्य थे और जिन्हें पशु (बद्ध जीव) नहीं पा सकते थे ॥ ३-६क ॥

यद्यच्छ्रेष्ठतमं वस्तु पतियोग्यं हितद्ध्वजे ॥ ६

तद्वस्त्वखिलमीशोपि पारं पर्यचिकीर्षया

सभ्यानां प्रददौ हृष्टः पृथक्तत्र यथाक्रमम् ॥ ७

कोलाहलो महानासीत्तत्र तद्वस्तु गृह्णताम्

तत्रैव ब्रह्मविष्णुभ्यां चार्चितः शंकरः पुरा ॥ ८

प्रसन्नः प्राह तौ नम्रौ सस्मितं भक्तिवर्धनः॥९क

हे सनत्कुमार ! स्वामी के योग्य जो-जो उत्तम वस्तुएँ थीं, उन सभी वस्तुओं का भगवान् शंकर ने भी प्रसन्नतापूर्वक यथोचित रूप से सभासदों के बीच वितरण कर दिया, जिससे यह श्रेष्ठ परम्परा बनी रहे कि प्राप्त पदार्थों का वितरण आश्रितों में करना चाहिये । उन वस्तुओं को ग्रहण करनेवाले सभासदों में वहाँ कोलाहल मच गया । इस प्रकार वहाँ पहले ही ब्रह्मा तथा विष्णु से पूजित हुए भक्तिवर्धक भगवान् शिव विनम्र उन दोनों देवताओं से हँसकर कहने लगे ॥ ६-९क ॥

ईश्वर उवाच

तुष्टोऽहमद्य वां वत्सौ पूजयाऽस्मिन्महादिने ॥ ९

दिनमेतत्ततः पुण्यं भविष्यति महत्तरम्

शिवरात्रिरिति ख्याता तिथिरेषा मम प्रिया ॥ १०

ईश्वर बोले — हे पुत्रो ! आज का दिन महान् है । इसमें तुम्हारे द्वारा जो आज मेरी पूजा हुई है, इससे मैं तुमलोगों पर बहुत प्रसन्न हूँ । इसी कारण यह दिन परम पवित्र और महान्-से-महान् होगा । आज की यह तिथि शिवरात्रि के नाम से विख्यात होकर मेरे लिये परम प्रिय होगी ॥ ९-१० ॥

एतत्काले तु यः कुर्यात्पूजां मल्लिंगबेरयोः

कुर्यात्तु जगतः कृत्यं स्थितिसर्गादिकं पुमान् ॥ ११

इस समय जो मेरे लिंग (निष्कल–अंग-आकृति से रहित निराकार स्वरूप के प्रतीक) और वेर (सकलसाकाररूप के प्रतीक विग्रह) — की पूजा करेगा, वह पुरुष जगत् की सृष्टि और पालन आदि कार्य भी कर सकता है ॥ ११ ॥

शिवरात्रावहोरात्रं निराहारो जितेंद्रि यः

अर्चयेद्वा यथान्यायं यथाबलमवंचकः ॥ १२

यत्फलं मम पूजायां वर्षमेकं निरंतरम्

तत्फलं लभते सद्यः शिवरात्रौ मदर्चनात् ॥ १३

जो शिवरात्रि को दिन-रात निराहार एवं जितेन्द्रिय रहकर अपनी शक्ति के अनुसार निष्कपट भाव से मेरी यथोचित पूजा करेगा, उसको मिलनेवाले फल का वर्णन सुनो । एक वर्ष तक निरन्तर मेरी पूजा करने पर जो फल मिलता है, वह सारा फल केवल शिवरात्रि को मेरा पूजन करने से मनुष्य तत्काल प्राप्त कर लेता है ॥ १२-१३ ॥

मद्धर्मवृद्धिकालोऽयं चंद्र काल इवांबुधेः

प्रतिष्ठाद्युत्सवो यत्र मामको मंगलायनः ॥ १४

जैसे पूर्ण चन्द्रमा का उदय समुद्र की वृद्धि का अवसर है, उसी प्रकार यह शिवरात्रि तिथि मेरे धर्म की वृद्धि का समय है । इस तिथि में मेरी स्थापना आदि का मंगलमय उत्सव होना चाहिये ॥ १४ ॥

यत्पुनः स्तंभरूपेण स्वाविरासमहं पुरा

स कालो मार्गशीर्षे तु स्यादाद्रा ! ऋक्षमर्भकौ ॥ १५

आद्रा र्यां! मार्गशीर्षे तु यः पश्येन्मामुमासखम्

मद्बेरमपि वा लिंगं स गुहादपि मे प्रियः ॥ १६

अलं दर्शनमात्रेण फलं तस्मिन्दिने शुभे

अभ्यर्चनं चेदधिकं फलं वाचामगोचरम् ॥ १७

हे वत्सो ! पहले मैं जब ज्योतिर्मय स्तम्भरूप से प्रकट हुआ था, उस समय मार्गशीर्ष मास में आर्द्रा नक्षत्र था । अतः जो पुरुष मार्गशीर्ष मास में आर्द्रा नक्षत्र होने पर मुझ उमापति का दर्शन करता है अथवा मेरी मूर्ति या लिंग की ही झाँकी का दर्शन करता है, वह मेरे लिये कार्तिकेय से भी अधिक प्रिय है । उस शुभ दिन मेरे दर्शनमात्र से पूरा फल प्राप्त होता है । यदि [दर्शन के साथ-साथ] मेरा पूजन भी किया जाय तो उसका अधिक फल प्राप्त होता है, जिसका वाणी द्वारा वर्णन नहीं हो सकता ॥ १५-१७ ॥

रणरंगतलेऽमुष्मिन्यदहं लिंगवर्ष्मणा

जृंभितो लिंगवत्तस्माल्लिंगस्थानमिदं भवेत् ॥ १८

अनाद्यंतमिदं स्तंभमणुमात्रं भविष्यति

दर्शनार्थं हि जगतां पूजनार्थं हि पुत्रको ॥ १९

भोगावहमिदं लिंगं भुक्तिं मुक्त्येकसाधनम्

दर्शनस्पर्शनध्यानाज्जंतूनां जन्ममोचनम् ॥ २०

इस रणभूमि में मैं लिंगरूप से प्रकट होकर बहुत बड़ा हो गया था । अतः उस लिंग के कारण यह भूतल लिंगस्थान के नाम से प्रसिद्ध हुआ । हे पुत्रो ! जगत् के लोग इसका दर्शन और पूजन कर सकें, इसके लिये यह अनादि और अनन्त ज्योतिःस्तम्भ अत्यन्त छोटा हो जायगा । यह लिंग सब प्रकार के भोगों को सुलभ करानेवाला और भोग तथा मोक्ष का एकमात्र साधन होगा । इसका दर्शन, स्पर्श तथा ध्यान प्राणियों को जन्म और मृत्यु से छुटकारा दिलानेवाला होगा ॥ १८-२० ॥

अनलाचलसंकाशं यदिदं लिंगमुत्थितम्

अरुणाचलमित्येव तदिदं ख्यातिमेष्यति ॥ २१

अत्र तीर्थं च बहुधा भविष्यति महत्तरम्

मुक्तिरप्यत्र जंतूनां वासेन मरणेन च ॥ २२

अग्नि के पहाड़-जैसा जो यह शिवलिंग यहाँ प्रकट हुआ है, इसके कारण यह स्थान अरुणाचल नाम से प्रसिद्ध होगा । यहाँ अनेक प्रकार के बड़े-बड़े तीर्थ प्रकट होंगे । इस स्थान में निवास करने या मरने से जीवों का मोक्ष हो जायगा ॥ २१-२२ ॥

रथोत्सवादिकल्याणं जनावासं तु सर्वतः

अत्र दत्तं हुतं जप्तं सर्वं कोटिगुणं भवेत् ॥ २३

मत्क्षेत्रादपि सर्वस्मात्क्षेत्रमेतन्महत्तरम्

अत्र संस्मृतिमात्रेण मुक्तिर्भवति देहिनाम् ॥ २४

तस्मान्महत्तरमिदं क्षेत्रमत्यंतशोभनम्

सर्वकल्याणसंपूर्णं सर्वमुक्तिकरं शुभम् ॥ २५

रथोत्सवादि के आयोजन से यहाँ सर्वत्र अनेक लोग कल्याणकारी रूप से निवास करेंगे । इस स्थान पर किया गया दान, हवन तथा जप — यह सब करोड़ गुना फल देनेवाला होगा । यह क्षेत्र मेरे सभी क्षेत्रों में श्रेष्ठतम होगा । यहाँ मेरा स्मरण करनेमात्र से प्राणियों की मुक्ति हो जायगी । अतः यह परम रमणीय क्षेत्र अति महत्त्वपूर्ण है । यह सभी प्रकार के कल्याणों से पूर्ण, शुभ और सबको मुक्ति प्रदान करनेवाला होगा ॥ २३-२५ ॥

अर्चयित्वाऽत्र मामेव लिंगे लिंगिनमीश्वरम्

सालोक्यं चैव सामीप्यं सारूप्यं सार्ष्टिरेव च ॥ २६

सायुज्यमिति पंचैते क्रियादीनां फलं मतम्

सर्वेपि यूयं सकलं प्राप्स्यथाशु मनोरथम् ॥ २७

इस लिंग में मुझ लिंगेश्वर की अर्चना करके मनुष्य सालोक्य, सामीप्य, सारूप्य, सार्ष्टि और सायुज्य — इन पाँचों प्रकार की मुक्तियों का अधिकार प्राप्त कर लेगा । आपलोगों को भी शीघ्र ही सभी मनोवांछित फल प्राप्त होंगे ॥ २६-२७ ॥

नंदिकेश्वर उवाच

इत्यनुगृह्य भगवान्विनीतौ विधिमाधवौ

यत्पूर्वं प्रहतं युद्धे तयोः सैन्यं परस्परम् ॥ २८

तदुत्थापयदत्यर्थं स्वशक्त्याऽमृतधारया

तयोर्मौढ्यं च वैरं च व्यपनेतुमुवाच तौ ॥ २९

नन्दिकेश्वर बोले — इस प्रकार विनम्र ब्रह्मा तथा विष्णु पर अनुग्रह करके भगवान् शंकर ने उनके जो सैन्यदल परस्पर युद्ध में मारे गये थे, उन्हें अपनी अमृतवर्षिणी शक्ति से जीवित कर दिया । उन दोनों ब्रह्मा और विष्णु की मूढ़ता और [पारस्परिक] वैर को मिटाने के लिये भगवान् शंकर उन दोनों से कहने लगे — ॥ २८-२९ ॥

सकलं निष्कलं चेति स्वरूपद्वयमस्ति मे

नान्यस्य कस्यचित्तस्मादन्यः सर्वोप्यनीश्वरः ॥ ३०

पुरस्तात्स्तंभरूपेण पश्चाद्रू पेण चार्भकौ

ब्रह्मत्वं निष्कलं प्रोक्तमीशत्वं सकलं तथा ॥ ३१

द्वयं ममैव संसिद्धं न मदन्यस्य कस्यचित्

तस्मादीशत्वमन्येषां युवयोरपि न क्वचित् ॥ ३२

मेरे दो रूप हैं — ‘सकल’ और ‘निष्कल’ । दूसरे किसी के ऐसे रूप नहीं हैं, अतः [मेरे अतिरिक्त] अन्य सब अनीश्वर हैं । हे पुत्रो ! पहले मैं स्तम्भरूप से प्रकट हुआ, फिर अपने साक्षात्-रूप से । ‘ब्रह्मभाव’ मेरा ‘निष्कल’ रूप और ‘महेश्वरभाव’ सकल रूप है । ये दोनों मेरे ही सिद्धरूप हैं; मेरे अतिरिक्त किसी दूसरे के नहीं हैं । इस कारण तुम दोनों का अथवा अन्य किसी का भी ईश्वरत्व कभी नहीं है ॥ ३०-३२ ॥

तदज्ञानेन वां वृत्तमीशमानं महाद्भुतम्

तन्निराकर्तुमत्रैवमुत्थितोऽहं रणक्षितौ ॥ ३३

त्यजतं मानमात्मीयं मयीशे कुरुतं मतिम्

मत्प्रसादेन लोकेषु सर्वोप्यर्थः प्रकाशते ॥ ३४

गुरूक्तिर्व्यंजकं तत्र प्रमाणं वा पुनः पुनः

ब्रह्मतत्त्वमिदं गूढं भवत्प्रीत्या भणाम्यहम् ॥ ३५

अज्ञान के कारण तुम दोनों को जो यह ईशत्व का आश्चर्यजनक अभिमान उत्पन्न हो गया था, उसे दूर करने के लिये ही मैं इस रणभूमि में प्रकट हुआ हूँ । उस अपने अभिमान को छोड़ दो और मुझ परमेश्वर में [अपनी] बुद्धि स्थिर करो । मेरे अनुग्रह से ही सभी लोकों में सब कुछ प्रकाशित होता है । इस गूढ़ ब्रह्मतत्त्व को तुम्हारे प्रति प्रेम होने के कारण ही मैं बता रहा हूँ ॥ ३३-३५ ॥

अहमेव परं ब्रह्म मत्स्वरूपं कलाकलम्

ब्रह्मत्वादीश्वरश्चाहं कृत्यं मेनुग्रहादिकम् ॥ ३६

बृहत्त्वाद्बृंहणत्वाच्च ब्रह्माहं ब्रह्मकेशवौ

समत्वाद्व्यापकत्वाच्च तथैवात्माहमर्भकौ ॥ ३७

मैं ही परब्रह्म हूँ । कल (सगुण) और अकल (निर्गुण) — ये दोनों मेरे ही स्वरूप हैं । मेरा स्वरूप ब्रह्मरूप होने के कारण मैं ईश्वर भी हूँ । जीवों पर अनुग्रह आदि करना मेरा कार्य है । हे ब्रह्मा और केशव ! सबसे बृहत् और जगत् की वृद्धि करनेवाला होने के कारण मैं ‘ब्रह्म’ हूँ । हे पुत्रो ! सर्वत्र समरूप से स्थित और व्यापक होने से मैं ही सबका आत्मा हूँ ॥ ३६-३७ ॥

अनात्मानः परे सर्वे जीवा एव न संशयः

अनुग्रहाद्यं सर्गांतं जगत्कृत्यं च पंकजम् ॥ ३८

ईशत्वादेव मे नित्यं न मदन्यस्य कस्यचित्

आदौ ब्रह्मत्त्वबुद्ध्यर्थं निष्कलं लिंगमुत्थितम् ॥ ३९

तस्मादज्ञातमीशत्वं व्यक्तं द्योतयितुं हि वाम्

सकलोहमतो जातः साक्षादीशस्तु तत्क्षणात् ॥ ४०

सकलत्वमतो ज्ञेयमीशत्वं मयि सत्वरम्

यदिदं निष्कलं स्तंभं मम ब्रह्मत्वबोधकम् ॥ ४१

लिंगलक्षणयुक्तत्वान्मम लिंगं भवेदिदम्

तदिदं नित्यमभ्यर्च्यं युवाभ्यामत्र पुत्रकौ ॥ ४२

मदात्मकमिदं नित्यं मम सान्निध्यकारणम्

महत्पूज्यमिदं नित्यमभेदाल्लिंगसिंगिनोः ॥ ४३

अन्य सभी जीव अनात्मरूप हैं; इसमें सन्देह नहीं है । सर्ग से लेकर अनुग्रह तक (आत्मा या ईश्वर से भिन्न) जो जगत्-सम्बन्धी पाँच कृत्य हैं, वे सदा मेरे ही हैं, मेरे अतिरिक्त दूसरे किसी के नहीं हैं; क्योंकि मैं ही सबका ईश्वर हूँ । पहले मेरी ब्रह्मरूपता का बोध कराने के लिये ‘निष्कल’ लिंग प्रकट हुआ था, फिर तुम दोनों को अज्ञात ईश्वरत्व का स्पष्ट साक्षात्कार कराने के लिये मैं साक्षात् जगदीश्वर ही ‘सकल’ रूप में तत्काल प्रकट हो गया । अतः मुझमें जो ईशत्व है, उसे ही मेरा सकलरूप जानना चाहिये तथा जो यह मेरा निष्कल स्तम्भ है, वह मेरे ब्रह्मस्वरूप का बोध करानेवाला है । हे पुत्रो ! लिंगलक्षणयुक्त होने के कारण यह मेरा ही लिंग (चिह्न) है । तुम दोनों को प्रतिदिन यहाँ रहकर इसका पूजन करना चाहिये । यह मेरा ही स्वरूप है और मेरे सामीप्य की प्राप्ति करानेवाला है । लिंग और लिंगी में नित्य अभेद होने के कारण मेरे इस लिंग का महान् पुरुषों को भी पूजन करना चाहिये ॥ ३८-४३ ॥

यत्रप्रतिष्ठितं येन मदीयं लिंगमीदृशम्

तत्र प्रतिष्ठितः सोहमप्रतिष्ठोपि वत्सकौ ॥ ४४

हे वत्सो ! जहाँ-जहाँ जिस किसी ने मेरे लिंग को स्थापित कर लिया, वहाँ मैं अप्रतिष्ठित होने पर भी प्रतिष्ठित हो जाता हूँ ॥ ४४ ॥

मत्साम्यमेकलिंगस्य स्थापने फलमीरितम्

द्वितीये स्थापिते लिंगे मदैक्यं फलमेव हि ॥ ४५

मेरे एक लिंग की स्थापना करने का फल मेरी समानता की प्राप्ति बताया गया है । एक के बाद दूसरे शिवलिंग की भी स्थापना कर दी गयी, तब फलरूप से मेरे साथ एकत्व (सायुज्य मोक्ष)-रूप फल प्राप्त होता है ॥ ४५ ॥

लिंगं प्राधान्यतः स्थाप्यं तथाबेरं तु गौणकम्

लिंगाभावेन तत्क्षेत्रं सबेरमपि सर्वतः ॥ ४६

इति श्रीशिवमहापुराणे विद्येश्वरसंहितायां नवमोऽध्यायः ९॥

प्रधानतया शिवलिंग की ही स्थापना करनी चाहिये । मूर्ति की स्थापना उसकी अपेक्षा गौण है । शिवलिंग के अभाव में सब ओर से मूर्तियुक्त होने पर भी वह स्थान क्षेत्र नहीं कहलाता ॥ ४६ ॥

॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराण के अन्तर्गत प्रथम विद्येश्वरसंहिता में शिव के महेश्वरत्व का वर्णन नामक नौवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ९ ॥

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