श्री शिव रक्षा स्तोत्रम् || Shiv Raksha Stotram
शिव रक्षा स्तोत्र के रचयिता याज्ञवल्क्य ऋषि हैं। भगवान नारायण ने याज्ञवल्क्य ऋषि के सपने में इस स्तोत्र का वर्णन किया था। इसे शिव रक्षा कवच स्तोत्र या शिव अभयंकर कवच के नाम से भी जाना जाता है।
सभी बुरी शक्तियों, रोगों, दुर्घटनाओं और दरिद्रता से रक्षा के लिए भगवान् शिव के इस रक्षा स्तोत्र का पाठ करना चाहिए।
श्री शिव रक्षा स्तोत्रम्
विनियोग : (हाथ में जल लेकर निम्न विनियोग पढ़ें)
ॐ अस्य श्रीशिवरक्षास्तोत्रमन्त्रस्य याज्ञवल्क्य ऋषिः श्रीसदाशिवः देवता, अनुष्टुप् छन्दः, श्रीसदाशिवप्रीत्यर्थं आत्मरक्षणार्थे शिवरक्षास्तोत्रजपे च पाठे विनियोग:।
(ऐसा बोलकर जल भूमि पर छोड़ दें!)
चरितं देवदेवस्य महादेवस्य पावनम् ।
अपारं परमोदारं चतुर्वर्गस्य साधनम् ॥ १॥
देवाधिदेव महादेव का यह परम पवित्र चरित्र चतुर्वर्ग (धर्म,अर्थ,काम व मोक्ष)की सिद्धि प्रदान करने वाला साधन है,यह अतीव उदार है ,इसकी उदारता का कोई पार नहीं है।
गौरीविनायकोपेतं पञ्चवक्त्रं त्रिनेत्रकम् ।
शिवं ध्यात्वा दशभुजं शिवरक्षां पठेन्नरः ॥ २॥
अर्थ- साधक को गौरी और विनायक से युक्त, पाँच मुख वाले दश भुजाधारी त्र्यम्बक भगवान शिव का ध्यान करके शिव रक्षा स्तोत्र का पाठ करना चाहिए। (पाठ करते समय भगवान शिव का इस प्रकार से ध्यान करना चाहिए !)
गंगाधरः शिरः पातु भालं अर्धेन्दुशेखरः ।
नयने मदनध्वंसी कर्णो सर्पविभूषण ॥ ३॥
अर्थ- गंगा को जटाजूट में धारण करने वाले गंगाधर शिव मेरे मस्तक की,शिरोभूषण के रूप में अर्धचन्द्र को धारण करने वाले अर्धेन्दुशेखर मेरे ललाट की,मदन को ध्वंस करने वाले मदनदहन मेरे दोनों नेत्रों की, सर्प को आभूषण के रूप में धारण करने वाले सर्पविभूषण शिव मेरे कानों की रक्षा करें।
घ्राणं पातु पुरारातिः मुखं पातु जगत्पतिः ।
जिह्वां वागीश्वरः पातु कन्धरां शितिकन्धरः ॥ ४॥
अर्थ-त्रिपुरासुर के विनाशक पुराराति मेरे घ्राण (नाक) की,जगत की रक्षा करने वाले जगत्पति मेरे मुख की, वाणी के स्वामी वागीश्वर मेरी जिह्वा की, शितिकन्धर (नीलकण्ठ) मेरी गर्दन की रक्षा करें।
श्रीकण्ठः पातु मे कण्ठं स्कन्धौ विश्वधुरन्धरः ।
भुजौ भूभारसंहर्ता करौ पातु पिनाकधृक् ॥ ५॥
अर्थ- श्री अर्थात् सरस्वती यानी वाणी निवास करती है जिनके कण्ठ में ऐसे श्रीकण्ठ मेरे कण्ठ की, विश्व की धुरी को धारण करने वाले विश्वधुरन्धर शिव मेरे दोनों कन्धों की,पृथ्वी के भारस्वरुप दैत्यादि का संहार करने वाले भूभारसंहर्ता शिव मेरी दोनों भुजाओं की,पिनाक धारण करने वाले पिनाकधृक मेरे दोनों हाथों की रक्षा करें।
हृदयं शंकरः पातु जठरं गिरिजापतिः ।
नाभिं मृत्युञ्जयः पातु कटी व्याघ्राजिनाम्बरः ॥ ६॥
अर्थ- भगवान शंकर मेरे हृदय की और गिरिजापति मेरे जठरदेश की रक्षा करें। भगवान मृत्युंजय मेरी नाभि की रक्षा करें तथा व्याघ्रचर्म को वस्त्ररूप में धारण करने वाले भगवान शिव मेरे कटि-प्रदेश की रक्षा करें।
सक्थिनी पातु दीनार्तशरणागतवत्सलः ॥
उरू महेश्वरः पातु जानुनी जगदीश्वरः ॥ ७॥
अर्थ- दीन, आर्त और शरणागतों के प्रेमी-दीनार्तशरणागतवत्सल मेरे समस्त सक्थियों (हड्डियों) की,महेश्वर मेरे ऊरूओं तथा जगदीश्वर मेरे जानुओं की रक्षा करें।
जङ्घे पातु जगत्कर्ता गुल्फौ पातु गणाधिपः ॥
चरणौ करुणासिंधुः सर्वाङ्गानि सदाशिवः ॥ ८॥
अर्थ- जगत्कर्ता मेरे जंघाओं की, गणाधिप दोनों गुल्फों (एड़ी की ऊपरी ग्रंथि) की,करुणासिन्धु दोनों चरणों की तथा भगवान सदाशिव मेरे सभी अंगों की रक्षा करें।
शिव रक्षा स्तोत्र फलश्रुति
एतां शिवबलोपेतां रक्षां यः सुकृती पठेत् ।
स भुक्त्वा सकलान्कामान् शिवसायुज्यमाप्नुयात् ॥ ९॥
अर्थ- जो सुकृती साधक कल्याणकारिणी शक्ति से युक्त इस शिव रक्षा स्तोत्र का पाठ करता है, वह समस्त कामनाओं का उपभोग कर अन्त में शिवसायुज्य को प्राप्त करता है।
ग्रहभूतपिशाचाद्यास्त्रैलोक्ये विचरन्ति ये ।
दूरादाशु पलायन्ते शिवनामाभिरक्षणात् ॥ १० ॥
अर्थ-त्रिलोक में जितने ग्रह, भूत, पिशाच आदि विचरण करते हैं, वे सभी इस शिव रक्षा स्तोत्र के पाठ मात्र से ही तत्क्षण दूर भाग जाते हैं।
अभयङ्करनामेदं कवचं पार्वतीपतेः ।
भक्त्या बिभर्ति यः कण्ठे तस्य वश्यं जगत्त्रयम् ॥ ११॥
अर्थ-जो साधक भक्तिपूर्वक पार्वतीपति शंकर के इस “अभयंकर” नामक कबच को कण्ठ में धारण करता है, तीनों लोक उसके अधीन हो जाते हैं।
इमां नारायणः स्वप्ने शिवरक्षां यथाऽऽदिशत् ।
प्रातरुत्थाय योगीन्द्रो याज्ञवल्क्यः तथाऽलिखत् ॥ १२॥
अर्थ- भगवान नारायण ने स्वप्न में इस “शिव रक्षा स्तोत्र” का इस प्रकार उपदेश किया, योगीन्द्र मुनि याज्ञवल्क्य ने प्रात:काल उठकर उसी प्रकार इस स्तोत्र को लिख लिया।
इति श्रीयाज्ञवल्क्यप्रोक्तं शिव रक्षा स्तोत्रम् सम्पूर्णम्।।
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