श्री कृष्ण जन्माष्टमी, Shri Krishna Janmashtami श्रीकृष्णजन्माष्टमी

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कृष्ण जन्माष्टमी, जिसे केवल जन्माष्टमी या गोकुलाष्टमी के रूप में भी जाना जाता है, एक वार्षिक हिंदू त्योहार है जो विष्णुजी के दशावतारों में से आठवें और चौबीस अवतारों में से बाईसवें अवतार श्रीकृष्ण के जन्म दिवस के रूप में मनाया जाता है। यह हिंदू चंद्र कैलेंडर के अनुसार, कृष्ण पक्ष (अंधेरे पखवाड़े) के आठवें दिन (अष्टमी) को भाद्रपद में मनाया जाता है ।

श्रीकृष्णजन्माष्टमी – व्रत की विधि

( शिवपुराण, विष्णपुराणु, ब्रह्मवैवर्त, अग्निपुराण, भविष्यादि पुराणों में जन्माष्टमी व्रत का उल्लेख है ।) –

यह व्रत भाद्रपद कृष्ण अष्टमी को किया जाता है । भगवान् श्रीकृष्ण का जन्म भाद्रपद कृष्ण अष्टमी बुधवार को रोहिणी नक्षत्र में अर्धरात्रि के समय वृष राशि के चन्द्रमा में हुआ था । अतः अधिकांश उपासक उक्त बातों में अपने – अपने अभीष्ट योग का ग्रहण करते हैं । शास्त्र में इसके शुद्धा और विद्धा दो भेद हैं । उदय से उदयपर्यन्त शुद्धा और तद्गत सप्तमी या नवमी से विद्धा होती है । शुद्धा या विद्धा भी – समा, न्यूना या अधिका के भेद से तीन प्रकार की हो जाती हैं और इस प्रकार अठारह भेद बन जाते हैं, परंतु सिद्धान्तरुप में तत्कालव्यापिनी (अर्धरात्रि में रहनेवाली ) तिथि अधिक मान्य होती हैं । वह यदि दो दिन हो – या दोनों ही दिन न हो तो (सप्तमीविद्धा को सर्वथा त्यागक ) नवमी – विद्धा का ग्रहण करना चाहिये । यह सर्वमान्य और पापघ्नव्रत बाल, कुमार, युवा और वृद्ध – सभी अवस्थावाले नर – नारियों के करने योग्य है । इससे उनके पापों की निवृत्ति और सुखादि की वृद्धि होती है । जो इसको नहीं करते, उनको पाप होता है । इसमें अष्टमी के उपवास से पूजन और नवमी के ( तिथिमात्र ) पारणा से व्रत की पूर्ति होती है । व्रत करनेवाले को चाहिये कि उपवास के पहले दिन लघु भोजन करे । रात्रि में जितेन्द्रिय रहे और उपवास के दिन प्रातःस्नानादि नित्यकर्म करके सूर्य, सोम, यम, काल, सन्धि, भूत, पवन, दिक्पति, भूमि, आकाश, खेचर, अमर और ब्रह्म आदि को नमस्कार करके पूर्व या उत्तर मुख बैठे; हाथ में जल, फल, कुश, फूल और गन्ध लेकर –

‘ ममखिलपापप्रशमनपूर्वंक सर्वाभीष्टसिद्धये श्रीकृष्णजन्माष्टमी – व्रतमहं करिष्ये ‘

यह संकल्प करे और मध्याह्न के समय काले तिलों के जल से स्त्रान करके देवकीजी के लिये ‘ सूतिकागृह ‘ नियत करे । उसे स्वच्छ और सुशोभित करके उसमें सूतिका के उपयोगी सब सामग्री यथाक्रम रखे । सामर्थ्य हो तो गाने – बजाने का भी आयोजन करे । प्रसूतिगृह के सुखद विभाग में सुन्दर और सुकोमल बिछौने के सुदृढ़ मञ्च पर अक्षतादि का मण्डल बनवाकर उसपर शुभ कलश स्थापन करे और उसी पर सोना, चाँदी, ताँबा, पीतल, मणि, वृक्ष, मिट्टी या चित्ररुप की मूर्ति स्थापित करे । मूर्ति में सद्यःप्रसूत श्रीकृष्ण को स्तनपान कराती हुई देवकी हों और लक्ष्मीजी उनके चरण स्पर्श किये हुए हों – ऐसा भाव प्रकट रहे । इसके बाद यथासमय भगवान् के प्रकट होने की भावना करके वैदिक विधि से, पौराणिक प्रकार से अथवा अपने सम्प्रदाय की पद्धति से पञ्चोपचार, दशोपचार, षोडशोपचार या आवरणपूजा आदि में जो बन सके वही प्रीतिपूर्वक करे । रात्रि में पूजा के अवसर पर निम्नोक्त रीति से संकल्प करे –

‘मम चतुर्वर्गसिद्धिद्वारा श्रीकृष्णदेवस्य यथामिलितोपचारैः पूजनं करिष्ये ।

पूजन में देवकी, वसुदेव, वासुदेव, बलदेव, नन्द, यशोदा और लक्ष्मी – इन सबका क्रमशः नाम निर्दिष्ट करना चाहिये । अन्त में

‘प्रणये देवजननीं त्वया जातस्तु वामनः ।

वसुदेवात् तथा कृष्णो नमस्तुभ्यं नमो नमः ॥

सपुत्रार्ध्यं प्रदत्तं मे गृहाणेमं नमोऽस्तु ते ।’

से देवकी को अर्घ्य दे और

‘ धर्माय धर्मेश्वराय धर्मपतये धर्मसम्भवाय गोविन्दाय नमो नमः ।

‘ से श्रीकृष्ण को ‘ पुष्पाञ्जलि ‘ अर्पण करे । तत्पश्चात् जातकर्म, नालच्छेदन, षष्ठीपूजन और नामकरणादि करके

‘ सोमाय सोमेश्वराय सोमपतये सोमसम्भवाय सोमाय नमो नमः ।’

से चन्द्रमा का पूजन करे और फिर शड्ख में जल, फल, कुश, कुसुम और गन्ध डालकर दोनों घुटने जमीन में लगावे और

‘ क्षीरोदार्णवसंभूत अत्रिनेत्र समुद्भव ।

गृहाणार्घ्यं शशाड्केमं रोहिण्या सहितो मम ॥

ज्योत्स्नापते नमस्तुभ्यं नमस्ते ज्योतिषाम्पते ।

नमस्ते रोहिणीकान्त अर्घ्य में प्रतिगृह्यताम् ॥’

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से चन्द्रमा को अर्घ्य दे और रात्रि के शेष भाग को स्तोत्र पाठादि करते हुए बितावे । उसके बाद दूसरे दिन पूर्वाह्ण में पुनः स्नानादि करके जिस तिथि या नक्षत्रादि के योग में व्रत किया हो उसका अन्त होने पर पारणा करे । यदि अभीष्ट तिथि या नक्षत्रादि के समाप्त होने में विलम्ब हो तो जल पीकर पारण की पूर्ति करे । जन्माष्टमी-व्रत के दिन कुछ लोग कुछ भी ग्रहण न करके निराहार रहते हैं, कुछ लोग दिन में हल्का फलाहार कर लेते हैं तथा कुछ लोग दिन में कुछ भी ग्रहण न करके भगवान् के जन्मोत्सव के पूजन आदि के पश्चात् रात्रि में फलाहार या अन्नाहार लेते हैं । सामान्यतः मध्यरात्रि के बाद कुछ भी न खाने का विधान है, पर जन्माष्टमी ‘मोहरात्रि’ है । अतएव इस दिन मध्यरात्रि के पश्चात् भी ब्राह्ममुहूर्त अर्थात् अगले दिन के सूर्योदय से २ घण्टे २४ मिनट पूर्व तक फलाहार या अन्नाहार-जो भी भगवान् को भोग लगा हो – ग्रहण किया जा सकता है ।

श्रीकृष्णजन्माष्टमी में पूजन के लिए पढ़े- श्रीकृष्ण पूजन विधि

ब्रह्मवैवर्तपुराण, भविष्यपुराण तथा अग्नि पुराण में वर्णित जन्माष्टमी व्रत का वर्णन निम्नानुसार है –
जन्माष्टमी व्रत

जन्माष्टमी व्रत – अग्निपुराण अध्याय १६३

भारत के विभिन्न राज्यों में 12 अनोखे जन्माष्टमी समारोह

अग्निदेव कहते हैं – वसिष्ठ ! अब मैं अष्टमी को किये जानेवाले व्रतों का वर्णन करूँगा । उनमें पहला रोहिणी नक्षत्रयुक्त अष्टमी का व्रत है । भाद्रपद मास के कृष्णपक्ष की रोहिणी नक्षत्र से युक्त अष्टमी तिथि को ही अर्धरात्रि के समय भगवान् श्रीकृष्ण का प्राकट्य हुआ था, इसलिये इसी अष्टमी को उनकी जयन्ती मनायी जाती है । इस तिथि को उपवास करने से मनुष्य सात जन्मों के किये हुए पापों से मुक्त हो जाता है ॥ अतएव भाद्रपद के कृष्णपक्ष की रोहिणीनक्षत्रयुक्त अष्टमी को उपवास रखकर भगवान् श्रीकृष्ण का पूजन करना चाहिये । यह भोग और मोक्ष प्रदान करनेवाला है ॥ पूजन की विधि इस प्रकार है –

आवाहन-मन्त्र और नमस्कार

आवाहयाम्यहं कृष्णं बलभद्रं च देवकीम ।

वसुदेवं यशोदां गा: पूजयामि नमोऽस्तु ते ॥

योगाय योगपतये योगेसहाय नमो नमः ।

योगादिसम्भवायैव गोविन्दाय नमो नमः ॥

‘मैं श्रीकृष्ण, बलभद्र, देवकी, वसुदेव, यशोदादेवी और गौओं का आवाहन एवं पूजन करता हूँ; आप सबको नमस्कार है । योग के आदिकारण, उत्पत्तिस्थान श्रीगोविंद के लिये बारंबार नमस्कार है’ ॥

तदनंतर भगवान् श्रीकृष्ण को स्नान कराये और इस मंत्र से उन्हें अर्घ्यदान करे –

यज्ञेश्वराय यज्ञाय यज्ञानां पतये नमः ।

यज्ञादिसम्भवायैव गोविन्दाय नमो नमः ॥

‘यज्ञेश्वर, यज्ञस्वरूप, यज्ञों के अधिपति एवं यज्ञ के आदि कारण श्रीगोविंद को बारंबार नमस्कार है ।’

पुष्प-धुप

गृहाण देव पुष्पाणि सुगन्धिनि प्रियाणि ते ।

सर्वकामप्रदो देव भव में देववंदित ॥

धूपधूपित धूपं त्वं धुपितैस्त्वं गृहाण में ।

सुगन्धिधुपगन्धाढयं कुरु मां सर्वदा हरे ॥

‘देव ! आपके प्रिय ये सुगन्धयुक्त पुष्प ग्रहण कीजिये । देवताओं द्वारा पूजित भगवन ! मेरी सारी कामनाएँ सिद्ध कीजिये । आप धूप से सदा धूपित हैं, मेरे द्वारा अर्पित धूप-दान से आप धूप की सुगन्ध ग्रहण कीजिये । श्रीहरे ! मुझे सदा सुगन्धित पुष्पों, धूप एवं गंधसे सम्पन्न कीजिये ।’

दीप-दान

दीपदीप्त महादीपं दीपदीप्तिद सर्वदा ।

मया दत्तं गृहाण त्वं कुरु चोर्ध्वगतिं च माम ॥

विश्वाय विश्वपतये विश्वेशाय नमो नमः ।

विश्वादिसम्भवायैव गोविन्दाय निवेदितम ॥

‘प्रभो ! आप सर्वदा समान देदीप्यमान एवं दीप को दीप्ति प्रदान करनेवाले हैं । मेरे द्वारा दिया गया यह महादीप ग्रहण कीजिये और मुझे भी (दीप के समान) ऊर्ध्वगति से युक्त कीजिये । विश्वरूप, विश्वपति, विश्वेश्वर, श्रीकृष्ण के लिये नमस्कार है, नमस्कार है । विश्वके आदिकारण श्रीगोविन्द को मैं यह दीप निवेदन करता हूँ ।

शयन – मन्त्र

धर्माय धर्मपतये धर्मेशाय नमो नमः ।

धर्मादिसम्भवायैव गोविन्द शयनं कुरु ॥

सर्वाय सर्वपतये सर्वेशाय नमो नमः ।

सर्वादिसम्भवायैव गोविन्दाय नमो नमः ॥

‘धर्मस्वरूप, धर्म के अधिपति, धर्मेश्वर एवं धर्म के आदिस्थान श्रीवासुदेव को नमस्कार है । गोविन्द ! अब शाप शयन कीजिये । सर्वरूप, सबके अधिपति, सर्वेश्वर, सबके आदिकारण श्रीगोविंद को बारंबार नमस्कार हैं ।’ तदनन्तर रोहिणीसहित चन्द्रमा को निम्नालिखित मन्त्र पढ़कर अर्घ्यदान दे –

क्षीरोदार्णवसम्भुत अत्रिनेत्रसमुद्धव ।

गृहाणार्घ्य शशाक्केदं रोहिण्या सहितो मम ॥

‘क्षीरसमुद्र से प्रकट एवं अत्रि के नेत्र से उद्भूत तेजःस्वरुप शशांक ! रोहिणी के साथ मेरा अर्घ्य स्वीकार कीजिये ।’ फिर भगवद्विग्रह को वेदिका पर स्थापित करे और चंद्रमासहित रोहिणी का पूजन करे । तदनंतर अर्धरात्रि के समय वसुदेव, देवकी, नन्द-यशोदा और बलराम का गुड़ और घृतमिश्रित दुग्ध- धारा से अभिषेक करे । तत्पश्चात् व्रत करनेवाला मनुष्य ब्राह्मणों को भोजन करावे और दक्षिणा में उन्हें वस्त्र और सुवर्ण आदि दे । जन्माष्टमी का व्रत करनेवाला पुत्रयुक्त होकर विष्णुलोक का भागी होता है । जो मनुष्य पुत्रप्राप्ति की इच्छासे प्रतिवर्ष इस व्रत का अनुष्ठान करता है, वह ‘पुम’ नामक नरक के भय से मुक्त हो जाता है । (सकाम व्रत करनेवाला भगवान् गोविन्द से प्रार्थना करे ) ‘प्रभो ! मुझे धन, पुत्र, आयु, आरोग्य और संतति दीजिये । गोविन्द ! मुझे धर्म, काम, सौभाग्य, स्वर्ग और मोक्ष प्रदान कीजिये’ ॥
श्रीकृष्णजन्माष्टमी व्रत के पूजन,उपवास और महत्त्व आदि का निरूपण

ब्रह्मवैवर्त पुराण श्रीकृष्णजन्मखण्ड: अध्याय 8

नारद जी बोले– भगवन! जन्माष्टमी-व्रत समस्त व्रतों में उत्तम कहा गया है। अतः आप उसका वर्णन कीजिये। जिस जन्माष्टमी-व्रत में जयन्ती नामक योग प्राप्त होता है, उसका फल क्या है? तथा सामान्यतः जन्माष्टमी-व्रत का अनुष्ठान करने से किस फल की प्राप्ति होती है? इस समय इन्हीं बातों पर प्रकाश डालिये। महामुने! यदि व्रत न किया जाए अथवा व्रत के दिन भोजन कर लिया जाए तो क्या दोष होता है? जयन्ती अथवा सामान्य जन्माष्टमी में उपवास करने से कौन-सा अभीष्ट फल प्राप्त होता है? प्रभो! उक्त व्रत में पूजन का विधान क्या है? कैसे संयम करना चाहिये? उपवास अथवा पारणा में पूजन एवं संयम का नियम क्या है? इस विषय में भलीभाँति विचार करके कहिये।

भगवान नारायण ने कहा– मुने! सप्तमी तिथि को तथा पारणा के दिन व्रती पुरुष को हविष्यान्न भोजन करके संयमपूर्वक रहना चाहिये। सप्तमी की रात्रि व्यतीत होने पर अरुणोदय की वेला में उठकर व्रती पुरुष प्रातःकालिक कृत्य पूर्ण करने के अनन्तर स्नानपूर्वक संकल्प करे। उस संकल्प में यह उद्देश्य रखना चाहिये कि आज मैं श्रीकृष्ण प्रीति के लिये व्रत एवं उपवास करूँगा। मन्वादि तिथि प्राप्त होने पर स्नान और पूजन करने से जो फल मिलता है, भाद्रपद मास की अष्टमी तिथि को स्नान और पूजन करने से वही फल कोटिगुना अधिक होता है। उस तिथि को जो पितरों के लिये जलमात्र अर्पण करता है, वह मानो लगातार सौ वर्षों तक पितरों की तृप्ति के लिये गयाश्राद्ध का सम्पादन कर लेता है; इसमें संशय नहीं है।

स्नान और नित्यकर्म करके सूतिकागृह का निर्माण करे। वहाँ लोहे का खड्ग, प्रज्वलित अग्नि तथा रक्षकों का समूह प्रस्तुत करे। अन्यान्य अनेक प्रकार की आवश्यक सामग्री तथा नाल काटने के लिये कैंची लाकर रखे। विद्वान पुरुष यत्नपूर्वक एक ऐसी स्त्री को भी उपस्थित करे, जो धाय का काम करे। सुन्दर षोडशोपचार पूजन की सामग्री, आठ प्रकार के फल, मिठाइयाँ और द्रव्य– इन सबका संग्रह कर ले। जायफल, कंकोल, अनार, श्रीफल, नारियल, नीबू और मनोहर कूष्माण्ड आदि फल संग्रहणीय हैं। आसन, वसन, पाद्य, मधुपर्क, अर्घ्य, आचमनीय, स्नानीय, शय्या, गन्ध, पुष्प नैवेद्य, ताम्बूल, अनुलेपन, धूप, दीप और आभूषण– ये सोलह उपचार हैं।

पैर धोकर स्नान के पश्चात दो धुले हुए वस्त्र धारण करके आसन पर बैठे और आचमन करके स्वस्तिवाचनपूर्वक कलश-स्थापना करे। कलश पर परमेश्वर श्रीकृष्ण का आवाहन करके वसुदेव-देवकी, नन्द-यशोदा, बलदेव-रोहिणी, षष्ठीदेवी, पृथ्वी, ब्रह्मनक्षत्र– रोहिणी, अष्टमी तिथि की अधिष्ठात्री देवी, स्थान देवता, अश्वत्थामा, बलि, हनुमान, विभीषण, कृपाचार्य, परशुराम, व्यासदेव तथा मार्कण्डेय मुनि– इन सबका आवाहन करके श्रीहरि का ध्यान करे। मस्तक पर फूल चढ़ाकर विद्वान पुरुष फिर ध्यान करे। सामवेदोक्त ध्यान इसे ब्रह्मा जी ने सबसे पहले महात्मा सनत्कुमार को बताया था।

बालं नीलांबुजाभमतिशयरुचिरं स्मेरवक्त्रांबुजं तं

ब्रह्मेशानंतधर्मैः कतिकतिदिवसैः स्तूयमानं परं यत् ।।

ध्यानासाध्यमृषीन्द्रैर्मुनिगणमनुजैः सिद्धसंघैरसाध्यं

योगींद्राणामचिंत्यमतिशयमतुलं साक्षिरूपं भजेऽहम् ।।

मैं श्याम-मेघ के समान अभिराम आभावाले साक्षिस्वरूप बालमुकुन्द का भजन करता हूँ, जो अत्यन्त सुन्दर हैं तथा जिनके मुखारविन्द पर मन्द-मुस्कान की छटा छा रही है। ब्रह्मा, शिव, शेषनाग और धर्म– ये कई-कई दिनों तक उन परमेश्वर की स्तुति करते रहते हैं। बड़े-बड़े मुनीश्वर भी ध्यान के द्वारा उन्हें अपने वश में नहीं कर पाते हैं। मनु, मनुष्यगण तथा सिद्धों के समुदाय भी उन्हें रिझा नहीं पाते हैं। योगीश्वरों के चिन्तन में भी उसका आना सम्भव नहीं हो पाता है। वे सभी बातों में सबसे बढ़कर हैं; उनकी कहीं तुलना नहीं है।

इस प्रकार ध्यान करके मन्त्रोच्चारणपूर्वक पुष्प चढ़ावे और समस्त उपचारों को क्रमशः अर्पित करके व्रती पुरुष व्रत का पालन करे। अब प्रत्येक उपचार का क्रमशः मन्त्र सुनो।

आसन

आसनं सर्वशोभाढ्यं सद्रत्नमणिनिर्मितम् ।

विचित्रं च विचित्रेण गृह्यतां शोभनं हरे ।।

हरे! उत्तम रत्नों एवं मणियों द्वारा निर्मित, सम्पूर्ण शोभा से सम्पन्न तथा विचित्र बेलबूटों से चित्रित यह सुन्दर आसन सेवा में अर्पित है। इसे ग्रहण कीजिये।

वसन

वसनं वह्निशौचं च निर्मितं विश्वकर्मणा ।

प्रतप्तस्वर्णखचितं चित्रितं गृह्यतां हरे ।।

श्रीकृष्ण! यह विश्वकर्मा द्वारा निर्मित वस्त्र अग्नि तपाकर शुद्ध किया गया है। इसमें तपे हुए सुवर्ण के तार जड़े गये हैं। आप इसे स्वीकार करें।

पाद्य

पादप्रक्षालनार्थं च स्वर्णपात्रस्थितं जलम् ।

पवित्रं निर्मलं चारु पाद्यं च गृह्यतां हरे ।।

गोविन्द! आपके चरणों को पखारने के लिये सोने के पात्र में रखा हुआ यह जल परम पवित्र और निर्मल है। इसमें सुन्दर पुष्प डाले गये हैं। आप इस पाद्य को ग्रहण करें।

मधुपर्क या पंचामृत

मधुसर्पिर्दधिक्षीरं शर्करासंयुतं परम् ।

स्वर्णपात्रस्थितं देयं स्नानार्थं गृह्यतां हरे ।।

भगवन्! मधु, घी, दही, दूध और शक्कर– इन सबको मिलाकर तैयार किया गया मधुपर्क या पंचामृत सुवर्ण के पात्र में रखा गया है। इसे आपकी सेवा में निवेदन करना है। आप स्नान के लिये इसका उपयोग करें।

अर्घ्य

दूर्वाक्षतं शुक्लपुष्पं स्वच्छतोयसमन्वितम् ।

चंदनागुरुकस्तूरीसहितं गृह्यतां हरे ।।

हरे! दूर्वा, अक्षत, श्वेत पुष्प और स्वच्छ जल से युक्त यह अर्घ्य सेवा में समर्पित है। इसमें चन्दन, अगुरु और कस्तूरी का भी मेल है। आप इसे ग्रहण करें।

आचमनीय

सुस्वादु स्वच्छतोयं च वासितं गंधवस्तुना ।

शुद्धमाचमनीयं च गृह्यतां परमेश्वर ।।

परमेश्वर! सुगन्धित वस्तु से वासित यह शुद्ध, सुस्वादु एवं स्वच्छ जल आचमन के योग्य है। आप इसे ग्रहण करें।

स्नानीय

गंधद्रव्यसमायुक्तं विष्णो तैलं सुवासितम् ।

आमलक्या द्रवं चैव स्नानीयं गृह्यतां हरे ।।

श्रीकृष्ण! सुगन्धित द्रव्य से युक्त एवं सुवासित विष्णु तैल तथा आँवले का चूर्ण स्नानोपयोगी द्रव्य के रूप में प्रस्तुत है। इसे स्वीकार करें।

शय्या

सद्रत्नमणिसारेण रचितां सुमनोहराम् ।

छादितां सूक्ष्मवस्त्रेण शय्यां च गृह्यतां हरे ।।

श्रीहरे! उत्तम रत्न एवं मणियों के सारभाग से रचित, अत्यन्त मनोहर तथा सूक्ष्म वस्त्र से आच्छादित यह शय्या सेवा में समर्पित है। इसे ग्रहण कीजिये।

गन्ध

चूर्णं च वृक्षभेदानां मूलानां द्रवसंयुतम् ।

कस्तूरीद्रवसंयुक्तं गन्धं च गृह्यतां हरे ।।

गोविन्द! विभिन्न वृक्षों के चूर्ण से युक्त, नाना प्रकार के वृक्षों की जड़ों के द्रव से पूर्ण तथा कस्तूरी रस से मिश्रित यह गन्ध सेवा में समर्पित है। इसे स्वीकार करें।

पुष्प

पुष्पं सुगंधियुक्तं च संयुक्तं कुंकुमेन च ।

सुप्रियं सर्वदेवानां सांप्रतं गृह्यतां हरे ।।

परमेश्वर! वृक्षों के सुगन्धित तथा सम्पूर्ण देवताओं को अत्यन्त प्रिय लगने वाले पुष्प आपकी सेवा में अर्पित हैं। इन्हें ग्रहण कीजिये।

नैवेद्य

गृह्यतां स्वस्तिकोक्तं च मिष्टद्रव्यसमन्वितम् ।

सुपक्वफलसंयुक्तं नैवेद्यं गृह्यतां हरे ।।

लड्डुकं मोदकं चैव सर्पिः क्षीरं गुडं मधु ।

शीतलं शर्करायुक्तं क्षीरस्वादुसुपक्वकम् ।

नवोद्धृतं दधि तक्रं नैवेद्यं गृह्यतां हरे ।।

गोविन्द! शर्करा, स्वस्तिक नाम वाली मिठाई तथा अन्य मीठे पदार्थों से युक्त यह नैवेद्य सेवा में समर्पित है। यह सुन्दर पके फलों से संयुक्त है। आप इसे स्वीकार करें। हरे! शक्कर मिलाया हुआ ठंडा और स्वादिष्ट दूध, सुन्दर पकवान, लड्डू, मोदक, घी मिलायी हुई खीर, गुड़, मधु, ताजा दही और तक्र– यह सब सामग्री नैवेद्य के रूप में आपके सामने प्रस्तुत है। आप इसे आरोगें।

ताम्बूल

तांबूलं भोगसारं च कर्पूरादिसमन्वितम् ।

भक्त्या निवेदितमिदं गृह्यतां परमेश्वर ।।

परमेश्वर! यह भोगों का सारभूत ताम्बूल कर्पूर आदि से युक्त है। मैंने भक्तिभाव से मुखशुद्धि के लिये निवेदन किया है। आप कृपापूर्वक इसे ग्रहण करें।

अनुलेपन

चन्दनागुरु कस्तूरीकुंकुमद्रवसंयुतम् ।

अबीरचूर्णं रुचिरं गृह्यतां परमेश्वर ।।

परमेश्वर! चन्दन, अगुरु, कस्तूरी और कुंकुम के द्रव से संयुक्त सुन्दर अबीर-चूर्ण अनुलेपन के रूप में प्रस्तुत है। कृपया ग्रहण कीजिये।

धूप

तरुभेदरसोत्कर्षो गंधयुक्तोऽग्निना सह ।

सुप्रियः सर्वदेवानां धूपोऽयं गृह्यतां हरे ।।

हरे! विभिन्न वृक्षों के उत्कृष्ट गोंद तथा अन्य सुगन्धित पदार्थों के संयोग से बना हुआ यह धूप अग्नि का साहचर्य पाकर सम्पूर्ण देवताओं के लिये अत्यन्त प्रिय हो जाता है। आप इसे स्वीकार करें।

दीप

घोरांधकारनाशैकहेतुरेव शुभावहः ।

सुप्रदीपो दीप्तिकरो दीपोऽयं गृह्यतां हरे ।।

गोविन्द! अत्यन्त प्रकाशमान एवं उत्तम प्रभा का प्रसार करने वाला यह सुन्दर दीप घोर अन्धकार के नाश का एकमात्र हेतु है। आप इसे ग्रहण करें।

जलपान

पवित्रं निर्मलं तोयं कर्पूरादिसमायुतम् ।

जीवनं सर्वबीजानां पानार्थं गृह्यतां हरे ।।

हरे! कर्पूर आदि से सुवासित यह पवित्र और निर्मल जल सम्पूर्ण जीवों का जीवन है। आप पीने के लिये इसे ग्रहण करें।

आभूषण

नानापुष्पसमायुक्तं ग्रथितं सूक्ष्मतंतुना ।

शरीरभूषणवरं माल्यं च प्रतिगृह्यताम् ।।

गोविन्द! नाना प्रकार के फूलों से युक्त तथा महीने डोरे में गुँथा हुआ यह हार शरीर के लिये श्रेष्ठ आभूषण है। इसे स्वीकार कीजिये।

पूजोपयोगी दातव्य द्रव्यों का दान करके व्रत के स्थान में रखा हुआ द्रव्य श्रीहरि को ही समर्पित कर देना चाहिये। उस समय इस प्रकार कहे–

फलानि तरुबीजानि स्वादूनि सुंदराणि च ।

वंशवृद्धिकराण्येव गृह्यतां परमेश्वर ।।

‘परमेश्वर! वृक्षों के बीजस्वरूप ये स्वादिष्ट और सुन्दर फल वंश की वृद्धि करने वाले हैं। आप इन्हें ग्रहण कीजिये।’

आवाहित देवताओं में से प्रत्येक का व्रती पुरुष पूजन करे। पूजन के पश्चात भक्तिभाव से उन सबको तीन-तीन बार पुष्पांजलि दे।

सुनन्द, नन्द और कुमुद आदि गोप, गोपी, राधिका, गणेश, कार्तिकेय, ब्रह्मा, शिव, पार्वती, लक्ष्मी, सरस्वती, दिक्पाल, ग्रह, शेषनाग, सुदर्शन चक्र तथा श्रेष्ठ पार्षदगण– इन सबका पूजन करके समस्त देवताओं को पृथ्वी पर दण्डवत प्रणाम करे। तदनन्तर ब्राह्मणों को नैवेद्य देकर दक्षिणा दे तथा जन्माध्याय में बतायी गयी कथा का भक्तिभाव से श्रवण करे। उस समय व्रती पुरुष रात में कुशासन पर बैठकर जागता रहे। प्रातःकाल नित्यकर्म सम्पन्न करके श्रीहरि का सानन्द पूजन करे तथा ब्राह्मणों को भोजन कराकर भगवन्नामों का कीर्तन करे।

यदि आधी रात के समय अष्टमी तिथि का एक चौथाई अंश भी दृष्टिगोचर होता हो तो वही व्रत का मुख्य काल है। उसी में साक्षात श्रीहरि ने अवतार ग्रहण किया है। वह जय और पुण्य प्रदान करती है; इसलिये ‘जयन्ती’ कही गयी है। उसमें उपवास-व्रत करके विद्वान पुरुष जागरण करे। यह समय सबका अपवाद, मुख्य एवं सर्वसम्मत है, ऐसा वेदवेत्ताओं का कथन है। पूर्वकाल में ब्रह्मा जी ने भी ऐसा ही कहा था। जो अष्टमी को उपवास एवं जागरणपूर्वक व्रत करता है, वह करोड़ों जन्मों में उपार्जित पापों से छुटकारा पा जाता है; इसमें संशय नहीं है। सप्तमीविद्धा अष्टमी का यत्नपूर्वक त्याग करना चाहिये। रोहिणी नक्षत्र का योग मिलने पर भी सप्तमीविद्धा अष्टमी को व्रत नहीं करना चाहिये; क्योंकि भगवान देवकी नन्दन अविद्ध-तिथि एवं नक्षत्र में अवतीर्ण हुए थे। यह विशिष्ट मंगलमय क्षण वेदों और वेदांगों के लिये भी गुप्त है। रोहिणी नक्षत्र बीत जाने पर ही व्रती पुरुष को पारणा करनी चाहिये।

तिथि के अन्त में श्रीहरि का स्मरण तथा देवताओं का पूजन करके की हुई पारणा पवित्र मानी गयी है। वह मनुष्यों के समस्त पापों का नाश करने वाली होती है। सम्पूर्ण उपवास-व्रतों में दिन को ही पारणा करने का विधान है। यह उपवास-व्रत का अंगभूत, अभीष्ट फलदायक तथा शुद्धि का कारण है। पारणा न करने पर फल में कमी आती है। रोहिणी व्रत के सिवा दूसरे किसी व्रत में रात को पारणा नहीं करनी चाहिये। महारात्रि को छोड़कर दूसरी रात्रि में पारणा की जा सकती है। ब्राह्मणों और देवताओं की पूजा करके पूर्वाह्णकाल में पारणा उत्तम मानी गयी है।

रोहिणी-व्रत सबको सम्मत है। उसका अनुष्ठान अवश्य करना चाहिये। यदि बुध अथवा सोमवार से युक्त जयन्ती मिल जाए तो उसमें व्रत करके व्रती पुरुष गर्भ में वास नहीं करता है। यदि उदयकाल में किंचितमात्र कुछ अष्टमी हो और सम्पूर्ण दिन-रात में नवमी हो तथा बुध, सोम एवं रोहिणी नक्षत्र का योग प्राप्त हो तो वह सबसे उत्तम व्रत का समय है। सैकड़ों वर्षों में भी ऐसा योग मिले या न मिले, कुछ कहा नहीं जा सकता। ऐसे उत्तम व्रत का अनुष्ठान करके व्रती पुरुष अपनी करोड़ों पीढ़ियों का उद्धार कर लेता है। जो सम्पत्तियों से रहित भक्त मनुष्य हैं, वे व्रतसम्बन्धी उत्सव के बिना भी यदि केवल उपवास मात्र कर लें तो भगवान माधव उन पर उतने से ही प्रसन्न हो जाते हैं। भक्तिभाव से भाँति-भाँति के उपचार चढ़ाने तथा रात में जागरण करने से दैत्यशत्रु श्रीहरि जयन्ती-व्रत का फल प्रदान करते हैं। जो अष्टमी व्रत के उत्सव में धन का उपयोग करने में कंजूसी नहीं करता, उसे उत्तम फल की प्राप्ति होती है। जो कंजूसी करता है, वह उसके अनुरूप ही फल पाता है।

विद्वान पुरुष अष्टमी और रोहिणी में पारणा न करे; अन्यथा वह पारणा पूर्वकृत पुण्यों को तथा उपवास से प्राप्त होने वाले फल को भी नष्ट कर देती है, तिथि आठ गुने फल का नाश करती है और नक्षत्र चौगुने फल का। अतः प्रयत्नपूर्वक तिथि नक्षत्र के अन्त में पारणा करे। यदि महानिशा प्राप्त होने पर तिथि और नक्षत्र का अन्त होता हो तो व्रती पुरुष को तीसरे दिन पारणा करनी चाहिये। आदि और अन्त के चार-चार दण्ड को छोड़कर बीच की तीन पहरवाली रात्रि को त्रियामा रजनी कहते हैं। उस रजनी के आदि और अन्त में दो संध्याएँ होती हैं। जिनमें से एक को दिनादि या प्रातःसंध्या कहते हैं और दूसरी को दिनान्त या सायंसंध्या। शुद्धा जन्माष्टमी को जागरणपूर्वक व्रत का अनुष्ठान करके मनुष्य सौ जन्मों के किए पापों से छुटकारा पा जाता है। इसमें संशय नहीं है। जो मनुष्य शुद्धा जन्माष्टमी में केवल उपवासमात्र करके रह जाता है, व्रतोत्सव या जागरण नहीं करता, वह अश्वमेध-यज्ञ के फल का भागी होता है। श्रीकृष्ण जन्माष्टमी के दिन भोजन करने वाले नराधम घोर पापों और उनके भयानक फलों के भागी होते हैं। जो उपवास करने में असमर्थ हो, वह एक ब्राह्मण को भोजन करावे अथवा उतना धन दे दे, जितने से वह दो बार भोजन कर ले। अथवा प्राणायाम-मन्त्रपूर्वक एक सहस्र गायत्री का जप करे। मनुष्य उस व्रत में बारह हजार मन्त्रों का यथार्थरूप से जप करे तो और उत्तम है।

इति श्रीकृष्णजन्माष्टमी।