श्रीकृष्ण स्तोत्र धेनुकासुरकृत || Shri Krishna Stotra by Dhenukasur

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दैत्य धेनुकासुर द्वारा किये गये इस श्रीकृष्ण स्तोत्र का जो प्रतिदिन भक्तिभाव से पाठ करता है, वह अनायास ही श्रीहरि का लोक, ऐश्वर्य और सामीप्य प्राप्त कर लेता है। इतना ही नहीं, वह इहलोक में श्रीहरि की भक्ति, अन्त में उनका परम दुर्लभ दास्यभाव, विद्या, श्री, उत्तम कवित्व, पुत्र-पौत्र तथा यश भी पाता है।

श्रीकृष्ण स्तोत्रम् धेनुकासुरकृत

दानव उवाच ।।

वामनोऽसि त्वमंशेन मत्पितुर्यज्ञभिक्षुकः ।

राज्यहर्ता च श्रीहर्ता सुतलस्थलदायकः ।।

बलिर्भक्तिवशो वीरः सर्वेशो भक्तवत्सलः ।

शीघ्रं त्वं हिन्धि मां पापं शापाद्गर्दभरूपिणम् ।।

मुनेर्दुर्वाससः शापादीदृशं जन्म कुत्सितम् ।

मृत्युरुक्तश्च मुनिना त्वत्तो मम जगत्पते ।।

षोडशारेण चक्रेण सुतीक्ष्णेनातितेजसा ।

जहि मां जगतां नाथ सद्भक्तिं कुरु मोक्षद ।।

त्वमंशेन वराहश्च समुद्धर्तुं वसुन्धराम् ।

वेदानां रक्षिता नाथ हिरण्याक्षनिषूदनः ।।

त्वं नृसिंहः स्वयं पूर्णो हिरण्यकशिपोर्वधे ।

प्रह्रादानुग्रहार्थाय देवानां रक्षणाय च ।।

त्वं च वेदोद्धारकर्ता मीनांशेन दयानिधे ।

नृपस्य ज्ञानदानाय रक्षायै सुरविप्रयोः ।।

शेषाधारश्च कूर्मस्त्वमंशेन सृष्टिहेतवे ।

विश्वाधारश्च विश्वस्त्वमंशेनापि सहस्रधृक् ।।

रामो दाशरथिस्त्वं च जानक्युद्धारहेतवे ।

दशकन्धरहन्ता च सिन्धौ सेतुविधायकः ।।

कलया परशुरामश्च जमदग्निसुतो महान् ।

त्रिःसप्तकृत्वो भूपानां निहन्ता जगतीपते ।।

अंशेन कपिलस्त्वं च सिद्धानां च गुरोर्गुरुः ।

मातृज्ञानप्रदाता च योगशास्त्रविधायकः ।।

अंशेन ज्ञानिनां श्रेष्ठो नरनारायणावृषी ।

त्वं च धर्मसुतो भूत्वा लोकविस्तारकारकः ।।

अधुना कृष्णरूपस्त्वं परिपूर्णतमः स्वयम् ।

सर्वेषामवताराणां बीजरूपः सनातनः ।।

यशोदाजीवनो नित्यो नन्दैकानन्दवर्धनः ।

प्राणाधिदेवो गोपीनां राधाप्राणाधिकप्रियः ।।

वसुदेवसुतः शान्तो देवकीदुःखभञ्जनः ।

अयोनिसंभवः श्रीमान्पृथिवीभारहारकः ।।

पूतनायै मातृगतिं प्रदाता च कृपानिधिः ।

बककेशिप्रलम्बानां ममापि मोक्षकारकः ।।

स्वेच्छामय गुणातीत भक्तानां भयभञ्जन ।

प्रसीद राधिकानाथ प्रसीद कुरु मोक्षणम् ।।

हे नाथ गार्दभीयोनेः समुद्धर भवार्णवात् ।

मूर्खस्त्वद्भक्तपुत्रोऽहं मामुद्धर्तुं त्वमर्हसि ।।

वेदा ब्रह्मादयो यं च मुनीन्द्राः स्तोतुमक्षमाः ।

किं स्तौमि तं गुणातीतं पुरा दैत्योऽधुना खरः ।।

एवं कुरु कृपासिन्धो येन मे न भवेज्जनुः ।

दृष्ट्वा पादारविन्दं ते कः पुनर्भवनं व्रजेत् ।।

ब्रह्मा स्तोता खरः स्तोता नोपहासितुमर्हसि ।

सदीश्वरस्य विज्ञस्य योग्यायोग्ये समा कृपा ।।

इत्येवमुक्त्वा दैत्येन्द्रस्तस्थौ च पुरतो हरेः ।

प्रसन्नवदनः श्रीमानतितुष्टो बभूव ह ।।

इदं दैत्यकृतं स्तोत्रं नित्यं भक्त्या च यः पठेत् ।

सालोक्यसार्ष्टिसामीप्यं लीलया लभते हरेः।।

इह लोके हरेर्भक्तिमन्ते दास्यं सुदुर्लभम् ।

विद्यां श्रियं सुकवितां पुत्रपौत्रान्यशो लभेत् ।।

इति श्रीबह्मवैवर्ते महापुराणे श्रीकृष्णजन्मखण्डे धेनुकासुरकृतं श्रीकृष्ण स्तोत्रम् सम्पूर्णं ।। २२ ।।

धेनुकासुरकृत श्रीकृष्ण स्तोत्र भावार्थ सहित

दानव उवाच ।।

वामनोऽसि त्वमंशेन मत्पितुर्यज्ञभिक्षुकः ।

राज्यहर्ता च श्रीहर्ता सुतलस्थलदायकः ।।

दानव बोला– प्रभो! आप ही अपने अंश से वामन हुए थे और मेरे पिता के यज्ञ में याचक बने थे। आपने पहले तो हमारे राज्य और लक्ष्मी को हर लिया। पर पुनः बलि की भक्ति के वशीभूत होकर हम सब लोगों को सुतल लोक में स्थान दिया।

बलिर्भक्तिवशो वीरः सर्वेशो भक्तवत्सलः ।

शीघ्रं त्वं हिन्धि मां पापं शापाद्गर्दभरूपिणम् ।।

आप महान वीर, सर्वेश्वर और भक्तवत्सल हैं। मैं पापी हूँ और शाप से गदर्भ हुआ हूँ। आप शीघ्र ही मेरा वध कर डालिये।

मुनेर्दुर्वाससः शापादीदृशं जन्म कुत्सितम् ।

मृत्युरुक्तश्च मुनिना त्वत्तो मम जगत्पते ।।

दुर्वासा मुनि के शाप से मुझे ऐसा घृणित जन्म मिला है। जगत्पते! मुनि ने मेरी मृत्यु आपके हाथ से बतायी थी।

षोडशारेण चक्रेण सुतीक्ष्णेनातितेजसा ।

जहि मां जगतां नाथ सद्भक्तिं कुरु मोक्षद ।।

आप अत्यन्त तीखे और अतिशय तेजस्वी षोडशार चक्र से मेरा वध कीजिये। मुक्तिदाता जगन्नाथ! ऐसा करके मुझे उत्तम गति दीजिये।

त्वमंशेन वराहश्च समुद्धर्तुं वसुन्धराम् ।

वेदानां रक्षिता नाथ हिरण्याक्षनिषूदनः ।।

आप ही वसुधा का उद्धार करने के लिये अंशतः वाराहरूप में अवतीर्ण हुए थे। नाथ! आप ही वेदों के रक्षक तथा हिरण्याक्ष के नाशक हैं।

त्वं नृसिंहः स्वयं पूर्णो हिरण्यकशिपोर्वधे ।

प्रह्रादानुग्रहार्थाय देवानां रक्षणाय च ।।

आप पूर्ण परमात्मा स्वयं ही हिरण्यकशिपु के वध के लिये नृसिंह रूप में प्रकट हुए थे। प्रह्लाद पर अनुग्रह और वेदों की रक्षा के लिये ही आपने यह अवतार ग्रहण किया था।

त्वं च वेदोद्धारकर्ता मीनांशेन दयानिधे ।

नृपस्य ज्ञानदानाय रक्षायै सुरविप्रयोः ।।

दयानिधे! आपने ही राजा मनु को ज्ञान देने, देवता और ब्राह्मणों की रक्षा करने तथा वेदों के उद्धार के लिये अंशतः मत्स्यावतार धारण किया था।

शेषाधारश्च कूर्मस्त्वमंशेन सृष्टिहेतवे ।

विश्वाधारश्च विश्वस्त्वमंशेनापि सहस्रधृक् ।।

आप ही अपने अंश से सृष्टि के लिये शेष के आधारभूत कच्छप हुए थे। सहस्रलोचन! आप ही अंशतः शेष के रूप में प्रकट हुए हैं और सम्पूर्ण विश्व का भार वहन करते हैं।

रामो दाशरथिस्त्वं च जानक्युद्धारहेतवे ।

दशकन्धरहन्ता च सिन्धौ सेतुविधायकः ।।

आप ही जनकनन्दिनी सीता का उद्धार करने के लिये दशरथनन्दन श्रीराम हुए थे। उस समय आपने समुद्र पर सेतु बाँधा और दशमुख रावण का वध किया।

कलया परशुरामश्च जमदग्निसुतो महान् ।

त्रिःसप्तकृत्वो भूपानां निहन्ता जगतीपते ।।

पृथ्वीनाथ! आप ही अपनी कला से जमदग्निनन्दन महात्मा परशुराम हुए; जिन्होंने इक्कीस बार क्षत्रिय नरेशों का संहार किया था।

अंशेन कपिलस्त्वं च सिद्धानां च गुरोर्गुरुः ।

मातृज्ञानप्रदाता च योगशास्त्रविधायकः ।।

सिद्धों के गुरु के भी गुरु महर्षि कपिल अंशतः आपके ही स्वरूप हैं, जिन्होंने माता को ज्ञान दिया और योग (एवं सांख्य)– शास्त्र की रचना की।

अंशेन ज्ञानिनां श्रेष्ठो नरनारायणावृषी ।

त्वं च धर्मसुतो भूत्वा लोकविस्तारकारकः ।।

ज्ञानिशिरोमणि नर-नारायण ऋषि आपके ही अंश से उत्पन्न हुए हैं। आप ही धर्मपुत्र होकर लोकों का विस्तार कर रहे हैं।

अधुना कृष्णरूपस्त्वं परिपूर्णतमः स्वयम् ।

सर्वेषामवताराणां बीजरूपः सनातनः ।।

इस समय आप स्वयं परिपूर्णतम परमात्मा ही श्रीकृष्ण रूप में प्रकट हैं और सभी अवतारों के सनातन बीजरूप हैं।

यशोदाजीवनो नित्यो नन्दैकानन्दवर्धनः ।

प्राणाधिदेवो गोपीनां राधाप्राणाधिकप्रियः ।।

आप यशोदा के जीवन, नन्दराय जी के एकमात्र आनन्दवर्धन, नित्यस्वरूप, गोपियों के प्राणाधिदेव तथा श्रीराधा के प्राणाधिक प्रियतम हैं।

वसुदेवसुतः शान्तो देवकीदुःखभञ्जनः ।

अयोनिसंभवः श्रीमान्पृथिवीभारहारकः ।।

वसुदेव के पुत्र, शान्तस्वरूप तथा देवकी के दुःख का निवारण करने वाले हैं। आपका स्वरूप अयोनिज है। आप पृथ्वी का भार उतारने के लिये यहाँ पधारे हैं।

पूतनायै मातृगतिं प्रदाता च कृपानिधिः ।

बककेशिप्रलम्बानां ममापि मोक्षकारकः ।।

आपने पूतना को माता के समान गति प्रदान की है; क्योंकि आप कृपानिधान हैं। आप बक, केशी तथा प्रलम्बासुर को और मुझे भी मोक्ष देने वाले हैं।

स्वेच्छामय गुणातीत भक्तानां भयभञ्जन ।

प्रसीद राधिकानाथ प्रसीद कुरु मोक्षणम् ।।

स्वेच्छामय! गुणातीत! भक्तभयभंजन! राधिकानाथ! प्रसन्न होइये, प्रसन्न होइये और मेरा उद्धार कीजिये।

हे नाथ गार्दभीयोनेः समुद्धर भवार्णवात् ।

मूर्खस्त्वद्भक्तपुत्रोऽहं मामुद्धर्तुं त्वमर्हसि ।।

हे नाथ! इस गर्दभ-योनि और भवसागर से मुझे उबारिये। मैं मूर्ख हूँ तो भी आपके भक्त का पुत्र हूँ; इसलिये आपको मेरा उद्धार करना चाहिये।

वेदा ब्रह्मादयो यं च मुनीन्द्राः स्तोतुमक्षमाः ।

किं स्तौमि तं गुणातीतं पुरा दैत्योऽधुना खरः ।।

वेद, ब्रह्मा आदि देवता तथा मुनीन्द्र भी जिनकी स्तुति करने में असमर्थ हैं, उन्हीं गुणातीत परमेश्वर की स्तुति मुझ-जैसा पुरुष क्या करेगा? जो पहले दैत्य था और अब गदहा है।

एवं कुरु कृपासिन्धो येन मे न भवेज्जनुः ।

दृष्ट्वा पादारविन्दं ते कः पुनर्भवनं व्रजेत् ।।

करुणासागर! आप ऐसा कीजिये, जिससे मेरा जन्म न हो। आपके चरणारविन्द के दर्शन पाकर कौन फिर जन्म अथवा घर-गृहस्थी के चक्कर में पड़ेगा?

ब्रह्मा स्तोता खरः स्तोता नोपहासितुमर्हसि ।

सदीश्वरस्य विज्ञस्य योग्यायोग्ये समा कृपा ।।

ब्रह्मा जिनकी स्तुति करते हैं, उन्हीं का स्तवन आज एक गदहा कर रहा है। इस बात को लेकर आपको उपहास नहीं करना चाहिये; क्योंकि सच्चिदानन्दस्वरूप एवं विज्ञ परमेश्वर की योग्य और अयोग्य पर भी समानरूप से कृपा होती है।

इत्येवमुक्त्वा दैत्येन्द्रस्तस्थौ च पुरतो हरेः ।

प्रसन्नवदनः श्रीमानतितुष्टो बभूव ह ।।

यों कहकर दैत्यराज धेनुक श्रीहरि के सामने खड़ा हो गया। उसके मुख पर प्रसन्नता छा रही थी, वह श्रीसम्पन्न एवं अत्यन्त संतुष्ट जान पड़ता था।

इदं दैत्यकृतं स्तोत्रं नित्यं भक्त्या च यः पठेत् ।

सालोक्यसार्ष्टिसामीप्यं लीलया लभते हरेः।।

दैत्य द्वारा किये गये इस स्तोत्र का जो प्रतिदिन भक्तिभाव से पाठ करता है, वह अनायास ही श्रीहरि का लोक, ऐश्वर्य और सामीप्य प्राप्त कर लेता है।

इह लोके हरेर्भक्तिमन्ते दास्यं सुदुर्लभम् ।

विद्यां श्रियं सुकवितां पुत्रपौत्रान्यशो लभेत् ।।

इतना ही नहीं, वह इहलोक में श्रीहरि की भक्ति, अन्त में उनका परम दुर्लभ दास्यभाव, विद्या, श्री, उत्तम कवित्व, पुत्र-पौत्र तथा यश भी पाता है।

इति श्रीबह्मवैवर्त महापुराण के श्रीकृष्णजन्मखण्ड में वर्णित धेनुकासुर कृत श्रीकृष्ण स्तोत्र सम्पूर्ण हुआ।। २२ ।।

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