नारायणकृत श्रीकृष्णस्तोत्रम् || Shri Krishna Stotram by Narayan

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श्रीकृष्णस्तोत्रं ब्रह्मवैवर्तपुराणे नारायणकृतम् -नैमिषारण्य में आये हुए सौतिजी शौनक जी को ब्रह्म वैवर्त पुराण के ब्रह्म खण्ड अध्याय-३ में श्रीकृष्ण से सृष्टि का आरम्भ की कथा सुनते हैं कि – ब्रह्मन! जगत को इस शून्यावस्था में देख मन-ही-मन सब बातों की आलोचना करके दूसरे किसी सहायक से रहित एकमात्र स्वेच्छामय प्रभु ने स्वेच्छा से ही सृष्टि-रचना आरम्भ की। सबसे पहले उन परम पुरुष श्रीकृष्ण के दक्षिणपार्श्व से जगत के कारण रूप तीन मूर्तिमान गुण प्रकट हुए। उन गुणों से महत्तत्त्व, अहंकार, पाँच तन्मात्राएँ तथा रूप, रस, गन्ध, स्पर्श और शब्द–ये पाँच विषय क्रमशः प्रकट हुए। तदनन्तर श्रीकृष्ण से साक्षात भगवान नारायण का प्रादुर्भाव हुआ, जिनकी अंगकान्ति श्याम थी, वे नित्य-तरुण, पीताम्बरधारी तथा वनमाला से विभूषित थे। उनके चार भुजाएँ थीं। उन्होंने अपने चार हाथों में क्रमशः – शंख, चक्र, गदा और पद्म धारण कर रखे थे। उनके मुखारविन्द पर मन्द मुस्कान की छटा छा रही थी। वे रत्नमय आभूषणों से विभूषित थे, शांर्गधनुष धारण किये हुए थे। कौस्तुभमणि उनके वक्षःस्थल की शोभा बढ़ाती थी। श्रीवत्सभूषित वक्ष में साक्षात लक्ष्मी का निवास था। वे श्रीनिधि अपूर्व शोभा को प्रकट कर रहे थे; शरत्काल की पूर्णिमा के चन्द्रमा की प्रभा से सेवित मुख-चन्द्र के कारण वे बड़े मनोहर जान पड़ते थे। कामदेव की कान्ति से युक्त रूप-लावण्य उनका सौन्दर्य बढ़ा रहा था। वे श्रीकृष्ण के सामने खड़े हो दोनों हाथ जोड़कर उनकी स्तुति करने लगे-

श्रीकृष्णस्तोत्रं ब्रह्मवैवर्तपुराणे नारायणकृतम्

नारायण उवाच ।।

वरं वरेण्यं वरदं वरार्हं वरकारणम् ।।

कारणं कारणानां च कर्म तत्कर्मकारणम् ।। 1.3.१० ।।

नारायण बोले– जो वर (श्रेष्ठ), वरेण्य (सत्पुरुषों द्वारा पूज्य), वरदायक (वर देने वाले) और वर की प्राप्ति के कारण हैं; जो कारणों के भी कारण, कर्मस्वरूप और उस कर्म के भी कारण हैं;

तपस्तत्फलदं शश्वत्तपस्वीशं च तापसम् ।।

वन्दे नवघनश्यामं स्वात्मारामं मनोहरम् ।।११।।

तप जिनका स्वरूप है, जो नित्य-निरन्तर तपस्या का फल प्रदान करते हैं, तपस्वीजनों में सर्वोत्तम तपस्वी हैं, नूतन जलधर के समान श्याम, स्वात्माराम और मनोहर हैं, उन भगवान श्रीकृष्ण मैं वन्दना करता हूँ।

निष्कामं कामरूपं च कामघ्नं कामकारणम्।।

सर्वं सर्वेश्वरं सर्वं बीजरूपमनुत्तमम् ।। १२ ।।

जो निष्काम और कामरूप हैं, कामना के नाशक तथा कामदेव की उत्पत्ति के कारण हैं, जो सर्वरूप, सर्वबीज स्वरूप, सर्वोत्तम एवं सर्वेश्वर हैं,

वेदरूपं वेदभवं वेदोक्तफलदं फलम् ।।

वेदज्ञं तद्विधानं च सर्ववेदविदांवरम् ।। १३ ।।

वेद जिनका स्वरूप है, जो वेदों के बीज, वेदोक्त फल के दाता और फलरूप हैं, वेदों के ज्ञाता, उसे विधान को जानने वाले तथा सम्पूर्ण वेदवेत्ताओं के शिरोमणि हैं, उन भगवान श्रीकृष्ण को मैं प्रणाम करता हूँ।

इत्युक्त्वा भक्तियुक्तश्च स उवास तदाज्ञया ।।

रत्नसिंहासने रम्ये पुरतः परमात्मनः ।। १४ ।।

ऐसा कहकर वे नारायणदेव भक्तिभाव से युक्त हो उनकी आज्ञा से उन परमात्मा के सामने रमणीय रत्नमय सिंहासन पर विराज गये।

नारायणकृतं स्तोत्रं यः पठेत्सुसमाहितः ।।

त्रिसंध्यं यः पठेन्नित्यं पापं तस्य न विद्यते ।। १५ ।।

जो पुरुष प्रतिदिन एकाग्रचित्त हो तीनों संध्याओं के समय नारायण द्वारा किये गये इस स्तोत्र को सुनता और पढ़ता है, वह निष्पाप हो जाता है।

पुत्रार्थी लभते पुत्रं भार्य्यार्थी लभते प्रियाम् ।।

भ्रष्टराज्यो लभेद्राज्यं धनं भ्रष्टधनो लभेत् ।।१६।।

उसे यदि पुत्र की इच्छा हो तो पुत्र मिलता है और भार्या की इच्छा हो तो प्यारी भार्या प्राप्त होती है। जो अपने राज्य से भ्रष्ट हो गया है, वह इस स्तोत्र के पाठ से पुनः राज्य प्राप्त कर लेता है तथा धन से वंचित हुए पुरुष को धन की प्राप्ति हो जाती है।

कारागारे विपद्ग्रस्तः स्तोत्रेणानेन मुच्यते ।।

रोगात्प्रमुच्यते रोगी ध्रुवं श्रुत्वा च संयतः ।। १७ ।।

कारागार के भीतर विपत्ति में पड़ा हुआ मनुष्य यदि इस स्तोत्र का पाठ करे तो निश्चय ही संकट से मुक्त हो जाता है। एक वर्ष तक इसका संयमपूर्वक श्रवण करने से रोगी अपने रोग से छुटकारा पा जाता है।

इति ब्रह्मावैवर्ते नारायणकृतं श्रीकृष्णस्तोत्रम् ।

2 thoughts on “नारायणकृत श्रीकृष्णस्तोत्रम् || Shri Krishna Stotram by Narayan

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