श्री राम चरित मानस- बालकाण्ड, मासपारायण, आठवाँ विश्राम || Shri Ram Charit Manas Athavan Vishram

0

श्री राम चरित मानस- बालकाण्ड, मासपारायण, आठवाँ विश्राम

श्री राम चरित मानस- बालकाण्ड, मासपारायण, आठवाँ विश्राम

श्री रामचरित मानस

प्रथम सोपान (बालकाण्ड)

चले राम लछिमन मुनि संगा। गए जहाँ जग पावनि गंगा॥

गाधिसूनु सब कथा सुनाई। जेहि प्रकार सुरसरि महि आई॥

राम और लक्ष्मण मुनि के साथ चले। वे वहाँ गए, जहाँ जगत को पवित्र करनेवाली गंगा थीं। गाधि के पुत्र विश्वामित्र ने वह सब कथा कह सुनाई जिस प्रकार देवनदी गंगा पृथ्वी पर आई थीं।

तब प्रभु रिषिन्ह समेत नहाए। बिबिध दान महिदेवन्हि पाए॥

हरषि चले मुनि बृंद सहाया। बेगि बिदेह नगर निअराया॥

तब प्रभु ने ऋषियों सहित (गंगा में) स्नान किया। ब्राह्मणों ने भाँति-भाँति के दान पाए। फिर मुनिवृंद के साथ वे प्रसन्न होकर चले और शीघ्र ही जनकपुर के निकट पहुँच गए।

पुर रम्यता राम जब देखी। हरषे अनुज समेत बिसेषी॥

बापीं कूप सरित सर नाना। सलिल सुधासम मनि सोपाना॥

राम ने जब जनकपुर की शोभा देखी, तब वे छोटे भाई लक्ष्मण सहित अत्यंत हर्षित हुए। वहाँ अनेकों बावलियाँ, कुएँ, नदी और तालाब हैं, जिनमें अमृत के समान जल है और मणियों की सीढ़ियाँ (बनी हुई) हैं।

गुंजत मंजु मत्त रस भृंगा। कूजत कल बहुबरन बिहंगा॥

बरन बरन बिकसे बनजाता। त्रिबिध समीर सदा सुखदाता॥

मकरंद-रस से मतवाले होकर भौंरे सुंदर गुंजार कर रहे हैं। रंग-बिरंगे (बहुत- से) पक्षी मधुर शब्द कर रहे हैं। रंग-रंग के कमल खिले हैं। सदा (सब ऋतुओं में) सुख देनेवाला शीतल, मंद, सुगंध पवन बह रहा है।

दो० – सुमन बाटिका बाग बन बिपुल बिहंग निवास।

फूलत फलत सुपल्लवत सोहत पुर चहुँ पास॥ 212।

पुष्प वाटिका (फुलवारी), बाग और वन, जिनमें बहुत-से पक्षियों का निवास है, फूलते, फलते और सुंदर पत्तों से लदे हुए नगर के चारों ओर सुशोभित हैं॥ 212॥

बनइ न बरनत नगर निकाई। जहाँ जाइ मन तहँइँ लोभाई॥

चारु बजारु बिचित्र अँबारी। मनिमय बिधि जनु स्वकर सँवारी॥

नगर की सुंदरता का वर्णन करते नहीं बनता। मन जहाँ जाता है, वहीं लुभा जाता (रम जाता) है। सुंदर बाजार है, मणियों से बने हुए विचित्र छज्जे हैं, मानो ब्रह्मा ने उन्हें अपने हाथों से बनाया है।

धनिक बनिक बर धनद समाना। बैठे सकल बस्तु लै नाना।

चौहट सुंदर गलीं सुहाई। संतत रहहिं सुगंध सिंचाई॥

कुबेर के समान श्रेष्ठ धनी व्यापारी सब प्रकार की अनेक वस्तुएँ लेकर (दुकानों में) बैठे हैं। सुंदर चौराहे और सुहावनी गलियाँ सदा सुगंध से सिंची रहती हैं।

मंगलमय मंदिर सब केरें। चित्रित जनु रतिनाथ चितेरें॥

पुर नर नारि सुभग सुचि संता। धरमसील ग्यानी गुनवंता॥

सबके घर मंगलमय हैं और उन पर चित्र कढ़े हुए हैं, जिन्हें मानो कामदेवरूपी चित्रकार ने अंकित किया है। नगर के (सभी) स्त्री-पुरुष सुंदर, पवित्र, साधु स्वभाववाले, धर्मात्मा, ज्ञानी और गुणवान हैं।

अति अनूप जहँ जनक निवासू। बिथकहिं बिबुध बिलोकि बिलासू॥

होत चकित चित कोट बिलोकी। सकल भुवन सोभा जनु रोकी॥

जहाँ जनक का अत्यंत अनुपम (सुंदर) निवास स्थान (महल) है, वहाँ के विलास (ऐश्वर्य) को देखकर देवता भी चकित (स्तंभित) हो जाते हैं (मनुष्यों की तो बात ही क्या!)। कोट (राजमहल के परकोटे) को देखकर चित्त चकित हो जाता है, (ऐसा मालूम होता है) मानो उसने समस्त लोकों की शोभा को रोक (घेर) रखा है।

दो० – धवल धाम मनि पुरट पट सुघटित नाना भाँति।

सिय निवास सुंदर सदन सोभा किमि कहि जाति॥ 213॥

उज्ज्वल महलों में अनेक प्रकार के सुंदर रीति से बने हुए मणि जटित सोने की जरी के परदे लगे हैं। सीता के रहने के सुंदर महल की शोभा का वर्णन किया ही कैसे जा सकता है॥ 213॥

सुभग द्वार सब कुलिस कपाटा। भूप भीर नट मागध भाटा॥

बनी बिसाल बाजि गज साला। हय गय रथ संकुल सब काला॥

राजमहल के सब दरवाजे (फाटक) सुंदर हैं, जिनमें वज्र के (मजबूत अथवा हीरों के चमकते हुए) किवाड़ लगे हैं। वहाँ (मातहत) राजाओं, नटों, मागधों और भाटों की भीड़ लगी रहती है। घोड़ों और हाथियों के लिए बहुत बड़ी-बड़ी घुड़सालें और गजशालाएँ (फीलखाने) बनी हुई हैं; जो सब समय घोड़े, हाथी और रथों से भरी रहती हैं।

सूर सचिव सेनप बहुतेरे। नृपगृह सरिस सदन सब केरे॥

पुर बाहेर सर सरित समीपा। उतरे जहँ तहँ बिपुल महीपा॥

बहुत-से शूरवीर, मंत्री और सेनापति हैं। उन सबके घर भी राजमहल सरीखे ही हैं। नगर के बाहर तालाब और नदी के निकट जहाँ-तहाँ बहुत-से राजा लोग उतरे हुए (डेरा डाले हुए) हैं।

देखि अनूप एक अँवराई। सब सुपास सब भाँति सुहाई।

कौसिक कहेउ मोर मनु माना। इहाँ रहिअ रघुबीर सुजाना॥

(वहीं) आमों का एक अनुपम बाग देखकर, जहाँ सब प्रकार के सुभीते थे और जो सब तरह से सुहावना था, विश्वामित्र ने कहा – हे सुजान रघुवीर! मेरा मन कहता है कि यहीं रहा जाए।

भलेहिं नाथ कहि कृपानिकेता। उतरे तहँ मुनि बृंद समेता॥

बिस्वामित्र महामुनि आए। समाचार मिथिलापति पाए॥

कृपा के धाम राम ‘बहुत अच्छा स्वामिन्‌!’ कहकर वहीं मुनियों के समूह के साथ ठहर गए। मिथिलापति जनक ने जब यह समाचार पाया कि महामुनि विश्वामित्र आए हैं,

दो० – संग सचिव सुचि भूरि भट भूसुर बर गुर ग्याति।

चले मिलन मुनिनायकहि मुदित राउ एहि भाँति॥ 214॥

तब उन्होंने पवित्र हृदय के मंत्री बहुत-से योद्धा, श्रेष्ठ ब्राह्मण, गुरु (शतानंद) और अपनी जाति के श्रेष्ठ लोगों को साथ लिया और इस प्रकार प्रसन्नता के साथ राजा मुनियों के स्वामी विश्वामित्र से मिलने चले॥ 214॥

कीन्ह प्रनामु चरन धरि माथा। दीन्हि असीस मुदित मुनिनाथा॥

बिप्रबृंद सब सादर बंदे। जानि भाग्य बड़ राउ अनंदे॥

राजा ने मुनि के चरणों पर मस्तक रखकर प्रणाम किया। मुनियों के स्वामी विश्वामित्र ने प्रसन्न होकर आशीर्वाद दिया। फिर सारी ब्राह्मणमंडली को आदर सहित प्रणाम किया और अपना बड़ा भाग्य जानकर राजा आनंदित हुए।

कुसल प्रस्न कहि बारहिं बारा। बिस्वामित्र नृपहि बैठारा॥

तेहि अवसर आए दोउ भाई। गए रहे देखन फुलवाई॥

बार-बार कुशल प्रश्न करके विश्वामित्र ने राजा को बैठाया। उसी समय दोनों भाई आ पहुँचे, जो फुलवाड़ी देखने गए थे।

स्याम गौर मृदु बयस किसोरा। लोचन सुखद बिस्व चित चोरा॥

उठे सकल जब रघुपति आए। बिस्वामित्र निकट बैठाए॥

सुकुमार किशोर अवस्थावाले श्याम और गौर वर्ण के दोनों कुमार नेत्रों को सुख देनेवाले और सारे विश्व के चित्त को चुरानेवाले हैं। जब रघुनाथ आए तब सभी (उनके रूप एवं तेज से प्रभावित होकर) उठकर खड़े हो गए। विश्वामित्र ने उनको अपने पास बैठा लिया।

भए सब सुखी देखि दोउ भ्राता। बारि बिलोचन पुलकित गाता॥

मूरति मधुर मनोहर देखी। भयउ बिदेहु बिदेहु बिसेषी॥

दोनों भाइयों को देखकर सभी सुखी हुए। सबके नेत्रों में जल भर आया और शरीर रोमांचित हो उठे। राम की मधुर मनोहर मूर्ति को देखकर विदेह (जनक) विशेष रूप से विदेह (देह की सुध-बुध से रहित) हो गए।

दो० – प्रेम मगन मनु जानि नृपु करि बिबेकु धरि धीर।

बोलेउ मुनि पद नाइ सिरु गदगद गिरा गभीर॥ 215॥

मन को प्रेम में मग्न जान राजा जनक ने विवेक का आश्रय लेकर धीरज धारण किया और मुनि के चरणों में सिर नवाकर गद्गजद्‍ (प्रेमभरी) गंभीर वाणी से कहा – ॥ 215॥

कहहु नाथ सुंदर दोउ बालक। मुनिकुल तिलक कि नृपकुल पालक॥

ब्रह्म जो निगम नेति कहि गावा। उभय बेष धरि की सोइ आवा॥

हे नाथ! कहिए, ये दोनों सुंदर बालक मुनिकुल के आभूषण हैं या किसी राजवंश के पालक? अथवा जिसका वेदों ने ‘नेति’ कहकर गान किया है कहीं वह ब्रह्म तो युगल रूप धरकर नहीं आया है?

सहज बिरागरूप मनु मोरा। थकित होत जिमि चंद चकोरा॥

ताते प्रभु पूछउँ सतिभाऊ। कहहु नाथ जनि करहु दुराऊ॥

मेरा मन जो स्वभाव से ही वैराग्य रूप (बना हुआ) है, (इन्हें देखकर) इस तरह मुग्ध हो रहा है, जैसे चंद्रमा को देखकर चकोर। हे प्रभो! इसलिए मैं आपसे सत्य (निश्छल) भाव से पूछता हूँ। हे नाथ! बताइए, छिपाव न कीजिए।

इन्हहि बिलोकत अति अनुरागा। बरबस ब्रह्मसुखहि मन त्यागा॥

कह मुनि बिहसि कहेहु नृप नीका। बचन तुम्हार न होइ अलीका॥

इनको देखते ही अत्यंत प्रेम के वश होकर मेरे मन ने जबरदस्ती ब्रह्मसुख को त्याग दिया है। मुनि ने हँसकर कहा – हे राजन! आपने ठीक (यथार्थ ही) कहा। आपका वचन मिथ्या नहीं हो सकता।

ए प्रिय सबहि जहाँ लगि प्रानी। मन मुसुकाहिं रामु सुनि बानी॥

रघुकुल मनि दसरथ के जाए। मम हित लागि नरेस पठाए॥

जगत में जहाँ तक (जितने भी) प्राणी हैं, ये सभी को प्रिय हैं। मुनि की (रहस्य भरी) वाणी सुनकर राम मन-ही-मन मुसकराते हैं। (तब मुनि ने कहा -) ये रघुकुल मणि महाराज दशरथ के पुत्र हैं। मेरे हित के लिए राजा ने इन्हें मेरे साथ भेजा है।

दो० – रामु लखनु दोउ बंधुबर रूप सील बल धाम।

मख राखेउ सबु साखि जगु जिते असुर संग्राम॥ 216॥

ये राम और लक्ष्मण दोनों श्रेष्ठ भाई रूप, शील और बल के धाम हैं। सारा जगत (इस बात का) साक्षी है कि इन्होंने युद्ध में असुरों को जीतकर मेरे यज्ञ की रक्षा की है॥ 216॥

मुनि तव चरन देखि कह राऊ। कहि न सकउँ निज पुन्य प्रभाऊ॥

सुंदर स्याम गौर दोउ भ्राता। आनँदहू के आनँद दाता॥

राजा ने कहा – हे मुनि! आपके चरणों के दर्शन कर मैं अपना पुण्य प्रभाव कह नहीं सकता। ये सुंदर श्याम और गौर वर्ण के दोनों भाई आनंद को भी आनंद देनेवाले हैं।

इन्ह कै प्रीति परसपर पावनि। कहि न जाइ मन भाव सुहावनि॥

सुनहु नाथ कह मुदित बिदेहू। ब्रह्म जीव इव सहज सनेहू॥

इनकी आपस की प्रीति बड़ी पवित्र और सुहावनी है, वह मन को बहुत भाती है, पर (वाणी से) कही नहीं जा सकती। विदेह (जनक) आनंदित होकर कहते हैं – हे नाथ! सुनिए, ब्रह्म और जीव की तरह इनमें स्वाभाविक प्रेम है।

पुनि पुनि प्रभुहि चितव नरनाहू। पुलक गात उर अधिक उछाहू॥

मुनिहि प्रसंसि नाइ पद सीसू। चलेउ लवाइ नगर अवनीसू॥

राजा बार-बार प्रभु को देखते हैं (दृष्टि वहाँ से हटना ही नहीं चाहती)। (प्रेम से) शरीर पुलकित हो रहा है और हृदय में बड़ा उत्साह है। (फिर) मुनि की प्रशंसा करके और उनके चरणों में सिर नवाकर राजा उन्हें नगर में लिवा चले।

सुंदर सदनु सुखद सब काला। तहाँ बासु लै दीन्ह भुआला॥

करि पूजा सब बिधि सेवकाई। गयउ राउ गृह बिदा कराई॥

एक सुंदर महल जो सब समय (सभी ऋतुओं में) सुखदायक था, वहाँ राजा ने उन्हें ले जाकर ठहराया। तदनंतर सब प्रकार से पूजा और सेवा करके राजा विदा माँगकर अपने घर गए।

दो० – रिषय संग रघुबंस मनि करि भोजनु बिश्रामु।

बैठे प्रभु भ्राता सहित दिवसु रहा भरि जामु॥ 217॥

रघुकुल के शिरोमणि प्रभु राम ऋषियों के साथ भोजन और विश्राम करके भाई लक्ष्मण समेत बैठे। उस समय पहरभर दिन रह गया था॥ 217॥

लखन हृदयँ लालसा बिसेषी। जाइ जनकपुर आइअ देखी॥

प्रभु भय बहुरि मुनिहि सकुचाहीं। प्रगट न कहहिं मनहिं मुसुकाहीं॥

लक्ष्मण के हृदय में विशेष लालसा है कि जाकर जनकपुर देख आएँ, परंतु प्रभु राम का डर है और फिर मुनि से भी सकुचाते हैं, इसलिए प्रकट में कुछ नहीं कहते, मन-ही-मन मुसकरा रहे हैं।

राम अनुज मन की गति जानी। भगत बछलता हियँ हुलसानी॥

परम बिनीत सकुचि मुसुकाई। बोले गुर अनुसासन पाई॥

(अंतर्यामी) राम ने छोटे भाई के मन की दशा जान ली, (तब) उनके हृदय में भक्तवत्सलता उमड़ आई। वे गुरु की आज्ञा पाकर बहुत ही विनय के साथ सकुचाते हुए मुसकराकर बोले।

नाथ लखनु पुरु देखन चहहीं। प्रभु सकोच डर प्रगट न कहहीं॥

जौं राउर आयसु मैं पावौं। नगर देखाइ तुरत लै आवौं॥

हे नाथ! लक्ष्मण नगर देखना चाहते हैं, किंतु प्रभु (आप) के डर और संकोच के कारण स्पष्ट नहीं कहते। यदि आपकी आज्ञा पाऊँ, तो मैं इनको नगर दिखलाकर तुरंत ही (वापस) ले आऊँ।

सुनि मुनीसु कह बचन सप्रीती। कस न राम तुम्ह राखहु नीती॥

धरम सेतु पालक तुम्ह ताता। प्रेम बिबस सेवक सुखदाता॥

यह सुनकर मुनीश्वर विश्वामित्र ने प्रेम सहित वचन कहे – हे राम! तुम नीति की रक्षा कैसे न करोगे, हे तात! तुम धर्म की मर्यादा का पालन करनेवाले और प्रेम के वशीभूत होकर सेवकों को सुख देनेवाले हो।

दो० – जाइ देखि आवहु नगरु सुख निधान दोउ भाइ।

करहु सुफल सब के नयन सुंदर बदन देखाइ॥ 218॥

सुख के निधान दोनों भाई जाकर नगर देख आओ। अपने सुंदर मुख दिखलाकर सब (नगर निवासियों) के नेत्रों को सफल करो॥ 218॥

मुनि पद कमल बंदि दोउ भ्राता। चले लोक लोचन सुख दाता॥

बालक बृंद देखि अति सोभा। लगे संग लोचन मनु लोभा॥

सब लोकों के नेत्रों को सुख देनेवाले दोनों भाई मुनि के चरणकमलों की वंदना करके चले। बालकों के झुंड इन (के सौंदर्य) की अत्यंत शोभा देखकर साथ लग गए। उनके नेत्र और मन (इनकी माधुरी पर) लुभा गए।

पीत बसन परिकर कटि भाथा। चारु चाप सर सोहत हाथा॥

तन अनुहरत सुचंदन खोरी। स्यामल गौर मनोहर जोरी॥

(दोनों भाइयों के) पीले रंग के वस्त्र हैं, कमर के (पीले) दुपट्टों में तरकस बँधे हैं। हाथों में सुंदर धनुष-बाण सुशोभित हैं। (श्याम और गौर वर्ण के) शरीरों के अनुकूल (अर्थात जिस पर जिस रंग का चंदन अधिक फबे उस पर उसी रंग के) सुंदर चंदन की खौर लगी है। साँवरे और गोरे (रंग) की मनोहर जोड़ी है।

केहरि कंधर बाहु बिसाला। उर अति रुचिर नागमनि माला॥

सुभग सोन सरसीरुह लोचन। बदन मयंक तापत्रय मोचन॥

सिंह के समान (पुष्ट) गर्दन (गले का पिछला भाग) है, विशाल भुजाएँ हैं। (चौड़ी) छाती पर अत्यंत सुंदर गजमुक्ता की माला है। सुंदर लाल कमल के समान नेत्र हैं। तीनों तापों से छुड़ानेवाला चंद्रमा के समान मुख है।

कानन्हि कनक फूल छबि देहीं। चितवत चितहि चोरि जनु लेहीं॥

चितवनि चारु भृकुटि बर बाँकी। तिलक रेख सोभा जनु चाँकी॥

कानों में सोने के कर्णफूल (अत्यंत) शोभा दे रहे हैं और देखते ही (देखनेवाले के) चित्त को मानो चुरा लेते हैं। उनकी चितवन (दृष्टि) बड़ी मनोहर है और भौंहें तिरछी एवं सुंदर हैं। (माथे पर) तिलक की रेखाएँ ऐसी सुंदर हैं, मानो (मूर्तिमती) शोभा पर मुहर लगा दी गई है।

दो० – रुचिर चौतनीं सुभग सिर मेचक कुंचित केस।

नख सिख सुंदर बंधु दोउ सोभा सकल सुदेस॥ 219॥

सिर पर सुंदर चौकोनी टोपियाँ (दिए) हैं, काले और घुँघराले बाल हैं। दोनों भाई नख से लेकर शिखा तक (एड़ी से चोटी तक) सुंदर हैं और सारी शोभा जहाँ जैसी चाहिए वैसी ही है॥ 219॥

देखन नगरु भूपसुत आए। समाचार पुरबासिन्ह पाए॥

धाए धाम काम सब त्यागी। मनहुँ रंक निधि लूटन लागी॥

जब पुरवासियों ने यह समाचार पाया कि दोनों राजकुमार नगर देखने के लिए आए हैं, तब वे सब घर-बार और सब काम-काज छोड़कर ऐसे दौड़े मानो दरिद्री (धन का) खजाना लूटने दौड़े हों।

निरखि सहज सुंदर दोउ भाई। होहिं सुखी लोचन फल पाई॥

जुबतीं भवन झरोखन्हि लागीं। निरखहिं राम रूप अनुरागीं॥

स्वभाव ही से सुंदर दोनों भाइयों को देखकर वे लोग नेत्रों का फल पाकर सुखी हो रहे हैं। युवती स्त्रियाँ घर के झरोखों से लगी हुई प्रेम सहित राम के रूप को देख रही हैं।

कहहिं परसपर बचन सप्रीती। सखि इन्ह कोटि काम छबि जीती॥

सुर नर असुर नाग मुनि माहीं। सोभा असि कहुँ सुनिअति नाहीं॥

वे आपस में बड़े प्रेम से बातें कर रही हैं – हे सखी! इन्होंने करोड़ों कामदेवों की छवि को जीत लिया है। देवता, मनुष्य, असुर, नाग और मुनियों में ऐसी शोभा तो कहीं सुनने में भी नहीं आती।

बिष्नु चारि भुज बिधि मुख चारी। बिकट बेष मुख पंच पुरारी॥

अपर देउ अस कोउ ना आही। यह छबि सखी पटतरिअ जाही॥

भगवान विष्णु के चार भुजाएँ हैं, ब्रह्मा के चार मुख हैं, शिव का विकट (भयानक) वेष है और उनके पाँच मुँह हैं। हे सखी! दूसरा देवता भी कोई ऐसा नहीं है, जिसके साथ इस छवि की उपमा दी जाए।

दो० – बय किसोर सुषमा सदन स्याम गौर सुख धाम।

अंग अंग पर वारिअहिं कोटि कोटि सत काम॥ 220॥

इनकी किशोर अवस्था है, ये सुंदरता के घर, साँवले और गोरे रंग के तथा सुख के धाम हैं। इनके अंग-अंग पर करोड़ों-अरबों कामदेवों को निछावर कर देना चाहिए॥ 220॥

कहहु सखी अस को तनु धारी। जो न मोह यह रूप निहारी॥

कोउ सप्रेम बोली मृदु बानी। जो मैं सुना सो सुनहु सयानी॥

हे सखी! (भला) कहो तो ऐसा कौन शरीरधारी होगा, जो इस रूप को देखकर मोहित न हो जाए (अर्थात यह रूप जड़-चेतन सबको मोहित करनेवाला है)। (तब) कोई दूसरी सखी प्रेम सहित कोमल वाणी से बोली – हे सयानी! मैंने जो सुना है उसे सुनो –

ए दोऊ दसरथ के ढोटा। बाल मरालन्हि के कल जोटा॥

मुनि कौसिक मख के रखवारे। जिन्ह रन अजिर निसाचर मारे॥

ये दोनों (राजकुमार) महाराज दशरथ के पुत्र हैं! बाल राजहंसों का-सा सुंदर जोड़ा है। ये मुनि विश्वामित्र के यज्ञ की रक्षा करनेवाले हैं, इन्होंने युद्ध के मैदान में राक्षसों को मारा है।

स्याम गात कल कंज बिलोचन। जो मारीच सुभुज मदु मोचन॥

कौसल्या सुत सो सुख खानी। नामु रामु धनु सायक पानी॥

जिनका श्याम शरीर और सुंदर कमल जैसे नेत्र हैं, जो मारीच और सुबाहु के मद को चूर करनेवाले और सुख की खान हैं और जो हाथ में धनुष-बाण लिए हुए हैं, वे कौसल्या के पुत्र हैं, इनका नाम राम है।

गौर किसोर बेषु बर काछें। कर सर चाप राम के पाछें॥

लछिमनु नामु राम लघु भ्राता। सुनु सखि तासु सुमित्रा माता॥

जिनका रंग गोरा और किशोर अवस्था है और जो सुंदर वेष बनाए और हाथ में धनुष-बाण लिए राम के पीछे-पीछे चल रहे हैं, वे इनके छोटे भाई हैं, उनका नाम लक्ष्मण है। हे सखी! सुनो, उनकी माता सुमित्रा हैं।

दो० – बिप्रकाजु करि बंधु दोउ मग मुनिबधू उधारि।

आए देखन चापमख सुनि हरषीं सब नारि॥ 221॥

दोनों भाई ब्राह्मण विश्वामित्र का काम करके और रास्ते में मुनि गौतम की स्त्री अहल्या का उद्धार करके यहाँ धनुषयज्ञ देखने आए हैं। यह सुनकर सब स्त्रियाँ प्रसन्न हुईं॥ 221॥

देखि राम छबि कोउ एक कहई। जोगु जानकिहि यह बरु अहई॥

जौं सखि इन्हहि देख नरनाहू। पन परिहरि हठि करइ बिबाहू॥

राम की छवि देखकर कोई एक (दूसरी सखी) कहने लगी – यह वर जानकी के योग्य है। हे सखी! यदि कहीं राजा इन्हें देख ले, तो प्रतिज्ञा छोड़कर हठपूर्वक इन्हीं से विवाह कर देगा।

कोउ कह ए भूपति पहिचाने। मुनि समेत सादर सनमाने॥

सखि परंतु पनु राउ न तजई। बिधि बस हठि अबिबेकहि भजई॥

किसी ने कहा – राजा ने इन्हें पहचान लिया है और मुनि के सहित इनका आदरपूर्वक सम्मान किया है, परंतु हे सखी! राजा अपना प्रण नहीं छोड़ता। वह होनहार के वशीभूत होकर हठपूर्वक अविवेक का ही आश्रय लिए हुए हैं (प्रण पर अड़े रहने की मूर्खता नहीं छोड़ता)।

कोउ कह जौं भल अहइ बिधाता। सब कहँ सुनिअ उचित फल दाता॥

तौ जानकिहि मिलिहि बरु एहू। नाहिन आलि इहाँ संदेहू॥

कोई कहती है – यदि विधाता भले हैं और सुना जाता है कि वे सबको उचित फल देते हैं, तो जानकी को यही वर मिलेगा। हे सखी! इसमें संदेह नहीं है।

जौं बिधि बस अस बनै सँजोगू। तौ कृतकृत्य होइ सब लोगू॥

सखि हमरें आरति अति तातें। कबहुँक ए आवहिं एहि नातें॥

जो दैवयोग से ऐसा संयोग बन जाए, तो हम सब लोग कृतार्थ हो जाएँ। हे सखी! मेरे तो इसी से इतनी अधिक आतुरता हो रही है कि इसी नाते कभी ये यहाँ आएँगे।

दो० – नाहिं त हम कहुँ सुनहु सखि इन्ह कर दरसनु दूरि।

यह संघटु तब होइ जब पुन्य पुराकृत भूरि॥ 222॥

नहीं तो (विवाह न हुआ तो) हे सखी! सुनो, हमको इनके दर्शन दुर्लभ हैं। यह संयोग तभी हो सकता है, जब हमारे पूर्वजन्मों के बहुत पुण्य हों॥ 222॥

बोली अपर कहेहु सखि नीका। एहिं बिआह अति हित सबही का।

कोउ कह संकर चाप कठोरा। ए स्यामल मृदु गात किसोरा॥

दूसरी ने कहा – हे सखी! तुमने बहुत अच्छा कहा। इस विवाह से सभी का परम हित है। किसी ने कहा – शंकर का धनुष कठोर है और ये साँवले राजकुमार कोमल शरीर के बालक हैं।

सबु असमंजस अहइ सयानी। यह सुनि अपर कहइ मृदु बानी॥

सखि इन्ह कहँ कोउ कोउ अस कहहीं। बड़ प्रभाउ देखत लघु अहहीं॥

हे सयानी! सब असमंजस ही है। यह सुनकर दूसरी सखी कोमल वाणी से कहने लगी – हे सखी! इनके संबंध में कोई-कोई ऐसा कहते हैं कि ये देखने में तो छोटे हैं, पर इनका प्रभाव बहुत बड़ा है।

परसि जासु पद पंकज धूरी। तरी अहल्या कृत अघ भूरी॥

सो कि रहिहि बिनु सिव धनु तोरें। यह प्रतीति परिहरिअ न भोरें॥

जिनके चरणकमलों की धूलि का स्पर्श पाकर अहल्या तर गई, जिसने बड़ा भारी पाप किया था, वे क्या शिव का धनुष बिना तोड़े रहेंगे? इस विश्वास को भूलकर भी नहीं छोड़ना चाहिए।

जेहिं बिरंचि रचि सीय सँवारी। तेहिं स्यामल बरु रचेउ बिचारी॥

तासु बचन सुनि सब हरषानीं। ऐसेइ होउ कहहिं मृदु बानीं॥

जिस ब्रह्मा ने सीता को सँवारकर रचा है, उसी ने विचार कर साँवला वर भी रच रखा है। उसके ये वचन सुनकर सब हर्षित हुईं और कोमल वाणी से कहने लगीं – ऐसा ही हो।

दो० – हियँ हरषहिं बरषहिं सुमन सुमुखि सुलोचनि बृंद।

जाहिं जहाँ जहँ बंधु दोउ तहँ तहँ परमानंद॥ 223॥

सुंदर मुख और सुंदर नेत्रोंवाली स्त्रियाँ समूह की समूह हृदय में हर्षित होकर फूल बरसा रही हैं। जहाँ-जहाँ दोनों भाई जाते हैं, वहाँ-वहाँ परम आनंद छा जाता है॥ 223॥

पुर पूरब दिसि गे दोउ भाई। जहँ धनुमख हित भूमि बनाई॥

अति बिस्तार चारु गच ढारी। बिमल बेदिका रुचिर सँवारी॥

दोनों भाई नगर के पूरब ओर गए, जहाँ धनुष यज्ञ के लिए (रंग) भूमि बनाई गई थी। बहुत लंबा-चौड़ा सुंदर ढाला हुआ पक्का आँगन था, जिस पर सुंदर और निर्मल वेदी सजाई गई थी।

चहुँ दिसि कंचन मंच बिसाला। रचे जहाँ बैठहिं महिपाला॥

तेहि पाछें समीप चहुँ पासा। अपर मंच मंडली बिलासा॥

चारों ओर सोने के बड़े-बड़े मंच बने थे, जिन पर राजा लोग बैठेंगे। उनके पीछे समीप ही चारों ओर दूसरे मचानों का मंडलाकार घेरा सुशोभित था।

कछुक ऊँचि सब भाँति सुहाई। बैठहिं नगर लोग जहँ जाई॥

तिन्ह के निकट बिसाल सुहाए। धवल धाम बहुबरन बनाए॥

वह कुछ ऊँचा था और सब प्रकार से सुंदर था, जहाँ जाकर नगर के लोग बैठेंगे। उन्हीं के पास विशाल एवं सुंदर सफेद मकान अनेक रंगों के बनाए गए हैं,

जहँ बैठें देखहिं सब नारी। जथाजोगु निज कुल अनुहारी॥

पुर बालक कहि कहि मृदु बचना। सादर प्रभुहि देखावहिं रचना॥

जहाँ अपने-अपने कुल के अनुसार सब स्त्रियाँ यथायोग्य (जिसको जहाँ बैठना उचित है) बैठकर देखेंगी। नगर के बालक कोमल वचन कह-कहकर आदरपूर्वक प्रभु राम को (यज्ञशाला की) रचना दिखला रहे हैं।

दो० – सब सिसु एहि मिस प्रेमबस परसि मनोहर गात।

तन पुलकहिं अति हरषु हियँ देखि देखि दोउ भ्रात॥ 224॥

सब बालक इसी बहाने प्रेम के वश में होकर राम के मनोहर अंगों को छूकर शरीर से पुलकित हो रहे हैं और दोनों भाइयों को देख-देखकर उनके हृदय में अत्यंत हर्ष हो रहा है॥ 224॥

सिसु सब राम प्रेमबस जाने। प्रीति समेत निकेत बखाने॥

निज निज रुचि सब लेहिं बोलाई। सहित सनेह जाहिं दोउ भाई॥

राम ने सब बालकों को प्रेम के वश जानकर (यज्ञभूमि के) स्थानों की प्रेमपूर्वक प्रशंसा की। (इससे बालकों का उत्साह, आनंद और प्रेम और भी बढ़ गया, जिससे) वे सब अपनी-अपनी रुचि के अनुसार उन्हें बुला लेते हैं और (प्रत्येक के बुलाने पर) दोनों भाई प्रेम सहित उनके पास चले जाते हैं।

राम देखावहिं अनुजहि रचना। कहि मृदु मधुर मनोहर बचना॥

लव निमेष महुँ भुवन निकाया। रचइ जासु अनुसासन माया॥

कोमल, मधुर और मनोहर वचन कहकर राम अपने छोटे भाई लक्ष्मण को (यज्ञभूमि की) रचना दिखलाते हैं। जिनकी आज्ञा पाकर माया लव निमेष (पलक गिरने के चौथाई समय) में ब्रह्मांडों के समूह रच डालती है,

भगति हेतु सोइ दीनदयाला। चितवत चकित धनुष मखसाला॥

कौतुक देखि चले गुरु पाहीं। जानि बिलंबु त्रास मन माहीं॥

वही दीनों पर दया करनेवाले राम भक्ति के कारण धनुष यज्ञ शाला को चकित होकर (आश्चर्य के साथ) देख रहे हैं। इस प्रकार सब कौतुक देखकर वे गुरु के पास चले। देर हुई जानकर उनके मन में डर है।

जासु त्रास डर कहुँ डर होई। भजन प्रभाउ देखावत सोई॥

कहि बातें मृदु मधुर सुहाईं। किए बिदा बालक बरिआईं॥

जिनके भय से डर को भी डर लगता है, वही प्रभु भजन का प्रभाव (जिसके कारण ऐसे महान प्रभु भी भय का नाट्य करते हैं) दिखला रहे हैं। उन्होंने कोमल, मधुर और सुंदर बातें कहकर बालकों को जबरदस्ती विदा किया।

दो० – सभय सप्रेम बिनीत अति सकुच सहित दोउ भाइ।

गुर पद पंकज नाइ सिर बैठे आयसु पाइ॥ 225॥

फिर भय, प्रेम, विनय और बड़े संकोच के साथ दोनों भाई गुरु के चरण कमलों में सिर नवाकर आज्ञा पाकर बैठे॥ 225॥

निसि प्रबेस मुनि आयसु दीन्हा। सबहीं संध्याबंदनु कीन्हा॥

कहत कथा इतिहास पुरानी। रुचिर रजनि जुग जाम सिरानी॥

रात्रि का प्रवेश होते ही (संध्या के समय) मुनि ने आज्ञा दी, तब सबने संध्यावंदन किया। फिर प्राचीन कथाएँ तथा इतिहास कहते-कहते सुंदर रात्रि दो पहर बीत गई।

मुनिबर सयन कीन्हि तब जाई। लगे चरन चापन दोउ भाई॥

जिन्ह के चरन सरोरुह लागी। करत बिबिध जप जोग बिरागी॥

तब श्रेष्ठ मुनि ने जाकर शयन किया। दोनों भाई उनके चरण दबाने लगे, जिनके चरण कमलों के (दर्शन एवं स्पर्श के) लिए वैराग्यवान पुरुष भी भाँति-भाँति के जप और योग करते हैं।

तेइ दोउ बंधु प्रेम जनु जीते। गुर पद कमल पलोटत प्रीते॥

बार बार मुनि अग्या दीन्ही। रघुबर जाइ सयन तब कीन्ही॥

वे ही दोनों भाई मानो प्रेम से जीते हुए प्रेमपूर्वक गुरुजी के चरण कमलों को दबा रहे हैं। मुनि ने बार-बार आज्ञा दी, तब रघुनाथ ने जाकर शयन किया।

चापत चरन लखनु उर लाएँ। सभय सप्रेम परम सचु पाएँ॥

पुनि पुनि प्रभु कह सोवहु ताता। पौढ़े धरि उर पद जलजाता॥

राम के चरणों को हृदय से लगाकर भय और प्रेम सहित परम सुख का अनुभव करते हुए लक्ष्मण उनको दबा रहे हैं। प्रभु राम ने बार-बार कहा – हे तात! (अब) सो जाओ। तब वे उन चरण कमलों को हृदय में धरकर लेट रहे।

दो० – उठे लखनु निसि बिगत सुनि अरुनसिखा धुनि कान।

गुर तें पहिलेहिं जगतपति जागे रामु सुजान॥ 226॥

रात बीतने पर, मुर्गे का शब्द कानों से सुनकर लक्ष्मण उठे। जगत के स्वामी सुजान राम भी गुरु से पहले ही जाग गए॥ 226॥

सकल सौच करि जाइ नहाए। नित्य निबाहि मुनिहि सिर नाए॥

समय जानि गुर आयसु पाई। लेन प्रसून चले दोउ भाई॥

सब शौचक्रिया करके वे जाकर नहाए। फिर (संध्या-अग्निहोत्रादि) नित्यकर्म समाप्त करके उन्होंने मुनि को मस्तक नवाया। (पूजा का) समय जानकर, गुरु की आज्ञा पाकर दोनों भाई फूल लेने चले।

भूप बागु बर देखेउ जाई। जहँ बसंत रितु रही लोभाई॥

लागे बिटप मनोहर नाना। बरन बरन बर बेलि बिताना॥

उन्होंने जाकर राजा का सुंदर बाग देखा, जहाँ वसंत ऋतु लुभाकर रह गई है। मन को लुभानेवाले अनेक वृक्ष लगे हैं। रंग-बिरंगी उत्तम लताओं के मंडप छाए हुए हैं।

नव पल्लव फल सुमन सुहाए। निज संपति सुर रूख लजाए॥

चातक कोकिल कीर चकोरा। कूजत बिहग नटत कल मोरा॥

नए पत्तों, फलों और फूलों से युक्त सुंदर वृक्ष अपनी संपत्ति से कल्पवृक्ष को भी लजा रहे हैं। पपीहे, कोयल, तोते, चकोर आदि पक्षी मीठी बोली बोल रहे हैं और मोर सुंदर नृत्य कर रहे हैं।

मध्य बाग सरु सोह सुहावा। मनि सोपान बिचित्र बनावा॥

बिमल सलिलु सरसिज बहुरंगा। जलखग कूजत गुंजत भृंगा॥

बाग के बीचोंबीच सुहावना सरोवर सुशोभित है, जिसमें मणियों की सीढ़ियाँ विचित्र ढंग से बनी हैं। उसका जल निर्मल है, जिसमें अनेक रंगों के कमल खिले हुए हैं, जल के पक्षी कलरव कर रहे हैं और भ्रमर गुंजार कर रहे हैं।

दो० – बागु तड़ागु बिलोकि प्रभु हरषे बंधु समेत।

परम रम्य आरामु यहु जो रामहि सुख देत॥ 227॥

बाग और सरोवर को देखकर प्रभु राम भाई लक्ष्मण सहित हर्षित हुए। यह बाग (वास्तव में) परम रमणीय है, जो (जगत को सुख देनेवाले) राम को सुख दे रहा है॥ 227॥

चहुँ दिसि चितइ पूँछि मालीगन। लगे लेन दल फूल मुदित मन॥

तेहि अवसर सीता तहँ आई। गिरिजा पूजन जननि पठाई॥

चारों ओर दृष्टि डालकर और मालियों से पूछकर वे प्रसन्न मन से पत्र-पुष्प लेने लगे। उसी समय सीता वहाँ आईं। माता ने उन्हें गिरिजा (पार्वती) की पूजा करने के लिए भेजा था।

संग सखीं सब सुभग सयानीं। गावहिं गीत मनोहर बानीं॥

सर समीप गिरिजा गृह सोहा। बरनि न जाइ देखि मनु मोहा॥

साथ में सब सुंदरी और सयानी सखियाँ हैं, जो मनोहर वाणी से गीत गा रही हैं। सरोवर के पास गिरिजा का मंदिर सुशोभित है, जिसका वर्णन नहीं किया जा सकता, देखकर मन मोहित हो जाता है।

मज्जनु करि सर सखिन्ह समेता। गई मुदित मन गौरि निकेता॥

पूजा कीन्हि अधिक अनुरागा। निज अनुरूप सुभग बरु मागा॥

सखियों सहित सरोवर में स्नान करके सीता प्रसन्न मन से गिरिजा के मंदिर में गईं। उन्होंने बड़े प्रेम से पूजा की और अपने योग्य सुंदर वर माँगा।

एक सखी सिय संगु बिहाई। गई रही देखन फुलवाई॥

तेहिं दोउ बंधु बिलोके जाई। प्रेम बिबस सीता पहिं आई॥

एक सखी सीता का साथ छोड़कर फुलवाड़ी देखने चली गई थी। उसने जाकर दोनों भाइयों को देखा और प्रेम में विह्वल होकर वह सीता के पास आई।

दो० – तासु दसा देखी सखिन्ह पुलक गात जलु नैन।

कहु कारनु निज हरष कर पूछहिं सब मृदु बैन॥ 228॥

सखियों ने उसकी दशा देखी कि उसका शरीर पुलकित है और नेत्रों में जल भरा है। सब कोमल वाणी से पूछने लगीं कि अपनी प्रसन्नता का कारण बता॥ 228॥

देखन बागु कुअँर दुइ आए। बय किसोर सब भाँति सुहाए॥

स्याम गौर किमि कहौं बखानी। गिरा अनयन नयन बिनु बानी॥

(उसने कहा -) दो राजकुमार बाग देखने आए हैं। किशोर अवस्था के हैं और सब प्रकार से सुंदर हैं। वे साँवले और गोरे (रंग के) हैं, उनके सौंदर्य को मैं कैसे बखानकर कहूँ। वाणी बिना नेत्र की है और नेत्रों के वाणी नहीं है।

सुनि हरषीं सब सखीं सयानी। सिय हियँ अति उतकंठा जानी॥

एक कहइ नृपसुत तेइ आली। सुने जे मुनि सँग आए काली॥

यह सुनकर और सीता के हृदय में बड़ी उत्कंठा जानकर सब सयानी सखियाँ प्रसन्न हुईं। तब एक सखी कहने लगी – हे सखी! ये वही राजकुमार हैं, जो सुना है कि कल विश्वामित्र मुनि के साथ आए हैं।

जिन्ह निज रूप मोहनी डारी। कीन्हे स्वबस नगर नर नारी॥

बरनत छबि जहँ तहँ सब लोगू। अवसि देखिअहिं देखन जोगू॥

और जिन्होंने अपने रूप की मोहिनी डालकर नगर के स्त्री-पुरुषों को अपने वश में कर लिया है। जहाँ-तहाँ सब लोग उन्हीं की छवि का वर्णन कर रहे हैं। अवश्य (चलकर) उन्हें देखना चाहिए, वे देखने ही योग्य हैं।

तासु बचन अति सियहि सोहाने। दरस लागि लोचन अकुलाने॥

चली अग्र करि प्रिय सखि सोई। प्रीति पुरातन लखइ न कोई॥

उसके वचन सीता को अत्यंत ही प्रिय लगे और दर्शन के लिए उनके नेत्र अकुला उठे। उसी प्यारी सखी को आगे करके सीता चलीं। पुरानी प्रीति को कोई लख नहीं पाता।

दो० – सुमिरि सीय नारद बचन उपजी प्रीति पुनीत।

चकित बिलोकति सकल दिसि जनु सिसु मृगी सभीत॥ 229॥

नारद के वचनों का स्मरण करके सीता के मन में पवित्र प्रीति उत्पन्न हुई। वे चकित होकर सब ओर इस तरह देख रही हैं, मानो डरी हुई मृगछौनी इधर-उधर देख रही हो॥ 229॥

कंकन किंकिनि नूपुर धुनि सुनि। कहत लखन सन रामु हृदयँ गुनि॥

मानहुँ मदन दुंदुभी दीन्ही। मनसा बिस्व बिजय कहँ कीन्ही॥

कंकण (हाथों के कड़े), करधनी और पायजेब के शब्द सुनकर राम हृदय में विचार कर लक्ष्मण से कहते हैं – (यह ध्वनि ऐसी आ रही है) मानो कामदेव ने विश्व को जीतने का संकल्प करके डंके पर चोट मारी है।

अस कहि फिरि चितए तेहि ओरा। सिय मुख ससि भए नयन चकोरा॥

भए बिलोचन चारु अचंचल। मनहुँ सकुचि निमि तजे दिगंचल॥

ऐसा कहकर राम ने फिर कर उस ओर देखा। सीता के मुखरूपी चंद्रमा (को निहारने) के लिए उनके नेत्र चकोर बन गए। सुंदर नेत्र स्थिर हो गए (टकटकी लग गई)। मानो निमि (जनक के पूर्वज) ने (जिनका सबकी पलकों में निवास माना गया है, लड़की-दामाद के मिलन-प्रसंग को देखना उचित नहीं, इस भाव से) सकुचाकर पलकें छोड़ दीं, (पलकों में रहना छोड़ दिया, जिससे पलकों का गिरना रुक गया)।

देखि सीय शोभा सुखु पावा। हृदयँ सराहत बचनु न आवा॥

जनु बिरंचि सब निज निपुनाई। बिरचि बिस्व कहँ प्रगटि देखाई॥

सीता की शोभा देखकर राम ने बड़ा सुख पाया। हृदय में वे उसकी सराहना करते हैं, किंतु मुख से वचन नहीं निकलते। मानो ब्रह्मा ने अपनी सारी निपुणता को मूर्तिमान कर संसार को प्रकट करके दिखा दिया हो।

सुंदरता कहुँ सुंदर करई। छबिगृहँ दीपसिखा जनु बरई॥

सब उपमा कबि रहे जुठारी। केहिं पटतरौं बिदेहकुमारी॥

वह (सीता की शोभा) सुंदरता को भी सुंदर करनेवाली है। (वह ऐसी मालूम होती है) मानो सुंदरतारूपी घर में दीपक की लौ जल रही हो। (अब तक सुंदरतारूपी भवन में अँधेरा था, वह भवन मानो सीता की सुंदरतारूपी दीपशिखा को पाकर जगमगा उठा है, पहले से भी अधिक सुंदर हो गया है)। सारी उपमाओं को तो कवियों ने जूँठा कर रखा है। मैं जनकनंदिनी सीता की किससे उपमा दूँ।

दो० – सिय शोभा हियँ बरनि प्रभु आपनि दसा बिचारि॥

बोले सुचि मन अनुज सन बचन समय अनुहारि॥ 230॥

(इस प्रकार) हृदय में सीता की शोभा का वर्णन करके और अपनी दशा को विचारकर प्रभु राम पवित्र मन से अपने छोटे भाई लक्ष्मण से समयानुकूल वचन बोले – ॥ 230॥

तात जनकतनया यह सोई। धनुषजग्य जेहि कारन होई॥

पूजन गौरि सखीं लै आईं। करत प्रकासु फिरइ फुलवाईं॥

हे तात! यह वही जनक की कन्या है, जिसके लिए धनुषयज्ञ हो रहा है। सखियाँ इसे गौरी पूजन के लिए ले आई हैं। यह फुलवारी में प्रकाश करती हुई फिर रही है।

जासु बिलोकि अलौकिक सोभा। सहज पुनीत मोर मनु छोभा॥

सो सबु कारन जान बिधाता। फरकहिं सुभद अंग सुनु भ्राता॥

जिसकी अलौकिक सुंदरता देखकर स्वभाव से ही पवित्र मेरा मन क्षुब्ध हो गया है। वह सब कारण (अथवा उसका सब कारण) तो विधाता जानें। किंतु हे भाई! सुनो, मेरे मंगलदायक (दाहिने) अंग फड़क रहे हैं।

रघुबंसिन्ह कर सहज सुभाऊ। मनु कुपंथ पगु धरइ न काऊ॥

मोहि अतिसय प्रतीति मन केरी। जेहिं सपनेहुँ परनारि न हेरी॥

रघुवंशियों का यह सहज (जन्मगत) स्वभाव है कि उनका मन कभी कुमार्ग पर पैर नहीं रखता। मुझे तो अपने मन का अत्यंत ही विश्वास है कि जिसने स्वप्न में भी पराई स्त्री पर दृष्टि नहीं डाली है।

जिन्ह कै लहहिं न रिपु रन पीठी। नहिं पावहिं परतिय मनु डीठी॥

मंगन लहहिं न जिन्ह कै नाहीं। ते नरबर थोरे जग माहीं॥

रण में शत्रु जिनकी पीठ नहीं देख पाते (अर्थात जो लड़ाई के मैदान से भागते नहीं), पराई स्त्रियाँ जिनके मन और दृष्टि को नहीं खींच पातीं और भिखारी जिनके यहाँ से ‘नाहीं’ नहीं पाते (खाली हाथ नहीं लौटते), ऐसे श्रेष्ठ पुरुष संसार में थोड़े हैं।

दो० – करत बतकही अनुज सन मन सिय रूप लोभान।

मुख सरोज मकरंद छबि करइ मधुप इव पान॥ 231॥

यों राम छोटे भाई से बातें कर रहे हैं, पर मन सीता के रूप में लुभाया हुआ उनके मुखरूपी कमल के छवि रूप मकरंद रस को भौंरे की तरह पी रहा है॥ 231॥

चितवति चकित चहूँ दिसि सीता। कहँ गए नृप किसोर मनु चिंता॥

जहँ बिलोक मृग सावक नैनी। जनु तहँ बरिस कमल सित श्रेनी॥

सीता चकित होकर चारों ओर देख रही हैं। मन इस बात की चिंता कर रहा है कि राजकुमार कहाँ चले गए। बालमृग-नयनी (मृग के छौने की-सी आँखवाली) सीता जहाँ दृष्टि डालती हैं, वहाँ मानो श्वेत कमलों की कतार बरस जाती है।

लता ओट तब सखिन्ह लखाए। स्यामल गौर किसोर सुहाए॥

देखि रूप लोचन ललचाने। हरषे जनु निज निधि पहिचाने॥

तब सखियों ने लता की ओट में सुंदर श्याम और गौर कुमारों को दिखलाया। उनके रूप को देखकर नेत्र ललचा उठे, वे ऐसे प्रसन्न हुए मानो उन्होंने अपना खजाना पहचान लिया।

थके नयन रघुपति छबि देखें। पलकन्हिहूँ परिहरीं निमेषें॥

अधिक सनेहँ देह भै भोरी। सरद ससिहि जनु चितव चकोरी॥

रघुनाथ की छवि देखकर नेत्र चकित (निश्चल) हो गए। पलकों ने भी गिरना छोड़ दिया। अधिक स्नेह के कारण शरीर विह्वल (बेकाबू) हो गया। मानो शरद ऋतु के चंद्रमा को चकोरी (बेसुध हुई) देख रही हो।

लोचन मग रामहि उर आनी। दीन्हे पलक कपाट सयानी॥

जब सिय सखिन्ह प्रेमबस जानी। कहि न सकहिं कछु मन सकुचानी॥

नेत्रों के रास्ते राम को हृदय में लाकर चतुरशिरोमणि जानकी ने पलकों के किवाड़ लगा दिए (अर्थात नेत्र मूँदकर उनका ध्यान करने लगीं)। जब सखियों ने सीता को प्रेम के वश जाना, तब वे मन में सकुचा गईं, कुछ कह नहीं सकती थीं।

दो० – लताभवन तें प्रगट भे तेहि अवसर दोउ भाइ।

निकसे जनु जुग बिमल बिधु जलद पटल बिलगाई॥ 232॥

उसी समय दोनों भाई लता मंडप (कुंज) में से प्रकट हुए। मानो दो निर्मल चंद्रमा बादलों के परदे को हटाकर निकले हों॥ 232॥

सोभा सीवँ सुभग दोउ बीरा। नील पीत जलजाभ सरीरा॥

मोरपंख सिर सोहत नीके। गुच्छ बीच बिच कुसुम कली के॥

दोनों सुंदर भाई शोभा की सीमा हैं। उनके शरीर की आभा नीले और पीले कमल की-सी है। सिर पर सुंदर मोरपंख सुशोभित हैं। उनके बीच-बीच में फूलों की कलियों के गुच्छे लगे हैं।

भाल तिलक श्रमबिंदु सुहाए। श्रवन सुभग भूषन छबि छाए॥

बिकट भृकुटि कच घूघरवारे। नव सरोज लोचन रतनारे॥

माथे पर तिलक और पसीने की बूँदें शोभायमान हैं। कानों में सुंदर भूषणों की छवि छाई है। टेढ़ी भौंहें और घुँघराले बाल हैं। नए लाल कमल के समान रतनारे (लाल) नेत्र हैं।

चारु चिबुक नासिका कपोला। हास बिलास लेत मनु मोला॥

मुखछबि कहि न जाइ मोहि पाहीं। जो बिलोकि बहु काम लजाहीं॥

ठोड़ी, नाक और गाल बड़े सुंदर हैं, और हँसी की शोभा मन को मोल लिए लेती है। मुख की छवि तो मुझसे कही ही नहीं जाती, जिसे देखकर बहुत- से कामदेव लजा जाते हैं।

उर मनि माल कंबु कल गीवा। काम कलभ कर भुज बलसींवा॥

सुमन समेत बाम कर दोना। सावँर कुअँर सखी सुठि लोना॥

वक्षःस्थल पर मणियों की माला है। शंख के सदृश सुंदर गला है। कामदेव के हाथी के बच्चे की सूँड़ के समान (उतार-चढ़ाववाली एवं कोमल) भुजाएँ हैं, जो बल की सीमा हैं। जिसके बाएँ हाथ में फूलों सहित दोना है, हे सखि! वह साँवला कुँअर तो बहुत ही सलोना है।

दो० – केहरि कटि पट पीत धर सुषमा सील निधान।

देखि भानुकुलभूषनहि बिसरा सखिन्ह अपान॥ 233॥

सिंह की-सी (पतली, लचीली) कमरवाले, पीतांबर धारण किए हुए, शोभा और शील के भंडार, सूर्यकुल के भूषण राम को देखकर सखियाँ अपने आपको भूल गईं॥ 233॥

धरि धीरजु एक आलि सयानी। सीता सन बोली गहि पानी॥

बहुरि गौरि कर ध्यान करेहू। भूपकिसोर देखि किन लेहू॥

एक चतुर सखी धीरज धरकर, हाथ पकड़कर सीता से बोली – गिरिजा का ध्यान फिर कर लेना, इस समय राजकुमार को क्यों नहीं देख लेतीं।

सकुचि सीयँ तब नयन उघारे। सनमुख दोउ रघुसिंघ निहारे॥

नख सिख देखि राम कै सोभा। सुमिरि पिता पनु मनु अति छोभा॥

तब सीता ने सकुचाकर नेत्र खोले और रघुकुल के दोनों सिंहों को अपने सामने (खड़े) देखा। नख से शिखा तक राम की शोभा देखकर और फिर पिता का प्रण याद करके उनका मन बहुत क्षुब्ध हो गया।

परबस सखिन्ह लखी जब सीता। भयउ गहरु सब कहहिं सभीता॥

पुनि आउब एहि बेरिआँ काली। अस कहि मन बिहसी एक आली॥

जब सखियों ने सीता को परवश (प्रेम के वश) देखा, तब सब भयभीत होकर कहने लगीं – बड़ी देर हो गई (अब चलना चाहिए)। कल इसी समय फिर आएँगी, ऐसा कहकर एक सखी मन में हँसी।

गूढ़ गिरा सुनि सिय सकुचानी। भयउ बिलंबु मातु भय मानी॥

धरि बड़ि धीर रामु उर आने। फिरी अपनपउ पितुबस जाने॥

सखी की यह रहस्यभरी वाणी सुनकर सीता सकुचा गईं। देर हो गई जान उन्हें माता का भय लगा। बहुत धीरज धरकर वे राम को हृदय में ले आईं, और (उनका ध्यान करती हुई) अपने को पिता के अधीन जानकर लौट चलीं।

दो० – देखन मिस मृग बिहग तरु फिरइ बहोरि बहोरि।

निरखि निरखि रघुबीर छबि बाढ़इ प्रीति न थोरि॥ 234॥

मृग, पक्षी और वृक्षों को देखने के बहाने सीता बार-बार घूम जाती हैं और राम की छवि देख-देखकर उनका प्रेम कम नहीं बढ़ रहा है। (अर्थात बहुत ही बढ़ता जाता है)॥ 234॥

जानि कठिन सिवचाप बिसूरति। चली राखि उर स्यामल मूरति॥

प्रभु जब जात जानकी जानी। सुख सनेह सोभा गुन खानी॥

शिव के धनुष को कठोर जानकर वे बिसूरती (मन में विलाप करती) हुई हृदय में राम की साँवली मूर्ति को रखकर चलीं। (शिव के धनुष की कठोरता का स्मरण आने से उन्हें चिंता होती थी कि ये सुकुमार रघुनाथ उसे कैसे तोड़ेंगे, पिता के प्रण की स्मृति से उनके हृदय में क्षोभ था ही, इसलिए मन में विलाप करने लगीं। प्रेमवश ऐश्वर्य की विस्मृति हो जाने से ही ऐसा हुआ, फिर भगवान के बल का स्मरण आते ही वे हर्षित हो गईं और साँवली छवि को हृदय में धारण करके चलीं।) प्रभु राम ने जब सुख, स्नेह, शोभा और गुणों की खान जानकी को जाती हुई जाना,

परम प्रेममय मृदु मसि कीन्ही। चारु चित्त भीतीं लिखि लीन्ही॥

गई भवानी भवन बहोरी। बंदि चरन बोली कर जोरी॥

तब परमप्रेम की कोमल स्याही बनाकर उनके स्वरूप को अपने सुंदर चित्तरूपी भित्ति पर चित्रित कर लिया। सीता पुनः भवानी के मंदिर में गईं और उनके चरणों की वंदना करके हाथ जोड़कर बोलीं –

जय जय गिरिबरराज किसोरी। जय महेस मुख चंद चकोरी॥

जय गजबदन षडानन माता। जगत जननि दामिनि दुति गाता॥

हे श्रेष्ठ पर्वतों के राजा हिमाचल की पुत्री पार्वती! आपकी जय हो, जय हो, हे महादेव के मुखरूपी चंद्रमा की (ओर टकटकी लगाकर देखनेवाली) चकोरी! आपकी जय हो, हे हाथी के मुखवाले गणेश और छह मुखवाले स्वामिकार्तिक की माता! हे जगज्जननी! हे बिजली की-सी कांतियुक्त शरीरवाली! आपकी जय हो!

नहिं तव आदि मध्य अवसाना। अमित प्रभाउ बेदु नहिं जाना॥

भव भव बिभव पराभव कारिनि। बिस्व बिमोहनि स्वबस बिहारिनि॥

आपका न आदि है, न मध्य है और न अंत है। आपके असीम प्रभाव को वेद भी नहीं जानते। आप संसार को उत्पन्न, पालन और नाश करनेवाली हैं। विश्व को मोहित करनेवाली और स्वतंत्र रूप से विहार करनेवाली हैं।

दो० – पतिदेवता सुतीय महुँ मातु प्रथम तव रेख।

महिमा अमित न सकहिं कहि सहस सारदा सेष॥ 235॥

पति को इष्टदेव माननेवाली श्रेष्ठ नारियों में हे माता! आपकी प्रथम गणना है। आपकी अपार महिमा को हजारों सरस्वती और शेष भी नहीं कह सकते॥ 235॥

सेवत तोहि सुलभ फल चारी। बरदायनी पुरारि पिआरी॥

देबि पूजि पद कमल तुम्हारे। सुर नर मुनि सब होहिं सुखारे॥

हे (भक्तों को मुँहमाँगा) वर देनेवाली! हे त्रिपुर के शत्रु शिव की प्रिय पत्नी! आपकी सेवा करने से चारों फल सुलभ हो जाते हैं। हे देवी! आपके चरण कमलों की पूजा करके देवता, मनुष्य और मुनि सभी सुखी हो जाते हैं।

मोर मनोरथु जानहु नीकें। बसहु सदा उर पुर सबही कें॥

कीन्हेउँ प्रगट न कारन तेहीं। अस कहि चरन गहे बैदेहीं॥

मेरे मनोरथ को आप भली-भाँति जानती हैं; क्योंकि आप सदा सबके हृदयरूपी नगरी में निवास करती हैं। इसी कारण मैंने उसको प्रकट नहीं किया। ऐसा कहकर जानकी ने उनके चरण पकड़ लिए।

बिनय प्रेम बस भई भवानी। खसी माल मूरति मुसुकानी॥

सादर सियँ प्रसादु सिर धरेऊ। बोली गौरि हरषु हियँ भरेऊ॥

गिरिजा सीता के विनय और प्रेम के वश में हो गईं। उन (के गले) की माला खिसक पड़ी और मूर्ति मुसकराई। सीता ने आदरपूर्वक उस प्रसाद (माला) को सिर पर धारण किया। गौरी का हृदय हर्ष से भर गया और वे बोलीं –

सुनु सिय सत्य असीस हमारी। पूजिहि मन कामना तुम्हारी॥

नारद बचन सदा सुचि साचा। सो बरु मिलिहि जाहिं मनु राचा॥

हे सीता! हमारी सच्ची आसीस सुनो, तुम्हारी मनःकामना पूरी होगी। नारद का वचन सदा पवित्र (संशय, भ्रम आदि दोषों से रहित) और सत्य है। जिसमें तुम्हारा मन अनुरक्त हो गया है, वही वर तुमको मिलेगा।

छं० – मनु जाहिं राचेउ मिलिहि सो बरु सहज सुंदर साँवरो।

करुना निधान सुजान सीलु सनेहु जानत रावरो॥

एहि भाँति गौरि असीस सुनि सिय सहित हियँ हरषीं अली।

तुलसी भवानिहि पूजि पुनि पुनि मुदित मन मंदिर चली॥

जिसमें तुम्हारा मन अनुरक्त हो गया है, वही स्वभाव से ही सुंदर साँवला वर (राम) तुमको मिलेगा। वह दया का खजाना और सुजान (सर्वज्ञ) है, तुम्हारे शील और स्नेह को जानता है। इस प्रकार गौरी का आशीर्वाद सुनकर जानकी समेत सब सखियाँ हृदय में हर्षित हुईं। तुलसीदास कहते हैं – भवानी को बार-बार पूजकर सीता प्रसन्न मन से राजमहल को लौट चलीं।

सो० – जानि गौरि अनुकूल सिय हिय हरषु न जाइ कहि।

मंजुल मंगल मूल बाम अंग फरकन लगे॥ 236॥

गौरी को अनुकूल जानकर सीता के हृदय को जो हर्ष हुआ, वह कहा नहीं जा सकता। सुंदर मंगलों के मूल उनके बाएँ अंग फड़कने लगे॥ 236॥

हृदयँ सराहत सीय लोनाई। गुर समीप गवने दोउ भाई॥

राम कहा सबु कौसिक पाहीं। सरल सुभाउ छुअत छल नाहीं॥

हृदय में सीता के सौंदर्य की सराहना करते हुए दोनों भाई गुरु के पास गए। राम ने विश्वामित्र से सब कुछ कह दिया, क्योंकि उनका सरल स्वभाव है, छल तो उसे छूता भी नहीं है।

सुमन पाइ मुनि पूजा कीन्ही। पुनि असीस दुहु भाइन्ह दीन्ही॥

सुफल मनोरथ होहुँ तुम्हारे। रामु लखनु सुनि भय सुखारे॥

फूल पाकर मुनि ने पूजा की। फिर दोनों भाइयों को आशीर्वाद दिया कि तुम्हारे मनोरथ सफल हों। यह सुनकर राम-लक्ष्मण सुखी हुए।

करि भोजनु मुनिबर बिग्यानी। लगे कहन कछु कथा पुरानी॥

बिगत दिवसु गुरु आयसु पाई। संध्या करन चले दोउ भाई॥

श्रेष्ठ विज्ञानी मुनि विश्वामित्र भोजन करके कुछ प्राचीन कथाएँ कहने लगे। (इतने में) दिन बीत गया और गुरु की आज्ञा पाकर दोनों भाई संध्या करने चले।

प्राची दिसि ससि उयउ सुहावा। सिय मुख सरिस देखि सुखु पावा॥

बहुरि बिचारु कीन्ह मन माहीं। सीय बदन सम हिमकर नाहीं॥

(उधर) पूर्व दिशा में सुंदर चंद्रमा उदय हुआ। राम ने उसे सीता के मुख के समान देखकर सुख पाया। फिर मन में विचार किया कि यह चंद्रमा सीता के मुख के समान नहीं है।

दो० – जनमु सिंधु पुनि बंधु बिषु दिन मलीन सकलंक।

सिय मुख समता पाव किमि चंदु बापुरो रंक॥ 237॥

खारे समुद्र में तो इसका जन्म, फिर (उसी समुद्र से उत्पन्न होने के कारण) विष इसका भाई; दिन में यह मलिन (शोभाहीन, निस्तेज) रहता है, और कलंकी (काले दाग से युक्त) है। बेचारा गरीब चंद्रमा सीता के मुख की बराबरी कैसे पा सकता है?॥ 237॥

घटइ बढ़इ बिरहिनि दुखदाई। ग्रसइ राहु निज संधिहिं पाई॥

कोक सोकप्रद पंकज द्रोही। अवगुन बहुत चंद्रमा तोही॥

फिर यह घटता-बढ़ता है और विरहिणी स्त्रियों को दुःख देनेवाला है; राहु अपनी संधि में पाकर इसे ग्रस लेता है। चकवे को (चकवी के वियोग का) शोक देनेवाला और कमल का बैरी (उसे मुरझा देनेवाला) है। हे चंद्रमा! तुझमें बहुत-से अवगुण हैं (जो सीता में नहीं हैं)।

बैदेही मुख पटतर दीन्हे। होइ दोषु बड़ अनुचित कीन्हे॥

सिय मुख छबि बिधु ब्याज बखानी। गुर पहिं चले निसा बड़ि जानी॥

अतः जानकी के मुख की तुझे उपमा देने में बड़ा अनुचित कर्म करने का दोष लगेगा। इस प्रकार चंद्रमा के बहाने सीता के मुख की छवि का वर्णन करके, बड़ी रात हो गई जान, वे गुरु के पास चले।

करि मुनि चरन सरोज प्रनामा। आयसु पाइ कीन्ह बिश्रामा॥

बिगत निसा रघुनायक जागे। बंधु बिलोकि कहन अस लागे॥

मुनि के चरण कमलों में प्रणाम करके, आज्ञा पाकर उन्होंने विश्राम किया, रात बीतने पर रघुनाथ जागे और भाई को देखकर ऐसा कहने लगे –

उयउ अरुन अवलोकहु ताता। पंकज कोक लोक सुखदाता॥

बोले लखनु जोरि जुग पानी। प्रभु प्रभाउ सूचक मृदु बानी॥

हे तात! देखो, कमल, चक्रवाक और समस्त संसार को सुख देनेवाला अरुणोदय हुआ है। लक्ष्मण दोनों हाथ जोड़कर प्रभु के प्रभाव को सूचित करनेवाली कोमल वाणी बोले –

दो० – अरुनोदयँ सकुचे कुमुद उडगन जोति मलीन।

जिमि तुम्हार आगमन सुनि भए नृपति बलहीन॥ 238॥

अरुणोदय होने से कुमुदिनी सकुचा गई और तारागणों का प्रकाश फीका पड़ गया, जिस प्रकार आपका आना सुनकर सब राजा बलहीन हो गए हैं॥ 238॥

नृप सब नखत करहिं उजिआरी। टारि न सकहिं चाप तम भारी॥

कमल कोक मधुकर खग नाना। हरषे सकल निसा अवसाना॥

सब राजारूपी तारे उजाला (मंद प्रकाश) करते हैं, पर वे धनुषरूपी महान अंधकार को हटा नहीं सकते। रात्रि का अंत होने से जैसे कमल, चकवे, भौंरे और नाना प्रकार के पक्षी हर्षित हो रहे हैं।

ऐसेहिं प्रभु सब भगत तुम्हारे। होइहहिं टूटें धनुष सुखारे॥

उयउ भानु बिनु श्रम तम नासा। दुरे नखत जग तेजु प्रकासा॥

वैसे ही हे प्रभो! आपके सब भक्त धनुष टूटने पर सुखी होंगे। सूर्य उदय हुआ, बिना ही परिश्रम अंधकार नष्ट हो गया। तारे छिप गए, संसार में तेज का प्रकाश हो गया।

रबि निज उदय ब्याज रघुराया। प्रभु प्रतापु सब नृपन्ह दिखाया॥

तव भुज बल महिमा उदघाटी। प्रगटी धनु बिघटन परिपाटी॥

हे रघुनाथ! सूर्य ने अपने उदय के बहाने सब राजाओं को प्रभु (आप) का प्रताप दिखलाया है। आपकी भुजाओं के बल की महिमा को उद्घाटित करने (खोलकर दिखाने) के लिए ही धनुष तोड़ने की यह पद्धति प्रकट हुई है।

बंधु बचन सुनि प्रभु मुसुकाने। होइ सुचि सहज पुनीत नहाने॥

नित्यक्रिया करि गुरु पहिं आए। चरन सरोज सुभग सिर नाए॥

भाई के वचन सुनकर प्रभु मुसकराए। फिर स्वभाव से ही पवित्र राम ने शौच से निवृत्त होकर स्नान किया और नित्यकर्म करके वे गुरु के पास आए। आकर उन्होंने गुरु के सुंदर चरण कमलों में सिर नवाया।

सतानंदु तब जनक बोलाए। कौसिक मुनि पहिं तुरत पठाए॥

जनक बिनय तिन्ह आइ सुनाई। हरषे बोलि लिए दोउ भाई॥

तब जनक ने शतानंद को बुलाया और उन्हें तुरंत ही विश्वामित्र मुनि के पास भेजा। उन्होंने आकर जनक की विनती सुनाई। विश्वामित्र ने हर्षित होकर दोनों भाइयों को बुलाया।

दो० – सतानंद पद बंदि प्रभु बैठे गुर पहिं जाइ।

चलहु तात मुनि कहेउ तब पठवा जनक बोलाइ॥ 239॥

शतानंद के चरणों की वंदना करके प्रभु राम गुरु के पास जा बैठे। तब मुनि ने कहा – हे तात! चलो, जनक ने बुला भेजा है॥ 239॥

श्री राम चरित मानस- बालकाण्ड, मासपारायण, आठवाँ विश्राम समाप्त॥

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *