श्री राम चरित मानस- अयोध्याकांड, मासपारायण, अठारहवाँ विश्राम || Shri Ram Charit Manas Ayodhyakand Atharahavan Vishram

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श्री राम चरित मानस- अयोध्याकांड, मासपारायण, अठारहवाँ विश्राम

श्री राम चरित मानस- अयोध्याकांड, मासपारायण, अठारहवाँ विश्राम

श्री रामचरित मानस

द्वितीय सोपान (अयोध्याकांड)

अमर नाग किंनर दिसिपाला। चित्रकूट आए तेहि काला॥

राम प्रनामु कीन्ह सब काहू। मुदित देव लहि लोचन लाहू॥

उस समय देवता, नाग, किन्नर और दिक्पाल चित्रकूट में आए और राम ने सब किसी को प्रणाम किया। देवता नेत्रों का लाभ पाकर आनंदित हुए।

बरषि सुमन कह देव समाजू। नाथ सनाथ भए हम आजू॥

करि बिनती दुख दुसह सुनाए। हरषित निज निज सदन सिधाए॥

फूलों की वर्षा करके देव समाज ने कहा – हे नाथ! आज (आपका दर्शन पाकर) हम सनाथ हो गए। फिर विनती करके उन्होंने अपने दुःसह दुःख सुनाए और (दुःखों के नाश का आश्वासन पाकर) हर्षित होकर अपने-अपने स्थानों को चले गए।

चित्रकूट रघुनंदनु छाए। समाचार सुनि सुनि मुनि आए॥

आवत देखि मुदित मुनिबृंदा। कीन्ह दंडवत रघुकुल चंदा॥

रघुनाथ चित्रकूट में आ बसे हैं, यह समाचार सुन-सुनकर बहुत-से मुनि आए। रघुकुल के चंद्रमा राम ने मुदित हुई मुनि मंडली को आते देखकर दंडवत प्रणाम किया।

मुनि रघुबरहि लाइ उर लेहीं। सुफल होन हित आसिष देहीं॥

सिय सौमित्रि राम छबि देखहिं। साधन सकल सफल करि लेखहिं॥

मुनिगण राम को हृदय से लगा लेते हैं और सफल होने के लिए आशीर्वाद देते हैं। वे सीता, लक्ष्मण और राम की छवि देखते हैं और अपने सारे साधनों को सफल हुआ समझते हैं।

दो० – जथाजोग सनमानि प्रभु बिदा किए मुनिबृंद।

करहिं जोग जप जाग तप निज आश्रमन्हि सुछंद॥ 134॥

प्रभु राम ने यथायोग्य सम्मान करके मुनि मंडली को विदा किया। (राम के आ जाने से) वे सब अपने-अपने आश्रमों में अब स्वतंत्रता के साथ योग, जप, यज्ञ और तप करने लगे॥ 134॥

यह सुधि कोल किरातन्ह पाई। हरषे जनु नव निधि घर आई॥

कंद मूल फल भरि भरि दोना। चले रंक जनु लूटन सोना॥

यह (राम के आगमन का) समाचार जब कोल-भीलों ने पाया, तो वे ऐसे हर्षित हुए मानो नवों निधियाँ उनके घर ही पर आ गई हों। वे दोनों में कंद, मूल, फल भर-भरकर चले, मानो दरिद्र सोना लूटने चले हों।

तिन्ह महँ जिन्ह देखे दोउ भ्राता। अपर तिन्हहि पूँछहिं मगु जाता॥

कहत सुनत रघुबीर निकाई। आइ सबन्हि देखे रघुराई॥

उनमें से जो दोनों भाइयों को (पहले) देख चुके थे, उनसे दूसरे लोग रास्ते में जाते हुए पूछते हैं। इस प्रकार राम की सुंदरता कहते-सुनते सब ने आकर रघुनाथ के दर्शन किए।

करहिं जोहारु भेंट धरि आगे। प्रभुहि बिलोकहिं अति अनुरागे॥

चित्र लिखे जनु जहँ तहँ ठाढ़े। पुलक सरीर नयन जल बाढ़े॥

भेंट आगे रखकर वे लोग जोहार करते हैं और अत्यंत अनुराग के साथ प्रभु को देखते हैं। वे मुग्ध हुए जहाँ-के-तहाँ मानो चित्रलिखे-से खड़े हैं। उनके शरीर पुलकित हैं और नेत्रों में प्रेमाश्रुओं के जल की बाढ़ आ रही है।

राम सनेह मगन सब जाने। कहि प्रिय बचन सकल सनमाने॥

प्रभुहि जोहारि बहोरि बहोरी। बचन बिनीत कहहिं कर जोरी॥

राम ने उन सबको प्रेम में मग्न जाना और प्रिय वचन कहकर सबका सम्मान किया। वे बार-बार प्रभु राम को जोहार करते हुए हाथ जोड़कर विनीत वचन कहते हैं –

दो० – अब हम नाथ सनाथ सब भए देखि प्रभु पाय।

भाग हमारें आगमनु राउर कोसलराय॥ 135॥

हे नाथ! प्रभु (आप) के चरणों का दर्शन पाकर अब हम सब सनाथ हो गए। हे कोसलराज! हमारे ही भाग्य से आपका यहाँ शुभागमन हुआ है॥ 135॥

धन्य भूमि बन पंथ पहारा। जहँ जहँ नाथ पाउ तुम्ह धारा॥

धन्य बिहग मृग काननचारी। सफल जनम भए तुम्हहि निहारी॥

हे नाथ! जहाँ-जहाँ आपने अपने चरण रखे हैं, वे पृथ्वी, वन, मार्ग और पहाड़ धन्य हैं, वे वन में विचरनेवाले पक्षी और पशु धन्य हैं, जो आपको देखकर सफल जन्म हो गए।

हम सब धन्य सहित परिवारा। दीख दरसु भरि नयन तुम्हारा॥

कीन्ह बासु भल ठाउँ बिचारी। इहाँ सकल रितु रहब सुखारी॥

हम सब भी अपने परिवार सहित धन्य हैं, जिन्होंने नेत्र भरकर आपके दर्शन किए। आपने बड़ी अच्छी जगह विचारकर निवास किया है। यहाँ सभी ऋतुओं में आप सुखी रहिएगा।

हम सब भाँति करब सेवकाई। करि केहरि अहि बाघ बराई॥

बन बेहड़ गिरि कंदर खोहा। सब हमार प्रभु पग पग जोहा॥

हम लोग सब प्रकार से हाथी, सिंह, सर्प और बाघों से बचाकर आपकी सेवा करेंगे। हे प्रभो! यहाँ के बीहड़ वन, पहाड़, गुफाएँ और खोह (दर्रे) सब पग-पग हमारे देखे हुए हैं।

तहँ तहँ तुम्हहि अहेर खेलाउब। सर निरझर जलठाउँ देखाउब॥

हम सेवक परिवार समेता। नाथ न सकुचब आयसु देता॥

हम वहाँ-वहाँ (उन-उन स्थानों में) आपको शिकार खिलावेंगे और तालाब, झरने आदि जलाशयों को दिखाएँगे। हम कुटुंब समेत आपके सेवक हैं। हे नाथ! इसलिए हमें आज्ञा देने में संकोच न कीजिएगा।

दो० – बेद बचन मुनि मन अगम ते प्रभु करुना ऐन।

बचन किरातन्ह के सुनत जिमि पितु बालक बैन॥ 136॥

जो वेदों के वचन और मुनियों के मन को भी अगम हैं, वे करुणा के धाम प्रभु राम भीलों के वचन इस तरह सुन रहे हैं जैसे पिता बालकों के वचन सुनता है॥ 136॥

रामहि केवल प्रेमु पिआरा। जानि लेउ जो जान निहारा॥

राम सकल बनचर तब तोषे। कहि मृदु बचन प्रेम परिपोषे॥

राम को केवल प्रेम प्यारा है; जो जाननेवाला हो (जानना चाहता हो), वह जान ले। तब राम ने प्रेम से परिपुष्ट हुए (प्रेमपूर्ण) कोमल वचन कहकर उन सब वन में विचरण करनेवाले लोगों को संतुष्ट किया।

बिदा किए सिर नाइ सिधाए। प्रभु गुन कहत सुनत घर आए॥

एहि बिधि सिय समेत दोउ भाई। बसहिं बिपिन सुर मुनि सुखदाई॥

फिर उनको विदा किया। वे सिर नवाकर चले और प्रभु के गुण कहते-सुनते घर आए। इस प्रकार देवता और मुनियों को सुख देनेवाले दोनों भाई सीता समेत वन में निवास करने लगे।

जब तें आइ रहे रघुनायकु। तब तें भयउ बनु मंगलदायकु॥

फूलहिं फलहिं बिटप बिधि नाना। मंजु बलित बर बेलि बिताना॥

जब से रघुनाथ वन में आकर रहे तब से वन मंगलदायक हो गया। अनेक प्रकार के वृक्ष फूलते और फलते हैं और उन पर लिपटी हुई सुंदर बेलों के मंडप तने हैं।

सुरतरु सरिस सुभायँ सुहाए। मनहुँ बिबुध बन परिहरि आए॥

गुंज मंजुतर मधुकर श्रेनी। त्रिबिध बयारि बहइ सुख देनी॥

वे कल्पवृक्ष के समान स्वाभाविक ही सुंदर हैं। मानो वे देवताओं के वन (नंदन वन) को छोड़कर आए हों। भौंरों की पंक्तियाँ बहुत ही सुंदर गुंजार करती हैं और सुख देनेवाली शीतल, मंद, सुगंधित हवा चलती रहती है।

दो० – नीलकंठ कलकंठ सुक चातक चक्क चकोर।

भाँति भाँति बोलहिं बिहग श्रवन सुखद चित चोर॥ 137॥

नीलकंठ, कोयल, तोते, पपीहे, चकवे और चकोर आदि पक्षी कानों को सुख देनेवाली और चित्त को चुरानेवाली तरह-तरह की बोलियाँ बोलते हैं॥ 137॥

करि केहरि कपि कोल कुरंगा। बिगतबैर बिचरहिं सब संगा॥

फिरत अहेर राम छबि देखी। होहिं मुदित मृग बृंद बिसेषी॥

हाथी, सिंह, बंदर, सूअर और हिरन, ये सब वैर छोड़कर साथ-साथ विचरते हैं। शिकार के लिए फिरते हुए राम की छवि को देखकर पशुओं के समूह विशेष आनंदित होते हैं।

बिबुध बिपिन जहँ लगि जग माहीं। देखि रामबनु सकल सिहाहीं॥

सुरसरि सरसइ दिनकर कन्या। मेकलसुता गोदावरि धन्या॥

जगत में जहाँ तक (जितने) देवताओं के वन हैं, सब राम के वन को देखकर सिहाते हैं। गंगा, सरस्वती, सूर्यकुमारी यमुना, नर्मदा, गोदावरी आदि धन्य (पुण्यमयी) नदियाँ,

सब सर सिंधु नदीं नद नाना। मंदाकिनि कर करहिं बखाना॥

उदय अस्त गिरि अरु कैलासू। मंदर मेरु सकल सुरबासू॥

सारे तालाब, समुद्र, नदी और अनेकों नद सब मंदाकिनी की बड़ाई करते हैं। उदयाचल, अस्ताचल, कैलास, मंदराचल और सुमेरु आदि सब, जो देवताओं के रहने के स्थान हैं,

सैल हिमाचल आदिक जेते। चित्रकूट जसु गावहिं तेते॥

बिंधि मुदित मन सुखु न समाई। श्रम बिनु बिपुल बड़ाई पाई॥

और हिमालय आदि जितने पर्वत हैं, सभी चित्रकूट का यश गाते हैं। विंध्याचल बड़ा आनंदित है, उसके मन में सुख समाता नहीं; क्योंकि उसने बिना परिश्रम ही बहुत बड़ी बड़ाई पा ली है।

दो० – चित्रकूट के बिहग मृग बेलि बिटप तृन जाति।

पुन्य पुंज सब धन्य अस कहहिं देव दिन राति॥ 138॥

चित्रकूट के पक्षी, पशु, बेल, वृक्ष, तृण-अंकुरादि की सभी जातियाँ पुण्य की राशि हैं और धन्य हैं – देवता दिन-रात ऐसा कहते हैं॥ 138॥

नयनवंत रघुबरहि बिलोकी। पाइ जनम फल होहिं बिसोकी॥

परसि चरन रज अचर सुखारी। भए परम पद के अधिकारी॥

आँखोंवाले जीव राम को देखकर जन्म का फल पाकर शोकरहित हो जाते हैं, और अचर (पर्वत, वृक्ष, भूमि, नदी आदि) भगवान की चरण-रज का स्पर्श पाकर सुखी होते हैं। यों सभी परम पद (मोक्ष) के अधिकारी हो गए।

सो बनु सैलु सुभायँ सुहावन। मंगलमय अति पावन पावन॥

महिमा कहिअ कवनि बिधि तासू। सुखसागर जहँ कीन्ह निवासू॥

वह वन और पर्वत स्वाभाविक ही सुंदर, मंगलमय और अत्यंत पवित्रों को भी पवित्र करनेवाला है। उसकी महिमा किस प्रकार कही जाए, जहाँ सुख के समुद्र राम ने निवास किया है।

पय पयोधि तजि अवध बिहाई। जहँ सिय लखनु रामु रहे आई॥

कहि न सकहिं सुषमा जसि कानन। जौं सत सहस होहिं सहसानन॥

क्षीर सागर को त्यागकर और अयोध्या को छोड़कर जहाँ सीता, लक्ष्मण और राम आकर रहे, उस वन की जैसी परम शोभा है, उसको हजार मुखवाले जो लाख शेष हों तो वे भी नहीं कह सकते।

सो मैं बरनि कहौं बिधि केहीं। डाबर कमठ कि मंदर लेहीं॥

सेवहिं लखनु करम मन बानी। जाइ न सीलु सनेहु बखानी॥

उसे भला, मैं किस प्रकार से वर्णन करके कह सकता हूँ। कहीं पोखरे का (क्षुद्र) कछुआ भी मंदराचल उठा सकता है? लक्ष्मण मन, वचन और कर्म से राम की सेवा करते हैं। उनके शील और स्नेह का वर्णन नहीं किया जा सकता।

दो० – छिनु छिनु लखि सिय राम पद जानि आपु पर नेहु।

करत न सपनेहुँ लखनु चितु बंधु मातु पितु गेहु॥ 139॥

क्षण-क्षण पर सीताराम के चरणों को देखकर और अपने ऊपर उनका स्नेह जानकर लक्ष्मण स्वप्न में भी भाइयों, माता-पिता और घर की याद नहीं करते॥ 139॥

राम संग सिय रहति सुखारी। पुर परिजन गृह सुरति बिसारी॥

छिनु छिनु पिय बिधु बदनु निहारी। प्रमुदित मनहुँ चकोर कुमारी॥

राम के साथ सीता अयोध्यापुरी, कुटुंब के लोग और घर की याद भूलकर बहुत ही सुखी रहती हैं। क्षण-क्षण पर पति राम के चंद्रमा के समान मुख को देखकर वे वैसे ही परम प्रसन्न रहती हैं, जैसे चकोर कुमारी (चकोरी) चंद्रमा को देखकर!

नाह नेहु नित बढ़त बिलोकी। हरषित रहति दिवस जिमि कोकी॥

सिय मनु राम चरन अनुरागा। अवध सहस सम बनु प्रिय लागा॥

स्वामी का प्रेम अपने प्रति नित्य बढ़ता हुआ देखकर सीता ऐसी हर्षित रहती हैं, जैसे दिन में चकवी! सीता का मन राम के चरणों में अनुरक्त है इससे उनको वन हजारों अवध के समान प्रिय लगता है।

परनकुटी प्रिय प्रियतम संगा। प्रिय परिवारु कुरंग बिहंगा॥

सासु ससुर सम मुनितिय मुनिबर। असनु अमिअ सम कंद मूल फर॥

प्रियतम (राम) के साथ पर्णकुटी प्यारी लगती है। मृग और पक्षी प्यारे कुटुंबियों के समान लगते हैं। मुनियों की स्त्रियाँ सास के समान, श्रेष्ठ मुनि ससुर के समान और कंद-मूल-फलों का आहार उनको अमृत के समान लगता है।

नाथ साथ साँथरी सुहाई। मयन सयन सय सम सुखदाई॥

लोकप होहिं बिलोकत जासू। तेहि कि मोहि सक बिषय बिलासू॥

स्वामी के साथ सुंदर साथरी (कुश और पत्तों की सेज) सैकड़ों कामदेव की सेजों के समान सुख देनेवाली है। जिनके (कृपापूर्वक) देखने मात्र से जीव लोकपाल हो जाते हैं, उनको कहीं भोग-विलास मोहित कर सकते हैं!

दो० – सुमिरत रामहि तजहिं जन तृन सम बिषय बिलासु।

रामप्रिया जग जननि सिय कछु न आचरजु तासु॥ 140॥

जिन राम का स्मरण करने से ही भक्तजन तमाम भोग-विलास को तिनके के समान त्याग देते हैं, उन राम की प्रिय पत्नी और जगत की माता सीता के लिए यह (भोग-विलास का त्याग) कुछ भी आश्चर्य नहीं है॥ 140॥

सीय लखन जेहि बिधि सुखु लहहीं। सोइ रघुनाथ करहिं सोइ कहहीं॥

कहहिं पुरातन कथा कहानी। सुनहिं लखनु सिय अति सुखु मानी॥

सीता और लक्ष्मण को जिस प्रकार सुख मिले, रघुनाथ वही करते और वही कहते हैं। भगवान प्राचीन कथाएँ और कहानियाँ कहते हैं और लक्ष्मण तथा सीता अत्यंत सुख मानकर सुनते हैं।

जब जब रामु अवध सुधि करहीं। तब तब बारि बिलोचन भरहीं॥

सुमिरि मातु पितु परिजन भाई। भरत सनेहु सीलु सेवकाई॥

जब-जब राम अयोध्या की याद करते हैं, तब-तब उनके नेत्रों में जल भर आता है। माता-पिता, कुटुंबियों और भाइयों तथा भरत के प्रेम, शील और सेवाभाव को याद करके –

कृपासिंधु प्रभु होहिं दुखारी। धीरजु धरहिं कुसमउ बिचारी॥

लखि सिय लखनु बिकल होइ जाहीं। जिमि पुरुषहि अनुसर परिछाहीं॥

कृपा के समुद्र प्रभु राम दुःखी हो जाते हैं, किंतु फिर कुसमय समझकर धीरज धारण कर लेते हैं। राम को दुःखी देखकर सीता और लक्ष्मण भी व्याकुल हो जाते हैं, जैसे किसी मनुष्य की परछाईं उस मनुष्य के समान ही चेष्टा करती है।

प्रिया बंधु गति लखि रघुनंदनु। धीर कृपाल भगत उर चंदनु॥

लगे कहन कछु कथा पुनीता। सुनि सुखु लहहिं लखनु अरु सीता॥

तब धीर, कृपालु और भक्तों के हृदयों को शीतल करने के लिए चंदन रूप रघुकुल को आनंदित करनेवाले राम प्यारी पत्नी और भाई लक्ष्मण की दशा देखकर कुछ पवित्र कथाएँ कहने लगते हैं, जिन्हें सुनकर लक्ष्मण और सीता सुख प्राप्त करते हैं।

दो० – रामु लखन सीता सहित सोहत परन निकेत।

जिमि बासव बस अमरपुर सची जयंत समेत॥ 141॥

लक्ष्मण और सीता सहित राम पर्णकुटी में ऐसे सुशोभित हैं, जैसे अमरावती में इंद्र अपनी पत्नी शची और पुत्र जयंत सहित बसता है॥ 141॥

जोगवहिं प्रभुसिय लखनहि कैसें। पलक बिलोचन गोलक जैसें॥

सेवहिं लखनु सीय रघुबीरहि। जिमि अबिबेकी पुरुष सरीरहि॥

प्रभु राम सीता और लक्ष्मण की कैसी सँभाल रखते हैं, जैसे पलकें नेत्रों के गोलकों की। इधर लक्ष्मण सीता और राम की (अथवा लक्ष्मण और सीता राम की) ऐसी सेवा करते हैं, जैसे अज्ञानी मनुष्य शरीर की करते हैं।

एहि बिधि प्रभु बन बसहिं सुखारी। खग मृग सुर तापस हितकारी॥

कहेउँ राम बन गवनु सुहावा। सुनहु सुमंत्र अवध जिमि आवा॥

पक्षी, पशु, देवता और तपस्वियों के हितकारी प्रभु इस प्रकार सुखपूर्वक वन में निवास कर रहे हैं। तुलसीदास कहते हैं – मैंने राम का सुंदर वनगमन कहा। अब जिस तरह सुमंत्र अयोध्या में आए वह (कथा) सुनो।

फिरेउ निषादु प्रभुहि पहुँचाई। सचिव सहित रथ देखेसि आई॥

मंत्री बिकल बिलोकि निषादू। कहि न जाइ जस भयउ बिषादू॥

प्रभु राम को पहुँचाकर जब निषादराज लौटा, तब आकर उसने रथ को मंत्री (सुमंत्र) सहित देखा। मंत्री को व्याकुल देखकर निषाद को जैसा दुःख हुआ, वह कहा नहीं जाता।

राम राम सिय लखन पुकारी। परेउ धरनितल ब्याकुल भारी॥

देखि दखिन दिसि हय हिहिनाहीं। जनु बिनु पंख बिहग अकुलाहीं॥

(निषाद को अकेले आया देखकर) सुमंत्र हा राम! हा राम! हा सीते! हा लक्ष्मण! पुकारते हुए, बहुत व्याकुल होकर धरती पर गिर पड़े। (रथ के) घोड़े दक्षिण दिशा की ओर (जिधर राम गए थे) देख-देखकर हिनहिनाते हैं। मानो बिना पंख के पक्षी व्याकुल हो रहे हों।

दो० – नहिं तृन चरहिं न पिअहिं जलु मोचहिं लोचन बारि।

ब्याकुल भए निषाद सब रघुबर बाजि निहारि॥ 142॥

वे न तो घास चरते हैं, न पानी पीते हैं। केवल आँखों से जल बहा रहे हैं। राम के घोड़ों को इस दशा में देखकर सब निषाद व्याकुल हो गए॥ 142॥

धरि धीरजु तब कहइ निषादू। अब सुमंत्र परिहरहु बिषादू॥

तुम्ह पंडित परमारथ ग्याता। धरहु धीर लखि बिमुख बिधाता॥

तब धीरज धरकर निषादराज कहने लगा – हे सुमंत्र! अब विषाद को छोड़िए। आप पंडित और परमार्थ के जाननेवाले हैं। विधाता को प्रतिकूल जानकर धैर्य धारण कीजिए।

बिबिधि कथा कहि कहि मृदु बानी। रथ बैठारेउ बरबस आनी॥

सोक सिथिल रथु सकइ न हाँकी। रघुबर बिरह पीर उर बाँकी॥

कोमल वाणी से भाँति-भाँति की कथाएँ कहकर निषाद ने जबरदस्ती लाकर सुमंत्र को रथ पर बैठाया। परंतु शोक के मारे वे इतने शिथिल हो गए कि रथ को हाँक नहीं सकते। उनके हृदय में राम के विरह की बड़ी तीव्र वेदना है।

चरफराहिं मग चलहिं न घोरे। बन मृग मनहुँ आनि रथ जोरे॥

अढ़ुकि परहिं फिरि हेरहिं पीछें। राम बियोगि बिकल दुख तीछें॥

घोड़े तड़फड़ाते हैं और (ठीक) रास्ते पर नहीं चलते। मानो जंगली पशु लाकर रथ में जोत दिए गए हों। वे राम के वियोगी घोड़े कभी ठोकर खाकर गिर पड़ते हैं, कभी घूमकर पीछे की ओर देखने लगते हैं। वे तीक्ष्ण दुःख से व्याकुल हैं।

जो कह रामु लखनु बैदेही। हिंकरि हिंकरि हित हेरहिं तेही॥

बाजि बिरह गति कहि किमि जाती। बिनु मनि फनिक बिकल जेहिं भाँती॥

जो कोई राम, लक्ष्मण या जानकी का नाम ले लेता है, घोड़े हिकर-हिकरकर उसकी ओर प्यार से देखने लगते हैं। घोड़ों की विरह दशा कैसे कही जा सकती है? वे ऐसे व्याकुल हैं, जैसे मणि के बिना साँप व्याकुल होता है।

दो० – भयउ निषादु बिषादबस देखत सचिव तुरंग।

बोलि सुसेवक चारि तब दिए सारथी संग॥ 143॥

मंत्री और घोड़ों की यह दशा देखकर निषादराज विषाद के वश हो गया। तब उसने अपने चार उत्तम सेवक बुलाकर सारथी के साथ कर दिए॥ 143॥

गुह सारथिहि फिरेउ पहुँचाई। बिरहु बिषादु बरनि नहिं जाई॥

चले अवध लेइ रथहि निषादा। होहिं छनहिं छन मगन बिषादा॥

निषादराज गुह सारथी (सुमंत्र) को पहुँचाकर (विदा करके) लौटा। उसके विरह और दुःख का वर्णन नहीं किया जा सकता। वे चारों निषाद रथ लेकर अवध को चले। (सुमंत्र और घोड़ों को देख-देखकर) वे भी क्षण-क्षणभर विषाद में डूबे जाते थे।

सोच सुमंत्र बिकल दुख दीना। धिग जीवन रघुबीर बिहीना॥

रहिहि न अंतहुँ अधम सरीरू। जसु न लहेउ बिछुरत रघुबीरू॥

व्याकुल और दुःख से दीन हुए सुमंत्र सोचते हैं कि रघुवीर के बिना जीना धिक्कार है। आखिर यह अधम शरीर रहेगा तो है ही नहीं। अभी राम के बिछुड़ते ही छूटकर इसने यश (क्यों) नहीं ले लिया।

भए अजस अघ भाजन प्राना। कवन हेतु नहिं करत पयाना॥

अहह मंद मनु अवसर चूका। अजहुँ न हृदय होत दुइ टूका॥

ये प्राण अपयश और पाप के भाँड़े हो गए। अब ये किस कारण कूच नहीं करते (निकलते नहीं)? हाय! नीच मन (बड़ा अच्छा) मौका चूक गया। अब भी तो हृदय के दो टुकड़े नहीं हो जाते!

मीजि हाथ सिरु धुनि पछिताई। मनहुँ कृपन धन रासि गवाँई॥

बिरिद बाँधि बर बीरु कहाई। चलेउ समर जनु सुभट पराई॥

सुमंत्र हाथ मल-मलकर और सिर पीट-पीटकर पछताते हैं। मानो कोई कंजूस धन का खजाना खो बैठा हो। वे इस प्रकार चले मानो कोई बड़ा योद्धा वीर का बाना पहनकर और उत्तम शूरवीर कहलाकर युद्ध से भाग चला हो!

दो० – बिप्र बिबेकी बेदबिद संमत साधु सुजाति।

जिमि धोखें मदपान कर सचिव सोच तेहि भाँति॥ 144॥

जैसे कोई विवेकशील, वेद का ज्ञाता, साधुसम्मत आचरणोंवाला और उत्तम जाति का (कुलीन) ब्राह्मण धोखे से मदिरा पी ले और पीछे पछताए, उसी प्रकार मंत्री सुमंत्र सोच कर रहे (पछता रहे) हैं॥ 144॥

जिमि कुलीन तिय साधु सयानी। पतिदेवता करम मन बानी॥

रहै करम बस परिहरि नाहू। सचिव हृदयँ तिमि दारुन दाहू॥

जैसे किसी उत्तम कुलवाली, साधु स्वाभाव की, समझदार और मन, वचन, कर्म से पति को ही देवता माननेवाली पतिव्रता स्त्री को भाग्यवश पति को छोड़कर (पति से अलग) रहना पड़े, उस समय उसके हृदय में जैसे भयानक संताप होता है, वैसे ही मंत्री के हृदय में हो रहा है।

लोचन सजल डीठि भइ थोरी। सुनइ न श्रवन बिकल मति भोरी॥

सूखहिं अधर लागि मुहँ लाटी। जिउ न जाइ उर अवधि कपाटी॥

नेत्रों में जल भरा है, दृष्टि मंद हो गई है। कानों से सुनाई नहीं पड़ता, व्याकुल हुई बुद्धि बेठिकाने हो रही है। ओठ सूख रहे हैं, मुँह में लाटी लग गई है। किंतु (ये सब मृत्यु के लक्षण हो जाने पर भी) प्राण नहीं निकलते; क्योंकि हृदय में अवधिरूपी किवाड़ लगे हैं (अर्थात चौदह वर्ष बीत जाने पर भगवान फिर मिलेंगे, यही आशा रुकावट डाल रही है)।

बिबरन भयउ न जाइ निहारी। मारेसि मनहुँ पिता महतारी॥

हानि गलानि बिपुल मन ब्यापी। जमपुर पंथ सोच जिमि पापी॥

सुमंत्र के मुख का रंग बदल गया है, जो देखा नहीं जाता। ऐसा मालूम होता है मानो इन्होंने माता-पिता को मार डाला हो। उनके मन में राम वियोगरूपी हानि की महान ग्लानि (पीड़ा) छा रही है, जैसे कोई पापी मनुष्य नरक को जाता हुआ रास्ते में सोच कर रहा हो।

बचनु न आव हृदयँ पछिताई। अवध काह मैं देखब जाई॥

राम रहित रथ देखिहि जोई। सकुचिहि मोहि बिलोकत सोई॥

मुँह से वचन नहीं निकलते। हृदय में पछताते हैं कि मैं अयोध्या में जाकर क्या देखूँगा? राम से शून्य रथ को जो भी देखेगा, वही मुझे देखने में संकोच करेगा (अर्थात मेरा मुँह नहीं देखना चाहेगा)।

दो० – धाइ पूँछिहहिं मोहि जब बिकल नगर नर नारि।

उतरु देब मैं सबहि तब हृदयँ बज्रु बैठारि॥ 145॥

नगर के सब व्याकुल स्त्री-पुरुष जब दौड़कर मुझसे पूछेंगे, तब मैं हृदय पर वज्र रखकर सबको उत्तर दूँगा॥ 145॥

पुछिहहिं दीन दुखित सब माता। कहब काह मैं तिन्हहि बिधाता।

पूछिहि जबहिं लखन महतारी। कहिहउँ कवन सँदेस सुखारी॥

जब दीन-दुःखी सब माताएँ पूछेंगी, तब हे विधाता! मैं उन्हें क्या कहूँगा? जब लक्ष्मण की माता मुझसे पूछेंगी, तब मैं उन्हें कौन-सा सुखदायी सँदेसा कहूँगा?

राम जननि जब आइहि धाई। सुमिरि बच्छु जिमि धेनु लवाई॥

पूँछत उतरु देब मैं तेही। गे बनु राम लखनु बैदेही॥

राम की माता जब इस प्रकार दौड़ी आवेंगी जैसे नई ब्यायी हुई गौ बछड़े को याद करके दौड़ी आती है, तब उनके पूछने पर मैं उन्हें यह उत्तर दूँगा कि राम, लक्ष्मण, सीता वन को चले गए!

जोई पूँछिहि तेहि ऊतरु देबा। जाइ अवध अब यहु सुखु लेबा॥

पूँछिहि जबहिं राउ दुख दीना। जिवनु जासु रघुनाथ अधीना॥

जो भी पूछेगा उसे यही उत्तर देना पड़ेगा! हाय! अयोध्या जाकर अब मुझे यही सुख लेना है! जब दुःख से दीन महाराज, जिनका जीवन रघुनाथ के (दर्शन के) ही अधीन है, मुझसे पूछेंगे,

देहउँ उतरु कौनु मुहु लाई। आयउँ कुसल कुअँर पहुँचाई॥

सुनत लखन सिय राम सँदेसू। तृन जिमि तनु परिहरिहि नरेसू॥

तब मैं कौन-सा मुँह लेकर उन्हें उत्तर दूँगा कि मैं राजकुमारों को कुशलपूर्वक पहुँचा आया हूँ! लक्ष्मण, सीता औरराम का समाचार सुनते ही महाराज तिनके की तरह शरीर को त्याग देंगे।

दो० – हृदउ न बिदरेउ पंक जिमि बिछुरत प्रीतमु नीरु।

जानत हौं मोहि दीन्ह बिधि यहु जातना सरीरु॥ 146॥

प्रियतम (राम)रूपी जल के बिछुड़ते ही मेरा हृदय कीचड़ की तरह फट नहीं गया, इससे मैं जानता हूँ कि विधाता ने मुझे यह ‘यातना शरीर’ ही दिया है।146॥

एहि बिधि करत पंथ पछितावा। तमसा तीर तुरत रथु आवा॥

बिदा किए करि बिनय निषादा। फिरे पायँ परि बिकल बिषादा॥

सुमंत्र इस प्रकार मार्ग में पछतावा कर रहे थे, इतने में ही रथ तुरंत तमसा नदी के तट पर आ पहुँचा। मंत्री ने विनय करके चारों निषादों को विदा किया। वे विषाद से व्याकुल होते हुए सुमंत्र के पैरों पड़कर लौटे।

पैठत नगर सचिव सकुचाई। जनु मारेसि गुर बाँभन गाई॥

बैठि बिटप तर दिवसु गवाँवा। साँझ समय तब अवसरु पावा॥

नगर में प्रवेश करते मंत्री (ग्लानि के कारण) ऐसे सकुचाते हैं, मानो गुरु, ब्राह्मण या गौ को मारकर आए हों। सारा दिन एक पेड़ के नीचे बैठकर बिताया। जब संध्या हुई तब मौका मिला।

अवध प्रबेसु कीन्ह अँधिआरें। पैठ भवन रथु राखि दुआरें॥

जिन्ह जिन्ह समाचार सुनि पाए। भूप द्वार रथु देखन आए॥

अँधेरा होने पर उन्होंने अयोध्या में प्रवेश किया और रथ को दरवाजे पर खड़ा करके वे (चुपके-से) महल में घुसे। जिन-जिन लोगों ने यह समाचार सुना पाया, वे सभी रथ देखने को राजद्वार पर आए।

रथु पहिचानि बिकल लखि घोरे। गरहिं गात जिमि आतप ओरे॥

नगर नारि नर ब्याकुल कैसें। निघटत नीर मीनगन जैसें॥

रथ को पहचानकर और घोड़ों को व्याकुल देखकर उनके शरीर ऐसे गले जा रहे हैं (क्षीण हो रहे हैं) जैसे घाम में ओले! नगर के स्त्री-पुरुष कैसे व्याकुल हैं, जैसे जल के घटने पर मछलियाँ (व्याकुल होती हैं)।

दो० – सचिव आगमनु सुनत सबु बिकल भयउ रनिवासु।

भवनु भयंकरु लाग तेहि मानहुँ प्रेत निवासु॥ 147॥

मंत्री का (अकेले ही) आना सुनकर सारा रनिवास व्याकुल हो गया। राजमहल उनको ऐसा भयानक लगा मानो प्रेतों का निवास स्थान (श्मशान) हो॥ 147॥

अति आरति सब पूँछहिं रानी। उतरु न आव बिकल भइ बानी॥

सुनइ न श्रवन नयन नहिं सूझा। कहहु कहाँ नृपु तेहि तेहि बूझा॥

अत्यंत आर्त होकर सब रानियाँ पूछती हैं; पर सुमंत्र को कुछ उत्तर नहीं आता, उनकी वाणी विकल हो गई (रुक गई) है। न कानों से सुनाई पड़ता है और न आँखों से कुछ सूझता है। वे जो भी सामने आता है उस-उससे पूछते हैं – कहो, राजा कहाँ हैं?

दासिन्ह दीख सचिव बिकलाई। कौसल्या गृहँ गईं लवाई॥

जाइ सुमंत्र दीख कस राजा। अमिअ रहित जनु चंदु बिराजा॥

दासियाँ मंत्री को व्याकुल देखकर उन्हें कौसल्या के महल में लिवा गईं। सुमंत्र ने जाकर वहाँ राजा को कैसा (बैठे) देखा मानो बिना अमृत का चंद्रमा हो।

आसन सयन बिभूषन हीना। परेउ भूमितल निपट मलीना॥

लेइ उसासु सोच एहि भाँती। सुरपुर तें जनु खँसेउ जजाती॥

राजा आसन, शय्या और आभूषणों से रहित बिलकुल मलिन (उदास) पृथ्वी पर पड़े हुए हैं। वे लंबी साँसें लेकर इस प्रकार सोच करते हैं मानो राजा ययाति स्वर्ग से गिरकर सोच कर रहे हों।

लेत सोच भरि छिनु छिनु छाती। जनु जरि पंख परेउ संपाती॥

राम राम कह राम सनेही। पुनि कह राम लखन बैदेही॥

राजा क्षण-क्षण में सोच से छाती भर लेते हैं। ऐसी विकल दशा है मानो (गीधराज जटायु का भाई) संपाती पंखों के जल जाने पर गिर पड़ा हो। राजा (बार-बार) ‘राम, राम’ ‘हा स्नेही (प्यारे) राम!’ कहते हैं, फिर ‘हा राम, हा लक्ष्मण, हा जानकी’ ऐसा कहने लगते हैं।

दो० – देखि सचिवँ जय जीव कहि कीन्हेउ दंड प्रनामु।

सुनत उठेउ ब्याकुल नृपति कहु सुमंत्र कहँ रामु॥ 148॥

मंत्री ने देखकर ‘जय जीव’ कहकर दंडवत-प्रणाम किया। सुनते ही राजा व्याकुल होकर उठे और बोले – सुमंत्र! कहो, राम कहाँ हैं?॥ 148॥

भूप सुमंत्रु लीन्ह उर लाई। बूड़त कछु अधार जनु पाई॥

सहित सनेह निकट बैठारी। पूँछत राउ नयन भरि बारी॥

राजा ने सुमंत्र को हृदय से लगा लिया। मानो डूबते हुए आदमी को कुछ सहारा मिल गया हो। मंत्री को स्नेह के साथ पास बैठाकर नेत्रों में जल भरकर राजा पूछने लगे –

राम कुसल कहु सखा सनेही। कहँ रघुनाथु लखनु बैदेही॥

आने फेरि कि बनहि सिधाए। सुनत सचिव लोचन जल छाए॥

हे मेरे प्रेमी सखा! राम की कुशल कहो। बताओ, राम, लक्ष्मण और जानकी कहाँ हैं? उन्हें लौटा लाए हो कि वे वन को चले गए? यह सुनते ही मंत्री के नेत्रों में जल भर आया।

सोक बिकल पुनि पूँछ नरेसू। कहु सिय राम लखन संदेसू॥

राम रूप गुन सील सुभाऊ। सुमिरि सुमिरि उर सोचत राऊ॥

शोक से व्याकुल होकर राजा फिर पूछने लगे – सीता, राम और लक्ष्मण का संदेसा तो कहो। राम के रूप, गुण, शील और स्वभाव को याद कर-करके राजा हृदय में सोच करते हैं।

राउ सुनाइ दीन्ह बनबासू। सुनि मन भयउ न हरषु हराँसू॥

सो सुत बिछुरत गए न प्राना। को पापी बड़ मोहि समाना॥

(और कहते हैं -) मैंने राजा होने की बात सुनाकर वनवास दे दिया, यह सुनकर भी जिस (राम) के मन में हर्ष और विषाद नहीं हुआ, ऐसे पुत्र के बिछुड़ने पर भी मेरे प्राण नहीं गए, तब मेरे समान बड़ा पापी कौन होगा?

दो० – सखा रामु सिय लखनु जहँ तहाँ मोहि पहुँचाउ।

नाहिं त चाहत चलन अब प्रान कहउँ सतिभाउ॥ 149॥

हे सखा! राम, जानकी और लक्ष्मण जहाँ हैं, मुझे भी वहीं पहुँचा दो। नहीं तो मैं सत्य भाव से कहता हूँ कि मेरे प्राण अब चलना ही चाहते हैं॥ 149॥

पुनि पुनि पूँछत मंत्रिहि राऊ। प्रियतम सुअन सँदेस सुनाऊ॥

करहि सखा सोइ बेगि उपाऊ। रामु लखनु सिय नयन देखाऊ॥

राजा बार-बार मंत्री से पूछते हैं – मेरे प्रियतम पुत्रों का संदेसा सुनाओ। हे सखा! तुम तुरंत वही उपाय करो जिससे राम, लक्ष्मण और सीता को मुझे आँखों दिखा दो।

सचिव धीर धरि कह मृदु बानी। महाराज तुम्ह पंडित ग्यानी॥

बीर सुधीर धुरंधर देवा। साधु समाजु सदा तुम्ह सेवा॥

मंत्री धीरज धरकर कोमल वाणी बोले – महाराज! आप पंडित और ज्ञानी हैं। हे देव! आप शूरवीर तथा उत्तम धैर्यवान पुरुषों में श्रेष्ठ हैं। आपने सदा साधुओं के समाज की सेवा की है।

जनम मरन सब दुख सुख भोगा। हानि लाभु प्रिय मिलन बियोगा॥

काल करम बस होहिं गोसाईं। बरबस राति दिवस की नाईं॥

जन्म-मरण, सुख-दुःख के भोग, हानि-लाभ, प्यारों का मिलना-बिछुड़ना, ये सब हे स्वामी! काल और कर्म के अधीन रात और दिन की तरह बरबस होते रहते हैं।

सुख हरषहिं जड़ दुख बिलखाहीं। दोउ सम धीर धरहिं मन माहीं॥

धीरज धरहु बिबेकु बिचारी। छाड़िअ सोच सकल हितकारी॥

मूर्ख लोग सुख में हर्षित होते और दुःख में रोते हैं, पर धीर पुरुष अपने मन में दोनों को समान समझते हैं। हे सबके हितकारी (रक्षक)! आप विवेक विचारकर धीरज धरिए और शोक का परित्याग कीजिए।

दो० – प्रथम बासु तमसा भयउ दूसर सुरसरि तीर।

न्हाइ रहे जलपानु करि सिय समेत दोउ बीर॥ 150॥

राम का पहला निवास (मुकाम) तमसा के तट पर हुआ, दूसरा गंगा तीर पर। सीता सहित दोनों भाई उस दिन स्नान करके जल पीकर ही रहे॥ 150॥

केवट कीन्हि बहुत-सेवकाई। सो जामिनि सिंगरौर गवाँई॥

होत प्रात बट छीरु मगावा। जटा मुकुट निज सीस बनावा॥

केवट (निषादराज) ने बहुत-सेवा की। वह रात सिंगरौर (श्रृंगवेरपुर) में ही बिताई। दूसरे दिन सबेरा होते ही बड़ का दूध मँगवाया और उससे राम-लक्ष्मण ने अपने सिरों पर जटाओं के मुकुट बनाए।

राम सखाँ तब नाव मगाई। प्रिया चढ़ाई चढ़े रघुराई॥

लखन बान धनु धरे बनाई। आपु चढ़े प्रभु आयसु पाई॥

तब राम के सखा निषादराज ने नाव मँगवाई। पहले प्रिया सीता को उस पर चढ़ाकर फिर रघुनाथ चढ़े। फिर लक्ष्मण ने धनुष-बाण सजाकर रखे और प्रभु राम की आज्ञा पाकर स्वयं चढ़े।

बिकल बिलोकि मोहि रघुबीरा। बोले मधुर बचन धरि धीरा॥

तात प्रनामु तात सन कहेहू। बार बार पद पंकज गहेहू॥

मुझे व्याकुल देखकर राम धीरज धरकर मधुर वचन बोले – हे तात! पिता से मेरा प्रणाम कहना और मेरी ओर से बार-बार उनके चरण कमल पकड़ना।

करबि पायँ परि बिनय बहोरी। तात करिअ जनि चिंता मोरी॥

बन मग मंगल कुसल हमारें। कृपा अनुग्रह पुन्य तुम्हारें॥

फिर पाँव पकड़कर विनती करना कि हे पिता! आप मेरी चिंता न कीजिए। आपकी कृपा, अनुग्रह और पुण्य से वन में और मार्ग में हमारा कुशल-मंगल होगा।

छं० – तुम्हरें अनुग्रह तात कानन जात सब सुखु पाइहौं।

प्रतिपालि आयसु कुसल देखन पाय पुनि फिरि आइहौं॥

जननीं सकल परितोषि परि परि पायँ करि बिनती घनी।

तुलसी करहु सोइ जतनु जेहिं कुसली रहहिं कोसलधनी॥

हे पिता! आपके अनुग्रह से मैं वन जाते हुए सब प्रकार का सुख पाऊँगा। आज्ञा का भली-भाँति पालन करके चरणों का दर्शन करने कुशलपूर्वक फिर लौट आऊँगा। सब माताओं के पैरों पड़-पड़कर उनका समाधान करके और उनसे बहुत विनती करके – तुलसीदास कहते हैं – तुम वही प्रयत्न करना, जिसमें कोसलपति पिता कुशल रहें।

सो० – गुर सन कहब सँदेसु बार बार पद पदुम गहि।

करब सोइ उपदेसु जेहिं न सोच मोहि अवधपति॥ 151॥

बार-बार चरण कमलों को पकड़कर गुरु वशिष्ठ से मेरा संदेसा कहना कि वे वही उपदेश दें जिससे अवधपति पिता मेरा सोच न करें॥ 151॥

पुरजन परिजन सकल निहोरी। तात सुनाएहु बिनती मोरी॥

सोइ सब भाँति मोर हितकारी। जातें रह नरनाहु सुखारी॥

हे तात! सब पुरवासियों और कुटुंबियों से निहोरा (अनुरोध) करके मेरी विनती सुनाना कि वही मनुष्य मेरा सब प्रकार से हितकारी है जिसकी चेष्टा से महाराज सुखी रहें।

कहब सँदेसु भरत के आएँ। नीति न तजिअ राजपदु पाएँ॥

पालेहु प्रजहि करम मन बानी। सेएहु मातु सकल सम जानी॥

भरत के आने पर उनको मेरा संदेसा कहना कि राजा का पद पा जाने पर नीति न छोड़ देना; कर्म, वचन और मन से प्रजा का पालन करना और सब माताओं को समान जानकर उनकी सेवा करना।

ओर निबाहेहु भायप भाई। करि पितु मातु सुजन सेवकाई॥

तात भाँति तेहि राखब राऊ। सोच मोर जेहिं करै न काऊ॥

और हे भाई! पिता, माता और स्वजनों की सेवा करके भाईपन को अंत तक निबाहना। हे तात! राजा (पिता) को उसी प्रकार से रखना जिससे वे कभी (किसी तरह भी) मेरा सोच न करें।

लखन कहे कछु बचन कठोरा। बरजि राम पुनि मोहि निहोरा॥

बार बार निज सपथ देवाई। कहबि न तात लखन लरिकाई॥

लक्ष्मण ने कुछ कठोर वचन कहे। किंतु राम ने उन्हें बरजकर फिर मुझसे अनुरोध किया और बार-बार अपनी सौगंध दिलाई (और कहा -) हे तात! लक्ष्मण का लड़कपन वहाँ न कहना।

दो० – कहि प्रनामु कछु कहन लिय सिय भइ सिथिल सनेह।

थकित बचन लोचन सजल पुलक पल्लवित देह॥ 152॥

प्रणाम कर सीता भी कुछ कहने लगी थीं, परंतु स्नेहवश वे शिथिल हो गईं। उनकी वाणी रुक गई, नेत्रों में जल भर आया और शरीर रोमांच से व्याप्त हो गया॥ 152॥

तेहि अवसर रघुबर रुख पाई। केवट पारहि नाव चलाई॥

रघुकुलतिलक चले एहि भाँती। देखउँ ठाढ़ कुलिस धरि छाती॥

उसी समय राम का रुख पाकर केवट ने पार जाने के लिए नाव चला दी। इस प्रकार रघुवंश तिलक राम चल दिए और मैं छाती पर वज्र रखकर खड़ा-खड़ा देखता रहा।

मैं आपन किमि कहौं कलेसू। जिअत फिरेउँ लेइ राम सँदेसू॥

अस कहि सचिव बचन रहि गयऊ। हानि गलानि सोच बस भयऊ॥

मैं अपने क्लेश को कैसे कहूँ, जो राम का यह संदेसा लेकर जीता ही लौट आया! ऐसा कहकर मंत्री की वाणी रुक गई (वे चुप हो गए) और वे हानि की ग्लानि और सोच के वश हो गए।

सूत बचन सुनतहिं नरनाहू। परेउ धरनि उर दारुन दाहू॥

तलफत बिषम मोह मन मापा। माजा मनहुँ मीन कहुँ ब्यापा॥

सारथी सुमंत्र के वचन सुनते ही राजा पृथ्वी पर गिर पड़े, उनके हृदय में भयानक जलन होने लगी। वे तड़पने लगे, उनका मन भीषण मोह से व्याकुल हो गया। मानो मछली को माँजा व्याप गया हो (पहली वर्षा का जल लग गया हो)।

करि बिलाप सब रोवहिं रानी। महा बिपति किमि जाइ बखानी॥

सुनि बिलाप दुखहू दुखु लागा। धीरजहू कर धीरजु भागा॥

सब रानियाँ विलाप करके रो रही हैं। उस महान विपत्ति का कैसे वर्णन किया जाए? उस समय के विलाप को सुनकर दुःख को भी दुःख लगा और धीरज का भी धीरज भाग गया!

दो० – भयउ कोलाहलु अवध अति सुनि नृप राउर सोरु।

बिपुल बिहग बन परेउ निसि मानहुँ कुलिस कठोरु॥ 153॥

राजा के रावले (रनिवास) में (रोने का) शोर सुनकर अयोध्या भर में बड़ा भारी कुहराम मच गया! (ऐसा जान पड़ता था) मानो पक्षियों के विशाल वन में रात के समय कठोर वज्र गिरा हो॥ 153॥

प्रान कंठगत भयउ भुआलू। मनि बिहीन जनु ब्याकुल ब्यालू॥

इंद्रीं सकल बिकल भइँ भारी। जनु सर सरसिज बनु बिनु बारी॥

राजा के प्राण कंठ में आ गए। मानो मणि के बिना साँप व्याकुल (मरणासन्न) हो गया हो। इंद्रियाँ सब बहुत ही विकल हो गईं, मानो बिना जल के तालाब में कमलों का वन मुरझा गया हो।

कौसल्याँ नृपु दीख मलाना। रबिकुल रबि अँथयउ जियँ जाना॥

उर धरि धीर राम महतारी। बोली बचन समय अनुसारी॥

कौसल्या ने राजा को बहुत दुःखी देखकर अपने हृदय में जान लिया कि अब सूर्यकुल का सूर्य अस्त हो चला! तब राम की माता कौसल्या हृदय में धीरज धरकर समय के अनुकूल वचन बोलीं –

नाथ समुझि मन करिअ बिचारू। राम बियोग पयोधि अपारू॥

करनधार तुम्ह अवध जहाजू। चढ़ेउ सकल प्रिय पथिक समाजू॥

हे नाथ! आप मन में समझ कर विचार कीजिए कि राम का वियोग अपार समुद्र है। अयोध्या जहाज है और आप उसके कर्णधार (खेनेवाले) हैं। सब प्रियजन (कुटुंबी और प्रजा) ही यात्रियों का समाज है, जो इस जहाज पर चढ़ा हुआ है।

धीरजु धरिअ त पाइअ पारू। नाहिं त बूड़िहि सबु परिवारू॥

जौं जियँ धरिअ बिनय पिय मोरी। रामु लखनु सिय मिलहिं बहोरी॥

आप धीरज धरिएगा, तो सब पार पहुँच जाएँगे। नहीं तो सारा परिवार डूब जाएगा। हे प्रिय स्वामी! यदि मेरी विनती हृदय में धारण कीजिएगा तो राम, लक्ष्मण, सीता फिर आ मिलेंगे।

दो० – प्रिया बचन मृदु सुनत नृपु चितयउ आँखि उघारि।

तलफत मीन मलीन जनु सींचत सीतल बारि॥ 154॥

प्रिय पत्नी कौसल्या के कोमल वचन सुनते हुए राजा ने आँखें खोलकर देखा! मानो तड़पती हुई दीन मछली पर कोई शीतल जल छिड़क रहा हो॥ 154॥

धरि धीरजु उठि बैठ भुआलू। कहु सुमंत्र कहँ राम कृपालू॥

कहाँ लखनु कहँ रामु सनेही। कहँ प्रिय पुत्रबधू बैदेही॥

धीरज धरकर राजा उठ बैठे और बोले – सुमंत्र! कहो, कृपालु राम कहाँ हैं? लक्ष्मण कहाँ हैं? स्नेही राम कहाँ हैं? और मेरी प्यारी बहू जानकी कहाँ है?

बिलपत राउ बिकल बहु भाँती। भइ जुग सरिस सिराति न राती॥

तापस अंध साप सुधि आई। कौसल्यहि सब कथा सुनाई॥

राजा व्याकुल होकर बहुत प्रकार से विलाप कर रहे हैं। वह रात युग के समान बड़ी हो गई, बीतती ही नहीं। राजा को अंधे तपस्वी (श्रवणकुमार के पिता) के शाप की याद आ गई। उन्होंने सब कथा कौसल्या को कह सुनाई।

भयउ बिकल बरनत इतिहासा। राम रहित धिग जीवन आसा॥

सो तनु राखि करब मैं काहा। जेहिं न प्रेम पनु मोर निबाहा॥

उस इतिहास का वर्णन करते-करते राजा व्याकुल हो गए और कहने लगे कि राम के बिना जीने की आशा को धिक्कार है। मैं उस शरीर को रखकर क्या करूँगा, जिसने मेरा प्रेम का प्रण नहीं निबाहा?

हा रघुनंदन प्रान पिरीते। तुम्ह बिनु जिअत बहुत दिन बीते॥

हा जानकी लखन हा रघुबर। हा पितु हित चित चातक जलधर॥

हा रघुकुल को आनंद देनेवाले मेरे प्राण प्यारे राम! तुम्हारे बिना जीते हुए मुझे बहुत दिन बीत गए। हा जानकी, लक्ष्मण! हा रघुवीर! हा पिता के चित्तरूपी चातक के हित करनेवाले मेघ!

दो० – राम राम कहि राम कहि राम राम कहि राम।

तनु परिहरि रघुबर बिरहँ राउ गयउ सुरधाम॥ 155॥

राम-राम कहकर, फिर राम कहकर, फिर राम-राम कहकर और फिर राम कहकर राजा राम के विरह में शरीर त्याग कर सुरलोक को सिधार गए॥ 155॥

जिअन मरन फलु दसरथ पावा। अंड अनेक अमल जसु छावा॥

जिअत राम बिधु बदनु निहारा। राम बिरह करि मरनु सँवारा॥

जीने और मरने का फल तो दशरथ ने ही पाया, जिनका निर्मल यश अनेकों ब्रह्मांडों में छा गया। जीते-जी तो राम के चंद्रमा के समान मुख को देखा और राम के विरह को निमित्त बनाकर अपना मरण सुधार लिया।

सोक बिकल सब रोवहिं रानी। रूपु सीलु बलु तेजु बखानी॥

करहिं बिलाप अनेक प्रकारा। परहिं भूमितल बारहिं बारा॥

सब रानियाँ शोक के मारे व्याकुल होकर रो रही हैं। वे राजा के रूप, शील, बल और तेज का बखान कर-करके अनेकों प्रकार से विलाप कर रही हैं और बार-बार धरती पर गिर-गिर पड़ती हैं।

बिलपहिं बिकल दास अरु दासी। घर घर रुदनु करहिं पुरबासी॥

अँथयउ आजु भानुकुल भानू। धरम अवधि गुन रूप निधानू॥

दास-दासीगण व्याकुल होकर विलाप कर रहे हैं और नगर निवासी घर-घर रो रहे हैं। कहते हैं कि आज धर्म की सीमा, गुण और रूप के भंडार सूर्यकुल के सूर्य अस्त हो गए!

गारीं सकल कैकइहि देहीं। नयन बिहीन कीन्ह जग जेहीं॥

एहि बिधि बिलपत रैनि बिहानी। आए सकल महामुनि ग्यानी॥

सब कैकेयी को गालियाँ देते हैं, जिसने संसार भर को बिना नेत्र का (अंधा) कर दिया! इस प्रकार विलाप करते रात बीत गई। प्रातःकाल सब बड़े-बड़े ज्ञानी मुनि आए।

दो० – तब बसिष्ठ मुनि समय सम कहि अनेक इतिहास।

सोक नेवारेउ सबहि कर निज बिग्यान प्रकास॥ 156॥

तब वशिष्ठ मुनि ने समय के अनुकूल अनेक इतिहास कहकर अपने विज्ञान के प्रकाश से सबका शोक दूर किया॥ 156॥

तेल नावँ भरि नृप तनु राखा। दूत बोलाइ बहुरि अस भाषा॥

धावहु बेगि भरत पहिं जाहू। नृप सुधि कतहुँ कहहु जनि काहू॥

वशिष्ठ ने नाव में तेल भरवाकर राजा के शरीर को उसमें रखवा दिया। फिर दूतों को बुलवाकर उनसे ऐसा कहा – तुम लोग जल्दी दौड़कर भरत के पास जाओ। राजा की मृत्यु का समाचार कहीं किसी से न कहना।

एतनेइ कहेहु भरत सन जाई। गुर बोलाइ पठयउ दोउ भाई॥

सुनि मुनि आयसु धावन धाए। चले बेग बर बाजि लजाए॥

जाकर भरत से इतना ही कहना कि दोनों भाइयों को गुरु ने बुलवा भेजा है। मुनि की आज्ञा सुनकर धावन (दूत) दौड़े। वे अपने वेग से उत्तम घोड़ों को भी लजाते हुए चले।

अनरथु अवध अरंभेउ जब तें। कुसगुन होहिं भरत कहुँ तब तें॥

देखहिं राति भयानक सपना। जागि करहिं कटु कोटि कलपना॥

जब से अयोध्या में अनर्थ प्रारंभ हुआ, तभी से भरत को अपशकुन होने लगे। वे रात को भयंकर स्वप्न देखते थे और जागने पर (उन स्वप्नों के कारण) करोड़ों (अनेकों) तरह की बुरी-बुरी कल्पनाएँ किया करते थे।

बिप्र जेवाँइ देहिं दिन दाना। सिव अभिषेक करहिं बिधि नाना॥

मागहिं हृदयँ महेस मनाई। कुसल मातु पितु परिजन भाई॥

(अनिष्ट शांति के लिए) वे प्रतिदिन ब्राह्मणों को भोजन कराकर दान देते थे। अनेकों विधियों से रुद्राभिषेक करते थे। महादेव को हृदय में मनाकर उनसे माता-पिता, कुटुंबी और भाइयों का कुशल-क्षेम माँगते थे।

दो० – एहि बिधि सोचत भरत मन धावन पहुँचे आइ।

गुर अनुसासन श्रवन सुनि चले गनेसु मनाई॥ 157॥

भरत इस प्रकार मन में चिंता कर रहे थे कि दूत आ पहुँचे। गुरु की आज्ञा कानों से सुनते ही वे गणेश को मनाकर चल पड़े॥ 157॥

चले समीर बेग हय हाँके। नाघत सरित सैल बन बाँके॥

हृदयँ सोचु बड़ कछु न सोहाई। अस जानहिं जियँ जाउँ उड़ाई॥

हवा के समान वेगवाले घोड़ों को हाँकते हुए वे विकट नदी, पहाड़ तथा जंगलों को लाँघते हुए चले। उनके हृदय में बड़ा सोच था, कुछ सुहाता न था। मन में ऐसा सोचते थे कि उड़कर पहुँच जाऊँ।

एक निमेष बरष सम जाई। एहि बिधि भरत नगर निअराई॥

असगुन होहिं नगर पैठारा। रटहिं कुभाँति कुखेत करारा॥

एक-एक निमेष वर्ष के समान बीत रहा था। इस प्रकार भरत नगर के निकट पहुँचे। नगर में प्रवेश करते समय अपशकुन होने लगे। कौए बुरी जगह बैठकर बुरी तरह से काँव-काँव कर रहे हैं।

खर सिआर बोलहिं प्रतिकूला। सुनि सुनि होइ भरत मन सूला॥

श्रीहत सर सरिता बन बागा। नगरु बिसेषि भयावनु लागा॥

गदहे और सियार विपरीत बोल रहे हैं। यह सुन-सुनकर भरत के मन में बड़ी पीड़ा हो रही है। तालाब, नदी, वन, बगीचे सब शोभाहीन हो रहे हैं। नगर बहुत ही भयानक लग रहा है।

खग मृग हय गय जाहिं न जोए। राम बियोग कुरोग बिगोए॥

नगर नारि नर निपट दुखारी। मनहुँ सबन्हि सब संपति हारी॥

राम के वियोगरूपी बुरे रोग से सताए हुए पक्षी-पशु, घोड़े-हाथी (ऐसे दुःखी हो रहे हैं कि) देखे नहीं जाते। नगर के स्त्री-पुरुष अत्यंत दुःखी हो रहे हैं। मानो सब अपनी सारी संपत्ति हार बैठे हों।

दो० – पुरजन मिलहिं न कहहिं कछु गवँहि जोहारहिं जाहिं।

भरत कुसल पूँछि न सकहिं भय बिषाद मन माहिं॥ 158॥

नगर के लोग मिलते हैं, पर कुछ कहते नहीं; गौं से (चुपके-से) जोहार (वंदना) करके चले जाते हैं। भरत भी किसी से कुशल नहीं पूछ सकते, क्योंकि उनके मन में भय और विषाद छा रहा है॥ 158॥

हाट बाट नहिं जाइ निहारी। जनु पुर दहँ दिसि लागि दवारी॥

आवत सुत सुनि कैकयनंदिनि। हरषी रबिकुल जलरुह चंदिनि॥

बाजार और रास्ते देखे नहीं जाते। मानो नगर में दसों दिशाओं में दावाग्नि लगी है! पुत्र को आते सुनकर सूर्यकुलरूपी कमल के लिए चाँदनीरूपी कैकेयी (बड़ी) हर्षित हुई।

सजि आरती मुदित उठि धाई। द्वारेहिं भेंटि भवन लेइ आई॥

भरत दुखित परिवारु निहारा॥ मानहुँ तुहिन बनज बनु मारा॥

वह आरती सजाकर आनंद में भरकर उठ दौड़ी और दरवाजे पर ही मिलकर भरत-शत्रुघ्न को महल में ले आई। भरत ने सारे परिवार को दुःखी देखा। मानो कमलों के वन को पाला मार गया हो।

कैकेई हरषित एहि भाँती। मनहुँ मुदित दव लाइ किराती॥

सुतिह ससोच देखि मनु मारें। पूँछति नैहर कुसल हमारें॥

एक कैकेयी ही इस तरह हर्षित दिखती है मानो भीलनी जंगल में आग लगाकर आनंद में भर रही हो। पुत्र को सोच वश और मन मारे (बहुत उदास) देखकर वह पूछने लगी – हमारे नैहर में कुशल तो है?

सकल कुसल कहि भरत सुनाई। पूँछी निज कुल कुसल भलाई॥

कहु कहँ तात कहाँ सब माता। कहँ सिय राम लखन प्रिय भ्राता॥

भरत ने सब कुशल कह सुनाई। फिर अपने कुल की कुशल-क्षेम पूछी। (भरत ने कहा -) कहो, पिता कहाँ हैं? मेरी सब माताएँ कहाँ हैं? सीता और मेरे प्यारे भाई राम-लक्ष्मण कहाँ हैं?

दो० – सुनि सुत बचन सनेहमय कपट नीर भरि नैन।

भरत श्रवन मन सूल सम पापिनि बोली बैन॥ 159॥

पुत्र के स्नेहमय वचन सुनकर नेत्रों में कपट का जल भरकर पापिनी कैकेयी भरत के कानों में और मन में शूल के समान चुभनेवाले वचन बोली – ॥ 159॥

तात बात मैं सकल सँवारी। भै मंथरा सहाय बिचारी॥

कछुक काज बिधि बीच बिगारेउ। भूपति सुरपति पुर पगु धारेउ॥

हे तात! मैंने सारी बात बना ली थी। बेचारी मंथरा सहायक हुई। पर विधाता ने बीच में जरा-सा काम बिगाड़ दिया। वह यह कि राजा देवलोक को पधार गए।

सुनत भरतु भए बिबस बिषादा। जनु सहमेउ करि केहरि नादा॥

तात तात हा तात पुकारी। परे भूमितल ब्याकुल भारी॥

भरत यह सुनते ही विषाद के मारे विवश (बेहाल) हो गए। मानो सिंह की गर्जना सुनकर हाथी सहम गया हो। वे ‘तात! तात! हा तात!’ पुकारते हुए अत्यंत व्याकुल होकर जमीन पर गिर पड़े।

चलत न देखन पायउँ तोही। तात न रामहि सौंपेहु मोही॥

बहुरि धीर धरि उठे सँभारी। कहु पितु मरन हेतु महतारी॥

(और विलाप करने लगे कि) हे तात! मैं आपको (स्वर्ग के लिए) चलते समय देख भी न सका। (हाय!) आप मुझे राम को सौंप भी नहीं गए! फिर धीरज धरकर वे सम्हलकर उठे और बोले – माता! पिता के मरने का कारण तो बताओ।

सुनि सुत बचन कहति कैकेई। मरमु पाँछि जनु माहुर देई॥

आदिहु तें सब आपनि करनी। कुटिल कठोर मुदित मन बरनी॥

पुत्र का वचन सुनकर कैकेयी कहने लगी। मानो मर्मस्थान को पाछकर (चाकू से चीरकर) उसमें जहर भर रही हो। कुटिल और कठोर कैकेयी ने अपनी सब करनी शुरू से (आखिर तक बड़े) प्रसन्न मन से सुना दी।

दो० – भरतहि बिसरेउ पितु मरन सुनत राम बन गौनु।

हेतु अपनपउ जानि जियँ थकित रहे धरि मौनु॥ 160॥

राम का वन जाना सुनकर भरत को पिता का मरण भूल गया और हृदय में इस सारे अनर्थ का कारण अपने को ही जानकर वे मौन होकर स्तंभित रह गए (अर्थात उनकी बोली बंद हो गई और वे सन्न रह गए)॥ 160॥

बिकल बिलोकि सुतहि समुझावति। मनहुँ जरे पर लोनु लगावति॥

तात राउ नहिं सोचै जोगू। बिढ़इ सुकृत जसु कीन्हेउ भोगू॥

पुत्र को व्याकुल देखकर कैकेयी समझाने लगी। मानो जले पर नमक लगा रही हो। (वह बोली -) हे तात! राजा सोच करने योग्य नहीं हैं। उन्होंने पुण्य और यश कमाकर उसका पर्याप्त भोग किया।

जीवत सकल जनम फल पाए। अंत अमरपति सदन सिधाए॥

अस अनुमानि सोच परिहरहू। सहित समाज राज पुर करहू॥

जीवनकाल में ही उन्होंने जन्म लेने के संपूर्ण फल पा लिए और अंत में वे इंद्रलोक को चले गए। ऐसा विचारकर सोच छोड़ दो और समाज सहित नगर का राज्य करो।

सुनि सुठि सहमेउ राजकुमारू। पाकें छत जनु लाग अँगारू॥

धीरज धरि भरि लेहिं उसासा। पापिनि सबहि भाँति कुल नासा॥

राजकुमार भरत यह सुनकर बहुत ही सहम गए। मानो पके घाव पर अँगार छू गया हो। उन्होंने धीरज धरकर बड़ी लंबी साँस लेते हुए कहा – पापिनी! तूने सभी तरह से कुल का नाश कर दिया।

जौं पै कुरुचि रही अति तोही। जनमत काहे न मारे मोही॥

पेड़ काटि तैं पालउ सींचा। मीन जिअन निति बारि उलीचा॥

हाय! यदि तेरी ऐसी ही अत्यंत बुरी रुचि (दुष्ट इच्छा) थी, तो तूने जन्मते ही मुझे मार क्यों नहीं डाला? तूने पेड़ को काटकर पत्ते को सींचा है और मछली के जीने के लिए पानी को उलीच डाला! (अर्थात मेरा हित करने जाकर उलटा तूने मेरा अहित कर डाला।)

दो० – हंसबंसु दसरथु जनकु राम लखन से भाइ।

जननी तूँ जननी भई बिधि सन कछु न बसाइ॥ 161॥

मुझे सूर्यवंश (-सा वंश), दशरथ (-सरीखे) पिता और राम-लक्ष्मण से भाई मिले। पर हे जननी! मुझे जन्म देनेवाली माता तू हुई! (क्या किया जाए!) विधाता से कुछ भी वश नहीं चलता॥ 161॥

जब तैं कुमति कुमत जियँ ठयऊ। खंड खंड होइ हृदउ न गयऊ॥

बर मागत मन भइ नहिं पीरा। गरि न जीह मुँह परेउ न कीरा॥

अरी कुमति! जब तूने हृदय में यह बुरा विचार (निश्चय) ठाना, उसी समय तेरे हृदय के टुकड़े-टुकड़े (क्यों) न हो गए? वरदान माँगते समय तेरे मन में कुछ भी पीड़ा नहीं हुई? तेरी जीभ गल नहीं गई? तेरे मुँह में कीड़े नहीं पड़ गए?

भूपँ प्रतीति तोरि किमि कीन्ही। मरन काल बिधि मति हरि लीन्ही॥

बिधिहुँ न नारि हृदय गति जानी। सकल कपट अघ अवगुन खानी॥

राजा ने तेरा विश्वास कैसे कर लिया? (जान पड़ता है,) विधाता ने मरने के समय उनकी बुद्धि हर ली थी। स्त्रियों के हृदय की गति (चाल) विधाता भी नहीं जान सके। वह संपूर्ण कपट, पाप और अवगुणों की खान है।

सरल सुसील धरम रत राऊ। सो किमि जानै तीय सुभाऊ॥

अस को जीव जंतु जग माहीं। जेहि रघुनाथ प्रानप्रिय नाहीं॥

फिर राजा तो सीधे, सुशील और धर्मपरायण थे। वे भला, स्त्री स्वभाव को कैसे जानते? अरे, जगत के जीव-जंतुओं में ऐसा कौन है, जिसे रघुनाथ प्राणों के समान प्यारे नहीं हैं।

भे अति अहित रामु तेउ तोही। को तू अहसि सत्य कहु मोही॥

जो हसि सो हसि मुँह मसि लाई। आँखि ओट उठि बैठहि जाई॥

वे राम भी तुझे अहित हो गए (वैरी लगे)! तू कौन है? मुझे सच-सच कह! तू जो है, सो है, अब मुँह में स्याही पोतकर (मुँह काला करके) उठकर मेरी आँखों की ओट में जा बैठ।

दो० – राम बिरोधी हृदय तें प्रगट कीन्ह बिधि मोहि।

मो समान को पातकी बादि कहउँ कछु तोहि॥ 162॥

विधाता ने मुझे राम से विरोध करनेवाले (तेरे) हृदय से उत्पन्न किया (अथवा विधाता ने मुझे हृदय से राम का विरोधी जाहिर कर दिया)। मेरे बराबर पापी दूसरा कौन है? मैं व्यर्थ ही तुझे कुछ कहता हूँ॥ 162॥

सुनि सत्रुघुन मातु कुटिलाई। जरहिं गात रिस कछु न बसाई॥

तेहि अवसर कुबरी तहँ आई। बसन बिभूषन बिबिध बनाई॥

माता की कुटिलता सुनकर शत्रुघ्न के सब अंग क्रोध से जल रहे हैं, पर कुछ वश नहीं चलता। उसी समय भाँति-भाँति के कपड़ों और गहनों से सजकर कुबरी (मंथरा) वहाँ आई।

लखि रिस भरेउ लखन लघु भाई। बरत अनल घृत आहुति पाई॥

हुमगि लात तकि कूबर मारा। परि मुह भर महि करत पुकारा॥

उसे (सजी) देखकर लक्ष्मण के छोटे भाई शत्रुघ्न क्रोध में भर गए। मानो जलती हुई आग को घी की आहुति मिल गई हो। उन्होंने जोर से तककर कूबड़ पर एक लात जमा दी। वह चिल्लाती हुई मुँह के बल जमीन पर गिर पड़ी।

कूबर टूटेउ फूट कपारू। दलित दसन मुख रुधिर प्रचारू॥

आह दइअ मैं काह नसावा। करत नीक फलु अनइस पावा॥

उसका कूबड़ टूट गया, कपाल फूट गया, दाँत टूट गए और मुँह से खून बहने लगा। (वह कराहती हुई बोली -) हाय दैव! मैंने क्या बिगाड़ा? जो भला करते बुरा फल पाया।

सुनि रिपुहन लखि नख सिख खोटी। लगे घसीटन धरि धरि झोंटी॥

भरत दयानिधि दीन्हि छड़ाई। कौसल्या पहिं गे दोउ भाई॥

उसकी यह बात सुनकर और उसे नख से शिखा तक दुष्ट जानकर शत्रुघ्न झोंटा पकड़-पकड़कर उसे घसीटने लगे। तब दयानिधि भरत ने उसको छुड़ा दिया और दोनों भाई (तुरंत) कौसल्या के पास गए।

दो० – मलिन बसन बिबरन बिकल कृस शरीर दुख भार।

कनक कलप बर बेलि बन मानहुँ हनी तुसार॥ 163॥

कौसल्या मैले वस्त्र पहने हैं, चेहरे का रंग बदला हुआ है, व्याकुल हो रही हैं, दुःख के बोझ से शरीर सूख गया है। ऐसी दिख रही हैं मानो सोने की सुंदर कल्पलता को वन में पाला मार गया हो॥ 163॥

भरतहि देखि मातु उठि धाई। मुरुछित अवनि परी झइँ आई॥

देखत भरतु बिकल भए भारी। परे चरन तन दसा बिसारी॥

भरत को देखते ही माता कौसल्या उठ दौड़ीं। पर चक्कर आ जाने से मूर्च्छित होकर पृथ्वी पर गिर पड़ीं। यह देखते ही भरत बड़े व्याकुल हो गए और शरीर की सुध भुलाकर चरणों में गिर पड़े।

मातु तात कहँ देहि देखाई। कहँ सिय रामु लखनु दोउ भाई॥

कैकइ कत जनमी जग माझा। जौं जनमि त भइ काहे न बाँझा॥

(फिर बोले -) माता! पिता कहाँ हैं? उन्हें दिखा दे। सीता तथा मेरे दोनों भाई राम-लक्ष्मण कहाँ हैं? (उन्हें दिखा दे।) कैकेयी जगत में क्यों जनमी! और यदि जनमी ही तो फिर बाँझ क्यों न हुई? –

कुल कलंकु जेहिं जनमेउ मोही। अपजस भाजन प्रियजन द्रोही॥

को तिभुवन मोहि सरिस अभागी। गति असि तोरि मातु जेहि लागी॥

जिसने कुल के कलंक, अपयश के भाँड़े और प्रियजनों के द्रोही मुझ-जैसे पुत्र को उत्पन्न किया। तीनों लोकों में मेरे समान अभागा कौन है? जिसके कारण हे माता! तेरी यह दशा हुई!

पितु सुरपुर बन रघुबर केतू। मैं केवल सब अनरथ हेतू॥

धिग मोहि भयउँ बेनु बन आगी। दुसह दाह दुख दूषन भागी॥

पिता स्वर्ग में हैं और राम वन में हैं। केतु के समान केवल मैं ही इन सब अनर्थों का कारण हूँ। मुझे धिक्कार है! मैं बाँस के वन में आग उत्पन्न हुआ और कठिन दाह, दुःख और दोषों का भागी बना।

दो० – मातु भरत के बचन मृदु सुनि पुनि उठी सँभारि।

लिए उठाइ लगाइ उर लोचन मोचति बारि॥ 164॥

भरत के कोमल वचन सुनकर माता कौसल्या फिर सँभलकर उठीं। उन्होंने भरत को उठाकर छाती से लगा लिया और नेत्रों से आँसू बहाने लगीं॥ 164॥

सरल सुभाय मायँ हियँ लाए। अति हित मनहुँ राम फिरि आए॥

भेंटेउ बहुरि लखन लघु भाई। सोकु सनेहु न हृदयँ समाई॥

सरल स्वभाववाली माता ने बड़े प्रेम से भरत को छाती से लगा लिया, मानो राम ही लौटकर आ गए हों। फिर लक्ष्मण के छोटे भाई शत्रुघ्न को हृदय से लगाया। शोक और स्नेह हृदय में समाता नहीं है।

देखि सुभाउ कहत सबु कोई। राम मातु अस काहे न होई॥

माताँ भरतु गोद बैठारे। आँसु पोछिं मृदु बचन उचारे॥

कौसल्या का स्वभाव देखकर सब कोई कह रहे हैं – राम की माता का ऐसा स्वभाव क्यों न हो। माता ने भरत को गोद में बैठा लिया और उनके आँसू पोंछकर कोमल वचन बोलीं –

अजहुँ बच्छ बलि धीरज धरहू। कुसमउ समुझि सोक परिहरहू॥

जनि मानहु हियँ हानि गलानी। काल करम गति अघटित जानी॥

हे वत्स! मैं बलैया लेती हूँ। तुम अब भी धीरज धरो। बुरा समय जानकर शोक त्याग दो। काल और कर्म की गति अमिट जानकर हृदय में हानि और ग्लानि मत मानो।

काहुहि दोसु देहु जनि ताता। भा मोहि सब बिधि बाम बिधाता॥

जो एतेहुँ दुख मोहि जिआवा। अजहुँ को जानइ का तेहि भावा॥

हे तात! किसी को दोष मत दो। विधाता मुझको सब प्रकार से उलटा हो गया है, जो इतने दुःख पर भी मुझे जिला रहा है। अब भी कौन जानता है, उसे क्या भा रहा है?

दो० – पितु आयस भूषन बसन तात तजे रघुबीर।

बिसमउ हरषु न हृदयँ कछु पहिरे बलकल चीर॥ 165॥

हे तात! पिता की आज्ञा से रघुवीर ने भूषण-वस्त्र त्याग दिए और वल्कल-वस्त्र पहन लिए। उनके हृदय में न कुछ विषाद था, न हर्ष!॥ 165॥

मुख प्रसन्न मन रंग न रोषू। सब कर सब बिधि करि परितोषू॥

चले बिपिन सुनि सिय सँग लागी। रहइ न राम चरन अनुरागी॥

उनका मुख प्रसन्न था; मन में न आसक्ति थी, न रोष (द्वेष)। सबका सब तरह से संतोष कराकर वे वन को चले। यह सुनकर सीता भी उनके साथ लग गईं।राम के चरणों की अनुरागिणी वे किसी तरह न रहीं।

सुनतहिं लखनु चले उठि साथा। रहहिं न जतन किए रघुनाथा॥

तब रघुपति सबही सिरु नाई। चले संग सिय अरु लघु भाई॥

सुनते ही लक्ष्मण भी साथ ही उठ चले। रघुनाथ ने उन्हें रोकने के बहुत यत्न किए, पर वे न रहे। तब रघुनाथ सबको सिर नवाकर सीता और छोटे भाई लक्ष्मण को साथ लेकर चले गए।

रामु लखनु सिय बनहि सिधाए। गइउँ न संग न प्रान पठाए॥

यहु सबु भा इन्ह आँखिन्ह आगें। तउ न तजा तनु जीव अभागें॥

राम, लक्ष्मण और सीता वन को चले गए। मैं न तो साथ ही गई और न मैंने अपने प्राण ही उनके साथ भेजे। यह सब इन्हीं आँखों के सामने हुआ, तो भी अभागे जीव ने शरीर नहीं छोड़ा।

मोहि न लाज निज नेहु निहारी। राम सरिस सुत मैं महतारी॥

जिऐ मरै भल भूपति जाना। मोर हृदय सत कुलिस समाना॥

अपने स्नेह की ओर देखकर मुझे लाज नहीं आती; राम-सरीखे पुत्र की मैं माता! जीना और मरना तो राजा ने खूब जाना। मेरा हृदय तो सैकड़ों वज्रों के समान कठोर है।

दो० – कौसल्या के बचन सुनि भरत सहित रनिवासु।

ब्याकुल बिलपत राजगृह मानहुँ सोक नेवासु॥ 166॥

कौसल्या के वचनों को सुनकर भरत सहित सारा रनिवास व्याकुल होकर विलाप करने लगा। राजमहल मानो शोक का निवास बन गया॥ 166॥

बिलपहिं बिकल भरत दोउ भाई। कौसल्याँ लिए हृदयँ लगाई॥

भाँति अनेक भरतु समुझाए। कहि बिबेकमय बचन सुनाए॥

भरत, शत्रुघ्न दोनों भाई विकल होकर विलाप करने लगे। तब कौसल्या ने उनको हृदय से लगा लिया। अनेकों प्रकार से भरत को समझाया और बहुत-सी विवेकभरी बातें उन्हें कहकर सुनाईं।

भरतहुँ मातु सकल समुझाईं। कहि पुरान श्रुति कथा सुहाईं॥

छल बिहीन सुचि सरल सुबानी। बोले भरत जोरि जुग पानी॥

भरत ने भी सब माताओं को पुराण और वेदों की सुंदर कथाएँ कहकर समझाया। दोनों हाथ जोड़कर भरत छलरहित, पवित्र और सीधी सुंदर वाणी बोले –

जे अघ मातु पिता सुत मारें। गाइ गोठ महिसुर पुर जारें॥

जे अघ तिय बालक बध कीन्हें। मीत महीपति माहुर दीन्हें॥

जो पाप माता-पिता और पुत्र के मारने से होते हैं और जो गोशाला और ब्राह्मणों के नगर जलाने से होते हैं, जो पाप स्त्री और बालक की हत्या करने से होते हैं और जो मित्र और राजा को जहर देने से होते हैं –

जे पातक उपपातक अहहीं। करम बचन मन भव कबि कहहीं॥

ते पातक मोहि होहुँ बिधाता। जौं यहु होइ मोर मत माता॥

कर्म, वचन और मन से होनेवाले जितने पातक एवं उपपातक (बड़े-छोटे पाप) हैं, जिनको कवि लोग कहते हैं, हे विधाता! यदि इस काम में मेरा मत हो, तो हे माता! वे सब पाप मुझे लगें।

दो० – जे परिहरि हरि हर चरन भजहिं भूतगन घोर।

तेहि कइ गति मोहि देउ बिधि जौं जननी मत मोर॥ 167॥

जो लोग हरि और शंकर के चरणों को छोड़कर भयानक भूत-प्रेतों को भजते हैं, हे माता! यदि इसमें मेरा मत हो तो विधाता मुझे उनकी गति दे॥ 167॥

बेचहिं बेदु धरमु दुहि लेहीं। पिसुन पराय पाप कहि देहीं॥

कपटी कुटिल कलहप्रिय क्रोधी। बेद बिदूषक बिस्व बिरोधी॥

जो लोग वेदों को बेचते हैं, धर्म को दुह लेते हैं, चुगलखोर हैं, दूसरों के पापों को कह देते हैं; जो कपटी, कुटिल, कलहप्रिय और क्रोधी हैं, तथा जो वेदों की निंदा करनेवाले और विश्वभर के विरोधी हैं;

लोभी लंपट लोलुपचारा। जे ताकहिं परधनु परदारा॥

पावौं मैं तिन्ह कै गति घोरा। जौं जननी यहु संमत मोरा॥

जो लोभी, लंपट और लालचियों का आचरण करनेवाले हैं; जो पराए धन और पराई स्त्री की ताक में रहते हैं; हे जननी! यदि इस काम में मेरी सम्मति हो तो मैं उनकी भयानक गति को पाऊँ।

जे नहिं साधुसंग अनुरागे। परमारथ पथ बिमुख अभागे॥

जे न भजहिं हरि नर तनु पाई। जिन्हहि न हरि हर सुजसु सोहाई॥

जिनका सत्संग में प्रेम नहीं है; जो अभागे परमार्थ के मार्ग से विमुख हैं; जो मनुष्य-शरीर पाकर हरि का भजन नहीं करते; जिनको हरि-हर (भगवान विष्णु और शंकर) का सुयश नहीं सुहाता;

तजि श्रुतिपंथु बाम पथ चलहीं। बंचक बिरचि बेष जगु छलहीं॥

तिन्ह कै गति मोहि संकर देऊ। जननी जौं यहु जानौं भेऊ॥

जो वेद मार्ग को छोड़कर वाम (वेद प्रतिकूल) मार्ग पर चलते हैं; जो ठग हैं और वेष बनाकर जगत को छलते हैं; हे माता! यदि मैं इस भेद को जानता भी होऊँ तो शंकर मुझे उन लोगों की गति दें।

दो० – मातु भरत के बचन सुनि साँचे सरल सुभायँ।

कहति राम प्रिय तात तुम्ह सदा बचन मन कायँ॥ 168॥

माता कौसल्या भरत के स्वाभाविक ही सच्चे और सरल वचनों को सुनकर कहने लगीं – हे तात! तुम तो मन, वचन और शरीर से सदा ही राम के प्यारे हो॥ 168॥

राम प्रानहु तें प्रान तुम्हारे। तुम्ह रघुपतिहि प्रानहु तें प्यारे॥

बिधु बिष चवै स्रवै हिमु आगी। होइ बारिचर बारि बिरागी॥

राम तुम्हारे प्राणों से भी बढ़कर प्राण (प्रिय) हैं और तुम भी रघुनाथ को प्राणों से भी अधिक प्यारे हो। चंद्रमा चाहे विष चुआने लगे और पाला आग बरसाने लगे; जलचर जीव जल से विरक्त हो जाए,

भएँ ग्यानु बरु मिटै न मोहू। तुम्ह रामहि प्रतिकूल न होहू॥

मत तुम्हार यहु जो जग कहहीं। सो सपनेहुँ सुख सुगति न लहहीं॥

और ज्ञान हो जाने पर भी चाहे मोह न मिटे; पर तुम राम के प्रतिकूल कभी नहीं हो सकते। इसमें तुम्हारी सम्मति है, जगत में जो कोई ऐसा कहते हैं वे स्वप्न में भी सुख और शुभ गति नहीं पावेंगे।

अस कहि मातु भरतु हिएँ लाए। थन पय स्रवहिं नयन जल छाए॥

करत बिलाप बहुत एहि भाँती। बैठेहिं बीति गई सब राती॥

ऐसा कहकर माता कौसल्या ने भरत को हृदय से लगा लिया। उनके स्तनों से दूध बहने लगा और नेत्रों में (प्रेमाश्रुओं का) जल छा गया। इस प्रकार बहुत विलाप करते हुए सारी रात बैठे-ही-बैठे बीत गई।

बामदेउ बसिष्ठ तब आए। सचिव महाजन सकल बोलाए॥

मुनि बहु भाँति भरत उपदेसे। कहि परमारथ बचन सुदेसे॥

तब वामदेव और वशिष्ठ आए। उन्होंने सब मंत्रियों तथा महाजनों को बुलवाया। फिर मुनि वशिष्ठ ने परमार्थ के सुंदर समयानुकूल वचन कहकर बहुत प्रकार से भरत को उपदेश दिया।

दो० – तात हृदयँ धीरजु धरहु करहु जो अवसर आजु।

उठे भरत गुर बचन सुनि करन कहेउ सबु साजु॥ 169॥

(वशिष्ठ ने कहा -) हे तात! हृदय में धीरज धरो और आज जिस कार्य के करने का अवसर है, उसे करो। गुरु के वचन सुनकर भरत उठे और उन्होंने सब तैयारी करने के लिए कहा॥ 169॥

नृप तनु बेद बिदित अन्हवावा। परम बिचित्र बिमानु बनावा॥

गाहि पद भरत मातु सब राखी। रहीं रानि दरसन अभिलाषी॥

वेदों में बताई हुई विधि से राजा की देह को स्नान कराया गया और परम विचित्र विमान बनाया गया। भरत ने सब माताओं को चरण पकड़कर रखा (अर्थात प्रार्थना करके उनको सती होने से रोक लिया)। वे रानियाँ भी (राम के) दर्शन की अभिलाषा से रह गईं।

चंदन अगर भार बहु आए। अमित अनेक सुगंध सुहाए॥

सरजु तीर रचि चिता बनाई। जनु सुरपुर सोपान सुहाई॥

चंदन और अगर के तथा और भी अनेकों प्रकार के अपार (कपूर, गुग्गुल, केसर आदि) सुगंध-द्रव्यों के बहुत-से बोझ आए। सरयू के तट पर सुंदर चिता रचकर बनाई गई, (जो ऐसी मालूम होती थी) मानो स्वर्ग की सुंदर सीढ़ी हो।

एहि बिधि दाह क्रिया सब कीन्ही। बिधिवत न्हाइ तिलांजुलि दीन्ही॥

सोधि सुमृति सब बेद पुराना। कीन्ह भरत दसगात बिधाना॥

इस प्रकार सब दाह क्रिया की गई और सबने विधिपूर्वक स्नान करके तिलांजलि दी। फिर वेद, स्मृति और पुराण सबका मत निश्चय करके उसके अनुसार भरत ने पिता का दशगात्र-विधान (दस दिनों के कृत्य) किया।

जहँ जस मुनिबर आयसु दीन्हा। तहँ तस सहस भाँति सबु कीन्हा॥

भए बिसुद्ध दिए सब दाना। धेनु बाजि गज बाहन नाना॥

मुनिश्रेष्ठ वशिष्ठ ने जहाँ जैसी आज्ञा दी, वहाँ भरत ने सब वैसा ही हजारों प्रकार से किया। शुद्ध हो जाने पर (विधिपूर्वक) सब दान दिए। गौएँ तथा घोड़े, हाथी आदि अनेक प्रकार की सवारियाँ,

दो० – सिंघासन भूषन बसन अन्न धरनि धन धाम।

दिए भरत लहि भूमिसुर भे परिपूरन काम॥ 170॥

सिंहासन, गहने, कपड़े, अन्न, पृथ्वी, धन और मकान भरत ने दिए; भूदेव ब्राह्मण दान पाकर परिपूर्णकाम हो गए (अर्थात उनकी सारी मनोकामनाएँ अच्छी तरह से पूरी हो गईं)॥ 170॥

पितु हित भरत कीन्हि जसि करनी। सो मुख लाख जाइ नहिं बरनी॥

सुदिनु सोधि मुनिबर तब आए। सचिव महाजन सकल बोलाए॥

पिता के लिए भरत ने जैसी करनी की वह लाखों मुखों से भी वर्णन नहीं की जा सकती। तब शुभ दिन शोधकर श्रेष्ठ मुनि वशिष्ठ आए और उन्होंने मंत्रियों तथा सब महाजनों को बुलवाया।

बैठे राजसभाँ सब जाई। पठए बोलि भरत दोउ भाई॥

भरतु बसिष्ठ निकट बैठारे। नीति धरममय बचन उचारे॥

सब लोग राजसभा में जाकर बैठ गए। तब मुनि ने भरत तथा शत्रुघ्न दोनों भाइयों को बुलवा भेजा। भरत को वशिष्ठ ने अपने पास बैठा लिया और नीति तथा धर्म से भरे हुए वचन कहे।

प्रथम कथा सब मुनिबर बरनी। कैकइ कुटिल कीन्हि जसि करनी॥

भूप धरमुब्रतु सत्य सराहा। जेहिं तनु परिहरि प्रेमु निबाहा॥

पहले तो कैकेयी ने जैसी कुटिल करनी की थी, श्रेष्ठ मुनि ने वह सारी कथा कही। फिर राजा के धर्मव्रत और सत्य की सराहना की, जिन्होंने शरीर त्याग कर प्रेम को निबाहा।

कहत राम गुन सील सुभाऊ। सजल नयन पुलकेउ मुनिराऊ॥

बहुरि लखन सिय प्रीति बखानी। सोक सनेह मगन मुनि ग्यानी॥

राम के गुण, शील और स्वभाव का वर्णन करते-करते तो मुनिराज के नेत्रों में जल भर आया और वे शरीर से पुलकित हो गए। फिर लक्ष्मण और सीता के प्रेम की बड़ाई करते हुए ज्ञानी मुनि शोक और स्नेह में मग्न हो गए।

दो० – सुनहु भरत भावी प्रबल बिलखि कहेउ मुनिनाथ।

हानि लाभु जीवनु मरनु जसु अपजसु बिधि हाथ॥ 171॥

मुनिनाथ ने बिलखकर (दुःखी होकर) कहा – हे भरत! सुनो, भावी (होनहार) बड़ी बलवान है। हानि-लाभ, जीवन-मरण और यश-अपयश, ये सब विधाता के हाथ हैं॥ 171॥

अस बिचारि केहि देइअ दोसू। ब्यरथ काहि पर कीजिअ रोसू॥

तात बिचारु करहु मन माहीं। सोच जोगु दसरथु नृपु नाहीं॥

ऐसा विचार कर किसे दोष दिया जाए? और व्यर्थ किस पर क्रोध किया जाए? हे तात! मन में विचार करो। राजा दशरथ सोच करने के योग्य नहीं हैं।

सोचिअ बिप्र जो बेद बिहीना। तजि निज धरमु बिषय लयलीना॥

सोचिअ नृपति जो नीति न जाना। जेहि न प्रजा प्रिय प्रान समाना॥

सोच उस ब्राह्मण का करना चाहिए, जो वेद नहीं जानता और जो अपना धर्म छोड़कर विषय-भोग में ही लीन रहता है। उस राजा का सोच करना चाहिए, जो नीति नहीं जानता और जिसको प्रजा प्राणों के समान प्यारी नहीं है।

सोचिअ बयसु कृपन धनवानू। जो न अतिथि सिव भगति सुजानू॥

सोचिअ सूद्रु बिप्र अवमानी। मुखर मानप्रिय ग्यान गुमानी॥

उस वैश्य का सोच करना चाहिए जो धनवान होकर भी कंजूस है, और जो अतिथि सत्कार तथा शिव की भक्ति करने में कुशल नहीं है। उस शूद्र का सोच करना चाहिए जो ब्राह्मणों का अपमान करनेवाला, बहुत बोलनेवाला, मान-बड़ाई चाहनेवाला और ज्ञान का घमंड रखनेवाला है।

सोचिअ पुनि पति बंचक नारी। कुटिल कलहप्रिय इच्छाचारी॥

सोचिअ बटु निज ब्रतु परिहरई। जो नहिं गुर आयसु अनुसरई॥

पुनः उस स्त्री का सोच करना चाहिए जो पति को छलनेवाली, कुटिल, कलहप्रिय और स्वेच्छाचारिणी है। उस ब्रह्मचारी का सोच करना चाहिए जो अपने ब्रह्मचर्य-व्रत को छोड़ देता है और गुरु की आज्ञा के अनुसार नहीं चलता।

दो० – सोचिअ गृही जो मोह बस करइ करम पथ त्याग।

सोचिअ जती प्रपंच रत बिगत बिबेक बिराग॥ 172॥

उस गृहस्थ का सोच करना चाहिए जो मोहवश कर्म मार्ग का त्याग कर देता है; उस संन्यासी का सोच करना चाहिए जो दुनिया के प्रपंच में फँसा हुआ और ज्ञान-वैराग्य से हीन है॥ 172॥

बैखानस सोइ सोचै जोगू। तपु बिहाइ जेहि भावइ भोगू॥

सोचिअ पिसुन अकारन क्रोधी। जननि जनक गुर बंधु बिरोधी॥

वानप्रस्थ वही सोच करने योग्य है जिसको तपस्या छोड़कर भोग अच्छे लगते हैं। सोच उसका करना चाहिए जो चुगलखोर है, बिना ही कारण क्रोध करनेवाला है तथा माता, पिता, गुरु एवं भाई-बंधुओं के साथ विरोध रखनेवाला है।

सब बिधि सोचिअ पर अपकारी। निज तनु पोषक निरदय भारी॥

सोचनीय सबहीं बिधि सोई। जो न छाड़ि छलु हरि जन होई॥

सब प्रकार से उसका सोच करना चाहिए जो दूसरों का अनिष्ट करता है, अपने ही शरीर का पोषण करता है और बड़ा भारी निर्दयी है। और वह तो सभी प्रकार से सोच करने योग्य है जो छल छोड़कर हरि का भक्त नहीं होता।

सोचनीय नहिं कोसलराऊ। भुवन चारिदस प्रगट प्रभाऊ॥

भयउ न अहइ न अब होनिहारा। भूप भरत जस पिता तुम्हारा॥

कोसलराज दशरथ सोच करने योग्य नहीं हैं, जिनका प्रभाव चौदहों लोकों में प्रकट है। हे भरत! तुम्हारे पिता-जैसा राजा तो न हुआ, न है और न अब होने का ही है।

बिधि हरि हरु सुरपति दिसिनाथा। बरनहिं सब दसरथ गुन गाथा॥

ब्रह्मा, विष्णु, शिव, इंद्र और दिक्पाल सभी दशरथ के गुणों की कथाएँ कहा करते हैं।

दो० – कहहु तात केहि भाँति कोउ करिहि बड़ाई तासु।

राम लखन तुम्ह सत्रुहन सरिस सुअन सुचि जासु॥ 173॥

हे तात! कहो, उनकी बड़ाई कोई किस प्रकार करेगा जिनके राम, लक्ष्मण, तुम और शत्रुघ्न-सरीखे पवित्र पुत्र हैं?॥ 173॥

सब प्रकार भूपति बड़भागी। बादि बिषादु करिअ तेहि लागी॥

यह सुनि समुझि सोचु परिहरहू। सिर धरि राज रजायसु करहू॥

राजा सब प्रकार से बड़भागी थे। उनके लिए विषाद करना व्यर्थ है। यह सुन और समझकर सोच त्याग दो और राजा की आज्ञा सिर चढ़ाकर तदनुसार करो।

रायँ राजपदु तुम्ह कहुँ दीन्हा। पिता बचनु फुर चाहिअ कीन्हा॥

तजे रामु जेहिं बचनहि लागी। तनु परिहरेउ राम बिरहागी॥

राजा ने राज पद तुमको दिया है। पिता का वचन तुम्हें सत्य करना चाहिए, जिन्होंने वचन के लिए ही राम को त्याग दिया और रामविरह की अग्नि में अपने शरीर की आहुति दे दी।

नृपहि बचन प्रिय नहिं प्रिय प्राना। करहु तात पितु बचन प्रवाना॥

करहु सीस धरि भूप रजाई। हइ तुम्ह कहँ सब भाँति भलाई॥

राजा को वचन प्रिय थे, प्राण प्रिय नहीं थे। इसलिए हे तात! पिता के वचनों को प्रमाण (सत्य) करो! राजा की आज्ञा सिर चढ़ाकर पालन करो, इसमें तुम्हारी सब तरह भलाई है।

परसुराम पितु अग्या राखी। मारी मातु लोक सब साखी॥

तनय जजातिहि जौबनु दयऊ। पितु अग्याँ अघ अजसु न भयऊ॥

परशुराम ने पिता की आज्ञा रखी और माता को मार डाला; सब लोक इस बात के साक्षी हैं। राजा ययाति के पुत्र ने पिता को अपनी जवानी दे दी। पिता की आज्ञा पालन करने से उन्हें पाप और अपयश नहीं हुआ।

दो० – अनुचित उचित बिचारु तजि ते पालहिं पितु बैन।

ते भाजन सुख सुजस के बसहिं अमरपति ऐन॥ 174॥

जो अनुचित और उचित का विचार छोड़कर पिता के वचनों का पालन करते हैं, वे (यहाँ) सुख और सुयश के पात्र होकर अंत में इंद्रपुरी (स्वर्ग) में निवास करते हैं॥ 174॥

अवसि नरेस बचन फुर करहू। पालहु प्रजा सोकु परिहरहू॥

सुरपुर नृपु पाइहि परितोषू। तुम्ह कहुँ सुकृतु सुजसु नहिं दोषू॥

राजा का वचन अवश्य सत्य करो। शोक त्याग दो और प्रजा का पालन करो। ऐसा करने से स्वर्ग में राजा संतोष पावेंगे और तुम को पुण्य और सुंदर यश मिलेगा, दोष नहीं लगेगा।

बेद बिदित संमत सबही का। जेहि पितु देइ सो पावइ टीका॥

करहु राजु परिहरहु गलानी। मानहु मोर बचन हित जानी॥

यह वेद में प्रसिद्ध है और (स्मृति-पुराणादि) सभी शास्त्रों के द्वारा सम्मत है कि पिता जिसको दे वही राजतिलक पाता है। इसलिए तुम राज्य करो, ग्लानि का त्याग कर दो। मेरे वचन को हित समझकर मानो।

सुनि सुखु लहब राम बैदेहीं। अनुचित कहब न पंडित केहीं॥

कौसल्यादि सकल महतारीं। तेउ प्रजा सुख होहिं सुखारीं॥

इस बात को सुनकर राम और जानकी सुख पाएँगे और कोई पंडित इसे अनुचित नहीं कहेगा। कौसल्या आदि तुम्हारी सब माताएँ भी प्रजा के सुख से सुखी होंगी।

परम तुम्हार राम कर जानिहि। सो सब बिधि तुम्ह सन भल मानिहि॥

सौंपेहु राजु राम के आएँ। सेवा करेहु सनेह सुहाएँ॥

जो तुम्हारे और राम के श्रेष्ठ संबंध को जान लेगा, वह सभी प्रकार से तुमसे भला मानेगा। राम के लौट आने पर राज्य उन्हें सौंप देना और सुंदर स्नेह से उनकी सेवा करना।

दो० – कीजिअ गुर आयसु अवसि कहहिं सचिव कर जोरि।

रघुपति आएँ उचित जस तस तब करब बहोरि॥ 175॥

मंत्री हाथ जोड़कर कह रहे हैं – गुरु की आज्ञा का अवश्य ही पालन कीजिए। रघुनाथ के लौट आने पर जैसा उचित हो, तब फिर वैसा ही कीजिएगा॥ 175॥

कौसल्या धरि धीरजु कहई। पूत पथ्य गुर आयसु अहई॥

सो आदरिअ करिअ हित मानी। तजिअ बिषादु काल गति जानी॥

कौसल्या भी धीरज धरकर कह रही हैं – हे पुत्र! गुरु की आज्ञा पथ्यरूप है। उसका आदर करना चाहिए और हित मानकर उसका पालन करना चाहिए। काल की गति को जानकर विषाद का त्याग कर देना चाहिए।

बन रघुपति सुरपति नरनाहू। तुम्ह एहि भाँति तात कदराहू॥

परिजन प्रजा सचिव सब अंबा। तुम्हहीं सुत सब कहँ अवलंबा॥

रघुनाथ वन में हैं, महाराज स्वर्ग का राज्य करने चले गए। और हे तात! तुम इस प्रकार कातर हो रहे हो। हे पुत्र! कुटुंब, प्रजा, मंत्री और सब माताओं के – सबके एक तुम ही सहारे हो।

लखि बिधि बाम कालु कठिनाई। धीरजु धरहु मातु बलि जाई॥

सिर धरि गुर आयसु अनुसरहू। प्रजा पालि परिजन दुखु हरहू॥

विधाता को प्रतिकूल और काल को कठोर देखकर धीरज धरो, माता तुम्हारी बलिहारी जाती है। गुरु की आज्ञा को सिर चढ़ाकर उसी के अनुसार कार्य करो और प्रजा का पालन कर कुटुंबियों का दुःख हरो।

गुरु के बचन सचिव अभिनंदनु। सुने भरत हिय हित जनु चंदनु॥

सुनी बहोरि मातु मृदु बानी। सील सनेह सरल रस सानी॥

भरत ने गुरु के वचनों और मंत्रियों के अभिनंदन (अनुमोदन) को सुना, जो उनके हृदय के लिए मानो चंदन के समान (शीतल) थे। फिर उन्होंने शील, स्नेह और सरलता के रस में सनी हुई माता कौसल्या की कोमल वाणी सुनी।

छं० – सानी सरल रस मातु बानी सुनि भरतु ब्याकुल भए।

लोचन सरोरुह स्रवत सींचत बिरह उर अंकुर नए॥

सो दसा देखत समय तेहि बिसरी सबहि सुधि देह की।

तुलसी सराहत सकल सादर सीवँ सहज सनेह की॥

सरलता के रस में सनी हुई माता की वाणी सुनकर भरत व्याकुल हो गए। उनके नेत्र-कमल जल (आँसू) बहाकर हृदय के विरहरूपी नवीन अंकुर को सींचने लगे। (नेत्रों के आँसुओं ने उनके वियोग-दुःख को बहुत ही बढ़ाकर उन्हें अत्यंत व्याकुल कर दिया।) उनकी वह दशा देखकर उस समय सबको अपने शरीर की सुध भूल गई। तुलसीदास कहते हैं – स्वाभाविक प्रेम की सीमा भरत की सब लोग आदरपूर्वक सराहना करने लगे।

सो० – भरतु कमल कर जोरि धीर धुरंधर धीर धरि।

बचन अमिअँ जनु बोरि देत उचित उत्तर सबहि॥ 176॥

धैर्य की धुरी को धारण करनेवाले भरत धीरज धरकर, कमल के समान हाथों को जोड़कर, वचनों को मानो अमृत में डुबाकर सबको उचित उत्तर देने लगे – ॥ 176॥

श्री राम चरित मानस- अयोध्याकांड, मासपारायण, अठारहवाँ विश्राम समाप्त॥

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