शूलिनी दुर्गा || Shulini Durga
श्रीदुर्गा तंत्र यह दुर्गा का सारसर्वस्व है । इस तन्त्र में देवीरहस्य कहा गया है, इसे मन्त्रमहार्णव(देवी खण्ड) से लिया गया है। श्रीदुर्गा तंत्र इस भाग ६ में शूलिनीदुर्गामन्त्रविधान तथा इसके अलावा यहाँ सिद्ध शूलिनी दुर्गा स्तुति को भी दिया जा रहा है।
शूलिनीदुर्गामन्त्रविधानम्
अथ शूलिनीदुर्गामन्त्रविधानम् ।
उक्तं च शारदातिलके । मन्त्रो यथा:
सभी प्रकार के दुखों, दरिद्रता, ऋणों, रोगों को दूर करने, और असीमित भौतिक और आध्यात्मिक धन प्राप्त करने तथा बुरे ग्रहों के प्रभाव को कम करने और असाध्य बीमारियों को ठीक करने के लिए शारदा तिलकम् में वर्णित श्री पञ्चदशाक्षर शूलिनीदुर्गा मन्त्र का जप करें ।
“ॐ ज्वलज्वलशूलिनिदुष्टग्रहान् हुं फट् स्वाहा”
इति पञ्चदशाक्षरो मन्त्र: ।
‘दुःग्रहः’ का अर्थ है किसी की जन्म कुंडली में पीड़ित ग्रह जो किसी व्यक्ति पर बहुत अधिक संकट, हानि और बुरे प्रभाव का कारण बनता है।
बीज (बीज) मंत्र ‘हुम्’ इंद्रियों के वशीकरण और विचारों के विनाश और आध्यात्मिक और भौतिक प्रगति को प्रभावित करने वाली अन्य बाधाओं का प्रतिनिधित्व करता है।
अस्त्र/हथियार बीज (बीज) मंत्र ‘फ’ हमारी प्रगति को प्रभावित करने वाले सभी बाधाओं और कर्मों को दूर करने का प्रतिनिधित्व करता है।
स्वाहा’ का अर्थ है यज्ञ।
‘शूलिनि’ सृष्टि, संरक्षण और विनाश, भौतिक, सूक्ष्म और कारण निकायों आदि जैसे सभी त्रय का प्रतिनिधित्व करती है। वह उस आभासी वास्तविकता का प्रतिनिधित्व करती है जिसमें हम रहते हैं।
यह पंद्रह अक्षरों का मंत्र भयानक शेर की सवारी करने वाली देवी श्री शूलिनी दुर्गा, दुर्गा के एक पहलू से उनकी दया की वर्षा करने और हमारी भक्ति से प्रसन्न होने और सभी स्वास्थ्य संबंधी मुद्दों और घातक के साथ-साथ दर्दनाक बीमारियों और स्वास्थ्य स्थितियों को दूर करने के लिए प्रार्थना है। ग्रह क्लेश, सभी शत्रुता को दूर करते हैं और हमें शुभ, प्रचुर सामग्री और आध्यात्मिक धन का आशीर्वाद देते हैं और हमारी सभी इच्छाओं को भी पूरा करते हैं।
अस्य विधानम् ।
विनियोग:
ॐ अस्य श्रीशूलिनीदुर्गामन्त्रस्य दीर्घतम ऋषि: । ककुप्छन्दः । शूलनीदुर्गा देवता । सर्वेष्टसिद्धिये जपे विनियोगः ।
ऋष्यादिन्यास :
ॐ दीर्घतमऋषये नमः शिरसि ॥१॥
ककुप्छन्दसे नमः मुखे ॥२॥
शूलिनीदुर्गादेवतायै नमः हृदि ॥ ३ ॥
विनियोगाय नमः सर्वाङेगे ॥ ४।॥
इति ऋष्यादिन्यासः ।
करन्यास :
ॐ शूलिनी दुर्गे हुं फट् अंगुष्ठाभ्यां नमः ॥ १॥
ॐ शूलिनी वरदे हुं फट् तर्जनीभ्यां स्वाहा ॥ २॥
ॐ शूलिनी विन्ध्यवासिनि हुं फट् मध्यमाभ्यां वषट् ॥ ३ ॥
ॐ शूलिन्यसुरमर्दिनि युद्धप्रिये त्रासय हुं फट् अनामिकाभ्यां हुम् ॥ ४ ॥
ॐ शूलिनी देवसिद्धिसुपूजिते नन्दिनि रक्षरक्ष महायोगेश्वरि हुं फट् कनिष्ठिकाभ्यां फट् ॥५॥
इति करन्यासः ।
हृदयादिपञ्चाङ्गन्यास :
ॐ शूलिनी दुर्गे हुं फट् हृदयाय नमः ॥ १ ॥
ॐ शूलिनी वरदे हुं फट् शिरसे स्वाहा ॥ २॥
ॐ शूलिनी विन्ध्यवासिनि हुं फट् शिखायै वषट् ॥ ३॥
ॐ शूलिन्यसुरमर्दिनि युद्धप्रिये त्रासय हुं फट् कवचाय हुम् ॥४॥
ॐ शूलिनि देवसिद्धिसुपूजिते नन्दिनि रक्षरक्ष महायोगेश्वरि हुं फट् अस्त्राय फट् ॥ ५॥
इति हृदयादिपञ्चाङ्गन्यास: ।
इस प्रकार न्यास करके ध्यान करे :
अथ ध्यानम् ।
अध्यारूढां मृगेन्द्रं सजलजलधरश्यामलां पद्महस्तैः
शूलं बाणं कृपाणं मरिजलजगदाचापपाशांवहंतीम् ।
चन्द्रोत्तंसां त्रिनेत्रां चतसृभिरिसिमत्खेटकं विभ्रतीभि:
कन्याभिः सेव्यमानां प्रतिभटभयदां शूलिनीं भावयामि ॥१॥
हम भयानक सिंह पर विराजमान और वर्षा से लदे काले बादल के सदृश सांवले रंग की भयानक रूप देवी मां ‘शूलिनी देवी’ का ध्यान करते हैं। वह एक त्रिशूल, बाण, तलवार(कृपाण), चक्र, गदा, धनुष और पाश धारण करती है। उसके पास चंद्रमा की चमक है और उसकी तीन आंखें हैं (उन्नत आज्ञा चक्र)। वह चार योद्धा युवतियों द्वारा चार दिशाओं से उसकी पहुंच की रक्षा करने वाली ढाल / खेड़ाक की सेवा की जाती है और वह शत्रुतापूर्ण ताकतों (कर्मों) के बीच बहुत डर पैदा करती है ।
इति ध्यात्वा मानसोपचारै: सम्पूजयेत् । ततः पीठादौ रचिते सर्वतोभद्रमण्डले मण्डूकादिपीठदेवताः
दुर्गा: पद्धतिमार्गेण संस्थाप्य नवपीठशक्तिः पूजयेत् । पूर्वादिक्रमेण :
इससे ध्यान करके मानसोपचारों से पूजा करे । इसके बाद रचित पीठादि पर सर्वतोभद्र मण्डल में मण्डूकादि पीठदेवता दुर्गा को पद्धतिमार्ग से स्थापित करके नव पीठशक्तियों की पूर्वादि क्रम से इस प्रकार पूजा करे :
ॐ प्रभायै नमः ॥ १ ॥ ॐ मायायै नमः ॥ २ ॥ ॐ जयायै नमः ॥ ३ ॥ ॐ सूक्ष्मायै नमः ॥ ४ ॥
ॐ विशुद्धायै नमः ॥ ५ ॥ ॐ नन्दिन्यै नमः ॥ ६॥ ॐ सुप्रभायै नम: ॥ ७ ॥ ॐ विजयायै नमः ॥ ८ ॥
मध्ये ॐ सर्वसिद्धिदायै नमः ॥ ९ ॥
इस प्रकार पूजन करे ।
ततः स्वर्णादिनिर्मितं यन्त्रं मूर्ति वा ताम्रपात्रे निधाय घृतेनाभ्याज्य तदुपरि दुग्धधारां जलधारां च दत्त्वा स्वच्छवस्त्रेण संशोष्य “ॐ वज्रनखदंष्ट्रायुधाय महासिंहासनाय हुं फट् नमः” इति मन्त्रेण पुष्पाद्यासनं दत्त्वा पीठमध्ये संस्थाप्य पुनर्ध्यात्वा मूलेन मूर्ति प्रकल्प्य पाद्यादिपुष्पान्तैरुपचारै: सम्पूज्य देव्या आज्ञां गृहीत्वा आवरणपूजां कुर्यात् । तद्यथा । पुष्पाञ्जलिमादाय मूलमुच्चार्य “ॐ संविन्मये परे देवि परामृतरसप्रिये । अनुज्ञां देहि मे दुर्गे परिवारार्चनाय ते ॥ १ ॥”” इति पठित्वा पुष्पाञ्जलिं च दद्यात् । इत्याज्ञां गृहित्वा आवरणपूजां कुर्यात् । तथा च षट्कोणकेसरेषु आग्नेयादिचतुष्कोणेषु मध्ये दिक्षु च ।
इस प्रकार पूजा करने के बाद स्वर्णादि से निर्मित यन्त्र या मूर्ति को ताम्रपात्र में रखकर घी से उसका अभ्यङ्ग करके उस पर दुग्धधारा तथा जलधारा डालकर स्वच्छ वस्त्र से उसे सुखाकर “ॐ वज्रनखदंष्ट्रायुधाय महासिंहासनाय हुं फट् नमः” इस मन्त्र से पुष्पाद्यासन देकर पीठ के मध्य स्थापित करके पुनः ध्यान करके मूलमन्त्र से मूर्ति की कल्पना करके पाद्य से पुष्पांजलि दान पर्यन्त उपचारों से पूजा करके देवी की आज्ञा लेकर आवरण पूजा करे । तद्यथा : पुष्पांजलि लेकर मूलमन्त्र का उच्चारण करके “ संविन्मये परे देवि परामृतरसप्रिये । अनुज्ञां देहि मे दुर्गे परिवारार्चनाय ते” यह पढ़कर पुष्पांजलि देवे । इस प्रकार आज्ञा लेकर आवरण पूजा करे । षट्कोण केसरों में आग्नेय आदि चारों कोणों में तथा मध्य दिशाओं में : देखिये चित्र शूलिनी दुर्गापूजनयन्त्रम् ।
आवरणपूजा :
ॐ शूलिनि दुर्गे हुं फट् हृदयाय” नमः हृदयश्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।इति सर्वत्र ॥ १ ॥
ॐ शूलिनि वरदे हुं फट् शिरसे स्वाहा शिरः श्रीपा० ॥ २ ॥
ॐ शूलिनि विन्ध्यवासिनि हुं फट् शिखायै वषट्’ शिखाश्रीपा० ॥ ३ ॥
ॐ शूलिन्यसुरमर्दिनि युद्धप्रिये त्रासय हुं फट् कवचाय” हुं कवचश्रीपा० ॥४॥
ॐ शूलिनि देवि सिद्धसुपूजिते नन्दिनि रक्षरक्ष महायोगेश्वरिं हुं फट अस्त्राय फट् ॥ ५॥
इससे पञ्चाङ्गों की पूजा करे । इसके बाद पुष्पांजलि लेकर मूलमन्त्र का उच्चारण करके
“अभीष्टसिद्धि मे देहि शरणागतवत्सले ।
भक्त्या समर्पये तुभ्यं प्रथमावरणार्चनम् ।””
यह पढ़कर पुष्पांजलि देकर विशेष अर्ध से जलविन्दू डालकर “पूजितास्तर्पितास्सन्तु’ यह कहे ।
इति प्रथमावरण।
इसके बाद पूज्य-पूजक के मध्य पूर्व दिशा को अन्तराल मानकर तदनुसार अन्य दिशाओं की कल्पना करके प्राची क्रम से :
ॐ दुर्गायै नमः । दुर्गाश्रीपा० ॥ १ ॥
ॐ वरदायै नमः। वरदाश्रीपा० ॥ २ ॥
ॐ विन्ध्यवासिन्यै नमः । विन्ध्यवासिनि श्रीपा० ॥ ३॥
ॐ असुरमर्दिन्यै नमः । असुरमर्दिनी श्रीपा० ॥ ४॥
ॐ युद्धप्रियायै नमः । युद्धप्रिया श्रीपा० ॥ ५ ॥
ॐ देवसिद्धपूजितायै नमः । देवसिद्धपूजिताश्रीपा० ॥ ६॥
ॐ नन्दिन्यै नम: । नन्दिनीश्रीपा० ॥ ७॥
ॐ महायोगेश्वर्यै नमः । महायोगेश्वरीश्रीपा० ॥ ८ ॥
इससे आठों शक्तियों की पूजा करके पुष्पांजलि देवे ।
इति द्वितीयावरण ।
इसके बाद पत्रागों में इनके अस्त्रों की पूजा करे :
ॐ चक्राय नमः ॥ १ ॥ ॐ शङ्खाय नमः ॥ २ ॥ ॐ खङ्गाय नम: ॥ ३ ॥ ॐ गदायै नमः ॥४॥
ॐ चापाय नमः ॥ ५॥ ॐ त्रिशूलाय नमः ॥ ६॥ ॐ बाणेभ्यो नम: ॥ ७॥ ॐ पाशाय नमः ॥ ८॥
इस प्रकार आठ अस्त्रों की पूजा करके पुष्पांजलि देवे ।
इति तृतीयावरणम् ।
ततः भूपुरे इन्द्रादिदशदिक्पालान् वज्राद्यायुधानि च पूजयित्वा पुष्पांजलिं च दद्यात् ।
इसके बाद भूपुर में इन्द्रादि दश दिक्पालों की तथा वज्र आदि उनके दश आयुधों की पूजा करके पुष्पांजलि देवे ।
इत्यावरणपूजां कृत्वा धूपादिनमस्कारान्तं सम्पूज्य जपं कुर्यात् । अस्य पुरश्चरणं पञ्चदशलक्षजपः । सर्पिषान्नेन दशांशतो होमः । तत्तद्दशांशेन तर्पणं मार्जनं ब्राह्मणभोजनं च कुर्यात् । एवं कृते मन्त्र: सिद्धो भवति सिद्धो च मन्त्रे मन्त्री प्रयोगान् साधयेत् ।
इस प्रकार आवरणपूजा करके धूपदान से लेकर नमस्कार पर्यन्त पूजा और जप करे । इसका पुरश्चरण पन्द्रह लाख जप है । घी तथा अन्न से दशांश होम होता है । होम से दशांश तर्पण, तर्पण से दशांश मार्जन तथा मार्जन से दशांश ब्राह्मण भोजन होता है । ऐसा करने पर मन्त्र सिद्ध होता है । मन्त्र के सिद्ध हो जाने पर साधक प्रयोगों को सिद्ध करे ।
तथा च :
“मनुमेनं जपेन्मन्त्री वर्णलक्षं विचक्षण: ।
सर्पिषान्नेन वा होमस्तद्दशांशमितो भवेत् ॥ १ ॥
इत्थं जपादिभि: सिद्ध कुर्यात्कर्म निजेप्सितम् ।
अष्टोत्तर सहस्रं यस्तिलैस्त्रिमधुरप्लुतैः ।
नित्यं प्रजुहुयात्तस्य शक्तिः स्यादतिमानुषी ॥ २॥
तथा च “बुद्धिमान् साधक इस मन्त्र का पन्द्रह लाख जप करे । घी और अन्न से दशांश होम करना चाहिये । इस प्रकार जपादि से अभीष्ट कर्म को सिद्ध करे । जो मनुष्य मधु, शकर, घी से सिक्त तिलों से एक हजार आठ आहुति द्वारा नित्य होम करता है उसको दैवी शक्ति प्राप्त होती है ।
अष्टोत्तशतं नित्यं सर्पिषा जुहुयान्नरः ।
वाछितं वत्सरादर्वाक् प्राप्नोति महतीं श्रियम् ॥ ३ ॥
पूर्वं होमो भवेन्नृणां सर्ववांछितसिद्धिदः ।
छुरिकाद्यानि शस्त्राणि जप्तानि मनुना मुना ॥ ४ ॥
संसिक्ताज्यविलिप्तानि वितरन्ति जयश्रियम् ।
अश्वत्थार्कसमिद्भिर्वा तिलैर्वा मधुरोक्षितैः ॥ ५॥
होमो वै दिशतिक्षिप्रमीप्सितान्मन्त्रिणो वरान् ।
जो मनुष्य एक सौ आठ आहुति से नित्य होम करता है वह एक वर्ष के अन्दर अभीष्ट फल तथा महती लक्ष्मी को प्राप्त करता है । पहले होम करना मनुष्यों के लिए सभी अभीष्ट फलों तथा सिद्धियों का देने वाला होता है । छुरी आदि शस्त्र इस मन्त्र के जप से अभिमन्त्रित होकर घी से विलिप्त होने पर जय और लक्ष्मी को देते हैं । घी, मधु तथा शर्करा से लिप्त पीपल और मदार की समिधा अथवा तिलों से होम करना शीघ्र ही श्रेष्ठ साधकों को अभीष्ट फल देता है ।
उद्यदायुधहस्तां तां देवीं कालघनप्रभाम् ॥ ६॥
ध्यात्वात्मानं जपेन्मन्त्रं स्पृष्ट्वा तं मुञ्चति ग्रह: ।
सर्पाखुवृश्चिकादीनां विषमाशु विनाशयेत् ॥ ७॥
हाथों में हथियार लिये हुये घने काले वर्ण वाली देवी का ध्यान करके अपने को छूकर जो जप करे उसे ग्रह छोड़ देता है । साँप, चूहे, विच्छू, आदि का विष शीघ्र नष्ट हो जाता है ।
मनुनानेन विधिवन्मन्त्रविद्देवताधिया ।
मन्त्रेणानेन सञ्जप्तान्बाणानादाय योधकः ॥८॥
विमुञ्चेत्प्रतिसेनायां सां द्रुतं विद्रुता भवेत् ।
इस मन्त्र का विधिपूर्वक देवताबुद्धि से जप करके इस मन्त्र से अभिमन्त्रित बाणों को यदि योद्धा शत्रु की सेना पर चलाये तो वह सेना शीघ्र भाग जाती है ।
शूलपाशधरां देवीं ध्यात्वात्मानमनाकुलः ॥ ९ ॥।
प्रविशेद्युद्धदेशं यो जित्वायाति स निर्व्रण: ।
शान्त होकर शूल तथा पाश को धारण करने वाली देवी का ध्यान करके जो युद्ध में जाता है वह बिना चोट खाये विजयी होकर चला आता है ।
जुहुयात्तिलसिद्धार्थैर्लक्षमेक् यथाविधि ॥ १० ॥
नामयुक्तं जपेन्मन्त्रं वश्यासौमतिमेष्यति ।
गुटिकां गोमयोत्पन्नां हुत्वाष्टशतसंख्यया ॥ ११ ॥
सप्ताहात्कुरुते मन्त्री विद्वेषं स्निग्धयोर्मिथ: ।
गृहीत्वा गोमयं व्योम्नि त्रिसहस्त्रं जपेत्युनः।। १२ ॥
गमिष्यति द्वारदेशे निखातं स्तम्भकृद्भवेत् ।
बहुनोक्तेन किं सर्व॑ साधयेन्मनुनामुना ॥ १३ ॥
जो मनुष्य तिल और पीली सरसों से विधिपूर्वक एक लाख आहुतियों से होम करता है और अभीष्ट व्यक्ति का नाम लेकर जप करता है उसके वश में उक्त व्यक्ति हो जाता है । गोबर की एक सौ आठ गोलियों से होम करके साधक एक सप्ताह में दो प्रेमियों में विद्वेष कर देता है। गोबर आकाश में लेकर तीन हजार जो जप करे तो वह गोबर शत्रु के द्वार पर जाकर गड़ जाता है और उसका स्तम्भन कर देता है । अधिक कहने से क्या ? इस मन्त्र से साधक सब कुछ सिद्ध कर सकता है ।
इति शूलिनीदुर्गामन्त्रप्रयोग: ।
सिद्ध शूलिनी दुर्गा स्तुति
दुःख दुशासन पत चीर हाथ ले, मो सँग करत अँधेर ।
कपटी कुटिल मैं दास तिहारो, तुझे सुनाऊँ टेर ।। मैय्या॰ ।।१
बुद्धि चकित थकित भए गाता, तुम ही भवानी मम दुःख-त्राता ।
चरण शरण तव छाँड़ि कित जाऊँ, सब जीवन दुःख निवेड़ ।।मैय्या॰ ।।२
भक्ति-हीन शक्ति के नैना, तुझ बिन तड़पत हैं दिन-रैना ।
लाज तिहारे हाथ सौंप दइ, दे दर्शन चढ़ शेर ।।मैय्या॰ ।।३
उपर्युक्त रचना “शूलिनी-दुर्गा” की स्तुति है । विशेष सङ्कट-काल में भक्ति-पूर्वक सतत गायन करते रहने से तीन रात्रि में ‘संकट’ नष्ट होते है । भगवती षोडशी (श्री श्रीविद्या) का ध्यान कर, इस स्तुति की तीन आवृत्ति करते हुए स्तवन करने पर सद्यः ‘अर्थ-प्राप्ति’ ३ घण्टे में होती है । एक वर्ष तक नियमित रुप से इस स्तुति का गायन करने पर, माँ स्वयं स्वप्न में ‘मन्त्र-दीक्षा’ प्रदान करती है । ‘नव-रात्र’ में नित्य मध्य-रात्रि में श्रद्धा-पूर्वक इस स्तुति की १६ आवृत्ति गायन करने से ५ रात्रि के अन्दर स्वप्न में ‘माँ’ का साक्षात्कार होता है । प्रातः एवं सायं-काल नित्य नियमित रुप से भक्ति-पूर्वक ‘भैरवी-रागिनी’ में इस स्तुति का गायन करने से ‘आत्म-साक्षात्कार’ होता है ।
इस प्रकार शूलिनी दुर्गामन्त्र प्रयोग समाप्त हुआ ।