Sir Ashutosh Mukherjee Autobiography | सर आशुतोष मुखर्जी का जीवन परिचय : एक बंगाली शिक्षाविद बैरिस्टर और गणितज्ञ थे

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सर आशुतोष मुखर्जी, बंगाल के ख्याति प्राप्त बैरिस्टर और शिक्षाविद थे। वे सन 1906 से 1914 तक कोलकाता विश्वविद्यालय के उपकुलपति रहे। उन्होंने बंगला तथा भारतीय भाषाओं को एम. ए. की उच्चतम डिग्री के लिए अध्ययन का विषय बनाया। भारतीय जनसंघ के संस्थापक श्यामा प्रसाद मुखर्जी इनके पुत्र थे। सन 1908 में आशुतोष मुखर्जी ने ‘कलकत्ता गणितीय सोसाइटी’ की स्थापना की और सोसायटी के अध्यक्ष के रूप में 1908 से 1923 तक कार्य किया। सन 1914 में वे ‘भारतीय विज्ञान कांग्रेस’ के उद्घाटन सत्र के प्रथम अध्यक्ष भी रहे थे।

आशुतोष मुखर्जी जीवन परिचय
पूरा नाम आशुतोष मुखर्जी
जन्म तारीख २९ जून, १८६४
जन्म स्थान भवानीपुर,कलकत्ता
धर्म हिन्दू
पिता का नाम डा.गंगाप्रसाद मुखर्जी
माता का नाम जगतारिणी देवी
पत्नि का नाम जोगमाया देवी
संतान ७ संतान
पिता का कार्य डाक्टर
माता का कार्य गृहणी
शिक्षा एंट्रेस(मैट्रिक),
इंटरमीडिएट(प्रेसिडेंसी कॉलेज),
बी.ए.(गणित),
एम.ए.(गणित),
एम.ए.(भौतिक विज्ञान),
कानून की डिग्री,“कानून” में
डाक्टरेट की डिग्री
कार्य बर्नर्ड स्मिथ की गणित
की पुस्तक गलतिया निकाली,
शिक्षाशास्त्री, सर रासबिहारी घोष
के सहयोगी,वकील,
न्यायाधीश,कलकता उच्च न्यायालय
(हाईकोर्ट) के न्यायाधीश,कलकत्ता विश्वविद्यालय के
कार्यो मे अहम भूमिका
मृत्यु तारीख २५ मई, १९२४
मृत्यु स्थान पटना
मृत्यु की वजह सामान्य
उम्र ६० वर्ष
भाषा हिन्दी, अँग्रेजी, बंग्ला

सन १८७९ में आशुतोष ने एंट्रेस(मैट्रिक) की परीक्षा पास की। इस परीक्षा में उन्हें विश्वविद्यालय भर में दूसरा स्थान प्राप्त हुआ। इसके दूसरे वर्ष आशुतोष प्रेसिडेंसी कॉलेज में दाखिल हुए और दो साल बाद इंटरमीडिएट की परीक्षा में उत्तीर्ण हुए। इस परीक्षा में उन्हें गणित में सबसे अधिक अंक प्राप्त हुए। फिर उन्होंने बी.ए. की परीक्षा पास की और विश्वविद्यालय भर में प्रथम आए। इसी जमाने में वह विलायत के अखबारों में गणित के कठिन प्रश्नों के हल भी प्रकाशित करवाते थे | बी.ए. पास करने के बाद उन्होंने इस दिशा में और ज्यादा लगन से काम किया। फलतः विलायत की गणित संबंधी कई संस्थाओं के वह सदस्य चुने गए। एम.ए. की परीक्षा भी उन्होंने गणित में ही दी और अव्वल नंबर से पास हुए। इस उपलक्ष्य में उन्हें प्रेमचंद, रामचंद के वजीफे के आठ हजार रुपए और सोने का पदक प्राप्त हुआ। इसके एक सप्ताह बाद ही उन्होंने भौतिक विज्ञान में भी एम.ए. पास किया।

सन १८८५ मे उनका विवाह जोगमाया देवी से हुआ और उनकी ७ संतान थी |कमला मुखर्जी, रामप्रसाद मुखर्जी, श्यामप्रसाद मुखर्जी, उमाप्रसाद मुखर्जी, अमला मुखर्जी, बामा प्रसाद मुखर्जी और रमाला मुखर्जी| इनमे श्यामप्रसाद मुखर्जी भारतीय जनसंघ के संस्थापक थे |

आशुतोष मुख्यत: एक शिक्षाशास्त्री थे। शिक्षा की हालत सुधारने में उन्होंने बहुत महत्वपूर्ण हिस्सा लिया। उनका कहना था कि जो नौजवान विश्वविद्यालय की शिक्षा समाप्त कर लें, उनका हाथ अनिवार्य रूप से विश्वविद्यालय के प्रबंध में होना चाहिए, उन्हें परीक्षक और सिनेट का सदस्य भी बनाना चाहिए। आशुतोष की यह बात मानी गई। जब वह २४ साल के ही थे, तब प्रोफेसर बूथ के साथ एम.ए. के परीक्षक नियुक्त किए गए। इससे कलकत्ता भर में सनसनी फैल गई। पर आशुतोष को भी अभी और बड़ी-बड़ी जगहों पर पहुंचना था ।

सन १८८८ में आशुतोष ने कानून की डिग्री प्राप्त की और उसी साल वकालत शुरू कर दी। वह सर रासबिहारी घोष के सहयोगी बन गए। उन दिनों रासबिहारी घोष आगे बढ़ रहे थे और उनका नाम हो रहा था। आशुतोष ने भी रासबिहारी की तरह ही वकालत के काम को आसान नहीं समझा। वह पूरी लगन के साथ मेहनत करते रहे और “कानून” में डाक्टरेट की डिग्री हासिल की। फिर, जब वकालत में उनके पांव अच्छी तरह जम गए तब सन १९०४ में उन्हें न्यायाधीश अथवा जज बनाया गया। इससे पहले दस वर्षों की अवधि में उनकी गणना चोटी के वकीलों में होने लगी थी, अपनी वकालत के जमाने में ही उन्होंने कानून पर कई भाषण भी दिए, जिसके कारण उनका नाम और बढ़ा।

आशुतोष सन १९०४ से लेकर १९२३ तक कलकता उच्च न्यायालय (हाईकोर्ट) के न्यायाधीश रहे। सन १९२० में कुछ समय तक उन्होने मुख्य न्यायारधीश (चीफ जस्टिस) का भी काम किया। न्यायाधीश की हैसियल से उन्होंने बराबर ही बहुत ऊंचे दर्जे का न्याय किया।

सर डासन मिलर के शब्दों में, उनके फैसले बहुत स्वतंत्र और कानून के दायरे में होते थे। इलिए उनका सर्वत्र मान भी होता था। उनके जो फैसले प्रकाशित किए गए हैं, उनकी संख्या दो हजार से कम नहीं है। उनके फैसलो में कानून का पूरा ब्यौरा रहता था। न्याय करते समय वह पूरी तरह निष्पक्ष करते थे। सरकार और पुलिस के प्रति भी वह कोई रियायत नहीं करते थे।

सुप्रसिद्ध मुसलमानपारा बमकांड की सुनवाई के समय वह जस्टिस हुमहुड और चीफ जस्टिस सर जेनकिंसन के साथ तीसरे न्यायाधीश के रूप में रखे गए थे। यह मुकदमा बड़ा सनसनीखेज था। पर अंतत: न्यायाधीशों ने अभियुक्त बंगाली नौजवान को बरी कर दिया। सर आशुतोष ने इस मुकदमे के बारे में अपना जो छोटा-सा फैसला लिखा था, उसमें उन्होंने बड़ी बेरहमी से पुलिस के गलत रवैये की आलोचना की थी। उन्होंने स्पष्ट तौर पर कहा था कि – “पुलिस एक बेगुनाह नौजवान को इस तरह के डरावने जर्म में फंसाने की अपनी कोशिश में पूरी तरह नाकामयाब रही।”

न्यायाधीश के पद से अवकाश ग्रहण करने से पूर्व उन्होंने जो आखिरी फैसला दिया, वह संकटोरिया डाकखाना हत्याकांड के मुकदमे का था। इस मुकदमे में वारींद्रकुमार घोष नामक व्यक्ति अभियुक्त था। इस नौजवान की नई-नई शादी हुई थी और उसकी अवस्था २० वर्ष के करीब थी। उस पर आरोप था कि उसने रिवाल्वर से संकटोरिया डाकखाना (कलकत्ता) के पोस्टमास्टर को मार डाला था। सेशन जज ने उसे फांसी की सजा दी थी। वस्तुतः हुआ यह था कि मुकदमे के दौरान ही सफाई पक्ष के वकील ने सेशन जज से, उसके निजी कमरे में जाकर, कहा था कि अभियुक्त कसूरवार है, पर स्वीकृति पाकर अभियुक्त को फांसी की सजा दे दी। बाद में वह मुकदमा उच्च न्यायालय में दोबारा गौर करने को आया। उस वक्त आशुतोष मुख्य न्यायाधीश थे। उन्होंने इस मुकदमे के फैसले में सफाई के वकील, सेशन जज और सरकारी वकील की बड़ी कड़ी टीका की। उन्होंने कहा कि सफाई के वकील का जज के निजी कमरे में जाकर जुर्म का मानना और यह कहना कि उसकी कोई सफाई नहीं, इतना बड़ा जुर्म था, जिसकी शिकायत मुख्य न्यायाधीश को होनी चाहिए थी इसी तरह, निष्पक्ष भाव से उन्होंने बेधड़क टीका की।

आशुतोष एक न्यायशास्त्री होने के साथ-साथ बहुत बड़े शिक्षाशास्त्री भी थे। शिक्षा के प्रचार प्रसार के लिए वह पूरे तन-मन से प्रयत्नशील रहते थे। सन १८९९ और १९०१ में वह कलकत्ता विश्वविद्यालय की और से ही सदस्य के रूप में बंगाल कौसिल में गए। फिर, सन १९०३ में उन्हें कलकत्ता कॉरपोरेशन की ओर से बंगाल कौंसिल में भेजा गया। उसी साल वह बंगाल कौंसिल से बड़े लाट की कौसिल के सदस्य भी चुने गए। कौंसिलों में वह थोड़े समय ही रहे, पर उनका काम बहुत शानदार रहा। कौसिल में सबसे तगड़ी लड़ाई उन्होंने लार्ड कर्जन के “यूनिवर्सिटी बिल” के खिलाफ लड़ी थी। वास्तव में, आशुतोष ने सबसे ज्यादा काम कलकत्ता विश्वविद्यालय के लिए किया। उन्होंने स्वयं कहा है – “मैंने कलकत्ता विश्वविद्यालय के लिए अपनी पढ़ाई और अनुसंधान के सारे अवसर खो दिए। कुछ हद तक अपने घरवालों और दोस्तों के हितों का भी मैंने बलिदान किया। इसमें तो कोई शक ही नहीं है कि मैंने अपनी अधिकांश ताकत और जिंदगी इस काम में लगा दी।“

कलकत्ता विश्वविद्यालय में बंगला को उपयुक्त स्थान दिलाने के लिए आशुतोष ने जो मेहनत की, वह वस्तुत: कभी नहीं भुलाई जा सकती। यह उन्हीं की लगातार कोशिशों का नतीजा था कि रवींद्रनाथ ठाकुर को साहित्य में डाक्टरेट की डिग्री मिली। इन सबके अलावा, विश्वविद्यालय को सर्वविधि संपन्न बनाने की दिशा में भी उन्होंने अथक मेहनत की | यह आशुतोष के ही जोश का नतीजा था कि विश्वविद्यालय की शानदार इमारतें बनीं, पुस्तकालय बने, छात्रावासों का निर्माण हुआ और विज्ञान की कई संस्थाएं स्थापित की गई | सचमुच आज कलकत्ता विश्वविद्यालय का जो स्वरूप है, वह उस एक आदमी के हाथ का ही गढ़ा हुआ है।

इस विश्वविद्यालय और शिक्षा प्रसार से उन्हें कितना मोह था, यह इस घटना से स्पष्ट हो जाता है। जब सन १९२० में स्कूलों और कालेजों के बहिष्कार की लहर गांधी जी ने चलाई, तब कलकत्ते के छात्रों ने भी हड़ताल कर दी। फलतः विश्वविद्यालय बंद हो गया उस वक्त आशुतोष ही कलकत्ता विश्वविद्यालय के उपकुलपति अर्थात वाइस चांसलर थे। इस हड़ताल से उन्हें अपनी जिंदगी भर की मेहनत के बर्बाद होने का डर लगने लगा वह कालेजों के बहिष्कार के पक्ष में न थे। दूसरी और चित्तरंजन दास इसका पूरी तरह समर्थन कर रहे थे । कलकत्ता विश्वविद्यालय के छात्रों की मांग थी कि विश्वविद्यालय को राष्ट्रीय बनाया जाए अत: जो छात्र कालेज छोड़ चुके थे, वे परीक्षा के समय परीक्षा कक्षों के दरवाजों के सामने लेट गए। अब जो छात्र अंदर जाना चाहते, वे केवल उनके ऊपर चढ़ कर ही जा सकते थे। जाहिर है, हालत बड़ी नाजुक थी | अत: अशुतोष स्वयं वहां पहुंचे और छात्रों से अपील की कि – “वे गलत रास्ते पर न चलें। उन्होंने उनसे कहा कि विश्वविद्यालय को राष्ट्रीय बनाना छात्रों के ही हाथों में है, पर उसका तरीका यह नहीं हैं। विश्वविद्यालय को यदि राष्ट्रीय बनाना है, तो सभी छात्र अपने-अपने कालेजों को लौट जाएं जौर फिर जैंसा चाहें, अपने कालेजों को बनाएं और चलाएं।” इस प्रकार, उन्होंने कलकत्ता विश्वविद्यालय को संकट की स्थिति से बचा लिया।

कलकत्ता के अजायबघर के निर्माण में भी आशुतोष का बड़ा हाथ था। सन १९०९ में रहन-सहन के मामले में आशुतोष की सादगी बेजोड़ थी। वह भारतीय ढंग के कपड़े पहनते थे और कट्टर हिंदुओं की तरह रहते थे। ईश्वर में उनको गहरी निष्ठा थी और नित्य प्रति वह पूजा करते थे। कुछ लोगों का कहना है कि धार्मिक दृष्टिकोण के कारण ही वह पढ़ने के लिए यूरोप नहीं गए।

इस बात के स्पष्ट प्रमाण उपलब्ध हैं। उन्होंने अपनी विधवा लड़की का पुनर्विवाह कराया जोकि उस जमाने के लिए एक बड़ी क्रांतिकारी बात थी। फिर उन्होंने अपने लड़के को पढ़ने के लिए विलायत भी भेजा।

आशुतोष का स्वास्थ्य बड़ा अच्छा था। उनका चौड़ा माथा और घनी भौहें साफ-साफ बतलाती थी कि वह कितने मजबूत आदमी थे। उनके चेहरे की हर लकीर उनकी अध्ययनशीलता और चारित्रिक संबलता को व्यक्त करती थी। एक स्वस्थ शरीर में स्वस्थ आत्मा का निवास होता है, यह कहावत उन पर बिल्कुल ठीक बैठती थी।

इस महापुरुष का २५ मई, १९२४ को पटना मे निधन हुआ।

निर्धनों और संकटग्रस्त लोगों की मदद करने से भी वह कभी नहीं चूके थे। इसलिए उनके मित्रगण और उनके द्वारा उपकृत लोग उन्हें “दीनबंधु” के नाम से भी संबोधित करते थे।

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