ब्राह्मण सिर पर चोटी क्यों रखते हैं ? Sir Mein choti Rakhne ka Mahatava | Benefits Of Choti

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सनातन धर्म (Sanatan Dharma) में पैदा होने से लेकर मृत्यु तक कई सारे संस्कार और मान्यताएं होती हैं. जिनका अपने अपने समय पर महत्व रहता है. जब बच्चा पैदा होता है उसके बाद उसका मुंडन संस्कार (Mundan Rites) किया जाता है. उसे द्विज कहा जाता है इसका मतलब बच्चे का दूसरा जन्म है. इसके अलावा और भी संस्कार हैं जिनमें से एक है सिर पर शिखा या चोटी रखना. वैदिक संस्कृति (Vaidik Sanskriti) में शिखा चोटी को कहा जाता है. चोटी रखने की प्रथा ऋषि मुनि के समय से चली आ रही है. जिसका पालन हिन्दू धर्म में अभी तक किया जा रहा है. चोटी रखने को लेकर विज्ञान (Science) ने भी अपना सकारात्मक पक्ष रखा है. आइए जानते हैं कि क्यों हिंदू धर्म में चोटी रखना अनिवार्य बताया गया है.

हिन्दू धर्म में प्राचीनकाल से ही पांच संप्रदायों का प्रचलन रहा है:- शैव, वैष्णव, शक्त, वैदिक और स्मार्त। सभी संप्रदाय के अलग-अलग नियम और संस्कार होते हैं लेकिन सभी में दो तरह के विभाजन भी होते हैं, जैसे एक वह समूह जिसे समाज में संस्कार, कर्मकांड, यज्ञ, मंदिर आदि के कार्यों को सुचारू रूप से संपन्न करने या कराने की जिम्मेदारी सौंप रखी है। दूसरा वह समूह जिसे साधु समाज कहते हैं जो समाज को धर्म का मार्ग बताता है, आश्रम में रहकर शिक्षा और दीक्षा देता है और जो धर्म की रक्षार्थ शस्त्र और शास्त्र दोनों में पारंगत होता है। उक्त पांचों संप्रदाय में यह दो तरह के विभाजन होते हैं।

चोटी रखने (चोटीधारी और जटाधारी) के कारण-

पहला जो कर्मकांड, संस्कार आदि को संपन्न कराता है वह प्राचीनकाल में चोटीधारी होता था उसके सिर पर सिर्फ चोटी ही होती थी। दूसरा वह जो धर्म, शिक्षा और दीक्षा का कार्य करता था वह दाड़ी और जटाधारी होता था। लेकिन कालांतर में समाज के यह विभाजन बदलते गए। शास्त्रों के अनुसार चोटी की लंबाई और आकार गाय के पैर के खुर के बराबर होनी आवश्यक मानी गई है जबकि वर्तमान में इसका ध्यान नहीं रखा जाता। प्राचीन काल में किसी की शिखा काट देना मृत्युदंड के समान माना जाता था।

चोटी या शिखा रखने के कारण:

वैष्णव पंथी जब मुंडन कराते हैं तो चोटी रखते हैं और शैव पंथी जब मुंडन कराते हैं तो चोटी नहीं रखते हैं। मुंडन कराने के कई मौके होते हैं। पहला जब पैदा होने के बाद जब पहली बार बाल उतारे जाते हैं, दूसरा जब परिवार आदि में कोई शांत हो जाता है तब, तीसरा विशेष तीर्थ आदि में और चौथा किसी विशेष पूजा या कर्मकांड में।

चोटी रखने के कई कारण होते हैं। बच्चे की उम्र के पहले वर्ष के अंत में या तीसरे, पांचवें या सातवें वर्ष के पूर्ण होने पर बच्चे के बाल उतारे जाते हैं और यज्ञ किया जाता है जिसे मुंडन संस्कार या चूड़ाकर्म संस्कार कहा जाता है। चोटी या शिखा रखने का संस्कार बच्चे के मुंडन और उपनयन संस्कार के समय किया जाता है। जब यज्ञोपवित धारण की जाती है तब भी मुंडन संस्कार में चोटी रखी जाती है। यज्ञोपवित कोई भी संप्रदाय का व्यक्ति धारण कर सकता है। जिस स्थान पर चोटी रखी जाती है उसे सहस्त्रार चक्र कहते हैं। उस स्थान के ठीक नीचे आत्मा का निवास होता है जिसे ब्रह्मरंध कहा गया है। चोटी रखने के बाद उसमें गठान बांधी जाती है।

सिर में सहस्रार के स्थान पर चोटी रखी जाती है अर्थात सिर के सभी बालों को काटकर बीचोबीच के स्थान के बाल को छोड़ दिया जाता है। इस स्थान के ठीक 2 से 3 इंच नीचे आत्मा का स्थान है। भौतिक विज्ञान के नुसार यह मस्तिष्क का केंद्र है। विज्ञान के अनुसार यह शरीर के अंगों, बुद्धि और मन को नियंत्रित करने का स्थान भी है। वैज्ञानिक कहते हैं कि जिस जगह पर चुटिया रखी जाती है उस जगह पर दिमाग की सारी नसें आकर मिलती हैं। हमारे ऋषियों ने सोच-समझकर चोटी रखने की प्रथा को शुरू किया था।

इस स्थान पर चोटी रखने से मस्तिष्क का संतुलन बना रहता है। शिखा रखने से इस सहस्रार चक्र को जागृत करने और शरीर, बुद्धि व मन पर नियंत्रण करने में सहायता मिलती है। धार्मिक ग्रंथों के अनुसार सहस्रार चक्र का आकार गाय के खुर के समान होता है इसीलिए चोटी का आकार भी गाय के खुर के बराबर ही रखा जाता है।

चोटी रखने का महत्व

सुश्रुत संहिता में लिखा है कि मस्तक ऊपर सिर पर जहां भी बालों का आवृत (भंवर) होता है, वहां सम्पूर्ण नाडिय़ों व संधियों का मेल होता है। इस स्थान को ‘अधिपतिमर्म’ कहा जाता है। इस स्‍थान पर चोंट लगने पर मनुष्य की तत्काल मौत हो जाती है।

सुषुम्ना के मूल स्थान को ‘मस्तुलिंग’ कहते हैं। मस्तिष्क के साथ ज्ञानेन्द्रियों-कान, नाक, जीभ, आंख आदि का संबंध है और कर्मेन्द्रियों-हाथ, पैर, गुदा, इंद्रिय आदि का संबंध मस्तुलिंगंग से है। मस्तिष्क मस्तुलिंगंग जितने सामर्थ्यवान होते हैं, उतनी ही ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेन्द्रियों की शक्ति बढ़ती है। माना जाता है कि मस्तिस्क को ठंडक की जरूरत होती है। जिसके लिए क्षौर कर्म और गोखुर के बराबर शिखा रखनी जरूरी होती है।

कुछ धार्मिक लेखों में यहां तक कहा गया है कि अगर व्यक्ति में अज्ञानता में या फैशन में आकर चोटी रखता है तो उसे फायदे से ज्यादा नुकसान हो सकता है। इसी चोटी किसी जानकार की सलाह के आधार पर ही रखना चाहिए।

शिखा या चोटी रखने का वैज्ञानिक कारण 

मानव खोपड़ी के पीछे के अंदरूनी भाग को संस्कृत में ‘मेरुशीर्ष’ और अंग्रेजी में “Medulla Oblongata” कहते हैं. इसे मनुष्य के शरीर का सबसे ज्‍यादा संवेदनशील हिस्सा माना जाता है. मेरुदंड की सब शिराएं यहीं पर मस्‍तिष्‍क से जुड़ती हैं. यह हिस्सा इतना संवेदनशील है कि मानव खोपड़ी के इस भाग का कोई ऑपरेशन नहीं हो सकता. प्राचीन परंपराओं के मुताबिक देह में ब्रह्मांडीय ऊर्जा का प्रवेश यहीं से होता है.

भू-मध्य में आज्ञा चक्र इसी का प्रतिबिम्ब है. यानी आज्ञाचक्र(दोनो भौहों के बीच का हिस्सा) के ठीक पीछे खोपड़ी का हिस्सा मेरुशीर्ष कहा जाता है. योगियों को नाद की ध्वनि भी यहीं सुनाई देती है. सिर का यह हिस्सा ग्राहक यंत्र (Receiver) का काम करता है. इसीलिए शिखा रखने की प्रथा बनाई गई. जो कि रिसीविंग एंटीना का कार्य करती है. शिखा धारण करने से यह भाग अधिक संवेदनशील हो जाता है.

योग और अध्यात्म को समझते हुए जब आधुनिक प्रयोगशालाओं में शोधकार्य किया गया तो, चोटी के विषय में बड़े ही महत्वपूर्ण ओर रोचक वैज्ञानिक तथ्य निकलकर सामने आए.

असल में जिस स्थान पर शिखा यानि कि चोटी रखने की परंपरा है, वहां पर सिर के बीचों-बीच सुषुम्ना नाड़ी का स्थान होता है. यानी आज्ञाचक्र और मेरुशीर्ष के बीच एक रेखा खींची जाए तो उसके ठीक बीच में सुषुम्ना नाड़ी का स्थान होता है. खोपड़ी के अंदर और शरीर के बीचोबीच.

शरीर विज्ञान यह सिद्ध कर चुका है कि सुषुम्‍ना नाड़ी इंसान के हर तरह के विकास में बड़ी ही महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है. शिखा रखने की परंपरा सुषुम्‍ना नाड़ी को हानिकारक प्रभावों से तो बचाती ही है, साथ में ब्रह्माण्ड से आने वाले सकारात्मक तथा आध्यात्मिक विचारों को ग्रहण भी करती है.

योगशास्त्र में भी इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना नाड़ियों की चर्चा होती है. इनमें सुषुम्ना सबसे अहम है, क्योंकि यह ज्ञान और क्रियाशीलता की नाड़ी मानी जाती है. यह मेरुदंड (स्पाईनल कॉड) से होकर मस्तिष्क तक पहुंचती है. इस नाड़ी के मस्तिष्क में मिलने के स्थान पर शिखा बांधी जाती है. शिखा बंधन मस्तिष्क की ऊर्जा तरंगों की रक्षा कर आत्मशक्ति बढ़ाता है.

जिस जगह शिखा (चोटी) रखी जाती है, यह शरीर के अंगों, बुद्धि और मन को नियंत्रित करने का स्थान भी है. शिखा, मस्तिष्क के संतुलन का भी बहुत बड़ा कारक है.

शिखा रखने से मनुष्य प्राणायाम, अष्टांगयोग आदि यौगिक क्रियाओं को ठीक-ठीक कर सकता है. शिखा रखने से मनुष्य की नेत्रज्योति सुरक्षित रहती है.

शिखा रखने से मनुष्य स्वस्थ, बलिष्ठ, तेजस्वी और दीर्घायु होता है. यजुर्वेद में शिखा को इन्द्रयोनि कहा गया है. ब्रह्मरन्ध्र ज्ञान, क्रिया और इच्छा इन तीनों शक्तियों की त्रिवेणी है. यह मस्‍तिष्‍क के अन्य भागों की अपेक्षा ब्रह्मरन्‍ध्र को अधिक ठंडा रखा जाता है. बाहर ठंडी पड़ने पर शिखा रुपी केशराशि आपके ब्रह्मरंध्र में पर्याप्त गर्मी बनाए रखती है.
ब्रह्मरन्ध्र की ऊष्णता और पीनियल ग्लेंड्स की संवेदनशीलता को बनाए रखने हेतु शिखा रखने की परंपरा स्थापित की गई है.

पूजा-पाठ के समय शिखा में गांठ लगाकर रखने से मस्तिक में संकलित ऊर्जा तरंगें बाहर नहीं निकाल पाती है. इनके अंतर्मुख हो जाने से मानसिक शक्तियों का पोषण, सद्बुद्धि, सद्विचार आदि की प्राप्ति, वासना की कमी, आत्मशक्ति में बढ़ोत्तरी, शारीरिक शक्ति का संचार, अवसाद से बचाव, अनिष्टकर प्रभावों से रक्षा, सुरक्षित नेत्र ज्योति, कार्यों में सफलता तथा सद्गति जैसे लाभ भी मिलते हैं.

संध्या विधि में संध्या से पूर्व गायत्री मन्त्र के साथ शिखा बंधन का विधान है। इसके पीछे एक संकल्प और प्रार्थना है। किसी भी साधना से पूर्व शिखा बंधन गायत्री मन्त्र के साथ होता है, यह एक सनातन परम्परा है.

मन्त्र उच्‍चारण और अनुष्‍ठान के समय शिखा को गांठ मारने का विधान है. इसका कारण यह है कि गांठ मारने से मन्त्र स्पंदन द्वारा उत्पन्न होने वाली उर्जा शरीर में ही एकत्रित होती है और शिखा की वजह से यह उर्जा बाहर जाने से रुक जाती है. जिससे हमें मन्त्र और जप का सम्पूर्ण लाभ प्राप्त होता है.

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