श्री ब्रह्म स्तोत्रम् | Sri Brahma Stotram

1

भागवत पुराण माया के सृजन को भी ब्रह्मा का काम बताता है। इसका सृजन उन्होंने केवल सृजन करने की खातिर किया। माया से सब कुछ अच्छाई और बुराई, पदार्थ और आध्यात्म, आरंभ और अंत से रंग गया। पुराण समय बनाने वाले देवता के रूप में ब्रह्मा का वर्णन करते हैं। वे मानव समय की ब्रह्मा के समय के साथ तुलना करते हैं। वे कहते हैं कि महाकल्प (जो कि एक बहुत बड़ी ब्रह्मांडीय अवधि है) ब्रह्मा के एक दिन और एक रात के बराबर है। पौराणिक और तांत्रिक साहित्य ब्रह्मा के रजस गुण वाले देव के वैदिक विचार को आगे बढ़ाता है। यह कहता है कि उनकी पत्नी सरस्वती में सत्त्व (संतुलन, सामंजस्य, अच्छाई, पवित्रता, समग्रता, रचनात्मकता, सकारात्मकता, शांतिपूर्णता, नेकता गुण) है। इस प्रकार वे ब्रह्मा के रजस (उत्साह, सक्रियता, न अच्छाई न बुराई पर कभी-कभी दोनों में से कोई एक, कर्मप्रधानता, व्यक्तिवाद, प्रेरित, गतिशीलता गुण) को अनुपूरण करती हैं। ब्रह्मस्तोत्रम् का नित्य पाठ करने से व्यक्ति जीवन में आगे तो बढ़ता ही है साथ में उनके जीवन में विद्या,बुद्धि भी आता है।

ब्रह्मस्तोत्रम्

कल्पान्ते कालसृष्टेन योऽन्धेन तमसावृतम् ।

अभिव्यनक्जगदिदं स्वयं ज्योतिः स्वरोचिषा ॥ १॥

कल्प के अन्त में कालजनित घोर अन्धकार से यह जगत् आवृत्त या, उसको जिस स्वयं प्रकाश ने अपने तेज से प्रकट किया है ॥ १॥

आत्मना त्रिवृता चेदं सृजत्यवति लुम्पति ।

रजः सत्त्वतमोधाम्ने पराय महते नमः ॥ २॥

जो अपने तीन रूप से जगत् की उत्पत्ति, रक्षा और संहार करता है, जो सत्त्व, रज और तम इन तीनों गुणों का आधार है ऐसे श्रेष्ठ महान् (ब्रह्म) को मेरा नमस्कार है ॥ २॥

नम आद्याय बीजाय ज्ञानविज्ञानमूर्तये ।

प्राणेन्द्रियमनोबुद्धिविकारैर्व्यक्तिमीयुषे ॥ ३॥

प्राण इन्द्रियां, मन, बुद्धि और विकारों से जो व्यक्तित्व को प्राप्त होता है; ऐसे सबके आदि और सबके कारण रूप

ज्ञान विज्ञान की मूर्ति को मेरा नमस्कार है ॥ ३॥

त्वमीशिषे जगतस्तस्थुषश्च प्राणेन मुख्येन पतिः प्रजानाम् ।

चित्तस्य चित्तेर्मनः इन्द्रियाणां पतिर्महान्भूत गुणाशयेशः ॥ ४॥

जगत् की स्थिति में तुम उसका नियमन करते हो, मुख्य प्राण द्वारा तुम प्रजा के पति हो, इन्द्रियां, मन, बुद्धि और चित्त के स्वामी हो और प्राणियों के अन्तःकरण के नियन्ता तुम ही हो ॥ ४॥

त्वं सप्ततन्तून्वितनोपि तन्वा त्रय्या चतुर्होत्रकविद्यया च ।

त्वमेक आत्मात्मवतामनादि-रनन्तपारः कविरन्तरात्मा ॥ ५॥

तुम ही (विराट्, हिरण्यगर्भ आर ईश्वर) इन तीनों शरीरों द्वारा और अन्तःकरण चतुष्टय की क्रिया द्वारा सातों लोक का विस्तार करते हो; तुम अद्वैत हो, जीवधारियों के तुम आत्मा हो, अनादि, अनन्त और पारावार रहित हो, तुम द्वी उत्पत्ति कर्ता और अन्तरात्मा (रूप से पालन-कर्ता) हो ॥ ५॥

त्वमेव कालोऽनिमिषो जनाना-मायुर्लवाद्यावयवैः क्षिणोषि ।

कूटस्थ आत्मा परमेष्ठ्यजोमहां-स्त्वं जीवलोकस्य च जीव आत्मा ॥ ६॥

सर्वदा जागृत रहकर घटिका, पल आदि अवयवों से तू ही जीवों के और लोकों के आयुष्य को क्षीण करता है; तू कूटस्थ आत्मा है परमेष्ठी प्रजापति तू ही है और तू ही चराचर जीवों का महान आत्मा है ॥ ६॥

त्वत्तः परं नापरमप्यनेज-देजच्च किञ्चिद्व्यतिरिक्तमस्ति ।

विद्याः कलास्ते तनवश्च सर्वा हिरण्यगर्भोऽसि बृहत् त्रिपृष्ठः ॥ ७॥

तुझसे पर और अपर कुछ भी नहीं और चराचर कुछ भी तुझसे भिन्न नहीं है । ये सब विद्या और कला तेरे ही शरीर हैं और तीनों लोकों के धारण करने वाला महान् हिरण्य-गर्भ तू ही है ॥ ७॥

व्यक्तं विभो स्थूलमिदं शरीरं येनेन्द्रियप्राणमनोगुणांस्त्वम् ।

भुङ्क्षे स्थितो धामनि पारमेष्ठ्य-अव्यक्त आत्मा पुरुषः पुराणः ॥ ८॥

हे विभो, जिस अव्यक्त रूप से यह स्थूल शरीर, इन्द्रियां,प्राण मन और गुण व्यक्त होते हैं और अपने परम धाम में रहकर जिससे भोग भोगता है वह अव्यक्त पुराण पुरुष आत्मा तू ही है ॥ ८॥

अनन्ताव्यक्त रूपेण येनेदमखिलं ततम् ।

चिदचिच्छक्तियुक्ताय तस्मै भगवते नमः ॥ ९॥

जिसने अपने अपार अव्यक्तरूप से यह सब जगत् व्याप्त किया है उस चित् अचित् शक्तिमय भगवान् को मेरा नमस्कार है ॥ ९॥

इति ब्रह्मस्तोत्रं समाप्तम् ।

1 thought on “श्री ब्रह्म स्तोत्रम् | Sri Brahma Stotram

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *