थकी दुपहरी – गिरिजा कुमार माथुर
थकी दुपहरी में पीपल पर काग बोलता शून्य स्वरों में फूल आखिरी ये बसंत के गिरे ग्रीष्म के ऊष्म करों...
थकी दुपहरी में पीपल पर काग बोलता शून्य स्वरों में फूल आखिरी ये बसंत के गिरे ग्रीष्म के ऊष्म करों...
हर पल के गुंजन की स्वर–लय–ताल तुम्हीं थे, इतना अधिक मौन धारे हो, डर लगता है! तुम, कि नवल–गति अंतर...
जिन्दगी से बड़ी सज़ा ही नहीं और क्या जुर्म है पता ही नहीं इतने हिस्सों में बँट गया हूँ मैं...
जबसे हुई सयानी बिटिया भूली राजा-रानी बिटिया बाज़ारों में आते-जाते होती पानी-पानी बिटिया जाना तुझे पराये घर को मत कर...
धरती से सीखा है हमने सबका बोझ उठाना और गगन से सीखा हमने ऊपर उठते जाना सूरज की लाली से...
आया वसंत आया वसंत छाई जग में शोभा अनंत सरसों खेतों में उठी फूल बौरें आमों में उठीं झूल बेलों...
अगर कहीं मैं घोड़ा होता वह भी लंबा चौड़ा होता तुम्हें पीठ पर बैठा कर के बहुत तेज मैं दौड़ा...
अगर पेड भी चलते होते कितने मजे हमारे होते बांध तने में उसके रस्सी चाहे जहाँ कहीं ले जाते जहाँ...
न हाथ एक शस्त्र हो, न हाथ एक अस्त्र हो, न अन्न वीर वस्त्र हो, हटो नहीं, डरो नहीं, बढ़े...
देखो लड़को, बंदर आया। एक मदारी उसको लाया॥ कुछ है उसका ढंग निराला। कानों में है उसके बाला॥ फटे पुराने...
हंसमुख रहना बड़ी बात है असफलता पर रोना–धोना केवल समय कीमती खोना काँटों में भी खिलने वाले फूलों जैसे हमको...
क्या कहने हैं सूरज भाई अच्छी खूब दुकान सजाई और दिनों की तरह आज भी जमा दिया है खूब अखाड़ा...