वैराग्य शतकम् || Vairagya Shatakam

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भर्तृहरि द्वारा विरचित निम्नलिखित तीन ग्रन्थों को सम्मिलित रूप से शतकत्रय कहते हैं। दक्षिण भारत में ‘सुभाषित त्रिशति’ भी कहते हैं। वैराग्यशतकम्, शृंगारशतकम् व नीतिशतकम् । वैराग्यशतकम् भर्तृहरि के तीन प्रसिद्ध शतकों (शतकत्रय) में से एक है। इसमें वैराग्य सम्बन्धी सौ श्लोक हैं।

वैराग्य शतकम् भर्तृहरिविरचितम्

मंगलाचरणम्

दिक्कालाद्यनवच्छिन्नाऽनन्तचिन्मात्रमूर्त्तये ।

स्वानुभूत्येकमानाय नमः शान्ताय तेजसे ।। १ ।।

अर्थ:जो दशों दिशाओं और तीनो कालों में परिपूर्ण है, जो अनन्त है, जो चैतन्य स्वरुप है, जो अपने ही अनुभव से जाना जा सकता है, जो शान्त और तेजोमय है, ऐसे ब्रह्मरूप परमात्मा को मैं नमस्कार करता हूँ ।

बोद्धारो मत्सरग्रस्ताः प्रभवः स्मयदूषिताः।

अबोधोपहताश्चान्ये जीर्णमंगे सुभाषितम्।। २ ।।

अर्थ:जो विद्वान् हैं, वे इर्षा से भरे हुए हैं; जो धनवान हैं, उनको उनके धन का गर्व है; इनके सिवा जो और लोग हैं, वे अज्ञानी हैं; इसलिए विद्वत्तापूर्ण विचार, सुन्दर सुन्दर सारगर्भित निबन्ध या उत्तम काव्य शरीर में ही नाश हो जाते हैं ।

न संसारोत्पन्नं चरितमनुपश्यामि कुशलं विपाकः पुण्यानां जनयति भयं मे विमृशतः ।

महद्भिः पुण्यौघैश्चिरपरिगृहीताश्च विषया महान्तो जायन्ते व्यसनमिव दातुं विषयिणाम् ।। ३ ।।

अर्थ:मुझे संसारी कामों में जरा सुख नहीं दीखता । मेरी राय में तो पुण्यफल भी भयदायक ही हैं । इसके सिवा, बहुत से अच्छे अच्छे पुण्यकर्म करने से जो विषय-सुख के सामान प्राप्त किये और चिरकाल तक भोगे गए हैं, वे भी विषय सुख चाहनेवालो का, अन्त समय में दुखों के ही कारण होते हैं ।

उत्खातं निधिशंकया क्षितितलं ध्माता गिरेर्धातवो

निस्तीर्णः सरितां पतिर्नृपतयो यत्नेन संतोषिताः ।

मन्त्राराधनतत्परेण मनसा नीताः श्मशाने निशाः

प्राप्तः काणवराटको‌ऽपि न मया तृष्णेऽधुना मुञ्चमाम् ।। ४ ।।

अर्थ: धन मिलने की उम्मीद से मैंने जमीन के पैंदे तक खोद डाले; अनेक प्रकार की पर्वतीय धातुएं फूंक डाली; मोतियों के लिए समुद्र की भी थाह ले आया; राजाओं को भी राजी रखने में कोई बात उठा न राखी; मन्त्रसिद्धि के लिए रात रात भर श्मसान एकाग्रचित्त से बैठा हुआ जप करता रहा; पर अफ़सोस की बात है, कि इतनी आफ़ते उठाने पर भी एक कानि कौड़ी न मिली । इसलिए हे तृष्णे ! अब तो तू मेरा पीछा छोड़ ।

भ्रान्तं देशमनेकदुर्गविषम् प्राप्तं न किञ्चित्फलम्

त्यक्त्वा जातिकुलाभिमानमुचितं सेवा कृता निष्फला ।

भुक्तं मानविवर्जितम परगृहेष्वाशङ्कया काकव-

त्तृष्णे दुर्मतिपापकर्मनिरते नाद्यापि संतुष्यसि ।। ५ ।।

अर्थ: मैं अनेक कठिन और दुर्गम स्थानों में डोलता फिरा, पर कुछ भी नतीजा न निकला । मैंने अपनी जाति और कुल का अभिमान त्यागकर, पराई चाकरी भी की; पर उससे भी कुछ न मिला । शेष में, मैं कव्वे की तरह डरता हुआ और अपमान सहता हुआ पराये घरों के टुकड़े भी खाता फिरा । हे पाप-कर्म करने वाली और कुमतिदायिनी तृष्णे ! क्या तुझे इतने पर भी सन्तोष नहीं हुआ ?

खलोल्लापाः सोढाः कथमपि तदाराधनपरै:

निगृह्यान्तर्वास्यं हसितमपिशून्येन मनसा ।

कृतश्चित्तस्तम्भः प्रहसितधियामञ्जलिरपि

त्वमाशे मोघाशे किमपरमतो नर्त्तयसि माम् ।। ६ ।।

अर्थ: मैंने दुष्टों की सेवा करते हुए उनकी तानेजानि और ठट्ठेबाज़ी सही, भीतर से, दुःख से आये हुए आंसू रोके और उद्विग्न चित्त से उनके सामने हँसता रहा । उन हंसने वालों के सामने, चित्त को स्थिर करके, हाथ भी जोड़े । हे झूठी आशा ! क्या अभी और भी नाच नचाएगी ?

आदित्यस्य गतागतैरहरहः संक्षीयते जीवितम्

व्यापारैर्बहुकार्यभारगुरुभिः कालो न विज्ञायते ।

दृष्ट्वा जन्मजराविपत्तिमरणं त्रासश्च नोत्पद्यते

पीत्वा मोहमयीं प्रमादमदिरामुन्मत्तभूतं जगत् ।। ७ ।।

अर्थ: सूर्य के उदय और अस्त के साथ मनुष्यों की ज़िन्दगी रोज़ घटती जाती है । समय भागा जाता है, पर कारोबार में मशगूल रहने के कारण वह भागता हुआ नहीं दीखता । लोगों को पैदा होते, बूढ़े होते, विपत्ति ग्रसित होते और मरते देखकर भी उनमें भय नहीं होता । इससे मालूम होता है कि मोहमाया, प्रमादरूपी मदिरा के नशे में संसार मतवाला हो रहा है ।

दीना दीनमुखैः सदैव शिशुकैराकृष्टजीर्णाम्बरा

क्रोशद्भिः क्षुधितैर्नरैर्न विधुरा दृश्या न चेद्गेहिनी ।

याच्ञाभङ्गभयेन गद्गदगलत्रुट्यद्विलीनाक्षरं

को देहीति वदेत् स्वदग्धजठरस्यार्थे मनस्वी जनाः ।। ८ ।।

अर्थ: स्त्री के फटे हुए कपड़ों को दीनातिदीन बालक खींचते हैं, घर के और मनुष्य भूख के मारे उसके सामने रोते हैं – इससे स्त्री अतीव दुखित है । ऐसी दुखिनी स्त्री अगर घर में न होती तो कौन धीर पुरुष, जिसका गला मांगने के अपमान और इन्कारी के भय से रुका आता है, अस्पष्ट भाषा या टूटे-फूटे शब्दों में, गिड़गिड़ा कर “कुछ दीजिये” इन शब्दों को, अपने पेट की ज्वाला शान्त करने के लिए, कहता?

निवृता भोगेच्छा पुरुषबहुमानो विगलितः

समानाः स्वेर्याताः सपदि सुहृदो जीवितसमाः ।

शनैर्यष्टयोत्थानम घनतिमिररुद्धे च नयने

अहो धृष्टः कायस्तदपि मरणापायचकितः ।। ९ ।।

अर्थ: बुढ़ापे के मारे भोगने की इच्छा नहीं रही; मान भी घट गया; हमारी बराबर वाले चल बसे; जो घनिष्ट मित्र रह गए हैं, वे भी निकम्मे या हम जैसे हो गए हैं । अब हम बिना लकड़ी के उठ भी नहीं सकते और आँखों में अँधेरी छा गयी है । इतना सब होने पर भी, हमारी काया कैसी बेहया है, जो अपने मरने की बात सुनकर चौंक उठती है ?

हिंसाशून्यमयत्नलभ्यमशनं धात्रामरुत्कल्पितं

व्यालानां पशवः तृणांकुरभुजः सृष्टाः स्थलीशायिनः ।

संसारार्णवलंघनक्षमधियां वृत्तिः कृता सा नृणां

यामन्वेषयतां प्रयांति संततं सर्वे समाप्ति गुणाः ।। १० ।।

अर्थ: विधाता ने हिंसारहित, बिना उद्योग के मिलने वाली हवा का भोजन साँपों की जीविका बनाई, पशुओं को घास खाना और जमीन पर सोना बताया; किन्तु जो मनुष्य अपनी बुद्धि के बल से भवसागर के पार हो सकते हैं, उनकी जीविका ऐसी बनाई कि जिसकी खोज में उनके सारे गुणों की समाप्ति हो जाये, पर वह न मिले ।

न ध्यातं पदमीश्वरस्य विधिवत्संसारविच्छित्तये

स्वर्गद्वारकपाटपाटनपटुर्धर्मोऽपि नोपार्जितः ।

नारीपीनपयोधरोरुयुगलं स्वप्नेऽपि नालिङ्गितं

मातुः केवलमेव यौवनवनच्छेदे कुठारा वयम् ।। ११ ।।

अर्थ: हमने संसार बन्धन के काटने के लिए, यथाविधि, ईश्वर के चरणों का ध्यान नहीं किया; हमने स्वर्ग के दरवाजे खुलवाने वाले धर्म का सञ्चय भी नहीं किया और हमने स्वप्न में भी कठोर कूचों का आलिङ्गन नहीं किया । हम तो अपनी माँ के यौवन रुपी वन के काटने के लिए कुल्हाड़े ही हुए ।

भोगा न भुक्ता वयमेव भुक्तास्तपो न तप्तं वयमेव तप्ताः ।

कालो न यातो वयमेव यातास्तृष्णा न जीर्णा वयमेव जीर्णाः ।। १२ ।।

अर्थ: विषयों को हमने नहीं भोगा, किन्तु विषयों ने हमारा ही भुगतान कर दिया; हमने तप को नहीं तपा किन्तु तप ने हमें ही तपा डाला; काल का खात्मा न हुआ, किन्तु हमारा ही खात्मा हो चला । तृष्णा का बुढ़ापा न आया, किन्तु हमारा ही बुढ़ापा आ गया ।

क्षान्तम् न क्षमया ग्रहोचितसुखं त्यक्तं न सन्तोषतः

सोढा दुःसहशीतवाततपनक्लेशा न तप्तम् तपः।

ध्यातं वित्तमहर्निशं नियमितप्राणैर्न शम्भोः पदम्

तत्तत्कर्म कृतम्य यदेव मुनिभिस्तैस्तैः फलैर्वचितम् ।। १३ ।।

अर्थ: क्षमा तो हमने की, परन्तु धर्म के ख्याल से नहीं की । हमने घर के सुख चैन तो छोड़े पर सन्तोष से नहीं छोड़े । हमने सर्दी-गर्मी और हवा के न सह सकने योग्य दुःख तो सही; किन्तु ये सब दुःख हमने तप की गरज से नहीं, किन्तु दरिद्रता के कारन सही । हम दिन रात ध्यान में लगे तो रहे, पर धन के ध्यान में लगे रहे – हमने प्राणायाम क्रिया द्वारा शम्भू के चरणों का ध्यान नहीं किया । हमने काम तो सब मुनियों के से किये, परन्तु उनकी तरह फल हमें नहीं मिले ।

वलीभिर्मुखमाक्रान्तं पलितैरङ्कितं शिरः।

गात्राणि शिथिलायन्ते तृष्णैका तरुणायते।। १४ ।।

अर्थ: चेहरे पर झुर्रियां पड़ गयी, सर के बाल पककर सफ़ेद हो गए, सारे अंग ढीले हो गए – पर तृष्णा तो तरुण होती जाती है ।

येनैवाम्बरखण्डेन संवीतो निशि चन्द्रमाः।

तेनैव च दिवा भानु्रहो दौर्गत्यमेतयो:।। १५ ।।

अर्थ: आकाश के जिस टुकड़े को ओढ़कर चन्द्रमा रात बिताता है, उसी को ओढ़कर सूर्य दिन बिताता है । इन दोनों की कैसी दुर्गति होती है !

अवश्यं यातारश्चिरतरमुषित्वाऽपि विषया

वियोगे को भेदस्त्यजति न जनो यत्स्वयममून् ।

व्रजन्तः स्वातन्त्र्यादतुलपरितापाय मनसः

स्वयं त्यक्त्वा ह्येते शमसुखमनन्तं विदधति ।। १६ ।।

अर्थ: विषयों को हम चाहें कितने दिन तक क्यों न भोगें, एक दिन वे निश्चय ही हम से अलग हो जायेंगे; तब मनुष्य उन्हें स्वयं अपनी इच्छा से ही क्यों न छोड़ दे? इस जुदाई में क्या फर्क है ? अगर वह न छोड़ेगा तो, वे छोड़ देंगे । जब वे स्वयं मनुष्य को छोड़ेंगे, तब उसे बड़ा दुःख और मनःक्लेश होगा । अगर मनुष्य उन्हें स्वयं छोड़ देगा, तो उसे अनन्त सुख और शान्ति प्राप्त होगी ।

विवेकव्याकोशे विदधति शमे शाम्यति तृषा-

परिष्वङ्गे तुङ्गे प्रसरतितरां सा परिणतिः।

जराजीर्णैश्वर्यग्रसनगहनाक्षेपकृपणस्तृषापात्रं

यस्यां भवति मरुतामप्यधिपतिः ।। १७ ।।

अर्थ: जब ज्ञान का उदय होता है, तब शान्ति की प्राप्ति होती है । शान्ति की प्राप्ति से तृष्णा शान्त होती जाती है, किन्तु वही तृष्णा विषयों के संसर्ग से बेहद बढ़ जाती है । मतलब यह है, कि विषयों से तृष्णा कभी शान्त नहीं हो सकती । सुन्दरी के कठोर कूचों पर हाथ लगाने से काम-मद बढ़ता है, घटता नहीं । जराजीर्ण ऐश्वर्य को देवराज इन्द्र भी नहीं त्याग सकते ।

कृशः काणः खञ्जः श्रवणरहितः पुच्छविकलो

ब्रणी पूयल्किन्नः कृमिकुलशतैरावृततनुः ।

क्षुधाक्षामो जीर्णः पिठरजककपालार्पितगलः

शुनीमन्वेति श्वा हतमपि च हन्त्येव मदनः।। १८ ।।

अर्थ: दुबला काना और लंगड़ा कुत्ता, जिसके कान और पूँछ नहीं हैं, जिसके जख्मों में राध बह रही है, जिसके शरीर में कीड़े बिलबिला रहे हैं, जो भूखा और बूढा है, जिसके गले में हांडी का घेरा पड़ा है – कुतिया के पीछे पीछे दौड़ता है । कामदेव मरे हुए को भी मारता है ।

भिक्षासनं तदपि नीरसमेकवारं

शय्या च भूः परिजनो निजदेहमात्रं।

वस्त्रं च जीर्णशतखण्डसलीनकन्था

हा हा तथाऽपि विषया न परित्यजन्ति।। १९ ।।

अर्थ: वह मनुष्य जो भीख मांगकर दिन में एक समय ही नीरस अलौना अन्न खाता है, धरती पर सो रहता है, जिसका शरीर ही उसका कुटुम्बी है जो सौ थेगलियों(चीथड़ों) की गुदड़ी ओढ़ता है, आश्चर्य है कि, ऐसे मनुष्य को विषय नहीं छोड़ते !

स्तनौ मांसग्रन्थि कनकलशावित्युपमितौ

मुखं श्लेष्मागारं तदपि च शशाङ्केन तुलितम ।।

स्रबन्मूत्रक्लिन्नम् करिवरकरस्पर्द्धि जघन-

महो निन्द्यम रूपं कविजन विशेषैर्गुरु कृतं ।। २० ।।

अर्थ: स्त्रियों के स्तन, मांस के लौंदे हैं, पर कवियों ने उन्हें सोने के कलशों की उपमा दी है । स्त्रियों का मुंह कफ का घर है, पर कवी उसे चन्द्रमा के समान बताते हैं और उनकी जांघो को, जिनमे पेशाब प्रभृति बहते रहते हैं, श्रेष्ठ हाथी की सूंड के समान कहते हैं । स्त्रियों का रूप घृणा योग्य है, पर कवियों ने उसकी कैसी तारीफ की है ।

वैराग्य शतकम्

आजानन्माहात्म्यं पततु शलभो दीपदहने

स मीनोऽप्यज्ञानाद्वडिशयुतमश्नातु पिशितम् ।

विजानन्तोऽप्येतान्वयमिह विपज्जालजटिलान्

न मुञ्चामः कामानहह गहनो मोहमहिमा ॥ २१॥

अर्थ:अज्ञानवश, पतङ्ग दीप की लौ पर गिरकर अपने तई भस्म कर लेता है; क्योंकि वह उसके परिणाम को नहीं जानता; इसी तरह मछली भी कांटे के मांस पर मुंह चलकर अपने प्राण खोती है, क्योंकि वह उससे अपने प्राण-नाश की बात नहीं जानती । परन्तु हम लोग तो अच्छी तरह जानबूझकर भी विपद मूलक विषयों की अभिलाषा नहीं त्यागते । मोह की महिमा कैसी विस्मयकर है ।

फलमलमशनाये स्वादुपानाय तोयं

शयनमवनिपृष्ठे वल्कले वाससी च।

नवधनमधुपानभ्रान्तसर्वेन्द्रियाणा-

मविनयमनुमन्तुं नोत्सहे दुर्जनानाम् ।। २२ ।।

अर्थ: खाने के लिए फलों की इफरात है, पीने के लिए मीठा जल है, पहनने के लिए वृक्षों की छाल है; फिर हम धनमद से मतवाले दुष्टों की बातें क्यों सहें ?

विपुलहृदयैर्धन्यैः कैश्चिज्जगज्जनितं पुरा

विधृतमपरैर्दत्तं चान्यैर्विजित्य तृणं यथा ।

इह हि भुवनान्यन्ये धीराश्चतुर्दश भुञ्जते

कतिपयपुरस्वाम्ये पुंसां क एष मदज्वरः ।। २३ ।।

अर्थ: कोई तो ऐसे बड़े दिलवाले लोग हुए, जिन्होंने इस प्राचीनकाल में इस जगत की रचना की; कुछ ऐसे हुए जिन्होंने इस जगत को अपनी भुजाओं पर धारण किया; कुछ ऐसे हुए जिन्होंने समग्र पृथ्वी जीती और फिर तुच्छ समझकर दूसरों को दान कर दी; और कुछ ऐसे भी हैं जो चौदह भुवन का पालन करते हैं । जो लोग थोड़े से गावों के मालिक होकर, अभिमान के ज्वर से मतवाले हो जाते हैं, उनके समबन्ध में हम क्या कहें?

त्वं राजा वयमप्युपासितगुरुप्रज्ञाभिमानोन्नताः

ख्यातस्त्वं विभवैर्यशांसि कवयो दिक्षु प्रतन्वन्ति नः ।

इत्थं मानद नातिदूरमुभयोरप्यावयोरन्तरं यद्यस्मासु

पराङ्मुखोऽसिवयमप्येकान्ततो निःस्पृहाः।। २४ ।।

अर्थ: अगर तू राजा है, तो हम भी गुरु की सेवा से सीखी हुई विद्या के अभिमान से बड़े हैं। अगर तू अपने धन और वैभव के लिए प्रसिद्ध है, तो कवियों ने हमारी विद्या की कीर्ति भी चारों और फैला रखी हैं । हे मानभञ्जन करने वाले, तुझमें और हममें ज्यादा फर्क नहीं है । अगर तू हमारी ओर नहीं देखता, तो हमें भी तेरी परवा नहीं है ।

अभुक्तयां यस्यां क्षणमपि न यातं नृपशतै-

र्भुवस्तस्या लाभे क इव बहुमानः क्षितिभुजाम्।

तदंशस्याप्यंशे तदवयवलेशेऽपि पतयो

विषादे कर्तव्ये विदधति जडाः प्रत्युत मुदम।। २५ ।।

अर्थ: सैकड़ों हज़ारों राजा इस पृथ्वी को अपनी अपनी कहकर चले गए, पर यह किसी की भी न हुई; तब राजा लोग इसके स्वामी होने का घमंड क्यों करते हैं ? दुःख की बात है, कि छोटे छोटे राजा छोटे से छोटे टुकड़े के मालिक होकर अभिमान के मारे फूले नहीं समाते ! जिस बात से दुःख होना चाहिए, मूर्ख उससे उलटे खुश होते हैं ।

न नटा न विटा न गायना न परद्रोहनिबद्धबुद्धयः।

नृपसद्मनि नाम के वयं स्तनभारानमिता न योषितः।। २७ ।।

अर्थ: न तो हम नट या बाज़ीगर हैं, न हम नचैये-गवैये हैं, न हमको चुगलखोरी आती है, न हमें दूसरों की बर्बादी की बन्दिशें बांधनी आती हैं और न हम स्तनभारावनत स्त्रियां ही हैं; फिर हमारी पूछ राजाओं के यहाँ क्यों होने लगी? हममें इनमें से एक भी बात नहीं, फिर हमारा प्रवेश राजसभा में कैसे हो सकता है ? वहां तो उनकी पूछ है – उन्ही का आदर है – जो उनकी विषय-वासनाएं पूरी करते हैं।

पुरा विद्वत्तासीऽदुपशमवतां क्लेशहतये

गता कालेनासौ विषयसुखसिद्धयै विषयिणाम् ।

इदानीं तु प्रेक्ष्य क्षितितलभुजः शास्त्रविमुखा

नहो कष्टं साऽपि प्रतिदिनमधोऽधः प्रविशति ।। २८ ।।

अर्थ: पहले समयों में, विद्या केवल उन लोगों के लिए थी, जो मानसिक क्लेशों से छुटकारा पाकर चित्त की शान्ति चाहते थे । इसके बाद विषय सुख चाहने वालों के काम की हुई । अब तो राजा लोग शास्त्रों को सुनना ही नहीं चाहते; वे उससे पराङ्गमुख हो गए हैं; इसलिए वह दिन-ब-दिन रसातल को चली जाती है । यह बड़े ही दुःख की बात है।

स जातः कोऽप्यासीन्मदनरिपुणा मूर्ध्नि धवलं

कपालं यस्योच्चैर्विनिहितमलंकारविधये ।

नृभिः प्राणत्राणप्रवणमतिभिः कैश्चिदधुना

नमद्भिः कः पुंसामयमतुलदर्पज्वरभरः ।। २९ ।।

अर्थ: प्राचीन काल में ऐसे पुरुष हुए हैं, जिनकी खोपड़ियों कि माला बनाकर स्वयं शिव ने श्रृंगार के लिए अपने गले में पहनी । अब ऐसे लोग हैं, जो अपनी जीविका-निर्वाह के लिए सलाम करने वालों से ही प्रतिष्ठा पाकर, अभिमान के ज्वर (मद) से गरम हो रहे हैं ।

अर्थानामीशिषे त्वं वयमपि च गिरामीश्महे यावदित्थं

शूरस्त्वं वादिदर्पज्वरशमनविधावक्षयं पाटवं नः।

सेवन्ते त्वां धनान्धा मतिमलहतये मामपि श्रोतुकामा

मय्यप्यास्था न ते चेत्त्वयि मम सुतरामेष राजन्गतोऽस्मि ।। ३० ।।

अर्थ: यदि तुम धन के स्वामी हो तो हम वाणी के स्वामी हैं। यदि तुम युद्ध करने में वीर हो तो हम अपने प्रतिपक्षियों से शास्त्रार्थ करके उनका मद-ज्वर तोड़ने में कुशल हैं । यदि तुम्हारी सेवा धन-कामी या धनान्ध करते हैं, तो हमारी सेवा अज्ञान-अंधकार का नाश चाहनेवाले, शास्त्र सुनने के लिए करते हैं । यदि तुम्हें हमारी ज़रा भी गरज़ नहीं है, तो हमें भी तुम्हारी बिलकुल गरज़ नहीं है । लो, हम भी चलते हैं ।

यदा किञ्चिज्झोऽहं द्विप इव मदान्धः समभवं

तदा सर्वज्ञोऽस्मीत्यभवदवलिप्तं मम मनः।

यदा किंचित्किञ्चिद्बुधजनसकाशादवगतं

तदा मूर्खोऽस्मीति ज्वर इव मदो मे व्यपगतः।। ३१ ।।

अर्थ: जब मैं थोड़ा जानता था, तब हाथी के समान मद से अन्धा हो रहा था; मैं समझता था कि मैं सर्वज्ञ हूँ । जब मुझे बुद्धिमानो की सुहबत से कुछ मालूम हुआ; तब मैंने समझा, कि मैं तो कुछ भी नहीं जानता । मेरा झूठा मद, ज्वर की तरह उतर गया।

अतिक्रान्तः कालो लटभललनाभोगसुभगो

भ्रमन्तः श्रान्ताः स्मः सुचिरमिह संसारसरणौ।।

इदानीं स्वः सिन्धोस्तटभुवि समाक्रन्दनगिरः

सुतारैः फुत्कारैः शिवशिवशिवेति प्रतनुमः।। ३२ ।।

अर्थ: ज़ेवरों से लदी हुई स्त्रियों के भोगने-योग्य जवानी चली गयी; और हम चिरकाल तक विषयों के पीछे दौड़ते-दौड़ते थक भी गए । अब हम पवित्र जाह्नवी तट पर, (ललचाने वाली स्त्रियों) की निन्दा करते हुए, शिव-शिव जपेंगे।

माने म्लायिनि खण्डिते च वसुनि व्यर्थे प्रयातेऽर्थिनि

क्षीणे बन्धुजने गते परिजने नष्टे शनैर्यौवने ।

युक्तं केवलमेतदेव सुधियां यज्जह्नुकन्यापयः-

पूतग्रावगिरीन्द्रकन्दरतटीकुञ्जे निवासः क्वचित् ।। ३३ ।।

अर्थ: जब लोगों में इज़्ज़त आबरू न रहे; धन नाश हो जाये; याचक लौट लौट कर जाने लगें; भाई-बन्धु, स्त्री-पुत्र और नाते-रिश्तेदार मर जाएं; तब बुद्धिमान को चाहिए कि किसी ऐसे पर्वत की गुहा के कोने में जा बसे, जिसके पत्थर गंगा जी के जल से पवित्र हो रहे हों ।

परेषां चेतांसि प्रतिदिवसमाराध्य बहुधा

प्रसादं किं नेतुं विशसि हृदयक्लेशकलितम् ।

प्रसन्ने त्वय्यन्तः स्वयमुदितचिन्तामणि गुणे

विमुक्तः संकल्पः किमभिलषितं पुष्यति न ते ।। ३४ ।।

अर्थ: हे मलिन मन ! तू पराये दिलों को प्रसन्न करने में किसलिए लगा रहता है ? यदि तू तृष्णा को छोड़कर संतोष कर ले, अपने में ही संतुष्ट रहे, तो तू स्वयं चिंतामणि स्वरुप हो जाये। फिर तेरी कौन सी इच्छा पूरी न हो?

भोगे रोगभयं कुले च्युतिभयं वित्ते नृपालाद्भयं

मौने दैन्यभयं बले रिपुभयं रूपे जराया: भयम् ।

शास्त्रे वादिभयं गुणे खलभयं काये कृतान्ताद्भयं

सर्वं वस्तु भयान्वितं भुवि नृणां वैराग्यमेवाभयम्।। ३५ ।।

अर्थ: विषयों के भोगने में रोगों का डर है, कुल में दोष होने का डर है, धन में राज का भय है, चुप रहने में दीनता का भय है, बल में शत्रुओं का भय है, सौंदर्य में बुढ़ापे का भय है, शास्त्रों में विपक्षियों के वाद का भय है, गुणों में दुष्टों का भय है, शरीर में मौत का भय है; संसार की सभी चीज़ों में मनुष्यों को भय है। केवल “वैराग्य” में किसी प्रकार का भय नहीं है ।

अमीषां प्राणानां तुलितबिसिनीपत्रपयसां

कृते किं नास्माभिर्विगलितविवेकैर्व्यवसितम्।

यदाढ्यानामग्रे द्रविणमदनिःसंज्ञमनसां

कृतं वीतव्रीडैर्निजगुणकथापातकमपि।। ३६ ।।

अर्थ: कमल-पत्र पर जल की बूंदों के समान चञ्चल प्राणो के लिए; हमने बुरे और भले का विचार न करके, क्या क्या काम नहीं किये? हम धन-मद से मतवाले लोगों के सामने निर्लज्ज होकर अपने गुणों के कीर्तन करने का पाप तक किया है ।

भ्रातः कष्टमहो महान्स नृपतिः सामन्तचक्रं च

तत्पाश्र्वे तस्य च साऽपि राजपरिषत्ताश्चन्द्रबिम्बाननाः।

उद्रिक्तः स च राजपुत्रनिवहस्ते बन्दिनस्ताः कथाः

सर्वं यस्य वशादगात्स्मृतिपदं कालाय तस्मै नमः।। ३७ ।।

अर्थ: ऐ भाई ! कैसे कष्ट की बात है ! पहले यहाँ कैसा राजा राज करता था, उसकी सेना कैसी थी, उसके राजपुत्रों का समूह कैसा था, उसकी राजसभा कैसी थी, उसके यहाँ कैसी कैसी चन्द्रानना स्त्रियां थीं, कैसे अच्छे अच्छे चारण-भाट और कहानी कहने वाले उसके यहाँ थे ! वे सब जिस काल के वश हो गए, जो काल ऐसा बली है, जिसने उन सब को स्वप्नवत कर दिया, मैं उस बली काल को ही नमस्कार करता हूँ ।

वयं येभ्यो जाताश्चिरपरिगता एव खलुते

समं यैः संवृद्धाः स्मृतिविषयतां तेऽपि गमिताः।

इदानीमेते स्मः प्रतिदिवसमासन्नपतना-

ग्दतास्तुल्यावस्थां सिकतिलनदीतीरतरुभिः।। ३८ ।।

अर्थ: जिनसे हमने जन्म लिया था, उन्हें इस दुनिया से गए बहुत दिन हो गए; जिनके साथ हम बड़े हुए थे, वे भी इस दुनिया को छोड़कर चले गए । अब हमारी दशा भी रेतीले नदी-किनारे के वृक्षों की सी हो रही है, जो दिन दिन जड़ छोड़ते हुए गिराऊ होते चले जाते हैं ।

यत्रानेके क्वचिदपि गृहे तत्र तिष्ठत्यथैको

यत्राप्येकस्तदनु बहवस्तत्र चान्ते न चैकः।।

इत्थं चेमौ रजनिदिवसौ दोलयन्द्वाविवाक्षौ

कालः काल्या सह बहुकलः क्रीडति प्राणिशारैः।। ३९ ।।

अर्थ: जिस घर में पहले अनेक लोग थे, उसमें अब एक ही रह गया है। जिस घर में एक था, उसमें अनेक हो गए, पर अन्त में एक भी न रहा । इससे मालूम होता है कि काल देवता, अपनी पत्नी काली के साथ, संसार रुपी चौपड़ में, दिन-रात रुपी पासों को लुढ़का लुढ़का कर और इस जगत के प्राणियों की गोटी बना बनाकर, खेल रहा है।

तपस्यन्तः सन्तः किमधिनिवसामः सुरनदीं

गुणोदारान्दारानुत परिचयामः सविनयम्।

पिबामः शास्त्रौघानुतविविधकाव्यामृतरसा

न्न विद्मः किं कुर्मः कतिपयनिमेषायुषि जने।। ४० ।।

अर्थ: हमारी समझ में नहीं आता, कि हम इस अल्प जीवन – इस छोटी सी ज़िन्दगी में क्या क्या करें अर्थात हम गंगा तट पर बस कर तप करें अथवा गुणवती स्त्रियों की प्रेम-सहित यथायोग्य सेवा करें अथवा वेदान्त शास्त्र का अमृत पिएं या काव्यरस-पान करें ।

वैराग्य शतकम्

गंगातीरे हिमगिरिशिलाबद्धपद्मासनस्य

ब्रह्मध्यानाभ्यसनविधिना योगनिद्रां गतस्य।

किं तैर्भाव्यम् मम सुदिवसैर्यत्र ते निर्विशंकाः

सम्प्राप्स्यन्ते जरठहरिणाः श्रृगकण्डूविनोदम्।। ४१ ।।

अर्थ: अहा ! वे सुख के दिन कब आएंगे, जब हम गंगा किनारे, हिमालय की शालिओं पर, पद्मासन लगाकर, विधान-अनुसार आँख मूंदकर, ब्रह्म का ध्यान करते हुए, योग निद्रा में मग्न होंगे और बूढ़े बूढ़े हिरन निर्भय हो, हमारे शरीर की रगड़ से, अपने शरीर की खुजली मिटाते होंगे ?

स्फुरत्स्फारज्योत्स्नाधवलिततले क्वापि पुलिने

सुखासीनाः शान्तध्वनिषु द्युसरितः ।।

भवाभोगोद्विग्नाः शिवशिवशिवेत्यार्तवचसः

कदा स्यामानन्दोद्गमबहुलबाष्पाकुलदृशः।। ४२ ।।

अर्थ: वह समय कब आवेगा, जब हम पवित्र गंगा के ऐसे स्थान पर जो चन्द्रमा की चांदनी से चमक रहा होगा , सुख से बैठे होंगे और रात के समय, जब सब तरह का शोरगुल बन्द होगा, आनन्दाश्रुपूर्ण नेत्रों से, संसार के विषय दुखों से थक कर, सर्वशक्तिमान शिव की रटना लगा रहे होंगे ?

महादेवो देवः सरिदपि च सैषा सुरसरिद्गुहा एवागारं वसनमपि ता एव हरितः।

सुहृदा कालोऽयं व्रतमिदमदैन्यव्रतमिदं कियद्वा वक्ष्यामो वटविटप एवास्तु दयिता।। ४३ ।।

अर्थ: महादेव ही एक हमारा देव हो, जाह्नवी ही हमारी नदी हो, एक गुफा ही हमारा घर हो, दिशा ही हमारे वस्त्र हों, समय ही हमारा मित्र हो, किसी के सामने दीन न होना ही हमारा मित्र हो, अधिक क्यों कहें, वटवृक्ष ही हमारी अर्धांगिनी हो ।

शिरः शार्व स्वर्गात्पशुपतिशिरस्तः क्षितिधरं

महीध्रादुत्तुङ्गादवनिमवनेश्चापि जलधिम्।।

अधो गङ्गा सेयं पदमुपगता स्तोकमथवा

विवेकभ्रष्टानां भवति विनिपातः शतमुखः।। ४४ ।।

अर्थ: देखिये, गङ्गा जी स्वर्ग से शिवजी के मस्तक पर गिरी; उनके सर से हिमालय पर्वत पर; हिमालय से पृथ्वी पर; और पृथ्वी से समुद्र में गिरी । इससे मालूम होता है, कि विवेक-हीनो का पद पद पर सैकड़ो प्रकार से पतन होता है ।

आशा नाम नदी मनोरथजला तृष्णातरंगाकुला

रागग्राहवती वितर्कविहगा धैर्यद्रुमध्वंसिनी।।

मोहावर्त्तसुदुस्तराऽतिगहना प्रोत्तुड्गचिन्तातटी

तस्याः पारगता विशुद्धमनसोनन्दन्ति योगीश्वराः।। ४५ ।।

अर्थ: आशा एक नदी है, उसमें इच्छा रुपी जल है; तृष्णा उस नदी की तरंगे हैं, प्रीति उसके मगर हैं, तर्क-वितर्क या दलीलें उसके पक्षी हैं, मोह उसके भंवर हैं; चिंता ही उसके किनारे हैं; वह आशा नदी धैर्यरूपी वृक्ष को गिरानेवाली है; इस कारण उसके पार होना बड़ा कठिन है । जो शुद्धचित्त योगीश्वर उसके पार चले जाते हैं; वे बड़ा आनन्द उपभोग करते हैं ।

आसंसारं त्रिभुवनमिदं चिन्वतां तात तादृङ्

नैवास्माकं नयनपदवीं श्रोत्रवर्त्मागतो वा।

योऽयं धत्ते विषयकरिणीगाढगूढाभिमान

क्षीवस्यान्तः करणकरिण: संयमालानलीलाम्।। ४६ ।।

अर्थ: ओ भाई ! मैं सारे संसार में घूमा और तीनो भुवनों में मैंने खोज की; पर ऐसा मनुष्य मैंने न देखा न सुना, जो अपनी कामेच्छा पूर्ण करने के लिए हथिनी के पीछे दौड़ते हुए मदोन्मत्त हाथी के समान मन को वश में रख सकता हो ।

ये वर्धन्ते धनपतिपुरः प्रार्थनादुःखभोज

ये चालपत्वं दधति विषयक्षेपपर्यस्तबुद्धेः।

तेषामन्तः स्फुरितहसितं वासराणां स्मारेयं

ध्यानच्छेदे शिखरिकुहरग्रावशय्या निषण्णः।। ४७ ।।

अर्थ: वे दिन जो धन के लिए धनवानों की खुशामद करने के दुःख से बड़े मालूम होते थे और वे दिन जो विषयासक्ति में छोटे लगते थे; उन दोनों प्रकार दे दिनों को हम पर्वत की एकान्त गुहा में, पत्थर की शिला पर बैठे हुए आत्मध्यान में मग्न होकर अन्तःकरण में हँसते हुए याद करेंगे।

विद्या नाधिगता कलंकरहिता वित्तं च नोपार्जितम

शुश्रूषापि समाहितेन मनसा पित्रोर्न सम्पादिता।

आलोलायतलोचना युवतयः स्वप्नेऽपि नालिंगिताः

कालोऽयं परपिण्डलोलुपतया ककैरिव प्रेरितः।। ४८ ।।

अर्थ: न तो हमने निष्कलंक विद्या पढ़ी और न धन कमाया; न हमने शांत-चित्त से माता-पिता की सेवा ही की और न स्वप्न में भी दीर्घनायनी कामिनियों को गले से ही लगाया । हमने इस जगत में आकर, कव्वे की तरह पराये टुकड़ों की ओर ताक लगाने के सिवा क्या किया?

वितीर्णे सर्वस्वे तरुणकरुणापूर्णहृदयाः

स्मरन्तः संसारे विगुणपरिणाम विधिगतिः।

वयं पुण्यारण्ये परिणतशरच्चन्द्रकिरणै-

स्त्रियामां नेष्यामो हरचरणचित्तैकशरणाः।। ४९ ।।

अर्थ: सर्वस्व त्यागकर (अथवा सर्वस्वा नष्ट हो जाने पर) करुणापूर्ण ह्रदय से, संसार और संसार के पदार्थों को सारहीन समझकर, केवल शिवचरणो को अपना रक्षक समझते हुए, हम शरद की चांदनी में, किसी पवित्र वन में बैठे हुए कब रातें बिताएंगे?

वयमिह परितुष्टा वल्कलैस्त्वं च लक्ष्म्या

सम इह परितोषो निर्विशेषावशेषः।

स तु भवति दरिद्री यस्य तृष्णा विशाला

मनसि च परितुष्टे कोऽर्थवान्को दरिद्रः ।। ५० ।।

अर्थ: हम वृक्षों की छाल पहनकर सन्तुष्ट हैं; आप लक्ष्मी से सन्तुष्ट हो । हमारा तुम्हारा दोनों का सन्तोष समान है, कोई भेद नहीं । वह दरिद्र है, जिसके दिल में तृष्णा है । मन में सन्तोष आने पर कौन धनी और कौन निर्धन है ? अर्थात संतोषी के लिए धनी और निर्धन दोनों बराबर हैं ।

यदेतत्स्वछन्दं विहरणमकार्पण्यमशनं

सहार्यैः संवासः श्रुतमुपशमैकव्रतफलम्।

मनो मन्दस्पन्दं बहिरपि चिरस्यापि विमृशन्

न जाने कस्यैष परिणतिरुदारस्य तपसः।। ५१ ।।

अर्थ: स्वधीनतापूर्वक जीवन अतिवाहित करना, बिना मांगे खाना, विपद में साहस रखनेवाले मित्रों की सांगत करना, मन को वश में करने की तरकीबें बताने वाले शास्त्रों का पढ़ना-सुनना और चंचल चित्त को स्थिर करना – हम नहीं जानते, ये किस पूर्व-तपस्या के फल से प्राप्त होते हैं ?

पाणिः पात्रं पवित्रं भ्रमणपरिगतं भैक्ष्यमक्षय्यमन्नं

विस्तीर्णं वस्त्रमाशासुदशकममलं तल्पमस्वल्पमुर्वी।

येषां निःसङ्गताङ्गीकरणपरिणत: स्वात्मसन्तोषिणस्ते

धन्याः संन्यस्तदैन्यव्यतिकरनिकराः कर्मनिर्मूलयन्ति।। ५२ ।।

अर्थ: वे ही प्रशंसाभाजन हैं, वे ही धन्य हैं, उन्होंने ही धर्म की जड़ काट दी है – जो अपने हाथों के सिवा और किसी बासन की जरुरत नहीं समझते, जो घूम घूम कर भिक्षा का अन्न कहते हैं, जो देशो दिशाओं को ही अपना विस्तृत वस्त्र समझते हैं, जो अकेले रहना पसन्द करते हैं, जो दीनता से घृणा करते हैं और जिन्होंने आत्मा में ही सन्तोष कर लिया है ।

दुराराध्यः स्वामी तुरगचलचित्ताः क्षितिभुजो

वयं तु स्थूलेच्छा महति च पदे बद्धमनसः।

जरा देहं मृत्युर्हरति सकलं जीवितमिदं

सखे नान्यच्छ्रेयो जगति विदुषोऽन्यत्र तपसः।। ५३ ।।

अर्थ: मालिक को राज़ी करना कठिन है। राजाओं के दिल घोड़ों के समान चंचल होते हैं। इधर हमारी इच्छाएं बड़ी भारी हैं; उधर हम बड़े भारी पद – मोक्ष के अभिलाषी हैं । बुढ़ापा शरीर को निकम्मा करता है और मृत्यु जीवन को नाश करती है । इसलिए हे मित्र ! बुद्धिमान के लिए, इस जगत में, तप से बढ़कर और कल्याण का मार्ग नहीं है ।

भोगा मेघवितानमध्यविलसत्सौदामिनीचञ्चला

आयुर्वायुविघट्टिताभ्रपटलीलीनाम्बुवद्भङ्गुरम्।

लोला यौवनलालसा तनुभृतामित्याकलय्य द्रुतं

योगे धैर्यसमाधिसिद्धिसुलभे बुद्धिं विधध्वं बुधाः।। ५४ ।।

अर्थ: देहधारियों के भोग – विषय सुख – सघन बादलों में चमकनेवाली बिजली की तरह चञ्चल हैं; मनुष्यों की आयु या उम्र हवा से छिन्न भिन्न हुए बादलों के जल के समान क्षणस्थायी या नाशमान है और जवानी की उमंग भी स्थिर नहीं है । इसलिए बुद्धिमानो ! धैर्य से चित्त को एकाग्र करके उसे योगसाधन में लगाओ ।

पुण्ये ग्रामे वने वा महति सितपटच्छन्नपालिं कपाली-

मादाय न्यायगर्भद्विजहुतहुतभुग्धूमधूम्रोपकण्ठं।

द्वारंद्वारं प्रवृत्तो वरमुदरदरीपूरणाय क्षुधार्तो

मानी प्राणी स धन्यो न पुनरनुदिनं तुल्यकुल्येषुदीनः।। ५५ ।।

अर्थ: वह क्षुधार्त किन्तु मानी पुरुष, जो अपने पेट-रुपी खड्डे के भरने के लिए हाथ में पवित्र साफ़ कपडे से ढका हुआ ठीकरा लेकर वन-वन और गांव-गांव घूमता है और उनके दरवाज़े पर जाता है, जिनकी चौखट न्यायतः विद्वान ब्राह्मणो द्वारा कराये हुए हवन के धुएं से मलिन हो रही है, अच्छा है; किन्तु वह अच्छा नहीं, जो समान कुलवालों के यहाँ जाकर मांगता है ।

चाण्डाल किमयं द्विजातिरथवा शूद्रोऽथ किं तापसः

किं वा तत्त्वविवेकपेशलमतिर्योगीश्वरः कोऽपि किम्।

इत्युत्पन्नविकल्पजल्पमुखरैः सम्भाष्यमाणा जनैः

न क्रुद्धाः पथि नैव तुष्टमनसो यान्ति स्वयं योगिनः।। ५६ ।।

अर्थ: यह चाण्डाल है या ब्राह्मण है? यह शूद्र है या तपस्वी है? क्या यह तत्वविद योगीश्वर है ? लोगों द्वारा ऐसी अनेक प्रकार की संशय और तर्कयुक्त बातें सुनकर भी योगी लोग न नाराज़ होते हैं न खुश; वे तो सावधान चित्त से अपनी राह चले जाते हैं ।

सखे धन्याः केचित्त्रुटितभवबन्धव्यतिकरा

वनान्ते चिन्तान्तर्विषमविषयाशीविषगताः।

शरच्चन्द्रज्योत्स्नाधवलगगना भोगसुभगां

नयन्ते ये रात्रिं सुकृतचयचित्तैकशरणाः।। ५६ ।।

अर्थ: हे मित्र ! वे पुरुष धन्य हैं, जो शरद के चन्द्रमा की चांदनी से सफ़ेद हुए आकाशमण्डल से सुन्दर और मनोहर रात को वन में बिताते हैं, जिन्होंने संसार बन्धन को काट दिया है, जिनके अन्तः-करण से भयानक सर्प-रुपी विषय निकल गए हैं और जो सुकर्मों को ही अपना रक्षक समझते हैं ।

तस्माद्विरमेन्द्रियार्थ गहनादायासदादाशु च

श्रेयोमार्गमशेषदुःखशमनव्यापारदक्षं क्षणाम्।

शान्तिं भावमुपैहि संत्यज निजां कल्लोललोलां मतिं

मा भूयो भज भङ्गुरां भवरतिं चेतः प्रसीदाधुना।। ५८ ।।

अर्थ: हे चित्त ! अब विश्राम ले, इन्द्रियों के सुख सम्पादन के लिए विषयों की खोज में कठोर परिश्रम न कर; आन्तरिक शान्ति की चेष्टा कर, जिससे कल्याण हो और दुःखों का नाश हो; तरंग के समान चञ्चल चाल को छोड़ दे; संसारी पदार्थों में और सुख न मान; क्योंकि ये असार और नाशमान हैं । बहुत कहना व्यर्थ है, अब तू अपने आत्मा में ही सुख मान ।

पुण्यैर्मूलफलैः प्रिये प्रणयिनि प्रीतिं कुरुष्वाधुना

भूशय्या नववल्कलैरकर्णैरुत्तिष्ठ यामो वनं।

क्षुद्राणांविवेकमूढमनसां यत्रेश्वराणाम् सदा

चित्तव्याध्यविवेकविल्हलगिरां नामापि न श्रूयते।। ५९ ।।

अर्थ: ऐ प्यारी बुद्धि ! अब तू पवित्र फल-मूलों से अपनी गुज़र कर; बानी बनाई भूमि-शय्या और वृक्षों की छाल के वस्त्रों से अपना निर्वाह कर । उठ, हम तो वन को जाते हैं । वहां उन मूर्ख और तंगदिल अमीरों का नाम भी नहीं सुनाई देता, जिन की ज़बान, धन की बीमारी के कारण उनके वश में नहीं है ।

मोहं मार्जयतामुपार्जय रतिं चन्द्रार्धचूडामणौ

चेतः स्वर्गतरङ्गिणीतटभुवामासङ्गमङ्गीकुरु ।

को वा वीचिषु बुद्बुदेषु च तडिल्लेखासु च स्त्रीषु च

ज्वालाग्रेषु च पन्नगेषु च सरिद्वेगेषु च प्रत्ययः।। ६० ।।

अर्थ: ऐ चित्त ! तू मोह छोड़कर शिर पर अर्धचन्द्र धारण करनेवाले भगवान् शिव से प्रीति कर और गंगा किनारे के वृक्षों के नीचे विश्राम ले । देख ! पानी की लहार, पानी के बबूले, बिजली की चमक, आग की लौ, स्त्री, सर्प और नदी के प्रवाह की स्थिरता का कोई विश्वास नहीं; क्योंकि ये सातों चञ्चल हैं ।

वैराग्य शतकम्

अग्रे गीतं सरसकवयः पार्श्वतो दाक्षिणात्याः

पृष्ठे लीलावलयरणितं चामरग्राहिणीनाम् ।

यद्यस्त्येवं कुरु भवरसास्वादने लम्पटस्त्वं नो

चेच्चेतः प्रविश सहसा निर्विकल्पे समाधौ।। ६१ ।।

अर्थ: हे मन ! तेरे सामने चतुर गवैये गाते हों, दाहिने-बाएं दक्खन देश के उत्तम कवी सरस काव्य सुनते हों, तेरे पीछे चंवर ढोलने वाली सुंदरी स्त्रियों के कंकणों की मधुर झनकार होती हो, यदि ऐसे सामान तुझे मयस्सर हों, तो तू संसार रसास्वादन में मग्न हो; नहीं तो सबका ध्यान छोड़, निर्विकल्प समाधि में लीन हो ।

विरमत बुधा योषित्सङ्गात्सुखात्क्षणभंगुरा-

त्कुरुत करुणामैत्रीप्रज्ञा वधूजनसंगमम्।

न खलु नर के हाराक्रान्तं घनस्तनमण्डलम्

शरणमथवा श्रोणीबिम्बम् रणन्मणिमेखलम्।। ६२ ।।

अर्थ: हे बुद्धिमानो ! स्त्री के संग से बचो, क्योंकि उनके संग से जो सुख मिलता है, वह क्षणिक है । आप मैत्री, करुणा और बुद्धिरूपी वधू के साथ संगम करो । जिस समय नरक में सजा मिलेगी, उस समय युवतियों के हारों से शोभित स्तनद्वय और घुंघरूदार कर्धनियों से सुशोभित कमर तुम्हारी सहायता न करेंगी ।

विरमत बुधा योषित्सङ्गात्सुखात्क्षणभंगुरा-

त्कुरुत करुणामैत्रीप्रज्ञा वधूजनसंगमम्।

न खलु नर के हाराक्रान्तं घनस्तनमण्डलम्

शरणमथवा श्रोणीबिम्बम् रणन्मणिमेखलम्।। ६२ ।।

अर्थ: हे बुद्धिमतियों ! पुरुष के संग से बचो, क्योंकि उनके संग से जो सुख मिलता है, वह क्षणिक है । आप मैत्री, करुणा और विवेकरूपी वर के साथ संगम करो । जिस समय नरक में सजा मिलेगी, उस समय युवकों की बलिष्ठ काया और सुडौल शरीर तुम्हारी सहायता न करेंगे ।

प्राणाघातान्निवृत्तिः परधनहरणे संयमः सत्यवाक्यं

कालेशक्त्या प्रदानं युवतिजनकथामूकभावः परेषाम्।

तृष्णास्त्रोतोविभङ्गो गुरुषु च विनयः सर्वभूतानुकम्पा

सामान्यः सर्वशास्त्रेष्वनुपहतविधि:श्रेयसामेष पन्थाः।। ६३ ।।

अर्थ: किसी भी जीव की हिंसा न करना, पराया माल न चुराना, सत्य बोलना, समय पर सामर्थ्यानुसार दान करना, परस्त्रियों की चर्चा में चुप रहना, गुरुजनो के सामने नम्र रहना, सब प्राणियों पर दया करना और भिन्न भिन्न शास्त्रों में समान विश्वास रखना – ये सब नित्य सुख प्राप्त करने के अचूक रस्ते हैं ।

मातर्लक्ष्मि भजस्व कंचिदपरं मत्काङ्क्षिणी मा स्म भूः

भोगेभ्यः स्पृहयालवो न हि वयं का निस्पृहाणामसि।

सद्यःस्यूतपलाशपत्रपुटिकापात्रे पवित्रीकृते

भिक्षासक्तुभिरेव सम्प्रति वयं वृत्तिं समीहामहे।। ६४ ।।

अर्थ: हे मां लक्ष्मी ! अब किसी और को खोज, मेरी इच्छा न कर; अब मुझे विषय-भोगों की चाह नहीं है; मेरे जैसे निस्पृह – इच्छा-रहितों के सामने तू तुच्छ है । क्योंकि अब मैंने हर ढाकके पत्तो के दोनों में भिक्षा के सत्तू से गुज़ारा करने का संकल्प कर लिया है ।

यूयं वयं वयं यूयमित्यासीन्मतिरावयोः।

किं जातमधुना येन यूयं यूयं वयं वयम्।। ६५ ।।

अर्थ: पहले हमारा आपका इतना गाढ़ा सम्बन्ध था कि, आप थे सो मैं था और मैं था सो आप थे । अब क्या फर्क हो गया है, कि मैं – मैं ही हूँ और आप – आप ही हैं ?

बाले लीलामुकुलितममीमन्थरा दृष्टिपाताः

किं क्षिप्यते विरम विरमं व्यर्थ एव श्रमस्ते।।

संप्रत्यन्ये वयमुपरतम् बाल्यामावस्था वनान्ते

क्षीणो मोहस्तृणमिव जगज्जालमालोक्यामः।। ६६ ।।

अर्थ: ऐ बाला ! अब तू लीला से अपनी आधी खुली आँखों से मुझ पर क्यों कटाक्ष बाण चलाती है ? अब तू काममद पैदा करने वाली दृष्टी को रोक ले; तेरे इस परिश्रम से तुझे कोई लाभ न होगा । अब हम पहले जैसे नहीं रहे हैं । हमारी जवानी चली गयी है । अब हमने वन में रहने का निश्चय कर लिया है और मोह त्याग दिया है; अब हम विषय सुखों को तृण से भी निकम्मा समझते हैं ।

इयं बाला मां प्रत्यनवरतमिन्दीवरदल

प्रभाचोरं चक्षुः क्षिपति किमभिप्रेतमनया।।

गतो मोहोऽस्माकं स्मरकुसुमबाण व्यतिकर-

ज्वलज्ज्वाला शान्ति न तदपि वराकी विरमति।। ६७ ।।

अर्थ: यह बाला स्त्री मुझ पर बार-बार नीलकमल की शोभा से भी सुन्दर नेत्रों से कटाक्ष क्यों मारती है ? मैं नहीं समझता इसका क्या मतलब है ? अब तो मेरा मोह जाता रहा है – काम के पुष्प बाणो से निकली हुई आग की ज्वाला शान्त हो गयी है । आश्चर्य है, कि अब तक भी यह मूर्खा बाला अपनी कोशिशों से बाज़ नहीं आती ।

रम्यं हर्म्यतलं न किं वसतये श्राव्यं न गेयादिकं

किं वा प्राणसमासमागमसुखं नैवाधिकं प्रीतये।।

किं तूद्भ्रान्तपतङ्गपक्षपवनव्यालोलदीपाङ्कुर-

च्छायाचञ्चलमाकलय्य सकलं सन्तो वनान्तं गताः।। ६८ ।।

अर्थ: क्या सन्तों के रहने के लिए उत्तमोत्तम महल न थे, क्या सुनने के लिए उत्तमोत्तम गान न थे, क्या प्यारी-प्यारी स्त्रियों के संगम का सुख न था, जो वे लोग वनों में रहने को गए ? हाँ, सब कुछ था; पर उन्होंने इस जगत को गिरने वाले पतंग के पंखों से उत्पन्न हवा से हिलते हुए दीपक की छाया के समान चञ्चल समझकर छोड़ दिया; अथवा उन्होंने मूर्ख पतंग की भांति, जो हवा से हिलते हुए दीपक के छाया में घूम-घूमकर अपने तई जलाकर भस्म कर देता है, संसार को अपना नाश करते देखकर संसार को छोड़ दिया।

किं कन्दाःकन्दरेभ्यः प्रलयमुपगता निर्झरा व गिरिभ्यः

प्रध्वस्ता वा तरुभ्यः सरसफलभृतो वल्कलिन्यश्च शाखाः।।

वीक्ष्यन्तेयन्मुखानि प्रसभमपगतप्रश्रयाणाम् खलानां

दुःखोपात्ताल्पवित्तस्मयवशपवनानअर्तितभ्रूलतानि।। ६९ ।।

अर्थ: क्या पहाड़ों की गुफाओं में कन्द-मूल और उनकी चट्टानों में पानी के झरने नहीं रहे, क्या छाल वाले वृक्षों में रसीली फलवती शाखाएं नहीं रहीं, जो लोग उन अभिमानी और नीचों के सामने दीनता करते हैं, जिनकी भौंहें मारे अभिमान के चढ़ी रहती हैं और जिन्होंने बड़े कष्ट से थोड़ा सा धन जमा कर लिया है ?

गंगातरंगकणशीकरशीतलानि

विद्याधराध्युषितचारुशीलतलानि।।

स्थानानि किं हिमवतः प्रलयं गतानि

यत्सावमानपरपिण्डरता मनुष्याः।। ७० ।।

अर्थ: हिमालय पर्वत के वे चट्टानें जो गंगाजल की लागरों से उठे हुए छींटो से शीतल हो रही है और जहाँ जगह जगह विद्याधर बैठे हैं, क्या अब नहीं रही हैं, जो लोग अपमान से मिले हुए पराये टुकड़ों पर गुज़र करते हैं ?

यदा मेरुः श्रीमान्निपतति युगान्ताग्निनिहितः

समुद्राः शुष्यन्ति प्रचुरनिकरग्राहनिलायाः।।

धरा गच्छत्यन्तं धरणिधरपादैरपि धृता

शरीरका वार्त्ता करिकल भकर्णाग्रचपले।। ७१ ।।

अर्थ: जब प्रलय की अग्नि के मारे श्रीमान सुमेरु पर्वत गिर पड़ता है; मगरमच्छों के रहने के स्थान समुद्र भी सूख जाते हैं; पर्वतों के पैरों से दबी हुई पृथ्वी भी नाश हो जाती है; तब हाथी के कान की कोर के समान चञ्चल मनुष्य की क्या गिनती ?

एकाकी निस्पृहः शान्तः पाणिपात्रो दिगम्बरः।

कदा शम्भो भविष्यामि कर्मनिर्मूलनक्षमः।। ७२ ।।

अर्थ: हे शिव ! मैं कब अकेला, इच्छा रहित और शान्त हूँगा ? कब हाथ ही मेरा पात्र होगा और कब दिशाएं मेरे वस्त्र होंगे ? मैं कब कर्मों की जड़ उखाड़ने में समर्थ हूँगा ?

प्राप्ताः श्रियः सकलकामदुघास्ततः किं

न्यस्तं पदं शिरसि विद्विषतां ततः किं ।

सम्पादिताः प्रणयिनो विभवैस्ततः किं

कल्पस्थितास्तनुभृतां तनवस्ततः किम् ।। ७३ ।।

अर्थ: अगर मनुष्यों को सब इच्छाओं के पूर्ण करनेवाली लक्ष्मी मिली तो क्या हुआ ? अगर शत्रुओं को पदानत किया तो क्या ? अगर धन से मित्रों की खातिर की तो क्या ? अगर इसी देह से इस जगत में एक कल्प तक भी रहे तो क्या ?

जीर्णा कंथा ततः किं सितममलपटं पट्टसूत्रं ततः किम्

एका भार्या ततः किं हय करिसुगणैरावृतो वा ततः किम्।।

भक्तं भुक्तं ततः किं कदशनमथ वा वासरांते ततः किं

व्यक्त ज्योतिर्नवांतर्मथितभवभयं वैभवं वा ततः किम्।। ७४ ।।

अर्थ:अगर चीथड़ों की बनी हुई गुदड़ी पहनी तो क्या ? अगर निर्मल सफ़ेद वस्त्र पहने या पीताम्बर पहने तो क्या ? अगर एक ही स्त्री रही तो क्या ? अगर अनेक हाथी-घोड़ों सहित अनेकों स्त्रियां रहीं तो क्या ? अगर नाना प्रकार के व्यंजन भोजन किये अथवा शाम को मामूली खाना खाया तो क्या ? चाहे जितना वैभव पाया, पर यदि संसार बन्धन को मुक्त करनेवाली आत्मज्ञान की ज्योति न जानी, तो कुछ भी न पाया और कुछ भी न किया ।

भक्तिर्भवे मरणजन्मभयं हृदिस्थं

स्नेहो न बन्धुषु न मन्मथजा विकाराः।

संसर्गदोषरहिता विजना वनान्ता

वैराग्यमस्ति किमितः परमार्थनीयम्।। ७५ ।।

अर्थ: सदाशिव की भक्ति हो, दिल में जन्म-मरण का भय हो, कुटुम्बियों में स्नेह न हो, मन से काम-विचार दूर हों और संसर्ग-दोष से रहित होकर जंगल में रहते हों – अगर हममें ये गुण हों तब और कौन सा वैराग्य ईश्वर से मांगें ?

तस्मादनन्तमजरं परमं विकासि-

तद्ब्रह्म चिन्तय किमेभिरसद्विकल्पैः ।

यस्यानुषङ्गिण इमे भुवनाधिपत्य-

भोगादयः कृपणलोकमता भवन्ति।। ७६ ।।

अर्थ: उस वास्ते मनुष्यों ! अनन्त, अजर, अमर, अविनाशी और शान्तिपूर्ण ब्रह्म का ध्यान करो । मिथ्या जंजालों में क्या रखा है ? जो ब्रह्म का ज़रा सा भी आनन्द पा जाते हैं, उनकी नज़रों में संसारी राजाओं का आनन्द तुच्छ जंचता है ।

पातालमाविशशि यासि नभो विलङ्घ्य

दिङ्मण्डलं भ्रमसि मानस चापलेन ।

भ्रान्त्यापि जातु विमलं कथमात्मनीतं

तद्ब्रह्म न स्मरसि निर्वृतिमेषि येन ।। ७७ ।।

अर्थ: हे चित्त ! तू अपनी चञ्चलता के कारण पाताल में प्रवेश करता है, आकाश से भी परे जाता है, दशों दिशाओं में घूमता है; पर भूल से भी तू उस विमल परमब्रह्म की याद नहीं करता, जो तेरे ह्रदय में ही मौजूद है, जिसके याद करने से ही तुझे परमानन्द – मोक्ष – मिल सकती है !

रात्रिः सैव पुनः स एव दिवसो मत्वा बुधा जन्तवो

धावन्त्युद्यमिनस्तथैव निभृतप्रारब्धतत्तत्क्रियाः ।

व्यापारैः पुनरुक्तभुक्त विषयैरित्थंविधेनामुना

संसारेण कदर्थिता कथमहो मोहान्न लज्जामहे।। ७८ ।।

अर्थ: प्राणियों में बुद्धिमान यदि जानते हैं कि दिन और रात ठीक पहले की तरह ही होते हैं; तो भी वे उन्हीं काम-धंधों के पीछे दौड़ते हैं, जिनके पीछे वे पहले दौड़ते थे । वे लोग उन्हीं-उन्हीं कामों में लगे रहते हैं, जिनसे क्षणिक और बारम्बार वही लाभ होते हैं, जिनको वे बारम्बार कह और भोग चुके हैं । आश्चर्य का विषय है, कि मनुष्यों को लज्जा नहीं आती !

मही रम्या शय्या विपुलमुपधानं भुजलता

वितानं चाकाशं व्यजनमनुकूलोऽयमनिलः।।

स्फुरद्दीपश्चन्द्रो विरतिवनितासंगमुदितः

सुखं शान्तः शेते मुनिरतनुभूतिर्नृप इव।। ७९ ।।

अर्थ: मुनि लोग राजा महाराजाओं की तरह सुख से ज़मीन को ही अपनी सुखदायिनी शय्या मान कर सोते हैं । उनकी भुजा ही उनका गुदगुदा तकिया है, आकाश ही उनकी चादर है, अनुकूल वह ही उनका पंखा है, चन्द्रमा ही उनका चिराग है, विरक्ति ही उनकी स्त्री है; अर्थात विरक्ति रुपी स्त्री को लेकर वे उपरोक्त सामानों के साथ राजाओं की तरह सुख से आराम करते हैं ।

त्रैलोक्याधिपतित्वमेव विरसं यस्मिन्महाशासने

तल्लब्ध्वासनवस्त्रमानघटने भोगे रतिं मा कृथाः।।

भोगः कोऽपि स एक एव परमो नित्योदितो जृम्भते

यत्स्वादाद्विरसा भवन्ति विषयास्त्रैलोक्यराज्यादयः।। ८० ।।

अर्थ: हे आत्मा ! अगर तुझे उस ब्रह्म का ज्ञान हो गया है, जिसके सामने तीनो लोक का राज्य तुच्छ मालूम होता है; तो तू भोजन, वस्त्र और मान के लिए भोगों की चाहना मत कर; क्योंकि वह भोग सर्वश्रेष्ठ और नित्य है; उसके मुकाबले में त्रिलोकी के राज्य प्रभृति सुख कुछ भी नहीं हैं ।

वैराग्य शतकम्

किं वेदैः स्मृतिभिः पुराणपठनैः शास्त्रैर्महाविस्तरैः

स्वर्गग्रामकुटिनिवासफलदैः कर्मक्रियाविभ्रमैः।।

मुक्तवैकं भवबन्धदुःखरचनाविध्वंसकालानलं

स्वात्मानन्दपदप्रवेशकलनं शेषा वणिग्वृत्तयः।। ८१ ।।

अर्थ: वेद, स्मृति, पुराण और बड़े बड़े शास्त्रों के पढ़ने तथा भिन्न-भिन्न प्रकार के कर्मकाण्ड करने से स्वर्ग में एक कुटिया की जगह प्राप्त करने के सिवा और क्या लाभ है ? ब्रह्मानन्द रुपी गढ़ी में प्रवेश करने की चेष्टा के सिवा, जो संसार बन्धनों के काटने में प्रलयाग्नि के समान है, और सब काम व्यापारियों के से काम हैं ।

ब्रह्माण्डमण्डलीमात्रं किं लोभाय मनस्विनः ।

शफरीस्फुरितेनाब्धेः क्षुब्धता जातु जायते ।। ८३ ।।

अर्थ: जो विचारवान है, जो ब्रह्मज्ञानी है, उसे संसार लुभा नहीं सकता । मछली के उछालने से समुद्र उड़ नहीं उमड़ता ।

यदासीदज्ञानं स्मरितिमिरसंस्कारजनितं

तदा दृष्टं नारिमयभिदमशेषं जगदपि ।।

इदानीमस्माकं पटुतर विवेकाञ्जनजुषां

समीभूता दृष्टीस्त्रिभुवनमपि ब्रह्म तनुते ।। ८४ ।।

अर्थ: जब तक हमें कामदेव से पैदा हुआ अज्ञान-अन्धकार था, तब तक हमें सारा जगत स्त्रीरूप ही दीखता था । अब हमने विवेकरूपी अञ्जन आँज लिया है, इससे हमारी दृष्टी समान हो गयी है । अब हमें तीनो भुवन ब्रह्मरूप दिखाई देते हैं ।

रम्याश्चन्द्रमरिचयस्तृणवती रम्या वनान्तस्थळी

रम्यः साधुसमागमः शमसुखं काव्येषु रम्याः कथाः ।

कोपोपहितवाष्पबिन्दुतरलं रम्यं प्रियाया मुखं

सर्वंरम्यमनित्यतामुपगते चित्तेनकिञ्चित्पुनः ।। ८५ ।।

अर्थ: चन्द्रमा की किरणे, हरी-हरी घास के तख्ते, मित्रों का समागम, शृङ्गार रस की कवितायेँ, क्रोधाश्रुओं से चञ्चल प्यारी का मुख – पहले ये सब हमारे मन को मोहित करते थे; किन्तु जब से संसार की अनित्यता हमारी समझ में आयी, तब से ये सब हमें अच्छे नहीं लगते ।

भिक्षाशी जनमध्यसंगरहितः स्वायत्तचेष्टः सदा

दानादानविरक्तमार्गनिरतः कश्चित्तपस्वी स्थितः।।

रथ्याक्षीणविशीर्णजीर्णवसनैः सम्प्राप्तकंथासखि-

र्निमानो निरहंकृतिः शमसुखाभोगैकबद्धस्पृहः।। ८६ ।।

अर्थ: ऐसा तपस्वी को विरला ही होता है, जो भीख मांगकर खाता है, जो अपने लोगों में रहकर भी उनमें मोह नहीं रखता, जो स्वाधीनतापूर्वक अपना जीवन निर्वाह करता है, जिसने लेने और देने का व्यवहार छोड़ दिया है, जो राह में पड़े हुए चीथड़ों की गुदड़ी ओढ़ता है, जिसे मान का ख्याल नहीं है, जिसमें अभिमान नहीं है और जो ब्रह्मज्ञान के सुख को ही सुख मानता है ।

मातर्मेदिनि तात मारुत सखे तेजः सुबन्धो जलं ।

भ्रातर्व्योम निबद्ध एव भवतामेष प्रणामाञ्जलिः ।।

युष्मतसंगवशोपजातसुकृतोद्रेकस्फुरन्निर्म्मल-

ज्ञानापास्तसमस्तमोहमहिमा लिये परे ब्रह्मणि ।। ८७ ।।

अर्थ: हे माता पृथ्वी ! पिता वायु ! मित्र तेज ! बन्धु जल ! भाई आकाश ! अब मैं आपको अन्तिम विदाई का प्रणाम करता हूँ । आपकी संगती से मैंने पुण्य कर्म किये और पुण्यों के फल स्वरुप मुझे आत्मज्ञान हुआ, जिसने मेरे संसारी मोह का नाश कर दिया । अब मैं परब्रह्म में लीन होता हूँ ।

यावत्स्वस्थमिदं कलेवरगृहं यावच्च दूरे जरा

यावच्चेन्द्रियशक्तिरप्रतिहता यावत्क्षयो नायुषः ।

आत्मश्रेयसि तावदेव विदुषा कार्यः प्रयत्नो महा-

न्प्रोदीप्ते भवने च कूपखननं प्रत्युद्यमः कीदृशः ।। ८८ ।।

अर्थ: जब तक शरीर ठीक हालत में है, बुढ़ापा दूर है, इन्द्रियों की शक्ति बनी हुई है, आयु के दिन बाकी हैं, तभी तक बुद्धिमान को अपने कल्याण की चेष्टा अच्छी तरह से कर लेनी चाहिए । घर जलने पर कुआँ खोदने से क्या फायदा ।

नाभ्यस्ता भुविवादिवृन्ददमनी विद्या विनीतोचिता

खड्गाग्रैः करिकुम्भपीठदलनैर्नाकं न नीतं यशः ।

कान्ताकोमलपल्लवाधररसः पीतो न चन्द्रोदये

तारुण्यं गतमेव निष्फलमहो शून्यालये दीपवत् ।। ८९ ।।

अर्थ:हमनें इस जगत में नम्रों को संतुष्ट करनेवाली और वादियों की मान भञ्जन करनेवाली विद्या नहीं पढ़ी, तलवार की धार से हाथी के मस्तक का पिछला भाग काटकर अपना यश स्वर्ग तक नहीं पहुँचाया; चांदनी रात में सुन्दरी के कोमल अधर-पल्लव (निचले होठ) का रस भी नहीं पिया । हाय ! हमारी जवानी सूने घर में जलनेवाले और आपही बुझ जाने वाले दीपक की तरह योंही गयी !

ज्ञानं सतां मानमदादिनाशनं

केषांचिदेतन्मदमानकारणं ।।

स्थानं विविक्तं यामिनां विमुक्तये

कामातुराणामतिकामकारणाम् ।। ९० ।।

अर्थ: अच्छे मनुष्यों में तो ज्ञान उनके मान-मद आदि का नाश करता है; किन्तु दुष्टों में वही ज्ञान मान-मद प्रभृति औगुणों की वृद्धि करता है । एकांत स्थान योगियों के लिए तो मुक्ति दिलानेवाला होता है; किन्तु वही कामियों की कामज्वाला बढ़ानेवाला होता है ।

जीर्णा एव मनोरथाः स्वहृदये यातं च जरां यौवनं

हन्ताङ्गेषु गुणाश्च वन्ध्यफलतां याता गुणज्ञैर्विना ।

किं युक्तं सहसाऽभ्युपैति बलवान्कालः कृतान्तोऽक्षमी

ह्याज्ञातंस्मरशासनाङ्घ्रियुगलं मुक्त्वाऽस्तिनान्यागतिः ।। ९१ ।।

अर्थ: हमारी इच्छाएं हमारे ह्रदय में ही जीर्ण हो गईं, जवानी भी चली गयी, हमारे अच्छे-अच्छे गुण भी कदरदानों के न होने से बेकार हो गए, सर्वशक्तिमान, सर्वनाशक काल (मृत्यु) शीघ्र-शीघ्र हमारे पास आ रहा है; इसलिए अब हमारी समझ में कामारि शिव के चरणों के सिवा और जगह हमारी रक्षा नहीं है ।

तृषा शुष्यत्यास्ये पिबति सलिलं स्वादु सुरभि

क्षुधार्तः सञ्शालीन्कवलयति शाकादिवाळितां ।

प्रदीप्ते कामाग्नौ सुदृढतरमाश्लिष्यति वधूं

प्रतीकारो व्याधेः सुखमिति विपर्यस्यति जनः ।। ९२ ।।

अर्थ: जब मनुष्य का कण्ठ प्यास से सूखने लगता है, तब वह शीतल जल पीता है; जब उसे भूख लगती है, तब वह साग और कढ़ी प्रभृति के संग चावल खाता है; जब उसकी कामाग्नि तेज़ होती है तब वह स्त्री को ज़ोर से गले लगाता है; विचार कर देखने से मालूम होता है, कि ये सब बिमारियों की एक-एक दवा है; परन्तु लोग इन्हे भूल से सुख समान मानते हैं ।

स्नात्वा गाङ्गैः पयोभिः शुचिकुसुमफलैरर्चयित्वा विभो

त्वां ध्येये ध्यानं नियोज्य क्षितिधरकुहरग्रावपर्येकमूले ।

आत्मारामः फलाशी गुरुवचनरतस्त्वत्प्रसादात्स्मरारे

दुःखं मोक्ष्ये कदाहं तब चरणरतो ध्यानमार्गैकनिष्ठ ।। ९३ ।।

अर्थ: हे शिव ! हे कामारि ! गंगा स्नान करके तुझ पर पवित्र फल-फूल चढ़ाता हुआ, तेरी पूजा करता हुआ, पर्वत की गुफा में शिला पर बैठा हुआ, अपने ही आत्मा में मग्न होता हुआ, वन-फल खाता हुआ, गुरु की आज्ञानुसार तेरे ही चरणों का ध्यान करता हुआ कब मैं इन संसारी दुखों से छुटकारा पाउँगा ?

शय्या शैलशिला गृहं गिरिगुहा वस्त्रं तरुणं त्वचः

सारंगाः सुहृदो ननु क्षितिरुहां वृत्तिः फलैः कमलैः ।।

येषां निर्झरम्बुपानमुचितं रत्येव विद्याङ्गना

मन्ये ते परमेश्वराः शिरसि यैर्बद्धो न सेवांजलिः।। ९३ ।।

अर्थ: मैं उनको परमेश्वर समझता हूँ, जो किसी के सामने मस्तक नहीं नवाते, जो पर्वत की शिला को ही अपनी शय्या समझते हैं, जो गुफा को ही अपना घर मानते हैं, जो वृक्षों की छालों को ही अपने वस्त्र और जंगली हिरणो को ही अपने मित्र समझते हैं, वृक्षों के कोमल फलों से ही उदार की अग्नि को शान्त करते हैं, जो कुदरती झरनो का जल पीते हैं और जो विद्या को ही अपनी प्राण प्यारी समझते हैं ।

प्रिय सखि विपद्दण्डव्रतप्रताप परम्परा-

तिपरिचपले चिन्ताचक्रे निधाय विधिः खलः ।।

मृदमिव बलात्पिण्डीकृत्य प्रगल्भकुलालवद्-

भ्रमयति मनो नो जानीमः किमत्र विधास्यति ।। ९८ ।।

अर्थ: हे प्यारी सखी बुद्धि ! कुम्हार जिस तरह गीली मिटटी के लौंदे को चाक पर चढ़कर डंडे से चाक को बारम्बार घुमाता है और उससे इच्छानुसार बर्तन तैयार करता है; उसी तरह संसार को गढ़नेवाला ब्रह्मा हमारे चित्त को चिन्ता के चाक पर चढ़ा कर, विपत्तियों के डंडे से चाक को लगातार घुमाता हुआ, हमारा क्या करना चाहता है, यह हमारी समझ में नहीं आता ?

महेश्वरे वा जगतामधीश्वरे जनार्दने वा जगदन्तरात्मनि।

तयोर्न भेदप्रतिपत्तिरस्ति मे तथापि भक्तिस्तरुणेन्दुशेखरे।। ९९ ।।

अर्थ: यद्यपि मुझे विश्वेश्वर शिव और सर्वात्मन विष्णु में कोई भेद नहीं दीखता; तथापि मेरा मन उन्ही की ओर झुकता है, जिनके मस्तक में तरुण चन्द्रमा विराजमान है; अर्थात मैं शिव को ही चाहता हूँ ।

रे कंदर्प करं कदर्थयसि किं कोदण्डटंकारितैः।

रे रे कोकिल कोमलैः किं त्वं वृथाजल्पसि ।।

मुग्धे स्निग्धविदग्धमुग्धमधुरैर्लोलैः कटाक्षैरलं

चेतश्चुम्बितचन्द्रचूड़चरणध्यानमृतं वर्त्तते ।। १०० ।।

अर्थ: हे कामदेव ! तू धनुष्टङ्कार सुनाने के लिए क्यों बारबार हाथ उठाता है ? हे कोकिला ! तू मीठी-मीठी सुहावनी आवाज़ में क्यों कुहू-कुहू करती है ? ए मूर्ख स्त्री ! तू अपने मनोमोहक मधुर कटाक्ष मुझ पर क्यों चलाती है ? अब तुम मेरा कुछ नहीं कर सकते; क्योंकि अब मेरे चित्त ने शिव के चरण चूमकर अमृत पी लिया है।

वैराग्य शतकम्

कौपीनं शतखण्डजर्ज्जरतरं कन्था पुनस्तादृशी

निश्चिन्तम् सुखसाध्यभैक्ष्यमशनं शय्या श्मशाने वने ।

मित्रामित्र समानताऽतिविमला चिन्ताऽथशून्यालये

ध्वस्ता शेषमदप्रमाद मुदितो योगी सुखं तिष्ठति ।। १०१ ।।

अर्थ: वही योगी सुखी है, जो एकदम से फटी-पुरानी सैकड़ो चीथड़ों से बनी कोपीन पहनता है और वैसी ही गुदड़ी ओढ़ता है, जिसके पास चिन्ता नहीं फटकती, जो सुख से मिला हुआ भिक्षान्न खाता है, जो श्मशान भूमि या वन में सो रहता है, जो मित्र और शत्रुओं को समान समझता है, जो सूनी झोंपड़ी में ध्यान करता है और जिसके मद और प्रमाद सम्पूर्ण रूप से नष्ट हो गए हैं ।

भोगा भंगुरवृत्तयो बहुविधास्तैरेव चायं भवः

तत्कस्यैव कृते परिभ्रमतरे लोका कृतं चेष्टितैः ।

आशापाशशतोपशान्तिविशदं चेतः समाधीयतां

कामोच्छित्तिवशे स्वधामनि यदि श्रद्धेयमस्मद्वचः ।। १०२ ।।

अर्थ: नाना प्रकार के विषय भोग नाशमान और संसार-बन्धन के कारण हैं, इस बात को जानकार भी मनुष्यों ! उनके चक्कर में क्यों पड़ते हो ? इस चेष्टा से क्या लाभ होगा ? अगर आपको हमारी बात का विश्वास हो, तो आप अनेक प्रकार के आशा-जाल के टूटने से शुद्ध हुए चित्त को सदा कामनाशक स्वयंप्रकाश शिवजी के चरण में लगाओ । (अथवा अपनी इच्छाओं के समूल नाश के लिए, अपने ही आत्मा के ध्यान में मग्न हो जाओ ।

धन्यानां गिरिकन्दरे निवसतां ज्योतिः परं ध्यायतां-

आनन्दाश्रुजलं पिबन्ति शकुना निःशङ्कमङ्केशयाः ।।

अस्माकं तु मनोरथोपरचितप्रासादवापीतट-

क्रीडाकाननकेलिकौतुकजुषामायुः परिक्षीयते ।। १०३ ।।

अर्थ: वे धन्य हैं, जो पर्वतों की गुफाओं में रहते हैं और परब्रह्म की ज्योति का ध्यान करते हैं, जिनके आनन्दाश्रुओं को उनकी गोद में बैठे हुए पक्षी निर्भयता से पीते हैं । हमारी ज़िन्दगी तो मनोरथों के महल की बावड़ी के किनारे के क्रीड़ा-स्थान में लीलाएं करते हुए ही वृथा बीतती है ।

आघ्रातं मरणेन जन्म जरया विद्युच्चलं यौवनं

सन्तोषो धनलिप्सया शमसुखं प्रौढाङ्गनाविभ्रमैः ।

लोकैर्मत्सरिभिर्गुणा वनभुवो व्यालैर्नृपा दुर्जनैः

अस्थैर्येण विभूतिरप्यपहृता ग्रस्तं न किं केन वा ।। १०४ ।।

अर्थ: मृत्यु ने जन्म को ग्रस रक्खा है, बुढ़ापे ने बिजली के समान चञ्चल युवावस्था को ग्रस रक्खा है, धन की इच्छा ने सन्तोष को ग्रस रक्खा है, जलनेवालों ने गुणों को ग्रस रक्खा है, सर्प और जंगली जानवरों ने वन को ग्रस रक्खा है, दुष्टों ने राजाओं को ग्रस रक्खा है, अस्थिरता या चञ्चलता ने धनैश्वर्य को ग्रस रक्खा है; तब ऐसी कौन सी चीज़ है, जो किसी दूसरी नाशक चीज़ के चंगुल में नहीं है ?

।। इति वैराग्य शतकम् ।।

भर्तृहरिविरचितम् (शतकत्रय)समाप्त ।।

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