वरूथिनी एकादशी व्रत कथा || Varuthini Ekadashi Vrat Katha
सनातन धर्म में एकादशी व्रत का विशेष महत्व है। हर महीने की शुक्ल और कृष्ण पक्ष में आने वाली एकादशी को अलग-अलग नामों से जाना जाता है। इससे पूर्व आपने एकादशी व्रत कथा में चैत्र मास के शुक्ल पक्ष में कामदा एकादशी व्रत कथा पढ़ा। अब पढेंगे की- वैशाख मास में कृष्ण पक्ष में आने वाली एकादशी को वरूथिनी एकादशी व्रत कहते हैं। एकादशी व्रत में भगवान विष्णु का ध्यान करने से प्रभु का आशीर्वाद मिलता है। पुराणों में ऐसी मान्यता है कि वरुथनी एकादशी का व्रत रखने से स्वर्ग की प्राप्ति होती है।एकादशी व्रत कथा की महिमा
पद्मपुराणमें भगवान श्रीकृष्ण युधिष्ठिर को बताते हैं-वैशाख के कृष्णपक्ष की एकादशी वरूथिनी के नाम से प्रसिद्ध है। यह इस लोक और परलोक में भी सौभाग्य प्रदान करने वाली है। वरूथिनी के व्रत से सदा सौख्य का लाभ तथा पाप की हानि होती है। यह सबको भोग और मोक्ष प्रदान करने वाली है।
वरूथिनी के व्रत से मनुष्य दस हजार वर्षो तक की तपस्या का फल प्राप्त कर लेता है। इस व्रत को करनेवालावैष्णव दशमी के दिन काँसे के पात्र, उडद, मसूर, चना, कोदो, शाक, शहद, दूसरे का अन्न, दो बार भोजन तथा रति-इन दस बातों को त्याग दे। एकादशी को जुआ खेलना, सोना, पान खाना, दातून करना, परनिन्दा, चुगली, चोरी, हिंसा, रति, क्रोध तथा असत्य भाषण- इन ग्यारह बातों का परित्याग करे। द्वादशी को काँसे का पात्र, उडद, मदिरा, मधु, तेल, दुष्टों से वार्तालाप, व्यायाम, परदेश-गमन, दो बार भोजन, रति, सवारी और मसूर को त्याग दे।
इस प्रकार संयमपूर्वक वरूथिनी एकादशी का व्रत किया जाता है। इस एकादशी की रात्रि में जागरण करके भगवान मधुसूदन का पूजन करने से व्यक्ति सब पापों से मुक्त होकर परमगति को प्राप्त होता है। मानव को इस पतितपावनीएकादशी का व्रत अवश्य करना चाहिए। इस व्रत के माहात्म्य को पढने अथवा सुनने से भी पुण्य प्राप्त होता है। वरूथिनीएकादशी के अनुष्ठान से मनुष्य सब पापों से मुक्ति पाकर वैकुण्ठ में प्रतिष्ठित होता है। जो लोग एकादशी का व्रत करने में असमर्थ हों, वे इस तिथि में अन्न का सेवन कदापि न करें। इस व्रत को करने वाला दिव्य फल प्राप्त करता है। वरूथिनी एकादशी महाप्रभु वल्लभाचार्यकी जयंती-तिथि है। पुष्टिमार्गीयवैष्णवों के लिये यह दिन सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। वे इस तिथि में श्रीवल्लभाचार्यका जन्मोत्सव मनाते हैं।
वरूथिनी एकादशी व्रत की कथा
नर्मदा नदी के तट पर मान्धाता नाम के राजा की राज था। राजा की रुचि हमेशा धार्मिक कार्यों में रहती थी। वह हमेशा पूजा-पाठ में लीन रहते थे। एक बार राजा जंगल में तपस्या में लीन थे तभी एक जंगली भालू आया और राजा का पैर चबाने लगा। राजा इस घटना से तनिक भी भयभीत नहीं हुए और उनके पैर को चबाते हुए भालू राजा को घसीटकर पास के जंगल में ले गया। तब राजा मान्धाता ने भगवान विष्णु से प्रार्थना करने लगे। राजा की पुकार सुनकर भगवान विष्णु प्रकट ने चक्र से भालू को मार डाला।
राजा का पैर भालू खा चुका था और वह इस बात को लेकर वह बहुत परेशान हो गए। दुखी भक्त को देखकर भगवान विष्णु बोले- ‘हे वत्स! शोक मत करो। तुम मथुरा जाओ और वरुथिनी एकादशी का व्रत रखकर मेरी वराह अवतार मूर्ति की पूजा करों। उसके प्रभाव से पुन: सुदृढ़ अंगो वाले हो जाओगे। इस भालू ने तुम्हें जो काटा है, यह तुम्हारे पूर्व जन्म का अपराध था। भगवान की आज्ञा मानकर राजा ने मथुरा जाकर श्रद्धापूर्वक यह व्रत किया। इसके प्रभाव से वह सुंदर और संपूर्ण अंगो वाला हो गया।