योग में यम नियम की संपूर्ण व्याख्या Yog Me Yam Niyam Ki Sampurn Vyakhya

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योग में यम और नियम का महत्वपूर्ण स्थान है बिना यम और नियम का पालन किए हुए व्यक्ति योगी नहीं बन सकता

योग में यम

यम को अष्टांग योग में योग का प्रथम अंग माना गया है

यम के अनुष्ठान से व्यक्ति इंद्रियों एवं मन को हिंसा जैसे अशुभ विचारों से हटाकर आत्म केंद्रित करता है “वह यम कहलाता है”

यम को पांच भागों में बांटा गया है

अहिंसा

सत्य

अस्तेय

ब्रह्माचर्य

अपरिग्रह

अहिंसा

अहिंसा का अर्थ है संसार के किसी भी प्राणी को मन, वचन और कर्म के द्वारा कष्ट ना पहुंचाना अपने मन में किसी का अहित न सोचना, और किसी को अप्रिय वाणी न बोलना और कोई ऐसा कार्य न करना, जिसके द्वारा किसी भी प्राणी को कोई कष्ट हो

किसी भी प्राणी या जीव का शिकार न करना या किसी को अपने मन, कर्म और वचन के द्वारा हानि ना पहुंचाना ही अहिंसा है

सत्य

जैसा हम सुनते हैं ,देखते हैं और जानते हैं उसी प्रकार का शुद्ध विचार मन में हो वही हमारे मुख से निकले और उसी के अनुसार समस्त कार्य हो, वही सत्य कहलाता है

दूसरों को ऐसी वाणी कभी नहीं बोलना चाहिए, जिसमें छल और कपट जैसा भाव हो

हमें सदैव दूसरों के साथ ऐसा बर्ताव अपनी वाणी के द्वारा करना चाहिए जिससे किसी का अहित न हो, और दुख न पहुंचे मन में संसार के समस्त प्राणियों और जीवो पर दया करने का ही भाव होना चाहिए, यही सत्य है

अस्तेय

दूसरों की वस्तुओं पर अपना अधिकार करना और उन्हें प्राप्त करने का मन में विचार करना, चोरी कहलाता है अस्तेय का अर्थ है, चोरी न करना दूसरे की वस्तुओं को अधिकार स्वरूप बिना उसकी जानकारी के ना लेना जो भी परमात्मा के द्वारा हमें प्राप्त हुआ है, उसी में संतुष्ट रहना अस्तेय कहलाता है

ब्रह्मचर्य

कामवासना को बढ़ाने वाले खानपान ,दृश्य देखना और सुनने का पूर्ण त्याग करके अपने वीर्य की रक्षा करना ब्रम्हचर्य कहलाता है

आठ प्रकार के मैथुन होते हैं इनसे बचना

वासना की दृष्टि से किसी को देखना ,स्पर्श करना और एकांत सेवन, भाषण और इस विषय पर कथा, परस्पर क्रीडा, वासना युक्त विषयों का ध्यान, इन सब से दूर रहते हुए अपनी इंद्रियों को वश में करना

आंख, कान, नाक, त्वचा, स्वाद को सदा ही अच्छी दिशा की ओर प्रेरित करना, मन में सदा भद्र सुविचार शिव संकल्प रखना चाहिए साधक को हमेशा ऐसा भाव रखना चाहिए, कि मैं विकार रहित हूं हमारे अंदर कोई विकार नहीं है

काम, क्रोध, लोभ, मोह ,अहंकार अधिकारों की भट्टी में अपने आप को और अधिक नहीं जलाओ, आप आत्मा हो आपके स्वाभाविक गुण है मैत्री ,करुणा, प्रेम, सहानुभूति, सेवा, समर्पण, परोपकार, आनंद ,शांति आप निर्विकार है

विकारों को तो हम स्वयं बुलाते हैं ,आमंत्रित करते हैं, ऐसे ही जैसे कोई धन, संपत्ति व वैभव को इकट्ठा करें ,और फिर चोरों को आमंत्रित कर दें, और जब चोर हमारे ही मकान, भूमि, भवन में कब्जा करके बैठ जाएं समस्त संपत्ति लूटने और हम खड़े रहकर देखते रहे एक ठग की भांति ,और कहे कि यह सब क्या हुआ

मैंने तो इन्हें क्यों बुलाया, यह तो सब कुछ लूट ही रहे, सब बर्बाद कर रहे हैं लेकिन मनुष्य बाहर की संपत्ति को लुटाने के लिए तो चोरों को निमंत्रण नहीं देता क्योंकि यह संपत्ति व वैभव वह खुद इकट्ठा करता है उसको वह लुटता हुआ नहीं देख सकता परंतु मनुष्य जरा विचार कर, तेरे भीतर असीम आनंद, शक्ति, अपार सुख, शक्ति और तेज, बल, बुद्धि, पराक्रम, मैत्री, करुणा, ऐश्वर्य जो तुम्हारे प्रभु ने तुमको दिया है

उसे काम क्रोध आदि विकार व वासना रूपी चोरों को बार- बार बुला कर ,बार-बार क्यों लुटाता है और कहता है, कि यह तो स्वाभाविक ही है इसमें मैं क्या करूं, अब तो संभलो ,अपने आप को पहचान लो ,भगवान की दी हुई शक्ति को पहचानो

इस सुविचार, शिव संकल्प को अपने भीतर करो, कि मैं निर्विकार हूं ब्रम्हचर्य मेरा स्वधर्म है ब्रह्मचारी रहना स्वाभाविक है ,और निश्चित जानो कि विकारों के अस्वाभाविक ,अल्पकालीन उफान व प्रवाह के बाद आपको जीवन निर्विकार स्थिति में ही जीना होता है ब्रह्मचर्य का पालन करके ओजस्वी ,तेजस्वी, परोपकारी, बुद्धिमान ,बलवान बनकर सबसे दिव्य प्रेम करते हुए सेवा परोपकार और करुणा से अपने जीवन को सुंदर बनाओ

अपरिग्रह

परिग्रह का अर्थ है चारों तरफ से इकट्ठा करना, संचित करना, इसके विपरीत जीवन को जीने के लिए आवश्यक धन ,वस्त्र आदि पदार्थों व मकान से संतुष्ट होकर जीवन के मुख्य लक्ष्य ईश्वर- आराधना करना अपरिग्रह है ईश्वरीय व्यवस्था के अनुसार जीवन में जो भी कुछ धन ,वैभव ,भूमि ,भवन आदि ऐश्वर्य हमें प्राप्त हैं, उनको कभी भी अहंकार के वशीभूत होकर अपना नहीं मानना चाहिए भौतिक सुख तथा  सुख के साधनों की इच्छा भी साधक को नहीं करनी चाहिए

अनासक्त भाव से जीवन को जीते हुए आप जो भी सुख साधन उपलब्ध हैं उनका उपयोग दूसरों को सुख पहुंचाने के लिए करें प्राणियों को बिना पीड़ा दिए सुख का उपभोग संभव नहीं है इसलिए लौकिक सुख भोग में हिंसा कृत दोष भी है अतः योगी पुरुष को विषयों के प्रति अनासक्त रहकर अपरिग्रह का पालन करना चाहिए इन सभी यमो अहिंसा व सत्यादी का पालन

मन ,वचन तथा कर्म से करना चाहिए

योग में नियम

सौच

संतोष

तप

स्वाध्याय

ईश्वर प्राणिधान

सौच

सौच कहते हैं शुद्धि को ,पवित्रता को पवित्रता और सुचिता दो प्रकार की होती है

एक बाह्य

दूसरी अभ्यंतर

साधक को प्रतिदिन जल से शरीर की शुद्धि ,सत्याचरण से मन की शुद्धि, विद्या और तप के द्वारा आत्मा की शुद्धि, तथा ज्ञान के द्वारा बुद्धि की शुद्धि ,करनी चाहिए भगवती गंगा आदि के पवित्र जल से भी शरीर की शुद्धि हो सकती है मन बुद्धि एवं आत्मा की शुद्धि के लिए तो ऋषियों द्वारा बताए गए उपायों को करना होगा

संतोष

अपने पास विद्यमान समस्त साधनों से पूर्ण पुरुषार्थ करें जो कुछ प्रतिफल मिलता है उसमें पूर्ण संतुष्ट रहना और अप्राप्त की इच्छा न करना अर्थात पूर्ण पुरुषार्थ एवं ईश्वर की कृपा से जो प्राप्त हो, उसका तिरस्कार न करना तथा अप्राप्त की तृष्णा ना रखना ही संतोष है

संतोष रूपी अमृत के पान करने से तृप्त हुए शांत चित्त मनुष्य को जो आत्मिक व हार्दिक शुख मिलता है वह धन वैभव की व्याकुलता में इधर-उधर भटकने वाले मनुष्यों को कभी नहीं मिल सकता, सुख का मूल आधार है संतोष

तप

तप का अर्थ महर्षि व्यास द्वंदों को सहन करना कहते हैं अपने सदउद्देश्य की सिद्धि में जो भी कष्ट, बाधाएं, प्रतिकूलताएं आए उनको सहज भाव से स्वीकार करके बिना मन को विचलित करते हुए, अपने लक्ष्य की ओर बढ़ना तप कहलाता है

स्वाध्याय

महर्षि व्यास के अनुसार प्रणव ओंकार का जप करना तथा मौत की ओर ले जाने वाले वेद- उपनिषद ,योग, दर्शन, गीता जो भी सत्य शास्त्र हैं इनका श्रद्धा पूर्वक अध्ययन करना स्वाध्याय है

ईश्वर –प्रणीधान

गुरुओं के गुरु, परम गुरु परमात्मा स्वरुप गुरु में अपने समस्त कर्मों का अर्पण कर देना भगवान को हम वही समर्पित कर सकते हैं जो सुभ है. दिव्य है, पवित्र है इसलिए साधक पूर्ण श्रद्धा ,भक्ति से वही कार्य करेगा जिसे वह भगवान को समर्पित कर सके अर्थात उसकी समस्त क्रियाओं का ध्येय ईश्वर अर्पण होगा

सच्चा भक्त सदा यही विचार करता है कि मुझे जीवन भर में शरीर मन, बुद्धि शक्ति ,रूप, यौवन, समृद्धि, ऐश्वर्य, पद, सत्ता, मान आदि समस्त वैभव जो कुछ भी मिला है सब ईश्वर की कृपा से मिला है इसलिए मुझे अपनी समस्त शक्तियों का उपयोग अपने प्रभु को प्रसन्न करने के लिए ही करना चाहिए

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