योनितन्त्र पटल १ – Yoni Tantra Patal 1, योनितन्त्रम् प्रथमः पटलः
दुर्गासप्तशती में कहा गया है- ‘स्त्रियः समस्ताःसकला जगत्सु ।“ अर्थात् जगत में जो कुछ है वह स्त्रीरूप ही है, अन्यथा निर्जीव है। भगवती शक्ति को योनिरूपा कहा है। इसी योनिरूप को अन्य तंत्र ग्रंथों में त्रिकोण या कामकला भी कहा गया है।
योनि तन्त्र पहला पटल
ॐ परमदेवतायै नमः ।
ॐ श्रीगुरवे नमः ।।
ॐ परमदेवता को नमस्कार। ॐ श्री गुरु को नमस्कार ।।
कैलाशशिखरारूढ़ देवदेवं जगदगुरूम् ।
सदास्मेरमुखी दुर्गा पप्रच्छ नगनन्दिनी ।। १।।
श्री देव्युवाच-
चतुःषष्टि च तन्त्राणि कृतानि भवता प्रभो ।
तेषां मध्ये प्रधानानि वद मे करुणानिधे ।। २।।
सदा प्रस्फुरितमुख अर्थात् मृदु-मृदु मुस्कानधारी दुर्गा ने कैलाशशिखर पर आरूढ़ जगदगुरु परमेश्वर से पूछा- हे प्रभो ! हे करुणानिधे ! आपने चुतःषष्टि तन्त्र का प्रणयन किया है। उसमें से आप प्रधान तन्त्रसमूह मुझे बताएँ ।। १-२।।
श्री महादेव उवाच-
शृणु पार्वति चार्वङ्गि अस्ति गुह्यतमं प्रिये ।
कोटिवारं वारितासि तथापि श्रोतुमिच्छसि ।। ३।।
स्त्री स्वभावाच्च चार्वङ्गि तथा मां परिपृच्छसि ।
गोपनीयं प्रयत्नेन त्वयेव विद्यते च तत् ।। ४।।
मन्त्रपीठं यन्त्रपीठं योनिपीठञ्च पार्वती ।
योनिपीठं प्रधानं हि तव स्नेहात् प्रकाश्यते ।। ५ ।।
महादेव जी ने कहा– हे चार्वङ्गि, पार्वती । सुनो ! इस गुह्यतम विद्या का वर्णन मैंने कोटिबार किया है, फिर भी तुम केवल नारीस्वभावगत चापल्य के कारण इसे सुनना चाहती हो और इसी कारण मुझसे इसके बारे में जिज्ञासा कर रही हो। हे पार्वती ! हे चार्वङ्गि ! मन्त्रपीठ, यन्त्रपीठ एवं योनिपीठ (शक्तिपीठ) के विषय में सर्वदा सर्वप्रकार से उद्घाटित करूंगा। इन तीनों पीठों में योनिपीठ सर्वप्रधान है। मैं मात्र तुम्हारे प्रति स्नेहवश ही इस पर प्रकाश डालूंगा ।। ३- ५।।
हरिहराद्याश्च ये देवाः सृष्टि स्थित्यन्तकारकाः ।
सर्वे वै योनिसम्भूताः शृणुष्व नगनन्दिनि ।। ६ ।।
शक्तिमन्त्रमुपास्यैव यदि योनिं न पूजयेत् ।
तेषां दीक्षाश्च मन्त्राश्च ठ नरकायोपपद्यते ।। ७ ।।
हे नगनन्दिनि श्रवण करो। सृष्टि स्थिति एवं प्रलयकर्त्ता ब्रह्मा, विष्णु एवं रुद्र प्रभृति समस्त देवगण इस योनि अर्थात् आद्याशक्ति से समुत्पन्न हैं। शक्ति मन्त्र उपासक यदि योनिपीठ की पूजा न करे, जिसमें उसकी दीक्षा हुई है, तो मन्त्र एवं पूजा प्रभृति सब कुछ नरक-गमन का कारण हो जाता है ।। ६-७।।
अहं मृत्युञ्जयो देवि तव योनि प्रसादतः ।
तव योनिं महेशानि भावयामि अहर्निशम् ।। ८ ।।
पूजयामि सदा दुर्गे हृत्पद्मे सुरसुन्दरि ।
दिव्यभावो वीरभावो यस्य चित्रे विराजते ।। ९ ।।
अनायासेन देवेशि तस्य मुक्तिः करे स्थिता ।
शक्तिमन्त्रं पुरस्कृत्य यो वा योनिप्रपूजकः ।। १०।।
हे देवि! तुम्हारी योनि अर्थात् शक्ति प्रभाव के ही कारण मैं अहर्निश चिन्ता एवं सर्वदा अपने हृत्पद्म में तुम्हारी पूजा करता हूँ। उस हृदय में तुम दिव्यभाव एवं वीरभाव से विराजमान हो। हे दुर्गे ! मुक्ति तो अनायास ही तुम्हारे करतलगत है। जो व्यक्ति शक्तिमन्त्र का आश्रय लेकर योनिपीठ अर्थात् शक्तिपीठ की उपासना करता है; वह व्यक्ति धन्य है। वह व्यक्ति कवि, धीमान एवं सुरासुरगणों द्वारा वन्दनीय है ।। ८-१०।।
स धन्यः स कवि र्धीमान् स वन्द्योऽपि सुरासुरैः ।
ब्रह्मा यदि चतुर्वक्तैः कल्पकोटि-शतैरपि ।। ११।।
तदा वक्तुं न शक्लोति किमन्यैर्बहुभाषितैः ।
यदि भाग्यवशेनापि सपुष्पां मीनचेतसाम् ।। १२ ।।
तदेव महतीं पूजां कृत्वा मोक्षमवाप्नुयात् ।
आनीय प्रमदां कान्तां घृणा लज्जा-विवज्जिताम् ।। १३ ।।
स्वकान्तां परकान्तां वा सुवेशां स्थाप्य मण्डले ।
प्रथमे विजयां दत्त्वा पूजयेद् भक्तिभावतः ।। १४ ।।
ब्रह्मा यदि चतुर्मुख द्वारा शतकोटि कालतक इस योनिपीठ अर्थात् शक्तिपीठ के महात्म्य का कीर्तन करें, तो भी, वे इसके गुणगान को पूरा नहीं कर सकेंगे। इस विषय मैं और अधिक क्या कह सकूँगा ? यदि भाग्यवश पुष्पिता कुलसुन्दरी प्राप्त हो जाय, तो उसकी योनिपीठ की महती पूजा द्वारा मोक्ष लाभ होता है। स्वकान्ता हो या परकान्ता उसे सर्वप्रथम सुन्दरवेश मण्डल के मध्य में स्थापित करना चाहिए। उसके पश्चात् उसे विजया (सिद्ध, भाङ्ग) प्रदान करके भक्तिभाव से पूजा करना चाहिए ।। ११–१४।।
वामोरौ परिसंस्थाप्य पूजा देया कुलोचिता ।
योनिगर्ते चन्दनञ्च दद्यात् पुष्पं मनोहरम ।। १५ ।।
तत्र चावाहनं नास्ति जीवन्यास तथा मनुः ।
तन्मुखे कारणं दत्त्वा सिन्दूरेनार्धचन्द्रकम् ।। १६ ।।
उसके बाद साधक उस युवती को अपने बाएँ जाँघ पर स्थापित करके कुलाचार – प्रथानुसार उसकी पूजा करे। अर्थात् उसके पश्चात् साधक उस युवती को अपने बाएँ जाँघ के उपरिभाग में स्थापित करके उस युवती की योनि (शक्तिपीठ) की पूजा करेगा। शक्तिपीठ को चन्दन एवं मनोहर पुष्प प्रदान करे। इस स्थल पर इष्टदेवी के आवाहन, जीवन्यास अथवा मन्त्रन्यास की कोई आवश्यकता नहीं है। साधक इस कुलयुवती को कारण (मद्य) प्रदान करके सिन्दूर द्वारा उसके ललाट पर अर्द्धचन्द्र अंकित करेगा ।। १५-१६।।
ललाटे चन्दनं दत्त्वा हस्तद्वयं कुचोपरि ।
अष्टोत्तरशतं जप्त्वा स्तनमध्ये वरानने ।। १७ ।।
कुलयुवती के ललाट पर चन्दन प्रदान करके साधक अपने दोनों हाथ इस युवती के स्तनों पर स्थापित करेगा। उसके बाद दोनों कुचों के मध्य अर्थात् हृदय पर एक सौ आठ बार मूलमन्त्र का जप करेगा ।। १७।।
कुचयोर्मर्द्दनं कुर्यात् गण्डचुम्बनपूर्वकं ।
अष्ठोत्तरशतं वापि सहस्र योनिमण्डले ।। १८ ।।
तत्पश्चात् साधक को दोनों कुचों का मर्दन एवं गण्डचुम्बन करते हुए योनिमण्डल पर एक सौ आठ अथवा एक-हजार आठ बार महामूलमन्त्र का जाप करना चाहिए।। १८ ।।
जप्त्वा महामनुं स्तोत्रं पठेद्भक्ति परायणः ।
पूजाकाले गुरुर्न स्यात् यदि साधक सत्तमः ।। १९ ।।
स्वयं पूजा प्रकर्त्तव्या नात्र कार्या विचारणा ।
गुरोरग्रे पृथक् पूजा विफला च न संशयः ।। २० ।।
जप समाप्त करने के बाद भक्तिभाव पूर्वक स्तोत्र पाठ करना चाहिए। पूजाकाल के समय यदि उस स्थान पर गुरु न उपस्थित हो तो उस स्थान पर साधक स्वय कुलपूजा संपन्न करेगा। परन्तु गुरु के उपस्थित रहने पर गुरू ही कुलपूजा संपन्न करेगा। गुरू के सम्मुख पृथक पूजा संपन्न करने पर साधक की पूजा सम्पूर्णरूप से फलहीन हो जायेगी, इसमें कोई संशय नहीं ।। १९-२०।।
तस्मात् बहुतरै र्यनै र्गुरवे च समर्पयेत् ।
पूजा वसाने आगत्य प्रणमेत् योनिमण्डले ।। २१ ।।
गुरू के उपस्थित रहने पर सम्पूर्ण कार्यभार गुरू के उपर ही अर्पित करना चाहिए एवं गुरू द्वारा संपन्न पूजा के समापन पर साधक पूजास्थान पर जाकर योनिपीठ को प्रणाम करेगा ।। २१।।
पुष्पाञ्जलित्रयं दत्त्वा स्वगुरुं प्रणमेत् पुनः ।
प्रार्थयेद् बहुमत्रेन कृताञ्जलि पुटः सुधीः ।। २२।।
योनिपूजाविधिं दृष्ट्वा कृतार्थोऽस्मि‘ न संशयः ।
अद्य मे सफलं जन्म जीवितञ्ज सुजीवितम् ।। २३ ।।
पूजां कृत्वा महायोनिमुद्धृतं नरकार्णवात् ।। २४ ।।
इसके बाद योनिपीठ को तीन बार पुष्पाञ्जि प्रदान करके साधक अपने गुरू को प्रणाम करेगा। तत्पश्चात् साधक कृताञ्जलि पुट के साथ विनयपूर्वक गुरू को निम्नोक्त वाक्योच्चारण द्वारा कृतज्ञाता ज्ञापन करेगा। यथा-आपने मुझे योनिपूजा-विधि प्रदर्शित करके सर्वप्रकार कृतार्थ किया है। आज मेरा जन्म सफल एवं जीवन धन्य हुआ। आज आपने योनिपूजा करके मुझे नरकगामी होने से बचा लिया ।। २२-२४।।
इति योनितन्त्रे प्रथमः पटलः ।।
योनि तन्त्र के प्रथम अध्याय का अनुवाद समाप्त हुआ।
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