सर्प सूक्त || Sarp Sookt
श्री सर्प सूक्त का पाठ करने से जीवन में किसी भी प्रकार का सर्प बाधा नहीं रहता व उस घर में सर्प नहीं आता और जीवन सुखमय व खुशहालमय होता है, इसके नित्य पाठ से जीवन में कभी धन की कमी नहीं होता अर्थात् धन लाभ का योग बनता है। विशेषकर कालसर्प योग में राहत देता हैं और लाभदायी है।
जिस जातक की जन्मपत्रिका में कालसर्प योग होता है उसका जीवन अत्यंत कष्टदायी होता है। इस योग से पीड़ित जातक मन ही मन घुटता रहता है। उसका जीवन कुंठा से भर जाता है। जीवन में उसे अनेक प्रकार की परेशानियां उठानी पड़ती हैं। ऐसे जातक को श्री सर्प सूक्त का पाठ राहत देता है।
कालसर्प दोष शांति पूजा में सर्प सूक्त की इस स्तुति का पाठ करके कलश सहित स्वर्ण का सर्प दान ब्राह्मण को देकर आशीर्वाद लिया जाता है। इस विधि से सर्प का संस्कार करने पर मनुष्य निरोगी होता है उत्तम संतान प्राप्त करता है और उसे अकालमृत्यु का भय नहीं रहता।
सर्प सूक्त
|| अथ सर्प सूक्त ||
विष्णु लोके च ये सर्पा: वासुकी प्रमुखाश्च ये ।
नमोस्तुतेभ्य: सर्पेभ्य: सुप्रीतो मम सर्वदश्च ।।१।।
रुद्र लोके च ये सर्पा: तक्षक: प्रमुखस्तथा।
नमोस्तुतेभ्य: सर्पेभ्य: सुप्रीतो मम सर्वदा।।२।।
ब्रह्मलोकेषु ये सर्पा शेषनाग परोगमा:।
नमोस्तुतेभ्य: सर्पेभ्य: सुप्रीतो मम सर्वदा।।३।।
इन्द्रलोकेषु ये सर्पा: वासुकि प्रमुखाद्य:।
नमोस्तुतेभ्य: सर्पेभ्य: सुप्रीतो मम सर्वदा।।४।।
कद्रवेयश्च ये सर्पा: मातृभक्ति परायणा।
नमोस्तुतेभ्य: सर्पेभ्य: सुप्रीतो मम सर्वदा।।४।।
इन्द्रलोकेषु ये सर्पा: तक्षका प्रमुखाद्य।
नमोस्तुतेभ्य: सर्पेभ्य: सुप्रीतो मम सर्वदा।।५।।
सत्यलोकेषु ये सर्पा: वासुकिना च रक्षिता।
नमोस्तुतेभ्य: सर्पेभ्य: सुप्रीतो मम सर्वदा।।६।।
मलये चैव ये सर्पा: कर्कोटक प्रमुखाद्य।
नमोस्तुतेभ्य: सर्पेभ्य: सुप्रीतो मम सर्वदा।।७।।
पृथिव्यां चैव ये सर्पा: ये साकेत वासिता।
नमोस्तुतेभ्य: सर्पेभ्य: सुप्रीतो मम सर्वदा।।८।।
सर्वग्रामेषु ये सर्पा: वसंतिषु संच्छिता।
नमोस्तुतेभ्य: सर्पेभ्य: सुप्रीतो मम सर्वदा।।९।।
ग्रामे वा यदि वारण्ये ये सर्पप्रचरन्ति च ।
नमोस्तुतेभ्य: सर्पेभ्य: सुप्रीतो मम सर्वदा।।१०।।
समुद्रतीरे ये सर्पाये सर्पा जंलवासिन:।
नमोस्तुतेभ्य: सर्पेभ्य: सुप्रीतो मम सर्वदा।।११।।
रसातलेषु ये सर्पा: अनन्तादि महाबला:।
नमोस्तुतेभ्य: सर्पेभ्य: सुप्रीतो मम सर्वदा।।१२।।
सर्प सूक्त समाप्त।।
सर्प सूक्त
|| सर्पसूक्तम् २ ||
नमोऽस्तु सर्पेभ्यो ये के च पृथिविमनु ।
ये अन्तरिक्षे ये दिवि तेभ्यः सर्पेभ्यो नमः ॥ १॥
येऽदो रोचने दिवो ये वा सूर्यस्य रश्मिषु ।
येषामप्सूषदः कृतं तेभ्यः सर्पेभ्यो नमः ॥ २॥
या इषवो यातुधानानां ये वा वनस्पतीम्+ रनु ।
ये वाऽवटेषु शेरते तेभ्यः सर्पेभ्यो नमः ॥ ३॥
ऋग्वेद खिलानि (२.१४)
स्वप्नस्स्वप्नाधिकरणे सर्वं निष्वापया जनम् ।
आ सूर्यमन्यांस्त्वापयाव्युषं जाग्रियामहम् ॥ ४॥
अजगरोनाम सर्पः सर्पिरविषो महान् ।
तस्मिन्हि सर्पस्सुधितस्तेनत्वा स्वापयामसि ॥ ५॥
सर्पस्सर्पो अजगरसर्पिरविषो महान् ।
तस्य सर्पात्सिन्धवस्तस्य गाधमशीमहि ॥ ६॥
कालिको नाम सर्पो नवनागसहस्रबलः ।
यमुनाह्रदेहसो जातो यो नारायण वाहनः ॥ ७॥
यदि कालिकदूतस्य यदि काः कालिकात् भयात् ।
जन्मभूमिमतिक्रान्तो निर्विषो याति कालिकः ॥ ८॥
आयाहीन्द्र पथिभिरीलितेभिर्यज्ञमिमन्नो भागदेयञ्जुषस्व ।
तृप्तां जुहुर्मातुलस्ये वयोषा भागस्थे पैतृष्वसेयीवपामिव ॥ ९॥
यशस्करं बलवन्तं प्रभुत्वं तमेव राजाधिपतिर्बभूव ।
सङ्कीर्णनागाश्वपतिर्नराणां सुमङ्गल्यं सततं दीर्घमायुः ॥ १०॥
कर्कोटको नाम सर्पो योद्वष्टी विष उच्यते ।
तस्य सर्पस्य सर्पत्वं तस्मै सर्प नमोऽस्तुते ॥ ११॥
सर्पगायत्री –
भुजङ्गेशाय विद्महे सर्पराजाय धीमहि ।
तन्नो नागः प्रचोदयात् ॥ १२॥
इति सर्पसूक्तं सम्पूर्णम् ।