अष्ट पदि ३ माधव उत्सव कमलाकर || Ashta Padi 3 Madhav Utsav Kamalakar
कवि श्रीजयदेवजीकृत श्रीगीतगोविन्दम् प्रथम सर्ग सामोद-दामोदर तृतीय सन्दर्भ अष्ट पदि ३ में इस तृतीय प्रबन्ध का नाम “माधव उत्सव कमलाकर” है। यह मङ्गलगीत अष्टपदीय है, जिसमें जाति नामक अलङ्कार है। इसमें वर्णित श्रीराधा मध्या नायिका हैं। इसमें श्रीकृष्ण दक्षिण नायक के रूप में हैं। इसमें शृङ्गार रस का विप्रलम्भ भाव है। इसमें प्रयुक्त छन्द का नाम लय है।
अष्ट पदि ३ माधवोत्सव कमलाकरम्
“माधवोत्सव कमलाकर”
प्रथमः सर्गः सामोद दामोदरः- तृतीयः सन्दर्भः
अथ तृतीयः सन्दर्भः ।
वसन्ते वासन्ती – कुसुम – सुकुमारैरवयवै-
र्भ्रमन्तीं कान्तारे बहुबिहित – कृष्णानुसरणाम् ।
अमन्दं कन्दर्पज्वरजनितचिन्ताकुलतया
बलद्बाधां राधां सरसमिदमूचे सहचरी ॥१॥
अन्वय – [ श्रीराधाया अष्टनायिकावस्थां वर्णयन् सम्भोगपोषक- विप्रलम्भ-शृङ्गार-वर्णनाय प्रथमं विरहोत्कण्ठितामाह] – काचित् सहचरी (सखी) वसन्ते ( वसन्तकाले ) वासन्तीकुसुमसुकुमारैः( वासन्तीपुष्पैरिव सुकुमारैः यूथिकाकुसुमपेलवैरित्यर्थः) अवयवैः (अङ्गैरुपलक्षितामित्यर्थः) कान्तारे (निविडे वने) भ्रमन्तीं बहु-बिहित-कृष्णानुसरणाम् (बहु यथातथा बिहितं कृतं कृष्णानुसरणं यया ताम् ) [ अतएव] अमन्दं ( नितान्तं) कन्दर्पज्वरजनितचिन्ताकुलतया (कामसन्तापजनिता या चिन्ता उत्कण्ठा तया आकुलतया कातरतया) बलद्वाधां (परिवर्द्धमान- मदनपीडां) राधाम् इदं (वक्ष्यमाणं) सरसं (रसवत्) वचः ऊचे ॥
अनुवाद – किसी समय वसन्त ऋतु की सुमधुर बेला में विरह-वेदना से अत्यन्त कातर होकर राधिका एक विपिन से दूसरे विपिन में श्रीकृष्ण का अन्वेषण करने लगी, माधवी लता के पुष्पों के समान उनके सुकुमार अङ्ग अति क्लान्त हो गये, वे कन्दर्पपीड़ाजनित चिन्ता के कारण अत्यन्त विकल हो उठीं, तभी कोई एक सखी उनको अनुरागभरी बातों से सम्बोधित करती हुई इस प्रकार कहने लगी ॥ १ ॥
पद्यानुवाद-
कौन वह दुर्गम वनों में, त्रस्त-मातल डोलती है?
फूल वासन्ती शरीरी, कृष्ण का मन तोलती है?
देखकर कन्दर्प ज्वर से, क्रान्तः मन को खोलती है।
एक सहचरी हो सदय यह, राधिका से बोलती है-
बालबोधिनी – प्रस्तुत पद्य में महाकवि श्रीजयदेवजी ने सर्वप्रथम श्रीराधामाधव के मङ्गलमय मधुर मिलन के द्वारा उनके महा उत्कर्ष का वर्णन किया है। इसी उपक्रम में श्रीराधामाधव की रहः केलि का वर्णन करने से कवि का हृदय विकसित कमल की भाँति आनन्द में उच्छलित होने लगा है। इसलिए रसिक कवि ने दक्षिण, धृष्ट एवं शठ नायक के गुणों से विभूषित श्रीकृष्ण को श्रीराधिका के प्रति अनुकूल नायक के रूप में प्रकट किया है। श्रीशुकदेवजी ने जैसे ‘सूची कटाह‘ न्याय से अर्थात् स्वल्प परिश्रम – साध्य कार्य का सम्पादन कर पीछे बहु- परिश्रम – साध्य कार्य को सम्पन्न करने की भाँति समस्त गोपियों की पहले श्रेष्ठता दिखलाकर अन्त में श्रीराधाजी की सर्वश्रेष्ठता प्रतिपादित की है। उसी प्रकार कवि ने श्रीराधा में आठ प्रकार के नायिका – लक्षणों का वर्णन करते हुए श्रीराधाजी को सर्वनायिका- शिरोमणि सिद्ध किया है।
[आठ प्रकार की नायिका जैसे- १. अभिसारिका २. वासकसज्जा ३. उत्कण्ठिता ४ खण्डिता ५. विप्रलब्धा ६. कलहान्तरिता ७. प्रेषितभर्तृका ८. स्वाधीन भर्त्तृका]
प्रस्तुत श्लोक में सम्भोग रस के पुष्टिकारक विप्रलम्भ शृङ्गार का वर्णन करते हुए विरहोत्कण्ठिता नायिका राधिका का वर्णन कर रहे हैं। उद्धाम, मन्मथभाव से पीड़ित, महाज्वरग्रस्त, कम्पिताङ्गी, रोमाञ्चित, मलिनवपुमयी, पुनःपुनः मोह को प्राप्त होनेवाली वेपथुयुक्ता, सघनरूप से पुलकित और उत्कण्ठिता होकर बोलनेवाली उत्कण्ठिता नायिका के लक्षण भरतमुनि ने नाट्यशास्त्र में बताये हैं। शृङ्गार तिलक (१-७५) में विरहोत्कण्ठिता नायिका के निम्नाङ्कित लक्षण बताये गये हैं-
उत्का भवति सा यस्याः सङ्केतं नागतः प्रियः ।
तस्याऽनागमने हेतुं चिन्तयत्याकुला यथा ॥
अर्थात् जिस नायिका का नायक सङ्केतकाल में सङ्केत स्थान पर नहीं आता है, वह विरहोत्कण्ठिता नायिका कहलाती है, वह अपने प्रियतम के नहीं आने के कारण सोच समझकर व्याकुल हो जाती है। यह श्लोक विप्रलम्भ शृङ्गार वर्णन की भूमिका स्वरूप है। कवि कह रहे हैं कि वासन्तिक काल में कोई एक सखी राधिकाजी से कहने लगी- “हे राधे ! तुम्हारा शरीर माधवी पुष्पों के समान अतिशय सुकोमल है और तुम यहाँ कण्टक कुशयुक्त, बीहड़ वन में कान्त श्रीकृष्ण की प्राप्ति के लिए भ्रमण कर रही हो, इतना अन्वेषण करने पर भी तुम्हें प्रियतम नहीं मिले। कन्दर्प- वाण से पीड़ित, अति तीव्र कामज्वर से सन्तप्त तुम उन्हें पाने की लालसा में व्याकुल हो रही हो।”
प्रस्तुत पद्य में ‘वसन्त‘ पद के द्वारा कालरूपी उद्दीपन विभाव को बतलाया है। ‘चलद्‘– यह पद श्रीराधाजी का विशेषण है, इससे सूचित होता है कि उन्होंने श्रीकृष्ण को कानन में बार-बार अन्वेषण किया कि प्रियतम शायद अब आयें, अब आयें। ‘वासन्ती सुकुमारयवै‘ – उन श्रीराधाजी के अङ्ग सुकुमार हैं। वासन्ती कुसुम अर्थात् माधवी लता । वसन्त ऋतु में यह लता पूर्णतया विकसित हो जाती है, वासन्ती लता के पुष्प अत्यन्त मनोज्ञ तथा सुकुमार होते हैं, उसी प्रकार श्रीराधाजी के अङ्ग अत्यन्त मनोहर तथा सुकुमार हैं – यह इस पद के द्वारा सूचित होता है।
“हे सखी राधे ! यह निश्चित है कि तुम्हारे प्राणनाथ श्रीकृष्ण तुम्हें छोड़कर किसी दूसरी के साथ विहार कर रहे हैं, शारदीया रास – रजनी में प्रथम महोत्सव में श्रीकृष्ण ने तुम्हारे असमोर्द्ध रूप गुण माधुरी का अनुभव कर लिया था। तुम्हारे प्रति सर्वविदित अनुराग को वे सार्थक मानने लगे थे। अतः कदाचित् तुम्हारी सरीखी कोई इस व्रजमण्डल में है या नहीं, यह जानने के लिए पत्थर की खुदाई की क्रिया की भाँति उसे ढूँढ़ते हुए कुछ दिनों के लिए इधर उधर निकल गये हैं। अथवा तुम्हारे सदृश कोई है या नहीं यह जानने की इच्छा से श्रीकृष्ण के अभिप्राय के अनुसार योगमाया ने कंस को प्रेरणा दी और कंस ने अक्रूर को नन्दगाँव भेजा, श्रीकृष्ण ने अक्रूर के साथ नारी संकुला बहुसंख्यक स्त्रियों के सङ्ग से परिवेष्टित मथुरापुरी में प्रस्थान किया। श्रीकृष्ण ने देखा, मथुरा मण्डल में व्रजसुन्दरियों जैसा सौन्दर्य किसी का नहीं और न ही उनके जैसा गुणाकर्षण है। तब इस चाह में वे मानो द्वारका के लिए प्रस्थान कर गये । द्वारका में तब श्रीकृष्ण ने नरेन्द्र कन्याओं के साथ विवाह किया, वहाँ भी सफलता न मिलने पर नरकासुर द्वारा अपहृत गन्धर्व कन्या, यक्ष कन्या, नाग कन्या एवं मानव कन्याओं (जिनकी संख्या षोडश सहस्र है) से विवाह कर लिया, फिर भी हे राधिके! तुम्हारे समान किसी को भी न देखकर दन्तवक्र वध के पश्चात् पुनः व्रज में लौट आये हैं।” पद्मपुराण में श्रीकृष्ण के सुदीर्घ प्रवास के पश्चात् व्रज आगमन का संवाद मिलता है-
कृष्णोऽपि तं दन्तवक्रं हत्वा यमुनामुतीर्य
नन्दव्रजं गत्वा सोत्कण्ठौ पितरौ अभिवाद्याश्वास्य
ताभ्यां साश्रुकण्ठमालिङ्गितः सकल गोपवृन्दान्
प्रणम्याश्वास्य सर्वान् सन्तर्पयामास ॥
अर्थात् श्रीकृष्ण दन्तव वक्र का वध करने के पश्चात् यमुना पार करके नन्दव्रज में पहुँचे। वहाँ चिरोत्कण्ठित नन्द-यशोदा को प्रणाम आदि द्वारा आश्वासन दिया। उन दोनों ने आँसुओं से स्नान कराते हुए श्रीकृष्ण को हृदय से लगाकर चिर व्यथा को प्रशमित किया। तत्पश्चात् श्रीकृष्ण ने समस्त गोपवृन्द से मिलकर उनके विरह दुखःको शान्त करके चिर – विरहिणी व्रजगोपियों से मिलकर उनकी तीव्र विरह पीड़ा को भी शान्त किया।
श्रीमद्भागवत के प्रथम स्कन्ध में द्वारकावासी कह रहे हैं-
यर्ह्यम्बुजाक्षापससार भो भवान् कुरून्मधून् वाथ सुहृद्दिदृक्षया ।
तत्राब्दकोटिप्रतिमः क्षणो भवेद् रविं विनाक्ष्णोरिव नस्तवाच्युत ॥
“हे कमलनयन ! जब आप सुहृद्जनों के दर्शन के निमित्त कुरुदेश तथा मधुपुरी में (व्रजमण्डल में) गमन करते हैं, उस समय आपके विरह में क्षणकाल भी कोटि युग के समान प्रतीत होता है। जैसे सूर्य के बिना आँखों में अन्धकार प्रतीत होता है वैसे ही आपके बिना चारों ओर शून्य प्रतीत होता है।”
वसन्त में गोपियों का प्रियमिलन जनित आनन्द तथा विरहीजनों का प्रिय-विच्छेदजनित विरह दोनों ही मर्मस्पर्शी प्रसङ्ग हैं। इन्हीं बातों का स्मरण कराती हुई सखी कहती है । प्रस्तुत पद में शिखरिणी छन्द है, वैदर्भी रीति तथा उप नागरिका वृत्ति है।
अष्ट पदि ३ माधवोत्सव कमलाकरम्
गीतम् ॥३॥
वसन्त- राग यति तालाभ्यां गीयते
( सरस वसन्त समय)
यह तीसरा प्रबन्ध वसन्तराग तथा यति-ताल से गाया जाता है। वसन्त राग का स्वरूप है-
शिखण्ड – बच्चय- बद्धचूड़ः पुष्णन् पिकं चूत – नवांकुरेण ।
भ्रमन् मुदा – राममनङ्ग मूर्तिर्मत्तमातङ्गो हि वसन्तरागः ॥
अर्थात् वसन्तरागयुक्त पुरुष का सिर मयूरपिच्छ से बँधा होता है। आम्रमञ्जरी तथा लताओं से वह श्रेष्ठ कोयल समूह को परिपुष्ट बनाता रहता है। सशरीर कामदेव के समान वह प्रसन्न मदमत्त गजराज के समान भ्रमण करता है ॥
अष्ट पदि ३ माधवोत्सव कमलाकरम्
ललित-लवङ्गलता-परिशीलन-कोमल-मलय-
समीरे मधुकर-निकर-करम्बित-कोकिल-
कूजित-कुञ्ज-कुटीरे ।
विहरति हरिरिह सरस-वसन्ते….
नृत्यति युवतिजनेन समं सखि विरहि-जनस्य दुरन्ते ॥१ ॥ध्रुवम्
उन्मद-मदन-मनोरथ-पथिक-वधू-जन-जनित-विलापे ।
अलिकुल-संकुल-कुसुम-समूह-निराकुल-
वकुल-कलापे-विहरति हरिरिह सरस वसन्ते…. ॥ २ ॥
मृगमद-सौरभ-रभसवशम्बद नवदलमाल-तमाले ।
युवजन-हृदय-विदारण-मनसिज-नखरुचि-
किंशुकजाले-विहरति हरिरिह सरस वसन्ते…. ॥३॥
मदन-महीपति-कनक-दण्डरुचि-
केशर-कुसुम-विकासे ।
मिलित-शिलीमुख-पाटल-पटल-कृत-स्मर-
तूण-विलासे-विहरति हरिरिह सरस वसन्ते….॥४॥
विगलित-लज्जित-जगदवलोकन-
तरुण-करुण-कृतहासे ।
विरही-निकृन्तन-कुन्त-मुखाकृति-केतकि-
दन्तुरिताशे-विहरति हरिरिह सरस वसन्ते…. ॥५॥
माधविका-परिमल-ललिते नवमालिकयातिसुगन्धौ ।
मुनि-मनसामपि मोहन-कारिणि
तरुणाकारणबन्धौ-विहरति हरिरिह सरस वसन्ते…. ॥६॥
स्फुरदतिमुक्तालता-परिरम्भण-पुलकित-मुकुलित चूते ।
वृन्दावन–विपिने परिसर-परिगत-यमुनाजलपूते-
विहरति हरिरिह सरस वसन्ते ॥७ ॥
श्रीजयदेव-भणितमिदमुदयतु हरिचरणस्मृतिसारं ।
सरस-वसन्त-समय वनवर्णनमनुगत मदन-
विकारम्-विहरति हरिरिह सरस वसन्ते…. ॥८ ॥
अब यहाँ नीचे प्रत्येक पद्य, पद्य का अन्वय, श्लोकानुवाद, पद्यानुवाद तथा बालबोधिनी व्याख्या दी जा रही है-
अष्ट पदि ३ माधवोत्सव कमलाकरम्
ललित-लवङ्गलता-परिशीलन-कोमल-मलय-समीरे
मधुकर-निकर-करम्बित-कोकिल-कूजित-कुञ्ज कुटीरे-
विहरति हरिरिह सरस- वसन्ते
नृत्यति युवतिजनेन समं सखि विरहि – जनस्य दुरन्ते ॥१॥ध्रुवम्
अन्वय– अयि सखि, ललित- लवङ्गलता-परिशीलन-कोमल- मलय- समीरे ललितानां मनोहराणां लवङ्गलतानां परिशीलनेन संसर्गेण कोमलः मृदुः सुरभिश्च मलयसमीरः मलयवायुः येन तादृशे; लतानारी-संस्पर्शात् कोमलत्वेन मान्द्यं, पुष्पसम्बन्धात् सौगन्ध्यं यमुनाजलसम्बन्धात् शैत्यम्, अचेतनापि लता कान्तमन्तरेण चेत् स्थातुं न शक्नोति तर्हि चेतनानां का कथेति भावः); मधुकर – निकर – करम्बित-कोकिल-कूजित- कुञ्जकुटीरे (मधुकराणां भ्रमराणां निकरैः समूहैः करम्बिताः मिश्रिताः ये कोकिलाः तैः कूजितं मुखरितं कुञ्जकुटीरं यत्र तथाभूते); [तथा] विरहि जनस्य दुरन्ते (निपीड़के ) [ सरसोऽपि वसन्तोऽयं विरहिणां दुःखदत्वात् दुरन्त इत्यर्थः]; इह सरस- वसन्ते ( रसमये वसन्ते ) [ रसोऽत्र शृङ्गारः ]; हरिः (मनोहरणशीलः अतोऽस्य विरहो दुःसहः ) युवति – जनेन ( कयाचित् तरुण्या) समं (सह) विहरति (क्रीडति ) नृत्यति च ॥१॥
अनुवाद – प्रिय सखि ! राधे ! हाय! यह वसन्तकाल विरही जनों के लिए अतीव दुःखदायी है। देखो न ! इसके आगमन पर मलय समीर सुकोमल मनोज्ञ लताओं को पुनः पुनः आदर के साथ आलिङ्गनकर कैसी मनोहर शोभा प्रकट कर रहा है। देखो! कुञ्ज – कुटीर में भ्रमरों के मँडराने से उत्पन्न गुञ्जार से तथा कोयलों की सुमधर कुहुध्वनि से दिग्दिगन्त परिपूरित हो गये हैं और वे श्रीकृष्ण इस कुञ्ज कुटीर में किसी भाग्यवती युवती के साथ विहार कर रहे हैं और प्रेमोत्सव में मग्न होकर नृत्य भी कर रहे हैं।
पद्यानुवाद-
ललित लवङ्गता परिचुम्बित कोमल मलय समीर
मधुकर – निकर कलित कोकिलसे कुजित कुंज- कुटीर
लहर उठता रमणीका चीर
नाचते हैं हरि सरस अधीर ॥ १ ॥
बालबोधिनी – जब मलय समीर के सम्पर्क से वृक्षावलियों में नवजीवन का सञ्चार होने लगता है, बेली, चमेली आदि पुष्पों के खिलने से भौंरे गुञ्जार करने लगते हैं, आम्र के मुकुलित होने से कोयलें कूजन करने लगती हैं और वे कन्दर्प-मत्त-मातङ्ग के समान मोरपंख की पगड़ी धारणकर सबके मन को विमोहित करते हैं।
वसन्त के समय में वसन्त राग होता है । यति- ताल में लघु और द्रुत की त्रिपुटी रहती है। सखी- इस पद से सुहृदत्व सूचित हो रहा है।
सरसवसन्ते- सरस विशेषण के द्वारा वसन्त ऋतु की रसमयता और आस्वाद्यता सूचित की गई है।
विरहि जनस्य दुरन्ते – विरहीजन इस सरस वसन्त में बड़े दुःख के साथ अपने समय को बिताते हैं । श्रीहरि अपने मधुर लीलाओं के द्वारा सबके चित्त, मन और प्राणों का हरण कर लेते हैं और फिर उनका विरह अतिशय कष्टदायी और असहनीय होता है।
ललित लवङ्गलता परिशीलन कोमल मलय समीरे- श्रीकृष्ण जहाँ विराजमान हैं, उस स्थान की विशेषता बतलाते हुए कहते हैं कि मनोहर लवङ्गलताओं के संस्पर्श से यहाँ की मलय वायु मृदुल बन गयी है, यों तो मलय समीर शीतल, मन्द और सुगन्धित होता है, किन्तु लवङ्ग-लताओं के संस्पर्श से वह और भी कोमल और सुगन्धित बन गया है।
मधुकर-निकर-करम्बित – कोकिल- कूजित – कुञ्ज – कुटीरे – इस पद का विग्रह है- मधुकराणां यो हि निकर स्तेन करम्बिता: मिश्रिताः ये कोकिला स्तैः कूजितः यः कुञ्ज कुटीरः तत्र । अर्थात् नृत्य स्थान अमर समुदाय एवं कोकिला समूह से कूजित कुञ्ज की कुटीर है।
इस प्रकार किसी सहचरी के द्वारा विरह उत्कण्ठिता श्रीराधा के समीप वसन्तकालीन वृन्दावन की शोभा का वर्णन किया गया है। मनोहर लवङ्ग-लता के द्वारा वृक्ष का आलिङ्गन किये जाने से, मलय पवन के संस्पर्श से, पुष्पों की सुगन्ध से, यमुना जल की शीतलता से, लताओं की कमनीयता से, नारियों के सुकोमल अङ्ग के स्पर्श से यह वसन्त, कान्त के मिलन में जितना सुखदायी होता है, विरह में उतना ही दुःखदायी भी होता है।
जब वसन्त विलास होने से अचेतन लता भी कान्त के बिना नहीं रह सकती, तब चेतनस्वरूपा स्त्रीलता कान्त के बिना कैसे रह सकती है? इसमें भी मधुकरों का गुञ्जन, कोयलों का कूजन और भी हृदय विदारक हो जाता है। जब माधवी और बेली पुष्पों के सौरभ से मुनियों का मन भी आकर्षित हो जाता है, तब कामी – कामिनियों की तो बात ही क्या ?
पुनः माधव की स्फूर्ति प्राप्त होने पर सखी कहती है – माधवी – लता जब आम्र वृक्ष का आलिङ्गन करती है, तो मञ्जरियाँ पुलकित हो उठती हैं। जैसे किसी वर सुन्दरी के द्वारा किसी पुरुष को आलिङ्गन किये जाने से वह पुलकित हो जाता है, वैसे ही आज श्रीहरि यमुना जल से व्याप्त वृन्दाविपिन में वसन्तकाल की शोभा से मुग्ध होकर युवतियों द्वारा आलिङ्गन परायण होकर विहार कर रहे हैं।
इस श्लोक में शृङ्गार के उद्दीपन विभागों का वर्णन है। इन विभागों से विप्रलम्भ-शृङ्गार की पुष्टि होती है ॥ १ ॥
उन्मद-मदन-मनोरथ-पथिक-वधूजन-जनित-विलापे ।
अलिकुल-संकुल-कुसुम-समूह-निराकुल-बकुल-कलापे-
विहरति हरिरिह सरस वसन्ते ॥ २ ॥
अन्वय- उन्मद-मदन- मनोरथ- पथिक-वधूजन- जनित – विलापे ( उद्गतो मदो यस्य तेन गर्वस्फीतेन मदनेन मनोरथो येषां तेषां पथिकवधूजनानां जनितो विलापो येन तस्मिन्) [तथा ] अलिकुल-सङ्कुल-कुसुम – समूह – निराकुल- बकुल-कलापे (अलि- कुलेन भ्रमरनिकरेण सङ्कलः आकीर्णो यः कुसुम-समूहः तेन निराकुलः नितरामाकुलः व्याप्तः इति यावत् वकुलकलापः यस्मिन् तादृशे) [सरस वसन्ते इत्यादि]॥२॥
अनुवाद – प्रिय सखि ! प्रवास में गये हुए पतियों के विरह का अनुभव कर विरहिणियाँ केवल विलाप करती रहती हैं। तुम देखो तो! इस वसन्त ऋतु में मालती वृक्षों में पुष्पों को समा लेने के लिए कोई रिक्त स्थान ही नहीं है। राशि राशि बकुल पुष्प प्रफुल्लित हो रहे हैं और इन पर श्रेणीबद्ध होकर असंख्य भ्रमर गुञ्जार कर रहे हैं और उधर श्रीकृष्ण युवतियों के साथ विहार तथा नृत्य कर रहे हैं। हाय ! कैसे धैर्य धारण करूँ ॥ २ ॥
पद्यानुवाद-
काम-पीड़िता पांथ-वधू का व्यापित बहुल विलाप,
अलकुल संकुल सुमन मनोहर पादप बकुल कलाप ।
नहीं धरते हैं विरही धीर,
नाचते हैं हरि सरस अधीर ॥ २ ॥
बालबोधिनी – प्रस्तुत श्लोक में वसन्त की दुरन्तता और उन्मादकता का चित्रण करते हुए सखी श्रीराधारानी से कहती है कि यह समय विरहीजनों के लिए अति दुष्कर है, इस समय मद तथा काम आविर्भूत हो जाते हैं। प्रियतम के द्वारा प्रवास हेतु चले जाने पर नानाप्रकार के मनोरथों के द्वारा प्रचालित होकर नायिकाएँ विरह विलाप करती रहती हैं। चहुँदिशि मौलश्री आदि कुसुमसमूह के द्वारा सुगन्ध विकीर्ण करने पर आमोदित भ्रमरकुल जैसे विकल होकर गुञ्जन करते हैं ॥ २ ॥
मृगमद-सौरभ-रभसवशंवद नवदलमाल-तमाले ।
युवजन-हृदय-विदारण-मनसिज-नखरुचि-
किंशुकजाले-विहरति हरिरिह सरस वसन्ते…. ॥३॥
अन्वय- मृगमद-सौरभ- रभस- वशंवद – नव-दलमाल-तमाले (मृगमदस्य कस्तूरिकायाः यः सौरभ- रभसः सौरभ-वेगः सौगन्धातिशय इति यावत् तस्य वशंवदा वशवर्त्तिनी अनुकारिणीति भावः, नव-दल-माला किशलयसमूहः येषु तादृशः, तमालाः यस्मिन् तथा भूते); [तथा] युवजन- हृदय विदारण-मनसिज- नखरुचि – किंशुक-जाले (युवजनानां तरुणानां हृदय विदारणाः हृदयभेदकराः मनसिजस्य मदनस्य ये नखाः तेषां रुचिः शोभाइव रुचिः शोभा येषां तथाभूतानां किंशुकानां पलाश-कुसुमानां जालं समूहः यस्मिन् तादृशे ) [सरस – वसन्ते हरिः इत्यादि] ॥ ३ ॥
अनुवाद – तमाल वृक्षावली नूतन पल्लवों से विभूषित हो मानो कस्तूरी की भाँति चारों ओर सौरभ का विस्तार कर आमोदित हो रही है। देखो, देखो सखी! इन प्रफुल्लित ढाक (पलाश) के पुष्पों की कान्ति कामदेव के नख के समान दिखायी दे रही है। ऐसा प्रतीत हो रहा है कि मदनराज ने मानो युवक युवतियों के वक्षस्थल को विदीर्ण कर दिया है॥३॥
पद्यानुवाद-
मृगमद-सौरभ सम विस्तारित परिमल मधुर तमालः
युवजन मन-बेधक मनसिज-कर नखरुचि किंशुक जाल ।
हृदय में उठती रह रह पीर
नाचते हैं हरि सरस अधीर ॥
बालबोधिनी – समस्त दिशाओं में तमाल वृक्ष के नवीन पल्लव सुशोभित हो रहे हैं और उनकी सुगन्ध कस्तुरी के समान चतुर्दिशि व्याप्त हो रही है। प्रस्फुटित पलाश कुसुम- समूह को देखकर लगता है कि वे मानो विरही युवक युवतियों के हृदय को विदीर्ण करने के साधनभूत मदनदेव के नखरे – नख रूपी आयुध विशेष हैं।
अर्थात् श्रीमाधव का अङ्गसौरभ चारों ओर आमोदित हो रहा है, परन्तु उनका विरह अति असहनीय हो गया है। उनके विरह में युवतियों का हृदय विदीर्ण हो गया है। यह बड़ा ही कठोर है।
मदन-महीपति-कनक-दण्डरुचि-केशर-कुसुम-विकासे ।
मिलित-शिलीमुख-पाटल-पटल-कृत-स्मर-तूण-विलासे
विहरति हरिरिह सरस वसन्ते ॥ ४ ॥
अन्वय-मदन- महीपति- कनक- दण्ड-रुचि – केशर – कुसुम विकाशे (मदनमहीपतेः मदन राजस्य यः कनकदण्डः स्वर्णमययष्टिः तस्य रुचिरिव रुचिर्यस्य तादृशः केसर – कुसुमानां नागकेसरपुष्पानां विकाशो यस्मिन् तथोक्ते); [तथा] मिलित- शिलीमुख-पाटलि-पटल – कृत – स्मर- तूण-विलासे (मिलिताः समवेताः शिलीमुखाः भ्रमराः येषु तादृशैः पाटलिपटलैः पाटलाकुसुमनिकरैः कृतः सम्पादितः स्मरस्य कामस्य यः तूणस्तस्य विलासः चेष्टितं यस्मिन् तादृशे; पाटलिः पारुलफुल इति भाषा; पाटलिपुष्पस्य तूणाकारत्वात् शिलीमुखशब्दस्य च श्लिष्टत्वात् साम्यं ) [ सरसवसन्ते इत्यादि ] ॥४ ॥
अनुवाद – अब वन के विकसित पुष्प- समुदाय ऐसे प्रतीत हो रहे हैं, मानो मदनराज के हेमदण्ड हैं और भ्रमरावलि से परिवेष्टित पाटलि (नागकेशर) पुष्पसमूह ऐसे दिखायी दे रहे हैं, मानो कामदेव के तूणीर हों।
पद्यानुवाद-
मदनराज के कनक-दण्ड-सा केसर-कुसुम-विकास,
पाटल पर भौरों की छवि का अङ्कित मधुर विलास ।
जुड़ी है मधु-रसिकों की भीर,
नाचते हैं हरि सरस अधीर ॥
बालबोधिनी – सखि ! मदन – महीपति के सुवर्ण छत्र की विशिष्ट कान्ति के समान नागकेशर पुष्प प्रस्फुटित हो रहे हैं। उसमें भी भ्रमरावली के तीक्ष्ण दन्तरूपी वाणों से बिद्ध यह वसन्तकाल विरहीजनों के हृदय को भेद रहा है ॥४ ॥
विगलित-लज्जित-जगदवलोकन-तरुण-करुण-कृतहासे ।
विरही-निकृन्तन-कुन्त-मुखाकृति-केतकि-दन्तुरिताशे-
विहरति हरिरिह सरस वसन्ते…. ॥५ ॥
अन्वय – विगलित- लज्जित – जगदवलोकन – तरुण – करुण-कृतहासे (विगलितं दूरं गतं लज्जितं लज्जा येषां [वसन्तस्य निरतिशयोद्दीपकत्वात् त्यक्तलज्जानामिति भावः] तादृशानां जगतां जगद्वासिनाम् अवलोकनेन दर्शनेन तरुणैः नवविकसित- पुष्पैरित्यर्थः करुणैः तदाख्यवृक्षैः [करुणानेवु इति भाषा ] कृतः पुष्पविकाशरूप-हासः यत्र तादृशे); यूनामेव कामाभिज्ञतया हास्यस्योपयुक्तत्वे श्लिष्टार्थस्य तरुणशब्दोस्योपादानम्) [तथा] विरहि – निकृन्तन कुन्त- मुखाकृति – केतकि- दन्तुरिताशे (विरहिणां वियोगिनां निकृन्तनाः संहारकाः ये कुन्ताः अस्त्रविशेषाः तेषां मुखानामाकृतिरिव आकृति येषां तादृशैः केतकिभिः तन्नामक-कुसुमविशेषैः (केयाफुल इति भाषा) दन्तुरिताः कृतदन्तविकाशाः परिव्याप्ता इति यावत् आशाः दिशः यत्र तादृशे ) [ सरसवसन्ते हरिः इत्यादि ] ॥५ ॥
अनुवाद – अरी सखि! वसन्त के प्रताप से ऐसा प्रतीत होता है कि सम्पूर्ण जगत निर्लज्ज हो गया है। यह देखकर तरुण करुण पादपसमूह (वृक्षराजि) प्रफुल्लित सुमनों के व्याज से हँस रहे हैं। देखो, विरहीजनों के हृदय को विदीर्ण करने के लिए बरछी की नोक के समान आकारवाले केतकी (केवड़ा) प्रसून चहुँदिशि प्रफुल्लित विलसित विकसित हो रहे हैं। इनके संयोग से दिशाएँ भी प्रसन्न हो रही हैं।
पद्यानुवाद-
लज्जा गलित विश्वका करता तरुण करुण उपहास,
बिद्ध केतकी कुन्तमुखोंसे विरही मन-आवास ।
हार जाते हैं पलमें वीर
नाचते हैं हरि सरस अधीर ॥
बालबोधिनी – सखी श्रीराधाजी से कह रही है-प्यारी सखि ! और क्या कहूँ, इस वसन्तकाल में जगत के विरहीजन लाज का त्यागकर प्रियतम के विरह में रोदन कर रहे हैं। सम्पूर्ण जगत में प्राणीमात्र की ही लज्जा पूर्णरूपेण समाप्त हो गयी है। जगत की इस दशा का अवलोकन करके तरुण करुण विटपावली खिले एवं द्युतिमान पुष्पों के बहाने से हास्यसुधा बिखेर रही हैं।
अथवा विलासिनी स्त्रियों के हृदय की कामवासना को जानकर नवतरुण पुरुष हास्यामृत को प्रकाशित कर रहा है।
करुणा और हास्य दोनों किस प्रकार सम्भव है?
करुणा इसलिए कि कण्ठाश्लेष प्रणयीजनों के वियोग में इनकी बड़ी दीन दशा होती है और हास्य का कारण है, विरहीजनों की अधीरता। खिले केतकी पुष्पों के अग्रभाग को देखकर ऐसा प्रतीत होता है कि वे विरहियों के हृदय का विदारण करने हेतु बरछी हो।
माधविका-परिमल-ललिते नवमालिकयातिसुगन्धौ ।
मुनि-मनसामपि मोहन-कारिणि तरुणाकारणबन्धौ-
विहरति हरिरिह सरस वसन्ते…. ॥ ६ ॥
अन्वय- माधविका – परिमल – ललिते ( माधविकायाः परिमलेन आमोदेन ललिते मनोहरे) [तथा ] नवमालिकया (नवमालिका- कुसुमेन) अतिसुगन्धौ ( अतिसुरभित ) [ अतएव ] मुनि – मनसामपि (तापस-चित्तानामपि; का वार्त्ता कामिनाम् इत्यपेरर्थः) मोहन – कारिण (मोहकरे) [तथाच] तरुणाकारणवन्धौ (एकशेषस्तरुणशब्दः; तरुणानां तरुणीनाञ्चेत्यर्थः ; अकारणवन्धौ अकृत्रिमसुहृदि; हेतुं विनापि हितकारिणीत्यर्थः ) [ सरस- वसन्ते हरिः इत्यादि ] ॥६॥
अनुवाद – यह वसन्त मास वासन्ती पुष्पों के मकरन्द से अतिशय ललित एवं मनोहर हो रहा है तथा नवमालिका ( जूही) पुष्पों की सुगन्ध से सुगन्धित हो रहा है। इस काल में तो मुनियों के मन में भी विकार उत्पन्न हो जाता है, वे मुग्ध हो उठते हैं। यह वसन्त युवावर्ग का अकारण बन्धु है॥
पद्यानुवाद-
माधविका-मालती-गन्ध अब रही दिशा में व्याप ।
मोहित मुनि-मन विकल तरुण जन खिंचते अपने आप ॥
दिखाये कैसे हियको चीर, नाचते हैं हरि सरस अधीर ॥
बालबोधिनी – माधवी लता के पुष्पों के पराग से यह वसन्त ऋतु मनोहर हो गया है और वातावरण नवमालिका (जूही) की सुगन्ध से सुवासित हो गया है। यह सुवासितता मुनिजनों के मन में कामविकार को उत्पन्न करा देती है; फिर साधारण पुरुषों की तो बात ही क्या की जाय ? जब ऐसा वसन्त समय होता है, तब अचेतन लता कान्त (वृक्ष) के बिना नहीं रह सकती है, तो चेतनस्वरूपा हम जैसी स्त्री-लताएँ कान्त के बिना कैसे रह सकती हैं? उसमें भी मधुकरों का गुञ्जन, कोयलों का कूजन और भी हृदयविदारक हो जाता है।
ऐसी स्थिति में वह वसन्त तरुण-तरुणियों का अकारण बन्धु है ॥६॥
स्फुरदतिमुक्तालता-परिरम्भण-पुलकित-मुकुलित चूते ।
वृन्दावन-विपिने परिसर-परिगत-यमुनाजलपूते-
विहरति हरिरिह सरस वसन्ते ॥७॥
अन्वय- स्फुरदतिमुक्तालता-परिरम्भण- पुलकित- मुकुलित- चूते ( स्फुरन्तीनां आकम्पितानाम् अतिमुक्तालतानां माधवीलतानां परिरम्भणेन आलिङ्गनेन पुलकिताः जातरोमाञ्चाः इव मुकुलिताः ईषद्विकसितमुकुलाः चूताः रसालाः यत्र तादृशे ) [ यथा कश्चित् वराङ्गनालिङ्गितः जातरोमाञ्चो भवति तथेति भावः]; [तथा] परिसर-परिगत-यमुना- जलपूते (परिसरेषु पर्यन्तभूमिषु प्रान्तेषु इत्यर्थः परिगता प्राप्ता या यमुना तस्याः जलैः पूते पवित्रीकृते सुशोभिते इति तात्पर्यार्थः) वृन्दावन – विपिने (वृन्दावन – कानने) [ सरसवसन्ते हरिः इत्यादि ] ॥७ ॥
अनुवाद – हे सखि ! चपल मुक्तालता के आलिङ्गन से युक्त मुकुलित (मञ्जरियों से पूर्ण) तथा रोमाञ्चित आम्रवृक्षों से युक्त वृन्दाविपिन के सन्निकट प्रवाहमाना यमुना के पावन जल में श्रीहरि युवतियों के साथ परस्पर मिलित होकर विहार कर रहे हैं ॥७ ॥
पद्यानुवाद-
वायु चञ्चलित लता माधवी से आलिङ्गित आम
परिपुष्पित है; पूत जमुन-जल से वृन्दावन धाम ॥
समाया उसमें सागर क्षीर
नाचते हैं हरि सरस अधीर ॥
बालबोधिनी – इस वासन्तिक काल में चेतन के साथ जड़ पदार्थ भी काम से विकृत देखे जा सकते हैं। समीरण के वश हुई अतिमुक्तालता (माधवीलता) ने जब आम्रवृक्ष का आलिङ्गन किया तो वह मुकुलित और रोमाञ्चित हो गया । सन्निकट में प्रवाहित होनेवाली यमुना के जल से पवित्र वृन्दाविपिन में श्रीकृष्ण केलिक्रीड़ा कर रहे हैं ॥७॥
श्रीजयदेव-भणितमिदमुदयतु हरिचरणस्मृतिसारं ।
सरस-वसन्त-समय वनवर्णनमनुगत मदन-विकारम्-
विहरति हरिरिह सरस वसन्ते…. ॥८ ॥
अन्वय- श्रीजयदेव – भणितम् (जयदेवोक्तं ) इदम् अनुगत- मदनविकारं (अनुगतं अनुसृतं मदनस्य कामस्य विकारो विक्रिया येन तत् कामाद्दीपकमित्यर्थः) हरि चरण-स्मृतिसारं (हरिचरणयोः स्मृतिः स्मरणमेव सारः परमार्थो यस्य तथाभूतं) सरस- वसन्तमय- वनवर्णनं (सरसः यः वसन्तसमयः तत्र वनवर्णनम्) उदयतु (भक्तहृदये वृद्धिं गच्छतु ॥८ ॥
अनुवाद – श्रीजयदेव कवि द्वारा वर्णित श्रीकृष्ण-विरहजनित उत्कण्ठिता श्रीराधा के मदनविकार से सम्वलित इस वसन्त समय की वन शोभा का चित्रणरूप यह सरस मङ्गलगीत अति उत्कृष्ट रूप से प्रकाशित हुआ है। यह वासन्तिक काल कामविकारों से अनुस्यूत है जो श्रीहरि के चरणकमल की स्मृति को उदित कराता है ॥८ ॥
पद्यानुवाद-
श्रीजयदेव काव्य केवल हरि-चरण-स्मृतिका सार,
सरस वसन्त समय वन-वर्णन अनुगत मदन-विकार ।
लहर उठता रमणीका चीर
नाचते हैं हरि सरस अधीर ॥८ ॥
बालबोधिनी – कवि श्रीजयदेव इस गीत का उपसंहार करते हुए इसके उत्कर्ष का वर्णन करते हैं। इस मङ्गलगीत में हरिचरण स्मृतिसाररूप शृङ्गार रस के पोषक वसन्तकाल के वनविहार का अभिव्यञ्जन है। इस गीत की जय हो। जिसका मदनविकार हुआ है, ऐसे निकटवर्त्ती जन ही इसका श्रवण करें, जिससे उनके विकार दूर हो जायेंगे ।
यह मङ्गलगीत अष्टपदीय है, जिसमें जाति नामक अलङ्कार है। इसमें वर्णित श्रीराधा मध्या नायिका हैं। इसमें श्रीकृष्ण दक्षिण नायक के रूप में हैं। इसमें शृङ्गार रस का विप्रलम्भ भाव है। इसमें प्रयुक्त छन्द का नाम लय है।
इस तृतीय प्रबन्ध का नाम “माधवोत्सव कमलाकर” है।
अष्ट पदि ३ माधवोत्सव कमलाकरम्
दर-विदलित-मल्ली-वल्लि-चञ्चत्-पराग-
प्रकटित-पटवासैर्वासयन् काननानि ।
इह हि दहति चेतः केतकी-गन्ध-बन्धुः
प्रसरदसमबाण-प्राणवद्-गन्धबाहः ॥ १ ॥
अन्वय – [ अथ वसन्तवायु वर्णयति कविः ] – इह ( वसन्ते) केतकीगन्धवन्धुः (केतकीनां गन्धस्य वन्धुः नित्यसहचरः अत्यागसहनइत्यर्थः) [ तथा ] प्रसरदसमवाण-प्राणवत् (प्रसरन् प्रतिदिशं सञ्चरन् तरुणचेतसि प्रवृद्धिं गच्छन् यः असमवाणः पञ्चवाणः मदन इत्यर्थः मदनोऽत्र नृपत्वेन निरूपितः तस्य प्राणवत् प्राणसदृशं अतिप्रिय इत्यर्थः अस्य निरतिशय- मदनोद्दीपकत्वादिति भावः) गन्धवाहः (दक्षिणानिलः) [ सख्युराज्ञा पालनीया इत्यालोच्य] दर – विदलितमल्ली – वल्लि – चञ्चत्पराग- प्रकटित-पट – वासैः (दर – विदलितानाम् ईषद्- विकसितानां मल्लीनां मल्लिकानां या वल्लयः लताः तासां चञ्चन्तः प्रसरन्तः ये परागाः पुष्परेणवः ते एव प्रकटिताः स्फुटीकृताः पटवासाः सुगन्धचूर्णविशेषाः तैः) काननानि वासयन् (सुरभीकुर्वन्) चेतः [वियोगिनामिति शेषः ] दहति हि (नितरां सन्तापयत्येव ) ॥१॥
अनुवाद – हे सखि ! देखो, अर्द्ध प्रस्फुटित मल्लिकालता के मकरन्द के श्वेतचूर्ण से वनस्थली श्वेत पटवास द्वारा समाच्छादित हो गयी है। केतकी कुसुमों के सुगन्ध से मलयपवन आमोदित हो रहा है, यह पवन कामदेव के बाण के समान उसका प्राणसखा वन विरहीजनों के हृदय को दग्ध कर रहा है ॥ १ ॥
बालबोधिनी – सखी श्रीराधाजी के सम्मुख वसन्तकाल में प्रवहमाना मलयवायु की उद्दीपना का वर्णन करती हुई कह रही है कि पवन विरहीजनों के हृदय को तापित कर रहा है। यदि यह पूछा जाय कि किस अपराध के कारण वायु चित्त को दग्ध कर रही है तो इसके उत्तर में कहते हैं, यह पवन कामदेव का प्राणतुल्य है, अतः अपने सखा के आदेश का पालन करते हुए विरहीजनों के हृदय को तपाने लगता है। इस वसन्तकाल में मल्लिका – लता ईषत् रूप से विकसित हो गयी है, उसके उड्डीयमान परागपुञ्ज ही पटवास बन गये हैं और केतकी प्रसूनों के इस परिमल – चूर्ण से वायु सुगन्ध से परिपूर्ण हो गयी है, कामदेव के समान यह पवन भी विरहीजनों को सन्तप्त कर रहा है। अतएव यह समीरण कामदेव के प्राण के समान है।
प्रस्तुत श्लोक मालिनी छन्द का है, समासोक्ति तथा वर्णानुप्रास अलङ्कारों की संसृष्टि है ॥ १ ॥
अद्योत्सङ्ग-वसगुजङ्ग-कवल-क्लेशादिवेशाचलं
प्रालेय-प्लवनेच्छयानुसरति श्रीखण्डशैलानिलः ।
किञ्च स्निग्ध-रसाल-मौलि-मुकुलान्यालोक्य हर्षोदया-
दुन्मीलन्ति कुहुः कुहूरिति कलोत्तालाः पिकानां गिरः ॥ २ ॥
अन्वय- अद्य (अधुना ) श्रीखण्डशैलानिलः (श्रीखण्डशैलस्य मलयाचलस्य अनिलः वायुः ) उत्सङ्ग-वसद्भुजङ्ग – कवल-क्लेशात् इव (उत्सङ्गे क्रोड़े वसन्तः ये भूजङ्गाः सर्पाः तेषां कवलेन ग्रासेन यः क्लेशः तस्मात्); [भुजङ्गाः पवनाशनाः इति लोके प्रसिद्धिमेव तस्य भुजङ्गकवलेन विषव्याप्तदेहत्वादिति भावः ] प्रालेय- प्लवनेच्छया (प्रालेयेषु हिमेषु प्लवनेच्छया अवगाहनाशया विषज्वालायाः शान्तये इति भावः) ईशाचलं (ईशस्य महादेवस्य अचलः पर्वतः हिमाचलस्तं) अनुसरति (गच्छति); [चन्दनतरु कोटरस्थ-विषधर- कवल – सन्तप्तोवायुः हिमस्नानेच्छया हिमाचलं यातीव; वसन्ते दक्षिणदिर्गवर्त्तिनो मलयाचलात् वायेरुत्तरत्र गमनात् उत्तरे च हिमाचलस्य अवस्थानात् इयमुत्प्रेक्षा ] । [किञ्च] स्निग्ध-रसाल – मौलिमुकुलानि (स्निग्धानि कोमलानि रसालानां चूततरूणां मौलिषु शिखरेषु यानि मुकुलानि तानि ) आलोक्य (दृष्ट्वा) हर्षोदयात् (आनन्दोदयात्) पिकानां (कोकिलानां) कुहुः कुहूरिति कलोत्तालाः (कला अव्यक्तमधुरा उत्ताला अत्युच्चाः), गिरः (ध्वनयः) उन्मीलन्ति (उद्गच्छन्ति ) ॥ २ ॥
अनुवाद – अरी सखि ! सुना है श्रीखण्डशैल (मलय पर्वत) में बहुत से सर्प निवास करते हैं, वहाँ का पवन भुजङ्गों के विष से निश्चित ही जर्जर हो गया है, इससे ऐसा लगता है कि वह उस विष ज्वाला से जलकर हिम सलिल में स्नान करने के लिए हिमालय की ओर प्रवाहित होने लगा है।
देखो! देखो! सखि ! मधुर, मनोहर, स्निग्ध रसालमौलि मुकुलों (मञ्जरियों) को देखकर हर्ष से विभोर कोकिल कुहु कुहु की मधुर वाणी में उच्चस्वर से कूजन कर रही है।
पद्यानुवाद-
सतत सर्प पीड़ा से तापित, मलय पवन हिमदेश
बहने को आतुर रहता है, निशिदिन कोमल वेश ।
मधुर आम के वोरों से या बढ़ता जाता मिलने
जो कोकिल की कुहु कुहु सुन मद से लगते खिलने ॥
बालबोधिनी—प्रस्तुत श्लोक में सखी ने शृङ्गार रस के दोनों विभावों का चित्रण किया है। इस मधुमास में मलयाचल की वायु हिमदेश की ओर आ रही है। रात दिन मलयगिरि में चन्दन के वृक्षों पर जहरीले साँप अवस्थित रहते हैं। इसी कारण वह हवा हिमालय की ओर प्रस्थान कर रही है। सर्पों के दंशन के कारण मलयाचल में सन्ताप उत्पन्न हो गया है। ऐसा प्रतीत होता है कि अपने उस सन्ताप के कारण ही हवा हिमालय की शीत हवा का आनन्द प्राप्त करने के लिए हिमदेश को जा रही है।
इस समय रसाल तरुवरों में मञ्जरियाँ भी उद्भूत हो जाती हैं। इन आम की बौरों को देखकर कोकिल समुदाय हर्ष से आह्लादित होकर उच्चस्वर से कुहु कुहु का स्वर आलाप करने लगा है।
इस तरह की उन्मादिनी प्रोन्मादिनी वेला में श्रीकृष्ण से तुम्हारा डरना उचित नहीं है, राधे !
प्रस्तुत श्लोक में शार्दूल विक्रीड़ित छन्द, अनुप्रास तथा उपमा अलंकार, वैदर्भी रीति तथा विप्रलम्भ शृङ्गार का सूचक रति नामक स्थायी भाव है ॥२॥
उन्मीलन्मधुगन्ध-लुब्ध-मधुप-व्याधूत-चूताङ्कर-
क्रीड़त्-कोकिल-काकली-कलकलैरुद्गीर्णकर्णज्वराः ।
नीयन्ते पथिकैः कथंकथमपि ध्यानावधानक्षण-
प्राप्त-प्राणसमा-समागम-रसोल्लासैरमी वासराः ॥ ३ ॥
इति श्रीगीतगोविन्दे तृतीय सन्दर्भः ।
अन्वय – [ इदानीं चिरविरहिणः प्रियासङ्गमं विना दिनयापनं दुर्घटमित्याह ] – उन्मीलन्मधु – गन्ध-लुब्ध- मधुप-व्याधूत- चुताङ्कुर- क्रीड़त्-कोकिल- काकली – कलकलैः (उन्मीलत्सु प्रसरत्सु मधुगन्धेषु मकरन्दगन्धेषु लुब्धैः लोलुपैः मधुपैः भ्रमरैः व्याधूताः कम्पिताः ये चूतांकुराः आम्रमुकुलानि तेषु क्रीडतां कोकिलानां काकलीकलकलैः सूक्ष्ममधुरी- स्फुटध्वनिभिः) उद्गीर्णकर्णज्वराः (उद्गीर्णाः उद्भूताः कर्णज्वराः श्रोत्रपीडाः येषु तथोक्ताः) ध्यानावधान-क्षणप्राप्तप्राणसमा समागम रसोल्लासैः (ध्यानं कान्तायाश्चिन्तनं तत्र यत् अवधानम् अभिनिवेशः तस्य क्षणे प्राप्तः अनुभूतः प्राणसमायाः प्रणयिन्याः समागमरसेन सङ्गसुखेन उल्लासः आनन्दः यैः तादृशैः सद्भिः) पथिकैः (विरहिभिः) अमी वासराः (वसन्तदिवसाः) कथंकथमपि (अतिकृच्छ्रेण) नीयन्ते (अतिबाह्यन्ते) ॥ ३ ॥
अनुवाद – हे सखि ! देखो ! उन्मीलित आम्र मुकुल के पुष्प किञ्जल्क के मधुगन्ध के लुब्ध भ्रमरों से प्रकाशित मञ्जरियों पर कोयलें क्रीड़ा करती हुई कुहु कुहु रव से मधुर ध्वनि कर रही हैं और इस कोलाहल से विरहीजनों को कर्णज्वर हो रहा है । वसन्त ऋतु के वासरों में विरहीजन अतिशय कठोर विरह यातना के कारण प्राणसम प्रेयसियों का चिन्तन करने लगते हैं। तब उनके मुखमण्डल के ध्यान से, उनके समागम जनित आनन्द के आविर्भूत हो जाने से क्षणिक सुख लाभ करते हुए वे अति कष्टपूर्वक समय को अतिवाहित करते हैं ॥ ३ ॥
बालबोधिनी – सखी श्रीराधाजी से कह रही है कि विरहीजनों का प्रिय विरह भी अति दुःसह होता है। श्रीकृष्ण – विरह में मलय पवन ही केवल पीड़ाप्रद होता है, ऐसा नहीं आम्रवृक्ष में बैठनेवाली कोयलों की कुहु कुहु अति मधुर एवं अस्फुट ध्वनि चारों ओर गुञ्जन करने लगती है, जिसमें विरहीजनों का हृदय अतिशय रूप से अनुतप्त होता है। ये क्रीड़ापरायण कोयलें कलध्वनि से कर्णज्वर प्रादुर्भूत कर रही हैं। जब कोयल का स्वर सुनकर विरही प्रियतमा का स्मरण करते हैं तो उन्हें लगता है कि प्राणसमा प्रियतमा का समागम हो गया है। यह समय अति कष्टपूर्वक अतिवाहित होता है।
इस श्लोक में शार्दूल विक्रीड़ित छन्द है। इनमें काव्यलिङ्ग नामक अलङ्कार, गौड़ीया रीति तथा विप्रलम्भ शृङ्गार रस है । ‘वासराः‘ पद में बहुवचन का प्रयोग औचित्ययुक्त है ॥३॥
इति श्रीगीतगोविन्दे तृतीयः सन्दर्भः ।