इस तरह मन में जगती है श्रद्धा भक्ति

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यो यो यां यां तनुं भक्त: श्रद्धयार्चितुमिच्छति। तस्य तस्याचलां श्रद्धां तामेव विदधाम्यहम् ।। गीता 7/21।।

अर्थ: जो-जो भक्त श्रद्धापूर्वक जिस-जिस देवता को पूजना चाहता है, उस-उस भक्त की श्रद्धा को मैं उस देवता में स्थिर कर देता हूं।

व्याख्या : परमात्मा एक है, लेकिन उसकी एनर्जीस अनेक हैं। निश्चित एनर्जीस निश्चित कार्य के लिए वर्णित की गई है। जितने भी देवता हैं, उनको अलग-अलग एनर्जीस समझो। जो ब्रह्माण्ड के अलग-अलग कार्य को करती रहती हैं।

चूंकि, एनर्जी कभी नष्ट नहीं हो सकती, इसलिए देवता भी कभी नष्ट नहीं हो सकते। फल की चाहने रखने वाले व्यक्ति, अपनी इच्छाओं को पूरा करने के लिए संबंधित देवता का पूजन करते हैं, जिससे वह देवता उनको निश्चित फल प्रदान करते हैं।

महत्वपूर्ण बात यह है कि देवता फल प्रदान करते हैं और परमात्मा मुक्ति। जब भक्त पूर्ण श्रद्धा भाव से किसी भी देवता का पूजन करता है, उस समय भीतर विराजित परमात्मा ही भक्त की श्रद्धा को उस देवता में स्थिर कर देता है, जिससे भक्त की श्रद्धा और पक्की हो जाती है। अतः परमात्मा की कृपा से ही भक्त के भीतर श्रद्धा पक्की होती है।

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