इस ज्ञान को अनुभव कर लेना ही भगवान् को जान लेना है

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मत्त: परतरं नान्यत्किञ्चिदस्ति धनञ्जय |
मयि सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मणिगणा इव || गीता 7/7||

अर्थ : हे धनञ्जय ! मुझसे उच्चतर अन्य कुछ भी नहीं है। सूत्र में मणियों के समान इस सम्पूर्ण संसार का सब कुछ मुझमें ही पिरोया हुआ है ।

व्याख्या: अर्जुन को भगवान् अपनी विशालता का वर्णन करते हुए कह रहे हैं कि सम्पूर्ण संसार मेरे से ही उपजा है, इसलिए मेरे से बड़ा यहाँ कुछ भी नहीं है, क्योंकि सारा संसार मेरे से उत्पन्न हुआ है इसलिए मैं संसार के कण-कण में निहित हूँ, यहाँ ऐसा कुछ भी नहीं, जिसमें मैं नहीं हूँ। जैसे एक मोतियों की माला में धागा हर मोती में पिरोया हुआ होता है, उसमें एक भी ऐसा मोती नहीं होता जो धागे से अलग हो। वैसे ही संसार के सभी पदार्थों व प्राणियों में धागे की तरह मैं समाया हुआ हूँ। इस ज्ञान को अनुभव कर लेना ही भगवान् को वास्तविक स्वरुप को जान लेना होता है।

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