डाकिनी स्तोत्र || Dakini Stotra

0

रुद्रयामल तंत्र पटल ३१ में भेदिन्यादि देवियों की साधना विधियों का वर्णन है। भेदिनीदेवी के साधन से ग्रन्थियों का भेदन सरलता से हो जाता है। इस साधन में प्रथमतः डाकिनी का ध्यान कहा गया है फिर डाकिनी स्तोत्र है (८-१७)। इस कुण्डलिनी स्तोत्र के पाठ से अनायास सिद्धि प्राप्त होती है और वायु वश में हो जाता है, योगिनियों के दर्शन अकस्मात्‌ होते है।

रुद्रयामल तंत्र पटल ३१                        

Rudrayamal Tantra Patal 31

रुद्रयामल तंत्र इकतीसवाँ पटल

रुद्रयामल तंत्र एकत्रिंश: पटल:

डाकिनी स्तोत्रम्

रूद्रयामल तंत्र शास्त्र

अथैकत्रिंशः पटल:

आनन्दभैरवी उवाच

अथ नाथ प्रवक्ष्यामि भेदिन्याः साधनं परम् ।

येन साधनमात्रेण योगी स्यात् कलिकालहा ॥ १ ॥

आनन्दभैरवी ने कहाहे नाथ! अब भेदिनी के साधन का सर्वोत्कृष्ट उपाय कहती हूँ, जिसके साधन मात्र से साधक कलिकाल में काल को जीतकर योगी बन जाता है ॥ १ ॥

कलिकाले महायोगं साधय त्वं महाप्रभो ।

यदि न साधितः कालः स कालो देहभक्षकः ॥ २ ॥

भेदिनीसाधनेनैव ग्रन्थीनां भेदनं भवेत् ।

डाकिनीं हृदये ध्यायेत् परमानन्दरूपिणीम् ॥ ३ ॥

हे महाप्रभो ! अब इस कलिकाल में आप भी इस महान् योगसाधना को कीजिये । यदि काल की साधना नहीं की गई तो वह काल देह का भक्षक बन जाता है। भेदिनी के सिद्ध कर लेने पर सभी ग्रन्थियाँ अपने आप खुल जाती हैं। भेदिनीसाधन के लिए परमानन्द स्वरूपा डाकिनी का हृदय में ध्यान करना चाहिए ॥ २-३ ॥

अष्टहस्तां विशालाक्षीं शशाङ्कावयवाङ्किताम् ।

त्रैलोक्यमोहिनीं विद्यां भयदां वरदां सताम् ॥ ४ ॥

डाकिनी का विग्रह आठ हाथ से युक्त है। नेत्र विशाल, शरीर के समस्त अङ्ग चन्द्रमा के समान मनोहर हैं। ये त्रैलोक्य का मोहन करने वाली महाविद्या हैं। दुष्टों को भय प्रदान करती हैं तथा सज्जनों को वर देने वाली हैं॥४॥

शुक्लवर्णां त्रिनयनां चारुरूपमनोहराम् ।

ध्यात्वा मूलाम्बुजे योगी पाद्याद्यैः परिपूजयेत् ॥ ५ ॥

इनके शरीर का वर्ण शुभ है, जिसमें तीन नेत्र हैं तथा अपने सुन्दर रूप से ये सब का मन मोहित करती हैं। इस प्रकार डाकिनी के स्वरूप का मूलाधार में ध्यान कर साधक को पाद्यादि उपचारों से उनकी पूजा करनी चाहिए ॥ ५ ॥

तत्र मनोलयं कृत्वा योगी भवति भूतले ।

यदा मनोलयं याति तदा तस्याः स्तवं पठेत् ॥ ६ ॥

स्तोत्रं पठनमात्रेण सर्वसत्त्वाश्रितो भवेत् ।

ध्यानमाकृत्य प्रपठेत् सर्वसिद्धिमयो भवेत् ॥ ७ ॥

उन डाकिनी में अपना मन लीन कर साधक इस पृथ्वी में योगी बन जाता है। जब मन लीन हो जावे तब इस स्तव का पाठ करना चाहिए। स्तोत्र के पाठ मात्र से उसमें सत्त्व(बल, तेज, प्राण) का आश्रय हो जाता है, ध्यान लगाकर पढ़ने से वह साधक सर्व सिद्धिमय बन जाता है ।। ६-७ ।।

डाकिनी भेदिनी स्तोत्र

या भेदिनी सकलग्रन्थिविनाशनानां

धर्मान्तरे सकलशत्रुविनाशनस्था ।

सा मे सदा प्रतिदिनं परिपातु देहं

कालात्मिका भगवती शुभकार्यकर्त्री ॥ ८ ॥

जो सम्पूर्ण ग्रन्थियों का विनाश करने के कारण भेदिनी कही जाती हैं, धर्म न करने वाले समस्त शत्रुओं के विनाश में स्थित रहने वाली हैं ऐसी कालात्मिका एवं शुभकार्यकर्त्री भगवती प्रतिदिन सभी स्थानों में हमारे देह की रक्षा करें॥८॥

या कान्ता करुणामयी त्रिजगतामानन्दसिद्धिस्थिता

नित्या सा परिपालिका कुलकला नीला मलाकोमला ।

वाणी सिद्धिकरी कृतार्थनिगडे शीघ्रोदया शाङ्करी

संज्ञाभेदन भेदिका शुभकरी वेदान्तसिद्धान्तदा ॥ ९ ॥

वाणी बाला कुलाला कलकलचरणा यामलासंख्यमाला ।

हेलाभालान्तराला कुलकमलचला चञ्चला देहकाला ॥ १० ॥

जो अत्यन्त सुन्दर हैं, करुणामयी हैं तथा तीनों लोकों को आनन्द देने के लिए उद्यत रहती हैं। जो नित्य हैं, परिपालन करने वाली हैं, कुलमार्ग की कला, नीला, अमला तथा कोमला हैं, वाणी हैं, सिद्धि करने वाली, कृतार्थ करने के लिए निगड (बन्धन) में शीघ्र उदय हो जाती हैं, सबकी कल्याणकारिणी शुभकर्त्री हैं, वेदान्त की सिद्धि प्रदान करती हैं, जिन भगवती की भेदन भेदिका ( भेदन करने योग्य ग्रन्थियों का भेदन करने वाली ) संज्ञा है। जो वाणी हैं, बाला तथा सृष्टि करने के कारण कुलाला कही जाती हैं, जिनके चरण कमल में प्रणाम करने वाले देवताओं के चित्त में कलकल निनाद होते रहते हैं, भजन रात्रि में भजन किए जाने के कारण जो यामला हैं तथा जो असंख्यमाला से विभूषित हैं, जिनके भाल का अन्तराल (अन्तर) हेला (शृङ्गार विशेष ) से युक्त है, जो कुलरूपी कमल में गतिशील रहती हैं, जो चञ्चला हैं एवं देह से काले वर्ण की हैं ।। ९-१० ।।

भेदाख्या भेद्यभेदा वरनदनिनदा नादबिन्दुप्रकाशा ।

सा मे शीर्ष ललाटं मुखहृदयकटिं मुख्यपद्यं प्रपायात् ॥ ११ ॥

जो भेद इस आख्या वाली हैं भेदन करने योग्य ग्रन्थियों का भेदन करने वाली है श्रेष्ठ शब्दों से शब्दायमान हैं, नाद तथा बिन्दु जिनके प्रकाश है, वह भगवती भेदिनी हमारे शिर, ललाट, मुख, हृदय, कटि तथा मूलाधारादि में स्थित मुख्य मुख्य पद्मों की सुरक्षा करें ॥ ११ ॥

काञ्चीपीठप्रकाशा निजपदविलया योगिनीनेत्रवक्षा ।

नातियोगप्रकाश्या चरुशतघटिता घोरसंहारकारा ॥ १२ ॥

ब्रह्मानन्दस्वरूपा विगतिमतिहरा हीरका भाति नेत्रा ।

हारश्रेण्यादिभूषा शशिशतकिरणा पातु मां भेद्यदेहम् ॥ १३ ॥

काञ्चीपीठ को प्रकाशित करने वाली, अपने पद में सबका विलय करने वाली हैं, योगिनियों की नेत्र तथा वक्षःस्थल (हृदय) हैं, जो बिना योग के ही प्रकाश उत्पन्न करती हैं, जो सैकड़ों चरुओं ( यज्ञार्थ निर्मित पायस) में विराजमान रहती हैं तथा घोर संहार के लिए आकार धारण करने वाली हैं, जो ब्रह्म के आनन्द की स्वरूपा हैं, भले लोगों की विमार्ग में जाने वाली मति का हरण करती हैं। जिनके नेत्र हीरे के समान चमकीले हैं, जो हार श्रेणी आदि आभूषणों से विभूषित हैं, सैकड़ों चन्द्रमा के समान जिनके शरीर की किरणें हैं ऐसी भगवती मेरे भेदन करने योग्य देह की रक्षा करें ।। १२-१३ ।।

या भेदिनी सकलपापरिपुप्रियाणां स्वर्गापवर्गविरला बगलामुखी सा ।

पातु देहघटितं सकलेप्सितार्थ भावप्रभावपटला सहदेहसंस्था ॥ १४ ॥

जो पाप रूपी शत्रु से प्रेम करने वाले दुष्टों का भेदन करती हैं जो स्वर्ग तथा अपवर्ग की प्रेरक हैं, भाव के प्रभाव में रहने वाली, देह के साथ ही रहने वाली ऐसी बगला भगवती हमारे शरीर में घटित होने वाले सम्पूर्ण मनोभिलाषा को पूर्ण कर मेरी रक्षा करें ॥ १४ ॥

कामाश्रिता विविधदोषविनाशलेषा

सौन्दर्यवेशकरणी क्रतुकर्मरक्षा ।

दीक्षा सतां मतिमतां निजयोगदात्री

सा मे सदा सकलदेहमिहाशु भेद्या ॥ १५ ॥

काम ने जिनका आश्रय लिया है, जो लेशमात्र में अपने भक्तों के विविध दोषों को विनष्ट कर देती हैं, सौन्दर्य वेश प्रदान करती हैं, यज्ञकर्म की रक्षा करती हैं, दीक्षा स्वरूपा हैं, सज्जनों तथा विद्वानों को अपना योग प्रदान करती हैं। वह भगवती सदैव हमारे शरीर के ग्रन्थियों का शीघ्र भेदन करें ।। १५ ।।

कान्ता शान्तगुणोदया मम धनं देहस्य नित्याशया

पायात् श्रीकुलदैवतस्य जयदा या योगसारं परम् ।

साक्षादीश्वरपूजिता समुचिता चित्तार्थिता चार्थिता

यन्मे घोरतरे जये निजकुले कालाकुले व्याकुले ॥ १६ ॥

जो कमनीय गुणों वाली हैं, शान्त गुण को उदय करने वाली हैं, नित्याशया, श्री कुलदेवता के योग प्रदान करने वाली हैं, ऐसी भगवती हमारे शरीर के धन तथा उत्कृष्ट योगसार की रक्षा करें। जो साक्षात् ईश्वर द्वारा पूजिता हैं जो सब प्रकार से उचिता हैं, चित्त की सङ्कल्पस्वरूपा हैं, धनादि ऐश्वर्य वाली हैं, वे काल से आकुल हुए व्याकुल रहने वाले मेरे कुल तथा घोरतर विपत्ति एवं विजय में हमारी रक्षा करें ।। १६ ।।

भेदाभेदविवर्जिता सुरवरश्रीहस्तपद्मार्चिते

खलु लिङ्ग मूलकमलं कालप्रिया पातु सा ।

सप्तस्वर्गतलं ममैव वपुषा मिथ्यावमानापहा

हेम्बासुरसुन्दरप्रियवती हेमावती भारती ॥ १७ ॥

आप में भेद अभेद कुछ भी नहीं हैं ( अर्थात् आप सबकी हैं)। हे देवेन्द्र ! इन्द्र के हस्त कमलों से अर्चना की जाने वाली भगवती ! ऐसी कालप्रिया आप हमारे मेढ्र तथा लिङ्ग मूल में स्थित कमल की रक्षा करें। इतना ही नहीं, मेरे शरीर से होने वाले मिथ्या अपमान को हरण करने वाली, हेडम्बनामक असुर की सुन्दर प्रिया हेमावती भारती ! आप मुझे सप्त स्वर्ग का तल प्रदान कीजिए ।। १७ ।।

एतत् स्तोत्रं पठित्वा यः स्तौति मूलाम्बुजे च माम् ।

स एव योगमाप्नोति स भवेद् योगिवल्लभः ॥ १८ ॥

मनः स्थिरं भवेत् क्षिप्रं राजत्वं लभते झटित्

अनायासेन सिद्धिः स्यात् तस्य वायुर्वशो भवेत् ॥ १९ ॥

जो इस स्तोत्र का पाठ कर मूलाधार स्थित कमल में मुझ कुण्डलिनी की स्तुति करते हैं, वे ही योग प्राप्त करते हैं तथा योगिवल्लभ होते हैं। उसका मन शीघ्र ही स्थिर हो जाता है। वह शीघ्र ही राजत्व प्राप्त करता है, उसे अनायास सिद्धि प्राप्त होती है तथा वायु उसके वश में हो जाता है ।। १८-१९ ।।

योगिनीनां दर्शनं हि अनायासेन लभ्यते ।

भावसिन्धुयुतो भूत्वा विचरेदमरो यथा ॥ २० ॥

उसे योगिनियों के दर्शन अकस्मात् होते हैं, वह भगवती के भाव सिन्धु में स्नान करता हुआ देवताओं के समान विचरण करता है ।। २० ।।

मूलपद्मे वसेदेवी मूलाम्भोजप्रकाशिनी ।

मालती मालवी मौना मालिनी च मनोहरा ॥ २१ ॥

मानसी मदना मान्या मुद्रामैथुनतत्परा ।

मेरुस्था माद्यकुसुमा मण्डिता मण्डलस्थिता ॥ २२ ॥

मनः स्थैर्यकरी देवी भाव्यते यैः कुमारकैः ।

अकस्मात् सिद्धिमाप्नोति कालेन परमेश्वर ॥ २३ ॥

मूल कमल को प्रकाशित करने वाली भगवती मूलाधार के कमल में निवास करती हैं। वही मालती, मालवी, मौना, मालिनी, मनोहरा, मानसी, मदना, मान्या, मुद्रा तथा मैथुन में सदा तत्पर, मेरु पर निवास करने वाली, आद्य कुसुमा, मण्डिता मण्डलस्थिता तथा मनःस्थैर्यकरी हैं । ऐसी भगवती का जो कुमार ध्यान करते हैं, हे परमेश्वर ! वह कुछ ही काल में अकस्मात् सिद्धि प्राप्त कर लेते हैं ।। २१-२३ ॥

॥ इति श्रीरुद्रयामले उत्तरतन्त्रे महातन्त्रोद्दीपने षट्चक्रप्रकाशे सिद्धिमन्त्रप्रकरणे भैरव भैरवीसंवादे डाकिनी भेदिनी स्तोत्रं नाम एकत्रिंशः पटलः ॥ ३१ ॥

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *