कालिका पुराण अध्याय २३ || Kalika Puran Adhyay 23 Chapter

0

कालिका पुराण अध्याय २३ में वशिष्ट अरुन्धति विवाह का वर्णन है।

अथ श्रीकालिका पुराण अध्याय २३                   

मार्कण्डेय महर्षि ने कहा- इसके अनन्तर वह देवी उन मुनिवर के आश्रम में बड़ी हो गई थी जो कि चन्द्रभागा नदी के तट पर तापसारण्य नाम वाला था। जिस प्रकार से चन्द्रमा की कला शुक्लपक्ष में नित्य ही प्रवर्द्धित हुआ करती है जैसे ज्योत्सना बढ़ा करती है उसी भाँति वह अरुन्धती भी वृद्धि को प्राप्त हुई थी। उस समय में पाँचवा वर्ष के सम्प्राप्त होने पर गुण गणों के द्वारा उस सती चन्द्रभागा ने भी उस ताप सारण्य को भी परम पवित्र कर दिया था । वहाँ पर मेधातिथि द्वारा निषेचित महापुण्य वाला तीर्थ था जो अरुन्धती की क्रीड़ा का स्थान था और उन अरुन्धती ने बाल्योचित कृत्य से पूत किया था । आज भी तापसारण्य में चन्द्रभागा नदी के जल में मनुष्य अरुन्धती तीर्थ के जल में स्नान करके अन्त में हरि की प्राप्ति किया करता है । कार्तिक के पूरे मास में चन्द्रभागा नदी के जल में स्नान करके विष्णु भगवान के लोक प्राप्त होकर अन्त में मोक्ष की प्राप्ति किया करता है। माघ मास में पूर्णमासी अथवा अमावस्या में उसी भाँति चन्द्रभागा के जल में जो स्नान करता है और एक-एक बार ही किया करता है ।

उस पुरुष के वंश में महारोग कभी भी नहीं होगा। देह के अन्त में वह पुरुष चन्द्र भवन को जाकर फिर वह भगवान हरि के लोक में चला जाया करता हैं । जब पुण्य का क्षय हो जाया करता है तभी यहाँ संसार में आकर अर्थात् पुनः जन्म ग्रहण करके वेदों का ज्ञाता ब्राह्मण होता है । चन्द्रभागा नदी का जल पीकर वह मनुष्य चन्द्रलोक को प्राप्त किया करता है । विधि के साथ एक बार स्नान करके अयुत ( दस हजार) वाजपेय यज्ञ के पुण्य को प्राप्त किया करता है । चन्द्रभागा के जल में स्नान करके बाल्य लीला से क्रीड़ा करती हुई पिता के समीप में उसके तट पर किसी समय में उस अरुन्धती को आकाश मार्ग से जाते हुए ब्रह्माजी ने अरुन्धती को उस काल में उपदेश में देखा । इसके उपरान्त उस समय में मुनियों के द्वारा परिपूजित जो कि मेधातिथि आदि थे ब्रह्माजी ने उस महामुनि से समुचित कहा था ।

ब्रह्माजी ने कहा- हे महामुनि! यह अरुन्धती के उपदेश का काल है । इस कारण इसको सती स्त्रियों के मध्य में सन्निधि वाली करो । बहुला और सावित्री के समीप में आप पुत्री को स्थापित करिये । हे महामुने! आपकी पुत्री उन दोनों का संसर्ग प्राप्त करके महान् गुण गण और ऐश्वर्य से संयुत शीघ्र ही हो जायेगी । परमात्मा ब्रह्माजी के  वचन का श्रवण करके मेधातिथि से उस समय में ऐसा ही होगा, यह मुनिश्रेष्ठ ने कहा था । इसके अनन्तर सुर श्रेष्ठ के चले जाने पर मेधातिथि मुनि अपनी पुत्री को लेकर उसी क्षण में सूर्य भवन के प्रति गमन किया था। वहाँ पर सूर्य मण्डल के मध्य में विराजमान सावित्री को देखा था । जो कि पद्म के आसन पर संस्थित थी और वह देवी अक्षों की माला को धारण करने वाली एवं सितवर्ण वाली थी। रवि के मण्डल से निकलकर उस मुनि के द्वारा वह देखी गई थी। वह बहुला शीघ्र ही मानस पर्वत के प्रस्थ पर चली गयी थी । वहाँ पर प्रतिदिन सावित्री, गायत्री तथा बहुला, सरस्वती और द्रुपदा के पाँचों मानस अनल पर थी।

वहाँ पर लोकों की हितकामना से परस्पर में धर्माख्याओं के द्वारा साध्वी कथाओं को कहकर फिर अपने-अपने स्थान को चली जाया करती थी । तप ही जिसका धन था । हे माता! आप तो समस्त लोकों की माता है मैं आपको पृथक-पृथक प्रणाम समर्पित करता हूँ । उस तपोधन ऋषि ने उन सबसे परम मधुर वचन कहा था और वह उन सबको एक ही स्थान में सम्मिलित हुई का दर्शन करके बहुत ही भयभीत और विस्मित हुआ था ।

मेधातिथि ने कहा- हे माता सावित्री ! हे माता बहुले ! यह मेरी महान् यज्ञ वाली पुत्री है। अब इसके उपदेश करने का समय आ गया है। उसी के लिए मैं यहाँ पर समागत हुआ हूँ। यह जगत् के सृजन करने वाले के द्वारा आज्ञा प्राप्त करने वाली हुई है कि यह आपकी शिष्यता को प्राप्त करे अर्थात् आपकी शिष्य हो जावे । इस कारण से यह मेरी पुत्री आपके समीप में लाई गई है । जिस प्रकार से इसकी सुचरित्रता होवे उसी प्रकार से इस मेरी बालिका को आप दोनों देवी बना देवें । हे माताओं! आप दोनों के लिए प्रणाम अर्पित है । इसके उपरान्त उस समय में देवी सावित्री मन्द मुस्कराहट के साथ बहुला के सहित उस मुनियों में श्रेष्ठ से कहा था और उस बालिका से भी कहा था ।

उन दोनों देवियों ने कहा- हे ब्राह्मण ! भगवान विष्णु के प्रसाद से आपकी पुत्री बहुत ही चरित्र वाली है । हे मुने! यह तो पहले ही ऐसी सुयोग्य हुई है फिर इसको उपदेश देने से क्या लाभ है। तात्पर्य यही है कि जो यह आपकी पुत्री पहले ही से परम योग्य है तो फिर इसको उपदेश देने की कोई भी आवश्यकता नहीं है । किन्तु मैं और महासती बहुला ब्रह्मवाक्य के होने से आपकी धैर्य वाली सुता को विनीत बनायेंगी अर्थात् सदुपदेशों के द्वारा परम विनीत ऐसे ढंग से कर देंगी कि उसमें विशेष विलम्ब नहीं होगा। यह पहले ब्रह्माजी की पुत्री थी आपके तपोबल के कारण से तथा भगवान विष्णु के प्रसाद से अरुन्धती आपकी सुता हुई है। यह सती आपके कुल को पवित्र करती है और उसकी वृद्धि भी करेगी। यह लोकों को और देवों का कल्याण ही करेगी।

मार्कण्डेय मुनि ने कहा- इसके अनन्तर यह मेधातिथि मुनि के द्वारा विदा होकर उसने अपनी पुत्री अरुन्धती को आश्वासन दिया था और फिर उनको प्रणाम करके वह अपने आश्रम को चले गये थे । उस मुनिवर के चले जाने पर अरुन्धती उन दोनों के साथ माताओं की ही भाँति निडर पाली हुई थीं और उसने भी आनन्द प्राप्त किया था । किसी समय में रात्रि में सावित्री के साथ वह रतिदेव के गृह को जाया करती थी और किसी समय में बाहुल्य के साथ इन्द्रदेव के घर में जाती थी । इसी रीति से वह देव उन दोनों के साथ सुरों आलय में अर्थात् स्वर्गलोक में विहार करती उसने दिव्यमान से अर्थात् वेदों की गणना के हिसाब से सात परिवत्सर व्यतीत कर दिये थे । उन दोनों के साथ ये बैठी हुई उस सती ने शीघ्र ही स्त्री धर्म को सम्पूर्णता से जान गयी थी अर्थात् स्त्रियों का पूरा धर्म का ज्ञान उसने प्राप्त कर लिया था और वह सावित्री तथा बहुला से भी अधिक ज्ञानवती हो गयी थी। इसके अनन्तर उसको उस समय समुचित काल के सम्प्राप्त होने पर यौवन का उद्भेद हो गया था अर्थात् यौवनावस्था के चिह्न प्रकट हो गये थे जिस प्रकार से पद्मिनीयों की रुचि हुआ करती है । उद्भूत यौवन वाली उसे मानस अचल में विहार करती हुई अकेली ही ने सुन्दर तेज वाले वशिष्ठ मुनि को देखा था । उस सती ने उस समय में उस मुनि का अवलोकन करके कामवासना की भावना से बालसूर्य के तुल्य प्रभा वाले सुन्दरतम रूप ब्राह्मण की श्री से समन्वित इसकी इच्छा की थी अर्थात् उसे प्राप्त करने की लालसा उसको हो गयी थी। इसके उपरान्त महान तेज वाले उन वशिष्ठ मुनि ने भी उस परवर्णिनी का अवलोकन करके अद्भुत काम वाला होते हुए उस अरुन्धती को देखा था । हे द्विज श्रेष्ठों! इस रीति से परस्पर में एक दूसरे का अवलोकन करके महान काम की वृद्धि हो गई थी। जिस तरह से किसी प्राकृत अर्थात् साधारण व्यक्ति को बिना ही मर्यादा के कामदेव समुत्पन्न हो जाया करता है । तात्पर्य यह है कि सामान्य की ही भाँति कामवासना उद्भूत हो गई थी ।

इसके अनन्तर उस प्रकार उस मेधातिथि की पुत्री ने धीरज का आलम्बन किया था और अपनी आत्मा को तथा मदन (कामदेव) से प्रेरित मन को धारण किया था अर्थात् अपने आपको मन को संयत रखा था । महान् तेजस्वी वशिष्ठ मुनि ने भी अपनी आत्मा में धैर्य रखकर कामवासना से उन्मथित मन को स्तम्भित किया था । इसके अनन्तर देवी अरुन्धती ने मुनि की सन्निधि का त्याग करके अपने मनोरथ की बुराई करती हुई जहाँ पर सावित्री थी वहाँ पर ही वह चली गई थी। वह महासती मानस दुःख की अधिकता से बाध्यमाना होती हुई मैंने सती का भाव परित्याग कर दिया है, यही वह चिन्तन कर रही थी । उसका कामवासना के द्वारा समुत्पन्न दुःख से मुख कान्तिहीन हो गया था उसका सम्पूर्ण शरीर भी म्लान हो गया था और गति भी मलिन हो गयी थी और उसने यह विचार किया था और अपने मन की गर्हणा (बुराई ) करती थी कि यह मन की वृत्ति मृणाल के तन्तु के ही समान परम सूक्ष्म है और उस क्षण में छिन्न हो जाया करती है । सतियों की स्थिति अत्यन्त अल्प चलपता से ही विनष्ट हो जाया करती है । यही सती के धर्म को पढ़ाकर मुझे चरित्र व्रत वाली सावित्री ने कहा था ।

सावित्री देवी ने धर्म को यह सार उद्धृत किया था अर्थात् मुझे बतलाया था यह आज परकीय पुरुष में मनोरथ से नष्ट कर दिया है । तात्पर्य यह है कि दूसरे पुरुष में रम जाने ही से वह नष्ट हो गया है। उस समय उस मेधातिथि की पुत्री अरुन्धती क्या वहाँ पर पराये में मेरा मन होगा इसी विचार को बढ़ाते हुए यही वह चिन्तन कर रही थी । दुःख से आर्त्त वह बहुला और सावित्री देवी के समीप पहुँच गयी थी । उस प्रकार से परम चिन्तित होती हुई, कान्तिहीन मुख वाली उस सती को देखकर ध्यान के चिन्तन में परायण होकर सावित्री ने विचार किया था और दिव्य ज्ञान के द्वारा विचार करती हुई उस सती को पूरा ज्ञान हो गया। जिस प्रकार से वशिष्ठ मुनि ने साथ अरुन्धती का अवलोकन हुआ था और जैसा उन दोनों में अत्यन्त दुःसह कामवासना प्रवृद्ध हुई थी । दिव्य दर्शन करने वाली सावित्री ने अरुन्धती के मुख की कान्ति की हीनता का हेतु भी जान लिया था। इसके अनन्तर उस सावित्री के मेधतिथि की पुत्री के मस्तक पर हाथ रखकर उस महादेवजी ने जो चरित्र व्रत वाली सावित्री थी यही कहा था- हे बेटी! किस कारण से तुम्हारा मुख भिन्न वर्ण वाला हो गया है ?

गुणोत्तमे ! जिस प्रकार से नाल से छिन्न होने वाला पद्म जो सूर्य के ताप से तापित हुआ होता है उसी भाँति तेरा शरीर कैसे म्लान हो गया है । जिस तरह से चन्द्र का बिम्ब छोटे से काले बादल के द्वारा सवृत होकर मलिन हो जाया करता है वैसे ही तुम्हारा मुख हो गया है । भद्रे ! तुम्हारे मन का आन्तरिक भाव की चिन्ता से युक्त जैसा लक्षित हो रहा है । इसलिए तुम मुझे जो भी गोपनीय रहस्य की बात हो और जो भी इस दुःख का कारण हो उसे बतला दो ।

मार्कण्डेय मुनि ने कहा – इसके अनन्तर वह नीचे की ओर मुख वाली होकर लज्जा से कुछ भी नहीं बोली थी जबकि बड़ी माता सावित्री के द्वारा वह पूछी भी गई थी तब भी बस लज्जा से कुछ भी नहीं बोली थी । जब मेधातिथि की पुत्री अरुन्धती ने उस समय में कुछ भी नहीं कहा था तो मनस्विनी सावित्री ने स्वयं प्रकाश करके उससे कहा था । हे वत्से ! जो तुमने सूर्य के समान प्रभा से समन्वित मुनि को देखा था वह ब्रह्माजी के पुत्र वशिष्ठ मुनि हैं जो कि तेरा स्वामी होगा और उसका दाम्पत्य भाव को होना तो पहले ही विधाता ने निर्मित कर दिया है। इसलिए आपका जो सतीभाव है वह उस मुनि दर्शन से हीन नहीं हुआ है अथवा जो उसके दर्शन से आपका हृदय कामवासना से संयुत हो गया है इससे भी सतीभाव का निवास नहीं हुआ है। अतएव जो तुम्हारे मन दुःख है उसका परित्याग कर दो। हे शोभने ! तुमने पूर्व जन्म में परम दारुण तप करके ही उस मुनि को अपना पति बनाना तय किया था। इसी कारण से वह भी तुम्हारे लिए सकाम हो गये थे । हे वत्से! तुम श्रवण करो कि अपने ही इस वशिष्ठ मुनि को अपने पति के स्थान में वरण किया था जैसा कि वहाँ पर जिस भाव से निरन्तर आपने तप किया था ।

मार्कण्डेय मुनि ने कहा- उस सावित्री ने यह कहकर जैसे पहले सन्ध्या हुई थी और अपने चन्द्रभागा के तट पर पर्वत में जिसके लिए तप किया था जिस तरह से ब्रह्मचारी के रूप में वशिष्ठ मुनि ने बोधा के वचन से उपदेश की हुई तपस्या की थी और जैसे भगवान् विष्णु प्रसन्न होकर प्रत्यक्ष रूप में प्रकट हुए थे। जिस प्रकार से उसके लिए वर दिया था और जैसे भार्या ही की स्थापना की थी अथवा जिस प्रकार से उसके द्वारा वशिष्ठ मुनि को अपना पति होना चाहा था । जिस प्रकार से मेधातिथि ने यज्ञ किया था और जैसे तुमने अपने शरीर का त्याग किया था और जिस रीति से उसकी पुत्री ने जन्म ग्रहण किया था उस समय में उसको यह विस्तारपूर्वक क्रम से बहुला के साथ सावित्री से कहा था ।

इसके अनन्तर इसके वचन का श्रवण करके जो भी पूर्व जन्म में हुआ था । उस समय में यह सुन करके मेरे मन में जो था वह मैंने जान लिया था । इस रीति से वह अत्यधिक लज्जा को प्राप्त कर नीचे की ओर मुख वाली हो गई थी और सावित्री के वचन से वह पूर्व जन्म के स्मरण वाली हो गई थी। उसी भाँति अधोमुखी होकर पूर्व जन्म में जो भी हुआ था उस समय में उस दिव्य ज्ञान वाली अरुन्धती ने सब घटनाओं का स्मरण किया था । पहले भगवान् विष्णु के प्रसाद से वह दिव्य दर्शन होकर इस समय में वह दिव्य दर्शन वाली बाल्यभाव के द्वारा प्रच्छन्न हो गई थी। सावित्री के वचन का श्रवण करके पूर्व जन्म में वृतान्त को सबको प्रत्यक्ष की ही भाँति वह सम्पूर्ण पूर्व ज्ञान को प्राप्त करने वाली हो गयी थी। पूर्व ज्ञान की प्राप्ति करके जो पहले भगवान विष्णु ने दिया था कि मैंने पूर्ण जन्म में इन्हीं वशिष्ठ मुनि का अपने स्वामी के स्थान में वरण किया था। इस ज्ञान के रखने वाली वह देवी अरुन्धती स्वयं ही परम आमोद से समन्वित हो गयी थी और वशिष्ठ मुनि ने दर्शन से पूर्व में उसकी कामवासना के अद्भुत होने का भी पूर्ण ज्ञान हो गया था ।

जिस प्रकार से उसके मन में सतीत्व के निवारण करने में आतंक समुत्पन्न हो गया था उस समय में उस मेधातिथि की पुत्री ने उस समय में उस आतंक को स्वयं ही त्याग दिया था । इसके उपरान्त चिन्ता को त्याग देने वाली उस अरुन्धती सती को समझकर तब सावित्री सूर्यदेव के भवन को चली गई थी। इसके अनन्तर सावित्री अरुन्धती को उस सूर्यदेव के मन्दिर में बिठाकर वह सर्वज्ञा और श्रेष्ठ सती सावित्री ब्रह्माजी के भवन को चली गई थी वहाँ पर ब्रह्माजी को प्रणाम किया था और ब्रह्माजी के द्वारा पूछी गई उस सावित्री से अमित ओज वाले ब्रह्माजी ने कहा था- हे भगवान्! आप तो समस्त जगतों के स्वामी हैं । आपके पुत्र वशिष्ठ मुनि को मानस पर्वत के शिखर पर उस सती अरुन्धती ने देखा था। फिर उसके केवल अवलोकन करते ही कामदेव की वासना अधिक बढ़ गई थी । हे प्रजापते! वे दोनों ही परस्पर स्पृह करने वाले हुये थे । दोनों ही ने बड़े धीरज से बहुत ही दुःखित होकर काम की वासना का स्तम्भन किया था। वे दोनों ही अन्य मनस्क होकर अथवा उदास होते हुए परम लज्जित होकर अपने-अपने स्थान को चले गये थे ।

हे सुरश्रेष्ठ! ऐसा हो जाने पर जो भी कुछ समुचित होवे उस समय में यही आप कीजिए । भविष्य काल की भलाई में लोकों की हितकामना से वही आप करें जो उचित हो । समस्त जगतों के गुरु ब्रह्माजी ने यह उसके वचनों को श्रवण करके आगे होने वाले कर्म की प्रवृत्ति का दिव्य ज्ञान के द्वारा दर्शन किया था अर्थात् समझ लिया था कि भविष्य में क्या होने वाला है। उस अवसर पर लोक पितामह ने इसका स्वागत ही किया था क्योंकि उन दोनों के दाम्पत्य भाव का समय यह उपस्थित हो गया था । इसीलिए लोकों के हित के लिए उसकी प्रवृत्ति के लिए अवश्य ही जाऊँगा । ऐसा मन के द्वारा निश्चय करके सावित्री के साथ ब्रह्माजी ने गमन किया था और वे मानव गिरि के प्रस्थ पर गये थे जहाँ पर कि उन दोनों का दर्शन हो जावे । पितामह के वहाँ चले जाने पर शिव समस्त सुरगुणों सहित नन्दी प्रभृति गणों के साथ वृषभध्वज वहाँ पर आ गये थे। भगवान वासुदेव भी ब्रह्माजी के द्वारा परिचिन्तित होकर वहाँ पर आ गये थे जो कि जगत् के साथ वह भी भक्ति की भावना से शंख, चक्र, गदा के धारण करने वाले थे । जहाँ पर ब्रह्मा और शिव स्थित थे वे भी वहाँ पर स्वयं ही आ गये थे। इसके अनन्तर जगतों के स्वामी ब्रह्मा, विष्णु, महेश्वर इन तीनों ने मेधातिथि के समीप में देवर्षि नारदजी को दूत बनाकर भेजा था ।

उन्होंने नारदजी ने कहा- हे नारद! आप शीघ्र ही चन्द्रभागा नामक पर्वत पर चले जाइए। वहाँ पर उस पर्वत की उपत्यका में परम श्रेष्ठ मुनि मेधातिथि विराजमान हैं। आप उनको हमारे वचन से यथाकाम स्वयं ही हमारे पास ले आइए। आप स्वयं ही मेधातिथि को साथ में लाकर शीघ्र ही यहाँ पर आ जाइए। ब्रह्मा आदि के वचन का श्रवण करके नारदजी शीघ्र ही चले गये थे और सब कार्य की सिद्धि के लिए वे मेधातिथि को वहाँ पर लाने के लिए प्रस्थान कर गए थे। उन देवर्षि ने मेधातिथि से सम्भाषण करके देवों के वचनों से मेधातिथि को अपने साथ लाकर मानस पर्वत पर चले गये थे । वहाँ मानस पर्वत पर समस्त देवगण इन्द्र के सहित और सब तपोधन, मुनिगण, साध्य, विद्याधर, दक्ष और गन्धर्व भी वहाँ पर समागत हो गये थे । सब देव और समस्त देवियों और जो देवों के अनुचर थे तथा जो अन्य जन्तुगण थे वे सभी मानस के प्रस्थ को समायात हो गये थे । इसके पश्चात् देवों के समाज के सम्पन्न हो जाने पर कमलासन ने मेधातिथि मुनि से अतिदेश करते हुए यह वचन कहा था ।

ब्रह्माजी ने कहा- हे मेधातिथे ! आप अपनी सुचारित व्रत वाली पुत्री अरुन्धती को इस देवों के समाज में ब्रह्मविधि से दे दीजिए। मैंने इन दोनों का वर वधू होना पहले ही सृजित कर दिया है । भगवान हरि ने भी इस परम समुचित कर्म के विषय में आज्ञा प्रदान कर दी थी । ऐसा समाचरण करने पर आपके कुल में बड़ा भारी यश होगा और इससे समस्त प्राणियों की भलाई भी होगी । अतएव शीघ्र ही दे दीजिए और इस कार्य में विलम्ब नहीं कीजिए। फिर ब्रह्माजी ने इस वचन का श्रवण करके वह मुनि बहुत ही अधिक प्रसन्न हुए थे और उन्होंने कहा था-ऐसा ही होगाफिर उसने समस्त देवों को प्रणाम किया था। उस मुनि के वचन का श्रवण करके वह अपनी पुत्री अरुन्धती को ले आये थे । ध्यान में स्थित वशिष्ठ मुनि के समीप में देवों के साथ चले गये थे । देवों के द्वारा परिव्रत मुनि ने वशिष्ठ जी के समीप में पहुँचकर जो मुनि ब्रह्मश्री से देदीप्यमान थे और प्रज्जवलित अग्नि के ही समान कान्ति वाले थे। उनके पृथक-पृथक उस मानस पर्वत की कन्दरा में धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष में वृद्धि को धारणा किये हुए समासीन मुनि का दर्शन किया था । वहाँ पर अरुन्धती के पिता के ओजस्वियों में परमश्रेष्ठ, उदितवान सूर्य के समान, नियत आत्मा वाले वशिष्ठ मुनि से अपनी पुत्री अरुन्धती को आगे करके मेधातिथि ने कहा था।

मेधातिथि ऋषि ने कहा- हे भगवान! हे ब्रह्मा जी के पुत्र! मेरी चरित व्रत वाली पुत्री को ज्ञान मेरे द्वारा दी गई है इसका ब्रह्म धर्म से आप ग्रहण कीजिए। जहां जहां पर भी हे ब्राह्मण! आप अपनी इच्छा से निवास करेंगे वहीं पर ही यह अपनी परम भक्ति से संयुत होने वाली होती हुई आपके अनुगत छाया के ही समान रहेगी। वहां वहां पर ही समान व्रतों को धारण करने वाली यह मेरी पुत्री जो वरारोहा है और परम पतिव्रता है आपकी सेवा किया करेगी।

मार्कंडेय मुनि ने कहा- वशिष्ठ मुनि ने इस मेधातिथि के वचन का श्रवण करके और ब्रह्मा विष्णु शिव आदि देवों का वहां पर आए हुए देखकर दिव्य चक्षु से यह अवश्य ही होने वाला है यह निश्चय करके ब्रह्मा जी के द्वारा सम्मत होने पर वशिष्ठ मुनि ने उस समय में मेधातिथि मुनि की पुत्री का वाढम अर्थात् बहुत अच्छा है यह कह कर प्रति ग्रहण कर लिया था । महात्मा वशिष्ठ के द्वारा पाणिग्रहण की हुई ब्रह्मा देवी सती ने अपने पति वशिष्ठ जी के चरणों में अपनी दोनों आंखों की न्यस्त कर दिया था अर्थात् अपने दोनों लोचनों को पतिदेव के चरणों में लगा दिया था। इसके अनन्तर ब्रह्मा- भगवान विष्णु तथा रुद्र और अन्य देवगण ने विवाह की तिथि के द्वारा उन दोनों को उत्सवों से परम मोदित (हर्षित) किया था। सावित्री जिसमें प्रधान थी ऐसी देवियों ने और चंद्र प्रभृति देवों ने दक्ष आदि और कश्यप आदि अति तप के धन वाले मुनियों ने ब्रह्मा जी के कथन से वल्कल वस्त्र तथा मृग चर्म एवं जटा जूटों का उन्मोचन करके विधाता के पुत्र (वशिष्ठ मुनि) को शीघ्र ही मंदाकिनी के पावन जल से स्नपन कराकर स्वर्ण विरचित परम दिव्य एवं मनोहर आभूषणों से वशिष्ठ मुनि को विभूषित किया था और उसी भांति सती अरुंधति को भी समलंकृत कर दिया था। मुनियों के द्वारा उन दोनों वर-वधू को भूषित करके वहां पर विधि को सुसंपन्न करके उन दोनों का विधाता हरि भगवान और ईश्वर ने विवाह के अवभृत को किया था। स्वर्ण रचित घट में समस्त तीर्थों के जल को रखकर आशीर्वाद करने वाले मंत्रों से गायत्री से और द्रुपद आदि मंत्रों से ब्रह्मा विष्णु और महेश्वर ने स्वयं ही उन दोनों का स्नपन किया था। इसके अनन्तर अन्य महर्षियों ने और देवर्षियों ने शांति की थी।

उन सबने महान स्वर समन्वित ऋक्, यजु और साम वेदों के मन्त्र भागों द्वारा गंगा आदि सरिताओं के जलों से उन दोनों को फिर शान्ति की थी। तीनों भुवनों में सञ्चरण करनेवाला सूर्य के समान वर्चस् वाला विमान जो अव्याहत गति से समन्वित था और जल के सहित कमण्डलु उन दोनों के लिए ब्रह्माजी ने हाथ में दिया था । भगवान् विष्णु ने दुष्प्राप्य उत्तम स्थान दिया था जो मरीचि आदि के समीप में सब देवों का ऊर्ध्व था । भगवान् रुद्रदेव ने उन दोनों के लिए सात कल्पों के अन्त पर्यन्त जीवित बने रहने का वर दिया था । अदिति ने कुण्डलों का जोड़ा दिया था जो ब्रह्माजी के द्वारा अपने ही द्वारा निर्माण किये गए थे । उस समय में मेधातिथि ने कुण्डल अपने कानों से निकालकर पुत्री के लिए दिये थे । सावित्री ने पतिव्रता होना ओर बहुला ने बहुत पुत्रों वाली होना ये आशीर्वाद दिया था । देवेन्द्र ने बहुत से रत्नों का समूह कुबेर के ही समान दिया था । इस रीति से देवगण, मुनियों, देवियों और जो भी अन्य जन वहाँ पर उपस्थित थे सबने यथायोग्य दान उन दोनों के लिए पृथक-पृथक दिया था । इस प्रकार से विधिपूर्वक विवाह करके सुवर्ण के मानस पर्वत पर वशिष्ठ और अरुन्धती रहे थे और वशिष्ठ जी ने उस अरुन्धती के साथ परम हर्ष प्राप्त किया था ।

विवाह के अवभृथ के लिए और शान्ति के लिए जो सुरों के द्वारा लाया हुआ जल था वहाँ पर वह जल मानस पर्वत की कन्दरा में गिरा था । ब्रह्मा, विष्णु और महादेव के हाथों में समुदीरित वही जल सात भागों में विभक्त होकर मानस पर्वत से गिरा था । उससे शिप्रा नदी समुत्पन्न हुई थी जो भगवान विष्णु के द्वारा भूमण्डल में प्रेरित की गई थी। महाकौषी के प्रपात में जो पतित हुआ था उससे कौषकी नाम वाली नदी उत्पन्न हुई थी और जो विश्वामित्र ऋषि के द्वारा अवतारित थी । उमा के क्षेत्र में जो जल गिरा था उससे महानदी समुत्पन्न हुई थी जो महाकाल नामक सर से निकली है। सरों में श्रेष्ठ महाकाल में गिरि वह जल पतित हुआ था । हिमवान पर्वत के पार्श्वभाग में भगवान शम्भु की सन्निधि में जो जल गिरा था उससे गोमती नाम वाली नदी समुत्पन्न हुई जो गोमद से उदीरित है ।

मैनाक नाम वाला जो पुत्र मौलराज के ही समान था पहले वह उसी शिखर में मेनका के उदर से समुत्पन्न हुआ । यह जल वहाँ गिरा था उसका शुभनाम दविका था जो महादेव के द्वारा सागर की ओर प्रेरित की गई थी। जो जल हंसावतार की सन्निधि में संगत हुआ था उससे सरयू नाम वाली नदी उत्पन्न हुई थी जो परम पुण्यतम कही गई है । जो जल खाण्डव वन की सन्निधि में महापार्श्व के गिरे थे जो कि हिमवान की कंदरा में याम्य में पतित हुये थे वहाँ इरा के गुद के मध्य से इरावती नाम वाली नदी के जन्म धारण किया था जो सरिताओं में परम श्रेष्ठ है । सभी सरितायें स्नान पान और सेवन से जाह्नवी गंगा के तुल्य है। ये सब सदा दक्षिण सागर में गमन करने वाले मनुष्यों को फल दिया करती हैं । ये नदियाँ धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की सनातन बीज भर्ता हैं अर्थात् पुरुषार्थ चतुष्टय की प्राप्ति के लिए कारण स्वरूप ही हैं । ये सात महानदियाँ सर्वदा देवों के भोगों को प्रदान करने वाली हैं । इस रीति से सात नदियाँ समुत्पन्न हुईं थी जो सदा ही पुण्य जल वाली थीं।

देवों की सन्निधि में अरुन्धती और वशिष्ठ मुनि का विवाह हो जाने पर इस प्रकार से उस अरुन्धती के साथ विवाह करके उस अवसर पर वे वशिष्ठ मुनि उस अरुन्धती को लेकर देवों के द्वारा दिये हुए स्थान में ही उसी समय से वशिष्ठ मुनि श्रेष्ठ ब्रह्मा, विष्णु और महेश के वचन से ही उस पूर्वोक्त स्थान पर चले गये थे । वे समस्त जगतों के हित के सम्पादन करने के लिए तीनों भुवनों में सर्वदा जिस-जिस में स्त्रियों को जैसे भी है वैसे ही हो जाते हैं । वेशभाव और शरीर को धर्म से नियोजन करके यह परम प्रसन्न बुद्धिवाले, प्रमाद से रहित होते हुए तीनों लोकों में विचरण किया करते हैं । इसी रीति से मुनि वशिष्ठ ने पहले अरुन्धती के साथ परिणय की गई थी। जो पुरुष इस धर्म के साधन स्वरूप आख्यान को नित्य ही श्रवण किया करता है वह सब प्रकार के कल्याणों से युक्त होकर चिरायु और धनवान हुआ करता है ।

जो कोई स्त्री निरन्तर अरुन्धती की इस कथा को सुना करती है। वह इस लोक में पतिव्रता हो परलोक में स्वर्ग की प्राप्ति किया करती है । यह आख्यान परम कल्याण का गृह है और यह परम धर्म के प्रदान करने वाला है । यह आख्यान सर्वदा कीर्ति, यश, पुण्य का विशेष बढ़ाने वाला है । पुरुष के विवाह में, यात्रा में और श्राद्ध में जो श्रवण करता है उनकी स्थिरता, पुंसवन, सिद्धि और पितृगण प्रीति हो जाया करती है । यह सम्पूर्ण महात्मा वशिष्ठ का आख्यान आपको कह दिया है जिस प्रकार अरुन्धती उनकी भार्या और परम पतिव्रता हुई थी । वह जिसकी पुत्री होकर उत्पन्न हुई और जिस तरह से उसने अपना जन्म ग्रहण किया था तथा जिस स्थान में उसका समुद्भव हुआ था और जिस प्रकार से उसने ब्रह्मा, विष्णु और महेश्वर के वचन से अपने पति का वरण किया था, यह सभी कुछ गुह्य से भी अत्यधिक गुह्य को मैंने आपको वर्णन करके समझा दिया है। यह आख्यान पुण्य का दाता पापों का हरण करने वाला और वायु तथा आरोग्य के बढ़ाने वाला है । यह बहुत वर्षों के पापों को क्षय करने वाला इतिहास है । इसको सभा में द्विजों को कोई एक बार भी श्रवण करा देता है वह मनुष्य कलुषों के समूह से हीन देह वाला हो जाता है और साथ में रहकर मुनिवरों की सहचर्या को प्राप्त कर लेता है और मृत होने पर वह देवता ही हो जाता है।

॥ इति श्रीकालिकापुराणे वशिष्टअरुन्धतिविवाहनाम त्रयोविंशतितमोऽध्यायः ॥ २३ ॥

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *