इस तरह पाएं परमात्मा के सनातन परम पद को
वेदेषु यज्ञेषु तपःसु चैव दानेषु यत्पुण्यफलं प्रदिष्टम् ।
अत्येति तत्सर्वमिदं विदित्वा योगी परं स्थानमुपैति चाद्यम् ।। गीता 8/28
अर्थ: इस तत्व को जानकर योगी वेदाध्ययन, यज्ञ, तप और दान से प्राप्त होने वाले जो पुण्य फल कहे हैं, उन सबका उल्लंघन कर जाता है और सनातन परम पद को प्राप्त होता है।
व्याख्या: पुण्य फल देने वाले कर्मों में मुख्यतया वेदों आदि शास्त्रों का अध्ययन करना, यज्ञ करना, अपनी इंद्रियों को विषयों की ओर जाने से रोकने के लिए तप करना और सुपात्र को दान देना आते हैं। देखा जाए तो व्यक्ति जीवन भर इन्हीं पुण्य कर्मों में उलझा रहता है। पाप कर्म को छोड़ना फिर भी आसान होता है, लेकिन पुण्य कर्म का चसका इनको छोड़ने नहीं देता, क्योंकि पुण्य कर्मों से स्वर्ग के भोग मिलने की आस जुडी रहती है।
जो योगी आत्म तत्व को जान लेता है, वह इन पुण्य फलों का भी लांघ जाता है। इस अवस्था में उसके चित्त में अब न पाप फल रहता है और न ही पुण्य फल, जिससे चित्त निर्मल हो जाता है और फिर वह योगी परमात्मा के सनातन परम पद को पा लेता है।