धन्याष्टक – Dhanyashtak

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स्तोत्र श्रृंखला के श्रीमद् शङ्कराचार्यविरचित धन्याष्टक में कौन धन्य है कहा गया है ।

धन्याष्टकम्

तज्ज्ञानं प्रशमकरं यदिन्द्रियाणां

तज्ज्ञेयं यदुपनिषत्स निश्चितार्थम् ।

ते धन्या भुवि परमार्थनिश्चितेहाः

शेषास्तु भ्रमनिलये परिभ्रमन्ति ॥ १ ॥

जो इन्द्रियों को शान्त करनेवाला है, वही ज्ञान है। जो उपनिषदों का निश्चितार्थ है, वही ज्ञेय है। जिनकी समस्त चेष्टाएँ परमार्थदृष्टि से ही होती हैं, वे ही पृथ्वीतल में धन्य हैं और सब तो भूलभुलैये में ही भटकते रहते हैं॥१॥

आदौ विजित्य विषयान्मदमोहराग

द्वेषादिशत्रुगणमाहृतयोगराज्याः ।

ज्ञात्वामृतं समनुभूतपरात्मविद्या

कान्तासुखा बत गृहे विचरन्ति धन्याः ॥२॥

प्रथम विषय-समूह तथा मद, मोह, राग और द्वेष आदि शत्रुओं को जीतकर, योगसाम्राज्य को पाकर, अमृतपद का ज्ञान प्राप्तकर, ब्रह्मविद्यारूपिणी कान्ता का सुखानुभव करते हुए, मानो घर में ही विचरण करते हैं, वे योगीजन धन्य हैं ॥२॥

त्यक्त्वा गृहे रतिमधोगतिहेतुभूता

मात्मेच्छयोपनिषदर्थरसं पिबन्तः ।

वीतस्पृहा विषयभोगपदे विरक्ता

धन्याश्चरन्ति विजनेषु विरक्तसङ्गाः ॥३॥

अधोगति के हेतुभूत घर के मोह को छोड़कर, आत्मजिज्ञासा से उपनिषदर्थभूत ब्रह्मानन्द का पान करते हुए, निःस्पृह होकर, विषय-भोगों से विरक्त हो, जो निःसंगभाव से जनशून्य स्थानों में विचरते हैं, वे धन्य हैं ॥३॥

त्यक्त्वा ममाहमिति बन्धकरे पदे द्वे

मानावमानसदृशाः समदर्शिनश्च ।

कर्तारमन्यमवगम्य तदर्पितानि

कर्वन्ति कर्मपरिपाकफलानि धन्याः ॥४॥

जो मैं और मेरा रूप दोनों बन्धनकारी भावों को छोड़कर, मानापमान को समान समझते हुए, समदर्शी होकर तथा अपने से पृथग्भूत कर्ता को जानकर सम्पूर्ण कर्मफल उसको समर्पण करते हैं, वे पुरुष धन्य हैं ॥४॥

त्यक्त्वैषणात्रयमवेक्षितमोक्षमार्गा

भैक्षामृतेन परिकल्पितदेहयात्राः ।

ज्योतिः परात्परतरं परमात्मसंज्ञं

धन्या द्विजा रहसि हृद्यवलोकयन्ति ॥५॥

लोकैषणा, पुत्रैषणा तथा वित्तैषणातीनों को छोड़कर मुक्तिमार्ग का अनुशीलन करके भिक्षामृत से शरीरयात्रा का निर्वाह करते हुए; जो परमात्मसंज्ञक परात्पर ज्योति को एकान्तदेश में अपने हृदय में अवलोकन करते हैं, वे द्विज धन्य हैं॥ ५॥

नासन्न सन्न सदसन्न महन्न चाणु

न स्त्री पुमान्न च नपुंसकमेकबीजम् ।

यैर्ब्रह्म तत्समनुपासितमेकचित्ता

धन्या विरेजुरितरे भवपाशबद्धाः ॥ ६ ॥

जो न असत् है, न सत् है और न सदसत् है; न महान् है, न अणु है; न स्त्री है, न पुरुष है और न नपुंसक है; संसार का एकमात्र कारण है, उस ब्रह्म की जिन्होंने उपासना की है, एकाग्रचित्त वे ही धन्य पुरुष सुशोभित होते हैं, और तो सब संसारबन्धन में बँधे हुए हैं॥६॥

अज्ञानपङ्कपरिमग्नमपेतसारं

दुःखालयं मरणजन्मजरावसक्तम् ।

संसारबन्धनमनित्यमवेक्ष्य धन्या

ज्ञानासिना तदवशीर्य विनिश्चयन्ति ॥७॥

जो पङ्क में सने हुए, अज्ञान, निःसार, दुःखरूप, जन्मजरामरणादिसमन्वित, संसारबन्धन को अनित्य देखकर उसको ज्ञानरूपी खड्ग से काटकर आत्मतत्त्व का निश्चय करते हैं, वे पुरुष धन्य हैं ।। ७॥

शान्तैरनन्यमतिभिर्मधुरस्वभावै

रेकत्वनिश्चितमनोभिरपेतमोहैः ।

साकं वनेषु विजितात्मपदस्वरूपं

शास्त्रेषु सम्यगनिशं विमृशन्ति धन्याः ॥८॥

जिन्होंने मन के द्वारा एकत्व का निश्चय किया है और मोह को त्याग दिया है ऐसे शान्त, अनन्यमति और कोमलचित्त महात्माओं के साथ, जो लोग वन में शास्त्रों द्वारा आत्मतत्त्व का निरन्तर विचार करते हैं, वे धन्य हैं ।। ८ ।।

अहिमिव जनयोगं सर्वदा वर्जयेद्यः

कुणपमिव सुनारी त्यक्तुकामो विरागी ।

विषमिव विषयान्यो मन्यमानो दुरन्ताञ्

जयति परमहंसो मुक्तिभावं समेति ॥ ९॥

जो जनसमूह को सदा सर्प-सहवास के समान त्यागता है, सुन्दर स्त्री की वैराग्यभाव से शव के समान उपेक्षा करता है, दुस्त्यज विषयों को विष के समान छोड़ता है, उस परमहंस की जय हो, जय हो । वही मुक्ति को प्राप्त होता है ।। ९ ।।

सम्पूर्ण जगदेव नन्दनवनं सर्वेऽपि कल्पद्रुमा

गाउंवारिसमस्तवारिनिवहाः पुण्याः समस्ताः क्रियाः ।

वाचः प्राकृतसंस्कृताः श्रुतिशिरो वाराणसी मेदिनी

सर्वावस्थितिरस्य वस्तु विषया दष्टे परब्रह्मणि ॥१०॥

जिसने परब्रह्म का साक्षात्कार कर लिया है, उसके लिये सारा संसार नन्दनवन है, समस्त वृक्ष कल्पवृक्ष हैं, सम्पूर्ण जल गङ्गाजल है, उसकी सारी क्रियाएँ पवित्र हैं, उसकी वाणी प्राकृत हो अथवा संस्कृत हो वेद की सारभूत है, उसके लिये सम्पूर्ण भूमण्डल काशी (मुक्तिक्षेत्र) ही है तथा और भी उसकी जो-जो चेष्टाएँ हैं, सब परमार्थमयी ही हैं ।। १० ।।

इति श्रीमत्परमहंसपरिव्राजकाचार्यश्रीमच्छङ्कराचार्यविरचितं धन्याष्टकं सम्पूर्णम्।

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