रुद्रयामल तंत्र पटल ४५ || Rudrayamal Tantra Patal 45 रुद्रयामल तंत्र पैंतालिसवाँ पटल

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रुद्रयामल तंत्र पटल ४५ में वर्णं ध्यान का वैशिष्ट्य निरूपित है। पूर्वादि दल से लेकर सभी वर्णों का पृथक्‌-पृथक्‌ ध्यान कहा गया है। ड से लेकर फ पर्यन्त दश वर्णो का ध्यान वर्णित है (४२-५१)। रक्त एवं विद्युत्‌ के समान चमक वाले वर्णो का ध्यान कर सदा कर्णिका के मध्य कुण्डलिनी का ध्यान करे (५३-५८)। फिर कुण्डलिनी का ध्यान प्रतिपादित कर अन्त में रुद्राणी स्तोत्र के पाठ का विधान है ।

रुद्रयामल तंत्र पञ्चचत्वारिंश:पटल:

रूद्रयामल तंत्र शास्त्र

अथ पञ्चचत्वारिंश: पटल:

आनन्दभैरवी उवाच

अथ कालक्रमं वक्ष्ये यत्काले योगिराड् भवेत् ।

तत्कालं प्राणवायूनां निलयं सूक्ष्मसञ्चयम् ॥ १ ॥

आनन्दभैरवी ने कहाहे महाभैरव ! अब इसके बाद उस कालक्रम को कहती हूँ, जिस काल में साधक योगिराज बन जाता है। वह काल सूक्ष्म सञ्चय युक्त वायु का स्थान है ॥ १ ॥

पुनः पुनः सञ्चयने दृढो भवति संवशी ।

क्रियायां सञ्चरन्त्येव योगिन्यो योगमातरः ॥ २ ॥

जितेन्द्रिय साधक बारम्बार वायु के सञ्चयन से दृढ़ हो जाता है क्योंकि वायुसञ्चयन रूप क्रिया में योगमातायें योगिनियाँ सञ्चरण करती हैं ॥ २ ॥

यत्काले यत्प्रकर्त्तव्यं भानुरूप्यकुलार्णव ।

काले काले वशो याति परमात्मा निरामयः ॥ ३ ॥

हे सूर्यस्वरूप, हे कुलार्णव ! जिस काल में जो करना चाहिए, अब उसे सुनिए क्योंकि निरामय परमात्मा उचित काल में क्रिया करने से वश में हो जाता है ॥ ३ ॥

विना प्रयोगसारेण विना जाप्येन शङ्कर ।

कः सिद्धो जायते ज्ञानी योगी भवति कुत्र वा ॥ ४ ॥

अभ्यासमन्त्रयोगेन शनैर्योगी भवेन्नरः ।

प्रभाते ज्ञानशौचञ्च कुण्डलीभावनादिकम् ॥ ५ ॥

तन्मध्ये चापि संस्कुर्याद् योगं पञ्चामरादिकम् ।

ततो मन्त्रस्नानकार्यं मस्तके जलसेचनम् ॥ ६ ॥

हे शङ्कर ! बिना प्रयोग सार (अनुष्ठान) के तथा बिना जप के कौन साधक सिद्ध हो सकता है? और कौन ज्ञानी या योगी बना है? मनुष्य धीरे धीरे अभ्यास एवं मन्त्र के प्रयोग से योगी बनता है, सर्वप्रथम साधक प्रभातकाल में ज्ञान की बात सोंचे, फिर शौचादि नित्यक्रिया करे, तदनन्तर कुण्डली का ध्यान करे । उसी के बीच पञ्चामरादि योग का भी संस्कार करे। इसके बाद मस्तक पर जल छिड़कते हुए मन्त्र स्नान का कार्य करे ।। ४-६ ॥

सन्ध्यावन्दन कार्यञ्च ततः कुर्यात् पृथक् पृथक् ।

तत उत्थाय सद्भूमौ शुद्धकोमलजासने ॥ ७ ॥

उपविश्य सदाभ्यासी शुद्धकायासनञ्चरेत् ।

तत्कार्यसमये नाथ ध्यानं चैतन्यमेव च ॥ ८ ॥

कुण्डलिन्याः सदा कुर्यात् तन्मध्ये जपमेव च ।

आसनं सुन्दरं कुर्यात् सव्यापसव्यभेदतः ॥ ९ ॥

इसके बाद पृथक् पृथक् सन्ध्यावन्दन का कार्य करे। फिर वहाँ से उठकर शुद्ध और कोमल वस्तुओं से निर्मित आसन पर बैठकर सदाभ्यासी पुरुष, शुद्ध शरीर से आसन की क्रिया करे । हे नाथ ! उसी कार्य के समय कुण्डली का ध्यान तथा उसे चैतन्य भी करे और उसी बीच जप कार्य भी करे। सव्य और अपसव्य भेद (बायें एवं दाहिने के क्रम) से सुन्दर आसन करे ।। ७-९ ।

आसनादिकमाकृत्य शेषे सुस्थासनं चरेत् ।

सुस्थासनं समाकृत्य चोर्ध्वपद्मासनं चरेत् ॥ १० ॥

मस्तकाधः केशमध्ये हस्तौ दत्त्वा मनुं जपेत् ।

आसन करने के बाद अन्त में पद्मासन करे । पुनः पद्मासन के बाद ऊर्ध्वपद्मासन करे । फिर मस्तक से नीचे केशों के मध्य में दोनों हाथ रखकर मन्त्र जप करे ।। १०-११ ॥

चतुरशीतित्रिगुणमासनं भञ्जनं तथा ॥ ११ ॥

प्रत्यासनं क्रमेणैव एतेषां द्विगुणं पुनः ।

एतेषामासनादीनां वक्तव्या सङ्ख्यका पुनः ॥ १२ ॥

इस प्रकार चौरासी का तिगुना आसन (२५२) तथा उसका भञ्जन (तोड़ना आदि) कहा गया है । पुनः इन प्रत्येक आसनों की (सव्यापसव्य) भेद से द्विगुनी भी संख्या कही गई है। अतः इन आसनों की संख्या पुनः (५०४ ) कहनी चाहिए ॥। ११-१२ ॥

अष्टाङ्गसाधने नाथ वक्तव्यं सर्वमासनम् ।

प्राणायामं षोडशकमथवा द्वादशादिकम् ॥ १३ ॥

हे नाथ! अष्टाङ्ग योग साधन के प्रकरण में हम सभी आसनों को कहेंगे। इसके बाद सोलह अथवा बारह प्राणायाम करना चाहिए ।। १३ ॥

स्वकर्णागोचरं कृत्वा पिबेद्वायुं सदा बुधः ।

ततः समाप्य तत्कार्य मन्त्रयोगं समभ्यसेत् ॥ १४ ॥

समाप्य मन्त्रयोगं च प्राणायामत्रयं चरेत् ।

तत उत्थाय नद्यादिं विलोक्य चान्तरात्मनि ॥ १५ ॥

स्नानं कृत्त्वा महायोगी मानसादिक्रमेण तु ।

तत्रैव मानसं जाएं समाप्य जपमेव च ॥ १६ ॥

एकप्राणायामं कुर्यात् कृत्त्वा तीरे विशेत् सुधीः ।

पिधाय पीतवसनं धर्माधर्मं विचिन्तयेत् ॥ १७ ॥

बुद्धिमान् साधक अपने कानों को सुनाते हुए वायु का आकर्षण कर पान करे। इसके बाद उस कार्य को समाप्त कर मन्त्र योग का अभ्यास करे। तदनन्तर मन्त्र योग समाप्त कर तीन प्राणायाम करे। फिर वहाँ से उठकर महायोगी नद्यादि देखकर अथवा स्वयं अन्तरात्मा में मानसादि स्नान कर मानस जप करे। फिर मानस जप समाप्त कर लेने के पश्चात् एक प्राणायाम और करे। फिर विद्वान् साधक पीताम्बर पहन कर तीर पर बैठ जावे और धर्माधर्म का विचार करे।।१४-१७ ॥

ततः सन्ध्यावन्दनं च कृत्त्वा पूजाविधिं चरेत् ।

सर्वत्र कुम्भकं कृत्त्वा भावयित्त्वा पुनः पुनः ॥ १८ ॥

मणिपूरे महापीठे ध्यात्वा देवीं कुलेश्वरीम् ।

पूजयित्त्वा विधानेन प्राणायामं पुनश्चरेत् ॥ १९ ॥

इसके बाद सन्ध्यावन्दन कर पूजा का कार्य सम्पन्न करे। पूजाविधि में सर्वत्र कुम्भक कर मणिपूर महापीठ में कुलेश्वरी (कुण्डलिनी अथवा लाकिनी) देवी का बारम्बार ध्यान करते हुए विधानपूर्वक उनकी पूजा करे, फिर पुनः प्राणायाम करे ।। १८-१९ ।।

ततः कुर्यात् साधकेन्द्रो विधिना कवचस्तवम् ।

सर्वत्र प्राणसंयोगाद् योगी भवति निश्चितम् ॥ २० ॥

अथवा कालजालानां वारणाय महर्षिभिः ।

एतत् कार्यं समाकुर्याद् योगनिर्णयसिद्धये ॥ २१ ॥

विना योगप्रसादेन (न) काल: संवशो भवेत् ।

कालेन योगमाप्नोति योगध्यानं स्वकालकम् ॥ २२ ॥

इसके बाद साधकेन्द्र विधिपूर्वक कवच तथा स्तोत्रों का पाठ करे । सर्वत्र अपने प्राणवायु का संयोग (संयमन) करने से वह निश्चित ही योगी बन जाता है, अथवा काल से होने वाले कष्टों के कारण के लिए महर्षियों को यह कार्य (कवच एवं स्तोत्र पाठ) करना चाहिए, अथवा योग में (संदिग्ध स्थानों की) निर्णय सिद्धि के लिए मनुष्यों को यह कार्य करना चाहिए। योगसिद्धि के बिना काल वश में नहीं होता और वह योग काल प्राप्त होने पर सिद्ध होता है, इस प्रकार योग एवं ध्यान अपने अपने काल में होता है । २०-२२ ॥

योगाधीनं परं ब्रह्म योगाधीनं परन्तपः ।

योगाधीना सर्वसिद्धिस्तस्माद् योगं समाश्रयेत् ॥ २३ ॥

योगेन ज्ञानमाप्नोति ज्ञानान्मोक्षमवाप्नुयात् ।

तत्क्रमं शृणु भूचक्रे सर्वसिद्ध्यादिसाधनम् ॥ २४ ॥

परब्रह्म योग के अधीन है, बहुत बड़ी तपस्या भी योगाधीन है सारी सिद्धियाँ योगाधीन हैं, इसलिए योग का आश्रय अवश्य ग्रहण करना चाहिए। योग से ज्ञान प्राप्त होता है और ज्ञान से मोक्ष की प्राप्ति होती है। हे भैरव ! इसी क्रम में सभी सिद्धियों आदि के साधन को भूचक्र में सुनिए । २३-२४ ॥

सिद्धिसाधनमन्त्रेण योगी भवति भूपतिः ।

शीघ्रं राजा भवेद् योगी शीघ्रं योगी भवेद् यतिः ॥ २५ ॥

शीघ्रं योगी भवेद्विप्रो यदि स्वधर्ममाश्रयेत् ।

स्वधर्मनिष्ठताज्ञानं सज्ज्ञानं परमात्मनः ॥ २६ ॥

तज्ज्ञानेन लभेद् योगं योगाधीनाश्च सिद्धयः ।

सिद्धवधीनं परं ब्रह्म तस्माद् योगं समाश्रयेत् ॥ २७ ॥

स्वधर्मनिष्ठताज्ञानं स तज्ज्ञानं समाश्रयेत् ।

योगयोगाद्भवेन्मोक्षो मम तन्त्रार्थनिर्णयः ॥ २८ ॥

सिद्धि के साधनभूत मन्त्र से योगी भी राजा बन जाता है तथा राजा भी शीघ्र योगी बन जाता है किं बहुना उस (मन्त्रयोग) से योगी भी शीघ्र यति बन जाता है। यदि ब्राह्मण अपने धर्म का आश्रय ग्रहण करे तो वह भी शीघ्र ही योगी बन जाता है, क्योंकि अपने धर्म में निष्ठा का ज्ञान होना ही परमात्मा का ज्ञान है। परमात्मा का ज्ञान होने पर ही योग प्राप्त होता हैं और समस्त सिद्धियाँ योग के अधीन हैं तथा परब्रह्म परमात्मा सिद्धियों के आधीन है। इसलिए योग का आश्रय अवश्य ग्रहण करना चाहिए। अतः साधक को स्वधर्मनिष्ठता एवं उस धर्म के ज्ञान का आश्रय अवश्य ग्रहण करना चाहिए। हे भैरव ! योग से युक्त होने पर ही मोक्ष संभव है ऐसा हमारे तन्त्रों के अर्थ का आशय है ।। २५-२८ ॥

योगी ब्रह्मा मुरारिश्च तथा योगी महेश्वरः ।

तथा योगी महाकाल: कौलो योगी न संशयः ॥ २९ ॥

ब्रह्मा तथा मुरारी योगी हैं, इतना ही नहीं महेश्वर भी योगी हैं, महाकाल भी योगी हैं, कौल (शक्ति का उपासक) भी योगी हैं इसमें संशय नहीं ॥ २९ ॥

मणिपूरभेदने तु यत्नं कुर्यात् सदा बुधः ।

यदि चेन्मणिपूरस्थदेवताभेदको भवेत् ॥ ३० ॥

सर्वक्षणं सुखी भूत्वा चिरं तिष्ठति निश्चितम् ।

बुद्धिमान् साधक को मणिपूर चक्र के भेदन का सर्वदा प्रयत्न करना चाहिए। यदि वह मणिपूरस्थ देवता के भेदन में सफल हो जाता है, तो वह सदैव सुखी रहकर दीर्घकाल पर्यन्त जीवित रहता है ।। ३०-३१ ॥

महाप्रभं सुन्दरञ्च महामोहनिघातनम् ॥ ३१ ॥

मेघाभं विद्युताभं च पूर्णतेजोमयं परम् ।

मणिभिर्ग्रथितं पद्मं मणीनां पूरमेव च ॥ ३२ ॥

सूर्यकान्तैश्चन्द्रकान्तैर्वह्निकान्तैर्महोज्ज्वलैः ।

इत्यादिमणिभिः सर्वं परं कान्तिगुणोदयम् ॥ ३३ ॥

निविडे जलदे मेघे कोटिविद्युत्प्रभा यथा ।

तत्प्रकारं भावनीयं सिद्धानां ज्ञानगोचरम् ॥ ३४ ॥

मणिपूर चक्र अत्यन्त प्रकाशयुक्त है, मनोहर है, महामोह को नष्ट करने वाला है, मेघ के समान शीतल तथा विद्युत् के समान जाज्वल्यमान है। पूर्णतेज से परिपूर्ण है, वहाँ के पद्म (विभिन्न) मणियों से गूँथे (पूर) गए हैं ऐसा है वह मणि से पूर अर्थात् पूर्ण । सूर्यकान्त, चन्द्रकान्त, वह्निकान्त आदि महाप्रकाश करने वाली मणियों से सारा स्थान देदीप्यमान है। जहाँ से सब प्रकार की कान्ति एवं गुणों का उदय हुआ है। अत्यन्त काले घने बादल में जैसे करोड़ों बिजलियों का प्रकाश होता है, उस प्रकार से मणिपूरका ध्यान करना चाहिए । इस प्रकार का मणिपूर सिद्धों के ज्ञान का गोचर हैं ।। ३१-३४ ।।

अत्यन्तसूक्ष्ममार्गस्थं नित्यस्थानं हि योगिनाम् ।

मणिभिः शोभितं पद्मं मणिपूरं तथोच्यते ॥ ३५ ॥

दशकोमलपत्रैश्च समायुक्तं मनोहरम् ।

डादिफान्तवर्णयुक्तं स्थिरविद्युत्समाकुलम् ॥ ३६ ॥

योगियों के द्वारा अत्यन्त सूक्ष्म मार्ग से वहाँ जाया जाता है। वही योगियों का नित्य निवास है । वहाँ के पद्म मणियों से शोभित हैं, इसलिए उसे मणिपूरकहते हैं। वह मणिपूर दश कमल के पत्रों से युक्त एवं मनोहर है। से लेकर पर्यन्त दश वर्ण उस कमल पत्र पर रहते हैं। वह स्थिर विद्युत् से परिपूर्ण हैं ।। ३५-३६ ।।

शिवेनाधिष्ठितं पद्मं विश्वालोकनकारकम् ।

आदौ वर्णरूपकाणां ध्यानं कुर्यात् स्वधामयः ॥ ३७ ॥

महापद्मे मनो दत्वा निर्मलं परिभावयेत् ।

डादिफान्ताक्षराणां च ध्यानाज्ज्ञानस्थिरो भवेत् ॥ ३८ ॥

मनोधैर्यमुपागम्य दिव्यभक्तिं समालभेत् ।

वर्णध्यानं प्रवक्ष्यामि शृणुष्व परमेश्वर ॥ ३९ ॥

वे पद्म सदाशिव से अधिष्ठित हैं और सारे विश्व को आलोकित करते रहते हैं। साधक को चाहिए कि वह सर्वप्रथम उन वर्णों का ध्यान स्वधामय करे। महापद्म में मन लगाकर उन वर्णों के निर्मल रूप का ध्यान करना चाहिए। से लेकर पर्यन्त दश वर्णों के ध्यान से ज्ञान में स्थिरता आता है। मन में धैर्य आता है, जिससे साधक दिव्यभक्ति प्राप्त कर लेता है। हे परमेश्वर ! अब उन वर्णों का ध्यान कहती हूँ। उसे सुनिए ।। ३७-३९ ॥

यद्विभाव्यामरो भूत्वा चिरं तिष्ठति मानवः ।

महाधैर्यक्रियां कुर्याद् वायुपानं शनैः शनैः ॥ ४० ॥

यत्र यत्र मनो याति तन्मयस्तत्क्षणाद् भवेत् ।

पूर्वादिदलमारभ्य ध्यानं कुर्यात् पृथग् पृथक् ॥ ४१ ॥

जिसका ध्यान कर मनुष्य अमर होकर दीर्घकाल पर्यन्त (इस लोक में) जीवित रहता है। इस क्रिया को बहुत धीरज के साथ करे और धीरे धीरे वायुपान करे। जहाँ जहाँ मन जावे, तत्क्षण तन्मय हो जावे । प्रथमतः पूर्वदल से आरम्भ कर पृथक् पृथक् वर्णों का इस प्रकार ध्यान करना चाहिए ।। ४०-४१ ॥

रुद्रयामल तंत्र पटल ४५ 

Rudrayamal Tantra Patal 45

रुद्रयामल तंत्र पैंतालिसवाँ पटल

रुद्रयामल तंत्र पञ्चचत्वारिंश:पटल:

डां डां डां डाकिनीन्ता डमरुवररतां तारिणीं ताररूपां

डिं डिं डिं डामरस्थां डमरुडमगृहे डङ्कडिकिं मनुस्थाम् ।

डं डं डं डामरेशीं डिमिडिमिडिमिगध्वाननिर्माणडोरां

डों डों डों डाकडं डः प्रडुम डमुडां दाडिमामाश्रयामि ॥ ४२ ॥

वर्ण का ध्यान– डां डां डां डमरु धारण करने वाली डाकिनी ताररूपा तारिणी डिं डिं डिं डामर में स्थित रहने वाली डमरु डम गृह में डङ्क डिकि मन्त्र में रहने वाली, डं डं डं डामरेशी डिमि डिमि डिमि में रहने वाले डोरा शब्द का निर्माण करने वाली, डों डों डों डाक डं डः प्रडुम डमुडा दाडिमा का मैं आश्रय लेता हूँ ॥ ४२ ॥

ढां ढां ढां गाढढक्कां वरनिकरकरां बाढमाबाढमन्त्रा

ढिं ढिं ढिं नागरूपां भज भज विमलानन्दचित्तप्रकाशः ।

श्री ढें ढं वज्रढूं खा खवट मटमरं स्वाहया टोंटबीजां

ढों ढों ढों ढक्ढक्कः प्रियढुनकरुणाकामिनीं लाकिनीं ताम् ॥ ४३ ॥

वर्ण का ध्यानस्वच्छ आनन्द से अपने चित्त को प्रकाशित करते हुए हे भक्त! आप ढां ढां ढां गाढ ढक्का (नगाड़ा), हाथ में वर समूह को धारण करने वाली, बाढमाबाढ मन्त्ररूप ढिं ढिं ढिं बीज मन्त्र वाली नागरूपा का भजन कीजिए। श्रीं ढें ढं वज्र ढूं खा ख ब ट मटमरं स्वाहया टोंटबीजा ढों ढों ढों ढक्कढक्कः प्रियढुन करुणा कामिनी उस लाकिनी का भजन कीजिए ॥ ४३ ॥

बाणस्थित्यसंस्थां रुचिनकरवणाकारणा वाणवाणि

वीणां वेणूत्सवाढ्यां मणिगुणकरुणां नं खटीजप्रवीणम् ।

वेणुस्थानां सुमानां मणिमयपवमामन्त्रमालाविलोलां

सिन्दूरारक्तवर्णां तरुणघननवीनामलां भावयामि ॥ ४४ ॥

वर्ण का ध्यान– मैं बाण में स्थित रहने वाली अन्यत्र न रहने वाली, रूचिनकर वणाकारणा, वाणपाणि, वीणा और वेणु के उत्सव से नित्य समृद्धा, मणिगुण वाली, करुणा खटीज प्रवीणं वेणुस्थाना का, सुमाना, मणिमय पवमामन्त्र माला, विलोला सिन्दूर से आरक्त वर्ण वाली देवी, तरुण बादल के समान नवीना एवं सर्वथा स्वच्छ वर्णा लाकिनी का ध्यान करता हूँ ।। ४४ ।।

तारां तारकमञ्जालविमलां तालादिसिद्धिप्रदां

ताडङ्कामति तेजसा भुनिमनोयोगं वहन्तीं पराम् ।

तां तारा तुलसीं तुलां तनुतटां तर्कोंद्भवां तान्त्रिकां

श्रीसूर्यायुततेजसीं भज मनः श्रीमातरं तापसीम् ॥ ४५ ॥

का ध्यानतारा, तारकमञ्जजाल, विमला एवं तालादि से सिद्धि प्रदान करने वाली, अत्यन्त तेजस्विनी, ताडङ्कवाली मुनियों के मनोयोग का वहन करने वाली, पराशक्ति तां, तारां, तुलसीं, तुला, तनुतटा, तर्कोद्भवा, तान्त्रिका, अयुतसूर्य के समान तेजस्विनी तपस्विनी श्री (विद्या) माता का, हे मन ! भजन कीजिए ।। ४५ ।।

व्यग्रस्थां स्थानसुस्थां स्थितिपथपथिकां थार्णकूटां थमालीं

गाथां योगां विपथां थमिति थमिति थं वह्निजायां स्थिरासाम् ।

चन्द्रज्योत्स्नास्थलस्थां स्थिरपदमथनामुज्ज्वलामासनस्थां

स्थैयां स्थैर्याभिरामां प्रणव नव सुधां चन्द्रवर्णां भजामि ॥ ४६ ॥

वर्ण का ध्यानव्यग्रों के चित्त में रहने वाली, स्थानसुस्था, स्थितिपथपथिका, थार्णकूटा, थमाली, गाथा, योगा, विपथा, थं थं थं वह्निजाया, स्थिरासा, चन्द्रज्योत्स्ना, स्थलस्था, स्थिरपदमथना, उज्ज्वला, आसनस्था स्थैर्या, स्थैर्याभिरामा एवं प्रणव रूप नव सुधा वाली, चन्द्रवर्णा, श्री (विद्या) माता का, हे मन ! भजन कीजिए ।। ४६ ।।

द्रां द्रीं दूं दीर्घदंष्ट्रां दशन भयकरां साट्टहासां कुलेशीं

दोषच्छत्रापहन्त्रीं दिवितरणदशा दायिनीमादरस्थाम् ।

श्लिष्टाह्लादप्रदीप्तामखिलधनपदां दीपनीं भावयामि ॥ ४७ ॥

वर्ण का ध्यानद्रां द्रीं द्रुं दीर्घ दाँतों वाली, अपने दाँतों से भय उत्पन्न करने वाली, अट्टहास करने वाली, कुल मार्ग की स्वामिनी, दोषरूप छत्र को हटाने वाली, आकाश में भी तैरने की शक्ति प्रदान करने वाली, आदर से स्थित रहने वाली, शिव के श्लेषयुक्त आह्लाद से प्रदीप्त, सम्पूर्ण धन पर अधिकार करने वाली और दीपनी भगवती लाकिनी का ध्यान करता हूँ ।। ४७ ।।

विमर्श- द वर्ण के श्लोक में एक चरण की कमी है। शोधित्सुओं को इसे दूसरे तन्त्रों से लेकर लिखना चाहिए।।४७।।

धर्मां श्री ध्यानशिक्षां धरणिधरधरां धूमधूमावतीं तां

धूस्तूराकारवक्रां कुवलयधरणीं धारयन्तीं कराब्जम् ।

विद्युन्मध्यार्ककोटिज्वलनधरसुधां कोकिलाक्षीं सुसूक्ष्मां

ध्यात्वा ह्लादैकसिद्धिं धरणिधननिधिं सिद्धिविद्यां भजामि ॥ ४८ ॥

वर्ण का ध्यान– धर्मस्वरूपा महाश्री ध्यानशिक्षा धरणी को धारण करने वाले शेष को भी धारण करने वाली, धूम्र से धूमवती, धतूर के आकार के मुखों वाली, अपने कर कमलों में दो कमल को धारण करने वाली, विद्युत् के मध्य में करोड़ों सूर्यों के समान अग्नि धारण करने वाली, सुधा, कोकिलाक्षी और सुसूक्ष्मा देवी का ध्यान कर आह्लाद की एकमात्र सिद्धि एवं धरणी रूप धन की निधान तथा सिद्धविद्या का मैं भजन करता हूँ ।। ४८ ।।

नित्यां नित्यपरायणां त्रिनयनां बन्धूकपुष्पोज्ज्वलां

कोट्यर्कायुतसस्थिरां नवनवां हस्तद्वयाम्भोरुहाम् ।

नानालक्षणधारणामलविधुश्रीकोटिरश्मिस्थितां

सानन्दां नगनन्दिनीं त्रिगुणगां नं नं प्रभां भावये ॥ ४९ ॥

वर्ण का ध्यान– नित्या, नित्य परायणा, त्रिनयना, बन्धूक पुष्प के समान उज्ज्वल वर्ण वाली, करोड़ों सुर्यायुत के प्रकाश से संस्थिता, नव नवा, अपने दोनों हाथों में कमल धारण करने वाली, अनेक लक्षणों को धारण करने वाली, शुभ वर्ण वाले चन्द्रमा के करोड़ों श्री रश्मि से संस्थित सानन्दा त्रिगुणात्मिका, नं नं वर्ण में रहने वाली, प्रभा वाली नगनन्दिनी भगवती का मैं ध्यान करता हूँ ।। ४९ ।।

प्रीतिं प्रेममयीं परात्परतरां प्रेष्ठप्रभापूरितां

पूर्णां पूर्णगुणोपरि प्रलपनां मांसप्रियां पञ्चमाम् ।

व्यापारोपनिपातकापलपना पानाय पीयूषपां

चित्तं प्रापय पीतकान्तवसनां पौराणिकीं पार्वतीम् ॥ ५० ॥

वर्ण का ध्यानप्रीति, प्रेममयी पर से भी परतरा, श्रेष्ठ प्रभापूरिता, पूर्णा, पूर्ण- गुणोपरि प्रलपना, मांसप्रिया, पञ्चमा, व्यापारोपनिपातकापलपना, पान के लिए पीयूष पीने वाली, स्वच्छ पीताम्बर धारिणी, पौराणिकी पार्वती में हे भक्तों अपने चित्त को लगाओं ॥ ५० ॥

स्फें स्फें समें फणिवाहनां फणफणां फुल्लारविन्दाननां

फेरूणां वरघोरनादविकटास्फालप्रफुल्लेन्मुखीम् ।

फं फं फं फणिकङ्कणां फणिति फं मन्त्रैकसिद्धेः फलां

भक्त्या ध्यानमहं करोमि नियतं वाञ्छाफलप्राप्तये ॥ ५१ ॥

वर्ण का ध्यानस्फें स्फे समें फणिवाहना, फणफणा, फुल्लारविन्दानना शृङ्गालों के ऊँचे घोरनाद के विकट आस्फालन में प्रफुल्ल मुख वाली देवी फं फं फं फणियों का कङ्कण धारण करने वाली, फणिति फं मन्त्र से एकमात्र सिद्धि का फल देने वाली ऐसी फ स्वरूपा भगवती का मैं अपनी वाञ्छा फल की प्राप्ति के लिए भक्तिपूर्वक ध्यान करता हूँ ॥ ५१ ॥

विद्युताङ्कारमध्ये तु बिजलीरक्तवर्णकान् ।

एवं ध्यात्वाखिलान् वर्णान्रक्तविद्युद् दलोद्यताम् ॥ ५२ ॥

सदा ध्यायेत् कुण्डलिनीं कर्णिकामध्यगामिनीम् ।

वरहस्तां विशालाक्षीं चन्द्रावयवलक्षणाम् ॥ ५३ ॥

चारुचन्दनदिग्धाङ्गीं फणिहारविभूषणाम् ।

द्विभुजां कोटिकिरणां भालसिन्दूरशोभिताम् ॥ ५४ ॥

त्रिनेत्रां कालरूपस्थां लाकिनीं लयकारिणीम् ।

सिद्धिमार्गसाधनाय ध्यायेद् वर्णान् दश क्रमात् ॥ ५५ ॥

विद्युत् के आकार के मध्य में बिजली के समान रक्त वर्ण वाले एवं रक्तवर्ण वाले विद्युद्दलों के ऊपर रहने वाले, ‘डंसे लेकर पर्यन्त सभी दश वर्णों का ध्यान कर साधक कर्णिका के मध्य में रहने वाली कुण्डलिनी का सदा ध्यान करे । फिर हाथ में वर मुद्रा धारण करने वाली विशालाक्षी, चन्द्रमा के सदृश आह्लादकारक कान्ति वाली मनोहर चन्दन से अनुलिप्त, सर्पों के हार का आभूषण धारण करने वाली, द्विभुज, कोटिकिरणा, मस्तक में स्थित सिन्दूर से सुशोभित, त्रिनेत्रा, कालरूपस्था, लयकारिणी, लाकिनी का ध्यान करे तथा सिद्धिमार्ग के साधन के लिए दश वर्णों का उपर्युक्त श्लोकों से ध्यान करे ।। ५२-५५ ॥

चतुर्भुजां षड्भुजां च अष्टहस्तां परापराम् ।

दुर्गा दशभुजां देवीं निजवाहनसुस्थिताम् ॥ ५६ ॥

सर्वास्त्रधारिणीं सर्वा हस्तद्वादशशोभिताम् ।

चतुर्दशभुजां रौद्रीं तथा षोडशपालिनीम् ॥ ५७ ॥

अष्टादशभुजां श्यामां हस्तविंशतिधारिणीम् ।

एवं ध्यात्वा पूजयित्वा रुद्राणीस्तोत्रमापठेत् ॥ ५८ ॥

प्रत्येक वर्णों पर द्विभुजा पहले ( द्र० ४५. ५४ ) कह आये हैं –

१. चतुर्भुजा, २. षड्भुजा, ३. परापरा, ४. अष्टभुजा, ५. अपने वाहन पर स्थित दशभुजा दुर्गा, ६ . सर्वास्वधारिणी सर्वभूता द्वादशभुजा से शोभिता, ७. चतुर्दशभुजा, ८. षोडशभुजा, ९. अष्टादशभुजा, १०. विंशति भुजाधारिणी श्यामा रौद्री लाकिनी देवी का ध्यान करे । इस प्रकार लाकिनी देवी का ध्यान कर पूजन कर रुद्राणी स्तोत्र का पाठ करे ।। ५६-५८ ।।

॥ इति श्रीरुद्रयामले उत्तरतन्त्रे महातन्त्रोद्दीपने सिद्धिमन्त्रप्रकरणे षट्चक्रप्रकाशे भैरवीभैरवसंवादे वर्णध्यानकथनं

नाम पञ्चचत्वारिंशत्तमः पटलः ॥४५ ॥

॥ श्री रुद्रयामल तन्त्र के उत्तर तन्त्र में महातन्त्रोद्दीपन में सिद्धमन्त्र प्रकरण में षट्चक्र प्रकाश में भैरवीभैरवसंवाद में वर्ण ध्यान नामक पैंतालिसवें पटल की डा० सुधाकर मालवीय कृत हिन्दी व्याख्या पूर्ण हुई ॥ ४५ ॥

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