गणेशजी को दूर्वा प्रिय व तुलसी निषिद्ध || Ganeshji Ko Durva Priy Tulsi Nishiddha

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गणों के ईश्वर को गणेश कहते हैं। इसे लंबोदर एकदंत,वक्रतुंड आदि नामों से भी जाना जाता है। किसी भी पुजा में इनका पूजन पहले किया जाता है,यह प्रथम पूज्य देव है। गणेशजी को मोदक,लड्डू अति प्रिय है। गणेश पुजा में गणेशजी को दूर्वा(एक प्रकार का घाँस) प्रिय (चढ़ाया) व तुलसी निषिद्ध (नहीं चढ़ाया) जाता है।

जानिए क्यों-

गणेश को ही दूर्वा क्यों चढ़ाया(प्रिय) जाता है?

गणेश की पूजा करते समय में दूर्वा चढ़ाया जाता है। इसके संदर्भ में एक पुरातन कथा है कि-

एक बार अनलासुर नामक एक राक्षस ने कोहराम मचा रखा था। उनके अत्याचार से ऋषि-मुनि और देवी-देवता भी त्राहि-त्राहि कर रहे थे। वह राक्षस किसी को भी जिंदा ही निगल लेता था। उनके इस अत्याचार से भयभीत होकर सारे देवी-देवता और ऋषि-मुनि भगवान शिव के शरण में जाकर प्रार्थना करने लगे कि प्रभु उस राक्षस से हमारी रक्षा करें। भगवान शंकर ने कुछ सोच-विचार के बाद कहा कि इस कार्य को गणेश ही कर सकते हैं। पिता के आदेश के बाद गणेश ने उस राक्षस को अपने अंदर समा लिया, जिसके बाद से उनके पेट में काफी जलन होने लगी। इसके बाद कश्यप ऋषि ने दूर्वा की 21 गांठ बनाकर श्रीगणेश को खाने को दी। जब गणेशजी ने दूर्वा को ग्रहण किया तब उनके पेट की जलन शांत हो गई। तभी से श्रीगणेश को दूर्वा चढ़ाने की परंपरा प्रारंभ हुई।

इस प्रकार से हमने जाना की गणेशजी को दूर्वा प्रिय है व अब जानते हैं की तुलसी निषिद्ध क्यों है-

गणेश पुजा में तुलसी निषिद्ध क्यों ?

तुलसी अति पवित्र व श्रेष्ठ मानी जाती हैं। इसी कारण इन्हें समस्त पूजन कर्मो में उपयोग किया जाता है । भगवान विष्णु व श्री कृष्ण जी का तुलसीदल के बगैर पूजन नहीं होता है। परंतु यही तुलसी देवों के देव भगवान श्री गणेश की पूजा में निषिद्ध मानी गई है। इनके सम्बद्ध में एक कथा मिलती है कि –

एक समय नव यौवन सम्पन्न तुलसी देवी नारायण परायण होकर तपस्या के निमित्त से तीर्थो में भ्रमण करती हुई गंगा तट पर जा पहुँचीं। वहाँ पर उन्होंने गणेश को देखा, जो कि तरूण युवा लग रहे थे। जो अत्यन्त सुन्दर, शुद्ध और पीताम्बर धारण किए हुए थे, आभूषणों से विभूषित थे, सुन्दरता जिनके मन का अपहरण नहीं कर सकती, जो कामनारहित, जितेन्द्रियों में सर्वश्रेष्ठ, योगियों के योगी तथा जो श्रीकृष्ण की आराधना में घ्यानरत् थे। उन्हें देखते ही तुलसी का मन उनकी ओर आकर्षित हो गया। गणेश जी का ध्यानभंग करने के उद्देश्य से तुलसी उनका उपहास उडाने लगीं। घ्यानभंग होने पर गणेश जी ने उनसे उनका परिचय पूछा और उनके वहां आगमन का कारण जानना चाहा। गणेश जी ने कहा- कि माता! तपस्वियों का घ्यान भंग करना सदा पाप जनक और अमंगलकारी होता है।शुभे! भगवान श्रीकृष्ण आपका कल्याण करें, मेरे घ्यान भंग से उत्पन्न दोष आपके लिए अमंगलकारक न हो। इस पर तुलसी ने कहा- प्रभो! मैं धर्मात्मज की कन्या हूं और तपस्या में संलग्न हूं। मेरी यह तपस्या पति प्राप्ति के लिए है। अत: आप मुझसे विवाह कर लीजिए। तुलसी की यह बात सुनकर बुद्धि श्रेष्ठ गणेश जी ने उत्तर दिया- हे माते! विवाह करना बडा भयंकर होता है, मैं ब्रम्हचारी हूं। विवाह, तपस्या नाशक, मोक्षद्वार के रास्ता बंद करनेवाला, भव बंधन की रस्सी, संशयों का उद्गम स्थान है। अत: आप मेरी ओर से अपना घ्यान हटा लें और किसी अन्य को पति के रूप में तलाश करें। तुलसी ने श्री गणेश के ऐसे वचनों को अपना अपमान समझ कुपित होकर भगवान गणेश को श्राप देते हुए कहा- कि आपका विवाह अवश्य होगा। यह सुनकर गणेश ने भी तुलसी को श्राप दिया- देवी, तुम भी निश्चित रूप से असुरों द्वारा ग्रस्त होकर वृक्ष बन जाओगी।इस श्राप को सुनकर तुलसी ने व्यथित होकर भगवान श्री गणेश की वंदना की। तब प्रसन्न होकर गणेश जी ने तुलसी से कहा- हे मनोरमे! तुम पौधों की सारभूता बनोगी और समयांतर से भगवान श्री नारायण की प्रिया बनोगी। सभी देवता आपसे स्नेह रखेंगे परन्तु श्रीकृष्ण के लिए आप विशेष प्रिय रहेंगी। आपकी पूजा मनुष्यों के लिए मुक्तिदायिनी होगी तथा मेरे पूजन में आप सदैव त्याज्य रहेंगी। ऐसा कहकर गणेश जी पुन: तप करने चले गए। इधर तुलसी देवी भी दु:खित होकर पुष्कर में जा पहुंची और निराहार रहकर तपस्या में संलग्न हो गई। समयान्तर पश्चात् गणेश के श्राप से तुलसी चिरकाल तक शंखचूड़ की प्रिय पत्नी बनी और जब शंखचूड़ शिव जी के त्रिशूल से मृत्यु को प्राप्त हुआ तो नारायण प्रिया तुलसी का वृक्ष रूप में प्रादुर्भाव हुआ।

इस प्रकार सेगणेशजी को दूर्वा प्रिय व तुलसी निषिद्ध है।

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