गंगा स्तोत्र || Ganga Stotra

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इस गंगा स्तोत्र को पढ़ने और सुनने से यश-लाभ होता तथा आयु की वृद्धि होती है और सब पापों का क्षय तथा बल और आयु की वृद्धि होती है ।

गंगा स्तोत्रम्

शौनक उवाच

हे सूत! सर्वधर्मज्ञ यत् त्वया कथितं पुरा ।

गंगां स्तुत्वा समायाता मुनयः कल्किसन्निधिम् ।। १।।

स्तवं तं वद गंगायाः सर्वपापप्रणाशनम् ।

मोक्षदं शुभदं भक्त्या शृण्वतां पठतामिह ।। २ ।।

शौनकजी बोले-हे सूतजी आप सभी धर्मों के जानने वाले हैं। आपने कहा था कि मुनिगण गङ्गाजी का स्तवन करके किसी के पास पहुंचे थे, तो वह स्तव कौन-सा है, जिसके भक्ति-सहित पढने या सुनने से मोक्ष रूपी मङ्गल की प्राप्ति होती है और सभी पापों का नाश होता है। उसे हमारे प्रति कहिये ।

सूत उवाच

श्रुणुध्वम् ऋषयः सर्वे गंगास्तवमनुत्तमम् ।

शोकमोह हरं पुंसामृषिभि: परिकीर्तितम् ।। ३।।

सूतजी ने कहा-हे मुनियो! उस और मोह के नाशक अत्यंत श्रेष्ठ ऋषि प्रणित गंगा-स्तोत्र को आपके प्रति कहता हूँ, सुनिये ।
गंगा स्तोत्र

ऋषय ऊचुः

इयं सुरतरंगिणी भवनवारिधेस्तारिणी

स्तुता हरिपदाम्बुजादुपगता जगत्संसदः।

सुमेरुशिखरामरप्रियजला मलक्षालनी

प्रसन्नवदना शुभा भवभयस्य विद्राविणी ।। ४।।

ऋषियों ने कहा- यह सुरतरंगिणी संसार समुद्र से पार कराने वाली भगवान् विष्णु के चरणाबिन्दो से उद्भुत होकर भूमण्डल पर प्रवाहित हुई। यह भवभय विनाशिनी, पाप नाशिनी, सुमेरु शिखर वासिनी, अमृत जल वाली, प्रसन्नवदना भगवती गंगाजी शुभप्रदायिनी एवं सर्व पूजिता है ।

भगीरथमथानुगा सुरकरींद्र दर्पापहा

महेशमुकुटप्रभा गिरिशिरः पताका सिता ।

सुरासुरनरोर्गैजभवाच्युतैः संस्तुता

विमुक्तिफलशालिनी कलुषनाशिनी राजते ।। ५।।

यह भगवती राजा भगीरथ के पीछे-पीछे पृथिवी पर चली । इन्होने ऐरावत का गर्व खण्डन किया । यह शिवजी के मस्तक में मुकुट की प्रभा रूप से शोभामयी और हिमालय की श्वेत पताका के समान हैं। सभी देवता, दैत्य, मनुष्य और नाग आदि इनके यश का सदा गान करते रहते हैं । यह पापनाशिनी एव मोक्षदायिनी हैं ।

पितामहकमण्डलुप्रभवमुक्तिबीजालता

श्रुतिस्मृतिगणस्तुताद्विजकुलालवालावृता ।

सुमेरुशिखराभिदा निपतिता त्रिलोकावृता

सुधर्मफलशालिनी सुखपलाशिनी राजते।। ६।।

इस मुक्ति रूपी बीजलता का प्रादुर्भाव ब्रह्मजी के कमण्डलु से हुआ है। द्विजगण इसके आल-बाल रूप और सुधर्म इसका फल है। यह सुख रूप किसलयो से परिपूर्ण लता सुमेरु पर्वत का भेदन करके प्रगट हो गई। तीनों लोकों में व्याप्त गंगाजी का यह स्तोत्र श्रुति, स्मृति आदि सभी धर्म शास्त्रो से सम्मत है ।

चरद्विहगमालिनी सगरवंशमुक्तिप्रदा

मुनिन्द्रवरनन्दिनी दिवि मता च मन्दाकिनी ।

सदा दुरितनाशिनी विमलवारिसंदर्शन-

प्रणामगुणकीर्तनादिषु जगत्सु संराजते ।। ७।।

सगरवंश को मोक्ष देने वाली यह जान्हवी, देवताओं के लिए मन्दाकिनी स्वरूपा तथा सदैव मंगल के देने वाली है। प्रणाम पूर्वक इनका गुणगान करने और इनके निर्मल जल का दर्शन करने से ही संसार में सुख की प्राप्ति होती है।

महाभिधसुताङ्गना हिमगिरीशकूटस्तनी

सफेनजलहासिनीसितमरालसंचारिणी ।

चलल्लहरिसत्करा वरसरोजमालाधरा

रसोल्लसितगामिनी जलधिकामिनी राजते ।। ८।।

हिमालय के शिखर रूपी वक्ष वाली यह भगवती महाराज शान्तनु की रानी हुई थी। इनका फेनो से युक्त जल ही ह्रास है तथा श्वेत वर्ण वाले हम जिनकी गति, खिले हुए कमलों की पंक्ति जिनकी माला तथा तर गही जिनके हाथ हैं, ऐसी रसवती वह गंगा प्रमुदित गति से समुद्र से मिलने के लिए बढी चली जा रही है ।

क्वचित् कलकलस्वना क्वचिद् अधीरयादोगणा

क्वचिन् मुनिगणैः स्तुता क्वचिद् अनन्तसंपूजिता ।

क्वचिद्रविकरोज्ज्वला क्वचिद् उदग्रपाताकुला

क्वचिज् जनविगाहिता जयति भीष्ममाता सती ।। ९।।

जिनकी कहीं मुनिगण स्तुति करते हैं, तो कहीं अनन्त भगवान् द्वारा पूजी जाती है । जिनके जल मे कहीं विकराल जीव विचर रहे हैं, कहीं जिनका जल कल कल-गान कर रहा है, वही जल कहीं भीषण नाद करता हुआ पतित हो रहा है, उस पर कहीं सूर्य रश्मियाँ पड कर उसे प्रकाशमय कर रही हैं और कहीं उस जल में मनुष्य स्नान कर रहे हैं । ऐसी इन भीष्म की माता सती गंगाजी की जय हो ।

स एव कुशलो जनः प्रणमतीह भगीरथीं

स एव तपसां निधिर्जपति जाह्नवीमादरात् ।

स एव पुरुषोत्तमः स्मरति साधु मन्दाकिनीं

स एव विजयी प्रभुः सुरतरंगिणीं सेवते ।। १०।।

इन भगवती गंगा को प्रणाम करने वाले पुरुष कुशल है। इनके नाम का जप करने वाले मनुष्य ही वास्तव में तपस्वी है। उनका स्मरण करने वाले प्राणी ही श्रेष्ठ है । इनकी उपासना करने वाले जीव ही सब को जीतने में समर्थ तथा सम्पूर्ण ऐश्वर्यो के स्वामी है ।

तवामलजलाचितं खगशृगालमीनक्षतं

चलल् लहरिलोलितं रुचिर तीर जम्बालितम् ।

कदा निजवपुर्मुदा सुरनरोर्गैः संस्तुतोऽप्य्

अहं त्रिपथगामिनि! प्रियमतीव पश्याम्य् अहो ।। ११।।

हे देवि! हे त्रिपथगे! आपके निर्मल जल में हमारा शरीर कब भासित होगा ? इस देह के मृत होने पर पक्षी और श्रृंगाल आदि कब इसे नोचेंगे और फिर कब यह आपकी चंचल तरगों में उछलता हुआ तट पर स्थित शिवारों से कब सजेगा? हे माता ! मै स्वर्गलोक को कब प्राप्त कर सकूंगा और सुर, नर नाग कब मेरा स्तव करेंगे? इस प्रकार का अपना सौभाग्य मे कब देख सकूंगा? ११॥

त्वत्तीरे वसतिं तवामलजलस्नानं तव प्रेक्षणं

त्वन्नामस्मरणं तवोदयकथासंलापनं पावनम् ।

गंगे मे तव सेवनैकनिपुणोऽप्यानन्दितश् चादृतः

स्तुत्वा त्वद्गतपातको भुवि कदा शान्तश्चरिष्याम्यहम् ।। १२।।

हे गंगे! आपके तट पर वास करता हुआ और आपके निर्मल जल में स्नान करता हुआ मैं कब आपके दर्शन करूंगा? कब आपका नाम स्मरण करता हुआ आपके अवतरण की पुनीत गाथा का गान करूँगा ? आपकी सेवा करने के फल रूप में मेरे हृदय में आपकी भक्ति का सञ्चार कब होगा ? मेरे द्वारा किये हुए पाप कब नष्ट होंगे ? कब मैं शान्त चित्त से पृथिवी पर विचरण करता हुआ आदर को प्राप्त होगा? ।

इत्येतदृषिभिः प्रोक्तं गंगास्तवमनुत्तमम् ।

स्वर्ग्यं यशस्यमायुष्यं पठनाच्छ्रवणाद् अपि ।। १३।।

इस ऋषि प्रोक्त गंगा-स्तव का इस प्रकार पाठ किया गया । इसके पढ़ने और सुनने से यश-लाभ होता तथा आयु की वृद्धि होती है।

सर्वपापहरं पुसां बलमायुर्विवर्धनम् ।

प्रातर्मध्याह्नसायाह्ने गंगासान्निध्यता भवेत् ।। १४ ।।

इस स्तोत्र का प्रात: मध्याह्न और सायं-तीनो काल पाठ करने से गंगा जी का सान्निध्य प्राप्त होकर सब पापों का क्षय तथा बल और आयु की वृद्धि होती है ।

इत्येतद्भार्गवाख्यानं शुकदेवान् मया श्रुतम् ।

पठितं श्रावितं चातृ पुण्यं धन्यं यशस्करम् ।। १५।।

इस भार्गवाख्यान का मैंने शुकदेवजी से श्रवण किया था । यह पढने और सुनने से पुण्यप्रद तथा धन और यश के बढाने वाला है ।

इति श्रीकल्किपुराणेऽनुभागवते भविष्ये तृतीयांशे गंगास्तवो नाम विंशतितमोऽध्यायः।। २०।।

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