हरि स्तोत्र || Hari Stotra, सन्ध्याकृतं हरिस्तोत्रम्
सन्ध्या ने श्रीहरि की छवि देखकर मैं भय के साथ क्या कहूँगी अथवा किस प्रकार से हरि भगवान का स्तवन करूँ इसी चिन्ता में परायण होकर उसने अपने नेत्रों को मूँद लिया था । मूँदे हुए लोचनों वाली के हृदय में भगवान ने प्रवेश किया था और उसमें उस संध्या को परम दिव्य ज्ञान को प्रदान किया था और उसकी दिव्य वाणी बोलने की शक्ति दी थी तथा दिव्य चक्षु भी प्रदान किए थे। वह फिर परम दिव्य ज्ञान, दिव्य लोचन और दिव्य वाणी को प्राप्त करने वाली हो गई थी। उसने प्रत्यक्ष में हरि को दर्शन कर उसका स्तवन(स्तोत्र) किया था ।
सन्ध्योवाच –
निराकारं ज्ञानगम्यं नरं य-
न्नैव स्थूलं नापि सूक्ष्मं न चोच्चैः ।
अन्तश्चिन्त्यं योगिभिर्यस्य रूपं
तस्मै तुभ्यं हरये मे नमोऽस्तु ॥ ५१॥
सन्ध्या ने कहा- जो बिना आकार वाले हैं, जो ज्ञान के ही द्वारा जानने योग्य हैं, जो सबसे परे हैं, जो न तो स्थूल हैं और न सूक्ष्म ही हैं तथा जो उच्च भी नहीं हैं, जिनका रूप योगियों के द्वारा अन्दर ही चिन्तन करने के योग्य है उन आप भगवान श्रीहरि के लिए मेरा नमस्कार है ।
शिवं शान्तं निर्मलं निर्विकारं-
ज्ञानात्परं सुप्रकाशं विसारि ।
रविप्रख्यं ध्वान्तभागात् परस्ता-
द्रूपं यस्य त्वां नमामि प्रसन्नम् ॥ ५२॥
जिनका स्वरूप शिव अर्थात् कल्याण स्वरूप है जो परम शान्त, निर्मल, विकारों से रहित, ज्ञान से भी परे सुन्दर प्रकार से युक्त, विसारी, रवि प्रख्य, ध्वान्त (अन्धकार) भाग से परे हैं उन परम प्रसन्न आपके लिए मैं प्रणाम करती हूँ।
एकं शुद्धं दीप्यमानं विनोदं
चित्तानन्दं सत्वजं पापहारिम् ।
नित्यानन्दसत्यं भूरिप्रसन्नं
यस्य श्रीदं रूपमस्मै नमोऽस्तु ॥ ५३॥
जो एक शुद्ध देदीप्यमान विनोद चित्त के लिए आनन्द, रूप, सत्य से समुत्पन्न, पापों का हरण करने वाला, नित्य ही आनन्दरूप, सत्य और बहुत ही अधिक प्रसन्न जिसका श्री का प्रदाता यह रूप है उन प्रभु के लिए मेरा नमस्कार है ।
विद्याकारोद्भावनीयं प्रभिन्नं
सत्त्वच्छन्नं ध्येयमात्मस्वरूपम् ।
सारं पारं पावनानां पवित्रं
तस्मै रूपं यस्य चेयं नमस्ते ॥ ५४॥
विद्या के आकार से उद्भावना करने के योग्य प्रकृष्ट रूप से भिन्नसत्व से छन्न-ध्यान करने के योग्य आत्मस्वरूप से समन्वित, सार, पार और पावनों को भी पवित्र करने वाला जिनका रूप है उनके लिए मेरा प्रणिपात है।
नित्यार्जवं व्ययहीनं गुणौघै-
रष्टाङ्गैर्यश्चिन्त्यते योगयुक्तैः ।
तत्त्वव्यापि प्राप्य यज्ज्ञानयोगे-
परं यातां योगिनस्तं नमस्ते ॥ ५५॥
योग मार्ग में युक्त पुरुषों के द्वारा गुणों के समूह आठ अंग वाले योग से जो नित्यार्चन और व्यय से हीन चिन्तन किया जाता है, जिसकी योगीजन अपने ज्ञान योग में व्यापी तत्त्व को प्राप्त करके परात्पर को प्राप्त हुए हैं, उनके लिए मेरा नमस्कार है।
यत्साकारं शुद्धरूपं मनोज्ञं
गरुत्मस्थं नीलमेघप्रकाशम् ।
शङ्खं चक्रं पद्मगदे दधानं
तस्मै नमो योगयुक्ताय तुभ्यम् ॥ ५६॥
जो आकार से संयुत हैं, जो शुद्ध रूप वाले हैं और जो मनोज्ञ हैं, जो गरुड़ पर विराजमान हैं, जिनका प्रकाश नील मेघ के समान है, जो शंख, चक्र, गदा और पद्म को धारण करने वाले हैं उन योग से युक्त आपके लिए मेरा प्रणाम समर्पित है ।
गगनं भूर्दिशश्चैव सलिलं ज्योतिरेव च ।
वायुः कालश्च रूपाणि तस्य तस्मै नमोऽस्तु ते ॥ ५७॥
जिनका गगन, भूमि, दिशायें, जल, ज्योति, वायु और काल स्वरूप है उनके लिए मेरा नमस्कार है।
प्रधानपुरुषौ यस्य कार्याङ्गत्त्वे निवत्स्यतः ।
तस्मादव्यक्तरूपाय गोविन्दाय नमोऽस्तु ते ॥ ५८॥
जिनके कार्यों के अगस्थ प्रधान और पुरुष निवास किया करते हैं उन अव्यक्त रूप वाले गोविन्द के लिए नमस्कार है।
यः स्वयं पञ्चभूतानि यः स्वयं तद्गुणः परः ।
यः स्वयं जगदाधारस्तस्मै तुभ्यं नमो नमः ॥ ५९॥
जो स्वयं हैं और जो भूत हैं, जो स्वयं उसके गुणों से पर हैं, जो स्वयं ही इस जगत का आधार हैं उन आपके लिए नमस्कार है तथा बारम्बार प्रणाम है।
परः पुराणः पुरुषः परमात्मा जगन्मयः ।
अक्षयो योऽव्ययो देवस्तस्मै तुभ्यं नमो नमः ॥ ६०॥
जो सबसे पर तथा पुराण हैं, जो पुराणपुरुष और जगन्मय परमात्मा हैं जो अक्षय और व्यथा से रहित हैं उस देव के लिए बारम्बार नमस्कार है ।
यो ब्रह्मा कुरुते सृष्टिं यो विष्णुः कुरुते स्थितिम् ।
संहरिष्यति यो रुद्रस्तस्मै तुभ्यं नमो नमः ॥ ६१॥
जो ब्रह्मा का स्वरूप धारण करके इस सृष्टि की रचना किया करते हैं और जो विष्णु से स्वरूप से इस जगत् का परिपालन करते हैं तथा जो रुद्र के रूप में होकर इस जगत् का संहार किया करते हैं उस आपकी सेवा में बारम्बार मेरा प्रणिपात समर्पित है ।
नमो नमः कारणकारणाय दिव्यामृतज्ञानविभूतिदाय ।
समस्तलोकान्तरमोहदाय प्रकाशरूपाय परात्पराय ॥ ६२॥
कारणों के भी कारण, दिव्य अमृतज्ञान और विभूति के प्रदाता, समस्त अन्य लोकों को मोह के दाता हैं उन प्रकाश स्वरूप वाले परात्पर के लिए बारम्बार नमस्कार हैं।
यस्य प्रपञ्चो जगदुच्यते महान्
क्षितिर्दिशः सूर्य इन्दुर्मनोजवः ।
वह्निर्मुखान्नाभितश्चान्तरीक्षं
तस्मै तुभ्यं हरये ते नमोऽस्तु ॥ ६३॥
जिसका महान प्रपञ्च जगत् कहा जाया करता है जो भूमि, दिशायें, सूर्य, चन्द्र, मनोजव, वह्नि, मुख, नाभि से अन्तरिक्ष है उन भगवान हरि आपके लिए नमस्कार है ।
त्वं परः परमात्मा च त्वं विद्या विविधा हरे ।
शब्दब्रह्म परम्ब्रह्म विचारणपरात्परः ॥ ६४॥
आप पर परमात्मा हैं, हे हरे ! आप विविध विद्या हैं, आप शब्दब्रह्म, परमब्रह्म और विचार के पर से भी पर हैं।
यस्य नादिर्नमध्यञ्च नान्तमस्ति जगत्पतेः ।
कथं स्तोष्यामि तं देवं वामनो गोचराद्बहिः ॥ ६५॥
जिस जगत् के पति का न तो आदि है, न मध्य और अन्त ही होता है उन देव का मैं किस प्रकार से स्तवन करूँ जो देव वाणी, मन के गोचर से भी बाहिर अर्थात् पर हैं।
यस्य ब्रह्मादयो देवा मुनयश्च तपोधनाः ।
न विवृण्वन्ति रूपाणि वर्णनीयः कथं स मे ॥ ६६॥
जिनके स्वरूपों का ब्रह्मा आदि देवगण तथा तप के भी धनवाले मुनिगण भी विवरण नहीं किया करते हैं उनके रूप मेरे द्वारा किस प्रकार से वर्णन करने योग्य हो सकते हैं ?
स्त्रिया मया ते किं ज्ञेया निर्गुणस्य गुणाः प्रभोः ।
नैव जानन्ति यद्रूपं सेन्द्रा अपि सुरासुराः ॥ ६७॥
उन निर्गुण प्रभु के गुण मुझ स्त्री जाति वाली के द्वारा कैसे जानने के योग्य हो सकते हैं ? जिनके स्वरूप को इन्दु आदि सुर और असुर भी नहीं जानते हैं ।
नमस्तुभ्यं जगन्नाथ नमस्तुभ्यं तपोमय ।
प्रसीद भगवंस्तुभ्यं भूयो भूयो नमो नमः ॥ ६८॥
हे जगत् नाथ! आपके लिए नमस्कार है । हे तप से परिपूर्ण! आपके लिए नमस्कार है । हे भगवान्, आप प्रसन्न हो गए आपके लिए बारम्बार नमस्कार है ।
इति कालिकापुराणे द्वाविंशोऽअध्यायान्तर्गतं सन्ध्याकृतं हरिस्तोत्रं सम्पूर्णम् ।