काली स्तुति || Kaali Stuti – दक्षकृत कालीस्तुति

0

प्रजापति दक्ष ने भगवती योगनिद्रा माँ काली को पुत्री रूप में पाने के लिए यजन किया और उनका दर्शन प्राप्त करके परम प्रीति से युक्त होकर विनम्रता उस देवी की इस प्रकार स्तुति की थी।

दक्षकृत कालीस्तुतिः

दक्ष उवाच –

आनन्दरूपिणीं देवीं जगदानन्दकारिणीम् ।

सृष्टिस्थित्यन्तरूपां तां स्तौमि लक्ष्मीं हरेः शुभाम् ॥ १२॥

दक्ष ने कहा- आनन्द के स्वरूप वाली और सम्पूर्ण जगत् को आनन्द करने वाली, सृष्टि पालन और संहार के स्वरूप से संयुत, परमशुभा भगवान् हरि की लक्ष्मी देवी का मैं स्तवन करता हूँ ।

सत्त्वोद्रेकप्रकाशेन यज्ज्योतिस्तत्त्वमुत्तमम् ।

स्वप्रकाशं जगद्धाम तत्तवांशं महेश्वरि ॥ १३॥

हे महेश्वरि ! सत्व गुण के उद्वेग के प्रकाश से जो उत्तम ज्योति का तत्व है जो स्वप्रकाश जगत् का धाम है, वह आपका ही अंश है ।

रजोगुणातिरेकेण यत्कामस्य प्रकाशनम् ।

रागस्वरूपं मध्यस्थं तत्तेंऽशांशं जगन्मयि ॥ १४॥

रजोगुण की अधिकता से जो काम का प्रकाशन है वह हे जगन्मयी ! मध्य स्थित राग के स्वरूप वाला वह आपके ही अंश का अंश है ।

तमोगुणातिरेकेण यद्यन्मोहप्रकाशनम् ।

आच्छादनं चेतनानां तत्ते चांशांशगोचरम् ॥ १५॥

तमोगुण के अतिरेक जो मोह का प्रकाशन है जो कि चेतनों का आच्छादन करने वाला है वह भी आपके अंशांश को गोचर है ।

परा परात्मिका शुद्धा निर्मला लोकमोहिनी ।

त्वं त्रिरूपा त्रयी कीर्तिर्वार्त्तास्य जगतो गतिः ॥ १६॥

आप परा हैं और परास्वरूप वाली हैं, आप परमशुद्ध हैं, निर्मला हैं और लोकों को मोह करने वाली हैं। आप तीन रूपों वाली, त्रयी (वेदत्रयी), कीर्ति, वार्ता और इस जगत् की गति हैं।

बिभर्ति माधवो धात्रीं यथा मूर्त्त्या निजोत्थया ।

सा मूर्त्तिस्तव सर्वेषां जगतामुपकारिणी ॥ १७॥

जिस निजोत्थ मूर्ति के द्वारा माधव धात्री का विभरण करते हैं वह आपकी ही मूर्ति है, जो समस्त जगतों के उपकार करने वाली है।

महानुभावा त्वं विश्वशक्तिः सूक्ष्मापराजिता ।

यदूर्ध्वाधोनिरोधेन व्यज्यते पवनैः परम् ॥ १८॥

तज्ज्योतिस्तव मात्रार्थे सात्त्विकं भावसम्मतम् ।

यद्योगिनो निरालम्बं निष्फलं निर्मलं परम् ॥ १९॥

आलम्बयन्ति तत्तत्त्वं त्वदन्तर्गोचरन्तु तत् ।

या प्रसिद्धा च कूटस्था सुप्रसिद्धातिनिर्मला ॥ २०॥

आप महान् अनुभव वाली सूक्ष्मा और अपराजिता विश्व की शक्ति हैं जो ऊर्ध्व और अधो के विरोध के द्वारा पवनों से पर का व्यक्तिकरण किया जाता है वह ज्योति आपके मात्रार्थ के भावसम्मत सात्विक जिसका योगीजन बिना आलम्ब वाणी, निष्कल, परम निर्मल आलम्बन किया करते हैं वह तत्व आपके ही अनन्तर गोचर है । जो प्रसिद्धा, कूटस्था, अति प्रसिद्ध और निर्मला है ।

      सा ज्ञप्तिस्त्वन्निष्प्रपञ्चा प्रपञ्चापि प्रकाशिका ।

त्वं विद्या त्वमविद्या च त्वमालम्बा निराश्रया ।

      प्रपञ्चरूपा जगतामादिशक्तिस्त्वमीश्वरी ॥ २१॥

वह ज्ञाप्ति आपकी निष्प्रपञ्चना और प्रपचामी प्रकाशिका है आप विद्या हैं और आप अविद्या हैं आप आलम्बा हैं और बिना आश्रय वाली हैं । आप प्रपंच रूप से संयुत जगतों की आदिशक्ति हैं और आप ईश्वरी हैं ।

ब्रह्मकण्ठालया शुद्धा वाग्वाणी या प्रगीयते ।

वेदप्रकाशनपरा सा त्वं विश्वप्रकाशिनी ॥ २२॥

जो ब्रह्माजी के कण्ठ के आलय वाली और शुद्ध वाग्वाणी पायी जाती है वह वेदों के प्रकाशन में परायण तथा विश्व को प्रकाशित करने वाली आप ही हैं।

त्वमग्निस्त्वं तथा स्वाहा त्वं स्वधा पितृभिः सह ।

त्वं नभस्त्वं कालरूपा त्वं काष्ठा त्वं बहिःस्थिता ॥ २६॥

आप अग्नि हैं तथा स्वाहा विश्व को प्रकाशित करने वाली आप ही हैं। आप अग्नि हैं तथा स्वाहा हैं। आप पितृगणों के साथ स्वधा हैं । आप नभ हैं और आप कालरूपा हैं । आप दिशायें हैं और आप आकाश स्थिता हैं ।

त्वमचिन्त्या त्वमव्यक्ता तथानिर्देश्यरूपिणी ।

त्वं कालरात्रिस्त्वं शान्ता त्वमेव प्रकृतिः परा ॥ २४॥

आप चिन्तन करने के अयोग्या हैं, आप अव्यक्त हैं तथा आप आपका रूप अनिर्देश्य है । आप ही कालरात्रि हैं और आप ही परमशान्त परा प्रकृति हैं ।

यस्याः संसारलोकानां परित्राणाय यद्बहिः ।

रूपं जानन्ति धात्राद्यास्तत्त्वां ज्ञास्यन्ति के पराम् ॥ २५॥

जिसका संसार और लोकों में परित्राण के लिए जो रूप गह्वर है वह आपको जानते हैं अन्यथा परा आपको कौन जानेंगे।

प्रसीद भगवत्यम्ब प्रसीद योगरूपिणि ।

प्रसीद घोररूपे त्वं जगन्मयि नमोऽस्तु ते ॥ २६॥

हे भगवती ! आप प्रसन्न होइए, हे अग्ने ! हे योगरूपिणि! आप प्रसन्न होइए। हे घोररूपे ! आप प्रसन्न होइए। हे जगन्मयि! आपके लिए मेरा नमस्कार है ।

इति कालिकापुराणे अष्टमाध्यायान्तर्गता दक्षप्रोक्ता कालीस्तुतिः समाप्ता ।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *