काली स्तव || Kali Stav
माता काली का यह स्तव श्री ब्रह्मदेव द्वारा रचीत है। इस स्तुति को जो काली के साधक पढ़ते हैं, वे भवसागर में पुनः नहीं उतरता । अर्थात वह आवागमन से मुक्त हो जाता है । जब तक वह जीवित रहता है उसे काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मात्सर्य आदि नहीं सताते । इस स्तुति को काली स्तव या काली स्तवन या काली स्तव: के नाम से भी जाना जाता है।
|| काली स्तव- काली स्तवन- काली स्तव: ||
नमामि कृष्णरूपिणीं कृशाङ्ग-यष्टि-धारिणीम्।
समग्रतत्त्व – सागरामपार-पार – गह्वराम्॥१॥
जिनका रूप (बादलों के समान) काला एवं जिनका शरीर कृश है, जो सम्पूर्ण तत्त्वों की सागर हैं । जिनका पार पाना कदापि सम्भव नहीं हैं और जो गहन हैं, ऐसी काली को मैं प्रणाम करता हूँ ॥ १ ॥
शिवां प्रभासमुज्जवलां स्फुरच्छशाङ्कशेखराम।
ललाटरत्नभास्वरां जगत् प्रदीप्ति – भास्कराम्॥२॥
(अपने) भक्तों का कल्याण करनेवाली, प्रकाश से उज्ज्वल, जिन महाकाली के मस्तक में चन्द्रमा स्फुरित हो रहा है। जिनके ललाट में रत्नों की ज्योति जो स्वयं जगमगा रही हैं। जो अपने दिव्य प्रकाश से सूर्य के तुल्य शोभायमान हो रही है । ऐसी भगवती काली को मैं प्रणाम करता हूँ॥ २ ॥
महेन्द्रकश्यपार्चितां सनत्कुमार – संस्तुताम्।
सुराऽसुरेन्द्र – वन्दितां यदार्थनिर्मलाद् भुताम्॥३॥
महेन्द्र (इन्द्र) तथा कश्यप ऋषि के द्वारा अपने अर्चना की जानेवाली, सनत्कुमार के द्वारा प्रार्थित देवताओं एवं राक्षसों के द्वारा वन्दना की जानेवाली, सत्य, स्वच्छ एवं अद्भुत रूप को (ग्रहण करनेवाली) काली को मैं प्रणाम करता हूँ॥३॥
अतर्क्यरोचिरूर्जितां विकार-दोषवर्जिताम्।
मुमुक्षुभिर्विचिन्तितां विकार-दोषवार्जिताम्॥ ४ ॥
मन, कर्म, वाणी से अत्यधिक तेजयुक्ता, अत्यन्त पराक्रमशील, विकार एवं दोषरहित, मुमुक्षुओं से ध्यान की जानेवाली एवं विशेष तत्त्व से जानने योग्य, काली को मैं प्रणाम करता हूँ॥ ४ ॥
मृतास्थिनिर्मितस्त्रजां मृगेन्द्रवाहनाग्रजाम्।
सुशुद्धतत्त्वतोषणां त्रिवेदसारभूषणाम्॥ ५॥
शव की हड्डी की माला को गले में धारण करनेवाली, जिनका वाहन (सिंह है)अर्थात् जो सिंह पर सवारी करती हैं। सबसे पहले (इस संसार में) उत्पन्न होनेवाली परब्रह्म, परमात्मा को प्रसन्न करनेवाली तथा तीनों वेदों के साररूपी भूषण को धारण की हुई भगवती महाकाली को मैं प्रणाम करता हूँ।। ५ ॥
भुजङ्गहारहारिणीं कपालषण्ड-धारिणीम्।
सुधार्मिकोपकारिणीं सुरेन्द्रवैरिघातिनीम्॥ ६॥
(भयंकर) सर्पों की माला एवं कपाल समूहों को (गले में) धारण करनेवाली, अत्यधिक धार्मिकोपकारिणी तथा (अदितिपुत्र)इंद्र के शत्रुओं को नाश करनेवाली महाकाली को मैं प्रणाम करता हूँ ॥ ६ ॥
कुठारपाशचापिनीं कृतान्तकाममेदिनीम्।
शुभां कपालमालिनी सुवर्णकल्प-शाखिनीम्॥ ७ ॥
(अपने हाथों में)कुठार,पाश और धनुष धारण करनेवाली, काल की इच्छा को भी व्यक्त कर करनेवाली,सभी का कल्याण करनेवाली, गले में कपाल की माला धारण करनेवाली एवं सुवर्ण प्रदान करने हेतु कल्पवृक्ष के तुल्य महाकाली को मैं प्रणाम करता हूँ ॥ ७ ॥
श्मशानभूमिवासिनीं द्विजेन्द्रमौलिभाविनीम्।
तमोऽन्धकारयामिनीं शिवस्वभावकामिनीम्॥ ८॥
श्मशान भूमि जिनका निवास स्थल है, जो चन्द्रमा को अपने मस्तक में धारण करती है जो तम मोहरूप पंचपर्वा अविद्या की रात्रि स्वरूपा हैं | जो महाकाली स्वभाव से ही शिव की इच्छा करनेवाली हैं उन महाकाली को मैं प्रणाम करता हूँ॥ ८॥
सहस्रसूर्यराजिकां धनञ्जयोपकारिकाम्।
सुशुद्धकाल-कन्दलां सुभृङ्गवृन्दमञ्जुलाम्॥९॥
हजारों सूर्य के तुल्य शोभायमान होनेवाली समर में अर्जुन को विजय प्रदत्त करवा के उनका उपकार करनेवाली, विशुद्ध कालतत्त्व की अंकुरस्वरूपा, भृङ्गमाला के तुल्य अत्यधिक मनोहर स्वरूपवाली, उन महाकाली को मैं प्रणाम करता हूँ ॥ ९ ॥
प्रजायिनीं प्रजावतीं नमानि मातरं सतीम्।
स्वकर्मकारणो गतिं हरप्रियां च पार्वतीम्॥१०॥
सम्पूर्ण संसार को पैदा करनेवाली, संसाररूपी संतानवाली, मनुष्यों के अपने कर्मों के अनुसार उनको फल प्रदान करनेवाली, शिव की प्रिया सती पार्वती को मैं प्रणाम करता हूँ॥ १०॥
अनन्तशक्ति-कान्तिदां यशोऽर्थ-भुक्ति-मुक्तिदाम्।
पुनः पुनर्जगद्धितां नमाम्यहं सुरार्चिताम्॥११॥
अनन्त शक्ति, अनन्त कान्ति, यश, अर्थ, भोग एवं मोक्ष का प्रदत्त करनेवाली,अनेकानेक बार संसार का कल्याण करनेवाली और देवगणों के द्वारा सदैव अर्चना की जानेवाली श्रीमहाकाली को मैं प्रणाम करता हूँ ॥११॥
जयेश्वरि! त्रिलोचने! प्रसीद देवि! पाहि माम्।
जयन्ति ते स्तुवन्ति ये शुभं लभन्त्यभीक्ष्णशः॥१२॥
हे ईश्वरि! आपकी जय हो, हे त्रिलोचने! आप मेरे ऊपर प्रसन्न होकर मेरी रक्षा करो। हे माते!जो आपकी स्तुति करते हैं, वे सदैव विजय को प्राप्त करते हैं तथा उनका सदैव कल्याण होता है ॥ १२ ॥
सदैव ते हतद्विषः परं भवन्ति सज्जुषः।
ज्वरापहे शिवेऽधुना प्रशाधि मां करोमि किम्॥१३॥
ऐसे (भक्तों) के शत्रुगण स्वयं नष्ट हो जाते हैं तथा वे अच्छे लोगों से सदैव सेवित होते है, हे तीनों तापों को हरनेवाली माता भगवति! मुझको आज्ञा प्रदान करो कि मैं क्या करूँ? ॥१३॥
अतीव मोहितात् मनो वृथा विचेष्टितस्य मे।
तथा भवन्तु तावका यथैव चोषितालकाः॥१४॥
हे माते! (यह जो) मेरी आत्मा है, यह अत्यधिक मोह में पड़ी हुई है, मेरी सम्पूर्ण चेष्टाएँ व्यर्थ हो रही हैं। अब आप मुझ पर प्रसन्न होवें जिससे कि मैं मुक्ति का पात्र बन जाऊँ ॥१४॥
|| काली स्तव: फलश्रुतिः ||
इमां स्तुतिं मयेरितां पठन्ति कालिसाधकाः।
न ते पुनः सुदुस्तरे पतन्ति मोहगह्वरे॥१५॥
ब्रह्मदेव का कथन है कि मेरे द्वारा रची गई इस स्तुति को जो काली के साधक पढ़ते हैं, वे अत्यंत दुस्तर मोहरूपी गड्ढे में नहीं पड़ते ॥१५ ॥
काली स्तवन, काली स्तव,कालीस्तव: सम्पूर्ण:॥
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