कालिका पुराण अध्याय २ || Kalika Puran Adhyay 2 Chapter
कालिका पुराण अध्याय २ में ब्रह्मा मोह का वर्णन है।
श्रीकालिका पुराण
॥ ब्रह्मा मोह वर्णन ॥
अथ कालिका पुराण अध्याय २
मार्कण्डेय मुनि ने कहा- इसके अनन्तर उनके अभिप्राय के ज्ञान रखने वाले सब मुनिगण उस समय में उचित मरीच अत्रि प्रमुखों में नाम रखा था। सृष्टि के सृजन करने वाले दक्ष प्रभृति ने मुख के अवलोकन से ही अन्य सारे वृत्तान्त का ज्ञान प्राप्त करके उन्होंने स्थान और पत्नियों को दे दिया था ।
ऋषियों ने कहा- तुम हमारे विधाता के चित्त का प्रमथन करके समुत्पन्न हुए हो अतएव तुम मन्थन नाम से ही लोक में विख्यात होओगे । जगती में तुम कामरूप हो और ऐसा तुम्हारे समान अन्य कोई भी नहीं है । अतएव हे मनोभव ! तुम काम नाम से भी जाने जाओ । मदन करने से तुम मदन नाम वाले भी हो और दर्प से शम्भू भगवान् के कंदर्प हो इसलिए तुम लोक में कन्दर्प नाम भी प्रसिद्ध होओगे । तुम्हारे बाणों का जो पराक्रम है, ब्रह्मास्त्रों का भी उस प्रकार का नहीं होगा।
स्वर्ग में, मृत्युलोक में, पाताल में और सनातन ब्रह्मलोक में तुम्हारे सभी स्थान हैं क्योंकि आप सर्वव्यापी हैं । यह दक्ष आपको पत्नी को स्वयं ही देगा जो कि परम शोभना है । हे पुरुषोत्तम! जो यह आदि में होने वाला यथेष्ट प्रजापति है और यह कन्या ब्रह्माजी के मन से समुत्पन्न शमरूपा है जो सन्ध्या नाम से सभी लोक में विख्यात होगी । क्योंकि ध्यान करते हुए ब्रह्मा जी से भली-भाँति यह वरांगना समुत्पन्न हुई है इसलिए इस लोक में ‘सन्ध्या‘ इस नाम से इसकी ख्याति होगी।
मार्कण्डेय मुनि ने कहा- हे द्विजोत्तमो ! यह कहकर सब मुनिगण चुप होकर संस्थित हो गये थे । उन्होंने ब्रह्माजी मुख का अवेक्षण किया और उनके ही समक्ष में विनय से अवनत होकर स्थित हो गए थे । इसके अनन्तर कामदेव भी कुसुमों से उद्भूत अपने दण्ड (धनुष) को ग्रहण करके कान्ता के भुवों के सदृश वेल्लित वह धनुष था तथा वह उन्मादन, इस नाम से विख्यात हो गया था ।
हे द्विजोत्तमो ! उसने उसी भाँति पाँचों कुसुमों से विनिर्मित अस्त्रों को ग्रहण किया था जिनके निम्नांकित नाम हैं-हर्षण, रोचन, मोहन, शोषण और मरण । इन संज्ञा वाले वे बाण या अस्त्र हैं जो मुनियों के भी मन में मोह उत्पन्न कर देने वाले हैं । उस कामदेव ने जो कि प्रच्छन्न स्वरूप से संयुत था वहीं पर निश्चय के विषय में सोचने लगा था। यहां पर मुनिगण संस्थित हैं तथा स्वयं प्रजापति भी हैं । वे सब आज मेरे शरव्य भूत होंगे, यह निश्चित है। मैं भगवान् विष्णु और योगिराज भगवान् शम्भु भी तुम्हारे अस्त्रों के वशवर्ती होंगे । अन्य साधारण जन्तुओं की तो बात ही क्या है, ऐसा जो कहा था मैं सार्थक करूँ ।
मार्कण्डेय मुनि ने कहा- कामदेव ने यह मन से सोचकर और निश्चय करके पुष्पों के धनुष की पुष्पों की ज्या (धनुष की डोरी) कणों के द्वारा योजित किया था। उस समय में आलीढ़ स्थान को प्राप्त करके तथा अपने धनुष को खींचकर धनुषधारियों में परमनिपुण कामदेव ने यत्नपूर्वक उसे वलय के आकार वाला कर लिया था । हे मुनिश्रेष्ठों ! उस कामदेव के द्वारा कोदण्ड ( धनुष को ) सहित करने पर भली-भाँति आह्लाद के उत्पन्न करने वाली सुगन्धित वायु बहने लगी थी। इसके अनन्तर मोह कर देने वाले कामदेव ने उन घात आदि को और सभी मनुष्यों को पृथक् पृथक् पुष्पों के शरों से मोहित हो गए और मन के द्वारा कुछ विकार को प्राप्त हो गए थे। सभी सन्ध्या को निरीक्षण करते हुए बारम्बार विकारयुक्त मन वाले हो गये थे क्योंकि स्त्री तो मद के वर्द्धन करने वाली होती ही है अतः सब बढ़े हुए मदन वाले अर्थात् अधिक सकाम हो गए थे। फिर उस मदन अर्थात् कामदेव ने पुनः सबको मोहित कराके तथा उन सबको ऐसा कर दिया था कि वे सब इन्द्रियों के विकारों को प्राप्त हो गए थे। जिस समय में उदीरित इन्द्रियों वाले विधाता ने उसको दीक्षा दी थी उसी समय में उनचास भाव शरीर से समुत्पन्न हो गए थे ।
हे द्विजो ! विव्वोक आदि हाव-भाव तथा चौंसठ कलायें कन्दर्प (कामदेव ) के शिरों से विंधी हुई सन्ध्या के हो गये थे । उन सबके द्वारा देखी गई वह भी कन्दर्प के शरों के पात से समुत्पन्न कटाक्ष आवरण आदि भावों को बारम्बार करने लगी थी । स्वाभाविक रूप से परम सौन्दर्यशालिनी सन्ध्या मदन के द्वारा उद्भूत उन भावों को करती हुई तनु ऊर्भियों के द्वारा स्वर्ग की नदी (गंगा) की भाँति अत्यधिक शोभायमान हो रही थी। इसके अनन्तर भावों में समन्वित उस सन्ध्या को देखते हुई प्रजापति धर्माम्म अर्थात् पसीने से परिपूर्ण शरीर वाले होकर उन्होंने भी अभिलाषा की थी। तात्पर्य यह है उनके शरीर में पसीना आ गया और उनकी भी इच्छा हुई थी।
ईश्वर ने कहा- -हे ब्राह्मण ! बड़े आश्चर्य की बात है आपको यह कामभाव कैसे उत्पन्न हो गया जो कि अपनी पुत्री को ही देखकर काम के वशीभूत हो गये हैं । यह तो वेदों के अनुसरण करने वालों के लिए योग्य नहीं है । आपके ही मुख से कहा हुआ वेदों के मार्ग का निश्चय है कि जैसी माता होती है वैसी ही जामि होती है और जैसी जामि होती है वैसी ही सुता हुआ करती है । हे विधे ! हे ब्राह्मण ! हे चतुरानन ! यह समस्त जगत् धर्म में ही है और कैसे इस क्षुद्रकाम के द्वारा यह सब विघटित कर दिया है ?
एकान्त योगी सर्वदा दिव्य दर्शन वाले, किस कारण से और कैसे दक्ष मरीचि आदि मानस पुत्र स्त्रियों में लोलुप हो गये थे ? मन्द आत्मा वाला और अभी कर्म को प्राप्त करने को उद्यत हुआ कामदेव भी कैसा अल्प बुद्धि वाला है और समय को नहीं जानता है कि उसने आप लोगों को ही अपने शरों का लक्ष्य बना डाला है। हे मुनिश्रेष्ठ ! उसके लिए धिक्कार है जिसकी कान्तागण हठपूर्वक धैर्य का आकर्षण करके चंचलताओं में उसके मन को मज्जित कर दिया करती है।
मार्कण्डेय मुनि ने कहा- उन गिरीश भगवान् के इस वचन को श्रवण करके लोकों के ईश लज्जा से एक ही क्षण में दुगुने पसीने से भीगे हुए हो गए थे । इसके उपरान्त चतुरानन ब्रह्माजी ने इन्द्रियसम्बन्धी विकार को निगृहीत करके ग्रहण करने की इच्छा समन्वित होते हुए भी उस कामरूप वाली सन्ध्या का परित्याग कर दिया था ।
हे द्विजश्रेष्ठो ! उसके शरीर से जो पसीना गिरा था उससे अग्निष्वात वर्हिषद पितृगण समुत्पन्न हुए थे। ये सब भिन्न हुए अंजन के सदृश थे और विकसित कमल के समान इनके नेत्र थे । ये अत्यन्त अधिक यति, परमपवित्र तथा संसार से परमाधिक विमुख हुए थे ।
अग्निष्वात चौसठ सहस्र कीर्त्तित किए गए हैं । हे द्विजगणों ! छियासी हजार वर्हिषद बताए गए हैं । दक्ष के शरीर से जो पसीना भूमि पर गिरा था उससे सम्पूर्ण गुणों से सुसम्पन्न वरांगनायें उत्पन्न हुई थीं। वे वरांगनायें तन्वंगी, क्षीण मध्यभाग वाली और परम शुभ शरीर की रोमावली संयुत थीं जिनका अंग अत्यधिक कोमल था तथा परम सुन्दर दर्शन पंक्तियाँ थीं और तपे हुए सुवर्ण के ही तुत्य उनके शरीर की रोमावली संयुत थीं और तपे हुए स्वर्ण के ही तुल्य ही उनके शरीर की कान्ति थी ।
मरीचि उनमें प्रधान थे ऐसे छः मुनियों ने अपनी इन्द्रियों की क्रिया को निगृहीत कर लिया था । उस समय क्रतु, वशिष्ठ, पुलस्त्य और अंगिरस के आदि चारों का जो प्रस्वेद भूमि पर गिरा था उससे हे द्विजश्रेष्ठो ! दूसरे पितृगण समुत्पन्न हुए थे। वह सीमय, आज्पय नाम से तथा अन्य सुकाती थी । वे सभी हविर्भुक् थे जो कव्य वाह प्रकीर्त्तित हुए थे । सोमष जो थे वे ऋतु पुत्र थे, सुकालिन वशिष्ठ मुनि के पुत्र हुए थे । जो आडप नामक थे, वे पुलस्त्य मुनि के पुत्र थे और हविष्मन्त अंगिरा मुनि के सुत हुए थे।
हे विपेन्द्रों ! उन अग्निष्वातादिक के उत्पन्न हो जाने पर इसके अनन्तर लोकों के पितृ वर्गों में सब ओर कव्यवाह थे । समस्त प्राणियों के ब्रह्माजी ही पितामह हुए थे और सन्ध्या ही पितृ प्रसूता हुई थी क्योंकि सब उसके ही उद्देश्य से हुआ था । इसके अनन्तर भगवान् शंकर के वचन से वह पितामह बहुत लज्जित हुए थे और शीघ्र ही कुंठित किए हुए मुख से संयुत ब्रह्माजी कामदेव के ऊपर अत्यन्त कुपित हो गए थे । वह कामदेव भी पहले ही उनके अभिप्राय का ज्ञान प्राप्त करके उसने पशुपति विधि से डरे हुए ने शीघ्र ही अपने बाण को समेट लिया था । हे द्विजेन्द्रो ! इसके अनन्तर लोगों के पितामह ब्रह्माजी ने अत्यन्त क्रोध में आवष्टि होकर जो कुछ भी किया था उसका आप लोग परम सावधान होकर अब श्रवण कीजिए ।
॥ इति श्रीकालिकापुराणे द्वितीयोध्यायः ॥ २ ॥