कालिका पुराण अध्याय ३ || Kalika Puran Adhyay 3 Chapter
कालिका पुराण अध्याय ३ में मदन दहन का वर्णन है।
अथ श्रीकालिका पुराण अध्याय ३
॥ मदन दहन वर्णन ॥
मार्कण्डेय महर्षि ने कहा- इसके उपरान्त समस्त जगतों के पति पद्मयोनि ब्रह्माजी अत्यन्त बलवान् दाह करने वाले पावक (अग्नि) के ही समान कोष्ठ में समाविष्ट होकर प्रज्जवलित हो गये थे और उन्होंने ईश्वर से कहा था कि जिस कारण से आपके ही समझ कामदेव ने पुष्पों के बाणों से मुझे सेवित किया है अर्थात् मुझे अपने कुसुम बाणों का लक्ष्य बनाया है अतः हे हर ! उसका फल अब आप प्राप्त करिए। यह दर्प से विमोहित कामदेव आपके नेत्रों की अग्नि से निर्दग्ध होगा । हे महादेव ! क्योंकि इसने अत्यन्त दुष्कर कर्म किया था । हे द्विजों में परम श्रेष्ठों ! इस रीति से ब्रह्माजी ने भगवान् व्योमकेश (शम्भू) के और महात्मा मुनियों के समक्ष में स्वयं ही कामदेव को शाप दिया था। इसके अनन्तर डरे हुए रति के पति कामदेव ने उसी क्षण में अपने बाणों को छोड़ना परित्यक्त कर दिया था और इस परम दारुण शाप का श्रवण करके प्रत्यक्ष ही प्रादुर्भूत अर्थात् प्रकट हो गया था वह कामदेव डर से अति गद्गद् होकर तथ्य वचन कहने लगा था ।
कामदेव ने कहा- हे ब्रह्माजी ! आपने किसलिए मुझे अत्यन्त दारुण शाप दिया है। मैंने आपका कोई भी अपराध नहीं किया है। हे लोकों के स्वामिन्! आप तो न्याय मार्ग का अनुसरण करने वाले हैं। हे विभो ! मैं जो करता हूँ वह सभी आपके ही द्वारा कहा हुआ करता हूँ । यहाँ पर मुझे शाप देना उचित नहीं है क्योंकि मैंने अन्य कुछ भी कार्य नहीं किया है। आपने स्वयं ही मुझ से कहा था कि मैं तथा भगवान् विष्णु और भगवान् शम्भू ये सभी तेरे शरों के गोचर हैं अर्थात् तेरे बाणों के लक्ष्य होंगे। यह जो कुछ भी आपने ही मुझ से कहा था उसी आपके कथन की परीक्षा मैंने की थी अर्थात् मैंने जाँच की थी कि आपका वचन कहाँ तक सत्य है । हे ब्रह्माजी इसमें मेरा कोई भी अपराध नहीं है । हे जगत् के स्वामिन् ! निरपराध मुझको जो यह परम दारुण शाप दे दिया है अब इस शाप का आप शमन कीजिए ।
मार्कण्डेय मुनि ने कहा-समस्त जगतों के पति ब्रह्माजी ने उस कामदेव के इस वचन को सुनकर उस हुतात्मा कामदेव से पुनः दया से युक्त होकर यह प्रत्युत्तर दिया था।
ब्रह्माजी ने कहा- यह सन्ध्या तो मेरी बेटी है क्योंकि इसके प्रकाश से ही तुमने मुझको अपने बाणों का लक्ष्य बना लिया था । इसी कारण से मैंने तुमको शाप दिया था। इस समय में अब मेरा क्रोध शान्त हो गया है । हे मनोभव अर्थात् कामदेव ! अब मैं तुझसे कहता हूँ कि आपको जो मैंने दिया था वह किसी भी तरह से शमन हो जायेगा। तू भगवान् शंकर के तीसरे नेत्र की अग्नि से भस्मीभूत होकर भी फिर उनकी ही कृपा से पुनः अपने शरीर की प्राप्ति कर लेगा । जिस समय भगवान् हर कामदेव अपनी पत्नी का परिग्रह करेंगे उस समय में वे ही स्वयं तुम्हारे शरीर को प्राप्त करा देंगे ।
मार्कण्डेय मुनि ने कहा- लोकों के पितामह ब्रह्माजी ने कामदेव से इतने ही वचन कहकर मानस पुत्र समस्त मुनीन्द्रों के देखते हुए वे अन्तर्हित हो गए थे। सबके विधाता उन ब्रह्माजी के अन्तर्धान हो जाने पर भगवान शम्भु भी वायु के समान वेग से अपने अभीष्ट देश को चले गए थे । उन ब्रह्माजी के अन्तर्हित हो जाने पर भगवान् शम्भु के भी अपने स्थान पर चले जाने के पश्चात् प्रजापति दक्ष उसकी पत्नी को निदर्शित करते हुए कामदेव से बोले-
हे कामदेव ! यह मेरे देह से समुत्पन्न हुई मेरे ही रूप और गुणों से समन्वित है यह आपके ही सदृश गुणों से युक्त है सो अब तुम इसको अपनी भार्या बनाने के लिए ग्रहण कर लो । यह महान् तेज से युक्त सर्वदा आपके ही साथ चरण चलने वाली और इच्छानुसार धर्म से वश में वर्त्तन करने वाली होगी ।
मार्कण्डेय महर्षि ने कहा- दक्ष प्रजापति ने यह कहकर अपनी देह के पसीने से उत्पन्न हुई पुत्री को कामदेव के लिए उसके आगे करके दे दिया था और उसका नाम ‘रति‘ यह कहकर ही प्रदान किया था । कामदेव भी उस परम सुन्दरी रति नाम वाली वराँगना को देखकर उस रति में अत्यधिक अनुरक्त होकर अपने ही बाण के द्वारा विद्ध होकर मोह को प्राप्त हो गया था । क्षणमात्र में होने वाली प्रभा के ही समान वह एकान्न गौरी और मृगी के समान लोचनों वाली तथा चंचल उपांगों से समन्वित मृगी की भाँति उसके ही तुल्य परम शोभित हुई थी। उस रति की दोनों भौंहों को देखकर कामदेव ने संशय किया था कि क्या विधाता ने मुझे उन्माद वाला बनाने के लिए यह कोदण्ड ( धनुष ) निवेषित किया है।
हे द्विजोत्तमो ! उस रति के कटाक्षों की शीघ्र गमन करने वाली गति को देखकर अर्थात् शीघ्र ही हृदय को बिद्ध कर देने वाली चाल को देखते हुए उसे अपने अस्त्रों की शीघ्रगामिता और सुरन्दरता पर श्रद्धा नहीं रह गयी थी। तात्पर्य यही है कि उसके (रति के) कटाक्षों की गति के सामने अपने बाणों की गति कामदेव को तुच्छ प्रतीत होने लग गयी थी। उस रति की स्वाभाविक रूप से सुगन्धित धीर श्वासों की वायु का आघ्राण करके कामदेव ने मलय पर्वत की गन्ध को लाने वाली वायु में श्रद्धा का त्याग कर दिया था । कथन का अभिप्राय यह है कि मलय मारुत भी उसके श्वासानिल के समाने हेय प्रतीत हो रही थी । पूर्णचन्द्र के समान भौंहों के चिह्न से लक्षित उसके मुख को देखकर कामदेव ने उसके मुख और चन्द्र में किसी प्रकार के भेद का निश्चय नहीं किया था। उस रति के दोनों स्तनों का जोड़ा सुनहरी कमल की कलिका के जोड़े के ही समान था । उन स्तनों के ऊपर जो कृष्ण वर्ण से युक्त चूचक थे (काली घुडियाँ ) वे ऐसी प्रतीत हो रही थीं मानों कमल की कलिकाओं पर भ्रमर बैठे हुए रसपान कर रहे हों ।
अत्यन्त दृढ़ (कठोर ) पीन (स्थूल) और उन्नत स्तनों के मध्य भाग से नीचे की ओर जाती हुई नाभि पर्यन्त रहने वाली, तन्वी सुन्दर, आयत और शुभ रसों की पंक्ति को कामदेव ने भ्रमरों की पंक्ति से संम्भृत (सयुत) पुष्प धनुष की ज्या (डोरी) को भी विस्मृत कर दिया था क्योंकि उसका ग्रहण करके इसको ही देखता है । पुनः उसके ही सुन्दर स्वरूप का वर्णन करते हुए कहते हैं कि उसकी गम्भीर नाभि के रन्ध्र ( छिद्र) के अन्दर चारों ओर त्वचा से वह आवृत थी । उसके मुख कमल पर जो दो नेत्रों को जोड़ा था वह ऐसी प्रतीत होता था मानों थोड़ी लालिमा से युक्त कमल हो ।
हे द्विज श्रेष्ठों ! जिसका मध्य भाग क्षीण था ऐसे शरीर से वह रति निसर्ग अष्टपद की प्रभा वाली थी । उसको कामदेव ने रत्नों द्वारा विरचित वेदी के ही समान देखा था । उसके उरुओं का युगल अत्यन्त कोमल और कदली के स्तम्भ के समान आयत एवं स्निग्ध (चिकना) था । कामदेव ने उसको अपनी शक्ति के ही तुल्य मनोहर देखा था। थोड़ी रक्तिमा से युक्त पाणि पादाग्र प्रान्त भाग से संयुक्त दोनों पदों के जोड़े को कामदेव ने उसमें स्थित अनुराग से परिपूर्ण चित्र देखा था। उस रति के दोनों हाथों को जो ढाक के पुष्पों के समान लाल नाखूनों से युक्त थे और परम सूक्ष्म सुवृत्त अंगुलियों को परम मनोहर देखा था ।
हे द्विजसत्तमो ! यह देखकर कामदेव ने यह मान लिया था कि मेरे अस्त्रों से द्विगुणित हुए अस्त्रों के द्वारा क्या यह मुझको मोहित करने के लिए उद्यत हो रही है ? उसकी दोनों बाहुओं का जोड़ा मृणाल के जोड़े के समान अधिक सुन्दर था । वह अत्यन्त कान्ति संयुत जल के प्रवाह के समान मृदु और स्निग्ध शोभित हो रहा था। उसका केशों का पाश अत्यधिक मनोहर नील वर्ण वाले मेघ के सदृश था और कामदेव का प्रिय वह चमरी गौ के पूँछ के बालों के भार के समान प्रतीत होता है । उस अत्यधिक मनोहर रति देवी का काम अवलोकन करके विकसित लोचनों वाला हो गया था । उसी रति की विशेष स्वरूप शोभा का वर्णन करते हुए कहते हैं कि वह रति देवी उपकी कान्ति रूपी जल ओघ (समूह) से सम्पूर्ण थी, वह अपने कुचों के मुख कमल की कालिका वाली थी, पद्म के सदृश मुख से समन्वित थी, सुन्दर बाहुरूपी मृगालीश (चन्द्र) की कला से संयुत थी, यह रति देवी दोनों भौंहों के युग्म के विभ्रमों के समूह से तनूर्मियों से परिराजित थी, वह कटाक्ष पातरूपी भ्रमरों को समुदाय वाली थी, वह नेत्ररूपी नील कमलों से समन्वित थी, वह शरीर की रोमावलि के शैवाल से युक्त थी, वह मनरूपी द्रुमों के विशातन करने वाली थी, वह रति गम्भीर नाभिरूपी हृद से युक्त थी, वह दक्षरूपी हिमालय गिरि से सुमुत्पन्न हुई गंगा की भाँति महादेव की तरह उत्फुल्ल लोचन थी । उस समय में मोद के भार से युत आनन वाले कामदेव ने विधाता के द्वारा दिए हुए सुदारुण शाप को भूलकर प्रजापति दक्ष से कहा था ।
कामदेव ने कहा- हे विभो ! भली-भाँति परमाधिक स्वरूप लावण्य से समन्वित इस सहचारणी के द्वारा मैं भगवान् शम्भु को मोहित करने की क्रिया में समर्थ हो सकूँगा फिर अन्य जन्तुओं से क्या प्रयोजन है । हे अनघ अर्थात् पिष्पाप ! जहाँ-जहाँ पर मेरे द्वारा धनुष का लक्ष्य किया जाता है वहीं वहीं पर इसके द्वारा भी रमण नामक माया से चेष्टा की जायेगी । जिस समय में मैं देवों के आलय अर्थात् स्वर्ग में जाता हूँ अथवा पृथ्वी या रसातल में गमन किया करता हूँ उसी समय में यह भी सर्वदा चारुहास वाली हो जाया करेगी। जिस प्रकार लक्ष्मी साथ गमन करने वाली होती है और मेघों के साथ विद्युत रहा करती है उसी भाँति मेरी प्रजाध्यक्ष सहायिनी होगी ।
मार्कण्डेय मुनि ने कहा- कामदेव ने इस रीति से यह कहकर रति देवी को बहुत ही उत्सुकता के सहित होकर ग्रहण किया था जिस प्रकार से सागर से समुत्थित उत्तमा लक्ष्मी को भगवान् हृषीकेश ने ग्रहण कर लिया था । भिन्न पीतप्रभा वाला कामदेव उस रति के साथ शोभित हुआ था जिस प्रकार से सन्ध्या के समय में मनोहर सौदामिनी के साथ मेघ की शोभा हुआ करती है । इस रीति से बहुत ही अधिक मोद से युक्त रति के पति कामदेव ने उस रति को अपने हृदय में विद्या को योगदर्शी के ही समान परिग्रहण किया था । रति ने भी परम श्रेष्ठ पति को प्राप्त करके परमाधिक सन्तोष को प्राप्त किया था अर्थात् अत्यन्त सन्तुष्ट हो गई थी। जैसे कमल समुत्पन्ना पूर्ण चन्द्र के समान मुख वाली लक्ष्मी भगवान् हरि को प्राप्त करके सन्तुष्ट हो गयी थी ।
॥ इति श्रीकालिकापुराणे मदन दहन वर्णन नाम तृतीयोऽध्यायः ॥ ३ ॥