कालिका पुराण अध्याय २८ – Kalika Puran Adhyay 28

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कालिका पुराण अध्याय २८ में सृष्टि कथन २ का वर्णन है।

कालिका पुराण अध्याय २८      

मार्कण्डेय मुनि ने कहा– यह मन्वन्तर मनु का काल होता है जितने पर्यन्त वह मनु प्रजाओं का पालन किया करता है वह एक ही मनु होता है और वह काल मन्वन्तर इस नाम से प्रसिद्ध होता है । यह देवों के इकहत्तर युगों से यहाँ पर होता है। तात्पर्य यह है कि एक मन्वन्तर में अर्थात् एक ही मनु के काल में देवगणों के इकहत्तर युगों का समय हुआ करता है ऐसे चौदह मन्वन्तरों का एक कल्प होता है जो ब्रह्माजी का एक दिन हुआ करता है । ब्रह्माजी के दिन के अन्त में उनको सोने की इच्छा उत्पन्न होती है और फिर महामाया योगनिद्रा ब्रह्मा जी के निकट आ जाया करती है। इसके अनन्तर वे लोकों के पितामह ब्रह्माजी ने अपरिमित तेज वाले भगवान विष्णु के नाभि के पद्म में प्रवेश करके वे सुख से शयन किया करते हैं। उसके पश्चात भगवान विष्णु स्वयं रुद्ररूपी जनार्दन होकर उन्होंने पूर्व की ही भाँति सम्पूर्ण तीनों भुवनों का विनाश कर दिया था । वायु के साथ वह्नि ने महाप्रलय कालों में जैसे हो वैसे ही सम्पूर्ण तीनों जगतों का दाह कर दिया था । प्रताप से आर्त्त होकर महर्लोक के निवासी जन जनलोक को प्रयाण किया करते हैं। क्योंकि जब तीनों लोकों के दाह होने के समय उस दारुण अग्नि से जन प्रपीड़ित हो गये ।

इसके अनन्तर कालान्तर महामेघों जिनकी गर्जना की महाध्वनि थी, समुत्पादित करके महावृष्टि से तीनों भुवनों को आपूरित करके चलती हुई तरंगों वाले जलों के समूह से जो ध्रुव के स्थान पर्यन्त संगत थे और घोर वृष्टि की थी । फिर वह जनार्दन प्रभु इन तीनों लोकों को अपने उदर में रखकर वे परमेश्वर शेष के पर्यंक पर शयन किया करते हैं । जगत् के गुरुदेव ब्रह्मा को अपनी नाभि के कमल में शयन किए हुए संस्थापित करके इन तीनों लोकों को श्री के सहित दग्ध करके और भक्षण करके नारायण के स्वरूपधारी ब्रह्मशरों की शय्या में शयन किया करते हैं अर्थात् शेषशय्या पर सो जाते हैं । त्रैलोक्य के ग्रास से गृहित वे प्रभु योगनिद्रा के वशीभूत हो गये हैं । जिस समय में कालाग्नि ने सम्पूर्ण त्रिलोकी को दग्ध कर दिया था उसी विष्णु के समीप में समागत हो गये थे । उनके द्वारा त्यागी हुई पृथ्वी एक ही क्षण में नीचे की ओर चली गयी थी और वह कूर्म के पृष्ठ भाग पर पतित होकर उस समय विकीर्ण सी हो गयी थी। कूर्म ने भी बड़े भारी प्रयत्नों से जल में चलती हुई पृथ्वी को पैरों से ब्रह्माण्ड पर आक्रमण करके पृष्ठ पर धरा को धारण किया था ।

ब्रह्माण्ड के खण्डों से संयोग से वह पृथ्वी चूर्ण हो गयी थी इससे भगवान् कूर्म रूपधारी जनार्दन उसको परिग्रहीत कर लिया । चलते हुए जल के समूह में संसर्ग से चलती हुई धरा से उस समय में कूर्म पृष्ठ बहुतर वरण्डी से विततीभूत अर्थात् विस्तृत कर दी थी । अनन्त भगवान उस समय में क्षीरोद सागर में गये थे वहाँ पर उन्होंने देखा कि भगवान जनार्दन प्रभु अपनी श्री के साथ शयन कर रहे थे । मध्य में रहने वाले फन से त्रैलोक्य के ग्रास से उपवृहित हो धारण कर रहे थे । महान बल वाले ने पहले फन को चौड़ा कर ऊर्ध्व में पद्म बनाकर उन शेषनागधारी ने परमेश्वर भगवान विष्णु को समाच्छादित कर दिया था । अनन्त ने अपने दाहिने फन को उनका उपधान ( तकिया) बना दिया था । महान् बलवान उन्होंने उत्तर फन को चरणों की ओर तकिया बना दिया था। उस समय में उन शेष ने पश्चिम फन को तालवृत्त कर दिया था। शेषरूपधारी ने शयन करते हुए जनार्दन प्रभु का व्यंजन किया था । महान बलधारी उन्होंने ऐशानी फन से शंख, चक्र, नन्दक, असि और दो इषुधीयों को और गरुड़ को धारण किया था ।

गदा, पद्म, शार्ङ्गधनुष तथा अनेक आयुधों को जो भी अन्य उनके अस्त्र थे उनको आग्नेय दिशा वाले फन से धारण किया था । उस समय में भगवान हरि के शयन अर्थात् शय्या के लिए अपने स्वकीय शरीर को बनाकर जल से मग्न पृथ्वी का अधरकाय से आक्रमण करके स्थित हुए थे । त्रैलोक्य ब्रह्म के सहित तथा लक्ष्मी से समन्वित, सामासंग, जगत् के बीज स्वरूप और जगत् के कारण के भी कारण जनार्दन प्रभु को धारण किया था । वे जनार्दन प्रभु नित्य आनन्द स्वरूप हैं, वेदों से परिपूर्ण हैं, ब्रह्मण्य हैं जगत् के कारण के भी कारण हैं, जगत के कारण कर्ता हैं, परमेश्वर हैं, भूत, भव्य और भव के नाथ हैं, बराबर गति से संयुत हैं ऐसे हरि को शिर से धारण किया था और अपने शरीर को भी धारण कर लिया था । इस रीति से अव्यय नारायण हरि भगवान् ब्रह्माजी ने दिन के प्रमाण से निशा और संध्या को अभिव्याप्त करके शयन किया करते हैं । यह प्रलय जिससे ब्रह्मा के दिन – दिन में होती है। इसी कारण से पुरातत्व के ज्ञानीजन इसको दैनन्दिन ख्यापित किया करते हैं अर्थात कहा करते हैं ।

उस निशा के व्यतीत हो जाने पर लोकों के पितामह ब्रह्माजी निद्रा को त्याग करके पुनः सृष्टि की रचना के लिए समुत्थित हो गये थे अर्थात् जागकर खड़े हो गये थे। उन्होंने देखा कि तीनों लोक जल से परिपूर्ण भरे हुए हैं और भगवान पुरुषोत्तम शयन किये हैं । भगवान विष्णु को जगन्मयी महामाया का उन्होंने निरीक्षण किया था फिर ब्रह्माजी ने भगवान हरि के अंग में विराजमान योगनिद्रा की स्तुति की थी ।

कालिका पुराण अध्याय २८ 

अब इससे आगे श्लोक ३१ से ४० में ब्रह्मप्रोक्ता योगनिद्रा की स्तुति को दिया गया है इसे पढ़ने के लिए क्लिक करें-

महामाया योगनिद्रा स्तुति:

अब इससे आगे

कालिका पुराण अध्याय २८ 

फिर उसकी नासिका, मुख, बाहु हरि के हृदय से निकले थे और उनके राजसी मूर्ति का समाश्रय ग्रहण करके वह ब्रह्माजी के दर्शन में स्थित हो गई थी। इसके उपरान्त जनार्दन शेष की शय्या पर निद्रा लेते हुए थे उस निद्रा से एक ही क्षण में उठकर खड़े हो गये थे और फिर सृष्टि की रचना करने की वृद्धि की थी। फिर वाराह के स्वरूप से जल में निमग्न हुई पृथ्वी को शीघ्र ही समुद्धृत करके उसको जल के ऊपर रख दिया था ।

उस जल के समुदाय के ऊपर वह बड़ी विशाल भाव की ही भाँति स्थित हो गयी थी । देह के बहुत विशाल एवं विस्तृत होने से वह मही संप्लव को प्राप्त नहीं हो रही थी। फिर भगवान हरि स्वयं वहाँ पर उपस्थित हुए थे और अपनी माया से जल से समूह का संहार करके जन्तुओं की स्थिति के लिए स्वयं की प्रभु प्रवृत्त हो गये थे। पूर्व में जैसे थे उसी के समान भगवान अनन्त भी वहाँ पर भूमि के तल प्रदेश में जाकर कूर्म के ऊपर संस्थित हो गये थे और पृथ्वी को धारण कर लिया था ।

इसके अनन्तर ब्रह्माजी ने सभी प्रजापतियों को भली-भाँति उत्पादन करके समस्त लोकों के पितामह ने इस जगत् को उत्पादित कर लिया था अथवा ब्रह्मा सृष्टि की रचना करते हैं जबकि अन्य भी सृष्टि किया करते हैं । जो परब्रह्म के रूप वाले हैं वे स्वयं निरन्तर अनुग्रह किया करते हैं और प्रकृतियाँ व महाभूतों को अनुग्रहीत किया करती हैं । पुरुष तथा महदादिक भी अनुग्रह किया करते हैं जो ईश्वर की इच्छा के अनुसार अष्ट संचय अधिष्ठान पुरुष से अनुग्रहीत किया करते हैं। पुरुषों के अधिष्ठान से और महाभूतों के गुण से उसी भाँति से महदादि का और महात्मा काल के अधिष्ठान से तथा प्रधान के अधिष्ठान से जो कुछ समुत्पन्न होता है । स्थावर अर्थात् अचर और जंगम अर्थात चेतन स्थिर अथवा अद्भुत हे द्विजश्रेष्ठों! सभी कुछ अधिष्ठान से उत्पन्न होता है । जैसा कि पूर्व में दिखाया था वह सब आपको बतला दिया था। जिस प्रकार से इस जगत् के प्रपंच की परा असारता दिखलाई थी और जहाँ पर सार दिखलाया है । हे द्विजों ! वह आप मुझसे श्रवण करिये ।

॥ इति श्रीकालिकापुराणे सृष्टिकथननाम अष्टाविंशतितमोऽध्यायः॥ २८ ॥

आगे जारी……….कालिका पुराण अध्याय 29

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