कालिका पुराण अध्याय २७ || Kalika Puran Adhyay 27 Chapter

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कालिका पुराण अध्याय २७ में सृष्टि कथन १ का वर्णन है।

अथ श्रीकालिका पुराण अध्याय २७                     

मार्कण्डेय महर्षि ने कहा– यह आप लोगों ने वाराह सर्ग का श्रवण कर लिया है क्योंकि यह वाराह से ही अधिष्ठित है । आप सबने प्रतिसर्ग का भी श्रवण किया है जो दक्ष आदि के द्वारा पृथक किया गया था । विराट्, रुद्र, मनु, दक्ष और मरिचि आदि मानस पुत्रों ने जिस-जिस सर्ग का पृथक किया था वह प्रतिसर्ग भी कहा गया है। विराट सुत ने वंश में होने वाले मनुओं का सृजन किया था। जिनके द्वारा यह जगत् वितत किया गया है । मनु ने सात मनुओं की रचना करके बहुत सी प्रजा को बना दिया था अर्थात् बहुत अधिक प्रजा की सृष्टि कर दी थी । प्रजा की सृष्टि की इच्छा वाले मनु ने जो स्वायम्भुव नाम वाले थे उन्होंने दूसरे सुत छः मनुओं का सृजन किया था। उन छः मनुओं के नाम ये हैं- स्वरोचिष, आँत्तभि, तामस, रैवत, चाक्षुष और महान तेज से संयुत विवस्वान । स्वयम्भुव मनु ने यक्ष, राक्षस, पिशाच, नाग, गन्धर्व, किन्नर, विद्याधर, अप्सरायें, सिद्ध, भूतगण, मेघ जो विद्युत के सहित थे, वृक्ष, लता, गुल्म, तृण आदि मत्स्य, पशु, कीट, जल में समुत्पन्न होने वाले और स्थल में समुत्पन्न इन सबकी रचना की थी । इस प्रकार के सबको स्वयम्भुव मनु ने अपने सुतों के सहित सृष्ट किया था । वह इसका प्रति सर्ग प्रकीर्तित किया गया है। अन्य जो छः मनु थे उन्होंने भी अपने-अपने अन्तर में स्वयं प्रतिसर्ग को चराचर में प्राप्त किया करते हैं। यज्ञ का यज्ञयूप और प्राग्वंश हुआ था तथा वाराह की भाँति धर्म और अधर्म एवं सब गुणों की सृष्टि की थे । देवर्षि दक्ष ने परम श्रेष्ठ बहुत से सुतों का समुत्पादन करके सोमय आदि महर्षियों को और पितृगणों को उत्पन्न किया था तथा सृष्टि को प्रवृत्त किया था यह इसका प्रतिसर्ग कहा गया है। हे विप्रो! विप्र उसके मुख से उत्पन्न हुए थे और क्षत्रिय दोनों बाहुओं से समुत्पन्न हुए उरुओं से वैश्यों की उत्पत्ति हुई थी तथा शूद्र पादों से समुत्पन्न हुए चारों वेद ब्रह्माजी के चार मुखों से निःसृत हुए थे। यह ब्रह्माजी का प्रतिसर्ग है जो ब्रह्मसर्ग इस नाम से कहा गया है। मरीचि ऋषि से कश्यप ऋषि ने जन्म ग्रहण किया था । और कश्यप से यह सम्पूर्ण जगत समुत्पन्न हुआ था। जिसमें देव, दैत्य और दानव सभी उत्पन्न हुए थे। यह उसका सर्ग कीर्ति हुआ था।

अत्रि ऋषि के नेत्रों से चन्द्रदेव ने जन्म धारण किया था और तभी से यह चन्द्रवंश हुआ। उस चन्द्रवंश से यह सम्पूर्ण जगत व्याप्त हैं और वह इसका ही सर्ग कीर्त्तित किया गया है। अथर्वाङ्गिरस के रस पुत्र और बहुत से दूसरे पौत्र हुए। जो भी मन्त्र और तन्त्र आदि हैं वे सब अंगिरस कहे गए हैं । पुलस्त्य का प्रतिसर्ग है जो बल और वेग से समन्वित था । काक्रदेव, गज, अश्व आदि बहुत अधिक प्रजा हुई थी । यह सर्गप्रलह ने किया था अर्थात् इसकी सृष्टि की थी । अतएव यह इसका ही सर्ग कहा गया है । क्रतु ऋषि के बालखिल्य पुत्र हुए थे जो सभी कुछ के ज्ञान रखने वाले और परमाधिक तेज से संयुक्त थे । ये अट्ठासी हजार थे जो कि जाज्वल्यमान सूर्य के ही समान हुए थे प्रचेता के जो सब पुत्र हुए थे वे सब प्राचेतस इस नाम से प्रथित हुए थे । ये छियासी हजार संख्या में थे और अग्नि के सदृश तेजस्वी हुए थे । वशिष्ठ ऋषि के सुत सुकालिन थे और दूसरे योगी थे । ये अरुन्धती से समुत्पन्न पचास आरुन्धतेय कहलाये थे । यह वशिष्ठ अर्थात वशिष्ठ मुनि का सर्ग कहा जाया करता है ।

भृगु ऋषि से जो उत्पन्न हुए थे जो दैत्यों के पुरोहित थे । वे कवि और बहुत विशाल बुद्धि वाले हुए थे । उनसे यह सम्पूर्ण जगत व्याप्त है। नारद से तारकों ने जन्म प्राप्त किया था तथा विमान हुए थे एवं अन्य प्रश्नोत्तर से नृत्य, गीत और कौतुक हुए थे । इन दक्ष और मरीचि आदि ने दाराओं के ग्रहण करने वाले बहुत से पुत्रों का समुत्पादन कर, इस पृथ्वी को और देवलोक को पूरित कर दिया था। उनके सबके पुत्रों को भी पुत्र हुए और फिर उन पुत्रों के भी पुत्र हुए थे । ये समुत्पन्न पुत्र आज भी भुवनों में प्रवृत्त हो रहे हैं । भगवान् विष्णु की आँखों से सूर्यदेव और मन से चन्द्रमा का उत्पन्न होना बताया गया है। श्रोत से वायु समुद्भव हुआ था तथा भगवान विष्णु के मुख से अग्नि ने जन्म प्राप्त किया था । यह प्रतिसर्ग विष्णु है । उसी भाँति दश दिशाएँ भी हुई थीं। पीछे सृष्टि की रचना करने के लिए चन्द्रमा अग्नि नेत्र से अवतरित हुआ था। भगवान भुवनभास्कर कश्यप से समुत्पन्न हुए थे जो भार्या के संयुत थे ।

बहुत से रुद्र उत्पन्न हुए और चार प्रकार के भूतग्राम हुए थे I शृंगाल, वाराह और उष्ट्र रूप वाले प्लव, गोमायु, गोमुख, रीछ मार्जर के मुख वाले थे तथा दूसरे सिंह और व्याघ्र के मुख वाले थे। सभी अनेक प्रकार के शस्त्रों के धारण करने वाले थे तथा विभिन्न और अनेकों रूप वाले थे एवं महाबल से युक्त थे । हे द्विज श्रेष्ठों! यह प्रतिसर्ग आपको बतला दिया गया है । अब दैनन्दिन अर्थात दिनों दिन में होने वाली प्रलय को कल्प शेष से आप लोग श्रवण कीजिए ।

॥ इति श्रीकालिकापुराणे सृष्टिकथनं नाम सप्तविंशतितमोऽध्यायः॥ २७ ॥

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