कालिका पुराण अध्याय २९ – Kalika Puran Adhyay 29

1

कालिका पुराण अध्याय २९ में सारासार निरुपण का वर्णन है।

कालिका पुराण अध्याय २९

मार्कण्डेय मुनि ने कहा- यह सम्पूर्ण जगत् सारहीन है, अनित्य है और महान दुःखों का पात्र अर्थात् आधार है। यह एक ही क्षण में तो उत्पन्न होता है और एक ही क्षण में विपन्नता को प्राप्त हो जाया करता है । यह निस्सार जगत शीघ्र ही उस भाँति सार से उत्पन्न होता है और फिर महाप्रलय के संगम में उसमें विलीन हो जाया करते हैं। भगवान हरि ने उत्पत्ति और प्रलयों से जगत की निःसारता शम्भु के लिए भाव से जगतों के पति ने दिखलाई थी। एक शिव, शान्त, अनन्त, अच्युत, पर से भी पर, ज्ञान से परिपूर्ण, विशेष अद्वैत, अव्यक्त और अचिन्त्य रूप ही सार है उससे अन्य सार नहीं है । जिससे यह उत्तम जगत् अर्थात् विश्व उत्पन्न होता है जिससे महास्थिति को प्राप्त होता है और पीछे लीन हुआ करता है । मेघों के जल को आकाश की ही भाँति वृत्ति से जो इस विश्व को धारण किया जाता है वह तत्व सार है । योगी के द्वारा योगी जिसकी प्राप्ति के लिए इच्छा करता हुआ सदा ही आत्मरूप को पवित्र किया करता है और जिसको प्राप्त करके वह निवृत्त हो जाया करता है । इस लोक में निश्चय ही अन्य कुछ सार नहीं हैं।

द्वितीय सार धर्म है जो नित्य ही प्राप्ति के लिए होता है। जो निवर्त्तक नाम है वहाँ पर असार प्रवर्त्तक हैं। धर्म का धीरे-धीरे संचय करना चाहिए जिस प्रकार से वाल्मीक मिट्टी का संचय किया करता । इस धर्म का संचय परलोक से सहायता के लिए और पूर्व में किए गये पापों की विमुक्ति के लिए होता है। संसार के समस्त कर्मों में एक धर्म ही परमश्रेय होता है और दूसरे तीनों अर्थात् अर्थ, काम और मोक्ष धर्म से ही समुत्पन्न हुआ करते हैं । तात्पर्य यही है कि धर्म ही सबसे अधिक एवं प्रमुख होता है। प्राणों का त्यागकर देना श्रेष्ठ है तथा शिर का काट देना ही अच्छा है किन्तु धर्म का परित्याग करना उचित नहीं है। ऐसा करना लोक और वेद में बुरा होता है । धर्म से ही लोक को धारण किया जाता है और धर्म से जगत् को धारण किया जाता है। धर्म के द्वारा ही सब सुरगण पहले सुरत्व को प्राप्त हुए थे । चार चरणों वाला भगवत् धर्म निरन्तर इस जगत का पालन किया करता है वह ही पुरुष मूल है जो धर्मइस नाम से कहा जाता है ।

इस लोक में सभी कुछ क्षरित हो जाया करता है किन्तु धर्म कभी भी च्युत नहीं हुआ करता है । जो पुरुष धर्म से कभी विचलित नहीं होता है वही अक्षरयह कहा जाता है । यह ही हमने आपको सार बतला दिया है और यह सम्पूर्ण जगत सार से रहित है । जिस प्रकार से भगवान शम्भू ने अपने अन्तर में ज्ञान से देखा था । जगतों के पति भगवान विष्णु ने यहीं दिखलाया था और शंकर ने स्वयं ही ध्यान के द्वारा मन से आत्मा को ग्रहण किया था। जो सार तत्व, परम, निष्फल है और मूर्ति से हीन हैं वही यह मूर्तिमान धर्म है । यह अन्यसार है, सार है और इसके अतिरिक्त अन्य सब सारहीन है। इसी प्रकार से इसका ज्ञान प्राप्त करके महा बुद्धिमान नित्य ही गमन किया करते हैं ।

॥ इति श्रीकालिकापुराणे नवविंशतितमोऽध्यायः॥ २९ ॥

आगे जारी……….कालिका पुराण अध्याय 30 

1 thought on “कालिका पुराण अध्याय २९ – Kalika Puran Adhyay 29

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *