कपिल स्तुति || Kapil Stuti

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राजा सगर की आज्ञा से अंशुमान् घोड़े को ढूँढने के लिये निकले। उन्होंने अपने चाचाओं के द्वारा खोदे हुए समुद्र के किनारे-किनारे चलकर उनके शरीर के भस्म के पास ही घोड़े को देखा। वहीं भगवान के अवतार कपिल मुनि बैठे हुए थे। उनको देखकर उदारहृदय अंशुमान ने उनके चरणों में प्रणाम किया और हाथ जोड़कर एकाग्र मन से उनकी स्तुति की।

अंशुमानुवाच

न पश्यति त्वां परमात्मनोऽजनो

न बुध्यतेऽद्यापि समाधियुक्तिभिः ।

कुतोऽपरे तस्य मनःशरीरधी-

विसर्गसृष्टा वयमप्रकाशाः ॥ १ ॥

अंशुमान ने कहा ;- भगवन! आप अजन्मा ब्रह्मा जी से भी परे हैं। इसीलिये वे आपको प्रत्यक्ष नहीं देख पाते। देखने की बात तो अलग रही-वे समाधि करते-करते एवं युक्ति लड़ाते-लड़ाते हार गये, किन्तु आज तक आपको समझ नहीं पाये। हम लोग तो उनके मन, शरीर और बुद्धि से होने वाली सृष्टि के द्वारा बने हुए अज्ञानी जीव हैं। तब भला, हम आपको कैसे समझ सकते हैं।

ये देहभाजस्त्रिगुणप्रधाना

गुणान् विपश्यन्त्युत वा तमश्च ।

यन्मायया मोहितचेतसस्ते

विदुः स्वसंस्थं न बहिःप्रकाशाः ॥ २ ॥

संसार के शरीरधारी सत्त्वगुण, रजोगुण या तमोगुण-प्रधान हैं। वे जाग्रत और स्वप्न अवस्थाओं में केवल गुणमय पदार्थों, विषयों को और सुषुप्ति-अवस्था में केवल अज्ञान-ही-अज्ञान देखते हैं। इसका कारण यह है कि वे आपकी माया से मोहित हो रहे हैं। वे बहिर्मुख होने के कारण बाहर की वस्तुओं को तो देखते हैं, पर अपने ही हृदय में स्थित आपको नहीं देख पाते।

तं त्वामहं ज्ञानघनं स्वभाव-

प्रध्वस्तमायागुणभेदमोहैः ।

सनन्दनाद्यैर्मुनिभिर्विभाव्यं

कथं हि मूढः परिभावयामि ॥ ३ ॥

आप एकरस, ज्ञानघन हैं। सनन्दन आदि मुनि, जो आत्मस्वरूप के अनुभव से माया के गुणों के द्वारा होने वाले भेदभाव को और उसके कारण अज्ञान को नष्ट कर चुके हैं, आपका निरन्तर चिन्तन करते रहते हैं। माया के गुणों में ही भूला हुआ मैं मूढ़ किस प्रकार आपका चिन्तन करूँ?

प्रशान्तमायागुणकर्मलिङ्ग-

मनामरूपं सदसद्विमुक्तम् ।

ज्ञानोपदेशाय गृहीतदेहं

नमामहे त्वां पुरुषं पुराणम् ॥ ४ ॥

माया, उसके गुण और गुणों के कारण होने वाले कर्म एवं कर्मों के संस्कार से बना हुआ लिंग शरीर आप में है ही नहीं। न तो आपका नाम है और न तो रूप। आप में न कार्य है और न तो कारण। आप सनातन आत्मा हैं। ज्ञान का उपदेश करने के लिये ही आपने यह शरीर धारण कर रखा है। हम आपको नमस्कार करते हैं।

त्वन्मायारचिते लोके वस्तुबुद्ध्या गृहादिषु ।

भ्रमन्ति कामलोभेर्ष्यामोहविभ्रान्तचेतसः ॥ ५ ॥

प्रभो! यह संसार आपकी माया की करामात है। इसको सत्य समझकर काम, लोभ, ईर्ष्या और मोह से लोगों का चित्त, शरीर तथा घर आदि में भटकने लगता है। लोग इसी के चक्कर में फँसे जाते हैं।

अद्य नः सर्वभूतात्मन् कामकर्मेन्द्रियाशयः ।

मोहपाशो दृढश्छिन्नो भगवंस्तव दर्शनात् ॥ ६ ॥

समस्त प्राणियों के आत्मा प्रभो! आज आपके दर्शन से मेरे मोह की वह दृढ़ फाँसी कट गयी जो कामना, कर्म और इन्द्रियों को जीवनदान देती है।

इति श्रीमद्भागवतान्तर्गतं कपिलमुनिस्तुति सम्पूर्णम् ।

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