कठोपनिषद् द्वितीय अध्याय द्वितीय वल्ली || Kathopanishad Dvitiya Adhyay Dvitiya Valli

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इससे पूर्व आपने कठोपनिषद् के द्वितीय अध्याय की प्रथम वल्ली में पढ़ा कि- यमराज ने नचिकेता को परमब्रह्म परमात्मा के विषय में बतला रहे हैं ….अब इससे आगे कठोपनिषद् द्वितीय अध्याय द्वितीय वल्ली में पढ़ेंगे।

अथ कठोपनिषद् द्वितीय अध्याय द्वितीय वल्ली

पुरमेकादशद्वारमजस्यावक्रचेतसः ।

अनुष्ठाय न शोचति विमुक्तश्च विमुच्यते । एतद्वै तत् ॥ १॥

सरल, विशुद्ध ज्ञानस्वरूप, अजन्मा परमेश्वर का ग्यारह द्वारों वाला (मनुष्य-शरीर रूप) पुर (नगर) है (इसके रहते हुए ही) (परमेश्वर का ध्यान आदि) साधन करके (मनुष्य) कभी शोक नहीं करता, अपितु जीवन्मुक्त हो कर (मरने के बाद) विदेह मुक्त हो जाता है, यही है वह (परमात्मा, जिसके विषय में तुम्हें पूछा था ) ||१||

हΰसः शुचिषद्वसुरान्तरिक्षसद्-होता वेदिषदतिथिर्दुरोणसत् ।

नृषद्वरसदृतसद्व्योमसद् अब्जा गोजा ऋतजा अद्रिजा ऋतं बृहत् ॥ २॥

जो विशुद्ध परधाम में रहने वाला स्वयं प्रकाश (पुरुषोत्तम) है (वही) अंतरिक्ष में निवास करने वाला वसु है, घरों में उपस्थित होने वाला अतिथि है (और) यज्ञ की वेदी पर स्थापित अग्निरूप तथा उसमें आहुति डालने वाला ‘होता’ है (तथा) समस्त मनुष्यों में रहने वाला, मनुष्यों से श्रेष्ठ देवताओं में रहने वाला, सत्य में रहने वाला (और) आकाश में रहने वाला (है तथा ) जालों में नाना रूपों से प्रकट होने वाला (और) पर्वतों में नाना रूप से प्रकट हों वाला (है), (वही) सबसे बड़ा परम सत्य है ||२||

ऊर्ध्वं प्राणमुन्नयत्यपानं प्रत्यगस्यति ।

मध्ये वामनमासीनं विश्वे देवा उपासते ॥ ३॥

(जो) प्राण को ऊपर की ओर उठाता है (और) अपान को नीचे की ओर ढकेलता है, शरीर के मध्य (हृदय) में बैठे हुए (उस) सर्वश्रेष्ठ भेजने योग्य परमात्मा की सभी देवता उपासना करते हैं ||३||

अस्य विस्रंसमानस्य शरीरस्थस्य देहिनः ।

देहाद्विमुच्यमानस्य किमत्र परिशिष्यते । एतद्वै तत् ॥ ४॥

इस शरीर में स्थित एक शरीर से दूसरे शरीर में जाने वाले जीवात्मा के शरीर से निकल जाने पर यहाँ (इस शरीर में ) क्या शेष रहता है यही है वह (परमात्मा जिसके विषय में तुमने पूछा था) ||४||

न प्राणेन नापानेन मर्त्यो जीवति कश्चन ।

इतरेण तु जीवन्ति यस्मिन्नेतावुपाश्रितौ ॥ ५॥

कोई भी मरण धर्मा प्राणी न तो प्राण से (जीता है और) न अपान से (ही), जीता है, जिससे ये (प्राण और अपान) ये दोनों आश्रय पाए हुए हैं, (ऐसे किसी) दूसरे से ही (सब) जीते हैं ||५||

 

हन्त त इदं प्रवक्ष्यामि गुह्यं ब्रह्म सनातनम् ।

यथा च मरणं प्राप्य आत्मा भवति गौतम ॥ ६॥

हे गौतम वंशीय (वह) रहस्यमय सनातन ब्रह्म (जैसा है) और जीवात्मा मरकर जिस प्रकार से रहता है, यह बात तुम्हें मैं अब फिर से बतलाऊंगा ||६||

योनिमन्ये प्रपद्यन्ते शरीरत्वाय देहिनः ।

स्थाणुमन्येऽनुसंयन्ति यथाकर्म यथाश्रुतम् ॥ ७॥

जिसका जैसा कर्म होता है और शास्त्रादि के श्रवण द्वारा जिसको जैसा भाव प्राप्त हुआ है (उन्ही के अनुसार) शरीर धारण करने के लिए कितने ही जीवात्मा तो (नाना प्रकार की जङ्गम ) योनियों को प्राप्त हो जाते हैं और दूसरे (कितने ही) स्थाणु (स्थावर) भाव का अनुसरण करते हैं ||७||

य एष सुप्तेषु जागर्ति कामं कामं पुरुषो निर्मिमाणः ।

तदेव शुक्रं तद्ब्रह्म तदेवामृतमुच्यते ।

तस्मिँल्लोकाः श्रिताः सर्वे तदु नात्येति कश्चन । एतद्वै तत् ॥ ८॥

जो यह (जीवों के कर्मानुसार) नाना प्रकार के भोगों का निर्माण करने वाला, परमपुरुष परमेश्वर (प्रलयकाल में सबके) सो जाने पर भी जागता रहता है वही परम विशुद्ध तत्त्व है , वही ब्रह्म है , वही अमृत कहलाता है , उसी में सम्पूर्ण लोक आश्रय पाए हुए हैं, उसे कोई भी अतिक्रमण नहीं कर सकता यही है वह (परमात्मा, जिसके विषय में तुमने पूछा था) ||८||

अग्निर्यथैको भुवनं प्रविष्टो रूपं रूपं प्रतिरूपो बभूव ।

एकस्तथा सर्वभूतान्तरात्मा रूपं रूपं प्रतिरूपो बहिश्च ॥ ९॥

जिस प्रकार समस्त ब्रह्माण्ड में एक ही अग्नि नाना रूपों में उनके समान रूपवाला सा हो रहा है वैसे (ही) समस्त प्राणियों का अंतरात्मा परब्रह्म एक होते हुए भी नाना रूपों में उन्ही के जैसे रूप वाला (हो रहा है) और उसके बाहर भी ||९||

वायुर्यथैको भुवनं प्रविष्टो रूपं रूपं प्रतिरूपो बभूव ।

एकस्तथा सर्वभूतान्तरात्मा रूपं रूपं प्रतिरूपो बहिश्च ॥ १०॥

जिस प्रकार समस्त ब्रह्माण्ड प्रविष्ट एक (ही) वायु नाना रूपों में उनके समान रूप वाला सा हो रहा है वैसे (ही) सब प्राणियों का अंतरात्मा परब्रह्म एक होते हुए भी नाना रूपों में उन्ही के जैसा रूपवाला (हो रहा है) और उसके बाहर भी है ||१०||

सूर्यो यथा सर्वलोकस्य चक्षुःन लिप्यते चाक्षुषैर्बाह्यदोषैः ।

एकस्तथा सर्वभूतान्तरात्मा न लिप्यते लोकदुःखेन बाह्यः ॥ ११॥

जिस प्रकार समस्त ब्रह्माण्ड का प्रकाशक सूर्य देवता लोगों की आँखों से होने वाले बाहर के दोषों से लिप्त नहीं होता उसी प्रकार सब प्राणियों का अन्तरात्मा एक परब्रह्म परमात्मा लोगों के दुखों से लिप्त नहीं होता क्योंकि सबमें रहता हुआ भी वह सबसे अलग है || ११||

एको वशी सर्वभूतान्तरात्मा एकं रूपं बहुधा यः करोति ।

तमात्मस्थं येऽनुपश्यन्ति धीराःतेषां सुखं शाश्वतं नेतरेषाम् ॥ १२॥

जो सब प्राणियों का अन्तर्यामी अद्वितीय एवं सबको वश में रखने वाला (परमात्मा) (अपने) एक ही रूप को बहुत प्रकार से बना लेता है उस अपने अंदर रहने वाले (परमात्मा) को जो ज्ञानी पुरुष निरंतर देखते रहते हैं उन्हीं को सदा अटल रहने वाला परमानंद स्वरुप वास्तविक सुख (मिलता है) दूसरों को नहीं ||१२||

नित्योऽनित्यानां चेतनश्चेतनानाम् एको बहूनां यो विदधाति कामान् ।

तमात्मस्थं येऽनुपश्यन्ति धीराःतेषां शान्तिः शाश्वती नेतरेषाम् ॥ १३॥

जो नित्यों का (भी) नित्य (है) चेतनों का (भी) चेतन है (और) अकेला ही इन अनेक (जीवों) के कर्मफल भोगों का विधान करता है उस अपने अंदर रहने वाले (पुरुषोत्तम को) जो ज्ञानी निरंतर देखते रहते हैं, उन्ही को सदा अटल रहने वाली शान्ति (प्राप्त होती है) दूसरों को नहीं ||१३||

तदेतदिति मन्यन्तेऽनिर्देश्यं परमं सुखम् ।

कथं नु तद्विजानीयां किमु भाति विभाति वा ॥ १४॥

वह अनिर्वचनीय परम यह (परमात्मा ही है) (ज्ञानीजन) मानते हैं, उसको किस प्रकार से मैं भलीभांति समझूँ , क्या वह प्रकाशित होता है या अनुभव में आता है ||१४||

न तत्र सूर्यो भाति न चन्द्रतारकं नेमा विद्युतो भान्ति कुतोऽयमग्निः ।

तमेव भान्तमनुभाति सर्वं तस्य भासा सर्वमिदं विभाति ॥ १५॥

वहां न (तो) सूर्य प्रकाशित होता है न चन्द्रमा और तारों का समुदाय (ही प्रकाशित होता है), (और) न ही बिजलियाँ ही (वहां) प्रकाशित होती हैं, फिर यह (लौकिक) अग्नि कैसे ( प्रकाशित हो सकता है क्योंकि ) प्रकाशित होने पर ही (उसी प्रकाश से) ऊपर बतलाये हुए सूर्य आदि सब प्रकाशित होते है, उसी प्रकाश से यह सम्पूर्ण जगत प्रकाशित होता है ||१५||

इति कठोपनिषद् द्वितीय अध्याय द्वितीय वल्ली ॥

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