मन्त्रमहोदधि प्रथम तरङ्ग || मन्त्रमहोदधि तरङ्ग १ || Mantra Mahodadhi Taranga 1

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मन्त्रमहोदधि – प्रथम तरड्ग-‘मन्त्रमहोदधि’ इस ग्रंथमें अनेक मंत्रोंका समावेश है , जो आद्य माना जाता है। श्रीमन्महीधर भट्ट विरचित ‘मन्त्रमहोदधि’ उनकी स्वोपज्ञ ‘नौका’ टीका के साथ विद्वानों के समक्ष प्रस्तुत है । इस संस्करण में ‘अरित्र’ नामक हिन्दी व्याख्या संयोजित है। | यह ग्रन्थ इन्हीं तीनों से पूर्ण होता है । यह ग्रन्थ मन्त्रों का महासमुद्र है, जिसे पार करने के लिए नौका (यान) की आवश्यकता है, किन्तु यह नौका बिना डाड़े ( अरित्र) के नहीं । चल सकती थी, इसलिए अरित्र नामक हिन्दी व्याख्या अत्यन्त सजग होकर लिखी गई है। मूल, टीका तथा हिन्दी में एकवाक्यता का सदैव ध्यान दिया गया है । मन्त्रों के अक्षरों की गणना तीनों ही स्थल पर गिन कर एक सी प्रस्तुत की गई हैं । कहीं कहीं इन्हें मन्त्रों के बाद कोष्ठक में दर्शाया भी गया है । मन्त्रों के बीजाक्षरों की वर्तनी का ध्यान पदे-पदे रक्खा गया है । यन्त्रों के चित्र अत्यन्त अशुद्ध थे जिन्हे यथासम्भव शुद्ध करने का प्रयास किया गया है, फिर भी कोई सर्वज्ञ नहीं है, त्रुटि सम्भावित है, अतः बिना गुरु के मन्त्र-दीक्षा लिए इनका प्रयोग नहीं करना चाहिए।

मन्त्रमहोदधि – प्रथम तरड्ग

नौका

नत्वा लक्ष्मीपतिं देवं स्वीये मन्त्रमहोदधौ ।

नावं विरचये रम्यां तरणाय गुणैर्युताम् ‍ ॥

अरित्र

साम्बं सदाशिवं देवं तन्त्रमार्गप्रदर्शकम् ।

मङ्गलाय च लोकानां भक्तानां रक्षणाय च ॥१॥

विद्याप्रदं गणपतिं सर्वप्रत्यूहनाशकम् ।

भक्तभीष्टप्रदातारं बुद्धिजाड्यापहारकम् ॥२॥

तथा श्रेयस्करीं शक्तिं नत्वा मन्त्रमहोदधेः ।

भाषाटीकां वितनुते मालवीयः सुधाकरः ॥३॥

नारोचकीं न वा क्लिष्टां नाव्यक्तां न च विस्तृताम् ।

पदाक्षरानुगां स्पष्टां भावमात्रप्रबोधिनीम् ॥४॥

मङ्गलाचरणम् ‍

प्रणम्य लक्ष्मीनृहरिं महागणपतिं गुरुम् ‍ ।

तन्त्राण्यनेकान्यालोक्य वक्ष्ये मन्त्रमहोदधिम् ‍ ॥१॥

लक्ष्मी से युक्त श्रीनृसिंह भगवान् , महागणपति एवं श्रीगुरु (श्रीनृसिंहाश्रम ) को नमस्कार कर तथा अनेक तन्त्र ग्रन्थों का आलोडन कर मन्त्र ही जिसमें महान् उदक हैं ऐसे मन्त्रमहोदधि नामक ग्रन्थ का (मैं महीधर ) निर्माण करता हूँ ॥१॥

प्रातरुत्थाय शिरसि ध्यात्वा गुरुपदाम्बुजम् ‍ ।

आवश्यकं विनिर्वर्त्य स्नातुं यायात् ‍ सरित्तटे ॥२॥

मन्त्रवेत्ता ब्राह्ममुहूर्त में उठकर शिरःप्रदेश में अपने श्रीगुरु के चरनकमलों का ध्यान करे । फिर आवश्यक शौचादि क्रिया से निवृत्त होकर स्नान के लिए किसी नदी तट पर जाए ॥२॥

श्रौतेन विधिना स्नात्वा मन्त्रस्नानं समाचरेत् ‍ ।

स्मार्तसन्ध्यां मन्त्रसन्ध्यां कृत्वा देवं विचिन्तयेत् ‍ ॥३॥

सरिता में श्रौतविधि से स्नान कर मन्त्रस्नान करे । तदन्तर स्मृतिशास्त्रों में कही गयी विधि के अनुसार सन्ध्योपासन करे ॥३॥

विमर्श — स्नान तीन प्रकार के कहे गये हैं – १ .कायिकस्नान , २ . मन्त्रस्नान तथा ३ . मानस स्नान । कायिक स्नान जल से , मन्त्रस्नान मन्त्र को पढते हुए भस्मादि द्वारा तथा मानस स्नान गुरु के चरणकमल से निकली हुई अमृतधारा से करना चाहिए । इसका वर्णन पूजा तरङ्ग (२१ ) में आगे करेंगे ॥३॥

द्वारपूजाक्रमः

गृहद्वारमथागत्य द्वारपूजां समाचरेत् ‍ ।

द्वारमस्त्राम्बुना प्रोक्ष्य गणेशं चोर्ध्वतो यजेत् ‍ ॥४॥

द्वारपूजा — तदनन्तर घर के दरवाजे पर आकर द्वार की पूजा करनी चाहिए । उसकी विधि इस प्रकार है – प्रथमतः साधक द्वार की ’अस्त्र -मन्त्र ’ (अस्त्राय फट् ) से अभिमन्त्रित जल से प्रोक्षण करे । तत्पश्चात् उसके ऊपर स्थित श्रीगणेश देवता का पूजन करना चाहिए ॥४॥

महालक्ष्मी दक्षभागे वामभागे सरस्वतीम् ‍ ।       

पुनर्दक्षे यजेद् ‍ विघ्नं गङां च यमुनामपि ॥५॥

पुनः द्वार के दक्षिण भाग में महालक्ष्मी तथा वामभाग में महासरस्वती का पूजन करे । फिर दाहिनो ओर विघ्नेश्वर , गङ्गा एवं यमुना का पूजन करे ॥५॥

पुनर्वामे क्षेत्रपालं स्वः सिन्धुयमुने अपि ।    

पुनर्दक्षे तु धातारं विधातारं तु वामतः ॥६॥

तद्वन्निधि शङ्खपद्मौ ततोऽर्च्चेद् ‌ द्वारपालकान् ‍ ।

तदनन्तर वाम भाग में क्षेत्रपाल (स्वर्ग ) सिन्धु तथा यमुना का पूजन कर दक्षिण भाग में धाता तथा वामभाग में विधाता का पूजन करे । तदनन्तर द्वार के दक्षिण में शङ्खनिधि और वामभाग में पद्मनिधि का पूजन कर आगे कहे जाने वाले द्वार स्थित तत्तद्देवता रुप द्वारपालों का पूजन करे ॥६ -७॥

प्राणायामविधिः

द्वारपूजां विधायेत्थं प्रविश्यार्चनमन्दिरम् ‍ ॥७॥

उपविश्यासने नत्वा गणेशगुरुदेवताः ।

प्राणानायम्य तारेण पूरकुम्भकरेचकैः ॥८॥

द्वात्रिंशता चतुःषष्टया क्रमात् ‍ षोडशसङ्खयया ।

देवार्चायोग्यताप्राप्त्यै भूतशुद्धिं समाचरेत् ‍ ॥९॥

प्राणायाम की विधि — इस प्रकार द्वारपूजा संपादन कर पूजागृह में प्रवेश कर आसन पर बैठ कर गणेश , गुरु एवं इष्टदेवता को प्रणाम करना चाहिये । बत्तीस बार प्रणव का जप करते हुए प्राणावायु को ऊपर खींच कर पूरक , चौंसठ बार प्रणव का जप करते हुए प्राणवायु को रोक कर कुम्भक तथा सोलह बार प्रणव का जप करते हुए प्राणवायु को छोडते हुए रेचक द्वारा प्राणायाम करे । तदनन्तर देवार्चन की योग्यता प्राप्त करने के लिये ‘भूतशुद्धि ’ की क्रिया करे ॥७ -९॥

विमर्श — ‘भूतशुद्धि ’ वह क्रिया है जिसके द्वारा शरीरगत पृथ्व्यादि पञ्च्यादि पञ्चतत्त्वों को शुद्ध कर अव्यय परमात्मा के अर्चन की योग्यता प्राप्त की जाती है ॥

मूलाधारस्थितां देवीं कुण्डलीं परदेवताम् ‍ ।

बिसतन्तुनिभां विद्युत्प्रभां ध्यायेत् ‍ समाहितः ॥१०॥

मुलाधारात् ‍ समुत्थाप्य संङुता हृदयाम्बुजे ।

सुषुम्नामार्गमाश्रित्यादाय जीवं हृदम्बुजात् ‍ ॥११॥

प्रदीपकलिकाकारं ब्रह्मरन्ध्रगतं स्मरेत् ‍ ।

जीवं ब्रह्मणि संयोज्य हंसमन्त्रेण साधकः ॥१२॥

भूतशुद्धि — भूतशुद्धि की विधि इस प्रकार हैं – सर्वप्रथम मूलाधार चक्र में स्थित कमलनाल तन्तु के समान एवं सूक्ष्म विद्युत प्रभा के समान देदीप्यमान परदेवता -स्वरुप कुण्डलिनी का एकाग्रचित्त हो ध्यान करे । पुनःउस कुण्डलिनी का मूलाधार से सुषुम्ना मार्ग द्वारा ऊपर ले जा कर हृदयकमल में स्थापित करे । वहाँ प्रदीप शिखा के आकार वाले जीव से संयुक्त कर पुनः ब्रह्मरन्ध्र में स्थित सहस्त्रार चक्र में ले जा कर स्थापित कर् इस प्रकार ध्यान करना चाहिए । यतः वहाँ परमात्मा परब्रह्म का निवास है , अतः साधक को ‘हंसः आदि ’ मन्त्र का जप करते हुए जीव सहित कुण्डलिनी को उस परमात्मा में संयुक्त कर देना चाहिए ॥१० -१२॥

पाददिब्रह्मरन्ध्रान्तं स्थितं भूतगणं स्मरेत् ‍ ।

स्ववर्णबीजाकृतिभिर्युक्तं तद्विधिरुच्यते ॥१३॥

इस शरीर में पञ्चतत्त्व अपने अपने वर्ण (रंग ) आकृति (आकार ) एवं बीजाक्षर से युक्त हो कर पैर के तलवे से ले कर ब्रह्मरन्ध्र पर्यन्त स्थित हैं । अतः उनके उन उन रंगों , आकृतियों एवं बीजाक्षरों का स्मरण कर भूतशुद्धि करनी चाहिए । उसका विधान इस प्रकार है – ॥१३॥

पादादिजानुपर्यन्तं चतुष्कोणं सवज्रकम् ‍ ।

भूबीजाढ्यं स्वर्णवर्णं स्मरेदेवनिमण्डलम् ‍ ॥१४॥

पैर के तलवे से ले कर जानुपर्यन्त पृथ्वी तत्त्व का स्मरण करे । इसकी आकृति चौकोर एवं वज्र के समान है । उसका भू बीज (लं ) यह बीजाक्षर है तथा स्वर्ण के समान पीला है । इस प्रकार साधक को भू -तत्त्व का ध्यान करना चाहिए ॥१४॥

जान्वाद्यानाभिचन्द्रार्द्धनिभं पद्मद्वयाङ्कितम् ‍ ।

वंबीजयुक्तं श्वेताभमम्भसो मण्डलं स्मरेत् ‍ ॥१५॥

जानु से ले कर नाभिपर्यन्त जल तत्त्व है । जिसकी आकृति अर्धचन्द्राकार तथा उसका वर्ण श्वेत है । इसमें दो कमल के चिन्ह हैं । इसका बीज ‘वम् ’ अक्षर है , इस प्रकार वहाँ सोम – मण्डल का ध्यान करना चाहिए ॥१५॥

नाभेर्हृदयपर्यन्तं त्रिकोणं स्वस्तिकान्वितम् ‍ ।

रंबीजेन युतं रक्तं स्मरेत् ‍ पावकमण्डलम् ‍ ॥१६॥

नाभि से ले कर हृदय पर्यन्त अग्नि तत्त्व है । इसकी आकृति स्वस्तिकयुक्त त्रिकोणाकार है । वर्ण रक्त है तथा ‘रम् ’ यह बीजाक्षर है । इस प्रकार वहाँ अग्निमण्डल का ध्यान करना चाहिए ॥१६॥

हृदो भ्रूमध्यपर्यन्तवृत्तं षड्‌बिन्दुलाञ्छितम् ‍ ।

यंबीजयुक्तं धूम्राभं नभस्वन्मण्डलं स्मरेत् ‍ ॥१७॥

हृदय से ले कर भ्रूमध्य पर्यन्त वायु तत्त्व है जो गोलाकार एवं षड्‍बिन्दुओं से युक्त हैं , इसका वर्ण धूम्र के समान है तथा ‘यम् ’ बीजाक्षर है । इस प्रकार वहाँ वायुमण्डल का ध्यान करना चाहिए ॥१७॥

आब्रह्यरन्ध्रं भ्रूमध्याद् ‍ वृत्तं स्वच्छमनोहरम् ‍ ।

हंबीजयुक्तमाकाशमण्डलं प्रविचिन्तयेत् ‍ ॥१८॥

भ्रूमध्य से ब्रह्मरन्ध्र पर्यन्त आकाश है जो अत्यन्त मनोहर एवं वृत्ताकार है । इसका वर्ण स्वच्छ है । यह ‘हम् ’ बीजाक्षर से युक्त है । इस प्रका वहाँ आकाशमण्डल का ध्यान करना चाहिए ॥१८॥

विमर्श — इस प्रकार पञ्चमहाभूत के ध्यान से साधक को शुद्धि प्राप्त होती है ॥

पद्धस्तपायूस्थावाक्‌क्रमाद्धयेया धरादिगाः ।

स्वकीयविपर्ययैर्युक्ता गमनग्रहणादिभिः ॥१९॥

घ्राणं च रसना चक्षुः स्पर्शनं श्रोत्रमिन्द्रियम् ‍ ।

क्रमाद्धयेयं धरादिस्थं गन्धादिगुणसंयुतम् ‍ ॥२०॥

पृथ्वी आदि मण्डलों में अपने गमन एवं आदान विषयों के साध पाद , हस्त , पायु ,उपस्थ एवं वाक् – एन कर्मेन्द्रियों का गन्ध , रस , रुप , स्पर्श एवं शब्दादि विषयों का तथा १ . नासिका , २ . जिहवा , ३ . चक्षु , ४ . त्वक् ,एवं ५ . कर्ण -इन सभी पाँच ज्ञानेन्द्रियों का चिन्तन करना चाहिए ॥१९ -२०॥

ब्रह्मविष्णुशिवेशानाः सदाशिवैतीरिताः ।

धरादिभूतसङेवशा ध्येयास्तत्मण्डलेषु ते ॥२१॥

निवृत्तिश्च प्रतिष्ठा च विद्याशान्तिश्चतुर्थिका ।

शान्त्यतीतेति पञ्चैव कला ध्येया धरादिगाः ॥२२॥

समानोदानव्यानाश्चापानप्राणौ च वायवः ।

धरादिमण्डलगताः पञ्चध्येयाः क्रमादिमे ॥२३॥

इन तत्त्वों के क्रमशः १ . ब्रह्मा , २ . विष्णु , ३ . शिव , ४ . ईशान एवं , ५ . सदाशिव देवता कहे गये हैं । इनकी १ . निवृत्ति , २ . प्रतिष्ठा , ३ . विद्या , ४ . शान्ति एवं ५ . शान्त्यतीया -ये क्रमशः कलायें हैं तथा १ . समान , २ . उदान , ३ . व्यान , ४ . अपान एवं ५ . प्राण इनके पञ्च वायु हैं । अतः पृथिव्यादि मण्डलों में क्रमशः इनका भी ध्यान करना चाहिए ॥२१ -२३॥

विमर्श — इस प्रकार से निष्कर्ष हुआ कि पृथ्वी आदि मण्डलों में – पञ्चकर्मेन्द्रियों , पाँच विषयों , पञ्चज्ञानेन्द्रियों का चिन्तन कर उन तत्त्वों के पाँच देवता , पाँच कलाएँ और पञ्चवायु का भी ध्यान करे ॥

एवंभूतानि सञ्चिन्त्य प्रत्येकं प्रविलापयेत् ‍ ।

भुवं जले जलं वहनौ वहिनं वायौ नभस्यमुम् ‍ ॥२४॥

विलाप्य खमहङ्कारे महत्तत्त्वेप्यहङ्‌कृतिम् ‍ ।

महान्तं प्रकृतौ मायामत्मनि प्रविलापयेत् ‍ ॥२५॥

इस प्रकार पञ्चभूततत्त्वों का ध्यान कर भूमि को जल में , जल को अग्नि में , अग्नि को वायु में , वायु को आकाश में , आकाश को अहङ्कार में , अहङ्कार को महत्तत्त्व में , महत्तत्त्व को प्रकृति में तथा प्रकृति को माया में एवं माया को आत्मा में विलीन कर देना चाहिए ॥२४ -२५॥

शुद्धसच्चिन्मयो भूत्वा चिन्तयेत् ‍ पापपूरुषम् ‍ ।

दक्षकुक्षिस्थितं कृष्णमङ्‌गुष्ठपरिमाणकम् ‍ ॥२६॥

विप्रहत्याशिरो युक्तं कनकस्तेयबाहुकम् ‍ ।

मदिरापानहृदयं गुरुतल्पकटीयुतम् ‍ ॥२७॥

पापिसंयोगिपद्वन्द्वमुपपातकरोमकम् ‍ ।

खङ्‍गचर्मधरं दुष्टमधोवक्त्रं सुदुःसहम् ‍ ॥२८॥

इस प्रकार शुद्ध सच्चिदानन्दमय आत्मस्वरुप हो कर पापपुरुष का ध्यान करना चाहिए । इसका स्वरुप इस प्रकार है – पापपुरुष का निवास वामकुक्षि में है वह कृष्ण वर्ण का तथा अङ्गगुष्ठ मात्र परिणाम वाला है , उसके शिर ब्रह्महत्या है , सुवर्णस्तेय उसके हाथ हैं , मदिरापान उसका हृदय है , गुरुतल्पगमन उसकी कटि है , उसके दोनों पैर पापपुरुषों के संसर्ग से युक्त हैं , उपपातक उसके रोम हैं । वह १ खड्‍ग (अविवेक ) एवं २ चर्म (अहङ्कार ) धारण किये हुये हैं । वह दुष्ट है तथा मुख नीचे किये रहता है , जो अत्यन्त भयानक भी है ॥२६ -२८॥

वायुबीजं स्मरन् ‍ वायुं संपूर्यैनं विशोषयेत् ‍ ।

स्वशरीयुतं मन्त्री वहिनबीजेन निर्दहेत् ‍ ॥२९॥

कुम्भके परिजप्तेन ततः पापनरोद्धवम् ‍ ।

बहिर्भस्मसमुत्सार्य्य वायुबीजेन रेचयेत् ‍ ॥३०॥

अब उसके भस्म करने कर उपाय कहते हैं – वायु बीज ‘यं ’ का स्मरण कर पूरक विधि से उस पापपुरुष का शोषण करे । फिर अग्नि बीज ‘रम् ’ का जप करते हुये साधक अपने शरीर के साध उसे भस्म कर देवे । तदनन्तर पुनः वायु बीज (यं ) का जप कर उस भस्मीभूत पापपुरुष को रेचक द्वारा बाहर निकाल देवे ॥२९ -३०॥

सुधाबीजेन देहोत्थं भस्मसंप्लावयेत् ‍ सुधीः ।

भूबीजेन घनीकृत्य भस्मतत्कनकाण्डवत् ‍ ॥३१॥

विशुद्धमुकुराकारं जपन्बीजं विहायसः ।

मूर्द्धादिपादपर्यन्तान्यङानि रचयेत् ‍ सुधीः ॥३२॥

तदनन्तर बुद्धिमान साधक सुधा बीज ‘वम् ’ का जप करते हुए उस देह के भस्म को आप्लवित (आर्द्र ) करे । फिर भू बीज ‘लम् ’ इस मन्त्र का जप कर भस्म को घना सोने के अण्डे के समान कठोर बनावे । तदनन्तर विशुद्ध दर्पण के समान स्वच्छ आकाश बीज ‘हम् ’ का जप करते हुए शिर से ले कर पैर तक के अङ्गों का निर्माण करे ॥३१ -३२॥

आकाशादीनि भूतानि पुनरुत्पादयेच्चितः ।

सोऽहं मन्त्रेण चात्मानमानयेद् ‍ हृदयाम्बुजे ॥३३॥

कुण्डली जीवमादाय परसंगात् ‍ सुधामयम् ‍ ।

संस्थाप्य हृदयाम्भोजे मूलाधारगतां स्मरेत् ‍ ॥३४॥

फिर चित्स्वरुप आत्मा से आकाशादि पञ्चभूतों को उत्पन्न कर ‘सोऽहम् ’ इस मन्त्र का जप कर हृदयकमल में आत्मा को स्थापित करे । फिर उस परतत्त्व आत्मा से सुधामयी कुण्डलिनी तथा जीव को ले कर जीव को हृदयकमल में और कुण्डलिनी को मूलाधार में स्थापित कर उनका स्मरण करे ॥३३ -३४॥

प्राणप्रतिष्ठा

भूतशुद्धिं विद्यायैवं प्राणस्थापनमाचरेत् ‍ ।

प्राणप्रतिष्ठामन्त्रस्यं मुनयोऽजेशपद्मजाः ॥३५॥

छन्दऋग्यजुषं सामप्राणशक्तिस्तु देवता ।

पाशो बीजं त्रपा शक्तिर्विनियोगोऽसुसंस्थितौ ॥३६॥

प्राणप्रतिष्ठा — इस प्रकार भूतशुद्धि कर उसमें पुनः प्राणप्रतिष्ठा करे । उसके विनियोग की विधि इस प्रकार है – ॐ अस्य श्रीप्राणप्रतिष्ठामन्त्रस्य अजेशपद्मजाऋषयः ऋग्यजुःसामानि छन्दांसि प्राणशक्तिर्देवता पाश (आं ) बीजं त्रपा (हीं ) शक्तिः क्रौं कीलकं प्राणप्रतिष्ठापने विनियोगः ॥३५ -३६॥

ऋषीञ्छिरसि वक्त्रे तु छन्दांसि हृदिदेवताम् ‍ ।

गुह्ये बीजं पदोः शक्तिं न्यस्य कुर्यात्षडङुकम् ‍ ॥३७॥

तदनन्तर ऋषियों के नाम ले कर शिर में , छन्द का नाम लेकर मुख में , देवता का नाम ले कर हृदय में , बीजाक्षर का उच्चारण कर गुह्यस्थान में और शक्ति का नाम ले कर परि में न्यास कर फिर (वक्ष्यमाण रीति से ) षडङ्गन्यास करना चाहिये ॥३७॥

विमर्श – ऋष्यादिन्यास — १ . अजेशपद्मजाऋषिभ्यो नमः शिरसि , २ . ऋग्यजुःसामछन्देभ्यो नमः मुखे , ३ . प्राणशक्तिर्देवतायै नमः हृदि , ४ . आं बीजाय नमः गुह्ये , ५ . ह्रीं शक्तये नमः पादयोः ६ .क्रौं कीलकाय नमः सर्वाङ्गे ॥

कवर्गनभआद्यैर्हृच्च शब्दाद्यैः शिरः स्मृतम् ‍ ।

टश्रोत्राद्यैः शिखाप्रोक्ता तवर्गाद्यस्तनुच्छदम् ‍ ॥३८॥

पवक्तव्यादिभिर्नेत्रमस्त्रं येनान्तरिन्द्रियैः ।

आत्मनेतान्मनूनङान् ‍ विन्यसेद् ‍ हृदयादिषु ॥३९॥

कवर्ग एवं नभ आदि से हृदय में , चवर्ग एवं शब्दादि से शिर में , टवर्ग एवं श्रोत्रादि से शिखा में , तवर्ग एवं वाक् आदि से कवच में , पवर्ग एवं वक्तव्यादि से नेत्र में , यवर्ग एवं अतीन्द्रियादि से करतल में न्यास करना चाहिए । फिर अपने हृदयादि अङ्गों में इन मन्त्रों का न्यास करना चाहिए ॥३८ -३९॥

पञ्चमं प्रथमं पश्चाद् ‍ द्वितीयं च चतुर्थकम् ‍ ।

तृतीयमित्थं क्रमतो वर्गवर्णान् ‍ समुच्चरेत् ‍ ॥४०॥

यवर्गेऽप्येवमुच्चार्य नभः श्वेतोऽन्तिमो भृगुः ।

विमलश्चेति चोच्चार्याः क्रमाद्वर्णाः सबिन्दवः ॥४१॥

नभो वाय्वग्निवार्भूमिनभ आदय ईरिताः ।

शब्दस्पर्शो रुपरसगन्धाः शब्दादयो मताः ॥४२॥

श्रोत्रं त्वङ्‌नयनं जिहवाघ्राणं श्रोत्रादयः स्मृताः ।

वाक्पाणी पादपायू चोपस्थो वागादयः पुनः ॥४३॥

वक्तव्यादानगमविसर्गानन्दसंज्ञकाः ।

वक्तव्याद्या बुद्धिमनोहंकाराश्चित्तसंयुताः ॥४४॥

अन्तरिन्द्रिय संज्ञाः स्युरेवमुक्तं षडङुकम् ‍ ।

न्यास का प्रकार — न्यास में पहले प्रत्येक वर्ग का पञ्चम वर्ण , फिर क्रमशः प्रथम , द्वितीय , चतुर्थ तदनन्तर तृतीय वर्ण , इन सभी का अनुस्वार सहित उच्चारण करना चाहिए । यवर्ग में प्रथम शं यं रं वं लं इन पाँच अक्षरों का उच्चारण कर नभ (हं ), श्वेत (षं ),तिभं (क्षं ), भृगु (सं ) एवं विमल (लं ) इन अक्षरों को सानुस्वार उच्चारण करना चाहिए । श्लोक में नभ आदि का अर्थ नभः ‘वाय्वग्निवार्भूमि ’ है , शब्दादि का अर्थ ‘शब्दस्पर्शरुपरसगन्ध ’ है श्रोत्रादि का अर्थ ‘श्रोत्रत्वङ्‍नयन जिहवाघ्राण ’ हैं , वाक् आदि का अर्थ ‘वाक्पाणि -पादपायोपस्थ ’ है , वक्तव्यादि का अर्थ ‘वक्तव्यादानगमविसर्गानन्द ’ है तथा अन्तरिन्द्रिय का अर्थ ‘बुद्धिमनोहङ्कारचित्त ’ है , इस प्रकार इन श्लोकों से षडङ्गन्यास का प्रकार बताया गया है ॥४० -४५॥

विमर्श — इन श्लोकिं का स्पष्टार्थ निम्नलिखित है –

ॐ ङं कं खं घं गं नभोवाय्वग्निवार्भूम्यात्मने हृदयाय नमः ।

ॐ ञं चं छं झं जं शब्दस्पर्शरुपरसगन्धात्मने शिरसे स्वाहा ।

ॐ णं टं ठं ढं डं श्रोत्रत्वङ्‌नयनजिहाप्राणात्मने शिखायै वषट् ‍ ।

ॐ नं तं थं धं दं वाक्पाणिपादपायूपस्थात्मने कवचाय हुम् ।

ॐ मं पं फं भं बं वक्तव्यादानगमनविसर्गानन्दात्मने नेत्रत्रयाय वौषट् ।

ॐ शं यं रं वं लं हं षं क्षं लं बुद्धिमनोहंकराचित्तात्मने अस्त्राय फट् ॥

नाभेरारभ्य पादान्तं पाशबीजं प्रविन्यसेत् ‍ ॥४५॥

नाभ्यन्तं हृदयाच्छक्तिं हृदन्तं मस्तकाच्छृणिम् ‍ ।

षडङ्गन्यास के पश्चात् नाभि से ले कर पैर के तलवे तक पाश बीज (आं ) का न्यास करे । हृदय से नाभि तक शक्तिबीज (हीम् ) का न्यास करे , मस्तक से हृदय तक श्रृणि (क्रौम् ) का न्यास करे ॥४५ -४६॥

विमर्श — तद् ‍ यथा – नाभेरारभ्य पादान्तं पाशबीजं (आं ) न्यसामि । हृदयादारभ्य नाभ्यन्तं शक्तिबीजं (हीम् ) न्यसामि । मस्तकादारभ्य हृदयान्तं श्रणिबीजं (क्रौं ) न्यसामि ॥

त्वगसृड्‌मांसमेदोस्थिमज्जाशुक्राणि विन्यसेत् ‍ ॥४६॥

आत्मने हृदयान्तानि यादिसप्तादिकान्यपि ।

ओजः सद्यान्विताकाशपूर्वं प्राणं तु खादिकम् ‍ ॥४७॥

भृग्वादिकं न्यसेज्जीवमेतान् ‍ हृदयदेशतः ।

यकाराद्या आद्यवर्णाः सर्वेस्युश्चद्रभूषिताः ॥४८॥

ततः समस्तमूलेन मूर्ध्वाविचरणावधि ।

विधाय व्यापकन्यासं विन्यसेत् ‍ पीठदेवताः ॥४९॥

त्वक् , असृज् , मांस मेद , अस्थि ,मज्जा एवं शुक्र शब्द के आगे ‘आत्मने नमः ’ लगाकर हृदय पदेश में न्यास करे । उनके आदि में सानुस्वार यकारादि सात वर्णों का उच्चारण कर तथा फिर सद्य (ओ ) से युक्त आकाश (ह ) को प्रारम्भ में उच्चारण कर ‘ओजात्मने नमः ’ ख आकाश बीज (हं ) के आगे ‘प्राणात्मने नमः ’ लगा कर तथा भृगु (स ) के आगे ‘जीवात्मने नमः ’ लगा कर हृदय में न्यास करे । फिर यकारादि समस्त वर्णो को चन्द्र (अनुस्वार ) से भूषित कर मूलमन्त्र से मूर्धापि चरणावधि व्यापक न्यास करके तब पीठदेवता का न्यास करे ॥४६ -४९॥

विमर्श — यथा – ॐ यं त्वगात्मने नमः हृदि , ॐ रं असृगात्मने नमः हृदि , ॐ लं मांसात्मने नमः हृदि , ॐ वं मेदसात्मने नमः हृदि , ॐ शं अस्थ्यात्मने नमः हृदि , ॐ षं मज्जात्मने नमः हृदि , ॐ सं शुक्रात्मेन नमः हृदि , ॐ हां ओजात्मने नमः हृदि , ॐ हं प्राणात्मने नमः हृदि , ॐ सं जीवात्मने नमः हृदि । इस प्रकार उक्त मन्त्रों का उच्चारण कर हृदय में न्यास करे । तत्पश्चात् ‘ॐ यं रं लं वं शं षं सं हं क्षं मूर्धादिचरणावधि व्यापकं करोमि ’ – पढ व्यापक न्यास करे ॥

पीठदेवतान्यासः

मण्डूकश्चार्थं कालाग्नी रुद्र आधारशक्तियुक् ‍ ।

कूर्मोधरासुधासिन्धुः श्वेतद्वीपं सुराङि‌घ्रपाः ॥५०॥

मणिहर्म्यं हेमपीठं धर्मो ज्ञानं विरागता ।

ऐश्वर्यं धर्मपूर्वास्तु चत्वारस्ते नञादिकाः ॥५१॥

धर्मादयः स्मृताः पादाः पीठगात्राणि चेतरे ।

मध्येऽनन्तस्तत्त्वपद्ममानन्दमयकन्दकम् ‍ ॥५२॥

संविन्नाल ततः प्रोक्ता विकारमयकेसराः ।

प्रकृत्यात्मकपत्राणि पञ्चाशद्वर्णकर्णिका ॥५३॥

सूर्यस्येन्दोः पावकस्य मण्डलत्रितयं ततः ।

सत्त्वं रजस्तमः पश्चादात्मयुक्तोन्तरात्मना ॥५४॥

परमात्माथ ज्ञानात्मा तत्त्वे मायाकलादिके ।

विद्यातत्त्वं परं तत्वं कथिताः पीठदेवताः ॥५५॥

अब पीठ देवता का न्यास कहते हैं – सानुस्वार अपने नाम के आद्यक्षर सहित तत्तद् पीठ देवताओं का न्यास पीठ के मध्य में करना चाहिए -मण्डूक , कालाग्निरुद्र , आधारशक्ति , कूर्म , पृथ्वी , सुधासिन्धु (क्षीरसागर ), श्वेतद्वीप , कल्पवृक्ष , मणिमण्डप , स्वर्ण सिंहासन धर्म , ज्ञान , वैराग्य , ऐश्वर्य ,अधर्म , अज्ञान , अवैराग्य , अवैराग्य ,अनैश्वर्य ये पीठ के देवता हैं । जिसमें धर्म से लोकर अनैश्वर्य पर्यन्त पीठ के पाद कहे गये हैं , शेष पीठ के अङ्ग हैं पीठ के मध्य में रहने वाल अनन्त , पद्म , आनन्द , मयकन्दक , संविन्नाल , विकारमयकेसर , प्रकृत्यात्मकपत्र , पञ्चाशद्वर्ण कर्णिका , सूर्यमण्डल , चन्द्रमण्डल , अग्निमण्डल , सत्त्व , रजस् , तमस् ,आत्मा ,अन्तरात्मा ,परमात्मा ,ज्ञानात्मा ,मायातत्त्व ,कलातत्त्व ,विद्यातत्त्व एवं परतत्त्व – ये सभी पीठ देवता कहे हये हैं ॥५० -५५॥

विमर्श – न्यासविधि — यथा – पीठ के मध्य में – मं मण्डूकाय नमः , कं कालाग्निरुद्राय नमः , आं आधारशक्तये नमः , कूं कूर्माय नमः , पृं पृथिव्यै नमः , क्षीं क्षीरसमुद्राय नमः , श्वें श्वेतद्वीपाय नमः , कं कल्पवृक्षाय नमः , मं मणिमण्डलाय नमः , स्वं स्वर्णसिंहासनाय नमः , इन मन्त्रों से तत्तद्‍देवताओं का न्यास करना चाहिए ।

पुनः पीठ के चारों कोणों में क्रमशः आग्नेय कोण से प्रारम्भ कर – धं धर्माय नमः , ज्ञां ज्ञानाय नमः , वैं वैराग्याय नमः , ऐं ऐश्वर्याय नमः – इन मन्त्रों से न्यास करना चाहिए ।

पुनः पीठ के चारों दिशाओं में पूर्व दिशा से प्रारम्भ कर – अं अधर्माय नमः , अं अज्ञानाय नमः , अं अवैराग्याय नमः , अं अनैश्वर्याय नमः – इन मन्त्रों से तत्तद्‍देवताओं का न्यास करना चाहिए ।

पुनः मध्ये में – अं अनन्ताय नमः , पं पद्माय नमः , आं आनन्दमयकन्दकाय नमः , सं संविन्नालाय नमः , विं विकारमयकेसरेभ्यो नमः , प्रकृत्यात्मकपत्रेभ्यो नमः , पं पञ्चाशद्‍वर्णकर्णिकायै नमः , सं सूर्यमण्डलाय नमः , चं चन्द्रमण्डलाय नमः , अं अग्निमण्डलाय नमः , सं सत्त्वाय नमः , रजसे नमः कं कलातत्त्वाय नमः , विं विद्यातत्त्वाय नमः , पं परं तत्त्वाय नमः इन मन्त्रो द्वारा तत्तद्‌देवताओं का न्यास करना चाहिए ॥

पूजने सर्वदेवानां पीठे ताः परिपूजयेत् ‍ ।

न्यासस्थानानि चैतासां शरीरे बहिरर्चने ॥५६॥

पूजातरङे वक्ष्यन्ते सेन्द्वाद्यर्णयुताश्च ताः ।

सभी देवताओं के पूजन में पीठ पर उपर्युक्त देवताओं का पूजन करना चाहिए । बाह्यपूजा में शरीर में इन देवताओं का न्यास स्थान पूजा तरङ्ग (२१ ) में आगे कहेंगे ॥५६ -५७॥

प्राण्शक्तेस्ततः पूज्या अष्टौ पीठस्य शक्तयः ॥५७॥

हृदयाम्भोजपत्रेषु नवमीत्वधिकर्णिकम् ‍ ।

जयाख्या विजया पश्चादजिता चाऽपराजिता ॥५८॥

नित्या विलासिनी दोग्ध्री त्वघोरा मङुलान्तिमा ।

पाशादिबीजत्रितयं प्रोच्य पीठं दिशेत्ततः ॥५९॥

एवं देहमये पीठे ध्यायेद् ‍ देवीमसुप्रदाम् ‍ ।

नवयौवनर्वाध्यां पीवरस्तनशोभिनीम् ‍ ॥६०॥

तदनन्तर हृदयकमल में देवताओं के नामों को सानुस्वार आद्यवर्ण से युक्त आठ दलों पर , आठ पीठ की शक्तियों का पूजन चाहिए । इसी प्रकार कर्णिका में नवीं महाशक्ति का पूजन करना चाहिए । १ . जया , २ . विजया , ३ . अजिता , ४ . अपराजिता , ५ नित्या , ६ . विलासिनी , ७ . दोग्ध्री , ८ .अघोरा एवं ९ . मङ्गला – ये नौ पीठ की शक्तियाँ हैं । तदनन्तर पाशादि तीन बीजाक्षर (आं ह्रीं क्रौं ) पीठाय नमः इस मन्त्र से पीठ की पूजा कर देहमय पीठ पर , नवयौवन के गर्व से इठलाती हुई , पुष्टस्तन से सुशोभित प्राणशक्ति का ध्यान करना चाहिए ॥५७ -६०॥

विमर्श — यथा – हृदयकमल में १ . जं जयायै नमः , २ . विं विजयायै नमः , ३ . अं अजितायै नमः , ४ . अं अपराजितायै नमः , ५ . निं नित्यायै नमः , ६ . विं विलासिन्यै नमः , ७ . दों दोर्ग्ध्र्यै नमः , ८ . अं अघोरायै नमः – इन मन्त्रों से पीठ की आठ शक्तियों का पूज कर कर्णिका में ‘ मं मङ्गलायै नमः ’ से पूजन करना चाहिए तदनन्तर ‘आं ह्रीं क्रौं पीठाय नमः ’ इस मन्त्र से पीठ का पूजन कर देहमय पीठ पर प्राणशक्ति का ध्यान करना चाहिए ॥

प्राणशक्तिध्यानकथनम् ‍

पाशं चापासृक्कपाले सृणीषूञ्छूलं हस्तैर्बिभ्रतीं रक्तवर्णाम् ‍ ।

रक्तोदन्वत्पोतरक्ताम्बुजस्थां देवीं ध्यायेत् ‍ प्राणशक्तिं त्रिनेत्राम् ‍ ॥६१॥

अब ध्यान के लिये प्राणशक्ति का स्वरुप कहते हैं –

रक्तमय समुद्र में नौका पर लाल कमल के ऊपर बैठी बायें हाथ में पाश , धनुष , एवं शूलधारण किये हूये तथा दाहिने में कपाल , अंकुश एवं बाण धारण किये हुये तीन नेत्रों वाली तथा छः भुजाओं वाली प्राणशक्ति का ध्यान करना चाहिए ॥६१॥

अष्टपत्रस्थषट्‌कोणे ध्यात्वैवं पूजयेत्तु तान् ‍ ।

प्राग्रक्षोन्वायुकोणेषु ब्रह्मविष्णुशिवान् ‍ यजेत् ‍ ॥६२॥

अग्निवारुणशैवेषु वाणीलक्ष्मीहिमाद्रिजाः ।

केशरेषु षडङानि पत्रेष्वष्टौ तु मातरः ॥६३॥

ब्राह्मी माहेश्वरी चापि कौमारी वैष्णवी तथा ।

वाराही च तथेन्द्राणी चामुण्डा सप्तमी मता ॥६४॥

अष्टमी तु महालक्ष्मीः प्रोक्ता विश्वस्य मातरः ।

देवतापूजने प्राची मध्ये पूजकपूज्ययोः ॥६५॥

अष्टदल के भीतर षट्‌कोण में स्थित प्राणशक्ति का इस प्रकार ध्यान कर पूर्व , नैऋत्य एवं वायुकोण में क्रमशः ब्रह्मा , विष्णु एवं शिव का तथा आग्नेय , पश्चिम एवं ईशान में क्रमशः वाणी , लक्ष्मी एवं पार्वती का पूजन करना चाहिए । केशरों में – सं संविन्नालाय नमः विं विकारमयकेसरेभ्यो नमः , सं सूर्यमण्डलाय नमः चं चन्द्रमण्डलाय नमः , अं अग्निमण्डलाय नमः , मां मायातत्त्वाय नमः , कं कलातत्त्वाय नमः (देखिये श्लोक ५ ) का पूजन कर पत्रों में अष्टमातृकाओं का पूजन करना चाहिए । १ . ब्राह्यी , २ . माहेश्वरी , ३ . कौमारी , ४ . वैष्णवी , ५ . वाराही , ६ . इन्द्राणी , ७ . चामुण्डा एवां ८ . महालक्ष्मी ये आठ विश्व की मातायें कही गई हैं । देवपूजा के कार्य में पूज्य एवं पूजक के मध्य में पूर्व दिशा होती है ॥६२ -६५॥

विमर्श — षट्‌कोण एवं अष्टदल में निर्दिष्ट दिशा में उनके अधिपति तत्तद्‌देवताओं के नाम के मन्त्रों से उनका पूजन करना चाहिए ॥

इन्द्रादयः स्वदिक्ष्वेवं पूजनीया दिगीश्वराः ।

इन्द्रः कृशानुः कीनाशो निऋतिर्वरुणोऽनिलः ॥६६॥

सोमईशाननामाधोऽनन्त ऊर्ध्वं चतुर्मुखः ।

तत इन्द्रादिकाष्ठासु पूज्या दिक्पालहेतयः ॥६७॥

वज्रं शक्तिर्दण्डखड्‌गौ पाशोङ्‌कुशगदे अपि ।

त्रिशूलचक्रपद्मानि दशदिक्पालहेतयः ॥६८॥

एवमिष्टवा ‌ प्राणशक्तिं पञ्चावरणसंयुताम् ‍ ।

ध्यायन् ‍ हृदि करं धृत्वा त्रिर्ज्जपेत्तन्मनु सुधीः ॥६९॥

तदनन्तर अपनी अपनी दिशाओं में इन्द्र आदि दिक्पालों का पूजन करना चाहिए । १ . इन्द्र , २ . अग्नि , ३ . यम , ४ . निऋति , ५ . वरुण , ६ . वायु , ७ . सोम , ८ . ईशान , ९ . अनन्त एवं १० . ब्रह्मा – ये दश दिक्पलाल हैं । १ . वज्र , २ . शक्ति , ३ . दण्ड , ४ . खड्‍ग , ५ . पाश , ६ . अंकुश , ७ . गदा , ८ . त्रिशूल , ९ . चक्र एवं १० . पद्म – इन दिक्पालों के क्रमशः दश आयुध हैं । अतः दशों दिशाओं में इन्द्रादि एवं दश दिक्पालों का तथा उनके आयुधों का भी पूजन करना चाहिए । इस प्रकार पाँच आवरणों वाली (द्र .६१ -८ ) प्राण शक्ति का पूजन कर हृदय पर हाथ रख कर वक्ष्यमाण मन्त्र का तीन बार जप करना चाहिए ॥६६ -६९॥

विमर्श — प्रयोग – पूर्व ई इन्द्राय नमः , आग्नेयाम् आं अग्नये नमः , दक्षिणस्यां यं यमाय नमः , आदि क्रमपूर्वक पूर्व आदि दिशाओं के दस दिक्पालों का पूजन कर पुनः उसी क्रम से वं वज्राय नमः शं शक्तये नमः , दं दण्डाय नमः इत्यादि मन्त्रोम से उन उन दिक्पालों के आयुधों का भी पूजन करना चाहिए ॥

सप्तार्णमन्त्रोद्धारः

वक्ष्येऽधुना मनोस्तस्योद्धारं धातृसुखावहम् ‍ ।

पाशं मायां सृणिं प्रोच्य यादीन्सप्तेन्दुसंयुतान् ‍ ॥७०॥

तारान्वितं नभः सप्तवर्णं मन्त्रं ततोऽजपाम् ‍ ।

मम प्राणा इह प्राणा मम जीव इह स्थितः ॥७१॥ 

मम सर्वेन्द्रियाण्युक्त्वा मम वाङ्‌मन ईरयेत् ‍ ।

चक्षुः श्रोत्रघ्रानपदात् ‍ प्राणा इह समीर्य्य च ॥७२॥

आगत्य सुखमुच्चार्य्य चिरं तिष्ठन्तिवदं पठेत् ‍ ।

वहिनजायां च सप्तार्णमन्त्रमन्ते पुनर्वदते ‍ ॥७३॥

प्राणप्रतिष्ठामन्त्रोऽयं स्मृतः प्राणनिधापने ।

ममेत्यस्य पदस्यादौ पाशादीनि समुच्चरेत् ‍ ॥७४॥

यन्त्रेषु प्रतिमादौ वा प्राणस्थापनमाचरन् ‍ ।

मम स्थाने तस्य तस्य षष्ठयन्तामभिधां वदेत् ‍ ॥७५॥  

प्राणप्रतिष्ठा मन्त्रोद्धार —

अब ग्रन्धकार प्राणप्रतिष्ठा मन्त्र का उद्धार कह रहे हैं , – जिसका ज्ञान साधक को सुख देने वाला है । सर्वप्रथम पाश (आं ),माया (हीम् ),सृणि (क्रौम् ), इन बीजाक्षरों का उच्चारण कर सप्ताक्षर मन्त्र – ॐ क्षं सं हं सः हीम् अन्त में अजपा (हंसः ) का उच्चारण करना चाहिए । तदनन्तर ‘मम प्राणाः इह प्राणाः मम जीव इह स्थितः मम सर्वेंद्रियाणि इह स्थितानि मम वाङ्‍मनश्चक्षुः श्रोत्रघ्राणप्राणाः इहागत्य सुखं चिरं तिष्ठन्तु स्वाहा ’ का उच्चारण कर अन्त में सप्ताक्षर मन्त्र – ॐ क्षं सं हंसः ह्रीं ॐ – का पुनः उच्चारण करणा चाहिए । प्राणप्रतिष्ठा के लिये यही मन्त्र कहा गया हैं । ‘मम ’ इत्यादि पद के पहले पाशादि (आं ह्रीं क्रौं ) का उच्चारण करना चाहिए । यन्त्र एवं प्रतिमा आदि में प्राणप्रतिष्ठा करते समय मम के स्थान में यन्त्र अथवा प्रतिमा के देवता नाम ले कर उस आगे देवतायाः ऐसा षष्ठ‍यन्त पद का प्रयोग करना चाहिए । जैसे – शिवदेवतायाः दुर्गादेवतायाः आदि ॥७० -७५॥

विमर्श — यहाँ मम पद के साथ प्राणप्रतिष्ठा का मन्त्र उद्धृत करते हैं – ‘ॐ आं ह्रीं क्रौं यं रं लं वं शं षं सं हों ॐ क्षं सं हंसः ह्रीं ॐ हंसः ’ पूर्वोक्त रीति (द्र . १ .६० .६१ .) से प्राण शक्ति का ध्यान करे । ‘ॐ आं ह्रीं क्रौं यं रं लं वं शं षं सं हों ॐ क्षं सं हंसः ह्रीं ॐ हंसः मम प्राणाः इह प्राणाः ’ – मन्त्र का उच्चारणा कर प्राण की प्रतिष्ठा करे ।

इसी प्रकर ‘ॐ आं ’ से ले कर ‘ह्रीं ॐ हंसः ’ पर्यन्त मन्त्र पढ कर ‘मम जीव इह स्थितः ’ पढ कर जीवात्मा की हृदय में प्रतिष्ठा करे । पुनः ‘ॐ आं ’ से लेकर ‘ह्री ॐ हंसः ’ पर्यन्त मन्त्र पढ कर ‘मम सर्वेन्द्रियाणि इह स्थितानि ’ से समस्त इन्द्रियों की स्थापना करे । इसी प्रकार पूर्वोक्त मन्त्र के उच्चारण के पश्चात् ‘मम वाङ्‌मनश्चचक्षुः श्रोत्रघ्राणप्राणाः इहागत्य सुखं चिरं तिष्ठस्तु स्वाहा औं क्षं सं हंसः ह्रीं ॐ ’ इतना उच्चारण कर समस्त ज्ञानेन्द्रियों , मन एवं प्राण की भी प्रतिष्ठो करे । यह क्रिया तीन बार करनी चाहिए ॥

सबिन्दवो मेरुहंसाकाशाः सर्गीभृगुः पुनः ।

मायेति ताररुद्धोऽयं मन्त्रः सप्ताक्षरो मतः ॥७६॥

प्राण प्रतिष्ठा के सप्ताक्षर मन्त्र का उद्धार कहते हैं – सानुस्वार मेरु (क्षं ) हंस (सं ) आकाश (हं ) के साधु भृगु (सः ) एवं माया बीज (ह्रीं ) इन सबको ॐ से सम्पुटित करने पर सप्ताक्षर मन्त्र बन जाता है ॥७६॥

विमर्श — मन्त्र का उद्धार इस प्रकार हैं – ॐ क्षं सं हंसः ह्रीं ॐ ॥

एवं प्राणान् ‍ प्रतिष्ठाप्य मातृकान्यासमाचारेत् ‍ ।

अकाराद्याः क्षकारान्ता वर्णाः प्रोक्ता तु मातृका ॥७७॥

प्रजापतिर्मुनिस्तस्या गायत्रीछन्दं ईरितम् ‍ ।

सरस्वतीदेवतोक्ता विनियोगोऽखिलाप्तये ।

हलो बीजानि चोक्तानि स्वराः शक्तय ईरिताः ॥७८॥

पूर्वोक्त विधि से प्राणप्रतिष्ठा के पश्चात् अब मातृकान्यास कहते हैं – अकार से ले कर क्षकार पर्यन्त समस्त वर्णों की ‘मातृका ’ संज्ञा है । इस मातृका न्यास मन्त्र के प्रजापति रुषि , गायत्री छन्द , सरस्वती देवता और हल वर्ण बीज कहे गए हैं तथा स्वर शक्ति कही गई है । स्वाभीष्ट के लिए विनियोग का विधान कहा गया है ॥७७ -७८॥

साधक्र शिर , मुख एवं हृदयादि में क्रमशः ऋषि , छन्द तथा देवतादि के द्वारा ऋष्यादि न्यास करे । यह न्यास क्लीव वणो (ऋ ऋ लृ लृ ) को छोडकर मात्र हस्व एवं दीर्घ वर्णों से संपुटित होना चाहिए । इसी प्रकार हस्व एवं दीर्घ वर्णों से संपुटित सानुस्वार कवर्ग , चवर्ग , तवर्ग , पवर्ग , यवर्ग से करन्यास एवं षडङ्गन्यास करे ।

विमर्श – मातृका न्यास का विनियोग इस प्रकार है – ॐ अस्य श्रीमातृकान्यासमन्त्रस्य ब्रह्माऋषिः गायत्रीछन्दः सरस्वतीदेवता हलो बीजानि स्वराः शक्तयः (क्षं कीलकं ) अखिलाप्तये मातृकान्यासे विनियोगः ।

ऋष्यादि न्यास का प्रकार —

१ . ॐ अं प्रजापतये नमः आं शिरसि ,

२ . ॐ इं गायत्रीछन्दसे नमः ईं मुखे ,

३ . ॐ उं सरस्वतीदेवतायै नमः ऊं हृदि ,

४ . ॐ एं हल्बीजेभ्यो नमः ऐं गुह्ये ,

५ . ॐ ओं स्वरशक्तिभ्यो नमः औं पादयोः ,

६ . ॐ अं क्षं कीलकाय नमः अः सर्वाङ्गे

करन्यास एवं अङ्गन्यास —

१ . ॐ अं कं खं गं घं ङं आं अङ्‍गुष्ठाभ्यां नमः ।

२ . ॐ इं चं छं जं झं ञं ईं तर्जनीभ्यां नमः ।

३ . ॐ उं टं ठं डं ढं णं ऊं मध्यमाध्यां नमः ।

४ . ॐ एं तं थं दं धं नं ऐं अनामिकाभ्यां नमः ।

५ . ॐ ओं पं फं बं भं मं औं कनिष्ठिकाभ्यां नमः ।

६ . ॐ क्षं यं रं लं वं शं षं सं हं लं क्षं अः करतलपृष्ठाभ्यां नमः ।

मूर्ध्नि वक्त्रे हृदि न्यस्येदृष्यादीन् ‍ साधकोत्तमः ।

पञ्चवर्गैर्यादिभिश्च षडङानि समाचरेत् ‍ ॥७९॥

क्लीबहीनशशाङ्काढय हृस्वदीर्घान्तरस्थितैः ।

सानुस्वारैर्जातियुक्तैर्ध्यायेद् ‍ देवी हृदम्बुजे ॥८०॥

इसी प्रकार उपरोक्त मन्त्रों से क्रमशः हृदय , शिर , शिखा , कवच , नेत्र का स्पर्श करे । फिर अन्तिम मन्त्र के आगे ‘अस्त्राय फट् ’ कह कर ताली बजावे ॥७७ -८०॥

अब सरस्वती का ध्यान कहते हैं —

पञ्चाशदर्णैरचिताङुभागां धृतेन्दुखण्डां कुमुदावदाताम् ‍ ।

वराभये पुस्तकमक्षसूत्रं भजे गिरं संदधतीं त्रिनेत्राम् ‍ ॥८१॥

सोलह स्वरों एवं चौंतीस हलों इस प्रकर कुल पचास वर्णो से जिनके शरीर की रचना है , जो मस्तक पर चन्द्रकला धारण की हैं , जो कुमुद के समान अत्यन्त शुभ्र हैं , जिनके दाहिने हाथों में १ . वरदमुद्रा , २ . अक्षमाला तथा बायें हाथों में ३ . अभयमुद्रा एवं , ४ . पुस्तक सुशोभित है , ऐसे समस्त वाणी को धारण करने वाली तीन नेत्रों वाली सरस्वती देवी का मैं ध्यान करता हूँ ॥८१॥

ध्यात्वैवं पूजयेत् ‍ पीठे देवताः पूर्वमीरिताः ।

पीठशक्तीस्तदुपरि सरस्वत्यानवार्च्चयेत् ‍ ॥८२॥

मेधाप्रज्ञाप्रभाविद्याश्रीधृतिस्मृतिबुद्धयः ।

विद्येश्वरीति संप्रोक्ता मातृका पीठशक्तयः ॥८३॥

पीठशक्त्यर्चन , पीठपूजा एवं आवर्ण पूजा — इस प्रकार सरस्वती देवे के ध्यान के पश्चात् पूर्वोक्त पीठ देवताओं (द्र०१ . ५० -५५ ) का एवं नौ पीठ शक्तियों का पूजन करना चाहिए । तदनन्तर सरस्वती का पूजन करना चाहिए । १ . मेधा , २ . प्रज्ञा , ३ . प्रभा , ४ . विद्या , ५ . श्री , ६ . धृति , ७ . स्मृति , ८ . बुद्धि , एवं ९ . विद्येश्वरी ये मातृकापीठ की नौ शक्तियाँ कही गई हैं ॥८२ -८३॥

वियद्‌भृगुस्थमनुयुग्विसर्गाढ्यं च मातृका ।

योगपीठायनत्यन्तो मनुरासनदेशने ॥८४॥

मूर्तिसंकल्प्य मूलेन तस्यां वाणीं प्रपूजयेत् ‍ ।

आदावङानि संपूज्य द्वितीये पूजयेत् ‍ स्वरौ ॥८५॥

द्वौ द्वौ तृतीये वर्गांश्च वर्गशत्किश्चतुर्थके ।

व्यापिनी पालिनी चापि पावनी क्लेदिनी पुनः ॥८६॥

धारिणी मालिनी पश्चाद्धंसिनी शङ्खिनी तथा ।   

वर्गशक्तय इत्युक्ताह पञ्चमे त्वष्टमातरः ॥८७॥     

षष्ठे शक्रादयो देवाः सप्तमे वज्रपूर्वकाः ।

इत्थं सम्पूज्य देवेशीं न्यसेद्वर्नान्निजाङुके ॥८८॥

अब आसनपूजा का मन्त्र कहते हैं – वियत् (ह ) भृगु (स ) के आगे मनु (औ ), पश्चात् विसर्ग लगा कर तदनन्तर ‘मातृकायोगपीठाय नमः ’ लगा कर उस मन्त्र से आसन का पूजन करना चाहिए । (इसका स्वरुप इस प्रकार है – हसौः मातृकायोगपीठाय नमः । ) तदनन्तर मूल मन्त्र से मूर्ति की कल्पना कर वाणी देवी (सरस्वती ) की पूजा करेनी चाहिए । प्रथमावरण में अङ्गों का , द्वितीयावरण में दो दो स्वरों का , तृतीय आवरण में कवर्गादि अष्टवर्गों का , एवं चतुर्थं आवरण में दो वर्गशक्तियों का पूजन करना चाहिए । व्यापनी , पालिनी , पावनी , क्लेदिनी , धारिणी , मालिनी , हंसिनी तता शखिनी – ये वर्ग की शक्तियों के नाम हैं । इसके बाद में पञ्चम आवरण में ब्राह्यी आदि अष्टमातृकायें , षष्ठावरण में इन्द्रादिदेवगण सप्तमावरण में उनके वज्र आदि आयुधों के पूजन कर देवेशी का पूजन करना चाहिए , तदनन्तर अपने शरीर में वर्णा का न्यास करना चाहिए ॥८४ -८८॥

सृष्ट्‌यादिन्यासवर्णनम् ‍   

ललाटे मुखवृत्तेक्षिश्रवोनासासु गण्डयोः ।

ओष्ठयोर्दन्तपङ्‌क्त्योश्च मूर्ध्निवक्त्रे न्यसेत्स्वरान् ‍ ॥८९॥

बाहवोः सन्धिषु साग्रेषु कचवर्गौ न्यसेत् ‍ सुधीः ।

टतवर्गौ पदोस्तद्वत् ‍ पार्श्वयोः पृष्ठदेशतः ॥९०॥

नाभौ कुक्षौ पवर्गं च हृदंसं ककुदं ततः ।

न्यस्य यादिचतुर्वणाच्छादिषटक् ‍ ततो न्यसेत् ‍ ॥९१॥

अब शरीर में मातृका न्यास की विधि कहते हैं — ललाट , मुखवृत्त , दोनों नेत्र , दोनों कान , दोनों नासापुट , दोनों गण्डस्थल , दोनों होठ , दोनों दन्तपङिक्स , शिर एवं मुख में स्वरों का न्यास करना चाहिए । दोनों बाहुओं के मूल , कूर्पर , मणिबन्ध अङ्‌गुलि मूल एवं अङ्‌गुल्यभाग में क्रमशः कवर्ग एवं चवर्ग का न्यास करना चाहिए । टवर्ग एवं तवर्ग का न्यास दोनों पैरों के मूल , जानु , गुल्फ , पादाङ्‌गुलिमूल तथा पादाङ्‌गुलि के अग्रभाग में , पवर्ग का न्यास दोंनो पार्श्व , पीठ , नाभि एवं उदर में , यवर्ग के चार वर्ण य र ल व का न्यास ह्रुदय , दोंनो कन्धे , एवं ककुद में तथा श , ष , स ह का न्यास दोंनो हाथ एवं दोंनो पैरों में , ल और क्ष का न्यास उदर एं मुख में करना चाहिए ॥८९ -९१॥

विमर्श – न्यस प्रयोग विधि – ‘तत्र प्रणपूर्वकाः माया लक्ष्मी वाग्भवाद्यो नमः इत्यन्ते न्यस्तव्याः ’ इस नियम के अनुसार सानुस्वार वर्णो के आदि में प्रणव , माया बीज , लक्ष्मीबीज एवं वाग्बीज लगा कर तथा अन्त में नमः लगा कर शरीर में समस्त वर्णों का न्यास करना चाहिए । यहाँ मूलार्थानुसार न्यासविधि इस प्रकार है —

ॐ अं नमः ललाटे , ॐ आं नमः मुखव्रुत्ते ,

ॐ इं नमः दक्षनेत्रे , ॐ ईं नमः वामनेत्रे ,

ॐ उं नमः दक्षकर्णे , ॐ ऊं नमः वामकर्णे ,

ॐ ऋं नमः दक्षनासापुटे , ॐ ऋ नमः वामनासापुटे ,

ॐ लृं नमः दक्षगण्डे , ॐ लृं नमः वामगण्डे ,

ॐ एं नमः ऊर्ध्वोष्ठे , ॐ ऐं नमः अधरोष्ठे ,

ॐ ओं नमः ऊर्ध्वदन्तपङ्‌क्तौ , ॐ औं नमः अधःदन्तपङ्‍क्तौ ,

ॐ अं नमः मूर्ध्नि , ॐ अः नमः मुखे ।

यहाँ तक स्वरों का न्यास कहा गया । अब हल वर्णौं का न्यास कहते हैं

ॐ कं नमः दक्षबाहुमूले , ॐ खं नमः दक्षबाहुकूर्परे

ॐ गं नमः दक्षबाहुमणिबन्धे , ॐ घं नमः दक्षबाहुहस्ताङ्‌गुलिमूले ,

ॐ ङं नमः दक्षबाहवङ्‌गुल्यग्रे , ॐ चं नमः वामबाहूमूले ,

ॐ छं नमः वामबाहुकूर्परे , ॐ जं नमः वामबाहुमणिबन्धे ,

ॐ झं नमः वामवाहवङ्‌गुलिमूले , ॐ ञं नमः वामवाहवङ्‌गुल्यग्रे ,

ॐ टं नमः दक्षिणपादमूले , ॐ ठं नमः दक्षिणपादजानूनि ,

ॐ डं नमः दक्षिणगुल्फे , ॐ ढं नमः दक्षिणपादाङ्‍गुलिमूले ,

ॐ णं नमः दक्षिण पादाङ्‍गुल्यग्रे , ॐ तं नमः वामपादगुल्फे ,

ॐ थं नमः वामपादजानूनि , ॐ दं नमः वामपादगुल्फे ,

ॐ धं नमः वामपादाङ्‍गुलिमूले ॐ ॐ नं नमः वामपादाङ्‍गुल्यग्रे ,

ॐ पं नमः दक्षिणपार्श्वे , ॐ फं नमः वामपार्श्वे ,

ॐ बं नमः पृष्ठे , ॐ भं नमः नाभौ ,

ॐ मं नमः उदरे , ॐ यं त्वगात्मने नमः हृदि ,

ॐ रं असृगात्मने नमः दक्षांसे ॐ लं मांसात्मने नमः ककुदि ,

ॐ वं मेदसात्मने नमः वामांसे ,

ॐ शं अस्थ्यात्मने नमः हृदयादि दक्षहस्तान्तम् ,

ॐ षं मज्जात्मने नमः हृदयादि दक्षपादान्तम्

ॐ सं शुक्रात्मने नमः हृदयादि दक्षपादान्तम्

ॐ हं आत्मने नमः हृदयादिवामपादान्तम्

ॐ ळं परमात्मने नमः जठरे , ॐ क्षं प्राणात्मने नमः मुखे ,

यहाँ तक सृष्टि न्यास कहा गया ॥

हृदादिकरयोरङ्‌घ्र्योर्ज्जठरे वदने तथा ।

सृष्टिन्यासं विधायैवं स्थितिन्यासं समाचरेत् ‍ ॥९२॥

इस प्रकार हृदय से ले कर दोनों हाथ दोंनों पैर जठर एवं मुख में सृष्टि न्यास कर स्थिति न्यास करना चाहिए ॥९२॥

ऋषिश्छन्दश्च पूर्वोक्तो देवता विश्वपालिनी ।

उपविष्टां वल्लभाङ्के ध्यायेद् ‍ देवीमनन्यधीः ॥९३॥

मृगबालं वरं विद्यामक्षसूत्रं दधत् ‍ करैः ।

मालाविद्यालसद्धस्तां वहन् ‍ ध्येयः शिवोगिरम् ‍ ॥९४॥

अब स्थिति न्यास की विधि कहते हैं – स्थिति न्यास के ऋषि , छन्द आदि ( द्र० १ . ७ ) पूर्वोक्त हैं । विश्वपालिनी देवता हैं , साधक को एकाग्रचित्त से अपने प्रियतम के गोद मेम बैठी हुई इस देवता का ध्यान करना चाहिए । इनके दाहिने हाथों में वरमुद्रा , अक्षसूत्र , दिव्यमाला तथा बायें हाथों में मृगशावक , विद्या , वर्णमाला है , इस प्रकार की विश्वपालिनी सरस्वती देवी का ध्यान करना चाहिए ॥९३ – ९४॥

विमर्श – स्थिति न्यास के विनियोग विधि इस प्रकार है – ‘ॐ अस्य स्थितिमातृका -न्यासस्य प्रजपतिऋषिः गायत्रीछन्दः विश्वपालिनी देवता हलो बीजानि स्वरा शक्तयः क्षं कीलकम् अभीष्टप्राप्तये स्थितिमातृकान्यासे विनियोगः ’ ॥

एवं ध्यात्वा डकाराद्यान्वर्णानङेषु विन्यसेत् ‍ ।

गुल्फादिजानुपर्य्यन्तं स्थितिन्यसोऽयमीरितः ॥९५॥

ध्यान करने के पश्चात् डकारादिवर्णों से दक्षिणगुल्फ से वामजानुपर्यन्त अङ्गों में न्यास करना चाहिए । इसी को स्थिति न्यास कहते हैं ॥९५॥

विमर्श – यथा ॐ डं नमः दक्षिण गुल्फे , ॐ ढं नमः दक्षपादाङ्‍गुलिमूले , ॐ णं नमः दक्षिणपादाङ्‍गुल्यग्रे , ॐ तं नमः वामपादपूले , ॐ थं नमः वामपादजानूनि , इस क्रम से दक्षिण गुल्फ से लेकर वामजानुपर्यन्त स्थिति न्यास कहलाता है ॥

न्यासे संहारसंज्ञे तु ऋषिश्छन्दश्च पूर्ववत् ‍ ।

संहारिणीसपत्नानां शारदा देवता स्मृता ॥९६॥

उक्त प्रकार से सृष्टि न्यास करने के पश्चात् संहार न्यास करना चाहिए । इस संहार न्यास के ऋषि एवं छन्द (द्र० १ .७८ ) पूर्वोक्त हैं तथा शत्रुप्रणाशिनी शारदा देवी इसकी देवता मानी गई हैं ॥९६॥

अक्षस्त्रक्टङ्कसारङविद्याहस्ताम त्रिलोचनाम् ‍ ।

चन्द्रमौलिं कुचानम्राम रक्ताब्जस्थां गिरं भजे ॥९७॥

इन ध्यान का प्रकार प्रकार है – जो रक्त कमल पर विराजमान हैं , जिनके दाहिने में अक्षमाला , परशु एवं बायें हाथों में मृगशावक तथा विद्या हैं , चन्द्रकला से सुशोभित स्तनभार से झुकी तथा तीन नेत्रों वाली उन शारदा का मैं ध्यान करता हूँ ॥९७॥

विमर्श – संहारन्यास के विनियोग की विधि —

अस्य श्रीसंहारमातृकान्यास्य प्रजापतिऋषिः गायत्रीछन्दः शत्रुसंहारिणी शारदा देवता हलो बीजानि स्वरा शक्तयः क्षं कीलकं ममाभीष्टसिद्धयर्थे न्यासे विनियोगः ॥

ध्यात्वैवं विन्यसद्वर्णान् ‍ क्षाद्यानन्तान् ‍ विलोमतः ।

विनियोग तथा ध्यान के अनन्तर क्षकारादि वर्णो से अकार पर्यन्त वर्णों का विलोम रीति से ललाटदि स्थानों मे न्यास करना चाहिए ॥९८॥

सृष्टिन्यासे तु सर्गान्ताः सर्वबिन्द्वन्तिकाः स्थितौः ॥९८॥

बिन्द्वन्ताः संहृतो चैषा पूर्ववच्चाङुपूजने ।

न्यस्याः सर्वत्र नत्यन्ता वर्णा वा तारसम्पुटाः ॥९९॥

सृष्टिन्यास में विसर्गयुक्त वर्णो से , स्थितिन्यास में विसर्ग और अनुस्वार युक्त दोनों प्रकार के वर्णों से तथा संहारन्यास में मात्र अनुस्वार युक्त वर्णों से ही न्यास करना चाहिए । अङ्ग पूजन की प्रक्रिया में वर्ण के आदि में प्रणव तथा अन्त में नमः लगा कर न्यास करने की विधि है ॥९८ -९९॥

विमर्श — यथा ॐ अं नमः ॐ आं नमः इत्यादि ॥

सृष्टिन्यासं स्थितिन्यासं पुनः कुर्यात् ‍ प्रयत्नतः ।

अन्ये तु मातृका न्यासाः कथ्याः पूजातरङुके ॥१००॥

संहार न्यास के पश्चात् पुनः प्रयत्नपूर्वक सृष्टिन्यास तथा स्थितिन्यास करना चाहिए । मातृका न्यास का विशेष विवरण पूजा तरङ्ग (द्रष्टव्य २१वाँ तरङ्ग ) में कहा जायगा ॥१००॥

मन्त्रस्नानादिविधयो गद्यास्तत्रैव ते मया ।

भारतीमेवमाराध्य भजेदिष्टान् ‍ मनून् ‍ सुधीः ॥१०१॥

विष्णुः शिवो गणेशोर्को दुर्गा पञ्चैव देवताः ।

आराध्याः सिद्धिकामेन तत्तन्मन्त्रैर्यथोदितम् ‍ ॥१०२॥

वहीं पर हम मन्त्रस्नान आदि की विधि का भी दिग्दर्शन कराएँगे । इस प्रकार बुद्धिमान् पुरुष सरस्वती की आराधना करने के पश्चात् ही अपने इष्टदेव के मन्त्रों की आराधना करे । विष्णु , शिव , गणेश , सूर्य एवं दुर्गा – पञ्चायतन के यही पाँच देवता हैं । सिद्धि चाहने वाले पुरुष को उन उन मन्त्रों से शास्त्र में कही गई विधि के अनुसार इनकी आराधना करनी चाहिए ॥१०१ -१०२॥

आदौ देवं वशीकर्तुं पुरश्चरणमाचरेत् ‍ ।

तीर्थादौ निर्जने स्थाने भूमिग्रहणपूर्वकम् ‍ ॥१०३॥

नवधा तां धरां कृत्वा पूर्वादिषु समालिखेत् ‍ ।

कोष्ठेषु सप्तवर्गांश्च लक्षौ मध्ये तथा स्वरान् ‍ ॥१०४॥

क्षेत्रनामादिमो वर्णस्तत्र कोष्ठे भवेत्ततः ।

उपविश्य जपं कुर्य्यान्नान्यस्मिन् ‍ दुःखदे स्थले ॥१०५॥

पुरश्चरण के योग्य भूमि —

प्रारम्भ में इष्टदेव को अपने वश में करने के लिए किसी तीर्थ या निर्जन वन में किसी पवित्र भूमि का निश्चय कर पुरश्चरण की क्रिया प्रारम्भ करनी चाहिए । पुरश्चरण के लिए अभीष्टभूमि को नव भागों में विभक्त करना चाहिए । पूर्व से ले कर उत्तर तक सात दिशाओं में सात वर्ग , ईशान कोण में ल क्ष वर्ण तथा मध्य में स्वरों को लिखना चाहिए । पुरश्चरण स्थान के नाम का आद्य अक्षर जिस कोष्ठक में हो , स्थान के उसी भाग में बैठ कर मन्त्र का जप चाहिए , अन्यत्र दुःखदायक स्थान पर नहीं ॥१०३ -१०५॥

विमर्श — सुविधा के लिए उसका स्वरुप प्रदर्शित करते हैं –

                            ईशान

 

उत्तर

वायव्य

                                  पूर्व                              आग्नेय

दक्षिण

 

नैर्ऋत्य

ल क्ष क ख ग घ ङ च छ ज झ ञ
श ष स ह अ आ इ ई उ ऊ ऋ लृ लॄ ए ऐ ओ औ अं अ: ट ठ ड ढ ण
य र ल व प फ ब भ म त थ द ध न
                                 पश्चिम

मान लीजिये किसी साधक को पुरश्चरण के लिए काशी मे किसी निर्जन स्थान को चुनना है । तब उपर्युक्त विधि से बनाये गये नौ भाग वाले कोष्ठक में काशी का आद्य अक्षर ‘क ’ पूर्वभागे में पडता है । अतः काशी के पूर्वभाग में किसी निर्जन स्थान को चुन कर मन्त्र का जप करना चाहिए ॥

पुरश्चरनधर्मकथनम् ‍

आमध्याहनं जपं कुर्यादुपांशुत्वथ मानसम् ‍ ।

हविष्यं निशि भुञ्जीत त्रिःस्नाय्यभ्यङुवर्जितः ॥१०६॥

व्यग्रताऽलस्यनिष्ठीवक्रोधपादप्रसारणम् ‍ ।

अन्यभाषां परेक्षां च जपकाले त्यजेत् ‍ सुधीः ॥१०७॥

स्त्रीशूद्रभाषणं निन्दां ताम्बूलं शयनं दिवा ।

प्रतिग्रहं नृत्यगीते कौटिल्यं वर्जयेत् ‍ सदा ॥१०८॥

भूशय्यां ब्रह्मचर्यं च त्रिकालं देवतार्चनम् ‍ ।

नैमित्तिकार्चनं देवस्तुति विश्वासमाश्रयेत् ‍ ॥१०९॥

प्रत्यहं प्रत्यहं तावन्नैव न्यूनाधिकं क्वचित् ‍ ।

एवं जपं समाप्यान्ते दशांशं होममाचरेत् ‍ ॥११०॥

पुरश्चरण धर्मो का कथन —

अब पुरश्चरण क्रिया में ग्रन्थकार जप का विधान कहते हैं – बुद्धिमान् साधक प्रातःकाल से ले कर मध्याहनपर्यन्तं उपांशु अथवा मानस जप करे । तीनों काल स्नान करे । तेल उबटन आदि न लगावे । व्यग्रता , आलस्य , थूकना , क्रोध , पैर फैलाना , अन्यों से संभाषण एवं अन्य स्त्रियों का तथा चाण्डालादि का दर्शन जप काल में वर्जित करे । दूसरे की निन्दा , ताम्बूल चर्वण , दिन में शयन , प्रतिग्रह , नृत्य , गीत एवं कुटिलता न करे। पृथ्वी में शयन करे । ब्रह्मचर्य के नियमों का पालन करे । त्रिकाल देवार्चन करे । नैमित्तिक कार्यो में देवार्चन एवं देवस्तुति करे और अपने इष्टदेवता में विश्वास रख्खे । प्रतिदिन एक समान संख्या में जप करे । न्यूनाधिक संख्या में नहीं । इस प्रकार निश्चित जप की संख्या समाप्त करने के पश्चात् ही दशांश से हवन करे ॥१०६ -११०॥

विमर्श – उपांशु जप — जिहवा और ओष्ठ का संचालन , पूर्वक स्वयं सुनाई पडने वाले शब्दों के उच्चारण पूर्वक जो जप किया जाता है वह ‘उपांशु ’ है । जिसमें ओठ और जीभ का भी संचालन न हो मात्र मन्त्र , मन्त्रार्थ तथा देवता का स्मरण कर जो जप किया जाता है , वह ‘मानस जप ’ है । इसके अतिरिक्त वाचिक जप भी होता है जिसका पुरश्चरण में निषेध है ।

हविष्यान्न — जौ , मूंग , चावल , गौ का दूध , दही , घी , कक्खन , शक्कर , तिल , खोआ , नारियल , केला , फल , मेवा , आँवला , सेन्धा नमक आदि हविष्यान्न कहे गये हैं । साधक को इन्हीं का भोजन मात्र एक बार करना चाहिए । भोजन दोष से मन्त्रसिद्धि में बाधा होती है ॥

तत्तत्कल्पोदितैर्द्रव्यैस् ‍ तद्विधानमुदीर्यते ।

प्राणायाम् ‍ षडङुं च कृत्वा मूलेन मन्त्रवित् ‍ ॥१११॥

कुण्डे वा स्थण्डिले कुर्यात्संस्काराणां चतुष्टयम् ‍ ।

मूलेनेक्षणमस्त्रेण प्रोक्षणं ताडनं कुशैः ॥११२॥

तत्तत्कल्पोक्त ग्रन्थों में कहे गये हविष्य द्रव्यों से दशांश हवन का विधान कहा गया है । मन्त्रवेत्ता को सर्वप्रथम मूल मन्त्र से प्राणायाम एवं षडङ्गन्यास कर कुण्ड या स्थण्डिल (वेदी ) पर चारों संस्कार करना चाहिए । प्रथम मूलमन्त्र पढ कर देखे , फिर ‘अस्त्राय फट् ’ इस मन्त्र से प्रोक्षण करे । तदनन्तर कुशों से ताडन कर ‘हुम् ’ इस मन्त्र से मुष्टिका द्वारा उसका सेचन करे ॥१११ -११२॥

विमर्श — ईक्षण , प्रोक्षण , ताडन एवं सेचन – ये चारों कुण्ड के या स्थण्डिल के चार संस्कार होते हैं ॥

वर्म्मणा मुष्टिनासिच्य लिखेद्यन्त्रं तदन्तरे ।

वहिणकोणषडस्त्राष्टदलभूमन्दिरात्मकम् ‍ ॥११३॥

मध्ये तारपुटां मायां लिखित्वा पीठमर्चयेत् ‍ ।

मण्डूकात् ‍ परतत्वान्तं पाठशक्तीर्जयादिकाः ॥११४॥

तदन्तर वेदी पर यन्त्र का लेखन इस प्रकार करे – त्रिकोण , उसके बाद षट्‍कोण , अष्टदल एवं चतुष्कोण यन्त्र बना कर उसके मध्य में ‘ॐ ह्री ॐ ’ लिख कर पीठ पूजन करना चाहिए । फिर मण्डूक से ले कर परतत्त्व पर्यन्त तथा जया आदि पीठशक्तियों (द्र०१ .५० -६० ) का पूजन करना चाहिए ॥११३ -११४॥

वागीशीवागीश्वरयोर्योगपीठात्मने नमः ।

मायादिकः पीठमन्त्रस्तयोस्तेनासनं दिशेत् ‍ ॥११५॥

यजेत्तौ तारमायाभ्यां गन्धाद्यरुपचारकैः । 

लक्ष्मीनारयणौ त्वर्च्चेद् ‍ वैष्णवे होमकर्मणि ॥११६॥

फिर ‘ॐ ह्रीं वागीशिवागीश्वरयोर्योगपीठात्मने नमः ’ इस मन्त्र से उन्हें आसन देना चाहिए । फिर तार (ॐ ), माया (हीम ,) अर्थात् ॐ ह्रीं इस मन्त्र से गन्धादि उपचारों द्वारा उनका पूजन करना चाहिए । यदि विष्णु देवता का होम करना हो तो ‘ॐ ह्रीं लक्ष्मी नारायणभ्यां नमः ’ इस मन्त्र द्वारा लक्ष्मीनारायण का पूजन करना चाहिए ॥११५ -११६॥

विमर्श – १ . गन्ध , २ . पुष्प , ३ . धूप , ४ .दीप एवं ५ . नैवेद्य – इन पाँच उपचारों को गन्धादि उपचार कहा जाता है ॥

सूर्यकान्तादरणितः श्रोत्रियागारतोऽपि वा ।

पात्रेण पिहिते पात्रे वहिनमानाययेत्ततः ॥११७॥

अब अग्निस्थापन का प्रकार कहते हैं – सूर्यकान्तमणि द्वारा , अरणिमन्थन द्वारा अथवा श्रोत्रिय के घर(अग्निशाला) से अग्नि को किसी पात्र में रख कर और उसे दूसरे पात्र से ढक कर लाना चाहिए ॥११७॥

अस्त्रेणादाय तत्पात्रं वर्मणोद्धाटयेत्तु तम् ‍ ।

अस्त्रमन्त्रेण नैऋत्ये क्रव्यादाशं ततस्त्यजेत् ‍ ॥११८॥

‘ अस्त्राय फट् ’ मन्त्र का उच्चारण कर अग्नि पात्र ग्रहण करे । ‘ हुम् ’ मन्त्र का उच्चारण कर उस पात्र को खोले । पुनः अस्त्र मन्त्र ( अस्त्राय फट ) का उच्चारण कर उसका कुछ अंश मांसभोजी अग्नि के लिए नैऋत्यकोण में फेंक देना चाहिए ॥११८॥

मूलेन पुरतो धृत्वा संस्कारांश्च ततश्चरेत् ‍ ।

वीक्षणाद्यान् ‍ पुरा प्रोक्तानल्पं प्रोक्षणमाचरन् ‍ ॥११९॥

पुनः मूलमन्त्र का उच्चारण कर उस अग्निपात्र को अपने सामने रक्खे , तथा उसे स्वल्प रुप से सिञ्चित करके उसका ईक्षण आदि पूर्वोक्त चार संस्कार (द्र०१ .११२ ) संपन्न करना चाहिए ॥११९॥

परमात्मानलेनाथ जाठरेणापि वहिनना ।

स्मरन्नैक्यं वहिनबीजाच्चैतन्यं योजयेत्ततः ॥१२०॥

फिर परमात्मा रुप अनल (अग्निर्वै रुद्रः ) तथा जाठराग्नि एवं संमुख रक्खी अग्नि में एकरुपता की भावना करती हुए ‘रम् ’ बीज से उसमें चेतनला लानी चाहिए ॥१२०॥

तारेण चाभिमन्त्र्याग्नि सुधया धेनुमुद्रया ।

अमृतीकृत्य संरक्षेदस्त्रं मन्त्रेण मन्त्रवित् ‍ ॥१२१॥

फिर मन्त्रवेत्ता ब्राह्मण तार मन्त्र (ॐ ) से अग्नि को अभिमन्त्रित कर सुधाबीज (वँ ) से धेनु मुद्रा प्रदर्शित करते हुए उसका अमृतीकरण करे तथा अस्त्राय फट् मन्त्र से उसे संरक्षित रखे ॥१२१॥

मुद्रया त्ववगुङि‌ठन्या कवचेनावगुङ्‌ठयेत् ‍ ।

कुण्डोपरि ततो वहिनं भ्रामयेत् ‍ त्रिध्रुवं पठन् ‍ ॥१२२॥         

तदनन्तर कवच (हुम् ) मन्त्र पढते हुए अवगुण्ठन मुद्रा प्रदर्शित कर उसे अवगुण्ठित कर प्रणव का तीन बार उच्चारण करते हुए उस अग्नि को कुण्ड अथवा वेदी पर तीन बार घुमाना चाहिए ॥१२२॥

शय्यागतामृतुस्नातां नीलेन्दीवरधारिणीम् ‍ ।

देवेन भुज्यमानां तां स्मृत्वा तद्योनि मण्डले ॥१२३॥

ईशरेतोधिया वहिनं स्थापयेदात्मसम्मुखम् ‍ ।

मूलं नवार्णं च पठञ्जानुस्पृष्टधरातलः ॥१२४॥

तत्पश्चात् घृटनों के बल पृथ्वी पर बैठ कर वक्ष्यामाण नवार्ण मन्त्र का उच्चारण कर शय्या पर स्थित ऋतुस्नाता , नीलकमलधीरिणी अग्निदेव के द्वारा संभोग की जाती हुई अग्नि – पत्नी स्वाहा का स्मरण कर उसके योनिमण्डल स्थान में शिव के वीर्य की भावना करते हुए उस अग्नि को अपने सम्मुख स्थापित करना चाहिए ॥१२३ -१२४॥

विमर्श – धेनुमुद्रा – अन्योन्याभिमुखौ श्लिष्टौ कनिष्ठानामिका पुनः ।

तथा तु तर्जनीमध्या धेनुमुद्रा प्रकीर्तिता ।

दोनों हाथों की कनिष्ठा एवं अनामिका अङ्‌गुलियों को उसी प्रकार तर्जनी और मध्यमा अङ्‌गुलियों को परस्पर मिला देने से ‘धेनुमुद्रा ’ होती है ।

अवगुण्ठन मुद्रा – सव्यहस्तकृता मुष्टिः दीर्घाधोमुखतर्जनी ।

अवगुण्ठनमुद्रेयाभितो भ्रामिता भवेत् ॥

दाहिने हाथ की मुट्टी बाँध कर तर्जनी एवं मध्यमा को अधोमुख चारोम ओर घुमाने से अवगुठन मुद्रा होती है ॥

वहिनवार्णमन्त्रोद्धारः   

रेफार्घेशेन्दुसंयुक्तं गगनं वहिनचै ततः ।

तन्यायहृदयान्तोऽयं नवार्णोग्निनिधापने ॥१२५॥

अग्निस्थापन मन्त्र – रेफ , अर्धेश = ऊ , इन्द्रु = अनुस्वार से युक्त गगन (ह ) अर्थात् हूँ , तदनन्तर वहिन ‘चै ’, तदनन्तर ‘तन्याय ’ तदनन्तर हृदय = ‘नमः ’ का उच्चारण करने से नवार्ण होता है । यह मन्त्र अग्निस्थापन में प्रयुक्त होता है ॥१२५॥

विमर्शे – मन्त्र का स्वरुप इस प्रकार है – हूं वहिनचैतन्याय नमः ॥

विश्राण्याचमनं देवीदेवयोर्ज्वालयेद्वसुम् ‍ ।

चतुविंशतिवर्णेन मन्त्रेण श्रपणादिभिः ॥१२६॥

तदनन्तर उक्त दोनों देव एवं देवियों को आचमन दे कर वक्ष्यमाण चौबीस अक्षरात्मक मन्त्र का जप करते हुये कण्डा , आदि से अग्नि को प्रज्वलित करना चाहिए ॥१२६॥

वहिनचतुर्विंशत्यक्षरमन्त्रोद्धारः

चित्पिङुलहनद्वन्द्वं दहयुग्मं पचद्वयम् ‍ ।

सर्वज्ञाज्ञापय स्वाहा मन्त्रो वेदभुजाक्षरः ॥१२७॥

अब चतुर्विंशत्यक्षर मन्त्र का स्वरुप कहते हैं –

सर्वप्रथम चित्पिङ्गल ’ शब्द , तदनन्तर दो बार ‘हन ’ शब्द , तत्पश्चात् दो बार ‘दह ’ शब्द , फिर दो बार ‘पच ’ शब्द और अन्त में ‘सर्वज्ञा ज्ञापय स्वाहा ’ लगाने से चतुर्विशति अक्षर का मन्त्र बन जाता है ॥१२७॥

विमर्श – इस मन्त्र का स्वरुप इस प्रकार है – ‘चित्पिङ्ग्ल हन हन दह दह पच पच सर्वज्ञाज्ञापय स्वाहा ’ ॥

प्रदर्श्य ज्वालिनीं मुद्रामुत्थाय विहिताञ्जलिः ।

श्लोकरुपेण मन्त्रेण ह्युपतिष्ठेद्धुताशनम् ‍ ॥१२८॥

तदनन्तर आसन से उठकर हाथ जोडकर ज्वालिनी मुद्रा प्रदर्शित कर आगे कहे जाने वाले श्लोक रुप मन्त्र से अग्नि का उपस्थापन करें ॥१२८॥

श्लोकमन्त्राग्निमन्त्रोद्धारः  

अग्निं प्रज्वलितं वन्दे जातवेदं हुताशनम् ‍ ।

सुवर्नवर्णममलं समिद्धं विश्वतोमुखम् ‍ ॥१२९॥

विमर्श – दोनों हाथ के मणिबन्ध स्थान को एक में मिलाकर अङ्‍गुलियों को दोनों हाथ की कनिष्ठा तथा अङ्‌गुष्ठा को परस्पर एक में मिलाने से ज्वालिनीमुद्रा हो जाती है ॥१२९॥

अब अग्निं प्रज्वलितं . . . विश्वतोमुखम् आदि श्लोक रुप मन्त्र से अग्नि का उपस्थापन कहते हैं । सुवर्ण वर्ण के समान अमल एवं देदीप्यमान , विश्वतोमुख , जातवेद तथा हुताशन नाम वाले प्रज्वलित अग्नि की मै वन्दा करता हूँ ॥

अथाग्निमन्त्रं विन्यस्येत्तद्विधानमुदीर्यते ।

वैश्वानरान्ते जातेति वेदान्ते स्यादिहावह ॥१३०॥

लोहिताक्षपदात् ‍ सर्वकर्माण्यते तु साधय ।

वहिनीप्रियान्तो मन्त्रोऽयं षड्‌विंशत्यक्षरान्वितः ॥१३१॥

इसके अनन्तर अग्निमन्त्र का न्यास करना चाहिए । उसकी विधि कह रहे हैं सर्वप्रथम वैश्वानर , इसके बाद जातवेद , फिर इहावह तत्पश्चात् लोहिताक्ष फिर सर्वकर्माणि तदनन्तर साधय और अन्त में स्वाहा लगाने से २६ अक्षरों का अग्निमन्त्र बनता है ॥१३० -१३१॥

विमर्श – इस मन्त्र का स्वरुप इस प्रकार है – वैश्वानरजातवेद इहावह लोहिताक्ष सर्वकर्माणि साधय स्वाहा ॥

ऋषिश्छ्न्दो देवतास्य भृगुर्गायत्रपावकाः ।

रंबीजं ठद्वयं शक्तिर्हवने विनियोजनम् ‍ ॥१३२॥

अब अग्निमन्त्र का विनियोग कहते हैं – इस मन्त्र भृगु ऋषि हैं , गायत्री छन्द है तथा पावक इसके देवता हैं , रं बीज है और स्वाहा शक्ति है । इसका विनियोग हवन कार्य में किया जाता है ॥१३२॥

लिङे पायौ मूर्ध्नि वक्त्रे नसि नेत्रे खिलाङुके ।

जिहवाबीजोद्धारः       

वहनेर्जिहवाःस्वबीजाढ्या न्यसेन्ङेन्तानमोन्विताः ॥१३३॥ 

हिरण्या गगना रक्ता कृष्णासुप्रभयान्विता ।   

बहुरुपातिक्तेति जिहवा दमुनसो मताः ॥१३४॥   

अब सप्तजिहवामन्त्र एवं उनका कहते हैं – लिङ्ग , गुदा , शिर , मुख , नासिका , आँख एवं सर्वाङ्ग में अपने अपने बीजमन्त्रों के साथ नमः लगाकर प्रत्येक अग्नि जिहवा नाम के आगे चतुर्थी एक वचन से न्यास करना चाहिए । हिरण्या गगना , रक्ता , कृष्णा , सुप्रभा , बहुरुपा एवं अति रक्ता – ये सात अग्नि जिहवाओं के नाम हैं ॥ १३३ -१३४॥

दीपिकानलवायुस्थाः साद्या वर्णाविलोमतः ।

सेन्दवः सप्तजिहवानां सप्तानां बीजतां गताः ॥१३५॥

दीपिका (ऊ )अनल (र ) वायु (य ) इन तीनों को एक में मिलाकर अर्थात् ‘य्रू ’ के आदि में सकरादि सात वर्णो को विलोम रुप से (स् ष ‍ श ‍ व् ‍ ल् ‍ र् ‍ य् ‍) एक एक में मिलाने से अग्निजिहवा के बीज मन्त्र बन जाते हैं ॥१३५॥

विमर्श – जैसे – स्र्यू , ष्र्यू , श्र्यू , व्य्रू , ल्र्यू , र्‌य्रू , य्य्रू ये सप्त जिहवाओं के क्रमशः बीज मन्त्र हैं ।

प्रयोग विधि – ॐ स्यूँ हिरण्यायै नमः लिङ्गे , ॐ ष्र्यूं गगनायै नमः पायौ ,

ॐ श्र्यूँ रक्तायै नमः शिरसि , ॐ व्र्यूं कृष्णायै नमः वक्त्रे ,

ॐ ल्र्यूँ सुप्रभायै नमः नासिकायाम् , ॐ र्‌य्रूं अति रक्तायै नमः नेत्रे ,

ॐ य्य्रूँ बहुरुपायै नमः सर्वाङे ।

टिप्पणी – इस न्यास के क्रम में बहुरुपा एवं अतिरिक्ता में व्यत्क्रम हुआ हैं , जो वक्ष्यमाण १३७ श्लोक के अनुरुप है । वहाँ नेत्र में अति रक्ता का तथा सर्वाङ्ग में बहुरुपा का न्यास कहा गया है ॥

गीर्वाणपितृगन्धर्वयक्षनागपिशाचकाः ।

राक्षसाश्चेति जिहवानां देवतास्तत्स्थले न्यसेत् ‍ ॥१३६॥

न्यासेर्जने व्युत्क्रमः स्याद् ‍ बहुरुपाति रक्तयोः ।

नेत्रेतिरिक्ता न्यस्तव्या सर्वाङेबहुरुपिका ॥१३७॥

अब उपर्युक्त सात जिहवाओं के देवताओं द्वारा न्यास कहते हैं – सुर , पितर , गन्धर्व , यक्ष , नाग , पिशाच एवं राक्षस एन जिहवओं के अधिदेवता कहे गये हैं । उनका भी क्रमशः उक्त अङ्गो में न्यास में वह व्युत्क्रम हो जाता है ॥ इसीलिए नेत्र मं प्रथम अति रक्ता का न्यास , तदनन्तर सर्वाङ्ग में बहुरुपा का न्यास प्रदर्शित किया गया है (द्र १ .१३४ ) ॥१३६ -१३७॥

विमर्श – प्रयोग विधि – ॐ सुरेभ्यो नमः लिङ्गे , ॐ पितृभ्यो नमः पायौ ,

ॐ गन्धर्वेभ्यो नमः , मूर्ध्नि , ॐ यक्षेभ्यो नमः मुखे ,

ॐ नागेभ्यो नमः नासिकायाम् , ॐ पिशाचेभ्यो नमः नेत्रे ,

ॐ राक्षसेभ्यो नमः सर्वाङे ॥

सहस्रार्चिषे हृदयं स्वस्तिपूर्णाय मस्तकम् ‍ ।

उत्तिष्ठ पुरुषायेति शिखामन्तोऽयमीरितः ॥१३८॥

धूमान्ते व्यापिने वर्म सप्तजिहवाय नेत्रकम् ‍ ।

अस्त्रं धनुर्धरायेति षडङानि समाचरेत् ‍ ॥१३९॥

अब षडङ्गन्यास कहते हैं –

ॐ सहस्रार्चिषै हृदयाय नमः , ॐ स्वस्तिपूर्णाय शिरसे स्वाहा ,

ॐ उत्तिष्ठपुरुषाय शिखायै वषट् , ॐ धूमव्यापिनिए कवचाय हुम् ,

ॐ सप्तजिहवाय नेत्रत्रयाय वौषट् ॐ धनुर्धराय अस्त्राय फट्

इस प्रकार षडङ्गन्यास करना चाहिए ॥१३८ -१३९॥

मूर्ध्नि वामेंसके पार्श्वे कटौ लिङे कटौ पुनः ।

दक्षे पार्श्वेसके न्यस्येन्मूर्तीरष्टौ विभावसोः ॥१४०॥

शिर , वामस्कन्ध , वाम पार्श्व , वाम कटि , लिङ्ग पुनः दक्षिण कटि , दक्षिणपार्श्व दक्षिण स्कन्ध इन अङ्गो में अग्नि की आठ मूर्तियों से न्यास करना चाहिए ॥१४०॥

ताराग्नये पदाद्यास्ताश्चतुर्थीनमसान्वितः ।     

जातवेदाः सप्तजिहवो हव्यवाहन इत्यपि ॥१४१॥

अश्वोदरसंज्ञोन्यस्तथा वैश्वानराहवहः ।  

कौमारतेजाः स्याद्विश्वमुखो देवमुखस्तथा ॥१४२॥

प्रथम प्रणव (ॐ ), इसके अनन्तर ‘अग्नये ’ इसके बाद प्रत्येक मूर्ति नाम में चतुर्थी , तदनन्तर , ‘नमः ’ पद से उक्त स्थानों (द्र०१ .१४० ) में न्यास करना चाहिए ।१ .जातवेदाः , २ . सप्तजिहव , ३ . हव्यवाहन , ४ . अश्वोदरज , ५ . वैश्वानर , ६ . कौमार – तेजस , ७ . विश्वमुख तथा ८ . देवमुख – ये अग्नि की आठ मूर्तियों के नाम हैं ॥१४१ -१४२॥

विमर्श – प्रयोगविधि – यथा – ॐ अग्नये जातवेदसे नमः मूर्ध्नि

ॐ अग्नये सप्तजिहवाय नमः वामांसे , ॐ अग्नये हव्यवाहनाय नमः वामपार्श्वे ,

ॐ अग्नये अश्वोदरजाय नमः वामकटौ , ॐ अग्नये वैश्वानराय नमः लिङ्गे ,

ॐ अग्नये कौमारतेजसे नमः दक्षकटौ , ॐ अग्नये विश्वमुखाय नमः दशपार्श्वे ,

ॐ अग्नये देवमुखाय नमः दक्षांसे ॥

ततो न्यसेन्निजे देहे पीठं हाटकरेतसः ।

वहिनमण्डलपर्यन्तं मण्डूकादि यथोदितम् ‍ ॥१४३॥

पीता श्वेतारुणा कृष्णा धूम्रा तीव्रा स्फुलिङिनि ।

रुचिरा ज्वालिनी चेति कृशानोः पीठशक्तयः ॥१४४॥

पीठ देवता एवं शक्तियों का न्यास – इसके बाद अपने शरीर में मण्डूक से लेकर अग्निमण्डल पर्यन्त अग्नीपीठ के देवाताओं को (द्र० १ .५० -५६ )) न्यास करना चाहिए । पीता , श्वेता , अरुणा , कृष्णा ध्रूम्रा , तीव्रा , स्फुलिङ्गनी , रुचिरा एवं ज्वालिनी ये अग्निपीठ की शक्तियाँ हैं ॥१४३ -१४४॥

बीजं वहन्यासनायेति हृदन्तः पीठमन्त्रकः ।

एवं विन्यस्य पीठान्तं पावकं चिन्तयेत्तनौ ॥१४५॥

‘ ॐ रं वहन्यासनाय नमः ’ यह पीठ का मन्त्र है इस प्रकार पीठ पर्यन्त समस्त न्यास कर अपने शरीर में अग्नि का ध्यान करना चाहिए ॥१४५॥

अग्निध्यानम् ‍

त्रिनेत्रमारक्ततनुं सुशुक्ल वस्त्रं सुवर्णस्रजमग्निमीडे ।

वराभरस्वस्तिकशक्तिहस्तं पद्मस्थमाकल्पसमूहयुक्तम् ‍ ॥१४६॥

अग्नि का ध्यान – तीन नेत्रों वाले , रक्तवर्ण शरीर वाले , शुभ्र वस्त्र से युक्त , सुवर्ण माला धारण किए हुये , दाहिने हाथों में वरदमुद्रा एव्म स्वस्तिक , तथा बायें हाथों में अभयमुद्रा एवं शक्ति धारण किए हुये , आभूषणों से सुशोभित कमलासन पर बैठे हुये अग्निदेव का मैम ध्यान करता हूँ ॥१४६॥

अग्न्यर्चनादिवर्णकम् ‍

एवं ध्यात्वार्चनं कुर्यान्मानसं विधिवद्वसोः ।

परिषिञ्चेत्ततस्तोयैः कुण्डं स्थण्डिलमेव वा ॥१४७॥

इस प्रकार अग्निदेव का ध्यान कर विधिवत् सर्वोपचारों से मानस पूजन करना चाहिए । फिर जल से कुण्ड अथवा स्थण्डिल का परिषिञ्चन करना चाहिए ॥१४७॥

दर्भैः परिस्तरेदग्निं प्रागग्रैरुदगग्रकैः ।

प्रत्यग्दक्षिणसौम्यासु न्यसेत्त्रीन्परिधीन्क्रमात् ‍ ॥१४८॥

पालाशान्बिल्वजांस्तेषु ब्रह्माविष्णुशिवान्यजेत् ‍ ।

वहनौ तत्पीठमभ्यर्च्यावाहयेत्स्वहृदोऽनलम् ‍ ॥१४९॥

तदनन्तर पूर्व एवं उत्तराग्रभाग वाले कुशाओं से उसका पूर्व दिशा के क्रम से परिस्तरण करना चाहिए । पुनः पलाश एवं विल्ववृक्ष की शाखाओं से पश्चिम , दक्षिण एवं उत्तर में क्रमशः तीन परिधि बनाकर उस पर ब्रह्मा , विष्णु एवं शिव का पूजन करना चाहिए । अग्नि में उनके पीठस्थ देवताओं का पूजन कर अपने हृदय में अग्निदेव का आवाहन करना चाहिए ॥१४८ -१४९॥

गन्धादिभिः समभ्यर्च्य पूजयेत् ‍ पावकं व्रती ।

षट्‌सु कोणेषु मध्ये च जिहवास्तद्‌देवता यजेत् ‍ ॥१५०॥

ईशानादिषु वायवन्तकोणेषु षट् ‌ समर्चयेत् ‍ ।

हिरण्याद्यातिरक्तान्ता मध्ये तु बहुरुपिणीम् ‍ ॥१५१॥

फिर व्रती पुरश्चरणकर्ता गन्धादि पूजनोपचारों से अग्निदेव का पूजन करें । षट्‍कोण में एवं मध्य में अग्नि की सप्तजिहवा (द्र० १ .१३४ ) का पूजन करना चाहिए । उसकी विधि इस प्रकार है – ईशान से लेकर ऊर्ध्वाधः वायव्य पर्यन्त षट्‍कोणों में हिरण्य से लेकर अति रक्ता तक ६ अग्निजिहवाओं का तथा मध्य में बहुरुपिणी नामक अग्नि जिहवा का पूजन करना चाहिए ॥१५० -१५१॥

केसरेष्वङुपूजास्यादलेष्वष्टसु मूर्तयः ।

मातरोऽष्टौ दलान्तेषु भैरवाः स्युस्तदग्रतः ॥१५२॥

केसरों में अङ्गपूजा , अष्टदलों में अष्टमूर्तियों की पूजा (द्र० १ . १४१ -१४२ ) तथा दलों के अन्त में अष्टमातृकाओं की पूजा (द्र० ५ . ३९०४० ) और दलान्त के आगे अष्ट भैरवों की पूजा करनी चाहिए ॥१५२॥

धरापुरें तु शक्राद्या वज्राद्यायुधसंयुताः ।

एवमावरणैर्युक्तं सप्तभिः पावकं यजेत् ‍ ॥१५३॥

भूपुर में इन्द्रादि देवों की तथा उनके वज्रादि आयुधों की पूजा करनी चाहिए । इस प्रकार सप्तावरण दे देवताओं के साथ -साथ अग्निदेव का यजन करना चाहिए ॥१५३॥

अष्टभैरवनामकथनम् ‍

असिताङो रुरुश्चण्डः क्रोध उन्मत्तसंज्ञकः ।

कपाली भीषणश्चापि संहारश्चाष्टभैरवः ॥१५४॥

१ . असिताङ्ग , २ . रुद्र , ३ . चण्ड , ४ . क्रोध , ५ . उन्मत्त , ६ . कपाली , ७ . भीषण और ८ . संहार – ये अष्ट भैरवों के नाम हैं ॥१५४॥

वामे कुशानथास्तीर्य तत्र वस्तूनि निःक्षिपेत् ‍ ।

प्रणीताप्रोक्षणीपात्रे आज्यस्थालीं स्रुवं स्रुचम् ‍ ॥१५५॥

अधोमुखनि चैतानि होमद्रव्यं घृतं कुशान् ‍ ।

समिधः पञ्चपालाशीरन्यदप्युपयोगि यत् ‍ ॥१५६॥

अब पात्रासादन की विधि कहते हैं – अग्नि के वाम भाग में कुशाओं को फैला कर उस पर प्रणीता एव्म प्रोक्षणीपात्र , आज्यपात्र , स्रुवा एवं स्रुची आदि यज्ञ पात्र अधोमुख स्थापित करना चाहिए । उसी के साथ होमार्थ द्रव्य घृत , कुशा , पलाश की पञ्च समिधायें एवं अन्य उपयोगी वस्तुयें भी रखनी चाहिए ॥१५५ -१५६॥

कृत्वा पवित्रे मूलेन प्रोक्षेत्तानि शुभाम्भसा ।

उत्तानानि विधायाथ प्रणीतां पूरयेज्जलैः ॥१५७॥

तीर्थमन्त्रेण तीर्थानि सृण्या तत्राहवयेत् ‍ सुधीः ।

पवित्रे ह्रक्षतांस्तत्र निःक्षिप्योत्पवनं चरेत् ‍ ॥१५८॥

अथोदीच्यां निधायैताम प्रोक्षण्यां तज्जलं क्षिपेत् ‍ ।

हवनीयं द्रव्यजातमुक्षेत्तोर्यैः पवित्रगैः ॥१५९॥

तदनन्तर पवित्री का निर्माण कर मूलमन्त्र द्वारा पवित्र जल से उन वस्तुओं का प्रोक्षण करना चाहिए । तदनन्तर सभी पात्रों को सीधे रख कर प्रणीता पात्र में जल भरना चाहिए । फिर तीर्थ मन्त्र –

गङ्गे च यमुने चैव गोदावरि सरस्वति ।

नर्मदे सिन्धु कावेरि जलेऽस्मिन् सन्निधिं कुरु ॥

इस मन्त्र को पढते हुए अंकुश मुद्रा द्वारा उस जले में विद्वान् साधक को तीर्थो का आवाहन करना चाहिए । दो अक्षत (सम्पूर्ण रुप वाले ) कुशाओं को उसमें छोडकर जल का उत्पवन करना चाहिए । तदनन्तर प्रणीतापात्र को अग्नि के उत्तर भाग में रख कर उसका जल प्रोक्षणी पात्र में डालना चाहिए । फिर उस प्रोक्षणी के पवित्र जल से समस्त हवनीय पदार्थो का प्रोक्षण करना चाहिए ॥१५७ -१५९॥

मूलेन मूलगायत्र्या यद्वा हृदयमन्त्रतः ।

दक्षिणे पीठमासाद्य तत्र ब्रह्माणमाहवयेत् ‍ ॥१६०॥

अब ब्रह्मदेव के आवाहन एवं पूजन की विधि कहते हैं – अग्नि के दक्षिण में पीठ निर्माण कर उस पर मूलमन्त्र , गायत्रीमन्त्र से अथवा हृदय मन्त्र (ॐ नमः ) से उस पर पर ब्रह्मदेव का आवाहन करना चाहिए ॥१६०॥

अणिभाद्याः सिद्धयोष्टौ ब्रह्मणः पीठदेवताः।

ब्रह्ममन्त्रोद्धारः         

तारहृत्पूर्वको ङेन्तो ब्रह्मा मन्त्रोऽस्य पूजने ॥१६१॥

अणिमादि आठ सिद्धियाँ ब्रह्मपीठ की देवता हैं । तार (ॐ ) और हृद् ‍ (नमः ) तदनन्तर ब्रह्मपद में चतुर्थी लगाकर ‘ॐ नमो ब्रह्मणे ’ इस मन्त्र से उनकी पूजा करनी चाहिए ॥१६१॥

विमर्श – प्रयोग विधि — अणिमायै नमः इत्यादि सिद्धियों के नाम मन्त्र से आठों सिद्धियों का आवाहन पूजन कर पीठ निर्माण करें । फिर ‘ॐ नमो ब्रह्मणे ’ इस मन्त्र से उनकी पूजा करे ॥१६० -१६१॥

स्त्रुवस्त्रुवसंस्कारः

हस्ताभ्यां स्रुक्सुवौ धृत्वा तापयेत्त्रिरधोमुखौ ।

वामहस्तेन तौ धृत्वा दर्भैर्दक्षेण मार्जयेत् ‍ ॥१६२॥

संप्रोक्ष्य प्रोक्षणीतोयैः प्रतर्प्य पूर्ववत् ‍ पुनः ।

न्यस्याग्नौ मार्जनान्दभास्तयोः शक्तित्रयं न्यसेत् ‍ ॥१६३॥

स्रुव एवं सुचि के संस्कार की विधि कहते हैं – दोनों हाथों में स्रुवा स्रुचि लेकर अधोमुखे कर तीन बार उन्हें अग्नि पार तपाना चाहिए । फिर उन दोनों को बायें हात में रखकर दाहिने हाथ से कुशा लेकर उनका मार्जन करना चाहिए । तदनन्तर प्रणीता के जल से सिञ्चन कर पुनः उन्हें पूर्ववत् तीन बार तपाकर , अग्नि के दाहिनी ओर स्थापित करना चाहिए । मार्जन कुशाओं को अग्नि में डाल देना चाहिए । तदनन्तर उन पर तीन -तीन शक्तियों का न्यास करे ॥१६२ -१६३॥

शक्तित्रयम् ‍

इच्छा ज्ञान क्रिया संज्ञा चतुर्थीनमसान्विता ।

दीर्घत्रयेन्दुयुग्व्योमपूर्वकं स्थानकत्रये ॥१६४॥

इच्छा ज्ञान एवं क्रिया रुपा शक्तियों के आगे चतुर्थ्यन्त विभक्ति लगाकर उसमेम नम्ह जोडे । आदि में क्रमशः आ ई ऊ के सहित सानुस्वार आकाश (ह ) लगा कर शक्तियों से स्रुव एवं सुचि के मूल , मध्य एव अन्त में इस प्रकार न्यास करे ॥१६४॥

विमर्श – तद् यथा – १ ॐ हां इच्छात्मने स्रुवमूले न्यसामि , २ . ॐ ह्रीं ज्ञानात्मने नमः स्रुवमध्ये न्यसामि , ३ . ॐ हूं क्रियात्मने स्रुवाग्रे न्यसामि । इसी प्रकार सुचि में भी उपर्युक्त तीनों शक्तियं द्वारा न्यास करना चाहिए ॥

हृदास्रुचिन्यसेच्छक्तिं स्रुवे शम्भुं ततस्तु तौ ।

सूत्रत्रयेण संवेष्टय सम्पूज्य कुसुमादिभिः ॥१६५॥

कुशोपरि न्यसेद्‌दक्षे तयोः संस्कार ईरितः ।

पुनः स्रुचि के हृदय में शक्ति तथा स्रुव में शिव का न्यास कर तीन रक्षा सूत्रों से उन्हें बाँधकर पुष्पादि से पूजाकर उन्हें कुशाओं पर अग्नि के दाहिनी ओर स्थापित करना चाहिए ॥१६५॥

विमर्श – न्यासविधि – स्रुचि हृदये शक्ति न्यसामि , स्रुवोपरि सम्भुं न्यसामि । यहाँ तक स्रुवा तथा स्रुचि का संस्कार कहा गया हैं ॥

अस्त्रोक्षितायामाज्यस्य स्थाल्यामाज्यं विनिःक्षिपेत् ‍ ॥१६६॥

वीक्षाणादिकसंस्कारसंस्कृत मूलमन्त्रतः ।

गोमुद्रयामृतीकृत्य षट् ‍ संस्कारांस्ततश्चरेत् ‍ ॥१६७॥

अब आज्य एवं आज्यथाली के संस्कार की विधि कहते हैं –

‘ अस्त्राय फट् ’ इस मन्त्र से प्रोक्षित आज्यस्थाली में आज्य को उडेलना चाहिए । फिर ईक्षण , प्रोक्षण , ताडन एवं सेचन आदि चार संस्कार से सुसंस्कृत कर धेनुमुद्रा प्रदर्शित करते हुये मूलमन्त्र से उसका अमृतीकरण करे । तदनन्तर वक्ष्यमाण छः संस्कार करना चाहिए ॥१६६ – १६७॥

विमर्श – १ . अग्नि संस्थापन , २ . तापन , ३ . अभिद्योतन , ४ . सेचन , ५ . उत्पवन तथा ६ . संप्लवन – ये छः संस्कार आज्य स्थाली के होते हैं जिसका क्रमशः वर्णन आगे (द्र० १ . १६९ -७३ ) करेगें ॥

कुण्डोद्धृते वायुकोणे स्थितेङारे विनिःक्षिपेत् ‍ ।

हृदेति तापनं प्रोक्तं दर्भयुग्मं प्रदीपितम् ‍ ॥१६८॥

आज्ये क्षिप्त्वा हृदावहनौ पवित्रीकरणं क्षिपेत् ‍ ॥१६९॥

कुण्ड से निकाली गई अग्नि पर उस आज्य युक्त स्थाली को स्थापित करे – इसे अग्नि संस्थापन कहते हैं । फिर ‘ॐ नमः ’ मन्त्र से उसे तपावे – इसे तापन कहते हैं । फिर दो कुशाओं को जला कर उसे घी में डाल देवें ॐ तदनन्तर ‘ॐ नमः ’ मन्त्र से अग्नि में उन दोनों कुशाओं को डाल देना चाहिए ॥१६८ -१६९॥

आज्यं नीराजयेद् ‍ दीप्तदर्भयुग्मेन वर्मणा ।

अभिद्योतनमुक्तं तद्‌दीप्तं दर्भत्रयं घृते ॥१७०॥

दर्शयेदस्त्रेणोदयोते गृहीत्वा घृतपात्रकम् ‍ ।

संयोज्याग्नौ तदङारान् ‍ सलिलं संस्पृशेत् ‍ सुधीः ॥१७१॥

फिर जलती हुई उन कुशाओं को ‘हुम् ’ मन्त्र पढ कर घी के चारोम ओर घुमा देना चाहिए – इसे अभिद्योतन कहते हैं । पुनः घी में तीन कुशा डुबोकर ‘अस्त्रोय फट् ’ इस मन्त्र से जलाकर आज्यस्थाली में डाल देनी चाहिए । पुनः अङ्गार को उसी कुण्ड में डाल देना चाहिए । तदनन्तर साधक को जल का स्पर्श करना चाहिए ॥१७० -१७१॥

अङ्‌गुष्ठानामिकाभ्यां तु दर्भावादाय निःक्षिपेत् ‍ ।

त्रिरग्निंसंमुखेत्वाज्यमस्त्रेणोत्पवनं त्विदम् ‍ ॥१७२॥

पुनः अनामिका और अंगुष्ठ इन दो अंगुलियों से दो कुशा लेकर ‘अस्त्राय फट् ‍’ इस मन्त्र से घी को ३ बार ऊपर की ओर उछालना चाहिए – इसे उत्पवन कहते हैं ॥१७२॥

हृदात्मसम्मुखं तद्वदाज्यक्षेपस्तु संप्लवः ।

नीराजनादिसंस्कारेष्वग्नौ दर्भान् ‍ विनिःक्षिपेत् ‍ ॥१७३॥

‘ ॐ नमः ’ इस मन्त्र से उस आज्य को तीन बार अपने सम्मुख उच्छालने का नाम संप्लवन है । नीराजनादि संस्कारों में अग्नि में दर्भ को डाल देना चाहिए ॥१७३॥

दर्भद्वयं ग्रन्थियुतं घृतमध्ये विनिःक्षिपेत् ‍ ।

वामदक्षिणयोः पक्षौ स्मृत्वा नाडीत्रयं स्मरेत् ।

दक्षिणाद्वामतो मध्याद्धऋदादाय घृतं सुधीः ॥१७४॥

अग्नयेग्निप्रियासोमायस्वाहेत्यग्निनेत्रयोः ।

जुहुयादग्नीषोमाभ्यां स्वाहेत्याक्ष्णितृतीयके ॥१७५॥

ग्रन्थि युक्त दो कुशाओं को घी में डाल देना चाहिए । फिर वाम एवं दक्षिण दोनों प्रकर के स्वरों का ध्यान कर ईडा , पिङ्गला तथा सुषुम्ना एन तीनों नाडियों का ध्यान करे । साधक दक्षिण , वाम एवं मध्य भाग में ‘ॐ नमः ’ मन्त्र से घी लेकर ‘ॐ अग्नये स्वाहा ’ ‘ॐ सोमाय स्वाहा ’ इन दो मन्त्रों से अग्नि के दीनों नेत्रों में तथा ‘ॐ अग्नीषोमाभ्यां स्वाहा ’ इस मन्त्र से उनके तृतीय नेत्र में आहुति देवे ॥१७४ -१७५॥

पातयेदाहुतेः शेषमाहुतिग्रहणस्थले ।

भूयो हृदादक्षभागादादायाज्यं मुखे यजेत् ‍ ॥१७६॥

अग्नये स्विष्टकृते तन्नेत्रास्योद्धाटनं मतम् ‍ ।

आहुति से शेष भाग का प्रणीत में डाल देना चाहिए , फिर ‘ॐ नमः ’ मन्त्र से दाहिनी ओर से घी लेकर ‘ॐ अग्नये स्विष्टकृते स्वाहा ’ मन्त्र से एक आहुति अग्निदेव के मुख में देवे । ऐसा करने से उनके नेत्र उद्‌घाटन हो जाता है ॥१७६ -१७७॥

नरसिंह विना विष्णुं मन्त्रनेत्रद्वयं यजेत् ‍ ॥१७७॥

नरसिंहान्य देवेषु वहनेर्नेत्रत्रयं स्मृतम् ‍ ।

नृसिंह को छोडकर विष्णुके मन्त्रों से दोनों नेत्रों में दो आहुत देनी चाहिए तथा नृसिंह एवं अन्य देवताओं के मन्त्र के दशांश हवन में अग्नि के तीनों नेत्रोम में आहुतियाँ देनी चाहिए ॥१७७ -१७८॥

महाव्याहृतिभिर्व्यस्तसमस्ताभिश्चतुष्टयम् ‍ ॥१७८॥

आहुतीनां त्रयं वहिनमन्त्रेणैव ततश्चरेत् ‍ ।

घृताहुतिभिरष्टाभिरकैकां संस्कृति चरेत् ‍ ॥१७९॥

महाव्याह्रतियों से पृथक् ‍ पृथक् ‍ (यथा ॐ भूः स्वाहा , ॐ भुवः स्वाहा , ॐ स्वःस्वाहा तदनन्तर ॐ भूर्भुवः स्वः स्वाहा ) ये चार आहुतियाँ देनी चाहिए । फिर अग्निमन्त्र (ॐ वैश्वानर जातवेद इहावह लोहिताक्ष सर्वकर्माणि साधय स्वाहा ) से तीन आहुति प्रदान करे । फिर घी की आठ आहुतियों से क्रमशः एक -एक आहुति से अग्नि का एक -एक संस्कार करना चाहिए ॥१७८ -१७९॥

अग्निषट्‌संस्कारकरणम् ‍

ओमस्याग्नेरंमु संस्कारं करोम्यग्निवल्लभा ।

इत्थं मनुं जपनं ‍ गर्भाधानं पुंसवन् ‍ ततः ॥१८०॥

सीमन्तोन्नयनं जातकर्म कृत्वा ततश्चरेत् ‍ ।

वहनौ पञ्चसमिद्धोमान्नालापनयनं वसोः ॥१८१॥

अब अग्निं के छह संस्कार कहते हैं – सर्वप्रथम ‘ॐ अस्याग्नेः गर्भाधानं संस्कारं करोमि स्वाहा ’ इस प्रकार मन्त्र से १ . गर्भाधान संस्कार करे । इसी प्रकार २ . पुंसवन , ३ . सीमान्तोन्नयन , ४ . जातकर्म तथा ५ . नालच्छेदन में क्रमशः उक्त अग्निमन्त्र पढकर पाँच पलाश की समिधाओं की एक -एक के क्रम से अग्नि में आहुति देवें ॥१८० -१८१॥

कुर्याद् ‍ देवाभिधानेन पूर्वन्नामशुष्मणः ।

नामानन्तरमेतस्य पितरौ स्वेर्पयेद्धृदि ॥१८२॥

तदनन्तर अग्निदेवता का ६ . नामकरण इस प्रकार करें । यदि गणेश मन्त्र की आहुति देनी हो तो गणेशाग्नि , राम और कृष्ण की आहुति देनी हो तो रामाग्नि एवं ‘कृष्णाग्नि ’ ऐसा नामकरण ’ करें । एक प्रकार अग्नि के नामकरण के पश्चात् इनके माता पिता वागीशी एवं वागीश को अपने हृदय में स्थापित करे ॥१८२॥

अन्नप्राशं तथा चौलेपनयौ दारयोजनम् ‍ ।

संस्काराः स्युर्विवाहान्तामृत्युन्ता क्रूरकर्मणि ॥१८३॥

तदनन्तर अन्नप्राशन , चौल ,म उपनयन एव विवाह संस्कार भी उक्त प्रकार के संकल्प से एक -एक आहुति देते हुये सम्पन्न करना चाहिए । शुभ कार्यो में विवाह पर्यन्त ही संस्कार किए हैं , किन्तु क्रूर कर्मों में मृत्यु पर्यन्त संस्कार करने की विधि है ॥१८३॥

एकैकामाहुतिं कुर्याद् ‍ वहनेर्जिहवाङमूर्तिभिः ।

इन्द्रादिभिश्च वज्राद्यैर्द्विठान्तैर्जुहुयात्ततः ॥१८४॥

तदनन्दर अग्नि की जिहवाओं (द्र० १ .१३४ ) एवं अग्नि की ही मूर्तियों को पूर्वोक्त (द्र १ .१४२ ) मन्त्रों से प्रत्येक में चतुर्थी विभक्ति लगाकर अन्त में स्वाहा पद का उच्चारण कर एक -एक आहुति प्रदान करें । (यथा – हिरण्यायै स्वाहा , गगनायै स्वाहा आदि। ) फिर इन्द्रादि देवों के लिए तथा उनके आयुधों के लिए चतुर्थ्यन्त नाम मन्त्रों के आगे स्वाहा लगाकर आहुति प्रदान करें । (यथा – इन्द्राय स्वाहा , वज्राय स्वाहा आदि ) ॥१८४॥

स्रुवेणाज्यं चतुर्वारं निधाय स्रुचितां सुधीः ।

अपिधाय स्रुवणैतौ गृहणीयात् ‍ करयुग्मतः ॥१८५॥

तिष्ठन्मूलं तयोर्नाभौ कृत्वाग्रे कुसुमं क्षिपेत् ‍ ।

वामस्तनान्तं तन्मूलं कृत्वाग्निमनुना सुधीः ॥१८६॥

जुहुयाद्वौषडन्तेन संपत्त्यर्थतन्द्रितः ।

तदनन्तर स्रुवा से स्रुचि में चार बार घी डालकर स्रुवा से स्रचि को ढककर खडे हो कर उन्हें दोनों हाथों से पकडकर नाभि के आगे कर उस पर पुष्प चढाना चाहिए । फिर उनका मूल अपने बायें स्तन के पास लाकर अग्निमन्त्र से (यथा -वैश्वानर जातवेद एहा वह लोहिताक्ष सर्वकर्माणि साधय स्वाहा वौषट् ) संपत्ति प्राप्ति के लिए साधक जागरुक होकर एक आहुति प्रदान करे ॥१८५ -१८७॥

महागणेशमन्त्रेण व्यस्तेन दशधा ततः ॥१८७॥

जुहुयाच्च समस्तेन चतुर्वारं घृताहुतीः ।

पूर्वपूर्वयुतं बीजषट्‌कं बाणाश्च सायकाः ॥१८८॥

मुनयो मार्गणाश्चेति विभागस्तन्मनोः स्मृतः ।

तदनन्तर महागणपति मन्त्र के दस विभाग कर प्रत्येक भाग से एक -एक आहुति देनी चाहिए । तदनन्तर गणपति के समस्त मन्त्र को चार बार पढकर चार घृत की आहुतियाँ प्रदान करनी चाहिए । महागणपति मन्त्र के सर्वप्रथम छः बीजों स छः आहुति तदनन्तर ५ , ५ , ७ एवं ५ अक्षरों के मन्त्रों से एक -एक आहुति देने का विधान है ॥१८७ -१८९॥

तारो लक्ष्मीर्गिरिसुता कामो भूर्गणनायकः ॥१८९॥

चतुर्थ्यन्तो गणपतिर्वरान्ते वरदेति च ।

सर्वान्ते जनमित्युक्त्वा मे वशान्ते तु मानय ॥१९०॥

स्वाहान्तो वसुयुग्मार्णो महागणपतेर्मनुः ।

एवं कृत्वाग्निसंस्कारं पीठं देवस्य पूजयेत् ‍ ॥१९१॥

महागणपति मन्त्र इस प्रकार है – तारा (ॐ ), लक्ष्मी (श्रीं ), गिरि सुता (ह्रीं ), काम (क्लीं ), भू (ग्लौं ), गणनायक (गं ) इसके बाद गणपति का चतुर्थ्यन्त (गणपतये ) फिर ‘वर ’ और ‘वरद ’ (वर वरद ), तदनन्तर ‘सर्वजन ’ फिर ‘मे वश ’ तदनन्तर ‘मानय ’, तदनन्तर ‘स्वाहा ’ लगाने से अथाइस अक्षर का मन्त्र बन जाता है । इस प्रकार अग्नि का संस्कार कर देव – पीठ की पूजा करनी चाहिए ॥१८९ -१९१॥

विमर्श – महागणपति का मन्त्र इस प्रकार है – ‘ॐ श्रीं ह्रीं क्लीं ग्लौं गं गणपतये वर वरद सर्वजनं मे वश मानय स्वाहा ’ ।

हवन विधि – साधक को दस भागों में इस प्रकर हवन करना चाहिए – यथा –

१ – ॐ स्वाहा ,

२ – ॐ श्री स्वाहा ,

३ – ॐ श्रीं ह्रीं स्वाहा ,

४ – ॐ श्री ह्री क्लीं स्वाहा ,

५ – ॐ श्री ह्री क्लीं ग्लौं स्वाहा ,

६ – ॐ श्री ह्री क्लीं ग्लौं गं स्वाहा ,

७ – ॐ श्री ह्री क्ली ग्लौं गं गणपतये स्वाहा ,

८ – ॐ श्री ह्री क्ली ग्लौं गं गणपतये वर वरद स्वाहा ,

९ – ॐ श्री ह्री क्लीं ग्लौं गं गणपतये वर वरद सर्वजनं मे वश स्वाहा ,

१० – ॐ श्री ह्री क्लीं ग्लौं गं गणपतये वर वरद सर्वजनं मे वशमानय स्वाहा ,

इन दस मन्त्रों से एक – एक आहुति प्रदान करनी चाहिए । फिर सम्पूर्ण उपर्युक्त २८ मन्त्राक्षरों से घी की चार आहुति देनी चाहिए ॥

तत्रेष्टदेवमावाह्य मुद्रा आवाहनादिकाः ।

प्रदर्श्य वहिनरुपस्य देवस्य वदने पुनः ॥१९२॥

मूलेन जुहुयात् ‍ पञ्चनेत्रसंख्या घृताहुतीः ।

वक्त्रैकीकरणं त्वग्निर्देवयोस्तेन जायते ॥१९३॥

सर्वप्रथम आवाहनादि मुद्रा प्रदर्शित कर पीठ इष्टदेव का आवाहन करना चाहिए । तदनन्तर अग्नि एवं इष्टदेव के मुख में मूल मन्त्र से पच्चिस संख्यक घी की आहुती प्रदान करनी चाहिए । ऐसा करने से अग्नि के मुख का एवं देवता के मुख का एकीकरण हो जाता है ॥१९२ -१९३॥

विमर्श – इष्ट देव के आवाहन में साधक निम्न मुद्राओं का प्रदर्शन करे – १ आवाहिनी , २ . स्थापनी , ३ . सन्निधान , ४ .सन्निरोध , ५ . सम्मुखीकरण , ६ . सकलीकरण , ७ . अवगुष्ठन , ८ . अमृतीकरण और ९ . परमीकरण । इनका स्वरुप इस प्रकार है –

१ . आवाहनी मुद्रा – “सम्यक् सम्पूजितैः पुष्पैः कराभ्यां कल्पिताञ्जलिः । आवाहनी समाख्याता मुद्रदेशिक सत्तमैः । अनामामूलं संलग्नाङ्गगुष्ठग्राञ्जलिरीरिता ॥ ”

‘ ॐ पुष्पे पुष्पे महापुष्पे सुपुष्पे पुष्पसम्भवे पुष्पं च यवकीर्ण हुं फट् स्वाहा – इस मन्त्र से संशोधित पुष्पों को लेकर दोनों हाथों की अञ्जलि बनाने को आवाहनी मुद्रा कहते हैं ।

२ . स्थापनी मुद्रा – “अधोमुखी कृता सैव स्थापनीति निगद्यते । ” आवाहनी मुद्रा को अधोमुख करने से स्थापनी मुद्रा बन जाती है ।

३ . सन्निधान मुद्र – “आश्लिष्टमुष्टियुगला प्रोन्नताङ्गष्ठयुमका । सन्निधाने समुच्छिष्टा मुद्रयं तन्त्रेवेधिभिः ॥ ” अंगूठों को ऊपर उठाकर दोनों मुट्टियों को परस्पर मिलाने से सन्निधान मुद्रा बनती है ।

४ . सन्निरोध मुद्रा – “अङ्गगुष्ठगार्भिणी सैव सन्निरोधे समीरिता । अङ्‍गूठों को भीतर कर दोनों मुट्टियों को परस्पर मिलाने से सन्निरोध मुद्रा बनती है ।

५ . सम्मुखीकरण मुद्रा – “बद्धाञ्जलि हृदि प्रोक्ता सम्मुखीकरणे बुधैः । ” हृदय प्रदेश में अञ्जलि बनाने को सम्मुखीकर मुद्रा कहते हैं ।

६ . सकलीकरण मुद्रा – “देवाङ्गगेषु षडङ्गानां न्यासः स्यात्सकलीकृतिः । ” देवता के अङ्गों पर षडङ्गान्यास करना सकलीकरण कहलाता है ।

७ . अवगुण्ठन मुद्रा – “सव्यहस्तकृता मुष्टिः दीर्घाधोमुख तर्जनी । अवगुण्ठमुद्रयमाभितो भ्रामिता भवेत् । दाहिने हाथ की मुट्टी बनाकर मध्यमा एवं तर्जनी को अधोमुख कर चारों ओर घुमाने से अवगुण्ठन मुद्रा बनती है ।

८ . अमृतीकरण के लिए धेनुमुद्रा – ” अन्योन्याभिमुखौ श्लिष्टौ कनिष्ठानामिका पुनः । तथा तु तर्जनीभ्या धेनुमुद्रा प्रकीर्तिता ॥ ”

दोनों हाथों की कनिष्ठा एवं अनामिका को तथा मध्यमा को एक दूसरे से मिलाने पर धेनु मुद्रा बनती है ।

९ . परमीकरण के लिए महामुद्रा –

अन्योन्य ग्रथिताङ्‍गुष्ठौ प्रसारितकराङ्‍गुलिः । महामुद्रेयमुदिता परमीकरणे बुधैः ॥

अंगूठों को परस्पर ग्रथित कर अङ्‍गुलियां फैलाने से महामुद्रा बनती है । इसे परमीकरण मुद्रा कहते हैं ॥

नाडीसन्धानसिद्धयर्थ वहिनदेवतयोस्ततः ।

जुहुयान्मूलमन्त्रेण रुद्रसंख्या घृताहुतीः ॥१९४॥

पश्चात् अग्नि एव इष्टदेव के नाडीसंधान के लिए मूलमन्त्र से ग्यारह आहुति प्रदान करनी चाहिए ॥१९४॥

इष्टदेवस्यावृतीनामेकैकामाहुतिं चरेत् ‍ ।

ततस्तु मूलमन्त्रेण दशधा जुहुयाद् ‍ घृतम् ‍ ॥१९५॥

पुनः इष्टदेव के आवरण देवताओं को १ -१ आहुति देनी चाहिए (आवरण देवता द्र० १ ५० -५५ ) फिर मूलमन्त्र से १० संख्यक घृत की आहुति देनी चाहिए ॥१५॥

ततः कल्पोक्तद्रव्येण दशांशं जुहुयाज्जपात् ‍ ।

होमं समाप्य कुर्वीत पूर्णाहुतिमनन्यधीः ॥१९६॥

तदनन्तर तत्तत् कल्पों में प्रतिपादित तत्तद्‍देव विशेषों के हवि से जप का दशांश होम कर होम का समापन करें । तदनन्तर एकाग्रचित्त से पूर्णाहुति करें ॥१९६॥

होमावशिष्टेनाज्येन पूरयित्वा स्रुचं सुधीः ।

पुष्पं फलं निधायाग्रे स्रुवेणाच्छाद्य तां पुनः ॥१९७॥

उत्थितौ वौषडन्तेन मूलेन जुहुयाद् ‍ वसौ ।

तद्‌द्रव्येणावृतीनां च जुहुयादाहुतिं पृथक् ‍ ॥१९८॥

अब पूर्णाहुति का प्रकार प्रस्तुत करते हैं –

विद्वान् साधक होमावशिष्ट घृत से स्रुचि को भर कर उसमेम पुष्प एवं फल रखकर स्रुवा से ढक कर खडा हो मूलमन्त्र के अन्त मं वौषट् लगाकर अग्नि में पूर्णाहुति करें , तथा शेष होमद्रव्य से आवरण देवताओं को पृथक -पृथक् आहुति प्रदान करें ॥१९७ -९८॥

देवं विसृज्य स्वहृदि वहनेर्जिहवाङुमूर्तिभिः ।

जुहुयाद् ‍ व्याहृतीर्हुत्वा प्रोक्षेत्तं प्रोक्षणीजलैः ॥१९९॥

फिर अपने हृदय में इष्टदेव का विसर्जन कर अग्नि की सात जिहवाओं एवं आठ मूर्तियों को आहुतियाँ प्रदान करे । तदनन्तर महाव्याहृतियों से हवन कर प्रोक्षणी के जल से अग्नि का प्रोक्षण (सिञ्चन ) करे ॥१९९॥

सम्र्पार्थ्यानेन मनुना नत्वा तं विसृजेद्धृदि ।

भो भो वहने महाशक्ते सर्वकर्मप्रसाधक ॥२००॥

कर्मान्तरेऽपि सम्प्राप्ते सान्निध्यं कुरु सादरम् ‍ ।

तदनन्तर – ‘भो भो वहने महाशक्ते सर्वकर्मप्रसाधक ।

कम्रान्तरेऽपि संप्राप्ते सान्निध्यं कुरु सादरम् ’॥

इस मन्त्र से अग्निदेव की प्रार्थना कर प्रणाम करणे के पश्चात् अपने हृदय में उनका विसर्जन करें ॥२०० -२०१॥

पवित्रप्रतिपत्तिः

वहनौ पवित्रे निःक्षिप्य प्रणीताम्बु भुवि क्षिपेत् ‍ ॥२०१॥

विधिं विसृज्य सकुशान् ‍ परिधीन्विन्यसेद्वसौ ।

एवं होमं समाप्याथ तर्पयेद् ‍ देवताम जले ॥२०२॥

पवित्री बनाये गये कुशाओं को अग्नि में प्रक्षिप्त कर प्रणीता का जल पृथ्वी पर गिरा देवें । तदनन्तर ब्रह्मदेव का विसर्जन कर पारिधि बनाये गये कुशाओं को भी अग्नि में पक्षिप्त कर देना चाहिए । इस प्रकार हो समाप्त कर जल में इष्ट देवता का तपर्ण करें ॥२०१ -२०२॥

तर्पणादिकथनम् ‍

आवाह्य तद्‌दशांशेन तर्पनादभिषेचनम् ‍ ।

तर्पयामि नमश्चेति द्वितीयान्तेष्टपूर्वकम् ‍ ॥२०३॥

मूलान्ते तु पदं देयं सिञ्चामीत्यभिषेचने ।

अब तर्पण अभिषेक एवं ब्राह्मण भोजन की विधि कहते हैं – जल में देवता का आवाहन कर होम संख्या का दशांश तर्पण तर्पण का दशांश मार्जन (अभिषेक ) करना चाहिए । मूलमन्त्र के बाद द्वितीयान्त देव नाम , तदनन्तर ‘तर्पयामि नमः ’ लगाकर तर्पण करना चाहिए । इसी प्रकर अभिषेक में मूलमन्त्र के बाद द्वितीयान्त देव नाम लगाकर अन्त में ‘ऋषि सिञ्चामि ’ लगाकर अभिषेक करना चाहिए ॥२०३ -२०४॥

विमर्श – किसी भी अनुष्ठान में साधक को चाहिए कि वह मन्त्र की जप संख्या जितनी हो उसके दसवें हिस्से से अर्थात् दस माला का दसवाँ हिस्सा एक माला से हवन करे और हवन के दसवें से तर्पण करे तथा दसवें हिस्से से मार्जन (अभिषेक ) करे और उसके दसवें हिस्से से ब्राह्मण भोजन की संख्या निश्चित करे । जैसे गणपति मन्त्र के एक लाख जप के पुरश्चरण में हवन की संख्या दस हजार और तर्पण की संख्या एक हजार एवं अभिषेक की संख्या एक सौ तथा ब्राह्मण भोजन की संख्या दस होनी चाहिए ।

तर्पण विधि – तर्पण करते समय साधक मूलमन्त्र के बाद देवता क द्वितीयान्त नाम तथा अन्त में ‘तर्पयामि नमः ’ कहते हुए तर्पण करे । जैसे उच्छिष्ट गणपति के मन्त्र में तर्पण इस प्रकार होगा – ‘ॐ हस्ति पिशाचि लिखे स्वहा उच्छिष्टगणपतिं तर्पयामि नमः । ’

अभिषेक विधि – अभिषेक करते समय साधक मूलमन्त्र के बाद देवता का द्वितीयान्त नाम तथा अन्त में ‘अभिषिञ्चामि कहते हुए अभिषेक करे । जैसे उच्छिष्ट गणपति मन्त्र के पुरश्चरण में अभिषेक इस प्रकार होगा – ‘ॐ हस्ति पिशाचि लिखे स्वाहा उच्छिष्ट गणपतिभिषिञ्चामि ’ ॥२०३ -२०४॥

ततो ननाविधैस्तर्पयेद् ‍ द्विजसत्तमान् ‍ ॥२०४॥

इष्टरुपान्समाराध्य तेभ्यो दद्याच्च दक्षिणाम् ‍ ।

न्यूनं सम्पूर्णतामेति ब्राह्मणाराधनान्नृणाम् ‍ ॥२०५॥

देवताश्च प्रसीदन्ति सम्पद्यन्ते मनोरथाः ॥२०६॥

तदनन्तर विविध प्रकार के पक्वान्नों आदि से श्रेष्ठ ब्राह्मणों को भोजन कराना चाहिए । अपने इष्टदेव के रुप में आगत उ ब्राह्मणों का पूजन कर उन्हें दक्षिणा देनी चाहिए क्योंकि ब्राह्मणों की आराधना से अनुष्ठान में होने वाली न्यूनता दूर हो जाता है । इससे देवता प्रसन्न हो जाते हैं तथा अपने सभी मनोरथों की सिद्धि हो जाती है ॥२०४ -२०६॥

॥ इति श्रीमन्महीधरविरचितायां मन्त्रमहोदधेः व्याख्यायां नौकायां भूतशुद्धयादिकथनं नाम प्रथमस्तरङ्गः ॥१॥

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