मन्त्रमहोदधि तरङ्ग १० || Mantra Mahodadhi Taranga 10
मन्त्रमहोदधि तरङ्ग १० दशम तरङ्ग में बगलामुखी तथा वाराही को भी बतलाया गया है।
मन्त्रमहोदधि दशम तरङ्ग
मन्त्रमहोदधिः दशमः तरङ्गः
मन्त्रमहोदधि तरङ्ग १०
मंत्रमन्त्रमहोदधि
अथ दशम तरङ्ग
अरित्र
अथ प्रवक्ष्ये शत्रूणां स्तम्भिनी बगलामुखी ।
बगलामुखीमन्त्रः
प्रणवो गगनं पृथ्वीशान्तिबिन्दुयुतं बग ॥१॥
लामुखाक्षो गदीसर्वं दुष्टानां वाहलीन्दुयुक् ।
मुखंपदं स्तम्भयान्ते जिहवाम कीलय वर्णकाः ॥२॥
बुद्धिं विनाशायान्ते तु बीजं तारोऽग्निसुन्दरी ।
अब शत्रुओं के मुख पीठ जिहवा आदि का स्तम्भन करने वाले बगलामुखी का मन्त्र बतलाता हूँ ।
प्रणव (ॐ), शान्ति (ई) एवं बिन्दु (अनुस्वार) के सहित गगन (हू), अर्थात् (ह्रीं), फिर ‘बगलामु’, फिर साक्ष इकार युक्त गदी (ख) अर्थात् (खि), फिर ‘सर्वदुष्टानां वा’, इन्दु (अनुस्वार) युक् हली (च) अर्थात् (चं), फिर ‘मुखं पदं स्तम्भय’ के बाद ‘जिहवां कीलय बुद्धिं विनाशय’, फिर बीज (ह्रीं), तार (ॐ), फिर अग्निसुन्दरी (स्वाहा) लगाने से छत्तिस अक्षरों का मन्त्र निष्पन्न होता है ॥१-३॥
विमर्श – इस मन्त्र का स्वरुप इस प्रकार है – ‘ॐ ह्रीं बगलामुखि सर्वदुष्टानां वाचं मुखं पदं जिहवां कीलय बुद्धिं विनाशय ह्रीं ॐ स्वाहा; ॥१-३॥
षट् त्रिंशदक्षरो मन्त्रो नारदो मुनिरस्य तु ॥३॥
छन्दोऽपिबृहती ज्ञेयं देवताबगलामुखी ।
नेत्राक्षसायकनवपञ्चकाष्ठाभिरङ्गकम् ॥४॥
इस मन्त्र के नारद ऋषि हैं, बृहती छन्द है, बगलामुखी देवता हैं, मन्त्र के २, ५, ५, ९, ५, एवं १० अक्षरों से षडङ्गन्यास करना चाहिए ॥३-४॥
विमर्श – विनियोग – ‘ॐ अस्य श्रीबगलामुखीमन्त्रस्य नारदऋषिः बृहतीछन्दः बगलामुखीदेवता शत्रूणां स्तम्भनार्थे जपे विनियोगः ।
षडङ्गन्यास – ॐ ह्रीं हृदयाय नमः, ॐ बगलामुखि शिरसे स्वाहा,
ॐ सर्वदुष्टानां शिखायै वषट्, ॐ वाचं मुखं पदं स्तम्भय कवचाय हुम्
ॐ जिहवां कीलय नेत्रत्रयाय वौषट् ॐ बुद्धिं विनाशय ह्रीं,
ॐ स्वाहा अस्त्राय फट् ॥३-४॥
ध्यानजपदिविधानम्
सौवर्णासनसंस्थिता त्रिनयनां पीतांशुकोल्लासिनीं
हेमाभाङरुचिं शशाङ्कमुकुटां सच्चम्पकस्रग्युताम् ।
हस्तैर्मुद्गरपाश वज्ररसनाः सम्बिभ्रतीं भूषणै
र्व्याप्ताङ्गी बगलामुखीं त्रिजगतां संस्तम्भिनीं चिन्तयेत् ॥५॥
अब बगलामुखी देवी का ध्यान कहते हैं –
सुवर्ण निर्मित सिंहासन पर विराजमान, तीन नेत्रों वाली पीत वस्त्र से उदीप्त सुवर्ण के समान आभा वाली, चन्द्रकला युक्त मुकुट धारण की हुई, चम्पक की माला पहने हुये, अपने हाथोम में मुद्गर, पाश वज्र एवं शत्रु की जीभ लिए हुये, अपने समस्त अङ्गों में भूषण धारण किये हुये, तीनों लोकों को स्तम्भित करने वाली बगलामुखी का ध्यान करना चाहिए ॥५॥
एवं ध्यात्वा जपेल्लक्षमयुतं चम्पकोद्भ वैः ॥६॥
इस प्रकार ध्यान कर के मन्त्र का एक लाख जप करना चाहिए । चम्पा के फूलों से दश हजार आहुतिय़ाँ देनी चाहिए, तथा पूर्वोक्त पीठ पर इनका पूजन करना चाहिए । (द्र० ९.९) ॥६॥
चन्दनागुरुचन्द्राद्यैः पूजार्थं यन्त्रमालिखेत् ।
त्रिकोणषड्दनलाष्टास्रषोडशारधरापुरम् ॥७॥
अब बगलामुखी का पूजन यन्त्र कहते हैं – त्रिकोण, षड्दल, अष्टदल षोडशदल एवं भूपुर से संयुक्त पूजायन्त्र को चन्दन, अगरु, कपूर आदि अष्टगन्ध के द्रव्यों से निर्माण करना चाहिए ॥७॥
मध्ये सम्पूजयेद् देवीं कोणे सत्त्वादिकान्गुणान् ।
षट्कोणेषु षड्ङ्गानि मातृर्भैरवसंयुता ॥८॥
अब यन्त्र पूजा की विधि कहते है – मध्य में देवी की पूजा तथा त्रिकोण सत्त्व, रज, तम आदि तीनों गुणों की, षट्कोण में षडङ्गपूजा तथा अष्टदल में भैरवों कें साथ मातृकाओं का पूजन करना चाहिए ॥८॥
सम्पूज्याऽष्टदले पदमे् षोडशारे यजोदिमाः ।
अष्टषोडशपीठदेवताकथनम्
मङ्गलास्तम्भिनी चैव जृम्भिणीमोहिनी तथा ॥९॥
वश्याचलाबलाका च भूधराकल्मषाभिधा ।
धात्री च कलनाकलकर्षिनीभ्रामिकाऽपि च ॥१०॥
मन्दगमना च भोगस्था भाविका षोडशी स्मृता ।
सोलह दल में १. मङ्गला, २. स्तम्भिनी, ३. जृम्भिणी, ४. मोहिनी, ५. वश्या, ६. चला, ७. बलाका, ८. भूधरा, ९. कल्मषा, १०. धात्री, ११. कलना, १२. कालकर्षिणी, १३. भ्रामिका, १४. मन्दगमना, १५. भोगस्था एवं १६. भाविका – इन सोलह शक्तियों की पूजा करनी चाहिए ॥९-११॥
भूगृहस्य चतुर्दिक्षु पूर्वादिषु यजेत् क्रमात् ॥११॥
गणेशं बटुकं चापि योगिनीं क्षेत्रपालकम् ।
इन्द्रादींश्च ततो बाह्ये निजायुधसमान्वितान् ॥१२॥
इत्थं सिद्धमनुर्मन्त्री स्तम्भयेद् देवतादिकान् ।
भूपुर के पूर्वादि चारों दिशाओं में गणेश, बटुक, योगिनी एवं क्षेत्रपाल का पूजन करें । फिर उसके बाहर अपने अपने आयुधों के सहित इन्द्रादि दश दिक्पालों का पूजन करना चाहिए । इस प्रकार मन्त्र सिद्ध हो जाने पर साधक, देवता, भूत, प्रेत, पिशाचादि सभी को स्तम्भित कर देता है ॥११-१३॥
विमर्श – आवरण पूजा – १०. ५ में वर्णित स्वरुप का साधक ध्यान कर मानसोपचार से विधिवत् पूजन कर शंख का अर्घ्यपात्र स्थापित करे । फिर ९-९ की रीति से पीठ पूजा कर मूल मन्त्र से देवी की मूर्त्ति की कल्पना कर पुष्प, धूपादि उपचार समर्पित कर पुष्पाञ्जलि समर्पित करे । तदनन्तर उनकी अनुज्ञा ले कर यन्त्र पर आवरण पूजा करे ।
सर्वप्रथम त्रिकोण में मूलमन्त्र द्वारा देवी बगलामुखी की पूजा करे । फिर त्रिकोण में सत्त्व रज और तम इन तीनों गुणों की यथा –
ॐ सं सत्त्वाय नमः, ॐ रं रजसे नमः, ॐ तं तमसे नमः ।
इसके पश्चात् षट्कोण में षडङ्गन्यास – यथा –
ॐ ह्रीं हृदयाय नमः ॐ बगलामुखि शिरसे स्वाहा,
ॐ सर्वदुष्टानां शिखायै वषट् ॐ वाचंमुखं पदं स्तम्भय कवचाय हुं,
ॐ जिहवां कीलय नेत्रत्रयाय वौषट्, ॐ बुद्धिं विनाशय ह्रीं
ॐ स्वाहा अस्त्राय फट् ।
इसके बाद अष्टदल में अष्ट भैरवों सहित ब्राह्यी आदि अष्टमातृकाओं की पूजा करनी चाहिए-
१ – ॐ असिताङ्गब्राह्यीभ्यां नमः
२ – ॐ रुरुमाहेश्वरीभ्या नमः
३ – ॐ चण्डकौमारीभ्या नमः
४ – ॐ क्रोधवैष्णवीभ्यां नमः
५ – ॐ उन्मत्तवाराहीभ्या नमः
६ – ॐ कपालीन्द्राणीभ्यां नमः
७ – ॐ भीषणचामुण्डाभ्यां नमः
८ – ॐ संहारमहालक्ष्मीभ्यां नमः
इसके बाद षोडशल में मङ्गला आदि शक्तियों की पूजा करनी चाहिए ।
१ . ॐ मङ्गलायै नमः
२. ॐ स्तम्भिन्यै नमः,
३. ॐ जृम्भिण्यै नमः
४. ॐ मोहिन्यै नमः,
५. ॐ वश्यायै नमः,
६. ॐ चलायै नमः,
७. ॐ बलाकायै नमः,
८. ॐ भूधरायै नमः,
९. ॐ कल्मषायै नमः,
१०. ॐ धात्र्यै नमः,
११. ॐ कलनायै नमः,
१२. ॐ कालकर्षिण्यै नमः,
१३. ॐ भ्रामिकायै नमः,
१४. ॐ मन्दगमनायै नमः,
१५. ॐ भोगस्थायै नमः,
१६. ॐ भाविकायै नमः,
फिर भूपुर के पूर्वादि चारों दिशाओं में क्रमशः गणेश, बटुक, योगिनी एवं क्षेत्रपाल की पूजा करनी चाहिए –
ॐ गं गणपतये नमः, पूर्वे, ॐ बं बटुकाय नमः दक्षिणे,
ॐ यं योगिनीभ्यो नमः, पश्चिमे, ॐ क्षं क्षेत्रपालाय नमः, उत्तरे,
इसके पश्चात भूपुर के बाहर अपनी अपनी दिशाओं में इन्द्रादि दश दिक्पालों की पूजा करनी चाहिए –
ॐ इन्द्राय नमः पूर्वे, ॐ अग्नये नमः आग्नेये, ॐ यमाय नमः दक्षिणे,
ॐ निऋतये नमः, नैऋत्ये, ॐ वरुणाय नमः पश्चिमे, ॐ वायवे नमः वायव्ये,
ॐ सोमाय नमः,उत्तरे, ॐ ईशानाय नमः ऐशान्यां, ॐ ब्रह्मणे नमः पूर्वेशानयोर्मध्ये,
ॐ अनन्ताय नमः पश्चिमनैऋत्ययोर्मध्ये
फिर दिक्पालों के पास उनके अपने अपने वज्रादि आयुधों की
इन्द्रसमीपे वज्राय नमः, अग्निसमीपे शक्तये नमः,
वरुनसमीपे दण्डाय नमः, वायुसमीपे आकशाय नमः,
सासमीपे गदायै नमः, ईशानसमीपे शूलाय नमः,
ब्रह्यणःसमीपे पद्माय नमः अनन्तसमीपे चक्राय नमः ॥१२॥
इस प्रकार आवरण पूजा कर धूपदीपादि उपचारों से विधिवत् देवी की पूजा कर यथासंख्य नियमित जप करना चाहिए ॥११-१३॥
पीतवस्त्रस्तदासीनः पीतमाल्यानुलेपनः ॥१३॥
पीतपुष्पैर्यजेद् देवीं हरिद्रोत्थस्रजा जपन् ।
पीतां ध्यायन् भगवतीं प्रयोगेष्वयुतं जपेत् ॥१४॥
अब बगलामुखी के जप के लिए विशेष प्रकार कहते हैं –
साधक पीला वस्त्र पहन कर, पीले आसन पर बैठकर, पीली माला धारण कर, पीला चन्दन लगाकर, पीले पुष्पों से देवी की पूजा करे, तथा पीतवर्णा देवी का ध्यान भी करे, काम्य प्रयोगों में हल्दी की माला का प्रयोग करे तथा १० हजार की संख्या में जप करे ॥१३-१४॥
अस्य मन्त्रस्य नानाविधानेन नानासिद्धयः
त्रिमध्वक्ततिलैर्होमो नृणां वश्यकरो मतः ।
मधुरत्रितयाक्तैः स्यादाकर्षो लवर्णैर्धुवम् ॥१५॥
तैलाभ्यक्तैर्निम्बपत्रैर्होमो विद्वेषकारकः ।
ताललोणहरिद्राभिर्द्विषा संस्तम्भनं भवेत् ॥१६॥
अङ्गारधूमं राजीश्च माहिषं गुग्गुलुं निशि ।
शमशानापावके हुत्वा नाशयेदचिरादरीन् ॥१७॥
गुरुतो गृध्रकाकानां कटुतैलं बिभीतकम् ।
गृहधूमं चितावहनौ हुत्वा प्रोच्चाटयेद् रिपून ॥१८॥
दूर्वागुडूचीलाजान् यो मधुरत्रितयान्वितान् ।
जुहोति सोखिलान् रोगाञ्छमयेद् दर्शनादपि ॥१९॥
पर्वताग्रे महारण्ये नदीसङे शिवालये ।
ब्रह्मचर्यव्रतो लक्षं जपेदखिलासिद्धये ॥२०॥
त्रिमधु (शहद्, शर्करा,दूध) मिश्रित तिलों के होम से मनुष्यों को वश में किया जाता है । त्रिमधु मिश्रित लवण के होम से निश्चित रुप से आकर्षण होता है । तेलाभ्यक नीम के पत्तों के होम से विद्वेषण होता है । लाल लोण एवं हरिद्रा के होम से शत्रु वर्ग का स्तम्भन होता है, श्मशान की अग्नि में रात्रि के समय अङ्गार,धूप, राजी (राई) मैंसा, गुग्गुल की आहुतियाँ देने से शत्रुओं का नाश होता है । चिता की अग्नि में गिद्ध एवं कौवे के पंख का, सरसों का तेल तथा बहेडा एवं गृहधूम का होम करने से शत्रु का उच्चाटन होता है । मधुरत्रय मिश्रित दूर्वा, गुडूची एवं लाजा का जो व्यक्ति होम करता है उसके दर्शन मात्र से रोग ठीक हो जाते हैं । पर्वत के शिखर पर, घोर जङ्गल में, नदी के सङ्गम पर तथा शिवालय में ब्रह्यचर्य व्रत पूर्वक एक लाख बगलामुखी मन्त्र का जप करने से सारी सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं ॥१५-२०॥
एकवर्णगवीदुग्ध शर्करामधुसंयुतम् ।
त्रिशतं मन्त्रितं पीतं हन्याद्विषपराभवम् ॥२१॥
श्वेतापालाशकाष्ठेन रचिते रम्यपादुके ।
अलक्तरञ्जिते लक्षं मन्त्रयेन्मनुनाऽमुना ॥२२॥
तदारुढः पुमान् गच्छेत् क्षणेन शतयोजनम ।
पारदं पुमान् गच्छेत् क्षणेन शतयोजनम् ।
पारदं च शिलां तालपिष्टं मधुसमन्वितम् ॥२३॥
मनुनां मन्त्रयेल्लक्षं लिपेत्तेनाखिलान् तनुम् ।
अदृश्यः स्यान्नृणामेष आश्चर्यं दृश्यतामिदम् ॥२४॥
एक वर्णा गाय के दूध में शर्करा एवं मधु मिलाकर ३०० की संख्या में मूल मन्त्राभिमन्त्रित कर उसे पीने से शत्रु के द्वारा पराभव नही होता है । सफेद पलाश की लकडी से बनी मनोहर पादुकाओं को आलता से रंग देवे । फिर इस मन्त्र से एक लाख बार अभिमन्त्रित करे । इस प्रकार की पादुका पहिन कर चलने से मनुष्य क्षण मात्र में सौ योजन की दूरी पार कर लेता है । मधु युक्त पारा, मैनसिल एवं ताल को पीस कर इस मन्त्र से एक लाख बार अभिमन्त्रित कर उसे अपने सर्वाङ्ग में लेप करे तो वह व्यक्ति मनुष्यों के बीच में रहकर भी उन्हें दिखाई नहीं देता, जिसे इच्छा हो वह ऐसा करके देख सकता है ॥२१-२४॥
यन्त्रादिसाधनप्रकारः
षट्कोणे विलिखेद् बीजं साध्यनामान्वितं मनोः ।
हरितालनिशाचूर्णैरुन्मत्तरससंयुतैः ॥२५॥
शेषाक्षरैः समावीतं धरागेहविराजितम् ।
तद्यन्त्रं स्थापितप्राणं पीतसूत्रेण वेष्टयेत् ॥२६॥
भ्राम्यत् कुलालचक्रस्थां गृहीत्वा मृत्तिकां तया ।
रचयेद् वृषभं रम्यं यन्त्रं तन्मध्यतः क्षिपेत् ॥२७॥
हरितालेन संलिप्य वृषं प्रत्यहमर्चयेत् ।
स्तम्भयेद्विद्विषां वाचं गतिं कार्यपरम्पराम् ॥२८॥
हरिताल एवं हल्दी के चूरे में धतूरे का रस मिलाकर उससे निर्मित षट्कोण में उसी से ह्रीं बीज लिखकर जिस शत्रु का स्तम्भन करना हो उसका द्वितीयान्त (अमुकं) नाम लिखकर पुनः ‘स्तम्भय’ लिखे । शेष मन्त्राक्षरों को भूपुर ल्में लिखकर चारोम ओर उसे भूपुर से घेर देवें । उसमें प्राण प्रतिष्ठा कर पीले धागे से उसे घेर देवें । पुनः धूमती हुई कुम्हार की चाक से मिट्टी लेकर सुन्दर बैल बनावे तथा उसके पेट में उस यन्त्र को रखकर, उस पर हरताल का लेप कर, प्रतिदिन उस बैल की पूजा करता रहे तो ऐसा करने से शत्रुओं की वाणी, गति और समस्त कार्य की परम्परा स्तम्भित हो जाती है ॥२५-२८॥
आदाय वामहस्तेन प्रेतभूमिस्थखर्परम् ।
अङ्गारेण चितास्थेन तत्र यन्त्रं समालिखेत् ॥२९॥
मन्त्रितं निहितं भूमौ रिपूणां स्तम्भयेद् गतिम् ।
प्रेतवस्त्रे लिखेद्यन्त्रमङ्गारेणैव तत्पुनः ॥३०॥
मण्डूकवदने न्यस्तेत् पीतवस्त्रेण वेष्टितम् ।
पूजितं पीतपुष्पैस्तद् वाचं संस्तम्भयेद् द्विषाम् ॥३१॥
श्मशान स्थान स्थित किसी खपडे को बायें हाथ में लेकर उस पर चिता के अंगार से बगलामुखी यन्त्र बनावे । पुनः बगलामुखी मन्त्र से अभिमन्त्रित कर उसे शत्रु की जमीन में गाड देवे तो उसकी गति स्तम्भित हो जाती है । कफन पर चिता के अङ्गार से यन्त्र निर्माण करे । फिर उसे यन्त्र को मेढक के मुख में रखकर उसे पीले कपडे से बाँध देवे । तदनन्तर पीले पुष्पो से पूजित करे, तो शत्रुवर्ग की वाणी स्तम्भित हो जाती है ॥२९-३१॥
यद्भूमौ भविता दिव्यं तत्र यन्त्रं समालिखेत् ।
मार्जितं तद्वृषापत्रैर्दिव्यस्तम्भनकृद् भवेत् ॥३२॥
जो भूमि दिव्य (उत्तम देवसम्बन्धी) हो, वहाँ इस यन्त्र को लिखें, फिर वृषापत्र (अडूसे) के पत्तों से उसे मार्जित करे तो वह देवता लोगों को भी स्तम्भित कर देता है ॥३२॥
इन्द्रवारुणिकामूलं सप्तशो मनुमन्त्रितम् ।
क्षिप्तं जले दिव्यकृतां जलस्तम्भनकारकम् ॥३३॥
इन्द्र वारुणी नामक लता के मूल को सात बार इस मन्त्र से अभिमन्त्रित करे और उसे किसी देवस्थान के जल में अथवा दिव्य नदी में डाल देवें तो उससे जल का स्तम्भन हो जाता है ॥३३॥
किम्भूरिण साधकेनः मन्त्रः सम्यगुपासितः ।
शत्रूणां गतिबुद्धयादेः स्तम्भनो नात्रसंशयः ॥३४॥
विशेष क्या कहें साधक के द्वारा सम्यगुपासित होने पर यह मन्त्र शत्रुओं की गतिविधि एवं उनकी बुद्धि को स्तम्भित करे देता है इसमें संदेह नहीं ॥३४॥
स्वप्नवाराहीजनवशकरणो मन्त्रः
उच्यते स्वप्नवाराही जनतावशकारिणी ।
वेदादिबीजं माया च हृद् दीर्घौ जलपावकौ ॥३५॥
खं सदृक्सद्ययुग्मेधारे स्वप्नं सर्गिणौ च ठौ ।
कृशानुवल्लभां तोयं मन्त्रः पञ्चदशाक्षरः ॥३६॥
अब जनसमूहों को वश में करने वाली स्वप्न वाराही का मन्त्र कहते हैं –
वेदादि (ॐ), मायाबीज (ह्रीं), हृद (नमः), फिर दीर्घ युक्त जल एवं पावक (वारा), तदनन्तर सदृक् ख (हि), सद्ययुक् मेधा (घो), फिर ‘रे स्वप्न’, फिर विसर्ग सहित दो ठ (ठः ठः), इसके अन्त में कृशानुवल्लभा (स्वाहा) लगा देने से १५ अक्षरों का मन्त्र निष्पन्न होता है ॥३५-३६॥
विमर्श – मन्त्र का स्वरुप इस प्रकार – ‘ॐ ह्रीं नमः वाराहि घोरे स्वप्नं ठः ठः स्वाहा’ (१५) ॥३५-३६॥
ईश्वरो जगती स्वप्नवाराही मुनिपूर्वकाः ।
तारो बीजं च हृल्लेखाशक्तिष्ठौ कीलकं मतम् ॥३७॥
इस मन्त्र के ईश्वर ऋषि हैं, जगती छन्द है, स्वप्नवाराही देवता हैं,प्रणव (ॐ) बीज है, हृल्लेखा (ह्रीं) शक्ति है ठकार द्वय कीलक है ॥३७॥
विनियोग – ॐ अस्य श्री स्वप्न वाराही मन्तस्य ईश्वर ऋषि हैं जगती छन्द हैं स्वप्न वाराही देवता ॐ बीजं ह्रीं शक्ति ठः ठः कीलकं स्वाभीष्ट सिद्धयर्थ जपे विनियोग ॥३७॥
द्विपञ्चनेत्रहस्ताक्षियुग्मार्णैरङुकं मनोः ।
पादलिङ्गकटी कण्ठगण्डाक्षिश्रुतिनासिके ।
विन्यस्य मन्त्रजान् वर्णांशिन्तयेत् परदेवताम् ॥३८॥
अब स्वप्नवाराही का षडङ्गन्यास कहते हैं – द्वि (२), पञ्च (५), नेत्र (२), हस्त (२) अक्षि (२), युग्म (२) अक्षरों से षडङ्गन्यास करना चाहिए । फिर पैर, लिङ्ग, कटि, कण्ठ, गाल, नेत्र, कान, नासिका, एवं शिर – इन १५ स्थानों में मन्त्र के प्रत्येक वर्णो का न्यास करना चाहिए, तदनन्तर महादेवी का ध्यान करना चाहिए ॥३८॥
विमर्श – षडङ्गन्यास –
ॐ ह्रीं हृदयाय नमः, ॐ नमो वाराहि शिरसे स्वाहा,
ॐ घोरे शिखायै वषट्, ॐ स्वप्नं कवचाय हुं,
ॐ ठः ठः नेत्रत्रयाय वौषट् ॐ स्वाहा अस्त्राय फट् ।
अब वर्णन्यास की विधि कहते हैं –
ॐ नमः दक्षपादे, ह्रीं नमः वामपादे, नं नमः लिङ्गे
मों नमः दक्षकटौ, वां नमः वामकटौ, रां नमः कण्ठे,
हिं नमः दक्षगण्डे घों नमः वामगण्डे, रें नमः दक्षनेत्रे,
स्वं नमः वामनेत्रे, प्नं नमः दक्षकर्णे, ठः नमः वामकर्णे
ठः नमः दक्षनासायाम् स्वां नमः वामनासायाम् ह्रीं नमः मूर्ध्नि ॥३८॥
ध्यानजपीठदेवतादिपूजाकथनम्
मेघश्यामरुचिं मनोहरकुचां नेत्रत्रयोद्भासितां
कोलास्या शशिशेखरामचलयादंष्ट्रातले शोभिनीम् ।
बिभ्राणां स्वकराम्बुजैरसिलतां चर्मापि पाशं सृणिं
वाराहीमनुचिन्तद्धयवरारुढां शुभालंकृतिम् ॥३९॥
अब वाराही देवी का ध्यान कहते हैं –
काले मेघ के समान श्याम वर्ण वाली, मनोहर कुचों से युक्त, अपने तीन नेत्रों से प्रदीप्त,वाराही जैसे मुख वाली, अपने मस्तक पर चन्द्रकला धारण किये हुये, पृथ्वी को अपने दाँत से धारण करने के कारण शोभा युक्त तथा हाथों में तलवार, ढाल, पाश एवं अंकुश धारण किये, घोडे पर सवार, नाना अलङ्कारों से सुशोभित इस प्रकार के वाराही का ध्यान करना चाहिए ॥३९॥
लक्षं जपेद् दशांशेन नीलपद्मस्तिलैः शुभैः ।
जुहुयात् पूर्वसम्प्रोक्ते पीठे सम्पूजयदिमाम् ॥४०॥
उक्त मन्त्र का एक लाख जप करना चाहिए । अत्यन्त कल्याणकारी नीलपदम् मिश्रित तिलों से दशांश होम करना चाहिए तथा पूर्वोक्त पीठ पर इनका पूजन करना चाहिए ॥४०॥
त्रिकोणे तां समाराध्य षट्कोणेष्वङ्गदेवताः ।
षोडशारे यजेच्छक्तीर्वक्ष्यमाणास्तु षोडश ॥४१॥
उच्चाटनी तदीशी च शोषणी शोषणीश्वरी ।
मारणी मारणीशी च भीषणी भीषणीश्वरी ॥४२॥
त्रासनी त्रासनीशी च कल्पनी कम्पनीश्वरी ।
आज्ञाविवर्तिनीपश्चादाज्ञाविवर्तिनीश्वरी ॥४३॥
वस्तुजातेश्वरी चाथ सर्वसम्पादनीश्वरी ।
एताः पूज्याश्चतुर्थ्यन्ताः प्रणवाद्या नमोन्विताः ॥४४॥
त्रिकोण में देवी की पूजा करे । फिर ६ कोणों में अङ्ग्पूजा करे और षोडशदलों में वक्ष्यमाण १६ शक्तियों की पूजा करनी चाहिए । १. उच्चाटनी, २. उच्चाटनीश्वरी, ३. शोषणी, ४. शोषणीश्वरी, ५. मारणी, ६. मारणीश्वरी, ७. भीषणी, ८. भीषणीश्वरी, ९. त्रासनी, १०. त्रासनीश्वरा, ११. कम्पनी, १२. कम्पनीश्वरी, १३. आज्ञाविवर्त्तिनी, १४. आज्ञाविवर्त्तिनीश्वरी, १५. वस्तुजातेश्वरी एवं १६. सर्वसंपादनीश्वरी इन १६ शक्तियों को चतुर्थ्यन्त विभक्ति लगाकर अन्त में ‘नमः’ तथा आदि में प्रणव लगाकर पूजा करना चाहिए ॥४१-४४॥
यन्त्रदिप्रयोगसाधनकथनम्
यजेदष्टदले पद्मे मातृभैरवसंयुताः ।
लोकपालान्दशदले द्वितीये हेतिसंयुतान् ॥४५॥
अष्टदल में भैरव सहित, ८ मातृकाओं की, दश दल में इन्द्रादि दश दिक्पालों की,तथा द्वितीय दशदल में उनके आयुधों की पूजा करनी चाहिए ॥४५॥
विमर्श – पूजा प्रयोग – प्रथम १०.३९ में बताये गये स्वरुप के अनुसार देवी का ध्यान करे । मानसोपचार से उनका पूजन करे । इसके बाद शंख का अर्घ्यपात्र स्थापित कर ९. ९ में बताई गई रीति से पीठदेवता और पीठशक्तियों का पूजन कर ‘ॐ ह्रीं सर्वशक्तिकमलासनायै नमः’ मन्त्र से देवी को आसन रखे । पुनः मूलमन्त्र से देवी की मूर्ति की कल्पना कर धूपदीपादि समर्पित कर पुष्पाञ्जलि प्रदान करे । तदनन्तर उनकी आज्ञा ले यन्त्र पर आवरण पूजा प्रारम्भ करे ।
आवरण पूजा विधि – सर्वप्रथम त्रिकोण में मूलमन्त्र से देवी का पूजन करे । फिर षट्कोण में १०.३९ में बताई गई रीति से षडङ्गन्यास करे । इसके बाद षोडशदलों में १६ शक्तियों की पूर्वादि दिशाओं के क्रम से इस प्रकार पूजा करे ।
ॐ उच्चाटन्यै नमः, ॐ उच्चाटनीश्वर्यै नमः, ॐ शोषिर्ण्यै नमः,
ॐ शोषणीश्वर्यै नमः, ॐ मारण्यै नमः, ॐ मारणीश्वर्यै नमः,
ॐ भीषण्यै नमः, ॐ भीषणीश्वर्यै नमः, ॐ त्रासिन्यै नमः,
ॐ त्रासनीश्वर्यै नमः, ॐ कम्पिन्यै नमः, ॐ कम्पिनीश्वर्यै नमः,
ॐ आज्ञाविवर्त्तिन्यै नमः, ॐ आज्ञाविवर्त्तिनीश्वर्यै नमः, ॐ वस्तुजातेश्वर्यै नमः,
ॐ सर्वसम्पादनीश्वर्यै नमः,
फिर अष्टदलों में पूर्वादि दिशाओं के क्रम से असिताङ्गादि ८ भैरवों के साथ ब्राह्यी आदि आठ मातृकाओं की पूजा करनी चाहिए ।
ॐ असिताङ्गब्राह्यीभ्यां नमः, ॐ रुरुमाहेश्वरीभ्यां नमः,
ॐ चण्डकौमारीभ्यां नमः, ॐ क्रोधवैष्णवीभ्यां नमः,
ॐ उन्मत्तवाराहीभ्यां नमः, ॐ कपालीइन्द्राणीभ्यां नमः,
ॐ भीषणचामुण्डाभ्यां नमः, ॐ संहारमहालक्ष्मीभ्यां नमः ।
तदनन्तर दश दलों में पूर्वादि दिशाओं के क्रम से इन्द्रादि दश दिक्पालों को तथा द्वितीय दश दलों में उनके वज्रादि आयुधों की पूर्ववत् करे (द्र ० १०. १२) इस प्रकार आवरण पूजा कर धूपदीप दे समस्त उपचारों से देवी का पूजन कर पुरश्चरण विधि से जप करे । पुरश्चरण हो जाने पर मन्त्र सिद्ध हो जाता है । तदनन्तर काम्य प्रयोग करना चाहिए ॥४१-४५॥
एवं सिद्धं मनुं मन्त्री काम्यकर्मणि योजयेत् ।
तर्पयेन्नारिकेलोत्थैर्जलैस्तीर्थोद्भवैरपि ॥४६॥
मानयेत्तरुणीवर्गान् सर्वकामार्थसिद्धये ।
मन्त्र सिद्ध हो जाने पर साधक अपनी सभी कामनाओं एवं मनोरथ की सफलता के लिए नारियल के जल अथवा तीर्थोदक से इस मन्त्र द्वारा देवी का तर्पण करे और तरुणीजनों का सम्मान करे ॥४६-४७॥
कृष्णपक्षेष्टमीघस्रे भूताहे वा कृतव्रतः ॥४७॥
चतुष्पथान्नदीकूलद्वयात् कौलालवेश्मनः ।
मृदमानीय धत्तूररससंयुक्तया तया ॥४८॥
रचयेत्पुत्तलीं रम्यां साध्यासुस्थापनान्विताम् ।
ततः प्रेताम्बरे यन्त्रं नृकाकाजासृजा लिखेत् ॥४९॥
चिताङ्गरयुजायोनिं षट्कोणं भूपुरान्वितम् ।
तदन्तमन्त्रमालिख्य वेष्टयेन्मनुनामुना ॥५०॥
अब इस मन्त्र का काम्य प्रयोग कहते हैं – साधक कृष्णपक्ष की अष्टमी अथवा चतुर्दशी को व्रत रहकर चौराहे से नदी के दोनों किनारों से और कुम्भकार के घर से मिट्टी लावें । उसमें धतूरे का रस मिलाकर उसी सी साध्य (जिसे वश में करना हो उस ) की पुतली बनावें और उसमें प्राणप्रतिष्ठा करे । फिर कफन पर नर काक ओर मेष के खून से एवं चिता के अङ्गार से योनि (त्रिकोण), फिर षट्कोण तदनन्तर भूपुर युक्त मन्त्र बनावें । उसके बीच में स्वप्नवाराही का मन्त्र लिखकर उस भूपुर युक्त यन्त्र को ७७ अक्षरों वाले इस मन्त्र से वेष्टित करे ॥४७-५०॥
साध्यमुच्चाटयुगं शोषयद्वितयं ततः ।
मारयद्वितयं चाथ भीषयद्वितयं ततः ॥५१॥
नाशद्वितयं पश्चाच्छिरःकम्पय युग्मकम् ।
ममाज्ञावर्तिनं पश्चात् कुरु सर्वाभिमार्णकाः ॥५२॥
तवस्तुजांत शब्दान्ते सम्पादययुगं ततः ।
सर्वं कुरु युगं स्वाहा मुनिसप्ताक्षरो मनुः ॥५३॥
‘साध्य (नाम), उच्चाटय उच्चाटय, शोषय शोषय, मारय मारय, भीषय भीषय, नाशय नाशय के बाद, फिर ‘स्वाहा’ और ‘कम्पय कम्पय’ फिर ‘ममाज्ञावर्त्तिनं’ के बाद ‘कुरु, फिर ‘सर्वाभिम’ तथा ‘तवस्तु जातं’, फिर ‘संपादय संपादय’ के बाद ‘सर्वं कुरु कुरु,’ तथा अन्त में ‘स्वाहा’ लगाने से ७७ अक्षरों का मन्त्र निष्पन्न होता है ॥५१-५३॥
विमर्श – मन्त्र का स्वरुप – ‘साध्य (नाम), उच्चाटय उच्चाटय, शोषय शोषय, मारय मारय, भीषय भीषय, नाशय नाशय, के बाद, फिर ’स्वाहा’ और ’कम्पय कम्पय’ फिर ’ममाज्ञावर्त्तिनं’ के बाद ’कुरु’, फिर ’सर्वाभिम’ तथा ’तवस्तु जातं’, फिर ’संपादय संपादय’ के बाद ’सर्व कुरु कुरु’, तथा अन्त में ’स्वाहा’ लगाने से ७७ अक्षरों का मन्त्र निष्पन्न होता है ॥५१-५३॥
अनेन वेष्टितं यन्त्रं कृतं देवीप्रतिष्ठितम् ।
पुत्तल्या हृदि विन्यस्य यजेत्तामुक्तमार्गतः ॥५४॥
तदग्रे प्रजपेन् मन्त्रं रात्रावेकान्तमाश्रितः ।
सहस्रं साष्टकं भूयः पूजयेत्तां समाहितः ॥५५॥
एवं कृते नरा नार्यो राजानो राजवल्लभाः ।
सिंहागजामृगाः क्रूरा भवेयुर्वशगा ध्रुवम् ॥५६॥
इस मन्त्र से वेष्टित यन्त्र में देवी की प्राण प्रतिष्ठा कर यन्त्र की पुत्तली के हृदय में रखकर, पूर्वोक्त विधि से आवरण पूजा करे । तदनन्तर रात्रि के समय किसी एकान्तस्थान में उसे अपने अपने रखकर उक्त मन्त्र का एक हजार आठ जप करे । जप के पश्चात् एकाग्रचित हो पुनः पुत्तली का पूजन करे तो नर एवं नारियाँ, राजा, राजा के प्रियजन, सिंह, हाथी मृगादि क्रृर जन्तु भी निश्चित रुप से उसके वश में वश में हो जाते हैं ॥५४-५६॥
चित्ते ध्यात्वा निजं कार्यं शयीत विजने व्रती ।
यथा भावि तथा देवी स्वप्ने वदति मन्त्रिणे ॥५७॥
चित्त में अपने काम का ध्यान कर साधक व्रत रहकर किसी एकान्त निर्जन स्थान में सो रहे तो देवी स्वप्न में साधक के भावी के विषय में बता देती हैं ॥५७॥
सिद्धिप्रदमहायन्त्रकथनम्
अथैतस्या महायन्त्रं प्रवक्ष्ये सिद्धिदं नृणाम् ।
कृत्वा त्रिकोणं षट्कोणं षोडशारं वसुच्छदम् ॥५८॥
दशारद्वितयं पञ्चदशास्त्रं भूपुरद्वयम् ।
त्रिकोणे कामबीजस्थं वाग्भं विलिखेत् पुनः ॥५९॥
षट्सु कोणेषु वाग्बीजं पाशं मायां सृणिश्रियम् ।
दीर्घं च कवचं पश्चाद्विलिखेत् षोडशच्छदे ॥६०॥
शक्तिः षोडशपूर्वोक्ता ब्रह्मयाद्या अष्टपत्रके ।
भैरवैः संयुतान्न्यस्येद् दशारे दिक्पतीन्क्रमात् ॥६१॥
अब मनुष्यों को सिद्धि देने वाली स्वप्नवाराही का एक महायन्त्र कहता हूँ –
त्रिकोण, षट्कोण, षोडशदल्, अष्टदल, फिर दो दशदल, फिर पञ्चदशदल बनाकर, उसके बाद दो भूपुर बनाना चाहिए । त्रिकोण के प्रत्येक कोण में काम बीजयुक्त बाग्बीज लिखें । षट्कोणों में क्रमशः वाग्बीज (ऐं), पाश (आं), माया (ह्रीं), सृणि (क्रों), श्रीं (श्रीं), एवं दीर्घकवच (हूँ) लिखना चाहिए । षोडशदलों में पूर्वोक्त (१०.४१-४३) उच्चाटनी आदि शक्तियों को तथा अष्टदल में अष्टभैरवों सहित अष्टमातृकाओं को (द्र० १०.८) दशदल में यथाक्रम अपने अपने बीजों के साथ दिक्पालों को लिखना चाहिए ॥५८-६१॥
दिक्पालानां बीजानि
स्वस्वबीजादिकान् बीजसमूहः कथ्यतेऽधुना ।
मांसं रक्तं विषं मेरुर्जलं वायुर्भृगुर्वियत् ॥६२॥
एतानि शशियुक्तानि पाशो मायान्तिमा मता ।
अब दश दिक्पालों के बीज समूहों को कहते हैं – १. बिन्दु युक्त मांस (लं), २. रक्त (रं).३. विष (मं). ४. मेरु (क्षं), ५. जल (वं), ६. वायु (यं), ७. भृगु (सं), ८. वियत् (हं), ९. पाश (आं) तथा १०. माया (ह्रीं) ॥६२-६३॥
वज्राद्यान्विलिखेत् सम्यक्पंक्तिपत्रे द्वितीयके ॥६३॥
तिथिपत्रे मूलवर्णान्गायत्र्यर्णैः प्रवेष्टयेत् ।
वाय्वग्नी विलिखेद् भूमिं मन्दिरद्वितयास्रिषु ॥६४॥
भूर्जादौ यन्त्रमालिख्य जपं सम्पातसाधितम् ।
बाहवादौ विधृतं दद्यान्नृणां कीर्तिं धनं सुखम् ॥६५॥
बहुना किमिहोक्तेन वाराहीष्टं प्रयच्छति ।
फिर द्वितीय दल में विधिवत् वज्रादि आयुधों को लिखना चाहिए । तदनन्तर पञ्चदशदल में मूलमन्त्र के वर्णो को गायत्री वर्णो के साथ, दोनों भूपुर के कोणों में वायु (यं) और अग्नि (रं) लिखना चाहिए । यह यन्त्र होमावशिष्ट संस्रव घृत से भोजपत्रादि पर लिखकर मूलमन्त्र का जप कर भुजा आदि में धारण करने से मनुष्यों को कीर्त्ति, धन एवं सुख प्राप्त होता हैं । विशेष क्या कहें इस प्रकार से उपासना करने पर वाराही देवी साधक को मनोवाञ्छित फल देती हैं ॥६३-६६॥
वार्तालीमन्त्रः
वाग्बीजपुटिताभूमिर्नमोन्ते भगवत्यथ ॥६६॥
वार्तालिवारा गगनं सदृग्वाराहिवा पदम् ।
राहमुखि ततो बीजत्रयं पूर्विदितं वदेत् ॥६७॥
अन्धेअन्धिनि हृदयं रुन्धेरुन्धिनि हृत्तथा ।
जन्भेजन्भिनी हृत् पश्चान्मोहेमोहिनि हृत् पुनः ॥६८॥
स्तम्भेस्तम्भिनि हार्दान्ते पुनर्बीजत्रयं वदेत् ।
सर्वदुष्टप्रदुष्टानां सर्वेषां सर्ववाक्पदम् ॥६९॥
चित्तचक्षुर्मुखगतिजिहवास्तम्भं कुरुद्वयम् ।
शीघ्रं वश्यं कुरुद्वन्द्वं त्रिबीजीठचतुष्टयम् ॥७०॥
सर्गाढ्यं वर्मफट् स्वाहा वेदरुद्राक्षरो मनुः ।
प्रणवादिर्मुनिश्छन्दः शिवोऽतिजगती तथा ॥७१॥
वार्तालीदेवता प्रोक्ता वार्तालीहृदयं स्मृतम् ।
अब वार्त्ताली मन्त्र का उद्धार कहते हैं – वाग्बीज पुटित भूमि (ऐं ग्लौं ऐं), फिर ‘नमो’ के बाद, ‘भगवति वार्त्तालिवारा’, उसके बाद सदृग् गगन (हि), फिर ‘वारादि वाराहमुखि’ फिर पूर्वोक्त बीजत्रय (ऐं ग्लौ ऐं), फिर ‘अन्धे अन्धिनि’ और हृत् (नमः), उसके बाद ‘रुन्धे रुन्धिनि’ एवं हृत् (नमः), फिर ‘जम्भे जम्भिनि’ हृत (नमः), फिर ‘मोहे मोहिनि’, हृत् (नमः) फिर ‘स्तम्भे स्तम्भिनि’ एवं हृत् (नमः) फिर बीज त्रय (ऐं ग्लौं ऐं) तदनन्तर ‘सर्वदुष्टप्रदुष्टानां सर्वेषां सर्ववाक्चितचक्षुर्मुख गतिजिहवां स्तम्भं’ फिर कुरु द्वय (कुरु कुरु), फिर ‘शीघ्र वश्यं’ कुरु द्वय (कुरु कुरु), फिर पूर्वोक्त त्रिबीज (ऐं ग्लौं ऐं), फिर ‘सर्गाढ्य ठ चतुष्टय (ठः ठः ठः ठः ), वर्म (हुं), एवं अन्त में फट् (स्वाहा), तथा प्रारम्भ में ॐ लगाने से ११४ अक्षरों का वार्त्ताली मन्त्र निष्पन्न होता है । इस मन्त्र के शिव ऋषि हैं, अतिजगती छन्द है तथा वार्त्ताली देवता कही गई हैं ॥६६-७२॥
विमर्श – मन्त्र का स्वरुप इस प्रकार हैं – ‘ॐ ऐं ग्लौ ऐं नमो भगवति वार्त्तालि वाराहि वाराहि वाराहिमुख, ऐं ग्लौं ऐं अन्धे अन्धिनि नमो रुन्धे रुन्धिनि नमो जम्भे जम्भिनि नमः, मोहे नमः, मोहिनि नम्ह, स्तम्भे स्तम्भिनि नमः, ऐं ग्लौं ऐं सर्वदुष्टप्रदुष्टानां सर्वेषा सर्ववाक्चित्तचक्षुर्मुखगतिजिहवां स्तम्भं कुरु शीघ्रवश्य कुरु कुरु ऐं ग्लौं ऐं ठः ठः ठः ठः हुं फट् स्वाहा ॥६६-७२॥
वाराहीति शिरः प्रोक्तं शिखावाराहमुख्यपि ॥७२॥
अन्धेअन्धिनि वर्मोक्त रुन्धेरुन्धिनि नेत्रकम् ।
जम्भेजम्भिनि चास्त्रं स्यात्ततो ध्यायेत्तु देवताम् ॥७३॥
वार्त्ताली से हृदय, वाराहि से शिर, वाराहमुखि से शिखा, अन्धे अन्धिनि से कवच, रुन्धे रुन्धिनि से नेत्र तथा जम्भे जम्भिनि से अस्त्र – इस प्रकार षडङ्गन्यास कहा गया है । इसके बाद वार्ताली देवता का ध्यान करना चाहिए ॥७२-७३॥
विमर्श – विनियोग – ॐ अस्य श्रीवार्त्तालीमन्त्रस्य शिवऋषिरतिजगतीछन्दः वार्त्तालीदेवता ममाखिलकार्यसिद्धयर्थे जपे विनियोगः ॥७२-७३॥
ध्यानजपपीठदेवतापूजादिकथनम्
रक्ताम्भोरुहकर्णिकोपरिगते शावासने संस्थितां
मुण्डस्रक्परिराजमानहृदयां नीलाश्मसद्रोचिषम् ।
हस्ताब्जैर्मुसलं हलाभयवरान्सम्बिभ्रतीं सत्कुचां
वार्तालीमरुणाम्बरां त्रिनयनां वन्दे वराहाननाम् ॥७४॥
अब वार्त्ताली का ध्यान कहते हैं –
लाल कमल की कर्णिका पर स्थित शवासन पर विराजमान, हृदय में मुण्डमाला धारण किये हुये, नीलमणि के समान कान्तिमती, अपने करकमलों में मुशल, हल, अभय एवं वरदमुद्रा धारण किये हुए, सुन्दर स्तनोम से युक्त, त्रिनेत्रा, लालवणं का वस्त्र धारण किये हुये, वाराहमुखी भगवती वार्त्ताली की मैं वन्दना करता हूँ ॥७४॥
तत्सप्तदशसाहस्रं प्रजपेत्तद्दशांशतः ।
तिलैर्बन्धूककुसुमैर्जुहुयान्मधुरान्वितैः ॥७५॥
उक्त मन्त्र का सत्रह हजार जप करना चाहिए । मधुरत्रय (मधु, शर्करा और घृत) से मिश्रित तिल एवं बन्धूक पुष्पों से उसका दशांश होम करना चाहिए ॥७५॥
पूजायन्त्रमथो वक्ष्ये जपादिनवशक्तिकम् ।
स्वर्णे रुप्ये तथा ताम्रे भूर्जपत्रेऽथ दारुणि ॥७६॥
लिखेद् गोरोचनारात्रिचन्दनागुरुकुंकुमैः ।
योनिपञ्चास्रषट्कोणाष्टपत्रशतपत्रकम् ॥७७॥
सहस्रदलभूबिम्बसंवीतद्वारसंयुतम् ।
कैलासाचलमध्यस्थं पीठेमेतद्विचिन्तयेत् ॥७८॥
तत्रावाह्य यजेद् देवीमुपचारैर्मनोहरैः ।
अब वार्ताली पूजा यन्त्र कहते हैं – सुवर्ण, चाँदी, ताँबा, भोजपत्र अथवा लकडी पर गोरोचन, हल्दी, लालचन्दन, अगुरु एवं कुंकुम से योनि (त्रिकोण), पञ्चकोण, षट्कोण,अष्टदल, शतदल सहस्रदल तथा चारद्वारों वाले भूपुर से युक्त ‘जपादी-नवशक्तिक-यन्त्र’ का निर्णाण करना चाहिए ॥७६-७९॥
कैलाशपर्वत के मध्य में स्थित पीठ का ध्यान करना चाहिए तथा उक्त पीठ पर देवी का मनोहर उपचारों से पूजन करना चाहिए ॥७८-७९॥
त्रिकोणमध्ये देवेशीं यदन्यादिषु चाङ्गकम् ॥७९॥
वार्ताली चापि वाराही पूज्या वाराह मुख्यपि ।
अब आवरण पूजा कहते हैं – त्रिकोण के बिन्दु में देवेशी की पूजा, ईशान पूर्व के मध्य में कर उनके अग्न्यादि कोणों में अङ्गपूजा करनी चाहिए । त्रिकोण के तीनों आग्नेय, नैऋत्ये, नैऋत्ये-पश्चिम के मध्य वायव्य-ईशान कोणों में क्रमशः वार्त्ताली, वाराही एवं वाराहमुखी का पूजन करना चाहिए॥७९-८०॥
त्रिकोणेष्वथं पञ्चास्रेष्वन्धिनी रुन्धिनी तथा ॥८०॥
जम्भिनीमोहिनी चापि स्तम्भिनीज्या तु पञ्चमी ।
षट्कोणेषु पुनः पूज्या डाकिनी राकिनी तथा ॥८१॥
लाकिनी काकिनी चापि शाकिनी हाकिनी पुनः ।
षट्कोणपार्श्वयोः पूज्यं स्तम्भिनीक्रोधिनीदृयम् ॥८२॥
इसके बाद पञ्चकोणों में १. अन्धिनी, २. रुन्धिनी, ३. जम्भिनी, ४. मोहिनी एवं ५. स्तम्भिनी का, फिर षट्कोण में १. डाकिनी २. राकिनी, ३. लाकिनी, ४. काकिनी ५. शाकिनी एवं ६. हाकिनी का, फिर षट्कोण के दोनों ओर स्तम्भिनी एवं क्रोधिनी का पूजन करना चाहिए ॥८०-८२॥
मुसलेष्टवरौ त्वाद्या कपालहलभृत्परा ।
षट्कोणाग्रे यजेच्चण्डोच्चण्डं तस्याः सुतोत्तमम् ॥८३॥
शूलं नागं च डमरुं कपालं दधतं करैः ।
इन्द्रनीलनिभं नग्नं जटाभारविराजितम् ॥८४॥
स्तम्भिनी के दोनों हाथों में क्रमशः मुशल एवं वर है तथा क्रोधिनी के दोनों हाथों में कपाल एवं हल हैं, षट्कोण के अग्रभाग में देवी के उत्तम पुत्र, चण्ड और उच्चण्द का पूजन करना चाहिए, जिनके हाथों में शूल, नाग, डमरु एवं कपाल हैं, जिनके शरीर की आभा नीलमणि जैसी है ये विवस्त्र तथा जटामण्डित हैं, इस प्रकार के चण्डोच्चण्ड का ध्यान कर उनका पूजन करना चाहिए ॥८३-८४॥
अष्टपत्रेषु वार्तालीमुखं देव्यष्टकं यजेत् ।
शतपत्रेषु सम्पूज्या रुद्रार्का वसवोऽश्विनौ ॥८५॥
त्रिरेकैकोन्त्यपत्रे तु जम्भिनीस्तम्भिनीयुता ।
शतकोणाग्रतः पूज्यः सिंहोमहिषसंयुतः ॥८६॥
अष्टदल में वार्त्ताली आदि (वार्त्ताली, वाराही, वाराहमुखी, अन्धिनी, रुन्धिनी, जम्भिनी, मोहिनी एवं स्तम्भिनी) ८ देवियों का पूजन करना चाहिए । पुनः शतदल में वीरभद्रादि एकादश एवं धात्रादि द्वादश, वसु अष्ट, सत्य एवं दस्र इन ३३ देवताओं का तीन-तीन पत्रों पर एक-एक देवता के क्रम से, इस प्रकर ९९ देवों का पूजन करे । शेष अन्तिम एक पत्र पर जम्भिनी एवं स्तम्भिनी का एक साथ पूजन करना चाहिए । शतकोण के अग्रभाग में महिष युक्त सिंह का पूजन करना चाहिए ॥८५-८६॥
वाराहीमन्त्रकथनम्
सहस्रपत्रे वाराहीं पूजयेत्तु सहस्रशः ।
अंकुशो ङ्गेन्त वाराही नमोन्तस्तन्मनुः स्मृतः ॥८७॥
सहस्रदल में वाराहीमन्त्र से एक हजार बार वाराही देवी का पूजन करना चाहिए । अंकुश (क्रों) चतुर्थ्यन्त वाराही (वाराह्यै) एव अन्तं में ‘नमः’ लगाने पर ‘क्रों वाराह्यै नमः’ ऐसा वाराही मन्त्र पूजन के लिए बतलायाय गया है ॥८७॥
भूपुरद्वारदेशे तु बटुकं क्षेत्रपालकम् ।
योगिनीं गणनाथं च तत्तन्मन्त्रैः प्रपूजयेत् ॥८८॥
भूपुर के चारों द्वारों पर बटुक, क्षेत्रपाल, योगिनी एवं गणपति का उनके मन्त्रों से पूजन करना चाहिए ॥८८॥
फान्तः सबिन्दुर्बटुको ङ्गेन्तो हृत् सप्तवर्णकः ।
मेरुः शशियुतः क्षेत्रपालाय नमसान्वितः ॥८९॥
योगिनीगणेशादीनां मन्त्राः
अष्टार्णः शेषयुग्वायुः सचन्द्रो योगिनीपदम् ।
भ्यो नमोन्तः सप्तवर्णः खान्तश्चन्द्रान्वितो गण ॥९०॥
पतयेहृच्चाष्टवर्णाः प्रोक्तास्ते मनवः क्रमात् ।
दिक्पालानायुधर्युक्तान्दिक्षु सम्पूजयेत्ततः ॥९१॥
१. सबिन्दु फान्त (बं), फिर बटुक का चतुर्थ्यन्त ‘बटुकाय’, फिर ‘नमः’, इस प्रकार ‘बं बटुकाय नमः’ यह ७ अक्षरों का बटुक मन्त्र बनता है ॥८९॥
२. शशि सहित मेरु (क्षं), फिर ‘क्षेत्रपालाय नमः’ इन आठ अक्षरों का क्षेत्रपाल पूजन मन्त्र बनता है ॥८९-९०॥
३. सचन्द शेषयुक् वायु (यां), फिर ‘योगिनीभ्यो नमः’ इन ७ अक्षरों का योगिनी पूजन मन्त्र कहा गया है ॥९०॥
४. चन्द्रान्वित खान्त (गं), फिर ‘गणपतये’ फिर हृद (नमः) इस प्रकार ‘गं गणपतये नमः’ – कुल ८ अक्षरों का गणपति मन्त्र उनकी पूजा में प्रयुक्त होता है ॥९०-९१॥
इसके बाद आयुग्ध युक्त दिक्पालों का अपनी अपनी दिशाओं में पूजन करना चाहिए ॥९१॥
विमर्श – आवरण पूजा – सर्वप्रथम त्रिकोण के मध्य में मूलमन्त्र से वार्त्ताली का पूजन कर आग्नेय नैऋत्ये पश्चिमे नैऋत्य के मध्य, वायव्य, ईशान तथा पूर्वेशान के मध्य इन छः कोणों में क्रमशः षडङ्न्यास कर पूजन करे। यथा-
वार्त्ताली हृदयाय नमः, वाराही शिरसे स्वाहा,
वाराहमुखी शिखायै वौषट्, अन्धेअन्धिनि कवचाय हुम्,
रुन्धे रुन्धिनि नेत्रत्रयाय वौषट्, जम्भे जम्भिनि अस्त्राय फट ।
इसके बाद त्रिकोण के एक-एक कोणों में क्रमशः –
ॐ वार्त्ताल्यै नमः, ॐ वाराह्यै नमः, ॐ वाराहमुख्यै नमः ।
तत्पश्चात् पञ्चकोणों में अग्नि आदि का उनके नाम मन्त्र से क्रमशः –
ॐ अन्धिन्यै नमः, ॐ रुन्धिन्यै नमः, ॐ जम्भिन्यै नमः,
ॐ मोहिन्यै नमः, ॐ स्ताम्भिन्यै नमः ।
फिर षट्कोण में डाकिनी आदि का नाम मन्त्र से क्रमशः –
ॐ डाकिन्यै नमः, ॐ शाकिन्यै नमः, ॐ लाकिन्यै नमः,
ॐ काकिन्यै नमः, ॐ राकिन्यै नमः, ॐ हाकिन्यै नमः ।
तदनन्तर षट्कोण के दोनों ओर स्तम्भिनी और क्रौधिनी का तथा षट्कोण के अग्रभाग में देवी के पुत्र चण्ड और उच्चण्ड का नाम मन्त्र से पूजन करे ।
यथा – ॐ स्तम्भिन्यै नमः दक्षपार्श्वे, ॐ क्रोधिन्यै नमः वामपार्श्वे,
ॐ चण्डोच्चण्डाय देवीपुत्रस्य नमः अग्रे,
इसके बाद अष्टदल में वार्त्ताली आदि ८ देवियों का पूर्वादिदलों में नाम मन्त्र से
ॐ वार्त्ताल्यै नमः, ॐ वाराह्यै नमः, ॐ वाराहमुख्यै नमः,
ॐ अन्धिन्यै नमः, ॐ रुन्धिन्यै नमः, ॐ जम्भिन्यै नमः,
ॐ मोहिन्यै नमः, ॐ स्तम्भिन्यै नमः,
फिर शतदल में वीरभद्र आदि एकादशा रुद्रों का, धात्रादि द्वादशादित्यों का, धर आदि आठ असुओं का, दस्न एवं नासत्य आदि दो अश्विनी कुमारों का, कुल ३३ देवताओं का ९९ पत्रों पर एक एक का तीन पत्रों के क्रम से पूजन कर अन्तिम पत्र पर ‘जम्भिनीस्तम्भिनीभ्या नमः’ से जम्भिनी एवं स्तम्भिनी का पूजन करे । शतकोण के अग्रभाग में महिष युक्त सिंह का पूजन करना चाहिए ।
तदनन्तर भूपुर के चारों द्वारों पर पूर्वादिक्रम से बटुक आदि का –
बं बटुकाय नमः, क्षं क्षेत्रपालाय नमः,
यां योगिनीभ्या नमः, गं गणपतये नमः,
से पूजन करना चाहिए । फिर १०. ४५ में कहे गये मन्त्रों से भूपुर के बाहर अपनी अपनी दिशाओं में दिक्पालों का तथा उनके भी बाहर उनके वज्रादि आयुधों की पूजा करनी चाहिए ॥८८-९१॥
पूजान्ते बटुकादिभ्यो बलिमन्त्रैर्बलिं हरेत् ।
बलिदानोचिता मन्त्राः कीर्त्यन्तेऽखिलसिद्धिदाः ॥९२॥
इस प्रकार आवरण पूजा कर लेने के बाद बटुक आदि को उनके बलिदान मन्त्रों से सर्वसिद्धिदायक बलिदान देना चाहिए ॥९२॥
बटुकस्य बलिमन्त्रः
एह्येहीतिपदं प्रोच्य देवी पुत्रेति कीर्तयेत् ।
बटुकान्ते नाथकपिलजटाभारभासुरः ॥९३॥
त्रिनेत्रज्वालाशब्दान्ते मुखसर्वजलं सदृक् ।
घ्नान्नाशययुगं सर्वोपचारसहितं बलिम् ॥९४॥
गृहणयुग्मं वहिनपत्नीशरपञ्चाक्षरो मनुः ।
बटुकस्य बलिं दद्यादनेन श्रद्धयान्वितः ॥९५॥
अब बलिदान का मन्त्र कहते हैं –
‘एह्येहि’, यह पद कहकर ‘देवीपुत्र’ कहें, फिर ‘बटुक’ एवं ‘नाथपिलजटाभारसुरत्रिनेत्रज्वाला’, फिर ‘मुखसर्व’, सदृक् जल (वि), फिर ‘घ्नान्’ फिर ‘नाशय’ पद दो बार (नाशय नाशय), फिर ‘सर्वोपचारसहितं बलिं’, फिर ‘गृहण द्वय’ (गृहण गृहण) , अन्त में वहिनपत्नी (स्वाहा) का उच्चारण करने से यह पचपन अक्षरों का बटुक मन्त्र बनता है । इस मन्त्र से श्रद्धा से युक्त हो कर बटुक को बलि देनी चाहिए ॥९३-९५॥
विमर्श – इस मन्त्र का स्वरुप इस प्रकार हैं – ‘एह्येहि देवीपुत्र बटुकनाथ कपिलजटाभारसुरत्रिनेत्रज्वालामुख सर्वविघ्नान् नाशय नाशय सर्वोपचारसहितं बलिं गृहण गृहण स्वाहा’ (५५) ॥९३-९५॥
क्षेत्रपालबलिमन्त्रकथनम्
मेरुः षड्दीर्घयुग्वर्मस्थानक्षेत्रपदं वदेत् ।
पालेशसर्वकामं च पूरयानलवल्लभा ॥९६॥
त्रयोविंशतिवर्णाढ्यः क्षेत्रपालमनुर्मतः ।
योगिनीनामथो मन्त्रः पद्यरुपः प्रपठ्यते ॥९७॥
अब क्षेत्रपाल के बलिदान का मन्त्रोद्धार कहते हैं – षड् दीर्घ सहित मेरु क्षां क्षीं क्षूं क्षैं क्षौं क्षः फिर वर्म (हुं), फिर ‘स्थानक्षेत्रपालेश सर्वकामं पूरय’ कहकर अनलवल्लभा (स्वाहा), लगाने से २३ अक्षरों का क्षेत्रपाल बलिदान मन्त्र बनता है ॥९६-९७॥
विमर्श – इस मन्त्र का स्वरुप इस प्रकार है – ‘क्षां क्षीं क्षूं क्षै क्षौं क्षः हुं स्थानक्षेत्रपालेश सर्वकामं पूरय स्वाहा’ (२३) ॥९६-९७॥
योगिनीगणेशादीनां बलिमन्त्रकथनम्
ऊर्ध्वब्रह्माण्डतो वा दिविगगनतले भूतले निष्कले वा
पाताले वातले वा सलिलपवनयोर्यत्र कुत्र स्थिता वा ।
क्षेत्रे पीठोपपीठादिषु च कृतपदाधूपदीपादिकेन
प्रीता देव्याः सदानः शुभबलिविधिना पान्तु वीरेन्द्रवन्द्याः ॥९८॥
यां योगिनीभ्यः स्वाहान्तो भूमिनन्दाक्षरो मनुः ।
योगिनीनां बलिं दद्यादनेन विधिपूर्वकम् ॥९९॥
अब योगिनियों का प्रद्ममय बलिमन्त्र कहते हैं –
‘ऊर्ध्व ब्रह्याण्दतो वा….’ इस पद्य के बाद ‘योगिनीभ्य स्वाहा’ लगाने से ९१ अक्षरों का योगिनी बलिदान मन्त्र बनता है । इस मन्त्र से विधिवत् योगिनियों को बलि देना चाहिए ॥९८-९९॥
विमर्श – इस मन्त्र का स्वरुप इस प्रकार है –
‘ऊर्ध्वब्रह्याण्डतो वा दिविगगनतले भूतले निष्कले वा
पाताले वातले वा सलिसपवनयोर्यत्र कुत्र स्थिता वा
क्षेत्रे पीठोपपीठादिषु च कृतपदाधूपदीपादिकेन
प्रीता देव्याः सदानः शुभबलिविधिना पान्तु वीरेन्द्रवन्द्याः
यां योगिनीभ्यः स्वाहा’ ॥९८-९९॥
दीर्घत्रयेन्दुयुक्सेन्दुः शार्ङ्गीगणपतार्णकाः ।
मारुतो भगवांस्तोयं रवरान्ते दसर्व च ॥१००॥
जनं मे वशमानान्ते यः सर्वो लोहितो हली ।
दीर्घो रसहितं प्रान्ते बलिं गृहणयुगं शिरः ॥१०१॥
गणेशबलिमन्त्रोऽयं गगनश्रुतिवर्णवान् ।
एवं तेभ्यो बलिं दत्त्वा स्वस्वमुद्रां प्रदर्शयेत् ॥१०२॥
अब गणेश बलिदान मन्त्रोद्धार कहते हैं –
दीर्घत्रयेन्दु युक् तथा सेन्दु शार्गी गां गीं गूँ गं, फिर ‘गणपत’, फिर ‘भगवान् मारुत’ ये, फिर तोय (व) एवं ‘रवर दसर्व जनं मे वशमानय’ के बाद ‘सर्वो’, फिर लोहित (प), दीर्घ हली (चा), फिर ‘र सहितं’ फिर ‘बलिं गृहण गृहण’ फिर अन्त में शिर (स्वाहा), लगाने से ४० अक्षरों का गणेश बलिदान मन्त्र बनता हैं ॥१००-१०२॥
विमर्श – इस मन्त्र का स्वरुप इस प्रकार हैं – ‘गां गीं गूं गं गणपतये वरवरद सर्वजनं में वशमानय सर्वोपचारसहितं बलिं गृहण गृहण स्वाहा’ ॥१००-१०२॥
इस प्रकार बलिदान देने के बाद उन्हें उनकी अपनी-अपनी मुद्रायें दिखलानी चाहिए ॥१०२॥
तत्तद्देवतानां मुद्राकथनम्
अंगुष्ठ तर्जनीयुक्तं दर्शयेद् बटुके बलौ ।
अंगुष्ठानामिके वामे क्षेत्रपालबलौ मता ॥१०३॥
किंचिद्वक्रीकृता मध्या गणनाथबलौ स्मृता ।
अनामामध्यमाङ्गगुष्ठा योगिनीनां बलौ पुनः ॥१०४॥
१. बटुक के बलिदान में अङ्गूठा और तर्जनी मिलाकर दिखाना चाहिए ।
२. क्षेत्रपाल के बलिदान में बायें हाथ का अङ्गुष्ठ और अनामिका दिखलाना चाहिए ।
३. गणपति के बलिदान में मध्यमा को कुछ टेढी कर दिखानी चाहिए । तथा
४. योगिनियों के बलिदान के अनन्तर अनामिका, मध्यमा और अङ्गुष्ठ दिखाना चाहिए ॥१०३-१०४॥
एवं सम्पूज्य संस्तुत्य नत्वात्मन्युपसंहरेत् ।
सिद्धमन्त्रः प्रकुर्वीत प्रयोगाञ्छिवभाषितान् ॥१०५॥
इस प्रकार वार्त्ताली देवी का सावरण पूजन संपन्न कर साधक उन्हें अपने हृदय में स्थान देकर उनका विसर्जन करे। तदनन्तर मन्त्र के सिद्ध हो जाने पर भगवान् सदाशिव के द्वारा उपदिष्ट काम्यप्रयोगों को करे ॥१०५॥
एषां मन्त्राणां साधनप्रकारः
हरिद्रया चन्दनेन लाक्षया गुरुणापि च ।
पुरेण विविधैर्मांसैर्जुहुयादिष्टसिद्धये ॥१०६॥
अपनी अभीष्ट सिद्धि के लिए हल्दी, चन्दन, लाह, अगर, गुग्गुल और विविध मांसों से होम करना चाहिए ॥१०६॥
हरिद्रामालया कुर्याज्जपं स्तम्भनकर्मणि ।
स्फाटिकैः पद्मबीजैश्च रुद्राक्षैः शुभकर्मणि ॥१०७॥
स्तम्भन कर्म में हल्दी की माला से जप करना चाहिए तथा शुभ कार्यो में जैसे शान्तिक पौष्टिक कर्मो में, स्फटिक, कमलगट्टा अथवा रुद्राक्ष की माला का प्रयोग करे ॥१०७॥
स्वर्णादिपात्रैः सुरया बन्धूककुसुमैस्तिलैः ।
वाराहीं तर्पयेत् सम्यक् कामसम्पूर्तये नरः ॥१०८॥
साधक अपनी कामनापूर्ति के लिए स्वर्णादि पात्रों से बन्धूक पुष्प और तिलों से युक्त सुरा द्वारा वाराही का तर्पण करे ॥१०८॥
चतुःशतं तु तापिच्छैर्जुहुयात्स्तम्भनेच्छया ।
लाजचूर्णतिलैः कुर्यात् खरमेषासृजान्वितैः ॥१०९॥
पिण्डं मनोहरं तं तु पूजयेत्तर्पयेदपि ।
सपत्नसदनं साङ्गमेतस्मै विनिवेदयेत् ॥११०॥
कुण्डे पिण्डं निधायामुं जुहुयात्तत्र चायुतम् ।
एकविंशतिरात्रीषु लाजैरक्तसमन्वितैः ॥१११॥
एवं कृते वैरिवृन्दं भक्ष्यते योगिनीगणैः ।
स्तम्भन की इच्छा से साधक तमाल पुष्पों की ४०० आहुतियाँ दे । लावा के चूर्ण में तिल, गर्दभ एवं भेड का रक्त मिलाकार एक सुन्दर पिण्ड बनाना चाहिए । फिर उसी पिण्ड का विधिवत् पूजन एवं तर्पण भी करे । फिर उसी पिण्ड को अपने शत्रु का सारा घर समर्पित कर देना चाहिए । तदनन्तर उस पिण्ड को कुण्ड में रखकर २१ रात्रि पर्यन्त रक्त मिश्रित लाजाओं से १०,००० आहुतियाँ देनी चाहिए । ऐसा करने से योगिनियाँ उस शत्रु के समूह को खा जाती हैं ॥१०९-११२॥
शकटाभिधं महादेव्या यन्त्रम्
अथ यन्त्रं महादेव्याः प्रोच्यते शकटाभिधम् ॥११२॥
विलिख्य तारे साध्याख्यं भूबीजेन प्रवेष्टयेत् ।
उकारेण च संवेष्टय भूपुरं परितो लिखेत् ॥११३॥
अष्टवज्रान्वितं वज्रप्रान्तें प्रणवमालिखेत् ।
वज्रमध्ये साध्यनामं लिखेत्कर्मसमन्वितम् ॥११४॥
अब महादेवी के शकट संज्ञक यन्त्र को बतलाते हैं – ॐ इस अक्षर के मध्य में साध्यक नाम लिखकर उसे भू बीज (ग्लौं) से वेष्टित करे, फिर उसे भी उकार से वेष्टित कर उसके ऊपर अष्टवज्र सहित भूपुर लिखना चाहिए ॥११२-११४॥
अष्टवज्र के प्रान्त में प्रणव लिखना चाहिए, वज्रों के मध्य में साध्य नाम एवं उसके उच्चाटनादि विशेष कार्य लिखना चाहिए । यथा – उच्चाटनकर्म में ‘अमुकं उच्चाटय’ स्तम्भनकर्म में ‘अमुकं स्तम्भय’ विद्वेषणकर्म में ‘अमुकं विद्वेषय’ इत्यादि लिखना चाहिए ॥११४॥
धराबीजेन संवेष्टय भूपुरं मूलविद्याया ।
बहिरंकुशसंवीतं झिण्टीशेन प्रवेष्टयेत् ॥११५॥
फिर भूपुर को धरा बीज (ग्लौं) से वेष्टित करे । फिर उसे (ॐ ऐं ग्लौं ऐं नमो भगवति वार्तालीवाराही वाराही वाराहमुखि अन्धे अन्धिनि नमो रुन्धे रुन्धिनि नमो जम्भे जम्भिनि नमो मोहे मोहिनि नमः स्तम्भे स्तम्भिनि नम ऐं ग्लौं ऐं सर्वदुष्ट प्रदुष्टानां सर्वेषां सर्ववाक् चित्तक्षुर्मुख गति जिहवा स्तम्भं कुरु कुरु शीघ्र वश्यं कुरु कुरु ऐं ग्लौं ऐं ठः ठः ठः ठः हुं फट् स्वाहा’ – इस) मूलविद्या से वेष्टित करे । फिर उनके बाहर पुनः (क्रों) से वेष्टित कर झिण्टीश (ऐं) से वेष्टित करना चाहिए ॥११५॥
एतद्यन्त्रं समालिख्य नूत्ने कौलालखर्परे ।
कृष्णपुष्पैः समभ्यर्च्य निःक्षिपेत् वैरिवेश्मनि ॥११६॥
रिपुमुच्चाट्येच्छ्रीघ्रं स्थितं वर्षशतान्यपि ।
इस यन्त्र को कुलाल द्वारा निर्मित्त नवीन खर्पर कसोरा पर लिखकर पुनः काले पुष्पों से पूजन कर अपने शत्रु के घर में डाल देना चाहिए । ऐसा करने से यह मन्त्र अपने घर में सैकडों वर्षो से रहने वाले शत्रु का उच्चाटन कर देता है ॥११६-११७॥
वादित्रे यन्त्रमालिख्य वादयेत् समरान्तरे ॥११७॥
श्रुत्वा तद्रवसंत्रस्ताः पलायन्ते विरोधिनः ।
इस यन्त्र को बाजे पर लिखकर युद्ध के बीच उस बाजा को बजाने से उसके शब्द को सुनते ही शत्रु मैदान छोडकर भाग जाते हैं ॥११७-११८॥
शत्रुवाक्स्तम्भनविधानम्
पाषाणे लिखितं रात्र्या पीतपुष्पेषु निःक्षिपेत् ॥११८॥
सम्पूजितमधोवक्त्रं संस्तम्भयेद् द्विषाम् ।
तापकार्यग्निनिःक्षिप्तं जले दोषप्रदं भवेत् ॥११९॥
पाषाण पर हल्दी से इस यन्त्र को लिखकर विधिवत् पूजा कर पुनः इसे अधोमुख कर पीले फूलों के बीच में डाल देना चाहिए । ऐसा करने से वह शत्रु की वाणी को स्तम्भित कर देता है । यदि उसे अग्नि में डाल दिया जाये तो उस शत्रु को ताप (ज्वर) चढ जाता है जल में डाल दिया जाय तो उसे कलंक लगता है ॥११८-११९॥
साध्यर्क्षतरुगर्भस्थं शत्रूणां दुःखदायकम् ।
किंबहूक्तेन सर्वेष्टं साधयेत्साधितं नृणाम् ॥१२०॥
साध्य व्यक्ति के जन्म नक्षत्र की वृक्ष की लकडी (द्र ९. ५०) के भीतर इस यन्त्र को रखने से वह शत्रुओं के लिए दुःखदायी बन जाता है । इस विषय में बहुत क्या कहें इस मन्त्र सिद्धि से मनुष्य अपने सारे अभीष्टों को पूरा कर सकता है ॥१२०॥
॥ इति श्रीमन्महीधरविरचिते मन्त्रमहोदधौ बगलादिमन्त्रकथनं नाम दशमस्तरङ्गः ॥१०॥
॥ इति श्रीमन्महीधरविरचितायां मन्त्रमहोदधिव्याख्यायां नौकायां बगलादिमन्त्रकथनं नाम दशमस्तरङ्गः १०॥
इस प्रकार श्रीमन्महीधर विरचित मन्त्रमहोदधि के दशम तरङ्ग की महाकवि पं० रामकुबेर मालवीय के द्वितीय आत्मज डॉ सुधाकर मालवीय कृत ‘अरित्र’ हिन्दी व्याख्या पूर्ण हुई ॥१० ॥