मन्त्रमहोदधि तरङ्ग ११ || Mantra Mahodadhi Taranga 11

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मन्त्रमहोदधि तरङ्ग ११ में श्रीविद्या निरूपण को कहा गया है।

मन्त्रमहोदधि – एकादश तरङ्ग

मन्त्रमहोदधि

ग्यारहवां तरङ्ग

अथ एकादश: तरङ्ग:

मड्गलपूर्वकश्रीविद्याकथनम्‌

ॐ त्रिनेत्रं कमलाकान्तं नृसिह चन्द्रशेखरम्‌ ।

नत्वा संक्षेपतों वक्ष्ये श्रीविद्यां मन्त्रनायिकाम्‌ ॥ १॥

अरित्र

श्री विद्या के प्रारम्भ में ग्रन्थकार मङ्गलाचरण कहते हैं –

चन्द्रकला को धारण करने वाले त्रिनेत्र चन्द्रशेखर तथा कमलापति भगवान् नृसिंह को प्रणाम कर (त्रैलोक्य के) समस्त मन्त्रों की स्वामिनी श्री विद्या के विषय में संक्षेप में बतलाता हूँ ॥१॥

अपरीक्षितशिष्याय तां न दद्यात्‌ कदाचन ।

यदुच्चारणमात्रेण पापसङ्घ:  प्रलीयते ॥ २॥

जिसके उच्चारण मात्र से पापराशि का नाश हो जाता है, वह श्रीविद्या अपरीक्षित शिष्य को कभी भी नहीं देनी चाहिए ॥२॥

आदौ मन्त्रोद्धार:

तारं मायां च कमलामादौ बीजत्रयं पठेत्‌ ।

कूटत्रयकथनं तत्सज्ञा च

ब्रह्मझिण्टीशगोविन्द्धरामायेति चादिमम्‌ ॥ ३॥

आकाशभृगुचक्रभ्रमांसमायाद्वितीयकम्‌ ।

हंसधातृक्षमामायातृतीय बीजमीरितम्‌ ॥ ४ ॥

षोडशाक्षरीत्रिपुरसुन्दरीश्रीविद्याकथनम्

वाक्कामशक्तिसंज्ञं तु क्रमाद्बीजत्रयं भवेत्‌ ।

इयं षडर्णा श्रीमायाकामवाक्छक्तिसम्पुटा ॥ ५॥

अब षोडशी मन्त्र का उद्धार कहते हैं –

(कूटत्रय) के आदि में तार (ॐ), माया (ह्रीं), एवं कमला (श्रीं), इन तीनों बीजों का प्रथम उच्चारण करना चाहिए। ब्रह्या (क), झिण्टीश (ए),गोविन्द (ई), धरा (ल) एवं माया (ह्रीं) इस प्रकार ‘कएईलहीं’ यह प्रथम कूट है । आकाश (ह्) भृगु (स्) चक्री (क) अभ्र (ह) मांस (ल) तथा माया (ह्रीं) इस प्रकार ‘हसकहल’, ह्री यह द्वितीय कूट है। हंस (स) धाता (क) क्षमा (ल), माया (ह्रीं) अर्थात् ‘सकलह्रीं’ तृतीय कूट है । इन तीनों कूटों में प्रथम वाग्बीज हैं, द्वितीय काम बीज है तथा तृतीय शक्तिबीज कहलाता है । इस षडक्षरा (ॐ ह्रीं श्री कएअईलह्रीं हसकहलह्रीं सकलह्रीं) विद्या को श्री, माया, काम, वाग् और शक्ति इन पाँच बीजों से संपुटित करने पर अनेक पुण्यों से प्राप्त होने वाली षोडशाक्षरी श्रीविद्या का मन्त्र निष्पन्न होता है ॥३-५॥

विमर्श – षोडशी मन्त्र का स्वरुप  इस प्रकार हैं – श्रीं ह्रीं क्लीं ऐं सौः ॐ ह्रीं श्रीं कएईलह्रीं ह्सकहलह्रीं सकलहीं सौः ऐं क्लीं ह्रीं श्रीं ॥३-५॥

अनेकपुण्यसम्प्राप्या श्रीविद्याषोडशाक्षरी ॥

मुनिः स्याद्दक्षिणामूर्ति: पंक्तिश्छन्द: समीरितम्‌ ॥ ६ ॥

देवताजगतामादिः श्रीमत्त्रिपुरसुन्दरी ।

बीजमैं भृगुरौ: शक्ति: कामबीजं तु कीलकम्‌ ॥ ७॥

मुन्यादिन्यासकथनम्‌

मूर्द्धास्यह्रृद्गुह्मपादे नाभौ मुन्यादिकान्‌ न्यसेत्‌ ।

इस मन्त्र के दक्षिणामूर्ति, ऋषि हैं, पंक्तिछन्द है, जगत् की आदि कारण श्रीमत्त्रिपुरसुन्दरी देवता हैं, ऐं बीज, सौः शक्ति तथा कामबीज (क्लीं) कीलक है । इस ऋष्यादि से शिर मुख, हृदय, गुहय, पाद तथा नाभि स्थान में न्यास करना चाहिए ॥६-८॥

विमर्श – विनियोग  – ॐ अस्य श्रीमत्त्रिपुरसुन्दरीमन्त्रस्य दक्षिणमूर्तिऋषिः पंक्तिछन्दः श्रीमत्त्रिपुरसुन्दरी देवता ऐं बीजः सौः शक्तिः क्लीं कीलकं ममाभीष्ट सिद्ध्यर्थे जपे विनियोगः ।

ऋष्यादिन्यास – ॐ दक्षिणामूर्त्तये नमः, मूर्ध्नि,    ॐ पक्तिंश्छन्दसे नमः, मुख,

ॐ त्रिपुरसुन्दर्यै देवतायै नमः, हृदि,        ॐ ऐं बीजाय नमः, गुह्ये,

ॐ सौः शक्तये नमः पादयोः,            ॐ क्लीं कीलकाय नमः, नाभौ ॥६-८॥

न्यासान्‌ सर्वान्‌ प्रकुर्वीत मायाश्रीबीजपूर्वकान्‌ ॥ ८॥

आसनबीजमुद्रादिन्‍न्यासकथनम्‌

मध्यानामाकनिष्ठासु ज्येष्ठयोस्तर्जनीद्वयोः ।  

तले पृष्ठे च करयोर्विन्यसेद्‌ द्विष्क्रमादिमान्‌ ॥ ९॥

श्रीकण्ठानन्तसौवर्णान्‌ बिन्दुसर्गसमन्वितान्‌ ।  

नमोन्तान्करशुद्ध्याख्यो न्यासोऽयं परिकीर्तित:॥ १० ॥

इस महाविद्या के सभी न्यास प्रारम्भ में माया (ह्रीं), श्री बीज (श्रीं), लगाकर करना चाहिए । बिन्दु सहित श्री कण्ठ एवं अनन्त (अं आं) सर्ग सहित सौ वर्ण अर्थात् (सौः), इन वर्णों के अन्त में नमः लगाकर क्रमशः मध्यमा, अनामिका, कनिष्ठिका, अङ्‌गुष्ठ और तर्जनी तथा करतल मध्य में न्यास करे । इस न्यास को करशुद्धिन्यास कहते हैं ॥८-१०॥

विमर्श – करशुद्धिन्यास यथा –

ह्रीं श्रीं अं मध्यमाभ्यां नमः,        ह्रीं श्रीं आं अनामिकाभ्यां नमः,

ह्रीं श्रीं सौः कनिष्ठिकाभ्यां नमः,    ह्रीं श्रीं अं अगुष्ठाभ्या नमः,

ह्रीं श्रीं आं तर्जनीभ्या नमः,        ह्रीं श्रीं सौः करतकरपृष्ठाभ्यां नमः ॥८-१०॥

देव्यासनं च प्रथम तथा चक्रासन क्रमात्‌ ।

सर्वमन्त्रासनं साध्यसिद्धासनमिति न्यसेत्‌ ॥ ११॥

डेनमोन्तं च बीजाढ्यं पज्जङ्घाजानुलिङ्गके ।

सर्वप्रथम देव्यासन फिर क्रमशः चक्रासन सर्वमन्त्रासन एवं साध्यसिद्धासन को चतुर्थ्यन्त कर अन्त में ‘नमः’ लगा कर, पुनः आदि में अपने-अपने बीजाक्षरों को लगाकर पैर. जंघा, जानु और लिङ्ग स्थानों में न्यास करना चाहिए ॥११-१२॥

मायां कामं शक्तिबीजं प्रथमासनपूर्वकम्‌ ॥ १२॥

वियदारूढ वाक्कामशक्तिबीजानि पूर्वतः ।

द्वितीये सम्प्रोज्यानि सहपूर्वाणि तत्परे ॥ १३॥

मायां कामं फान्तमांसे भगेन्द्वाढ्ये प्रयोजयेत्‌ ।

तुरीयासनपूर्वाणीत्यासनन्यास ईरितः ॥ १४॥

१. प्रथमासन से पूर्व माया (ह्रीं), काम (क्लीं) और शक्ति (सौः) लगाना चाहिए । २. वियदारुढ वाग् (हैं), काम (क्लीं), और शक्ति (सौः) को द्वितीय आसन के साथ लगाकर, इन्हीं बीजों को तृतीय आसन के प्रारम्भ में लगाकर तथा माया (ह्रीं), काम (क्लीं) और फिर भग तथा बिन्दु सहित फान्त मांस (ब्लें) को चतुर्थ आसन से पूर्व में लगाकर आसन न्यास करना चाहिए ॥१२-१४॥

विमर्श – आसनन्यास यथा – ह्रीं श्रीं ह्रीं क्लीं सौः देव्यासनाय नमः, पादयोः ।

ह्रीं श्रीं हैं क्लीं सौः चक्रासनाय नमः, जंघयोः ।

ह्रीं श्रीं हैं क्लीं सौः सर्वमन्त्रासनाय नमः जान्वोः, ।

ह्रीं श्रीं ह्रीं क्लीं ब्लें साध्यसिद्धासनाय नमः, लिङ्गे ॥११-१४॥

वर्णन्यास: सम्मोहनन्यासश्च

ततः षडङ्गं कुर्वीत पञ्चभिस्त्रिभिरेकतः ।

एकेनैकेन पञ्चार्णैर्मन्त्रस्य क्रमतः सुधीः ॥ १५॥

मन्त्र के क्रमशः ५, ३, १, १, १ और ५ वर्णो से विद्वान् साधक इस प्रकार षडङ्गान्यास करे ॥१५॥

विमर्श – षडङ्गन्यास –                          श्रीं ह्रीं क्लीं ऐं सौः हृदयाय नमः,

ॐ ह्रीं श्रीं शिरसे स्वाहा,        कएईलह्रीं शिखायै वषट्,

ह्सकहलह्रीं कवचाय हुम्        सकलहीं नेत्रत्रयाय वौषट्

सौः ऐं क्लीं ह्रीं श्रीं अस्त्राय फट् ॥१५॥

मूलविद्यां समुच्चार्य्य प्रणवादिनमोन्तिकाम्‌ ।

मध्यमानामिकाभ्यां तु ब्रह्मरन्र्धे प्रविन्यसेत्‌ ॥ १६ ॥

सुधां स्रदन्तीं वर्णेभ्य प्लावयन्ती निजा तनुम्‌ ।

प्रदीपकलिकाकारां महासौभाग्यदां स्मरेत्‌ ॥ १७ ॥

जगद्‌वशीकरण न्यास –  मूल मन्त्र के आदि में प्रणव (ॐ) तथा अन्त में ‘नमः० लगाकर, मध्यमा और अनामिका अङ्‌गुलियों से अमृत की वर्षा करती हुई और उसी से अपने शरीर को आप्लावित करती हुई, ब्रह्यरन्ध्र में स्थित प्रदीप कालिका के समान आकार वाली, सौभाग्यदा देवी का ध्यान करते हुये शिर में न्यास करना चाहिए ॥१६-१७॥

मुद्रा कृत्वा वामकर्णे परसौभाग्यदण्डिनीम्‌ ।

वाममूर्द्धादिपादान्त तथा मूल प्रविन्यसेत्‌ ॥ १८॥

तदनन्तर बायें कान में परसौभाग्यदण्डिनी मुद्रा कर, बायीं ओर के शिर से पैर तक प्रणवादि नमोन्त मूलमन्त्र का न्यास करना चाहिए ॥१८॥

त्रिखण्डया मुद्रया तु भाले मूल न्यसेत्तथा।

त्रैलोक्यस्याखिलस्याहं कर्त्तेति स्वं विचिन्तयेत्‌ ॥ १९ ॥

फिर ‘सभी लोकों का कर्त्ता मैं हुँ’ ऐसा ध्यान कर त्रिखण्डमुद्रा दिखाकर प्रणवादि नमोन्त मूल मन्त्र का ललाट में न्यास करना चाहिए ॥१९॥

रिपुजिह्वाग्रहां मुद्रा दर्शयन्‌ सर्वविद्विषः ।

निगृह्णामीति संचिन्त्य पादमूले तथा न्यसेत्‌ ॥ २० ॥

फिर ‘मैं अपने सभी शत्रुओं का निग्रह कर रहा हैं’, इस प्रकार की भावना कर रिपुजिहवाग्रहामुद्रा दिखाते हुये प्रणवादि नमोन्त मूल मन्त्र का पादमूल में न्यास करना चाहिए ॥२०॥

मुखे संवेष्टयन्न्यस्येत् पुनर्दक्षिणकर्णतः ।

विन्यस्य वामकर्णान्त कण्ठाद्वक्त्रं ततो न्यसेत्‌ ॥ २१॥

तारसम्पुटितां विद्यां सर्वाङ्गे विन्यसेत्‌ पुनः ।

योनिमुद्रां मुखे बद्ध्वा नमेत्त्रिपुरसुन्दरीम्‌ ॥ २२॥

प्रणवादि नमोन्त मूल मन्त्र का न्यास उसी प्रकार मुख के ऊपर घुमाते हुये दाहिने कान से बायें कान तक करे तथा उसी प्रकार कण्ठ से मुख तक पुनः प्रणव संपुटित विद्या का सर्वाङ्ग में न्यास करना चाहिए । तदनन्तर मुख पर योनि मुद्रा बाँधकर त्रिपुरसुन्दरी देवी को प्रणाम करना चाहिए । यहाँ तक जदद्धशीकरणन्यास कहा गया ॥२१-२२॥

ब्रह्मरन्र्धे हस्तमूले भाले विद्या प्रविन्यसेत्‌ ।

अङ्गुष्ठानाभिकाभ्यां तु न्यासः सम्मोहनाभिधः ॥ २३ ॥

जगद्वश्यकराख्योऽयं न्यासः संकीर्तितो मया ।

संस्मरन्‍नरुणा मूल सुन्दरीप्रभया जगत्‌ ॥ २४॥

अब सम्मोहन न्यास  कहते हैं – ब्रह्यरन्ध्र में, मणिबन्ध में तथा शिर में अङ्ग्‍गुष्ठ एवं अनामिका अङ्‌गुलोयों से मूल मन्त्र का उच्चारण कर देवी की आभा से लालवर्ण वाले विश्व का ध्यान करते हुये न्यास करना चाहिए । इस न्यास का नाम सम्मोहन हैं । जगद्वशीकरण न्यास इसके पहले कहा जा चुका है ॥२३-२४॥

पादयोर्जङ्घयोर्न्यस्येज्जान्वोश्च कटिभागयोः ।

लिङ्गे पृष्ठे नाभिदेशे पार्श्वयोस्तनयोरपि ॥ २५॥

अंसयोः कर्णयोर्ब्रह्मरन्र्धे वकत्रे च नेत्रयोः ।

कर्णयोः कर्णवेष्टेऽपि मूलस्यैकैकमक्षरम्‌ ॥ २६ ॥    

अब संहारन्यास  कहते हैं – दोनों पैर, जंघा, जानु, कटिभाग, लिङ्ग, पीठ, नाभि, पार्श्व स्तन, कन्धे, कान, ब्रह्यरन्ध्र, मुख, नेत्र, कान, और कर्णशष्कुली इन सोलह स्थानों में यथाक्रमेण षोडशक्षर मन्त्र के एक एक अक्षर का न्यास करना चाहिए । यह संहारन्यास कहा गया है । इसके बाद वाग्देवता नामक न्यास करना चाहिए ॥२५-२६॥

संहारन्यास –  १. श्रीं नमः पादयोः

२. ह्रीं नमः, जघयोः

३. क्लीं नमः, जान्वोः

४. ऐं नमः, कटिभागयोः

५. सौः नमः, लिङ्गे

६. ॐ नमः, पृष्ठे

७. ह्रीं नमः, नाभिदेशे

८. श्रीं नमः, पार्श्वयोः

९. कएईलह्रीं नमः, स्तन्योः

१०. हसकहलह्रीं नमः, अंसयोः

११. सकलह्रीं नमः, कर्णयोः

१२. सौं नमः ब्रह्यरन्ध्रे

१३. ऐं नमः, मुखे

१४. क्लीं नमः, नेत्रयोः

१५. ह्रीं नमः, कर्णयोः

१६. श्री नमः, कर्णशष्कुल्योः

संहारन्यास उक्तोऽयं ततो वाग्देवतां न्यसेत्‌ ।

तासां बीजानि नामानि न्यासस्थानानि च ब्रुवे ॥ २७ ॥

अब वाग्देवता के बीज एवं स्थानों का नाम बतलाता हूँ ॥२७॥

अग्निभूधरमांसाढ्योर्घिशों बीजं शशाङ्कयुक्‌ ।  

घोडशस्वरबीजाढ्यां वशिनीं शिरसि न्यसेत्‌ ॥ २८ ॥

अग्नि (र), भूधर (व), मांस (ल) एवं शशांक अनुस्वार सहित अर्घीश (दीर्घ ऊकार), इस प्रकार (रब्लूँ) यह प्रथम वाग्बीज निष्पन्न होता है, इसके पहले १६ स्वरों को लगाकर अन्त में वशिनी लगाकर शिर में न्यास करना चाहिए ॥२८॥

क्रोधीशमांसयुड्मायाद्वितीयं बीजमीरितम्‌ ।  

कवर्गपूर्ववीजाद्यां भाले कामेश्वरी न्यसेत्‌ ॥ २९॥

क्रोधीश (क), मांस (ल) के साथ माया (ह्रीं), इस प्रकार ‘कलह्रीं’ यह दूसरा वाग्बीज बनता है । इसके पहले क वर्ग लगाकर तथा अन्त में कामेश्वरी लगाकर ललाट में न्यास करना चाहिए ॥२९॥

दीर्घखङ्गीशरान्ताढ्यशान्तिबिन्दुसमन्विताम्‌ ।

चवर्ग तद्बीजयुतां भ्रमूध्ये मोहिनीं न्यसेत्‌ ॥ ३०॥

दीर्घ (नकार) खड्‌गीश (ब) एवं रान्त (ल) से युक्त शान्ति दीर्घ इकार’ एवं विन्दु लगाने पर (न्ब्लीं) यह तृतीय वाग्बीज बनता है । इसके पहले च वर्ग तथा अन्त में मोहिनी लगाकर भ्रूमध्य में न्यास करे ॥३०॥

अर्घीशो वायुमांसस्थो बिन्द्वाढ्यस्तत्तुरीयकम्‌ ।

टवर्गबीजपूर्वां तु विमलां विन्यसेद्‌ गले ॥ ३१॥

अर्घीश (ऊ) वायु (य) मांस (ल) और विन्दु से युक्त जो हों इस प्रकार (य्लूँ) यह चतुर्थ वाग्बीज  बनता है । इसके पूर्व में ट वर्ग तथा विमला लगाकर कण्ठ में न्यास करना चाहिए ॥३१॥

शूलिवैकुण्ठरेफस्थं वामनेत्रं सबिन्दुतम्‌ ।

तवर्ग बीजसंयुक्तां विन्यसेदरुणां हृदि ॥ ३२॥

वामनेत्र (ई) शूली (ज) वैकुण्ठ (म) तथा रेफ जो सविन्दु हों इस प्रकार ‘ज्म्रीं’ पञ्चम वाग्बीज बनता है । इसके पहले त वर्ग तथा अन्त में अरुणा लगाकर हृदय में न्यास करना चाहिए ॥३२॥

वामकर्णो वियद्धंसमांसबालानिलेन्दुयुक्‌ ।

पवर्ग तद्बीजपूर्वां जयिनीं नाभितो न्यसेत्‌ ॥ ३३॥

वियद् (ह) हंस (स) मांस (ल) बाल (व) एवं अनिल ‘य’ के साथ सविन्दु कर्ण ऊकार इस प्रकार ‘ह्स्ल्व्यूँ’ यह षष्ठ वाग्बीज बनता है । इसके पहले पवर्ग तथा ‘जयिनी’ लगाकर नाभि में न्यास करना चाहिए ॥३३॥

पाशीतन्द्री रेफवायुसंयुता दीपिकेन्दुयुक्‌ ।

यवर्ग बीजाद्यां मूलाधारे सर्वेश्वरीं न्यसेत्‌ ॥ ३४ ॥

पाशी (झ) तन्द्री (म) रेफ वायु (य) उससे संयुक्त इन्द्र (अनुस्वार) और दीपिका (ऊकार) इस प्रकार ‘र्झ्म्यूं’ यह सप्तम वाग्बीज है । इसके पहले य वर्ग तथा अन्त में ‘सर्वेश्वरी’ लगाकर कर मूलाधार में न्यास करना चाहिए ॥३४॥

संवर्तकमहाकालरेफस्थाशान्तिरिन्दुयुकू।

कौलिनीशादिबीजाद्यां न्यसेत्‌ पादान्तमूरुतः ॥ ३५॥

संवर्त्तक (क्ष), ‘महाकाल’ (म) एवं रेफ के साथ स विन्दु शान्ति इस प्रकार ‘क्ष्म्री’ यह अष्टम वाग्बीज  बनता है । इसके पूर्व में श वर्ग तथा अन्त में ‘कौलिनी’ लगाकर ऊरु से पैरों तक न्यास करना चाहिए ॥३५॥

वाग्देवतायै हार्दान्तं नामान्ते प्रोच्चरेत्‌ पदम्‌ ।

उक्तो वाग्देवतान्यासः सृष्टिन्यासमथाचरेत्‌ ॥ ३६ ॥

उपयुक्त सभी न्यासों के अन्त में वाग्देवतायै तथा नमः सर्वत्र जोडना चाहिए इस प्रकार वाग्देवता का न्यास कहा गया है । इसके बाद सृष्टिन्यास करना चाहिए ॥३६॥

विमर्श – वाग्देवता न्यास –

१. अं आं इं ईं उं ऊं ऋं ऋं लृं लृं अं ऐं ओं औं अं अः ब्लूं

२. कं खं गं घं ङं कलह्रीं कामेश्वरी वाग्देवयायै नमः, ललाटे ।

३. चं छं जं झं ञं न्ब्लीं मोहिनी वाग्देवतायै नमः, भूमध्ये ।

४. टं ठ्म डं ढं ण य्लूं विमला वाग्देवतायै नमः, कण्ठे ।

५. तं थं दं धं नं ज्म्रीं अरुणा वाग्देवतायै नमः, नाभौ ।

६. पं फं बं भं मं हूरस्ल्व्यूँ जयिनी वाग्देवयायै नमः, नाभौ ।

७. यं रं लं वं झ्म्र्‍यूँ सर्वेश्वरी वाग्देवतायै नमः, मूलाधारे ।

८. शं षं सं हं लं क्षं क्ष्म्रें कोलिनी वाग्देवतायै नमः, उर्वादिपादान्तम् ।

सृष्टिन्यास: स्थितिन्यासः पञ्चावृत्तिन्यासश्च

ब्रह्मरन्द्रे ललाटे च नेत्रयो: कर्णयोर्नसो:।

गण्डदन्तोष्ठजिह्वासुमुखकूपे च पृष्ठतः ॥ ३७ ॥

सर्वाङ्गे हृदये न्यस्येत्‌ स्तनकुक्षिध्वजेषु च ।

एकैकार्णमथों मूर्ध्नि सर्वेण व्यापकं चरेत्‌ ॥ ३८॥

सृष्टिन्यासं विधायैवं स्थितिन्यासमथाचरेत्‌ ।  

सृष्टिन्यास –  ब्रह्यरन्ध्र, ललाट, नेत्र, कान, नासिका, गण्डस्थल, दाँत, होठ, जिहवा, मुख, पीठ, सर्वांङ्ग, हृदय, स्तन, कुक्षि, एवं लिङ्ग पर क्रमशः मन्त्र के एक एक अक्षर का न्यास करना चाहिए । तदनन्तर समस्त मन्त्र से व्यापक करना चाहिए ॥३७-३९॥

विमर्श – सृष्टिन्यास विधि – १. श्रीं नमः ब्रह्यरन्ध्रे,

२. ह्रीं नमः ललाटे,

३. क्लीं नमः नेत्रयोः,

४. ऐं नमः कर्णयोः

५. सों नमः नासोः,

६. ॐ नमः गण्डयोः,

७. ह्रीं नमः दन्तेषु,

८. श्रीं नमः ओष्ठयोः

९. कएईलह्रीं नमः जिहवायाम्‍

१०. हसकहलह्रीं नमः मुखमध्ये,

११. सकलह्रीं नमः पृष्ठे,

१२. सौं नमः सर्वांङ्गे

१३. ऐं नमः हृदि,

१४. क्लीं नमः स्तनयोः,

१५. ह्रीं नमः कुक्षौ

१६. श्रीं नमः लिङ्गे ॥३७-३८॥

करांगुष्ठाद्यड्‌गुलीषु ब्रह्मरन्ध्रे मुखे हृदि॥ ३९॥

नाभ्यादिपादपर्यन्त नाभ्यन्तं कण्ठदेशतः।

ब्रह्मरन्ध्नाच्च कण्ठान्तं पादाङ्गुलिषु पञ्च वा ॥ ४० ॥

इस प्रकार सृष्टिन्यास करने के बाद साधक को स्थितिन्यास इस प्रकार करना चाहिए – अङ्‌गूठे सहित पाँचों अंगुलियों, ब्रह्मरन्ध्र, मुख, हृदय, फिर नाभि से परि तक, कण्ठ से नाभि तक, ब्रह्मरन्ध्र से कण्ठ,फिर पैरों की पाँचों अङ्‌गुलियों में क्रमशः मन्त्र के १-१ वर्ण का न्यास करना चाहिए ॥३९-४०॥

विमर्श –

१. श्रीं नमः, अङ्‌गुष्ठयोः

२. ह्रीं नमः तर्जन्योः

३. क्लीं नमः, मध्यमयोः

४. ऐं नमः अनामिकयोः

५. सौः नमः, कनिष्ठिकयोः

६. ॐ नमः, ब्रह्मरन्ध्रे

७. ह्रीं नमः मुखे

८. श्रीं नमः हृदि

९. कएईलह्रीं नमः नाम्यादि पादान्तम्

१०. ह्सकहलह्रीं नमः, कण्ठदिनाभ्यन्तम्

११. सकलह्रीं नमः, ब्रह्मरन्घ्रात् कण्ठान्तम्

१२. सौः नमः, पादागुष्ठयोः

१३. ऐं नमः पादतर्जन्योः

१४. क्लीं नमः, पादमध्ययोः

१५. ह्रीं नमः, पादानामिकयोः

१६. श्रीं नमः, पादकनिष्ठयोः ॥३९-४०॥

अथ पञ्चविध न्यासं वक्ष्ये सर्वेष्टसिद्धिदम्‌ ।  

मन्त्रपञ्चावृत्तिरूपं येन तद्रूपतां ब्रजेत्‌ ॥ ४१॥

अब सम्पूर्ण अभीष्टों को देने वाले पञ्चवृत्ति रुप पञ्चविध न्यास कहता हूँ जिसके करने से साधक तद्‌रुपता प्राप्त कर लेता है ॥४१॥

मूर्ध्नि वकत्रे दृशो: श्रुत्योर्नसो गण्डोष्ठयोरपि |

वक्त्रमध्ये दन्तपक्त्योर्वदने विन्यसेत्‌ क्रमात्‌ ॥ ४२ ॥

एकैकवर्ण विद्याया इत्येको न्यास ईरितः।

शिर मुख, दोनो नेत्र, दोनों कान, दोनों नासिका, दोनों गाल, दोनों ओष्ठ, मुखकूप, दोनों दन्त पक्तियाँ तथा मुख में विद्या के एक-एक वर्ण से न्यास करना चाहिए । यह प्रथम न्यास है ॥४२-४३॥

शिखाशिरो ललाटं भ्रू्घ्नाणवक्त्रे षडर्णकान्‌॥ ४३ ॥

करसन्धिषु साग्रेषु दशेति स्याद्‌ द्वितीयकः।

शिखा, शिर, ललाट, भ्रू, नासिका और मुख में मन्त्र के ६ वर्णो का तथा दोनों हाथों की सन्धि एवं अग्रभाग में शेष वर्णो का न्यास करना चाहिए । यह द्वितीय न्यास कहा जाता है ॥४३-४४॥

शिरो ललाटनेत्रास्येजिह्वाया षण्न्यसेत्‌ पुनः ॥ ४४ ॥

पादसन्धिषु साग्रेषु दशेति स्यात्तृतीयकः ।     

शिर, ललाट, दोनों नेत्र, मुख और जिहवा पर मन्त्र के ६ वर्ण का तथा दोनों पैरों की सन्धियों और उनके अग्रभाग पर शेष वर्णो का न्यास करना चाहिए यह तृतीय न्यास है ॥४४-४५॥

मातृकाओं में बतलाये गये स्वरस्थानों में (द्र १.८९) मन्त्र के १६ वर्णो का न्यास करना चाहिए । यह चतुर्थ न्यास है ॥४५॥

 

स्वरस्थाने चतुर्थस्तु ललाटे च गले हृदि ॥ ४५॥

नाभौ च मूलाधारेऽपि ब्रह्मरन्ध्रे मुखे गुदे।

आधारे हृद्ब्रह्मरन्ध्रे करयोः पादयोर्हृदि ॥ ४६ ॥

ललाट कण्ठ, हृदय, नाभि, मूलाधार, ब्रह्यरन्ध्र, मुख, गुदा, मूलाधार, हृदय, ब्रह्मरन्ध्र, दोनों हाथ, दोनों परि तथा हृदय में मन्त्र के एक एक अक्षर का न्यास करना चाहिए । यह पञ्चम न्यास है ॥४५-४६॥

एवं पञ्चविधं कृत्वा विद्यां प्रणवसम्पुटाम्‌ ।

सर्वस्मिन्व्यापयेदङ्गे नमोन्तां तां हृदि न्यसेत्‌॥ ४७॥

इस प्रकार न्यास करने के बाद प्रणव संपुटित विद्या के संपूर्ण मन्त्रों से सभी अङ्गों में व्यापक न्यास करना चाहिए । पुनः मूल विद्या में नमः लगाकर हृदय में न्यास करना चाहिए ॥४७॥

विमर्श्य – पञ्चावृत्ति नामक न्यास का प्रथम न्यास

१. ॐ नमः, मूर्ध्नि

२. ह्रीं नमः, वक्त्रे

३. क्लीं नमः, दक्षिणनेत्रे

४. ऐं नमः, वामनेत्रे

५. सौः नमः, दक्षिणकर्णे

६. ॐ नमः, वामकर्णे

७. ह्रीं नमः, दक्षनासायाम्

८. श्रीं नमः, वामसायाम्

९. कएईलह्रीं नमः, दक्षिण गण्डे

१०. हसकलह्रीं नमः, वामगण्डे

११. सकलह्रीं नमः, ऊर्ध्वोष्ठे

१२. सौः नमः, ऊर्ध्वदन्तपङ्‌क्तौं

१३. ऐं नमः, वक्त्रमध्ये

१४. क्लीं नमः, ऊर्ध्वदन्तपङ्‌क्तौं

१५. ह्रीं नमः, अधोदन्तपङ्‌क्तौ

१६. श्री नमः, वदने

द्वितीयन्यास

१. श्रीं नमः शिखायाम्

२. ह्रीं नमः शिरसि,

३. क्लीं नमः नासायाम्,

४. ऐं नमः भुवोः

५. सौः नमः नासायाम्,

६. ॐ नमः वक्त्रे

७. ह्रीं नमः दक्षिण बाहुमूले,

८. श्रीं नमः दक्षिणा कूर्परे

९. कएईलह्रीं नमः दक्षिणमणिबन्धे

१०. हसकहलह्रीं नमः अङ्‌गुलिमूले

११. सकलह्रीं नमः अङ्‌गुल्यग्रे

१२. सौः नमः वामबाहुमूले

१३. ऐं नमः वामकूर्परे

१४. क्लीं नमः वाममणिबन्धे

१५. ह्रीं नमः अङ्‌गुलिमूले

१६. श्रीं नमः अंगुल्यग्रे

तृतीयन्यास

१. श्रीं नमः शिरसि

२. ह्रीं नमः ललाटे

३. क्लीं नमः दक्षिणनेत्रे

४. ऐं नमः वामनेत्रे

५. सौः नमः मुखे

६. ॐ नमः जिहवायाम्

७. ह्रीं नमः पदक्षपादमूले

८. श्रीं नमः दक्षग्रल्फे

९. कएईलह्रीं नमः दक्षजंघायाम्

१०. हसकहलह्रीं नमः दक्षपादांगुलि

११. सकलह्रीं नमः दक्षपादांगुल्यग्रे

१२. सौः नमः वामपादमूले

१३. ऐं नमः वामगुल्फे

१४. क्लीं नमः वामजघायाम्

१५. ह्रीं नमः वामपादागुलिमूले

१६. श्रीं नमः वामपादागुल्यग्रे

चतुर्थन्यास

१. श्रीं नमः ललाटे

२. ह्रीं नमः मुखवृत्रे

३. क्लीं नमः दक्षनेत्रे

४. ऐं नमः वामनेत्रे

५. सौः नमः दक्षकर्णे

६. ॐ नमः वामकर्णे

७. ह्रीं नमः दक्षनासायाम्

८. श्रीं नमः दक्षनासायाम्

९. कएईलह्रीं नमः गण्डे

१०. हसकहलह्रीं नमः वामगण्डे

११. सकलह्रीं नमः ऊर्ध्वोष्ठे

१२. सौः नमः अधरे

१३. ऐं नमः ऊर्ध्वदन्तपंक्तौ

१४. क्लीं नमः अधःदन्तपंक्तौ

१५. ह्रीं नमः ब्रह्मरन्ध्रे

१६. श्रीं नमः मुखे

पञ्चमन्यास

१. श्रीं नमः ललाटे

२. ह्रीं नमः कण्ठे

३. क्लीं नमः हृदि

४. ऐं नमः नाभौ

५. सौः नमः मूलाधारे

६. ॐ नमः ब्रह्मरन्ध्रे

७. ह्रीं नमः मुखे

८. श्रीं नमः गुदे

९. कएईलह्रीं नमः मूलाधारे

१०. हसकहलह्रीं नमः हृदि

११. सकलह्रीं नमः ब्रह्मरन्ध्रे

१२. सौः नमः दक्षिणमुखे

१३. ऐं नमः वामहस्ते

१४. क्लीं नमः दक्षिणपादे

१५. ह्रीं नमः वामपादे

१६. श्रीं नमः हृदि

इस प्रकार पाँच बार में पञ्चवृत्ति न्यास कर ‘ॐ श्रीं ह्रीं क्लीं ऐं सौः, ॐ ह्रीं श्रीं कएईलह्रीं हसकहलह्रीं सकलहीं सौः ऐं क्लीं ह्रीं श्री मन्त्र द्वारा सभी अङ्गों में व्यापक न्यास करे । फिर इसी मन्त्र के अन्त में ‘नमः’ लगाकर हृदय में न्यास करे ॥४२-४७॥

षोढान्यासादयो न्यासाः कार्या: सौभाग्यवाञ्छया ।  

नोच्यन्ते विस्तरभयान्नैव चावश्यकाश्च ते॥ ४८ ॥

सौभाग्य की इच्छा करने वाले साधक को षोढान्यास आदि सभी न्यास और ध्यान चाहिए । ग्रन्थ विस्तार के भय से हम यहाँ उनको नहीं लिख रहे हैं तथा प्रसिद्ध होने के कारण यहाँ उनके बतलाने की आवश्यकता भी नहीं है ॥४८॥

मुद्राः प्रदर्शयेत्‌ कृत्वा षडङ्गं प्राणसंयमम्‌ ।

संक्षोभद्रावणाकर्षवश्योन्मादमहांकुशाः ॥ ४९ ॥

खेचरीबीजयोन्याख्या मुद्रा देवीप्रिया नव ।

ततो ध्यायेद्‌ भगवतीं श्रीमत्त्रिपुरसुन्दरीम्‌ ॥ ५० ॥

फिर प्रणायाम कर षडङ्गन्यास करने के बाद मुद्रायें प्रदर्शित करनी चाहिए । १. संक्षिभिणी २. द्रावणी, ३. आकर्षणी, ४. वश्या, ५. उन्माद, ६. महाड्‌कुशा, ७. खेचरी, ८. बीज एवं ९. महायोनि – ये ९ मुद्रायें देवी की प्रिय मुद्रायें हैं । मुद्रा दिखाने के बाद श्रीमत्त्रिपुरसुन्दरी का ध्यान ११. ५१ श्लोक के अनुसार करना चाहिए ॥४९-५०॥

ध्यानजपपूजादिप्रकार: तदन्तर्गतमन्त्राश्च

बालार्कायुततेजसं त्रिनयनां रक्ताम्बरोल्लासिनीं

नानालङ्कृतिराजमानवपुष बालोडुराट्शेखराम्‌ ।

हस्तैरिक्षुघनु: सृणिं सुमशरं पाशं मुदा बिभ्रतीं

श्रीचक्रस्थितसुन्दरीं त्रिजगतामाधारभूता स्मरेत्‌ ॥ ५१॥

अब महाश्रीत्रिपुरसुन्दरी देवी का ध्यान कहते हैं –

उदीयमान सूर्यमण्डल के समान कान्ति वाली, त्रिनेत्रा, लालवर्ण के वस्त्र से सुशोभित, अनेक आभूषणों से अलंकृत, देहवाली द्वितीया के चन्द्रमा को अपने शिर पर धारण किये हुये, अपने चारों हाथों में क्रमशः इक्षुधनु, अंकुश, पुष्पबाण एवं पाश धारण करने वाली श्री चक्र पर विराजमान एवं तीनों लोकों की आधारभूता भगवती श्रीमत्त्रिपुरसुन्दरी देवी का ध्यान करना चाहिए ॥५१॥

लक्षमेकं जपेन्मन्त्र दशाशं हयमारजै: ।

पुष्पैस्त्रिमधुरोपेतैर्जुहुयात्‌ पूजितेऽनले ॥ ५२ ॥

श्रीमत्त्रिसुद्नरी के मन्त्र का एक लाख जप करना चाहिए तथा त्रिमधुर (शर्करा,मधु,घृत) मिश्रित कनेर के फूलों से विधिवत् पूजित अग्नि में होम करना चाहिए ॥५२॥

श्रीचक्रस्योद्धृतिं वक्ष्ये तत्र पूजनसिद्धये ।

बिन्दुगर्भ त्रिकोणं तु कृत्वा चाष्टारमुद्धरेत्‌ ॥ ५३॥

दशारद्वयमन्वस्राष्टारषोडशकोणकम्‌ ।

त्रिरेखात्मकभूगेहवेष्टितं यन्त्रमालिखेत्‌ ॥ ५४॥

अब पूजा करने के लिए श्रीचक्र यन्त्र का उद्धार कहते हैं –

गर्भस्थ बिन्दु सहित लिखकर उसके ऊपर अष्टदल कमल लिखना चाहिए । फिर उसके ऊपर दशदल कमल लिखना चाहिए । फिर उसके ऊपर क्रमशः एक दशदल, चतुर्दश दल, अष्टदल एवं षोडशदल लिखना चाहिए । तत्पश्चात्  तीन रेखायुक्त भूपुर से इसे वेष्टित करना चाहिए ॥५३-५४॥

तत्र पूजां प्रवक्ष्यामि पात्रस्थापनपूर्वकम्‌ ।

वहन्नाडीस्थहस्तेन स्वाग्रतो यन्त्रमालिखेत्‌ ॥ ५५॥

त्रिकोणमध्यषट्कोणवृत्तभूमण्डलात्मकम्‌ ।

बालया पूजयेन्‌ मध्य तद्‌बीजैः कोणकत्रयम्‌ ॥ ५६ ॥

अनुलोमविलोमैस्तैः षट्कोणान्पूजयेत्ततः ।

अब पात्र स्थापन पूर्वक श्रीविद्या के पूजन की विधि कहता हूँ –

जो स्वर चल हो उस हाथ से अपने आगे वक्ष्यमाण यन्त्र लिखें – प्रथम त्रिकोण बनाकर उसके ऊपर षट्‍कोण लिखें । फिर वृत्त, तदनन्तर भूपुर का निर्माण करे । त्रिकोण के मध्य बाला मन्त्र से पूजन करना चाहिए । तदनन्तर उसके तीनों कोणों की पूजा बाला के तीनों बीजों से करनी चाहिए । तदनन्तर इन्हीं बीजों के अनुलोम तथा विलोम क्रम से षट्‌कोणों की पूजा करनी चाहिए ॥५५-५७॥

अस्त्रप्रक्षालितं मध्ये पात्राधारं निधापयेत्‌ ॥ ५७॥

एकत्रिंशार्णननुना तमाधार समर्चयेत्‌ ।

वहिनदीर्घत्रयेन्द्वाढ्यों रभान्तलवरानिलाः ॥ ५८॥

फिर उस यन्त्र पर ‘अस्त्राय फट्’ मन्त्र से प्रक्षालित पात्राधार को स्थापित करना चाहिए । तदनन्तर ३१ अक्षरों वाले वक्ष्यमाण मन्त्र से उस आधार की पूजा करनी चाहिए ॥५७-५८॥

वामकर्णुन्दुसंयुक्तार: सेन्दुश्चाग्निमण्डला ।

वायुर्धर्मर्पप्रददशकलात्माङेसमन्वितः ॥ ५९ ॥

वाग्वीजं कलशाधारा पवनों नमसान्वितः ।

तारादिरीरितो मन्‍्त्रों भाजनाधारपूजने ॥ ६० ॥

दीर्घयेन्दुयुक् वहिन (रां रीं रुँ), फिर ‘र’ तथा भान्त (म), फिर ‘ल व र’ एवं अनिल (य) ये सभी वामकर्णेन्दु (ऊ) के साथ अर्थात्  (र्‌र्म्ल्व्यूं), फिर सेन्दु र (रं), फिर ‘अग्निमण्डला’ पद, फिर वायु (य), फिर चतुर्थ्यन्त ‘धर्मप्रददशकलात्मा’ फिर वाग्बीज (ऐं), कलाशाधारा, फिर पवन (य) तथा अन्त में ‘नमः’ तथा प्रारम्भ में प्रणव लगाने से ३१ अक्षरों का आधारपात्र की पूजा का मन्त्र बनता है ॥५९-६०॥

विमर्श – मन्त्र का स्वरुप इस प्रकार है – ‘ॐ राँ रीं रुँ रर्म्ल्व्यूं रं अग्निमण्डलाय धर्मप्रददशकलात्मने ऐं कलशाधाराय नमः ॥५९-६०॥

धूम्रार्चादीनामग्नेर्दशकलानामर्चनकथनम्‌

प्रादक्षिण्याद्दृशाग्नेयीस्तदुपर्यर्चयेत्‌ कलाः।

धूम्रार्च्चिरूष्माज्वलिनीज्वालिनीविस्फुलिङ्गिनी ॥ ६१॥

सुश्री: सुरूपाकपिलाहव्यकव्यादिकावहा ।  

सबिन्दुयादिवर्णाद्या दशाग्नेरीरिता: कलाः॥ ६२ ॥

कलाश्रीपादुकां पूजयामीति पदमुच्चरेत्‌ ।  

नाम्नामन्ते ततस्तासां प्राणस्थापनमाचरेत्‌ ॥ ६३ ॥

पुनः उस आधारपत्र के ऊपर प्रदक्षिण क्रम से अग्नि की दश कलाओं का पूजन करना चाहिए, १. धूम्रार्चि, २. ऊष्मा, ३. ज्वलिनी, ४. ज्वालिनी, ५. विस्फुलिङ्गिनी, ६. सुश्री, ७. सुरुपा, ८. कपिला, ९. हव्यवहा,एवं १०. कव्यवहा ये सविन्दु यकार आदि दशवर्णो के साथ अग्नि की कलायें कहीं गई हैं । इनके नाम के बाद ‘कलाश्री पादुकां पूजयामि’ इतना पद मिलाकर पूजन करना चाहिए इसके बाद उसमें प्राणप्रतिष्ठा करनी चाहिए ॥६१-६३॥

स्वर्णादिपात्रमस्त्रेण क्षालित तत्र विन्यसेत् ।  

कलशार्चनामन्त्र:

वियद्दीर्घत्रयेन्द्वाढ्यं हममांसंवरानिलः ॥ ६४ ॥

यहाँ तक आधार पात्र की पूजा कही गई । अब आधार पर रखे जाने वाले कलशादि का पूजन कहते हैं – प्रथम अस्त्राय फट् इस मन्त्र से उस सुवर्णादि निर्मित्त कलश को प्रक्षालित करे । तदनन्तर उसे आधारपात्र पर रखकर वक्ष्यमाण ३० अक्षरों वाले मन्त्र पूजन करना चाहिए ॥६४॥

अर्धीशबिन्दुसयुक्ता: सेन्दुखसूर्यमण्डला ।

वायुर्वसुप्रदान्ते स्याद्‌ द्वादशान्ते कलात्मने॥ ६५॥

मनन्मथः कलशायेति नमोन्त: प्रणवादिकः ।  

त्रिशद्वर्णात्मको मन्त्र: कलशस्यार्च्चने मत: ॥ ६६ ॥

दीर्घत्रयेन्दु सहित वियत्  (हां हीं हूँ) फिर ‘ह मः’ मांस (ल) ‘व र’ अनिल (य) ये सभी अर्घीश विन्दु सहित (ह्म्व्र्‌यूँ), फिर सेन्दु ख (हं), फिर ‘सूर्यमण्डला’, फिर वायु (य), फिर ‘वसुप्रदद्वादशकलात्मने’ पद, फिर मन्मथ (क्लीं), फिर ‘कलशाय नमः’ इस मन्त्र क ए आदि में प्रणव लगाने से ३० अक्षरों का कलश पूजन मन्त्र बनता है ॥६४-६६॥

विमर्श – मन्त्र का स्वरुप इस प्रकार है – ॐ हां हीं हूं ह्म्ल्व्र्‍यूँ हं सूर्यमण्डलाय वसुप्रदद्वाशकलात्मने क्लीं कलशाय नमः ॥६४-६६॥

तपिन्यादिद्वादशसूर्यकलाकथनम्‌

कलाद्वादशसूर्यस्य कलशोपरि पूजयेत्‌ ।

तपिनीतापिनीधूम्रामरीचिर्ज्वालिनीरुचि: ॥ ६७॥

सुषुम्नाभोगदाविश्वाबोधिनीधारिणीक्षमा ।  

अनुलोमविलोमाभ्यां कादिभाद्यर्णयुग्युता ॥ ६८ ॥

पूर्ववत्ता: समापूज्या: कलशे पूरयेज्जलम्‌ ।

तदनन्तर कलश के ऊपर सूर्य की द्वादश कलाओं का पूजन करना चाहिए । १. तपिनी, २. तपिनी, ३. धूम्रा, ४. मरीचि, ५. ज्वलिनी, ६. रुचिर, ७. सुषुम्ना, ८. भोगदा, ९. विश्वा, १०. बोधिनी, ११. धारिणी एवं १२. क्षमा इन कलाओं की अनुलोम ककारादि तथा विलोम भकरादि क्रमों से युक्तकर पूजन करना चाहिए ॥६७-६९॥

उच्चरन्मातृकावर्णान्मूलविद्यां च मन्त्रवित्‌ ॥ ६९ ॥

दन्ताक्षरेण मनुना कलशोदकमर्चयेत्‌ ।  

इस प्रकार सूर्य की द्वादश कलाओं के पूजन के पश्चात्  मातृका वर्णो के साथ मूलमन्त्र बोलकर कलश को जल से पूर्ण करना चाहिए । फिर बत्तिस अक्षरों से युक्त वक्ष्यमाण मन्त्र से कलश का पूजन करना चाहिए ॥६९-७०॥

भूगुर्दीर्धत्रयेन्द्वाढ्य: समलाम्ब्वग्निवायव: ॥ ७० ॥

अर्घीशेन्दुयुता: सेन्दुहंसान्ते सोममण्डला । 

यकामप्रदषोडान्तेशकलात्मा तु डेयुतः॥ ७१॥

भूगुर्मनुर्विसर्गाढ्यो डेयुतं कलशामृतम्‌ ।

तारादिहृदयान्तोऽयं मनु: पानीयपूजने ॥ ७२ ॥

दीर्घयत्र एवं बिन्दु से युक्त भृगु (स), स म् ल्‌ अम्बु (व्), अग्नि (र्) एवं वायु (य्), इन्हें अर्घीशेन्दु से युक्त स्म्ल्व्र्‌यूँ, फिर हंस (सं), ‘सोमामण्डलाय कामप्रद षोडश’ के बाद चतुर्थ्यन्त ‘कलात्मा’ पद (कलात्मने), फिर ‘मनुविसर्गाढ्य भृगु सौः’ फिर चतुर्थ्यन्त कलशामृत (कलशामृताय), इस प्रकार निष्पन्न मन्त्र के आदि में तार (ॐ) तथा अन्त में हृदय ‘नमः’ लगाने पर ३२ अक्षर का मन्त्र बनता है ॥७०-७२॥

विमर्श – मन्त्र का स्वरुप इस प्रकार है – ॐ सां सीं सूं स्म्ल्व्र्‌यूँ सं सोममण्डलाय कामप्रदषोशकलात्मने सौः कलशामृताय नमः ॥७०-७२॥

अमृतादिषोडशचन्द्रकलाकथनम्‌

चान्द्री: कलाः स्वराद्यास्तु यजेत्‌ षोडशतज्जले ।  

अमृतामानदापूषा तुष्टिपुष्टीरतिर्धृति: ॥ ७३॥

शशिनीचन्द्रिकाकान्तिर्ज्योत्स्नाश्री: प्रीतिरङ्गदा ।  

पूर्णापूर्णामृता चेति पूजनं पूर्ववन्मतम्‌॥ ७४॥

फिर कलश के जल में १६ स्वरों के साथ चान्द्री कलाओं का पूर्ववत्  पूजन करना चाहिए । १. अमृता, २. मानदा, ३. पूषा, ४. तुष्टि, ५. पुष्टि, ६. रति, ७. धृति, ८. शशिनी, ९. चन्द्रिका, १०. कान्ति, ११. ज्योत्स्ना, १२. श्री, १३. प्रीति, १४. अङ्गदा, १५, पूर्णा एवं १६. पूर्णामृता ये चान्द्री कलाओं के नाम हैं ॥७३-७४॥

भैरवमन्त्र: सुधादेवीमन्त्रश्च

भैरवं च सुधादेवीं स्वमन्त्राभ्यां यजेज्जले ।

सहक्षमलपानीयवहनीरार्घीशबिन्दुमत्‌ ॥ ७५ ॥

बीजमानन्दभैरवान्ते वायुर्वोषण्मनुर्मतः ।  

हसयोर्वेपरीत्येन बीजं पूर्वोदितं सुधा ॥ ७६ ॥

देव्यै वौषट् तयोर्मन्त्रौ दशमुन्यक्षरौ क्रमात्‌ ।  

ततो मत्स्यास्त्रकवचधेनुमुद्राः प्रदर्शयेत्‌ ॥ ७७ ॥

संरोधिन्या संनिरुध्य मुसलं चक्रसंज्ञकम्‌ ।  

महामुद्रां योनिमुद्रां कुर्यात्‌ कुम्भामृते पुनः ॥ ७८॥

एवं कलशामास्थाप्य तस्य दक्षिणदेशतः ।     

इसी प्रकार भैरव तथा सुधा देवी का अपने अपने मन्त्रों से पूजन करना चाहिए । ह् स् क्ष् म् ल्, पानीय (वहिन) (र्) इन्हें अर्घीश बिन्दु से युक्त करने पर ‘ह्स्क्ष्म्ल्व्रु’ यह बीज, बाद ‘आनन्दभैरवाय वौषट्’ यह १० अक्षरों बाला भैरव मन्त्र है, तथा पूर्वोक्त बीज में इस ७ अक्षरों हस का विपर्यय करने से ‘र्ह्क्ष्म्ल्व्रु’ फिर ‘सुधा देव्यै वौषट्’ यह सुधा देवी का मन्त्र बनता है । इस प्रकार पूजन करने के बाद मत्स्य, अस्त्र, कवच एवं धेनु मुद्रायें प्रदर्शित करनी चाहिए । फिर सन्निरोधिनी मुद्रा से सन्निरोध कर कलश के जल में मुशल, चक्र, महामुद्राअ एवं योनि मुद्रायें प्रदर्शित करनी चाहिए ॥७५-७९॥

शङ्खं चापि विशेषार्ध्य स्थापयेत्‌ पूर्ववत्‌ क्रमात्‌ ॥ ७९ ॥

अर्घ्ये त्रिकोण संचिन्त्याऽकथाद्यैः षोडशाक्षरै: ।  

हक्षाभ्यां शोभितं मध्ये तत्र बालां प्रपूजयेत्‌ ॥ ८० ॥

इस प्रकार कलश स्थापन कर उसके दक्षिणभाग में पूर्वोक्त रीति से शंख एवं विशेषार्घ्य भी करना चाहिए। पुनः अर्घ्य में अकारादि, ककारादि और थकरादि रेखाओं से तथा मध्य में ह क्ष वर्णो से सुशोभित त्रिकोण का ध्यान कर उसमें ‘ऐं क्लीं सौः मन्त्र से बाला का पूजन करना चाहिए ॥७९-८० ॥

अष्टवर्णमन्त्रकथनम्

अष्टावर्णनमन्त्रेण देवीं ज्योतिर्मयीं यजेत्‌ ।

तारो मायेन्दुयुग्व्योम भृयुसर्गीससद्यसः ॥ ८१॥

तदनन्तर अष्टाक्षर मन्त्र से ज्योतिर्मयी देवी का पूजन करना चाहिए । तार (ॐ) माया (ह्रीं) इन्द्र युक्त व्योम (हं) सर्गी भृगु (सः) ससद्य भृगु सौः बिन्दु युक् वराह (हं) एवं ‘स्वाहा’ लगाने से अष्टाक्षर मन्त्र बनता है ॥८१॥

विमर्श – मन्त्र का स्वरुप इस प्रकार है – ‘ॐ ह्रीं हंसः सोः हं स्वाहा’ ॥८१॥

वाराहो बिन्दुयुक्स्वाहा वसुवर्ण: स्मृतो मनु: ।

ज्योतिर्मयीदेव्यायजनप्रकार:

मूलं त्रिरभिजप्याथ कुर्यान्मुद्रा: समीरिता: ॥ ८२ ॥

शंखार्ध्यस्थापने कार्य ऊह: कलशनामनि ।  

फिर मूल मन्त्र को तीन बार जप कर मत्स्य आदि पूर्वोक्त ९ मुद्रायें प्रदर्शित करनी चाहिए । शंख एवं अर्घ्य स्थापन में कलश शब्द के स्थान में उनका अर्थात्  शङ्‌ख पद और अर्घ्य पद का नाम लेना चाहिए ॥८२-८३॥

एवं पात्राणि संस्थाप्य गृहीत्वार्ध्योदकं ततः ॥ ८३॥

पूजावस्तूनि चात्मानं प्रोक्षेन्मूलमनु स्मरन्‌ ।

विधाय मानसी पूजां पीठपूजामथाचरेत्‌ ॥ ८४॥

इस प्रकार पात्रों के स्थापन के बाद अर्घ्यपात्र का जल लेकर उस जल से पूजा सामग्री पर और अपने ऊपर जल छिडके, तदनन्तर मानसोपचार से देवी का पूजन एवं उनकी पीठ पूजा करनी चाहिए ॥८३-८४॥

विमर्श – पात्रस्थान विधि  संक्षेप में इस प्रकार है – पात्रस्थापन के लिए सर्वप्रथम दक्षिण या वाम जो स्वर चल रहा हो उस हाथ से त्रिकोण, उसके ऊपर षट्‌कोण वृत्त एवं भूपुर युक्त यन्त्र लिखना चाहिए । उसके मध्य भाग की ‘ऐं क्लीं सौः’ मन्त्र से पूजा करे तथा बाला के तीन बीजों से त्रिकोण के एक एक कोणों की, फिर इन्हीं बीजों को अनुलोम एवं विलोम ‘ऐं क्लीं सौः’ एवं ‘सौः ऐं क्लीं’ इन ६ बीजों से पूजा करे ।

तदनन्तर अस्त्राय फट् इस मन्त्र से प्रक्षालित पात्राधार को उक्त यन्त्र के मध्य मे रख कर ‘ॐ रां रीं म्ल्ब्यूं रं अग्निमण्डलाय धर्मप्रददशकलात्मने ऐं पात्राधार के ऊपर अग्नि की दशकलाओं का इस प्रकार पूजन करे –

१. यं धूम्रार्चिषे नमः धूम्रार्चिकला श्रीपादुकां पूजयामि नमः ।

२. रं ऊष्मायै नमः ऊष्मार्चिकला श्रीपादुकां पूजयामि नमः ।

३. लं ज्वलिन्यै नमः ज्वलिनीकला श्रीपादुकां पूजयामि नमः ।

४. वं ज्वालिन्यै नमः ज्वालिनीकला श्रीपादुकां पूजयामि नमः ।

५. शं विस्फुलिंगिन्यै नमः विस्फुलिंगिनीकला श्रीपादुकां पूजयामि नमः ।

६. षं सुश्रियै नमः सुश्रीकला श्रीपादुकां पूजयामि नमः ।

७. सं सुरुपायै नमः सुरुपाकला श्रीपादुकां पूजयामि नमः ।

८. हं कपिलायि नमः कपिलाकला श्रीपादुकां पूजयामि नमः ।

९. ळं हव्यवहायै नमः हव्यवहाकला श्रीपादुकां पूजयामि नमः ।

१०. क्षं कव्यवहायै नमः कव्यवहाकला श्रीपादुकां पूजयामि नमः ।

इसके बाद इन कलाओं पर अस्यै प्राणा प्रतिष्ठन्तु इत्यादि मन्त्र से प्रत्येक की प्राणप्रतिष्ठा करनी चाहिए ।

इतना करने के बाद आधार पर अस्त्राय फट् इस मन्त्र से प्रक्षालित स्वर्णादि निर्मित कलश रख कर ‘ॐ हां हीं हूँ ह्म्ल्र्‍यूँ हं सूर्यमण्डलाय वसुप्रद द्वादशकलात्मने क्लीं कलशाय नमः’ मन्त्र से कलश का पूजन करना चाहिए । फिर उस कलश पर तपिनी आदि सूर्य की द्वादश कलाओं का इस प्रकार पूजन करनी चाहिए ।

कं भं तपिन्यै नमः तपिनीकला श्रीपादुकां पूजयामि नमः ।

खं बं तापिन्यै नमः तापिनीकला श्रीपादुकां पूजयामि नमः ।

गं फं धूम्रायै नमः धूम्राकला श्रीपादुकां पूजयामि नमः ।

घं पं मरीच्यै नमः मरीचिकला श्रीपादुकां पूजयामि नमः ।

डं नं ज्वालिन्यै नमः ज्वालिनीकला श्रीपादुकां पूजयामि नमः ।

चं धं रुच्यै नमः रुचिकला श्रीपादुकां पूजयामि नमः ।

छं दं सुषुम्णायै नमः सुषुम्णाकला श्रीपादुकां पूजयामि नमः ।

जं थं भोगदायै नमः भोगदाकला श्रीपादुकां पूजयामि नमः ।

झं तं विश्वायै नमः विश्वाकला श्रीपादुकां पूजयामि नमः ।

ञं णं बोधिन्यै नमः बोधिनीकला श्रीपादुकां पूजयामि नमः ।

टं ढं धारिण्यै नमः धारिणीकला श्रीपादुकं पूजयामि नमः ।

ठं डं क्षमायै नमः क्षमाकला श्रीपादुकां पूजयामि नमः ।

तत्पश्चात्  अं …. क्षं पर्यन्त स्वरुअव्यञ्जनान्त ५१ मातृकाओं के साथ मूल मन्त्र बोलकर कलश को जल से पूर्ण करे । फिर ‘ॐ सां सीं सूं स्म्ल्व्रुं सं सोममण्डलाय कामप्रदषोडशकलात्मने सौः कलशामृताय नमः’ मन्त्र से कलशोदक का पूजन करे । फिर कलश के जल में अमृता आदि १६ चन्द्र कलाओं का इस प्रकार पूजन करे ।

अं अमृतायै नमः अमृताकला श्रीपादुकां पूजयामि नमः ।

आं मानदायै नमः मानदाकला श्रीपादुकां पूजयामि नमः ।

इं पूषायै नमः पूषाकला श्रीपादुकां पूजयामि नमः ।

ईं तृष्ट्‌यै नमः तुष्टिकला श्रीपादुकां पूजयामि नमः ।

उं पुष्ट्‍यै नमः पुष्टिकला श्रीपादुकां पूजयामि नमः ।

ऋं धृत्यै नमः धृतिकला श्रीपादुकां पूजयामि नमः ।

ऋं शशिन्यै नमः शशिनीकला श्रीपादुकां पूजयामि नमः ।

लृं चन्द्रिकायै नमः चन्द्रिकाकला श्रीपादुकां पूजयामि नमः ।

एं ज्योतस्नायै नमः ज्योत्स्नाकला श्रीपादुकां पूजयामि नमः ।

ओं प्रीत्यै नमः प्रीतिकला श्रीपादुकां पूजयामि नमः ।

औं अङ्गदायै नमः अङ्गदाकला श्रीपादुकां पूजयामि नमः ।

अं पूर्णायै नमः पूणाकर्ला श्रीपादुका पूजयामि नमः ।

अः पूर्णामृतायै नमः पूर्णामृताकला श्रीपादुकां पूजयामि नमः ।

इसके बाद जल मे ‘ह्‌स्क्ष्म्ल्व्रँ आनन्दभैरवाय वौषट्‍’ मन्त्र से तथा ‘श्क्ष्म्ल्व्रुँ सुधादेव्यै नमः’ इस मन्त्र से रेखा बना कर उस पर भैरव तथा सुधा देवी का पूजन करे । तदनन्तर मत्स्य, अस्त्र, कवच, धेनु, सन्निरोध, मुसल, चक्र, महामुद्रा एवं योनिमुरायें देवे को प्रसन्न करने के लिए प्रदर्शित करनी चाहिए ।

कलश स्थापन करते समय उसकी दाहिनी ओर शंख तथा अर्घ्य भी उसी रीति से स्थापित करना चाहिए । किन्तु वहाँ विशेष यह है कि मन्त्र में जहाँ कलश पद आया है वहाँ शंख तथा विशेषार्घ्य पद बोलकर स्थापित करना चाहिए ।

तप्तश्चात्  अर्घ्यपात्र में अकारादि १६ स्वरों से ककारादि १६ एवं थकारादि १६ वर्णों से तीन रेखा बनाकर मध्य में ‘ह क्ष’ वर्ण लिखे । इस प्रकार निर्मित त्रिकोण के मध्य मे – ‘ॐ ह्रीं हं सः सौ हं स्वाहा’ इस ८ अक्षर के मन्त्र से बाला का पूजन करे । फिर तीन बार मूलमन्त्र का जप कर पूर्वोक्त ९ मत्स्यादि मुद्रायें प्रदर्शित करे ।

इस प्रकार पात्रों को विधिवत् स्थापित कर अर्घ्य पात्र से जल लेकर मूल मन्त्र पढकर पूजा सामग्री एवं स्वयं अपने ऊपर जल छिडके । तदनन्तर ११, ५१ में वर्णित देवी के स्वरुप का ध्यान कर निम्नलिखित मन्त्रों से मानसी पूजा सम्पन्न करनी चाहिए –

ॐ लं पृथ्विव्यात्मक्म महादेव्यै गन्धं समर्पयामि नमः अङ्‌गुष्ठकनिष्ठाभ्याम् ।

ॐ हं आकाशात्मक्म महादेव्यै पुष्पाणि समर्पयामि नमः अङ्‌गुष्ठानामिकाभ्याम् ।

ॐ वं वाय्‌वात्मकं महादेव्यै धूपं अघ्रापयामि नमः अङ्‌गुष्ठामध्यमाभ्यम् ।

ॐ रं वह्यात्मकं महादेव्यै दीपं दर्शयामि नमः अङ्‌गुष्ठतर्जनीभ्याम् ।

ॐ वं अमृतात्मकं महादेव्यै नैवेद्य निवेदयामि नमः अङ्‌गुष्ठानाभिकाम्यम् ॥८३-८४॥

मण्डूकं कालवहनीशं तनमूलप्रकृतिं यजेत्‌ ।

आधारशक्ति कू्र्म च शेंषवाराहमेदिनी: ॥ ८५ ॥

सुधाब्धिं रत्नदीपं च स्वर्णाद्रि नन्‍दनं वनम्‌ ।

दृष्ट्वा कल्पतरून्‌ मध्ये विचित्रानन्दभूमिकाम्‌ ॥ ८६॥

श्रीरत्नमन्दिरं रत्नवेदिकां धर्मवारणम्‌ ।

रत्नसिंहासनं तस्य पादान्धर्मादिकान्‌ यजेत्‌ ॥ ८७॥

गात्राणि ताश्च नञ्पूर्वान्पद्मं चानन्दकन्दकम्‌ ।

ज्ञाननालं कर्णिकां च सूर्यसोमाग्निमण्डलम्‌ ॥ ८८ ॥।

तारमात्रात्रयाद्यं तत्स्ववर्णद्यान्गुणान्‌ यजेत्‌ ।

मात्रात्रयाद्यमात्मानमन्तरात्मानमेव च ॥८९ ॥

तृतीयं परमात्मानं ज्ञानात्मानं परादिकम्‌ ।

मायाकलादितत्वानां कथनम्               

मायातत्त्वं कलातत्त्वं विद्यातत्त्वं च पूजयेत्‌ ॥ ९० ॥

परतत्त्वं स्ववर्णाद्यं ब्रह्मविष्णुशिवास्ततः ।

प्रेतां तानीश्वरं तुर्य पञ्चमं च सदाशिवम्‌ ॥ ९१ ॥

अब पीठपूजा का विधान कहते हैं –

मण्डूक, कालाग्निरुद्र, मूलप्रकृति, आधारशक्ति, कर्म, शेष, वराह, मेदिनी सुधाम्बुधि, रत्नद्वीप, मेरु, नन्दवन और कल्पवृक्ष का पीठ पर पूजन करना चाहिए । फिर मध्य में विचित्रानन्द भूमि, श्री रत्नमन्दिर, रत्नवेदिका, छत्र, और सिंहासन का पूजन कर सिंहासन के पादभूत, धर्म (ज्ञान वैराग्य एवं ऐश्वर्यो का तथ अधर्म,अज्ञान, अवैराग्य एवं अनैश्वर्य आदि) का पूजन करना चाहिए । फिर पद्म आनन्दकन्द एवं ज्ञाननाल का कर्णिका में पूजन कर ॐकार के तीनो स्वरों (अं उं मं) के साथ सूर्य, सोम और अग्निमण्डलों का अपनी कलाओं के साथ यजन करना चाहिए । इसी प्रकार अपने नाम के आद्याक्षर से युक्त सत्त्व, रज, और तमोगुण का भी पूजन करे । तदनन्तर पूर्वोक्त तीन स्वरों के साथ आत्मा, अन्तरात्मा एवं परमात्मा का, मायाबीज के साथ ज्ञानात्मा का तथा अपने अपने वर्णो के साथ मायातत्त्व, कलातत्त्व, विद्यातत्त्व, एवं परतत्त्व का पूजन करना चाहिए । फिर अपने अपने नाम के आद्याक्षर को आदि में लगा कर ब्रह्या, विष्णु, रुद्र, ईश्वर और सदाशिव इन ५ (प्रेतों) देवों का पूजन करना चाहिए ॥८५-९१॥

सुधार्णवासनं पश्चाद्यजेत्‌ प्रेताम्बुजासनम्‌ ।

दिव्यासनं चक्रासनं सर्वमन्त्रासनं ततः ॥ ९२॥

साध्यसिद्धासनं प्रार्च्य चक्रराजं प्रपूजयेत्‌ ।

फिर सुधार्णवासन, प्रेताम्बुजासन, दिव्यासन, चक्रासन, सर्वमन्त्रासन और साध्य सिद्धासन का पूजन कर चक्रराज का पूजन करना चाहिए ॥९२-९३॥

पीठशक्तिस्ततः काष्ठास्विच्छाज्ञानं क्रिया तथा ॥ ९३॥

कामिनीकामदायिन्यौ रतिरेवं रतिप्रिया ।

नन्दामनोन्मनी चेति वराभयकरास्तु ता ॥ ९४ ॥

तत आसनमन्त्रेण पूजयेच्चक्रनायकम्‌ ।

उसकी विधि इस प्रकार है – चक्रराज के ८ दिशाओं में तथा मध्य में वरद और अभय मुद्रा धारण करने वाली पीठशक्तियों का पूजन करे । १. इच्छा, २. ज्ञान, ३. क्रिया, ४. कामिनी, ५. कामदायिनी, ६. रति, ७. रतिप्रिया, ८. नन्दा एवं ९. मनोन्मनी – ये नौ पीठशक्तियाँ हैं । इसके बाद आसन मन्त्र से चक्रराज का पूजन करना चाहिए ॥९३-९५॥

पीठमन्त्रोद्धारः

वाक्परायै॑ केशवोऽथ परायै च परापरा ॥ ९५॥

बालीदामोदरारूढस्तार्तीयं च सदाशिव ।

महाप्रेतं पठेत्‌ पद्मासनाय हृदयान्तिक: ॥ ९६ ॥

एकोनत्रिंशदर्णाढ्यों मनुरासनसंज्ञकः ।

एवं पीठं समभ्यर्च्य दद्यात्‌ पुष्पाञ्जलिं ततः ॥ ९७॥

अब चक्रराज मन्त्र का उद्धार कहते हैं —

वाग् (ऐं), फिर ‘परायै’ पद, फिर केशव (अ), फिर ‘अपरायै’ पद, फिर ‘परापरा’ और दामोदरारुढ वाली (यै), फिर तार्तीय बीज ह्सौः , फिर ‘सदाशिवमहाप्रेत’ फिर ‘पद्मासनाय’ पद, उसके अन्त में हृदय (नमः) लगाने से २९ अक्षरों का आसन मन्त्र सम्पन्न होता है ॥९५-९७॥

विमर्श – मन्त्र का स्वरुप  इस प्रकार है – ऐं परायै अपरायि, परापरायै ह्सौः सदाशिवमहाप्रेतपद्मासनाय नमः ।

उपर्युक्त पीठपूजा का सारांश – अर्घ्य पात्र स्थापन के पश्चात्  देवी का विधिवत्  ध्यान कर मानसोपचार से पूजन करे । फिर श्रीचक्रात्मक यन्त्रराज के पीठ – देवताओं एवं पीठशक्तियों का पूजन इस प्रकार करे –

कर्णिका में

ॐ मण्डूकाय नमः,        ॐ कालाग्निरुद्राय नमः,        ॐ मूलप्रकृत्यै नमः,

ॐ आधारशक्त्यै नमः,    ॐ कूर्माय नमः,            ॐ शेषाय नमः,

ॐ वराहाय नमः,        ॐ पृथिव्यै नमः,            ॐ सुधाम्बुधये नमः,

ॐ रत्नद्वीपाय नमः,        ॐ मेरवे नमः,                ॐ नन्दवनाय नमः,

ॐ कल्पवृक्षाय नमः ।

तदन्तर कर्णिका के मध्य में – ॐ विचित्रानन्दभूम्यै नमः,

ॐ श्रीरत्नमन्दिराय नमः,        ॐ रत्नवेदिकायै नमः,

ॐ छत्राय नमः,            ॐ रत्नसिंहासनाय नमः,

फिर पीठ के चारों दिशाओं में पूर्वादिक्रम से –        ॐ धर्माय नमः,

ॐ ज्ञानाय नमः,        ॐ वैराग्याय नमः,        ॐ ऐश्वर्याय नमः,

फिर पीठ के चारों कोणों में – ॐ अधर्माय नमः,

ॐ अज्ञानाय नमः,        ॐ अवैरग्याय नमः,        ॐ अनैश्वर्याय नमः,

पुनः मध्य में – ॐ आनन्दकन्दाय नमः,        ॐ संविन्नालाय नमः,

ॐ सर्वतत्त्वात्मकपद्‌माय नमः,    ॐ प्रकृतिमयपत्रेभ्यो नमः,    ॐ विकारमयकेसरेभ्यो

नमः, ॐ पञ्चाशद्‌बीजाड्यकर्णिकाय नमः का पूजन करना चाहिए ।

पुनः तत्रैव –

ॐ अं द्वादशकलात्मने सूर्यमण्डलाय नमः,

ॐ उं षोडशकलात्मने सोममण्डलाय नमः,

ॐ मं दशकलात्मने वहिनमण्डलाय नमः,

ॐ सं सत्त्वाय नमः,        ॐ रं रजसे नमः,        ॐ तं तमसे नमः,

ॐ अं आत्मने नमः,        ॐ उं अन्तरात्मने नमः,    ॐ मं परमात्मने नमः,

ॐ ह्रीं ज्ञानात्मने नमः,

पुनः तत्रैव – ॐ मां मायातत्त्वाय नमः,        ॐ कं कलातत्त्वाय नमः,

ॐ विं विद्यातत्त्वाय नमः,        ॐ पं परतत्त्वाय नमः,

पुनः वहीं पर – ॐ बं ब्रह्यप्रेताय नमः,        ॐ विं विष्णुप्रेताय नमः,

ॐ रुं रेद्रप्रेताय नमः,        ॐ ईश्वरप्रेताय नमः,        ॐ सं सदाशिवप्रेताय नमः,

पुनः तत्रैव

ॐ सुधार्णवासनाय नमः,    ॐ प्रेताम्बुजासनाय नमः,    ॐ दिव्यासनाय नमः,

ॐ चक्रासनाय नमः        ॐ सर्वमन्त्रासनाय नमः,    ॐ साध्यसिद्धिसनाय नमः,

तदनन्तर चक्रराज का इस प्रकार पूजन करे – प्रथम आठों दिशाओं में तथा मध्य में इच्छादि नौ पीठ शक्तियों का, पूर्वादि दिशाओं के क्रम से, यथा –

ॐ इं इच्छायै नमः,        ॐ ज्ञां ज्ञानायै नमः,        ॐ क्रिं क्रियायै नमः

ॐ कां कामिन्यै नमः,        ॐ कं कामदायिन्यै नमः,    ॐ रं रत्यै नमः

ॐ रं रतिप्रियायै नमः,    ॐ नं नन्दायै नमः

पुनः मध्य में – ॐ मं मनोन्मन्यै नमः ।

तदनन्तर ‘ऐं परायै अपरायै परापरायै ह्सौः सदाशिव महाप्रेत पद्मासनाय नमः’ मन्त्र से चक्रराज की पूजा करनी चाहिए ॥९५-९७॥

इस प्रकार पीठपूजा करने के बाद पुष्पाञ्जलि समर्पित करनी चाहिए ॥९७॥

पुष्पाञ्जलिमन्त्र:

प्रकटान्तं गुप्तगुप्ततरान्ते सम्प्रदाय च ।

कुलान्ते नेत्रयुङ्मेषो गर्भरेति ततः पठेत्‌ ॥ ९८ ॥

हस्यान्तेति रहस्यार्णापरापररहस्य च ।

संज्ञक: श्रीचक्रगतो योगिनीपादुकापदम्‌ ॥ ९९ ॥

भ्योनमोन्तो धराबाणवर्णों मायारमादिकः ।

मन्त्रपुष्पाञ्जलेर्दाने सर्वसिद्धिप्रदायकः ॥ १०० ॥  

पुष्पाञ्जलि के मन्त्र का उद्धार इस प्रकार हैं –

प्रथम प्रकट गुप्ततर के बाद ‘सम्प्रदाय’ कुल के बाद नेत्रयुक्त मेष (नि) फिर ‘गर्भ र’ बोलना चाहिए, फिर ‘हस्य’ ‘अति रहस्य’ परापर रहस्य संज्ञक श्री चक्रगतयोगिनीपादुका’ फिर ‘भ्यो’ ‘नमः’ बोलना चाहिए । प्रारम्भ में माया (ह्रीं) एवं रमा (श्रीं) बीज लगाने से इक्यावन अक्षरों का सर्वसिद्धिदायक पुष्पाञ्जलि देने का मन्त्र बनता है ॥९८-१००॥

विमर्श – मन्त्र का स्वरुप – ‘ह्रीं श्रीं प्रकटगुप्तगुप्ततरसंप्रदायकुलनिगर्भ – रहस्यातिरहस्यपरापररहस्यसंज्ञकश्रीचक्रगतयोगिनीपादुकाभ्यो नमः’ ॥९७-१००॥

मुद्रां त्रिखण्डां कृत्वाथ पुष्पाण्यादाय चाञ्जलौ ।

ध्यात्वा पूर्वोदितां देवीं मूलविद्यां समुच्चरेत्‌ ॥ १०१॥

चैतन्यं हृत्कमलतो नासिकारन्र्धनिर्गतम्‌ ।

ब्रह्मरस्ध्रस्य मार्गेण योजितं कुसुमाञ्जलौ ॥ १०२ ॥

महापद्मवनान्तस्थे कारणानन्दविग्रहे ।

सर्वभूतहिते मातरेह्रोहि परमेश्वारि ॥ १०३ ॥

महः पूजाभचैतन्यसयुक्तकुसुमाञ्ज्जलिम्‌ ।

श्रीचक्रराजे संयोज्य ततः श्लोकद्वयं पठेत्‌ ॥ १०४ ॥

देवेशि भक्तिसुलभे सर्वावरणसंयुते ।

यावत्त्वां पूजयिष्यामि तावत्त्वं सुस्थिरा भव ॥ १०५॥

पुष्पाञ्जलि देने के लिए प्रथम त्रिखण्दा मुद्रा बनावे । फिर अञ्जलि में पुष्प लेकर ११. ५१ में वर्णित देवी के स्वरुप का ध्यान कर उपर्युक्त मूलमन्त्र का उच्चारण कर पुष्पाञ्जलि देनी चाहिए । तदनन्तर हृदयकमल से, नासिका रन्ध्र से निर्गत एवं ब्रह्यरन्ध्र मार्ग से योजित चैतन्य को पुष्पाञ्जलि में लेकर उस चैतन्य तेज को श्रीचक्रराज पर स्थापित कर निम्नलिखित दो श्लोकों से देवी का आवाहन करना चाहिए ।॥१०१-१०५॥

(महापद्मवनान्तस्थे कारणानन्दविग्रहे ।

सर्वभूतहिते मातरेह्रोहि परमेश्वारि ॥ १०३ ॥

देवेशि भक्तिसुलभे सर्वावरणसंयुते ।

यावत्त्वां पूजयिष्यामि तावत्त्वं सुस्थिरा भव ॥ १०५॥)

इदमावाहन प्रोक्तं ततः स्थापनमाचरेत्‌ ।

भैरवीमन्त्रमुच्चार्य श्रीमत्त्रिपुरसुन्दरि ॥ १०६ ॥

चक्रेऽस्मिन्‌ कुरु सान्निध्यं नमोन्त: स्थापने मनु: ।

दर्शयेत्‌ स्थापनीं मुद्रां सन्निधिं सन्निरोधनम्‌ ॥ १०७ ॥

सम्मुखीकरण तत्तन्मुद्राभिर्मन्त्रविच्चरेत्‌ । 

न्यसेत्‌ षडङ्गं देव्यङ्गे सकलीकरणं त्विदम्‌ ॥ १०८ ॥

यह देवी का आवाहन हुआ । फिर उनकी स्थापना करनी चाहिए – यथा प्रथम भैरवी मन्त्र (ह्स्त्रैं ह्रवल्रीं) बोलकर ‘श्रीमत्त्रिपुरसुन्दरि चक्रेस्मिन्‍ कुरु सान्निध्यं नमः’ यह स्थापना का मन्त्र है । इस प्रकार स्थापित कर स्थापनी मुद्रा प्रदर्शित करनी चाहिए । इसके बाद मन्त्रवेत्ता साधक सन्निधि, सन्निरोध एवं संमुखीकरण की मुद्रा प्रदर्शित कर देवी के अङ्गों में षडङ्गन्यस करे । इस प्रकार की प्रक्रिया को ‘सकलीकरण’ कहते हैं ॥१०६ -१०८ ॥

अवगुण्ठामृतीकारपरमीकरणानि च ।

तत्तन्मुद्राभिराराध्य मूलेन त्रि:प्रपूजयेत्‌ ॥ १०९ ॥

तर्पणध्यानादिकथनम्

ततः पाद्यादिकान्सम्यगुपचारान्‌ प्रकल्पयेत्‌ ।

मूलमन्त्रेण पुष्पान्तान्‌ पुनः सन्तर्पयेत्त्रिधा ॥ ११० ॥

पुष्पाञ्जलिं विधायाथ ध्यात्वा देवीं यथाविधि ।

अनुज्ञां प्रार्थयेन्मन्त्री परिवारसमर्चने ॥ १११॥

इसके बाद अवगुण्ठन, अमृतीकरण,परमीकरण की मुद्रा प्रदर्शित कर तीन बार मूल मन्त्र का उच्चारण करते हुए पाद्य आदि उपचारों से पुष्पाञ्जलि लेकर विधिवत्  देवी का ध्यान कर आवरण पूजा के लिए देवी से आज्ञा माँगनी चाहिए ॥१०९-१११॥

विमर्श – संक्षेप में पूजा पद्धति – पीठ पूजा करने के अनन्तर ‘ह्रीं श्रीं प्रगट गुप्ततर संप्रदाय कुल निगर्म रहस्यतिरहस्य परापरहस्य संज्ञक श्री चक्रगत योगिनी पादुकाभ्यो नमः’ मन्त्र से पुष्पाञ्जलि देकर त्रिखण्दामुद्रा बाँधकर पुण पुष्पाञ्जलि लेकर देवी से अपने को अभिन्न समझते हुए ‘बालार्कमण्डलाभासां चतुर्बाहुं त्रिलोचनाम् । पाशाकुशशरांश्चापं धारयन्ती शिवां भजे’ से ध्यान कर स्थापना आदि मुद्रा इस प्रकार प्रदर्शित करनी चाहिए ।

स्थापनामुद्रा – अधोमुखी कृता सैव स्थापनीति निगद्यते ।

सन्निधान –     आश्लिष्ट मुष्टियुगला प्रोन्नताङ्‌गुष्ठयुग्मका ।

सन्निधाने समुदिष्टा मुद्रेयं तन्त्रवेदिभिः ।

सन्निरोध –     अङ्‌गुष्तगभिर्णी सैव सन्निरोधे समीरिता ।

समुखीकरण –    हृदि बद्धाञ्जलिर्मुद्रा सम्मुखीकरणे मताः ।

सकलीकरण – देवाङ्‌गेषु षडङ्गानां न्यासः स्यात्सकलीकृतिः ।

अवगुण्ठनमुद्रा – सव्यहस्तकता मुष्टिः दीर्घाधोमुखतर्जनी ।

अवगुण्ठनमुद्रेययमितो भ्रामिता भवेत्  ।

अमृतीकरण – अन्योन्याभिमुखौ श्लिष्टौ कनिष्ठानामिका पुनः ।

तथा तु तर्जनीमध्या धेनुमुद्रा प्रकीर्त्तिता अमृतीकरणं कुर्यात्तया देशिकसत्तमः ।

परमीकरण – अन्योन्यग्रथितांगुष्ठौ प्रसारितकराङ्‌गुलिः ।

महामुद्रेयमुदिता परमीकरण बुधै ।

अब संक्षेप में तन्त्रान्तर प्रदर्शित पूजापद्धति लिखते हैं – जिसमें

१. आवाहन एवं स्थापन की विधि पूर्व (द्र० ११.१०६-१०७) में कह आये हैं । अब आसनादि का प्रकार कहते हैं-

२. आसन – मूलमन्त्र का उच्चारण कर –

ॐ सर्वान्तर्यामिनि देवि सर्वबीजमयं शुभम् ।

स्वात्मस्थाप्यपरं शुद्धमासनं कल्पयाम्यहम ॥

श्रीमत्त्रिपुरसुन्दरि आसनं गृहाण नमः’ – इस मन्त्र से देवी को आसन समर्पित करना चाहिए ।

३. उपवेशन –  मूलमन्त्र पढ कर –

‘ॐ अस्मिन्वरासने देवि सुखासीनाक्षरात्मिके ।

प्रतिष्ठिता भवेशि त्वं प्रसीद परमेश्वरि ।

श्रीमत्त्रिपुरसुन्दरि भगवति अत्रोपविष्टा भव नमः’ – इस मन्त्र से देवी को आसन पर बैठाना चाहिए ।

४. सन्निधिकरण – मूलमन्त्र का उच्चारण कर –

‘ॐ अनन्यं तव देवेशि यन्त्रं शक्तिरिदं वरे ।

सान्निध्यं कुरु तस्मिस्त्वं भक्तानुग्रहतप्तरे ॥

भगवति श्रीमत्त्रिपुरसुन्दरि इह सन्निधेहि’ – ऐसा पढ कर सन्निधान मुद्रा द्वारा सन्निधिकरण करना चाहिए ।

५. संमुखीकरण – मूलमन्त्र कहकर –

ॐ अज्ञानात्  दुर्मनस्ताद्वा वैकल्यात्  साधनस्य च ।

यदा पूर्णं भवेत्कृत्यं तदप्यभिमुखी भव ॥

श्रीमत्त्रिपुरसुन्दरि इह संमुखीभव’ – इस मन्त्र को पढ कर पूर्वोक्त सम्मुखी मुद्रा द्वारा सम्मुखीकरण करना चाहिए।

६. सन्निरोधन –  मूल मन्त्र को पढ कर –

ॐ आज्ञया तव देवेशि कृपाम्भोधे गुणाम्बुधे ।

आत्मानदैकतृप्तां त्वां निरुणध्मि पितर्गुरौ ।

श्रीमत्त्रिपुरसुन्दरि सन्निरुद्धयस्व मन्त्र से सन्निधानमुद्रा द्वारा देवी का सन्निरोध करना चाहिए ।

कुछ आचार्यों के मत में सन्निधिकरण, सन्निरोधन एवं सम्मुखीकरण की क्रिया मात्र मुद्रा प्रदर्शित कर करनी चाहिए । जैसा कि स्वयं ग्रन्थकार ने पहले कहा है (द्र० ११.१०७)

७. सकलीकरण – देवी के अङ्गो में षडङ्गन्यास कर सकलीकरण करे । यथा –

श्रीं ह्रीं ऐं सौः हृदयाय नमः,        ॐ ह्रीं श्रीं शिरसे स्वाहा,

कएईलह्रीं शिखायै नमः,        हसकहलह्रीं कवचाय हुम्,

सकलह्रीं नेत्रत्रयाय वौषट्,        सौः ऐं क्लीं ह्रीं श्री अस्त्राय फट् ।

८. अवगुण्ठमुद्रा –  मूलमन्त्र पढ कर –

‘ॐ अव्यक्तवाड्‌मन्श्चक्षुः श्रोत्रप्रज्वलितद्युते ।

स्वतेजः पुञ्जकेनाशुवेष्टिता भव सर्वतः ।

श्रीमत्त्रिपुरसुन्दरि हुम्’ – मन्त्र से पूर्वोक्त अवगुण्ठन मुद्रा प्रदर्शित कर अवगुण्ठन करे तथा छोटिका मुद्रा द्वारा दिग्बन्धन करे ।

९. अमृतीकरण आदि –  धेनुमुद्रा से अमृतीकरण, महामुद्रा से परमीकरण करने के बाद मूलमन्त्र से तीन बार देवी का पूजनकर इस प्रकार स्वागत करना चाहिए ।

यस्याः दर्शनमिच्छन्ति देवाः स्वाभीष्टसिद्धये ।

तस्मै ते परमीशायै स्वागतं स्वागतं च ते ।

कृतार्थोऽनुगृहीतोऽस्मि सकलं जीवितं मम ।

आगता देवि देवेशि सुस्वागतमिदं पुनः ॥

१०. पाद्य – जल में श्यामाक, विष्णुकान्ता, कमल और दूर्वा डाल कर मूल मन्त्र से ‘एतत्पाद्यं’ श्रीमत्त्रिसुद्नर्यै नमः’ इस मन्त्र से पाद्य देना चाहिए ।

११. अर्घ्य –  अर्घ्य पात्र में दूर्वा, तिल, दर्भाग्र, सरसों, जौ, पुष्प, गन्ध एवं अक्षत लेकर ‘इदमर्घ्यं श्रीमत्त्रिपुरसुन्दर्यै स्वाहा’ – मन्त्र से अर्घ्य प्रदान करना चाहिए ।

१२. आचमन – आचमन के जल में लौंग, जालफल एवं कंकोल चाहिए ।

‘मूलमिदमाचमनीयं स्वधा’ – यह मन्त्र पढ कर आचमन करना चाहिए ।

१३, स्नान – स्नानीय, जल में चन्दन, अगर एव्म सुगन्धित द्रव्य डाल कर ‘मूलं स्नानीयं जलं निवेदयामि’, मन्त्र से स्नान कराना चाहिए । फिर पञ्चामृत शुद्धोदक एवं गन्धोदक से स्नान करा कर सर्वांग स्नान कराना चाहिए । तदनन्तर जल द्वारा अभिषेक करना चाहिए ।

१४. वस्त्राभूषण –  इसके बाद पुनः आचमन करा कर देवी को वस्त्र और उत्तरीय समर्पित करना चाहिए । तदनन्तर पुनः आचमन करा कर अलंकरादि समर्पित करना चाहिए ।

१५. गन्ध – ‘मूलं एवं गन्धे नमः’ – इस मन्त्र से गन्धमुद्रा (कनिष्ठाङ्‌गुष्ठ योगेन गन्धमुद्रां प्रदर्शयेत् ) द्वारा सुगान्धित इत्र चन्दनादि द्रव्य लगाना चाहिए ।

इसके बाद नाना प्रकार के परिमल सौभाग्य द्रव्य समर्पित कर अक्षत चढाना चाहिए ।

१६. पुष्प – ‘मूलमेतानि पुष्पाणि वौषट्‍’ यह मन्त्र पढ कर पुष्पमुद्रा (अङ्‍गुष्ठा-नामिकाभ्यां पुष्पमुद्र्फ़ा प्रकीर्त्तता) द्वारा ऋतुकालोद्‌भव पुष्प समर्पित करना चाहिए ।

इसके बाद तीन पुष्पाञ्जलियाँ समर्पित कर विधिवद्‌देवी का ध्यान कर परिवार के पूजनार्थ उनसे आज्ञा माँगनी चाहिए ।

॥ इति श्रीमन्महीधरविरचिते मन्त्रमहोदधौ श्रीविद्याकथनं नाम एकादशस्तरङ्ग: ॥ ११ ॥

इस प्रकार श्रीमन्महीधर विरचित मन्त्रमहोदधि के एकादश तरङ्ग की महाकवि पं० रामकुबेर मालवीय के द्वितीय आत्मज डॉ सुधाकर मालवीय कृत ‘अरित्र’ हिन्दी व्याख्या पूर्ण हुई ॥११ ॥

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