मन्त्रमहोदधि तरङ्ग ९ || Mantra Mahodadhi Taranga 9

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मन्त्रमहोदधि तरङ्ग ९ नवम तरङ्ग में अन्नपूर्णा, उनके भेद त्रैलोक्यमोहन गौरी एवं ज्येष्ठालक्ष्मी तथा उनके साथ ही प्रत्यंगिरा के भी मन्त्रों का निर्देश किया गया है।

मन्त्रमहोदधि नवम तरङ्ग

मन्त्रमहोदधिः नवमः तरङ्गः

मन्त्रमहोदधि तरङ्ग ९

अथ नवम तरङ्ग

अन्नपूर्णेश्वरीमन्त्रं वक्ष्येऽभीष्टप्रदायकम् ‍ ।

कुबेरो यामुपास्याशु लब्धवान्निधिनाथताम् ‍ ॥१॥

शम्भोः सख्य्म दिगीशत्वं कैलासाधीशतामपि ।

अब अभीष्ट फल देने वाले अन्नपूर्णेश्वरी के मन्त्रों को कहता हूँ, जिनकी उपासना से कुबेर ने निधिपतित्व, सदाशिव से मित्रता, दिगीशत्त्व एवं कैलाशाधिपतित्त्व प्राप्त ॥१-२॥

अन्नपूर्णेश्वरी मन्त्रः

वेदादिर्गिरिजापद्मातमन्मथो हृदयं भग ॥२॥

वतिमाहेश्वरि प्रान्तेऽन्नपूर्णे दहनाङ्गना ।

अब भगवती अन्नपूर्णेश्वरी का मन्त्रोद्धार कहते हैं –

वेदादि (ॐ), गिरिजा (ह्रीं), पद्‌मा (श्रीं), मन्मथ (क्लीं), हृदय (नमः), तदनन्तर ‘भगवति माहेश्वरि अन्नपूर्णे’ पद, फिर अन्त में दहनाङ्गना (स्वाहा), लगाने से बीस अक्षरों का अन्नपूर्णा मन्त्र बनता है ॥२-३॥

प्रोक्ताविंशतिवर्णेयं विद्या स्याद् ‍ द्रुहिणो मुनिः ॥३॥

कृतिश्छन्दोऽन्नपूर्णेशी देवता परिकीर्तिता ।

षड्‌दीर्घाढ्येन हृल्लेखाबीजेन स्यात्षड्ङ्गकम् ‍ ॥४॥

इस मन्त्र से द्रुहिण (ब्रह्मा) ऋषि हैं, कृति छन्द हैं तथा अन्नपूर्णेशी देवता कही गई हैं । षड्‌दीर्घ सहित हृल्लेखा बीज से षडङ्गन्यास करना चाहिए ॥३-४॥

विमर्श – मन्त्र का स्वरुप इस प्रकार है – ‘ॐ श्रीं क्लीं भगवति माहेश्वरि अन्नपूर्ण स्वाहा’ ।

विनियोग – ‘अस्य श्रीअन्नपूर्णामन्त्रस्य द्रुहिणऋषिः कृतिश्छन्दः अन्नपूर्णेशी देवता ममाभीष्टसिद्धयर्थे जपे विनियोगः ’।

षडङ्गन्यास – ह्रां हृदाय नमः,        ह्रीं शिरसे स्वाहा,        हूँ शिखायै वषट्,

ह्रैं कवचाय हुं,        ह्रौं नेत्रत्रयाय वौषट्,        ह्रः अस्त्राय फट् ॥३-४॥

मुखनासाक्षिकर्णान्धुगुदेषु नवसु न्यसेत् ‍ ।

पदानि नवतद्वर्णसंख्येदानीमुदीर्यते ॥५॥

भूमिचन्द्रधरैकाक्षिवेदाब्धियुगबाहुभिः ।

पदसंख्यामितैर्वर्णैस्ततो ध्यायेत् ‍ सुरेश्वरीम् ‍ ॥६॥

मुख दोनों नासिका, दोनों नेत्र, दोनों कान, अन्धु (लिङ्ग) और गुदा में मन्त्र के १, १, १, १, २, ४, ४, ४ एवं २ वर्णो से नवपदन्यास कर सुरेश्वरी का ध्यान करना चाहिए ॥५-६॥

विमर्श – नव पदन्यास विधि – ॐ नमः मुखे,    ह्रीं नमः दक्षनासायाम,

श्रीं नमः वामनासायाम्,        क्लीं नमः दक्षिणनेत्र, नमः, नमः वामनेत्रे,

भगवति नमः दक्षकर्णे, माहेश्वरि नमः वामकर्णे, अन्नपूर्णे नमः अन्धौ (लिङ्गे),

स्वाहा नमः मूलाधारे ॥५-६॥

ध्यानवर्णनम् ‍

तप्तस्वर्णनिभा शशाङ्गमुकुटा रत्नप्रभाभासुरा नानावस्त्रविराजिता त्रिनयना भूमीरमाभ्यां युता ।

दर्वीहाट्कभाजनं च दधती रम्याच्च पीनस्तनी नृत्यन्तं शिवमाकलय्य मुदिता ध्येयान्नपूर्णेश्वरी ॥७॥

अब अन्नपूर्णा भगवती का ध्यान कहते हैं – तपाये गये सोने के समान कान्तिवाली, शिर पर चन्दकला युक्त मुकुट धारण किये हुये, रत्नों की प्रभा से देदीप्यमान, नाना वस्त्रोम स अलंकृत, तीन नेत्रों वाली, भूमि और रमा से युक्त, दोनों हाथ में दवी एवं स्वर्णपात्र लिए हुये, रमणीय एवं समुन्नत स्तनमण्डल से विराजित तथा नृत्य करते हुये सदाशिव को देख कर प्रसंन्न रहने वाली अन्नपूर्णेश्वरी का ध्यान करना चाहिए ॥७॥

विमर्श – मेरुतत्र के अनुसार भगवती अन्नपूर्णा का ध्यान इस प्रकार है –

तप्तकाञ्चनसंकाशां बालेन्दुकृतशेखराम्‍ ।

नवरत्नप्रभादीप्त मुकुटां कुङ्‌कुमारुणाम्‍ ॥

चित्रवस्त्रपरीधानां मीनाक्षीं कलशस्तनीम्‍ ।

सानन्दमुखलोलाक्षीं मेखलाढ्यनितम्बिनीम्‍ ।

अन्नदानरतां नित्यां भूमिश्रीभ्यां नमस्कृतात्‍ ॥

दुग्धान्नभरितं पात्रं सरत्नं वामहस्तके ।

दक्षिणे तु करं देव्या दर्वी ध्यायेत्‍ सुवर्णजाम्‍ ॥

‘तपाए हुए सुवर्ण के समान कान्ति वाली, मुकुट में बालचन्द्र धारण किए हुए, नवीन रत्न की प्रभा से प्रदीप्त मुकुट किए हुए, कुड्‌कुम सी लाली युक्त, चित्र-विचित्र वस्त्र पहने हुए, मीनाक्षी एवं कलश के समान स्तनों वालीम नृत्य करते हुए ईश को देखकर आनन्दित परा भगवती अन्नपूर्णा का ध्यान करना चाहिए ।

आनन्द युक्त मुख वाली एवं चञ्चल नेत्रों वाली, नितम्ब पर मेखाला बाँध हुए, अन्न दान में तल्लीन भूमि एवं लक्ष्मी दोनों से नित्य नमस्कृत देवी अन्नपूर्ण का ध्यान करना चाहिए ।

दुग्ध एवं अन्न से परिपूर्ण पात्र और रत्न से युक्त पात्रों को वाम हाथों में धारण करने वाली और दाहिने हाथ में सूप लिए हुए सुवर्ण के समान प्रभा वाली देवी का ध्यान करना चाहिए ॥७॥

जपहोमपूजादिकथनम् ‍

लक्षं जपोऽयुतं होमश्चरुणा घृतसंयुतः ।

जयादिनवशक्त्याढ्ये पीठे पूजा समीरिता ॥८॥

पुरश्चरण –  अन्नपूर्णा मन्त्र का एक लाख जप करना चाहिए तथा घृत मिश्रित चरु से दश हजार आहुतियाँ देनी चाहिए । जयादि नव शक्तियों से युक्त पीठ पर इनकी पूजा करनी चाहिए ॥८॥

त्रिकोण – वेदपत्राष्टपत्र – षोडशपत्रके ।

भूपृरेण युते यन्त्रे प्रदद्यान्माययासनम् ‍ ॥९॥

पूजा यन्त्र –  त्रिकोण – चतुर्दल, अष्टदल, षोडशदल एवं भूपुर सहित निर्मित्त यन्त्र पर मायाबीज से आसन देवी को देना चाहिए ॥९॥

विमर्श – पीठ पूजा – प्रथमतः ९. ७ में वर्णित देवे के स्वरुप का ध्यान करे और फिर मानसोपचारों से उनका पूजन करे तथा शंख का अर्घ्यपात्र स्थापित करे । फिर ‘आधारशक्तये नमः’ से ‘ह्रीं’ ज्ञानात्मने नमः’ पर्यन्त मन्त्रों के पीठ देवताओं का पूजन कर पीठ के पूर्वादि दिशाओं एवं मध्य में जयादि ९ शक्तियों का इस प्रकार पूजन करे –

ॐ जयायै नमः,        ॐ विजयायै नमः,        ॐ अजित्ययै नमः,

ॐ अपराजितायै नमः,        ॐ विलासिन्यै नमः,        ॐ दोर्मध्ये नमः,

ॐ अघोरायै नमः,        ॐ मङ्गलायै नमः,        ॐ नित्यायै नमः, मध्ये,

इसके पश्चात् मूल से मूर्ति कल्पित कर ‘ह्री सर्वशक्तिकमलासनाय नमः’ से देवी को आसन देकर विधिवत् आवाहन एवं पूजन कर पुष्पाञ्जलि प्रदार करे, फिर अनुज्ञा ले आवरण पूजा करे ॥९॥

अगन्यादिकोणत्रितये शिववाराहमाधवान् ‍ ।

सर्वप्रथम त्रिकोण में आग्नेयकोण से प्रारम्भ कर तीनों कोणों में शिव, वाराह और माधव की अपने अपने मन्त्रों से पूजा करे । अब उन मन्त्रों को कहता हूँ ॥१०॥

अर्चयेत् ‍ स्वस्वमन्त्रैस्तु प्रोच्यन्ते मनवस्तु ते ॥१०॥

शिववाराहमाधवमन्त्रकथनम् ‍

प्रणवो मनुचन्द्राढ्यं गगनं हृदयं शिवा ।

मारुतः शिवमन्त्रोऽयं सप्तार्णः शिवपूजने ॥११॥

अब शिव मन्त्र कहता हूँ –

प्रणव (ॐ), मनुचन्द्राढ्य गगन (हौं), हृद‌ (नमः), फिर ‘शिवा’ इदके बाद मारुत(य), लगाने से सात अक्षरों का शिव मन्त्र निष्पन्न होता है ॥१०-११॥

विमर्श – मन्त्र का स्वरुप  इस प्रकार हैं – ‘ॐ हौं नमः शिवाय’ ॥१०-११॥

तारं नमो भगवते वराहार्घीशयुग्वसुः ।

पायभूर्भुवरन्तेस्वोथ शूरः कामिका च ये ॥१२॥

भूपतित्वं च मे देहि ददापय शुचिप्रिया ।

त्रयस्त्रिंशद्वर्णमन्त्रः प्रोक्तो वाराहपूजने ॥१३॥

अब वराह मन्त्र कहते हैं – तार (ॐ) , फिर ‘नमो भगवते वराह’ पद, फिर अर्घीशयुग्वसु (रु), फिर ‘पाय भृर्भूवः स्वः’ फिर शूर (प), कामिका (त), फिर ‘ये मे भूपतित्वं देहि ददापय’ पद, इसके अन्त में शुचिप्रिया (स्वाहा) लगाने से तैंतीस अक्षरों का वराह मन्त्र निष्पन्न होता है ॥१२-१३॥

विमर्श – मन्त्र का स्वरुप इस प्रकार है – ‘ॐ नमो भगवते वराहरुपाय भूर्भुवः स्वःपतये भूपतित्त्वं में देहि ददापय’ स्वाहा’ (३३)॥१२-१३॥

प्रणवो हृदयं नारयणाय वसुवर्णकः ।

नारायणार्चने मन्त्रः षडङ्गानि ततोऽर्चयेत् ‍ ॥१४॥

अब नारायणार्चन मन्त्र कहते हैं – प्रणव (ॐ), हृदय (नमः), फिर ‘नारायणाय’ पद्‍ लगाने से आठ अक्षरों का नारायण मन्त्र निष्पन्न होता है । तीनों देवों के पूजन के बाद षडङ्गपूजा करनी चाहिए ॥१४॥

विमर्श – मन्त्र का स्वरुप इस प्रकार है – ‘ॐ नमो नारायणाय’ (९) ॥१४॥

धरां वामे स्वमनुना दक्षभागे श्रियं तथा ।

अन्नं मह्यन्नमित्युक्त्वा मेदेह्यन्नधिपार्णका ॥१५॥

तये ममान्नं प्रार्णान्ते दापयानलसुन्दरी ।

द्वाविंशत्यक्षरो मन्त्रो भूमिष्टौ भूमिसम्पुटः ॥१६॥

श्रीबीजभूबीजादिकथनं मन्त्रफलकथनं च

लक्ष्मीपुटस्तत्पूजायां स्मृतिर्लमनुचन्द्रयुक् ‍ ।

भुवोबीजंवहिनशान्तिबिन्दुयुक्तो बकः श्रियः ॥१७॥

इसके बाद वाम भाग में धरा (भूमि) तथा दाहिने भाग में महालक्ष्मी का अपने अपने मन्त्रों से पूजन करचा चाहिए । ‘अन्नं मह्यन्नं’ के बाद, ‘मे देहि अन्नाधिप’, इसके बाद ‘तये ममान्नं प्र’, फिर ‘दापय’ इसके बाद अनलसुन्दरी (स्वाहा) लगाकर बाईस अक्षरों के इस (औं) से युक्त करने पर ग्लौं यह भूमि का बीज है ॥१५-१७॥

विमर्श – भूमि पूजन हेतु मन्त्र का स्वरुप – ‘ग्लौ अन्नं मह्यन्नं मे देह्यन्नधिपतये ममान्नं प्रदापय स्वाहा ग्लौं (२२)

लक्ष्मी पूजन में उक्त मन्त्र को लक्ष्मी बीज से संपुटित करना चाहिए ॥१७॥

‘वहिन (र), शान्ति (ई), बिन्दु सहित वक (श) इस प्रकार श्रीं यह श्री बीज बनता है ॥१७॥

श्रीबीज संपुटित श्रीपूजन मन्त्र का स्वरुप इस प्रकार है – ‘श्रीं अन्नं मह्यन्नं मे देह्यनाधिपतये ममान्नं प्रदापय स्वाह श्रीं ॥१७॥

मन्त्रीदिस्थचतुर्बीजपूर्विकाः परिपूजयेत् ‍ ।

शक्तिश्चतस्त्रो वेदास्रेपरा च भुवनेश्वरी ॥१८॥

कमलासुभगाचेति ब्राह्मयाद्या अष्टपत्रगाः ।

षोडशारेऽमृता चैव मानदातुष्टिपुष्टयः ॥१९॥

प्रीतीरतिह्रीः श्रीश्चापि स्वधास्वाहादशम्यथ ।

ज्योत्स्नाहैमवतीछाया पूर्णिमाः सहनित्यया ॥२०॥

अमावास्येति सम्पूज्या मन्त्रशेषार्णपूर्विकाः ।

भूपूरे लोकपालाः स्युस्तदस्त्राणि तदग्रतः ॥२१॥

आद्य वेदास्र (चतुरस्र) चतुर्दल में आदि के चार बीज लगाकर कर चार शक्तियों का पूजन करना चाहिए । १. परा, २. भुवनेश्वरी, ३. कमला एवं ४. सुभगा ये चार शक्तियों हैं । अष्टदल में ब्राह्यी आदि अष्टमातृकाओं का पूजन करना चाहिए । तदनन्तर षोडशदल में मूल मन्त्र के शेष वर्णो को आदि में लगाकर १. अमृता, २. मानदा, ३. तुष्टि, ४. पुष्टि, ५. प्रीति, ६. रति, ७. ह्रीं (लज्जा), ८. श्री, ९. स्वधा, १०. स्वाहा, ११. ज्योत्स्ना, १२. हैमवती, १३. छाया, पूर्णिमा १४. पूर्णिमा, १५. नित्या एवं १६. अमावस्या का ‘अन्नपूर्णायै नमः’ लगा कर पूजन करना चाहिए । तदनन्तर भूपुर के भीतर लोकपालों की तथा उसके बाहर उनके अस्त्रों की पूजा करनी चाहिए ॥१८-२१॥

विमर्श – आवरण पूजा विधि

प्रथमावरण में त्रिकोणाकर कर्णिका में आग्नेय कोण से ईशान कोण तक शिव, वाराह एवं नारायण की पूजा यथा – ॐ नमः शिवाय, आग्नेये, ॐ नमो भगवते वराहरुपाय भूर्भुवःस्वःपतये भूपतित्त्वं मेम देहि ददापय स्वाहा (अग्रे) पुनः ॐ नमो नारायणाय,ईशाने ।

द्वितीयावरण में केसरों में षडङ्गपूजा इस प्रकार करनी चाहिए –

ॐ ह्रां हृदयाय नमः,        ॐ ह्रीं शिरसे स्वाहा,        ॐ ह्रूँ शिखायै वषट्,

ॐ ह्रैं कवचाय नमः,        ॐ ह्रौं नेत्रत्रयाय वौषट्,    ॐ ह्रः अस्त्राय फट्

फिर ऊपर कहे गये भूमिबीज संपुटित मन्त्र से देवी के वाम भाग में भूमि का, मध्य में शुद्ध अन्नपूर्णा से अन्नपूर्णा का तथा उपर्युक्त श्रीबीजसंपुटित मन्त्र से महाश्री का दक्षिण भाग में पूजन चाहिए । यथा – ग्लौं अन्नं मह्यन्नं देह्यन्नाधिपतये ममान्नं प्रदापय स्वाहा ग्लौं भूम्यै नमः । वामभागे – यथा – ‘श्रीं अन्नं मह्यन्नं मे देह्यन्नधिपतये ममान्न प्रदापय स्वाहा श्रीं श्रियै नमः’ से श्री का । फिर मध्य में अन्नपूर्णा का यथा – ‘अन्न मह्यन्नं मेम देह्यन्नाधिपतये ममान्नं प्रदापय स्वाहा अन्नपूर्णायै नमः ।

तृतीयावरण में पूर्व से आरम्भ कर उत्तर पर्यन्त चारों दिशाओं में परा आदि चार शक्तियों का पूजन करना चाहिए । यथा –

ॐ ऐं परायै नमः, पूर्वे,        ॐ ह्रीं भुवनेश्वर्यै नमः दक्षिणे,

ॐ श्रीं कमलायै नमः पश्चिमे,    ॐ क्लीं सुभगायै नमः उत्तरे ।

चतुर्थावरण में अष्टदल पर पूर्वादि अष्ट दिशाओं में ब्राह्यी आदि अष्टमातृकाओं का पूजन करनी चाहिए । यथा –

ॐ ब्राह्ययै नमः,        ॐ माहेश्वर्यै नमः,        ॐ कौमार्यै नमः,

ॐ वैष्णव्यै नमः,        ॐ वाराह्यै नमः,        ॐ इन्द्राण्यै नमः,

ॐ चामुण्डायै नमः,        ॐ महालक्ष्म्यै नमः,

पञ्चमावरण में षोडशदलों में प्रदक्षिण क्रम से अमृता आदि सोलह शक्तियों का पूजन करना चाहिए । यथा –

ॐ नं अमृतायै अन्नपूर्णायै नमः        ॐ श्वं स्वधायै अन्नपूर्णायै नमः

ॐ मों मानदायै अन्नपूर्णायै नमः        ॐ रिं स्वाहायै अन्नपूर्णायै नमः

ॐ भं तुष्ट्‌यै अन्नपूर्णायै नमः            ॐ अं ज्योत्स्नायै अन्नपूर्णायै नमः

ॐ गं पुष्ट्‌यै अन्नपूर्णायै नमः            ॐ न्नं हैमवत्यै अन्नपूर्णायै नमः

ॐ वं प्रीत्यै अन्नपूर्णायै नमः            ॐ पूं छायायै अन्नपूर्णायै नमः

ॐ तिं रत्यै अन्नपूर्णायै नमः            ॐ र्णें पूर्णिमायै अन्नपूर्णायै नमः

ॐ मां हियै अन्नपूर्णायै नमः            ॐ स्वां नित्यायै अन्नपूर्णायै नमः

ॐ हें श्रियै अन्नपूर्णायै नमः            ॐ हां अमावस्यायै अन्नपूर्णायै नमः

षष्ठावरण में भूपुर के भीतर अपने अपने दिशाओं में इन्द्रादि दश दिक्पालों का पूजन करना चाहिए – ॐ इन्द्राय नमः पूर्वे, ॐ अग्नये नमः आग्नेये, ॐ यमाय नमः दक्षिणे, ॐ निऋत्ये नमः, नैऋत्ये, ॐ वरुणाय नमः पश्चिमे, ॐ वायवे नमः वायव्ये, ॐ सोमाय नमः उत्तरे, ॐ ईशानाय नमः ऐशान्ये, ॐ ब्रह्यणे नमः पूर्वेशानयोर्मध्ये, ॐ अनन्ताय नमः पश्चिमनैऋत्ययोर्मध्ये ।

सप्तमावरण में भूपुर के बाहर पूर्वादि दिशाओं में वज्रादि आयुधों की पूजा करे

ॐ वज्राय नमः पूर्वे,        ॐ शक्तये नमः आग्नेये,        ॐ दण्डाय नमः दक्षिणे,.

ॐ खडगाय नमः नैऋत्ये,    ॐ पाशाय नमः पश्चिमे,        ॐ अकुंशाय नमः वायव्ये,

ॐ गदायै नमः उत्तरे,        ॐ त्रिशूलाय नमः ऐशान्ये,        ॐ पद‍माय नमः पूर्वेशानयोर्मध्ये

ॐ चक्राय नमः पश्चिमनैऋत्ययोर्मध्ये ।

इस प्रकार यथोपलब्ध उपचारों से आवरण पूजा करने के पश्चात् जप प्रारम्भ करना चाहिए ॥१९-२१॥

इत्थं जपादिभिः सिद्धे मन्त्रेऽस्मिन् ‍ धनसञ्चयैः ।

कुबेरसदृशो मन्त्री जायते जनवन्दितः ॥२२॥

इस प्रकार जपादि से मन्त्र सिद्धि हो जाने पर साधक धन संचय में कुबेर के समान धनी होकर लोकवन्दित हो जाता है ॥२२॥

माहेश्वर्यन्नपूर्णामन्त्रः

अयं रमाकामबीजहितोऽष्टादशाक्षरः ।

द्विनेत्रवेदवेदाब्धिनेत्रार्णैरङ्गमीरितम् ‍ ॥२३॥

अब अन्नपूर्णा का अन्य मन्त्र कहते हैं – रमा (श्रीं) और कामबीज (क्लीं) से रहित पूर्वोक्त मन्त्र अष्टादश अक्षरों का होकर अन्य मन्त्र बन जाता है । इस मन्त्र के दो, दो, चार, चार, एवं दो अक्षरों से षडङ्गन्यास की विधि कही गई है ॥२३॥

विमर्श – मन्त्र का स्वरुप इस प्रकार है – ‘ॐ ह्रीं नमः भगवति माहेश्वरि अन्नपूर्णे स्वाहा’ (१९) । इसका विनियोग एवं ध्यान पूर्वमन्त्र के समान है ।

षडङ्गन्यास इस प्रकार है – ॐ ह्रीं हृदयाय नमः, ॐ नमः शिरसे स्वाहा, ॐ भगवति शिखायै वषट्, ॐ माहेश्वरि कवचाय हुम, ॐ अन्नपूर्णे नेत्रत्रयाय वौषट्, ॐ स्वाहा अस्त्राय फट् ।

शारदातिलक  १०. १०९-११० में मन्त्र और ध्यान इस प्रकार हैं –

माया हृद्‌भगवत्यन्ते माहेश्वरिपदं ततः ।

अन्नपूर्ण ठयुगलं मनुः सप्तदशाक्षरः ॥

अङ्‌गानि मायया कुर्यात् ततो देवीं विचिन्तयेत् ।

मन्नप्रदननिरतां स्तनभारनम्राम् ।

नृत्यन्तमिन्दुशकलाभरणं विलोक्य

हृष्टां भजे भगवतीं भवदुःखहर्त्रीम् ॥ 

मन्त्र –  माया (ह्रीं), हृत् (नमः), तदनन्तर ‘भगवति माहेश्वरि अन्नपूर्णे, तीन पद, तदनन्तर दो ठकार (स्वाहा) लिखे । इस प्रकार १७ अक्षरों का अन्नपूर्णा मन्त्र का उद्धार कहा गया । इसका स्वरुप – ‘ह्रीं नमः भगवति माहेश्वरि अन्नपूर्णे स्वाहा’ हुआ ॥

ध्यान – जिनका शरीर रक्तवर्ण है, जिन्होने नाना प्रकार क चित्र विचित्र वस्त्र धारण किए हैं, जिनके शिखा में नवीन चन्द्रमा विराजमान है, जो निरन्तर त्रैलोक्यवासियों को अन्न प्रदान करने में निरत हैं – स्तमभार से विनम्र भगवान् सदाशिव को अपने सामने नाचते देख कर प्रसन्न रहने वाली संसार के समस्त पाप तापों को दूर करने वाली भगवती अन्नपूर्णा का इस प्रकार करना चाहिए ॥२३॥

अपरो मन्त्रः

पूर्वोक्तमन्त्रे मन्वर्णान्ममाभिमतमुच्चरेत् ‍ ।

अन्नं देहि युगं चापि भवेदेगुणार्णवान् ‍ ॥२४॥

युगाङ्गवेदसप्ताब्धिषडर्णैरङ्गकल्पनम् ‍ ।

अन्नपूर्णा देवी का अन्य मन्त्र –  पूर्वोक्त विंशत्यक्षर मन्त्र में चौदह अक्षर के बाद ‘ ‘ममाभिमतमन्नं देहि देहि अन्नपूर्णे स्वाहा’ यह सत्रह अक्षर मिला देने से कुल इकत्तीस अक्षरों का एक अन्य अन्नपूर्णा मन्त्र बन जाता है । इस मन्त्र के ४, ६, ४, ७, ४, एवं ६ अक्षरों से षडङ्गन्यास करना चाहिए ॥२४-२५॥

विमर्श – मन्त्र का स्वरुप  इस प्रकार है – ‘ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं नमः भगवति माहेश्वरि ममाभिमतमन्नं देहि देहि अन्नपूर्णे स्वाहा’ ॥३१)।

इसका विनियोग एवं ध्यान पूर्ववत् समझना चाहिए ।

षडङन्यास – ॐ ॐ ह्रीं श्री क्लीं हृदयाय नम्ह, ॐ नमो भगवति शिरसे स्वाहा, ॐ माहेश्वरि शिखायै वषट, ॐ ममाभिमतमन्नं कवचाय हुं, ॐ देहि देहि नेत्रत्रयाय वौषट्, ॐ अन्नपूर्णे स्वाहा अस्त्रायु फट् ॥२४-२५॥

प्रसन्नपारिजातेश्वर्यन्नपूर्णामन्त्रः

प्रणवः कमलाशक्तिर्नमो भगवतीति च ॥२५॥

प्रसन्नपारिजातेश्वर्यन्नपूर्णेऽनलाङ्गना ।

चतुर्विंशतिवर्णात्मा मन्त्रः सर्वेष्टसाधकः ॥२६॥

रामाक्षिवेदानिधिभिर्वेदद्वयर्णैः षडङ्गकम् ‍ ।

अन्नपूर्णा देवी का अन्य मन्त्र –  प्रणव (ॐ), कमला (श्रीं), शक्ति (ह्रीं), फिर ‘नमो भगवति प्रसन्नपरिजातेश्वरि अन्नपूर्णे, फिर अनलाङ्गना (स्वाहा) लगाने से अभीष्ट साधक चौबीस अक्षरों का अन्नपूर्णा मन्त्र बनता हैं – इस मन्त्र के ३, २, ४, ९, ४ एवं २ अक्षरों से षडङ्गन्यास करना चाहिए ॥२५-२७॥

विमर्श – मन्त्र का स्वरुप इस प्रकार है – ‘ॐ श्रीं ह्रीं नमो भगवति प्रसन्नपारिजातेश्वरि अन्नपूर्णे स्वाहा’ ।

षडङ्गन्यास – ॐ श्रीं ह्रीं हृदयाय नमः,    ॐ नमः शिरसे स्वाहा,

ॐ भगवति शिखायै वषट्,        ॐ प्रसन्नपारिजातेश्वरि कवचाय हुम्,

ॐ अन्नपूर्णे नेत्रत्रयाय वौषट्,        ॐ स्वाहा अस्त्राय फट्

प्रसन्नवरदान्नपूर्णामन्त्रः

तारश्रीशक्तिहृदयं भगाम्भः कामिकासदृक् ‍ ॥२७॥

माहेश्वरीप्रसन्नेति वरदेपदमुच्चरेत् ‍ ।

अन्नपूर्णेग्निपत्नीति पञ्चविंशतिवर्णवान् ‍ ॥२८॥

अन्य मन्त्र –  तार (ॐ) श्री (श्रीं) शक्ति (ह्रीं), हृदय (नमः), फिर ‘भग’, फिर अम्भ (ब), फिर सदृक् कामिका (ति), फिर ‘महेश्वरि प्रसन्नवरदे’ तदनन्तर ‘अन्नपूर्णे’ इसके अन्त में अग्निपत्नी (स्वाहा) लगाने से पच्चिस अक्षरों का अन्नपूर्णा मन्त्र निष्पन्न होता है ॥२७-२८॥

रामषङ्‌युगषड्‌वेदनेत्रार्णैः स्यात् ‍ षडङ्गकम् ‍ ।

एषां चतुर्णां मन्त्राणामन्यत्सर्वं तु पूर्ववत् ‍ ॥२९॥

मन्त्र के राग षट्‌युग षड्‌ वेद, नेत्र ३, ६, ४, ६, ४, एवं २ अक्षरों से षडङ्गन्यास करना चाहिए । उपर्युक्त चार मन्त्रों का विनियोग और ध्यान आदि समस्त कृत्य पूर्ववत् हैं ॥२९॥

विमर्श – मन्त्र का स्वरुप  इस प्रकार है – ‘ॐ श्री ह्रीं नमो भगवति माहेश्वरि प्रसन्नवरदे अन्नपूर्णे स्वाहा’ ।

षडङ्गन्यास – ॐ ॐ श्रीं ह्रीं हृदयाय नमः,        ॐ नमो भगवति शिरसे स्वाहा

ॐ महेश्वरि शिखायै वषट्,        ॐ प्रसन्न वरदे कवचाय हुम्

ॐ अन्नपूर्णे नेत्रत्रयाय वौषट्,        ॐ स्वाहा अस्त्राय षट् ॥२७-२९॥

त्रैलोक्यमोहनगौरीमन्त्रः

त्रैलोक्यमोहनो गौरीमन्त्रः संकीर्त्यतेऽधुना ।

मायानमोऽन्ते ब्रह्मश्रीराजिते राजपूजिते ॥३०॥

जयेति विजये गौरीगान्धारिति वदेत्पदम् ‍ ।

त्रिभुतोयं मेषवशङ्करिसर्वससद्यलः ॥३१॥

कवशङ्करिसर्वस्त्रीपुरुषान्ते वह्सङ्करि ।

सुद्वय्म दुद्वयं हेयुग्वायुग्मं हरवल्लभा ॥३२॥

स्वाहान्त एकषष्टयर्णो मन्त्रराजः समीरितः ।

अब त्रैलोक्यमोहन गौरी मन्त्र कहते हैं – माया (ह्रीं), उसके अन्त में ‘नमः’ पद, फिर ‘ब्रह्म श्री राजिते राजपूजिते जय’, फिर ‘विजये गौरि गान्धारि’ फिर ‘त्रिभु’ इसके बाद तोय ((व), मेष (न), फिर ‘वशङ्गरि’, फिर ‘सर्व’ पद, फिर ससद्यल (लो), फिर ‘क वशङकरि’, फिर ‘सर्वस्त्रीं पुरुष’ के बाद ‘वशङ्गरि’, फिर ‘सु द्वय’ (सु सु), दु द्वय (दु दु), घे युग् (घे घे), वायुग्म (वा वा), फिर हरवल्लभा (ह्रीं), तथा अन्त में ‘स्वाहा’ लगाने से ६१ अक्षरों का यह मन्त्रराज कहा गया है ॥३०-३३॥

विमर्श – मन्त्र का स्वरुप इस प्रकार है – ‘ ह्रीं नमः ब्रह्मश्रीराजिते राजपूजिते जयविजये गौरि गान्धारि त्रिभुवनवशङ्गरि, सर्वलोकवशङ्गरि सर्वस्त्रीपुरुषवशङ्करि सु सु दु दु घे घे वा वा ह्रीं स्वाहा’ ॥३०-३३॥

अजो मुनिर्निचृच्छन्दो गौरीत्रैलोक्यमोहिनी ॥३३॥

देवताबीजशक्ति तु मायास्वाहापदे क्रमात् ‍ ।

षडङ्गक्थनप्रकारोऽपरः

चतुर्दशदशाष्टाष्टदशैकादशवर्णकैः ॥३४॥

दीर्घाढ्यमाययायुक्तैः षडङ्गानि समाचरेत् ‍ ।

मूलेन व्यापकं कृत्वा ध्यायेत् ‍ त्रैलोक्यमोहिनीम् ‍ ॥३५॥

अब इसका विनियोग कहते हैं – इस मन्त्र के अज ऋषि हैं, निच्‌द गायत्री छन्द है, त्रैलोक्यमोहिनी गौरी देवता है, माया बीज ऐ एवं स्वाह शक्ति है ।षड् दीर्घयुक्त मायाबीज से युक्त इस मन्त्र के १४, १०,८, ८,१० एवं ११ अक्षरों से षडङ्गन्यास करना चाहिए । फिर मूलमन्त्र से व्यापक कर त्रैलोक्यमोहिनी का ध्यान करना चाहिए ॥३३-३५॥

विमर्श – विनियोग – ‘अस्य श्रीत्रैलोक्यमोहनगौरीमन्त्रस्य अजऋषिर्निचृद्‌गायत्री छन्दः त्रैलोक्यमोहिनीगौरीदेवता ह्रीं बीजं स्वाहा शक्ति ममाऽभीष्टसिद्धयर्थ जप विनियोगः ।

षडङ्गन्यास –  ह्रां ह्रीं नमो ब्रह्यश्रीराजिते राजपूजिते हृदयाय नमः, ह्रीं जयविजये गौरीगान्धारि शिरसे स्वहा, हूँ त्रिभुवनशङ्गरि शिखायै वषट्, ह्रैं सर्वलोक वशङ्गरि कवचाय हुं, ह्रौं सर्वस्त्रीपुरुष नेत्रत्रयाय वशङ्गरि वौषट्, सुसु दुदु घेघे वावा ह्रीं स्वाहा, ह्रीं नमोः ब्रह्मश्रीराजिते राजपूजिते जयविजये गौरिगान्धारि त्रिभुवनवशङ्गरि सर्वलोकवशङ्गरि सर्वस्त्री पुरुष वशङ्गरि सुसु दुदु घेघे वावा ह्रीं स्वाहा, सर्वाङ्गे ॥३३-३५॥

ध्यानजपहोमद्यानुष्ठानं फलकथनं च

गीर्वाणसङ्वर्चितपदपङ्कजा रुणप्रभाबालशशाङ्कशेखरा ।

रक्ताम्बरालेपनपुष्पञ्ड् ‌ मुदे सृणिं सपाशं दधती शिवास्तु नः ॥३६॥

अब उक्त मन्त्र का ध्यान कहते हैं देव समूहों से अर्चित पाद कमलों वाली, अरुण वर्णा, मस्तक पर चन्द्र कला धारण किये हुये, लाल चन्दन , लाल वस्त्र एवं लाल पुष्पों से अलंकृत अपने दोनों हाथों में अंकुशं एवं पाश लिए हुये शिवा (गौरी) हमारा कल्याण करें ॥३६॥

अयुतं प्रजपेन्मन्त्रं सह्स्रं घृतसंयुतैः ।

पायसैर्जुहुयात्पीठे प्रागुक्ते गिरिजां यजेत् ‍ ॥३७॥

उक्त मन्त्र का दश हजार जप करे, तदनन्तर घृत मिश्रित पायस (खीर) से उसका दशांश होम करे, अन्त में पूर्वोक्ती पीठ पर श्रीगिरिजा का पूजन करे ॥३७॥

केसरेष्वङ्गमाराध्य ब्रह्मयाद्याः पत्रमध्यगाः ।

लोकेश्वरास्तदस्त्राणि तद्‌बहिः परिपूजयेत् ‍ ॥३८॥

अब आवरण पूजा कहते हैं – केशरों पर षडङ्गपूजा कर अष्टदलों में ब्राह्यी आदि मातृकाओं की, भूपुर में लोकपालों की तथा बाहर उनके आयुधों की पूजा करनी चाहिए ॥३८॥

विमर्श – पीठ देवताओं एवं पीठशक्तियों का पूजन कर पीठ पर मूलमन्त्र से देवी की मूर्ति की कल्पना कर आवाहनादि उपचारों से पुष्पाञ्जलि समर्पित कर उनकी आज्ञा से इस प्रकार आवरण पूजा करे ।

सर्वप्रथम केशरों में षडङ्गमन्त्रों से षडङ्गपूजा करनी चाहिए । यथा –

ह्रीं ह्रीं नमो ब्रह्मश्रीराजिते राजपूजिते हृदयाय नमः,

ह्रीं जयविजये गौरि गान्धारि शिरसे स्वाहा,

ह्रूँ त्रिभुवनवशङ्गरि शिखायै वषट्,

ह्रैं सर्वलोकवशङ्गरि कवचाय हुम्,

ह्रौं सर्वस्त्रीपुरुषवशङ्गरि नेत्रत्रयाय वौषट्,

ह्रः सुसु दुदु घेघे वावा ह्रीं स्वाहा अस्त्राय फट्,

फिर अष्टदल में पूर्वादि दिशाओं के क्रम से ब्राह्यी आदि का पूजन करनी चाहिए ।

१. ॐ ब्राह्ययै नमः, पूर्वदले        २. ॐ माहेश्वर्यै नमः, आग्नेये

३. ॐ कौमार्यै नमः, दक्षिणे        ४. ॐ वैष्णव्यै नमः, नैऋत्ये

५. ॐ वाराह्यै नमः, पश्चिमे        ६. ॐ इन्द्राण्यै नमः, वायव्ये

७. ॐ चामुण्डायै नमः, उत्तरे         ८. ॐ महालक्ष्म्यै नमः, ऐशान्ये

तत्पश्चात् भूपुर के भीतर अपनी अपनी दिशाओं में इन्द्रादि दश दिक्पालों की पूजा करनी चाहिए । इन्द्राय नमः, पूर्वे, अग्नये नमः, आग्नेये, यमाय नमः, दक्षिणे नैऋत्याय नमः, नैऋत्ये वरुणाय नमः, पश्चिमे, वायवे नमः, वायव्ये, सोमाय नमः, उत्तरे, ईशानाय नमः, पश्चिमनैऋत्योर्मध्ये ।

पुनः भूपुर के बाहर वज्रादि आयुधों की पूजा करनी चाहिए ।

वज्राय नमः, पूर्वे,        शक्तये नमः, आग्नेये,        दण्डाय नमः दक्षिणे,

खडगाय नमः, नैऋत्ये,        पाशाय नमः, पश्चिमे,        अंकुशाय नमः, वायव्ये,

गदायै नमः, उत्तरे        त्रिशूलाय नमः, ऐशान्ये,    पद्‌माय नमः, पूर्वेशानर्यर्मध्ये,

चक्राय नमः, पश्चिमनैऋत्ययोर्मध्ये ॥३८॥

इत्थामाराधिता देवी प्रयच्छेत्सुखसम्पदः ।

तन्दुलैस्तिलसम्मिश्रैर्लवणैर्मधुरान्वितैः ॥३९॥

फलै रम्यै रक्तपद्‌मैर्जुहुयाद्यो दिनत्रयम् ‍ ।

तस्य विप्रादयो वर्णा वश्याः स्युर्मासमध्यतः ॥४०॥

अब काम्य प्रयोग कहते हैं –

इस प्रकार आराधना करने से देवी सुख एवं संपत्ति प्रदान करती हैं तिल मिश्रित तण्डुल (चावल), सुन्दर फल, त्रिमधु (घी, मधु, दूध) से मिश्रित लवण और मनोहर लालवर्ण के कमलों से जो व्यक्ति तीन दिन तक हवन करता है, उस व्यक्ति के ब्राह्यणादि सभी वर्ण एक महीने के भीतर वश में जो जाते हैं ॥३९-४०॥

रविमण्डलमध्यस्थां देवीं ध्यायञ्जपेन्मनुम् ‍ ।

अष्टोत्तरशतं तावद्धुत्वाग्नौ वशयेज्जगत् ‍ ॥४१॥

सूर्यमण्डल में विराजमान देवी के उक्त स्वरुप का ध्यान करते हुये जो व्यक्ति जप करता है अथवा १०८ आहुतियाँ प्रदान करता है वह व्यक्ति सारे जगत् को अपने वश में कर लेता है ॥४१॥

रविमण्डलमध्यस्थदेव्यनुष्ठानं फलं च

नभोहंसानलयुतमैकारस्थं शशाङ्कयुक् ‍ ।

तोयं वाय्वग्निकर्णेन्दुयुतं राजमुखीति च ॥४२॥

राजाधिमुखिवश्यान्ते मुखिमायारमात्मभूः ।

देवि देवि महादेवि देवाधिदेवि सर्व च ॥४३॥

अब गौरी का अन्य मन्त्र कहते हैं – हंस (स्), अनल (र), ऐकारस्थ शशांकयुत् (ऐं) उससे युक्त नभ (ह्) इस प्रकार हस्त्रैं, फिर वायु (य्), अग्नि (र), एवं कर्णेन्दु (ऊ) सहित तोय (व्) अर्थात् ‘व्य‌रुँ’ , फिर ‘राजमुखि’, ‘राजाधिमुखिवश्य’ के बाद ‘मुखि’ , फिर माया (ह्रीं), रमा (श्रीं), आत्मभूत (क्लीं), फिर ‘देवि देवि महादेवि देवाधैदेवि सर्वजनस्य मुखं’ के बाद मम वशं’ फिर दो बार ‘कुरु कुरु’ और इसके अन्त में वहिनप्रिया (स्वाहा) लगाने से अङातालिस अक्षरों का मन्त्र निष्पन्न होता है ॥४२-४३॥

विमर्श – मन्त्र का स्वरुप इस प्रकार है – ‘ह्स्त्रैं व्य्‌रुँ राजमुखि राजाधि मुखि वश्यमुखि ह्रीं श्रीं क्लीं देवि महादेवि देवाधिदेवि सर्वजनस्य मुखं मम वशं कुरु कुरु स्वाहा’ ॥४२-४३॥

जनस्य च मुखं पश्चान्मम वशं कुरुद्वयम् ‍ ।

वहिनप्रियान्तो मन्त्रोऽष्टचत्वरिंशल्लिपिर्मतः ॥४४॥

ऋषिच्छन्दो देवतास्तु पूर्वत्परिकीर्तिताः ।

हृदेअकादशभिः प्रोक्तं शिरः स्यात्सप्तवर्णकेः ॥४५॥

शिखावर्मापि वेदार्णैः पञ्चभिर्नत्रमीरितम् ‍ ।

अस्त्रं सप्तदशार्णैः स्याद्‌ध्यानज्प्यादिपूर्ववत् ‍ ॥४६॥

वश्यकरमन्त्रशट्‌ककथनम् ‍

अङ्गमन्त्रास्तु दीर्घाढ्य भुवनेशीपरा मताः ।

एवं सिद्धमनुर्मन्त्री प्रयोगान् ‍ कर्तुमर्हति ॥४७॥

इस मन्त्र के ऋषि छन्द देवता आदि पूर्व में कह आये हैं मन्त्र के ग्यारह वर्णो से हृदय सात वर्णो से शिर चार वर्णो से शिखा चार वर्णो से कवच पाँच वर्णो से नेत्र तथा सत्रह वर्णो से अस्त्र न्यास करना चाहिए । पूर्ववत् जप ध्यान एवं पूजा भी करनी चाहिए । षड्‌दीर्घयुत माया बीज प्रारम्भ में लगाकर षडङ्गन्यास के मन्त्रों की कल्पना कर लेनी चाहिए । इस प्रकार मन्त्र सिद्ध हो जाने पर साधक काम्य प्रयोग का अधिकारी होता है ॥४४-४७॥

विमर्श – विनियोग – ‘अस्य श्रीगौरीमन्त्रस्य अजऋषिर्निचृद्‌गायत्रीछन्दः गौरीदेवता, ह्रीं बीजं स्वाहा शक्तिः ममाखिलकामनासिद्धयर्थे जपे विनियोगः’ ।

षडङ्गन्यास –  ह्रां ह्स्त्रैं व्य्‌रुँ राजमुखि राजाधिमुखि हृदयाय नमः,

ह्रीं वश्यमुखि ह्रीं श्रीं क्लीं शिरसे स्वाहा,

ह्रूँ देवि देवि शिखायै वषट्,        ह्रै महादेवि कवचाय हुम्,

ह्रौं देवाधिदेवि नेत्रत्रयाय वौषट्,    ह्रः सर्वजनस्य मुखं मम वशं कुरु कुरु स्वाहा अस्त्राय फट् ।

पूजाविधि – पहले श्लोक ९ – ३६ में वर्णित देवीए के स्वरुप का ध्यान करे । अर्घ्य स्थापन, पीठशक्तिपूजन, देवी पूजन तथा आवरण देवताओं के पूजन का प्रकार पूर्वोक्त है ॥४५-४७॥

कुर्यात् ‍ सर्वजनस्थाने मनोः साध्याभिधानकम् ‍ ।

जपे होमे तर्पणे च वशीकरणकर्मणि ॥४८॥

ससम्पातं घृतं हुत्वा सहस्त्रं सप्तवासरम् ‍ ।

सम्पाताज्यं तु साध्यस्य प्राशितं वश्यकारकम् ‍ ॥४९॥

अब वशीकरण के कुछ मन्त्र कहते हैं –

वशीकरण मन्त्र के पूजन जप होम एवं तर्पण में मूल मन्त्र के ‘सर्वजनस्य’ पद के स्थान पर जिसे अपने वश में करना हो उस साध्य के षष्ठन्त रुप को लगाना चाहिए । सात दिन तक सहस्र-सहस्र की संख्या में संपातपूर्वक (हुतावशेष स्रुवावस्थित घी का प्रोक्षणी में स्थापन) घी से होमकर उस संपात (संस्रव) घृत को साध्य व्यक्ति को पिलाने से वह वश में हो जाता है ॥४८-४९॥

साध्यनक्षत्रवृक्षे साध्याकृतिप्रयोग

साध्यनक्षत्रवृक्षेण कुर्यात्साध्याकृतिं शुभाम् ‍ ।

साध्य व्यक्ति के जन्म नक्षत्र सम्बन्धी लकडी लेकर उसी से साध्य की प्रतिमा निर्माण करावे, फिर उसमें प्राणप्रतिष्ठा कर उस प्रतिमा को आँगन में गाड देवे ॥५०॥

तस्यामसून प्रतिष्ठाप्य प्राङ्गणे निखनेच्च ताम् ‍ ॥५०॥

तत्रानलं समाधाय रक्तचन्दनसंयुतैः ।

जपापुष्पैर्निशीथिन्यां जुहुयात्सप्तवासरम् ‍ ॥५१॥

सहस्रं प्रत्यहं पश्चात्तां निष्कास्य सरित्तटे ।

निखनेत्साधकस्तस्य साध्यो दासो भवेद् ‍ ध्रुवम् ‍ ॥५२॥

पुनः उसके ऊपर अग्निस्थापन कर मध्य रात्रि में सात दिन तक रक्तचन्दन मिश्रित जपा कुसुम के फूलों से प्रतिदिन इस मन्त्र से एक हजार आहुतियाँ प्रदार करे । इसके बाद उस प्रतिमा को उखाड कर किसी नदी के किनारे गाड देनी चाहिए, ऐसा करने से साध्य निश्चित रुप से वश में हो कर दासवत् हो जाता है ॥५०-५२॥

विमर्श – जन्म नक्षत्रों के वृक्षों की तालिका

नक्षत्र                वृक्ष

१ – अश्विनी        कारस्कर

२ – भरणी         धात्री

३ – कृत्तिका         उदुम्बर

४ – रोहिणी        जम्बू

५ – मृगशिरा        खदिर

६ – आर्द्रा        कृष्ण

७ – पुनर्वसु        वंश

८ – पुष्य        पिप्पल

९ – आश्लेषा        नाग

१० – मघा        रोहिणी

११ – पू.फा.        पलाश

१२ – उ.फा.        प्लक्ष

१३ – हस्त        अम्बष्ठ

१४ – चित्रा        विल्व

१५ – स्वाती         अर्जुन

१६ – विशाखा        विकंकत

१७ – अनुराधा        वकुल

१८ – ज्येष्ठा        सरल

१९ – मूल        सर्ज

२० – पू.षा.        वञ्जुल

२१ – उ.षा.        पनस

२२ – श्रवण        अर्क

२३ – धनिष्ठा         शमी

२४ – शतभिषा        कदम्ब

२५ – पू.भा.        निम्ब

२६ – उ.भा.        आम्र

२७ – रेवती        मधूक

ज्येष्ठालक्ष्मीमन्त्रः

ज्येष्ठालक्ष्मी महामन्त्रः प्रोच्यते धनवृद्धिदः ।

वाग्बीजं भुवनेशानी श्रीरनन्तोद्यलक्ष्मि च ॥५३॥

स्वयम्भुवे शम्भुजाया ज्येष्ठायै हृदयान्तिकः ।

अब ज्येष्ठा लक्ष्मी का मन्त्रोद्धार कहते हैं –

वाग्बीज (ऐं), भुवनेशी (ह्रीं), श्रीं (श्रीं), अनन्त (आ), फिर ‘द्यलक्ष्मि’, फिर ‘स्वयंभुवे’, फिर शम्भुजाया (ह्रीं), तदनन्तर ‘ज्येष्ठार्यै’ अन्त में हृदय (नमः) लगाने से सत्रह अक्षरों का धन को वृद्धि करने वाला मन्त्र बनता है ॥५३-५४॥

विमर्श – मन्त्र का स्वरुप इस प्रकार है – ‘ऐं ह्रीं श्रीं आद्यलक्ष्मि स्वयंभुवे ह्रीं ज्येष्ठायै नमः’ ॥५३-५४॥

मनुः सप्तदाशार्णोऽयं मुनिर्ब्रह्यास्य कीर्तितः ॥५४॥

छन्दोऽष्टिर्ज्येष्ठलक्ष्मीस्तु देवता शक्तिबीजके ।

श्रीमाये मूलतो हस्तौ प्रमृज्याङ्गं समाचरेत् ‍ ॥५५॥

अब विनियोग कहते हैं – इस मन्त्र के ब्रह्या ऋषि हैं, अष्टि छन्द है, ज्येष्ठा लक्ष्मी देवता हैं, श्री बीज है तथा माया शक्ति है । मूल मन्त्र से हस्त् प्रक्षालन कर बाद में अङ्गन्यास करना चाहिए ॥५४-५५॥

विमर्श – विनियोग का स्वरुप इस प्रकार है –

‘अस्य श्रीज्येष्ठालक्ष्मीमन्त्रस्य ब्रह्याऋषिष्टिच्छन्दः ज्येष्ठालक्ष्मीदेवता ममाभीष्ट-सिद्धयर्थे जपे विनियोगः’ ॥५४-५५॥

मन्त्राक्षरन्यासकथनम् ‍

रामवेदयुगैकत्रिनेत्रार्णैर्मनुसम्भवैः ।

पदानामष्टकं न्यस्येच्छिरो भ्रूमध्यवक्त्रके ॥५६॥

हृन्नाभ्याधारके जानुपादयोस्तत्पदोन्मितिः ।

भूचन्द्रैकचतुर्वेदभूमिरामाक्षिवर्णकैः ॥५७॥

मन्त्र के ३, ४, ४, १, ३, एवं २ वर्णो से षडङ्गन्यास करना चाहिए तथा १, १, १, ४, ४, १, ३, एवं दो वर्णो से शिर भूमध्य, मुख, हृदय, नाभि मूलाधार जानु एवं पैरों का न्यास करना चाहिए ॥५६-५७॥

विमर्श – षडङ्गन्यास –  ऐं ह्रीं श्रीं हृदयाय नमः,    आद्यलक्ष्मी शिरसे स्वाहा,

स्वयंभुवे शिखायै वषट्        ह्रीं कवचाय हुम्        ज्येष्ठायै वौषट्,

नमः अस्त्राय फट् ।

सर्वाङगन्यास यथा – ऐं नमः शिरसि        ह्रीं नमः भ्रूमध्ये,

श्रीं नमः मुखे,        आद्यलक्ष्मि नमः हृदि        स्वयंभुवे नमः नाभौ

ह्रीं नमः मूलाधारे,    ज्येष्ठायै नमः जान्वो,        नमोः नमः पादयोः ॥५६-५७॥

ध्यानं पीठदेवतागायत्र्यादिकथनम् ‍

उद्यद्‌भास्करसन्निभा स्मितमुखी रक्ताम्बरालेपना सत्कुम्भं धनभाजनं सृणिमथो पाशङ्कैर्बिभ्रती ।

पद्‌मस्था कमलेक्षणा दृढकुचा सौन्दर्यवारांनिधिर्ध्यातव्या सकलाभिलाषफलदा श्रीज्येष्ठलक्ष्मीरियम् ‍ ॥५८॥

अब ज्येष्ठा लक्ष्मी का ध्यान कहते हैं – उदीयमान सूर्य के समान लाल आभावाली, प्रहसितमुखीम, रक्त वस्त्र एवं रक्त वर्ण के अङ्गरोगीं से विभूषित, हाथों में कुम्भ धनपात्र, अंकुशं एवं पाश को धारण किये हुये, कमल पर विराजमान, कमलनेत्रा, पीन स्तनों वाली, सौन्दर्य के सागर के समान, अवर्णनीय सुन्दराअ से युक्त, अपने उपासकों के समस्त अभिलाषाओम को पूर्ण करने वाली श्री ज्येष्ठा लक्ष्मी का ध्यान करना चाहिए ॥५८॥

लक्षं जपेत पायसेन जुहुयात् ‍ तद्‌दशांशतः ।

आज्याक्तेन यजेत्पीठे वक्ष्यमाणे महाश्रियम् ‍ ॥५९॥

उक्त मन्त्र का एक लाख जप करे तथा घी मिश्रित खीर से उसका दशांश होम करे फिर वक्ष्यमाण पीठ पर महागौरी का पूजन करना चाहिए ॥५९॥

लोहिताक्षीविरुपा च करालीनीललोहिता ।

समदावारुणीपुष्टिरमोघाविश्वमोहिनी ॥६०॥

तत्पीठशक्तयः प्रोक्ता दिक्षु मध्ये च ता यजेत् ‍ ।

प्रयच्छेदासनं तस्यै गायत्र्या वक्ष्यमाणया ॥६१॥

१. लोहिताक्षी, २. विरुपा, ३. कराली, ४. नीललोहिता, ५. समदा, ६. वारुणी, ७. पुष्टि, ८. अमोघा, एवं ९. विश्वमोहिनी – ये ज्येष्ठपीठ की नवशक्तियाँ कही गयी हैं । इनका पूजन आठ दिशाओं में तथा मध्य में करना चाहिए । तदनन्तर वक्ष्यमाण गायत्री मंत्र से को आसन देना चाहिए ॥६०-६१॥

प्रणवो रक्तज्येष्ठायै विद्‌महे पदमन्ततः ।

नीलज्येष्ठापदं पश्चाद्यै धीमहि ततः पदम् ‍ ॥६२॥

तन्नो लक्ष्मीः पदं प्रोच्य चोद्यादिति चोच्चरेत् ‍ ।

प्रणव (ॐ) फिर ‘रक्तज्येष्ठायै विद्‌महे’ तदनन्तर ‘नीलज्येष्ठा’ पद के पश्चात्‍ ‘यै धीमहि’ उसके बाद ‘तन्नो लक्ष्मी’ पद, फिर ‘प्रचोदयात,” – यह ज्येष्ठा का गायत्री मन्त्र कहा गया है ॥६२-६३॥

गायत्र्येषा समाख्याता केसरेष्वङ्गपूजनम् ‍ ॥६३॥

मातरः पत्रमध्येषु बाह्ये लोकेशहेतयः ।

इत्थं जपादिभिः सिद्धो मनुर्दद्यदभीप्सितम् ‍ ॥६४॥

केशरों में अङ्गपूजाम, अष्टपत्रों पर मातृकाओं की, फिर उसके बाहर लोकपालों एवं उनके अस्त्रों की पूजा करनी चाहिए । इस प्रकार जप आदि से सिद्ध मन्त्र मनोवाञ्छित फल देता है (द्र० ९.३८) ॥६३-६४॥

विमर्श – पीठ पूजा विधि –  साधक ९ -५८ में वर्णित ज्येष्ठा लक्ष्मी के स्वरुप का ध्यान करे, फिर मानसोपचार से पूजन कर प्रदक्षिण क्रम से पीठ की शक्तियों का पूर्वादि आठ दिशाओं में एवं मध्य में इस प्रकार पूजन करे ।

ॐ लोहिताक्ष्यै नमः पूर्वे,        ॐ दिव्यायै नमः आग्नेये,

ॐ कराल्यै नमः दक्षिणे,        ॐ नीललोहितायै नमः नैऋत्ये,

ॐ समदायै नमः पश्चिमे,        ॐ वारुण्यै नमः वायव्ये,

ॐ पुष्ट्यै नमः उत्तरे,            ॐ अमोघायै नमः ऐशान्ये,

ॐ विश्वमोहिन्यै नमः मध्ये

तदनन्तर ‘ॐ रक्तज्येष्ठायै विद्‌महे नीलज्येष्ठायै धीमहि । तन्नो लक्ष्मी प्रचोदयात् ’ इस गायत्री मन्त्र से उक्त पूजित पीठ पर देवी को आसन देवे । फिर यथोपचार देवी का पूजन कर पुष्पाञ्जलि प्रदान कर उनकीं अनुज्ञा ले आवरण पूजा करें । सर्व प्रथम केशरों में षडङ्गपूजा –

ॐ ऐं ह्रीं श्री हृदयाय नमः, आद्यलक्ष्मि शिरसे स्वाहा, स्वयंभुवे शिखायै वषट्‍, ह्रीं कवचाय हुम् ज्येष्ठायै नेत्रत्रयाय वौषट्, स्वाहा अस्त्राय फट् । तदनन्तर अष्टदल में ब्राह्यी आदि देवताओं की, भूपुर के भीतर इन्द्रादि दश दिक्पालों की तथा बाहर उनके वज्रादि आयुधों की पूर्ववत् पूजा करनी चाहिए (द्र. ९. ३८) । आवरण पूजा के पश्चात् देवी का धूप दीपादि से उपचारों से पूजन कर जप प्रारम्भ करे ।

इस प्रकार पूजन सहित पुरश्चरण करने से मन्त्र सिद्ध होता है और साधक को अभिमन्त फल प्रदान करता है ॥६३-६४॥

अन्नमन्त्रकथनम् ‍

अथान्नदमनोर्वक्ष्ये साधनं यः पुरोदितः ।

अन्नपूर्णावृतौ भूमिश्रीयागे द्वियमाक्षरः ॥६५॥

अब अन्नपूर्णा के अन्य मन्त्र को कहता हूँ – अन्नपूर्णा के आवरण पूजा में भूमि एवं श्री के पूजनार्थ बाइस अक्षरों का मन्त्र हम पहले कह चुके हैं (द्र. ९. १६-१७) ॥६५॥

तारभूश्रीपुटो जप्यो मुनिरस्य चतुर्मुखः ।

छन्दो निचृतिरख्यातं देवते वसुधाश्रियौ ॥६६॥

भूबीजं बीजमस्योक्तं श्रीबीजं शक्तिरीरिता ।

अन्नं महीति हृदयमन्नं मे देहि मस्तकम् ‍ ॥६७॥

उसी को तार (ॐ), भू (ग्लौं) , एवं श्री (श्रीं) से संपुटित कर जप करना चाहिए । इस अन्नदायक मन्त्र की साधना का प्रकर कहते हैं । इस मन्त्र के ब्रह्या ऋषि हैं, निचृद् गायत्री छन्द हैं, श्री एवं वसुधा इसके देवता हैं, ग्लौं इसका बीज है तथा श्रीं शक्ति है ॥६६-६७॥

विमर्श – मन्त्र का स्वरुप इस प्रकार हैं – ‘ॐ ग्लौं श्रीं अन्नं मह्यन्नं मे देह्यन्नाधिपतये ममान्नं प्रदापय स्वाहा श्रीं ग्लौं ॐ ।’

विनियोग – ‘ॐ अस्य श्रीज्येष्ठालक्ष्मीमन्त्रस्य ब्रह्याऋषिर्निचृद्‌गायत्रीछन्दः वसुधाश्रियौ देवते ग्लौं बीजं श्रीं शक्तिः मनोकामनासिद्धयर्थे जपे विनियोगः ’ ॥६६-६७॥

शिखात्वन्नाधिपतये ममान्नं च प्रदापय ।

वर्मोक्त स्वाहया चास्त्रमङ्गमन्त्राध्रुवादिकाः ॥६९॥

षड्‌दीर्घारुढभूमिश्रीबीजान्ताः परिकीर्तिताः ।

विनेत्रा अपदुग्धाब्धौ स्वर्णदीपे तु ते स्मरेत् ‍ ॥६९॥

अब न्यास विधि कहते हैं – ‘अन्नं महि’ से हृदय, ‘अन्नं मे देहि’ से शिर, ‘अन्नाधिपतये’ से शिखा, ‘ममान्नं प्रदापय’ से कवच तथा ‘स्वाहा’ से अस्त्र का न्यास करना चाहिए । इन मन्त्रों के प्रारम्भ में ध्रुव (ॐ) तथा अन्त में षड्‌दीर्घ सहित भूमिबीज एवं श्री बीज लगाना चाहिए । यह न्यास नेत्र को छोडकर मात्र पाँच अङ्गों में किया जाता है । न्यास के बाद क्षीरसागर में स्वर्णद्वीप में वसुधा एवं श्री का ध्यान वक्ष्यमाण (९.७०) श्लोक के अनुसार करे ॥६८-६९॥

विमर्श – पञ्चाङ्गन्यास विधि – ‘पञ्चाड्गानि मनोर्यत्र तत्र नेत्रमनुं त्यजेत् जहाँ पञ्चाङ्गन्यास कहा गया हो वहाँ नेत्रन्यास न करे । इस नियम के अनुसार नेत्र को छोडकर इस प्रकार पञ्चाङ्गन्यास करना चाहिए ।

ॐ अन्नं महि ग्लां श्रीं हृदयाय नमः,        ॐ अन्नं मे देहि ग्लीं शिरसे स्वाहा,

ॐ अन्नाधिपतये ग्लूं श्रीं शिखायै वषट्,    ॐ ममान्नं प्रदापय ग्लैं श्रीं कवचाय हुं,

ॐ स्वाहा ग्लौं ग्लः श्रीं अस्त्राय फट् ॥६८-६९॥

कल्पद्रुमाधोमणिवेदिकायां समास्थिते वस्त्रविभूषणाढ्ये ।

भूमिश्रियौ वाञ्छितवामदक्षे संचिन्तयेद् ‍ देवमुनीन्ट्रवन्द्ये ॥७०॥

अब भूमि एवं श्री ध्यान कहते हैं –

कल्पद्रुम के नीचे मणिवेदिकापर ज्येष्ठा लक्ष्मी के बायें एवं दाहिने भाग में विराजमान वस्त्र एवं आभूषणों से अलंकृत तथा देवता एवं मुनिगणों से वन्दित भूमि का एवं श्री का ध्यान करना चाहिए ॥७०॥

लक्षमेकं जपेन्मन्त्रं तद्‌दशांशं घृतप्लुतैः ।

अन्नैर्हुत्वा यजेत् ‍ पीठे वैष्णवे वसुधाश्रियौ ॥७१॥      

उक्त मन्त्र का एक लाख जप करना चाहिए तथा घी मिश्रित अन्न से उसका दशांश होम करना चाहिए । तदनन्तर वैष्णव पीठ पर वसुधा एवं श्री का पूजन करना चाहिए ॥७१॥

वैष्णवीया अष्टपीठशक्तयः

विमलोत्कर्षिणी ज्ञानक्रियायोगाभिधा तथा ।

प्रहवी सत्या वथेशानानुग्रहापीठशक्तयः ॥७२॥

१. विमला, २. उत्कर्षिणी, ३. ज्ञाना, ४. क्रिया, ५. योगा, ६. प्रहवी, ७. सत्या, ८. ईशाना एवं ९. अनुग्रहा ये नव पीठशक्तियाँ हैं ॥७२॥

तारं नमो भगवते विष्णवे सर्ववर्णकाः ।

भूतात्मसयोगपदं योगपद्‌पदं ततः ॥७३॥

पीठात्मने नमोऽन्तोऽयं पीठस्य मनुरिरीतः ।

दद्यादासनमन्तेन मूलेनावाहनादिकम् ‍ ॥७४॥

तार (ॐ), फिर ‘नमो भगवते विष्णवे सर्व’ के बाद ‘भूतात्मसंयोग’ पद, फिर ‘योगपद‌म’ पद, तदनन्तर ‘पीठात्मने नमः’ यह पीठ पूजा का मन्त्र कहा गया है । इस मन्त से आसन देकर मूल मन्त्र से आवाहनादि पूजन करना चाहिए ॥७३-७४॥

विमर्श – पीठ पर आसन देने के मन्त्र का स्वरुप इस प्रकार है – ‘ॐ नमो भगवते विष्णवे सर्वभूतात्मसंयोगयोगपद्‌पीठात्मने नमः’ ।

पीठ पूजा करने के बाद उसके केशरों में पूर्वादि आठ दिशाओं के प्रदक्षिण क्रम से आठ पीठ्ग शक्तियों की तथा मध्य में नवम अनुग्रह शक्ति की इस प्रकार पूजा करे ।

१ – ॐ विमलायै नमः पूर्वे

२ – ॐ उत्कर्षिण्यै नमः आग्नेये

३ – ॐ ज्ञानायै नमः दक्षिणे

४ – ॐ क्रियायै नमः नैऋत्ये

५ – ॐ योगायै नमः पश्चिमे

६ – ॐ प्रहव्यै नमः वायव्ये

७ – ॐ सत्यायै नमः उत्तरे

८ – ॐ ईशानायै नमः ऐशान्ये

९ – ॐ अनुग्रहायै नमः मध्ये

इस प्रकार पीठ के आठों दिशाओं में तथा मध्य में पूजन करने के बाद ॐ नमो भगवते विष्णवे सर्वभूतात्मसंयोगयोगपद्‌पीठात्मने नमः इस मन्त्र से भूमि और श्री इन दोनों को उक्त पूजित पीठ पर आसन देवे । फिर (९.७०) में वर्णित उनके स्वरुप का ध्यान कर, मूलमन्त्र से आवाहन कर, मूर्ति की कल्पना कर, पाद्य आदि उपचार संपादन कर, पुष्पाञ्जलि प्रदान कर उनकी अनुज्ञा ले आवरण पूजा प्रारम्भ कर, प्रदक्षिणा क्रम से प्रथम केशरों में अङ्गपूजा करे ॥७३-७४॥

अङानीष्ट्‌वार्चयेद्‌दिक्षु भोवहिनजलमारुतान् ‍ ।

विवृति च प्रतिष्ठां च विद्यां शान्तिविदिक्षु च ॥७५॥

प्रथम केशरों में अङ्गपूजा करने के पश्चात् पूर्वादि दिशाओं में प्रदक्षिणे क्रम से भूमि, अग्नि, जल और वायु की वायु करे । तदनन्तर चारों कोणों में निवृत्ति, प्रतिष्ठा, विद्या और शान्ति की पूजा करे ॥७५॥

बलकादयोऽन्या अष्टशक्तयः

अष्टशक्तिर्बलाका च विमलाकमला तथा ।

वनमालाबिभीषा च मालिका शाङ्करी पुनः ॥७६॥

पूर्वोदिदिक्षु प्रजयेष्टमी वसुमालिका ।

शक्राद्यानायुधर्युक्तान ‍ स्वस्वदिक्षु समर्चयेत् ‍ ॥७७॥

फिर १. बलाका, २. विमला. ३. कमला, ४. वनमाला, ५. विभीषा, ६. मालिका, ७. शाकंरी और ८. वसुमालिका की पूर्वादि दिशाओं में स्थित अष्टदल में पूजा करे ।

तदनन्तर भूपुर के भीतर आठों दिशाओं में इन्द्रादि दश दिक्पालों की और भूपुर के बाहर आठों दिशाओं में उनके वज्रादि आयुधोम की पूजा करनी चाहिए ॥७६-७७॥

विमर्श – आवरण पूजा विधि –  सर्वप्रथम केशरों में अङ्ग्पूजा यथा –

१ – ॐ अन्नं महि ग्लां श्रीं हृदाय नमः

२ – ॐ अन्नं देहि ग्लूं श्रीं शिखायै नमः

३ – ॐ अन्नं देहि श्रीं शिरसे स्वाहा

४ – ॐ ममान्नं प्रदापय ग्लौ श्रीं कवचाय हुम्

५ – ॐ स्वाहा ग्लौं ग्लः श्रीं अस्त्राय फट् ।

फिर यन्त्र के पूर्वादि दिशाओं में भूमि आदि की पूजा यथा –

ॐ लं भूम्यै नमः पूर्वे        ॐ रं अग्नेये नमः दक्षिणे

ॐ वं अद्‌भ्यो नमः पश्चिमे    ॐ यं वायवे नमः उत्तरे

तत्पश्चात् आग्नेयादि कोणों में निवृत्ति आदि की यथा –

ॐ निवृत्त्यै नमः आग्नेये,        ॐ प्रतिष्ठायै नमः नैऋत्ये,

ॐ विद्यायै नमः वायव्ये,        ॐ शान्त्यै नमः ऐशान्ये।

इसके बाद अष्टदलों में पूर्वादि दिशाओं के क्रम से बलाका आदि की पूजा करनी चाहिए । यथा –

१ – ॐ बलाकायै नमः पूर्वे

२ – ॐ विमलायै नमः आग्नेये

३ – ॐ कमलायै नमः दक्षिणे

४ – ॐ वनमालायै नमः नैऋत्ये

५ -ॐ विभीषायै नमः पश्चिमे

६ -ॐ मालिकायै नमः वायव्ये

७ – ॐ शाङ्गर्यै नमः उत्तरे

८ – ॐ वसुमालिकायै नम्ह ऐशान्ये

इसके बाद भूपुर के भीतर पूर्वादि दिशाओं के प्रदक्षिण क्रम से इन्द्रादि दश दिक्पालों को तथा बाहर उनके वज्रादि आयुधों की पूजा कर गन्ध धूपादि द्वारा व्सुधा और महाश्री की पूजा करे (फिर जप करे) ॥७६-७७॥

इत्थं सपरिवारे योऽधरालक्ष्म्यौ जपादिभिः ।

आराधयेत् ‍ स लभते महतीमन्नसम्पदम् ‍ ॥७८॥

इस प्रकार जो व्यक्ति अपने परिवार के साथ वसुधा एवं महालक्ष्मी का जप पूजनादि के द्वारा आराधना करता है वह पर्याप्त धनधान्य प्राप्त करता है ॥७८॥

आज्याक्तैश्च तिलैर्बिल्वसमिदि‌र्जुहुयाच्छ्रिये ।

साज्येन पयसेनापि फलैः पत्रैश्व बिल्वजैः ॥७९॥

श्री की प्राप्ति के लिए साधक घृत मिश्रित तिलों से बिल्व वृक्ष की समिधाओं से घी मिश्रित खीर से तथा बिल्वपत्र एवं बेल के गुद्‌द से हवन करे ॥७९॥

जपतामुं महामन्त्रं होमकार्यो दिने दिने ।

दशसंख्यः कुबेरस्य मनुनेध्मैर्वटोद्‌भवैः ॥८०॥

अब कुबेर के विषय में कहते हैं – कुबेर का मन्त जपते हुये प्रतिदिन कुबेर मन्त्र से वटवृक्ष की समिधाओं में दश आहुतियाँ प्रदान करे ॥८०॥

कुबेरमन्त्रोद्धारः ध्यानादि च

तारो वैश्रवणायाग्निप्रियान्तोऽष्टाक्षरो मनुः ॥८१॥

तार (ॐ), फिर ‘वैश्रवणाय’, फिर अन्त में अग्निप्रिया (स्वाहा) लगा देने पर आठ अक्षरों का कुबेर मन्त्र बनता हैं । यथा – ‘ॐ वैश्रवणाय स्वाहा’ ॥८१॥

होमकाले कुबेरं तु चिन्त्येदग्निमध्यगम् ‍ ।

धनपूर्णं स्वर्णकुम्भं तथा रत्नकरण्डकम् ‍ ॥८२॥

हस्ताभ्यां विप्लुतं खर्वकरपादं च तुन्दिलम् ‍ ।

वटाधस्ताद्रत्नपीठोपविष्टं सुस्मिताननम् ‍ ॥८३॥

एवं कृत हुतो मन्त्री लक्ष्म्या जयति वित्तपम् ‍ ।

होम करते समये अग्नि के मध्य में कुबेर का इस प्रकार ध्यान करे  –

अपने दोनों हाथो से धनपूर्ण स्वर्णकुम्भ तथा रत्न करण्डक (पात्र) लिए हुये उसे उडेल रहे है । जिनके हाथ एवं पैर छोटे छोटे हैं, तुन्दिल (मोटा) है जो वटवृक्ष के नीचे रत्नसिंहासन पर विराजमान हैं और प्रसन्नमुख हैं । इस प्रकार ध्यान पूर्वक होम करने से साधक कुबेर से भी अधिक संपत्तिशाली हो जाता है ॥८२-८४॥

प्रत्यङ्गिरामन्त्रः

अथ प्रत्यङ्गिरां वक्ष्ये परकृत्या विमर्दिनीम् ‍ ॥८४॥

अब शत्रुओं के द्वारा प्रयुक्त कृत्या (मारण के लिए किये गये प्रयोग विशेष) को नष्ट करने वाली प्रत्यङ्गिरा के विषय में कहता हूँ ॥८४॥

दीर्घेन्दुयुग्मरुद्‌ब्रह्मामांसलोहितसंस्थिताम् ‍ ।

यन्तिनोरय उच्चार्य क्रूरां कृत्यां समुच्चरेत् ‍ ॥८५॥

वधूमिव पदं पश्चात्तान् ‍ ब्रह्मान्तेसदीर्घणः ।

अपनिर्णुदम् ‍ इत्यन्ते प्रत्यक्कर्तारमृच्छतु ॥८६॥

तारमायापुटो मन्त्रः स्यात्सप्तत्रिंशदक्षरः ।

दीर्घेन्दुयुक् मरुत् (दीर्घ आ, इन्द्र अनुस्वार उससे युक्त मरुत्‍ य्‍) ‘यां;, फिर ब्रह्या (क) लोहित संस्थित मांस (ल्प),फिर ‘यन्ति, नोऽरयः’ यह पद, इसके बाद ‘क्रूरां कृत्यां’ उच्चारण करना चाहिए । फिर ‘वधूमिव’ यह पद, फिर ‘तां ब्रह्य’ उसके बाद सदीर्घ ण (णा), फिर ‘अपनिर्णुदम् के पश्चात ‘प्रत्यक्‌कर्त्तारमृच्छतु’ इस मन्त्र को तार (ॐ) माया (ह्रीं) से संपुटित करने पर सैंतीस अक्षरों का प्रत्यङ्गिरा मन्त्र निष्पन्न होता है ॥८५-८७॥

विमर्श – मन्त्र का स्वरुप इस प्रकार है –

‘ॐ ह्रीं यां कल्पयन्ति नोरयः क्रूरां कृत्यां वधूमिव तां ब्रह्यणा अपनिर्णुदम् प्रत्यक्कर्त्तारमृच्छतु ह्रीं ॐ’ ॥८५-८७॥

ब्रह्मनुष्टुप्मुनिश्छन्दो देवी प्रत्यङ्गिरेरिता ॥८७॥

बीजशक्तितारमाये कृत्या नाशे नियोजनम् ‍ ।

इस मन्त्र के ब्रह्या ऋषि हैं, अनुष्टुप् छन्द है, देवी प्रत्यङ्गिरा इसके देवता हैं,प्रणव बीज हैं, माया (ह्रीं) शक्ति है, पर कृत्या (शत्रु द्वारा प्रयुक्त मारण रुप विशेष अभिचार) के विनाश के लिए इसका विनियोग है ॥८७-८८॥

विमर्श – विनियोग – ‘अस्य श्रीप्रत्यङ्गिरामन्त्रस्य ब्रह्याऋषिरनुष्टुपछन्दः देवी प्रत्यङ्गिरा देवता ॐ बीजं ह्री शक्तिः परकृत्या निवारणे विनियोगः ’ ॥८७-८८॥

अष्टभीस्तोयनिधिभुर्युगैर्वेदैश्च पञ्चभि ॥८८॥

वसुर्भिमन्त्रजैर्वर्णैदीर्घयुक्पार्वतीपरैः ।

अब उक्त मन्त्र का न्यास कहते हैं –

मन्त्र के ८, तोयनिधि, ४, युग, ४,वेद ४ फिर ५ फिर वसु (८) अक्षरों से प्रारम्भ में प्रणव एवं अन्त में ६ दीर्घयुक्त पार्वती (माया ह्रीं) लगाकर जाति (हृदयाय नमः) आदि षडङ्गन्यास करन चाहिए ॥८८-८९॥

प्रणवाद्यैः षडङ्गानि कल्पयेज्जातिसंयुतैः ॥८९॥

शिरोभ्रूमध्यवक्त्रेषु कण्ठे बाहुद्वये हृदि ।

नाभावूर्वोर्जानुनोश्च पदानि पद्योर्न्यसेत् ‍ ॥९०॥

अब मन्त्र का पदन्यास कहते हैं –

साधक तार (ॐ)तथा माया से संपुटित मन्त्र के चौदह पदों का शिर, भ्रूमध्य, मुख, कण्ठ, दोनों बाहु, हृदय, नाभि, दोनो ऊरु, दोनों जानु तथा दोनों पैरों में इस प्रकार कुल चौदह स्थानों में क्रमपूर्वक उक्त न्यास करे ॥८९-९०॥

विमर्श – षडङ्गन्यास इस प्रकार करे । यथा –

ॐ यां कल्पयान्ति नोरयः ह्रां हृदयाय नमः,        ॐ क्रूरां कृत्यां ह्रीं शिरसे स्वाहा,

ॐ वधूमिव ह्रों शिखायै वषट्,                ॐ तां ब्रह्मणां ह्रैं कवचाय हुम्

ॐ अपनिर्णुदम्‍ः ह्रौं नेत्रत्रयाय वौषट्            ॐ प्रत्यक्कर्त्तारमृच्छतु ह्रः अस्त्राय फट् ।

मन्त्र का पदन्यास इस प्रकार करे –

ॐ ह्रीं यां ह्रीं शिरसि,            ॐ ह्रीं कल्पयन्ति ह्रीं भूमध्ये,

ॐ ह्रीं नो ह्रीं मुखे,            ॐ ह्रीं अरयः ह्रीं कण्ठे,

ॐ ह्रीं क्रूरां दक्षिण वाहौ,        ॐ ह्रीं कृत्यां ह्रीं वामबाहौ,

ॐ ह्रीं वधूम् ह्रीं हृदि,            ॐ ह्रीं एवं ह्रीं नाभौ,

ॐ ह्रीं तां ह्रीं दक्षिण उरौ,        ॐ ह्रीं ब्रह्मणा ह्रीं वाम उरौ,

ॐ ह्रीं अपनिर्णुदमः ह्रीं दक्षिणजानौ,    ॐ ह्रीं प्रत्यक् ह्रीं वामजानौ,

ॐ ह्रीं कर्त्तारम् ह्रीं दक्षिणपादे        ॐ ह्रीं ऋच्छतु ह्रीं वामपादे ॥८८-९०॥

चतुर्दशकमान्मन्त्री तारमायापुटान्यपि ॥

ध्यानप्रयोगादिकथनम् ‍

आशाम्बरा मुक्तकचा घनच्छवि र्ध्येया सचर्मासिकराहिभूषणा ।

दंष्ट्रोग्रवक्त्राग्रसिताहितान्वया प्रत्यङ्गिरा शङ्करतेजसेरिता ॥९१॥

अब महेश्वरी का ध्यान कहते हैं – जिस दिगम्बरा देवी के केश छितराये हैं, ऐसी मेघ के समान श्याम वर्ण वाली, हाथों में खड्‍ग चौर चर्म धारण किये, गले में सर्पो की माला धारण किये, भयानक दाँतो से अत्यन्त उग्रमुख वाली, शत्रु समूहों को कवलित करने वाली, शंकर के तेज से प्रदीप्त, प्रत्यङ्गिरा का ध्यान करना चाहिए ॥९१॥

ध्यायन्नेवं जपेन्मन्तमयुतं तद्‌दशांशतः ।

अपामार्गेध्मराज्याज्यहविर्भिर्जुहुयात्ततः ॥९२॥

इस प्रकार मन्त्र का ध्यान करते हुये दश हजार मन्त्रों का जप करे तथा अपामार्ग (चिचिहडी) की लकडी, घृत मिश्रित राजी (राई) से उनका दशांश होम करे ॥९२॥

अन्नपूर्णासने चार्चेदङ्गलोकेश्वरायुधः ।

एवं सिद्धमनुर्मन्त्री प्रयोगेषु शतं जपेत् ‍ ॥९३॥

जुहुयाच शतं दिक्षु दशमन्त्रैर्हरेद् ‍ बलिम् ‍ ।

अन्नपूर्णा पीठ पर अङ्गपूजा लोकपाल एवं उनके आयुधोम की पूजा करनी चाहिए । इस प्रकार सिद्ध मन्र का काम्य प्रयोगों में १०० बार जप करे । फिर उतनी ही संख्या में होम भी करे । तदनन्तर वक्ष्यमाण दश मन्त्रों से दशो दिशाओं में बलि देवे ।९३-९४॥

विमर्श – प्रयोगविधि – (९.९) श्लोक में बतलाई गई विधि से पीठ देवता एवं पीठशक्तियों की पूजा कर पीठ पर देवी पूजा करे । फिर उनकी अनुज्ञा लेकर इस प्रकार आवरण पूजा करे । कर्णिका में षडङ्गपूजा (द्र० ९. ९०९) फिर अन्नपूर्णा के षष्ठ एवं सप्तम आवरण में बतलाई गई विधि से इन्द्रादि लोकपालों एवं उनके, आयुधों की पूजा करे । (द्र० ९. २१) ॥९३-९४॥

बलिमन्त्रपूर्वकं बलिदानम् ‍

यो मे पूर्वगतः पाप्मा पापकेनेह कर्मणा ॥९४॥

इन्द्रस्तंदेव उच्चार्य राजान्ते भञ्जयत्विति ।

अञ्जयत्वितिचोच्चार्य मोहयत्विति चोच्चरेत् ‍ ॥९५॥

नाशयुतपदं पश्चान्मारयत्वित्यतो बलिम् ‍ ।

तस्मै प्रयच्छतु कृतंममान्ते च शिवं मम ॥९६॥

शान्तिः स्वस्त्ययं चास्तु बलिमन्त्र उदाहृतः ।

प्रणवाद्योऽषष्टयर्णस्तेनैव वितरेद् ‍ बलिम् ‍ ॥९७॥

पूर्व दिशा में ‘यो मे पूर्वगतः पाप्पा पापकेनेह कर्मणा इन्द्रस्तं देव’ इतना कहकर ‘राजो’ फिर ‘ अन्त्रयतु’ फिर ‘अञ्जयुत’ कह कर ‘मोहयतु’ ऐसा कहें, फिर ‘नाशयतु’ ‘मारयतु’ ‘बलिं तस्मै प्रयच्छतु’ इसके बाद ‘कृतं मम’, ‘शिवं मम’ फिर ‘शान्तिः स्वस्त्ययनं चास्तु’ कहने से बलि मन्त्र बन जाता है ॥ आदि में प्रणव लगाकर अडगठ अक्षरों से बलि प्रदान करना चाहिए ॥९४-९७॥

दिक्षुबलिदानप्रकारकथनम् ‍

अस्मिन्मन्त्रे पूर्वपदस्थानेग्न्यादिपदं वदेत् ‍ ।

अग्निरित्यादि च पठेदिन्द्र इत्यादिके स्थले ॥९८॥

एवं तु दशमन्त्राः स्युस्तैस्तत्तद् ‍ दिग्बलिं हरेत् ‍ ।

इत्थं कृते शत्रुकृता कृत्या क्षिप्रं विनश्यति ॥९९॥

तत्पश्चात् बलि देने के समय इस मन्त्र में पूर्व के स्थान में आग्नेये आदि दिशाओं का नाम बदलते रहना चाहिए, और इन्द्र के स्थान में अग्नि इत्यादि दिक्पालों के नाम भी बदलते रहना चाहिए । इस प्रकार करने से शत्रु द्वारा की गई ‘कृत्या’ शीघ्र नष्ट हो जाती है ॥९८-९९॥

विमर्श – बलि मन्त्र का स्वरुप इस प्रकार है -‘ॐ यो मे पूर्वगतः पाप्पापाकेनेह कर्मणा इन्द्रस्तं देवराजो भञ्जयतु, अञ्जयतु, मोहयतु, नाशयतु मारयतु बलिं तस्मै प्रयच्छतु कृतं मम शिवं मम शान्तिः स्वस्त्ययनं चास्तु’ यह अदसठ अक्षर का बलिदान मन्त्र है ।

दशो दिशाओं में बलिदान का प्रकार –

यो में पूर्वगतः पाप्मा पापकेनेह कर्मणा इन्द्रस्तं देवराजो भञ्जस्तु इत्यादि

यो में आग्नेयगतः पाप्मा पापकेनेह कर्मणा अग्निस्तं तेजोराजो भञ्जयतु इत्यादि

यो में दक्षिणगतः पाप्मा पापकेनेह कर्मणा यमस्तं प्रेतराजों भञ्जयतु इत्यादि

यो में में नैऋत्यगतः पाप्मा पापकेनेह कर्मणा निऋतिस्तं रक्षराजो भञ्जयतु इत्यादि

यो में पश्चिमगतः पाप्मा पापकेनेह कर्मणा वरुणस्तं जलराजो भञ्जयतु इत्यादि

यो में वायव्यगतः पाप्मा पापकेनेह कर्मणा वायुस्तं प्राणराजो भञ्जयतु इत्यादि

यो में उत्तरगतः पाप्मा पापकेनेह कर्मणा सोमस्तं नक्षत्रराजो भञयतु इत्यादि

यो में ईशानगतः पाप्मा पापकेनेह कर्मणा ईशानस्तं गणराजो भञ्जतु इत्यादि

यो में ऊर्ध्वगतः पाप्मा पापकेनेह कर्मणा ब्रह्या तं प्रजाराजो भञ्जतु इत्यादि

यो में अधोगतः पाप्मा पापकेनेह कर्मणा अनन्तस्त्म नागराजो भञ्जयतु इत्यादि ॥९८-९९॥

प्रत्यङ्गिरामालामन्त्रः

अथ प्रत्यगिरामालामन्त्रसिद्धिः प्रकीर्त्यते ।

तारो मायानभः कृष्णवाससेशतवर्णकाः ॥१००॥

सहस्रहिंसिनिपदं सहस्रवदने पुनः ।

महाबलेपदंपश्चादुच्चरेदपराजिते ॥१०१॥

प्रत्यङिगरे परसैन्यपरकर्मसदृग्जलम् ‍ ।

ध्वंसिनि परमन्त्रोत्सादिनि सर्वपदं ततः ॥१०२॥

भूतान्ते दमनिप्रान्ते सर्वदेवान् ‍ समुच्चरेत् ‍ ।

बन्धयुग्मं सर्वविद्याश्छियुक्क्षोभयद्वयम् ‍ ॥१०३॥

परयन्त्राणि संकीर्त्य स्फोटयद्वितयं पठेत् ‍ ।

सर्वान्ते श्रृंखला उक्त्वा त्रोटयद्वितयं ज्वलत् ‍ ॥१०४॥

ज्वालाजिहवेकरालान्ते वदने प्रत्यमुच्चरेत् ‍ ।

गिरे मायानमोन्तोऽयं शरसूर्याक्षरो मनुः ॥१०५॥

अब प्रत्यङ्गिरामाला मन्त्र का उद्धार बतलाते हैं –

तार (ॐ), माया (ह्रीं), फिर ‘नमः कृष्णवाससे शत वर्ण’ फिर ‘सहस्त्र हिंसिनि’ पद, फिर ‘सहस्त्रवदने’ पुनः ‘महाबले’, फिर ‘अपराजिते’, फिर ‘प्रत्यङ्गिरे’, फिर ‘परसैन्य परकर्म’ फिर सदृक्‍ जल (वि), फिर ‘ध्वंसिनि परमन्त्रोत्सादिनि सर्व’ पद, फिर उसके अन्त में’ ‘भूत’ पद, फिर ‘दमनि’, फिर ‘सर्वदेवान्‍’, फिर ‘बन्ध युग्म (बन्ध बन्ध),

फिर ‘सर्वविद्या’, फिर ‘छिन्धि’ युग्म (छिन्धि, छिन्धि), फिर ‘क्षोभय’ युग्म (क्षोभय क्षोभय), फिर ‘ परमन्त्राणि’ के बाद ‘स्फोटय’ युग्म्‍ (स्फोटय स्फोटय), फिर ‘सर्वश्रृङ्‌खलां’ के बाद ‘त्रोटय’ युग्म (त्रोटय त्रोटय), फिर ‘ज्वलज्ज्वाला जिहवे करालवदने प्रत्यङ्गिरे’ पिर माया (ह्रीं), तथा अन्त में ‘नमः लगाने से १२५ अक्षरों का प्रत्यंगिरा माला मन्त्र बनता है ॥१००-१०५॥

विमर्श – प्रत्यङ्गगिरा माला मन्त्र का स्वरुप इस प्रकार है –

‘ॐ ह्रीं नमः कृष्ण वाससे शतसहस्रहिंसिनि सहस्रवदने महाबले अपराजिते प्रत्यङ्गिरे परसैन्य परकर्मविध्वंसिनि परमन्त्रोत्सादिनि सर्वभूतदमनि सर्वदेवान् बन्ध बन्ध सर्वविद्याश्छिन्धि छिन्धि छिन्धि क्षोभय क्षोभय परयन्त्राणि स्फोटय स्फोटय सर्वश्रृङ्‌खलास्त्रोटय त्रोटय ज्वलज्ज्वालाजिहवे करालवदन प्रत्यङ्गिरे ह्रीं नमः’ ॥१००-१०५॥

ऋष्यादिकं पूर्वमुक्तं माययास्यात्षडङ्गकम् ‍ ।

ध्यायेत्प्रत्यंगिरा देवीं सर्वशत्रुविनाशिनीम् ‍ ॥१०६॥

इस मन्त्र के ऋषि छन्द तथा देवता पूर्व में कह आये हैं । इस मन्त्र के माया बीज से षडङ्गन्यास करना चाहिए । तदनन्तर समस्त शत्रुओं को नाश करने वाली प्रत्यङ्गिरा का ध्यान करना चाहिए ॥१०६॥

विमर्श – विनियोग –  ‘अस्य श्रीप्रत्यङ्गिरामन्त्रस्य ब्रह्याऋषिरनुष्टुप‌छन्दः प्रत्यङ्गिरादेवता ॐ बीजं ह्रीं शक्तिः ममाभीष्टसिद्ध्यर्थे (परकृत्यनिवारणे वा) जपे विनियोगः ।

प्रत्यङ्गन्यास – ॐ ह्रां हृदाय नमः,        ॐ ह्रीं शिरसे स्वाहा,

ॐ ह्रूं शिखायै वषट्,        ॐ ह्रैं कवचाय हुम्

ॐ ह्रौं नेत्रत्रयाय वौषट्,    ॐ ह्रः अस्त्राय फट् ॥१०६॥

ध्यानजपादिमन्त्रसिद्धिकथनम् ‍

सिंहारुढातिकृष्णं त्रिभुवनभयकृद्रूपमुग्रं वहन्ती ,

ज्वालावक्त्रावसनानववसनयुगं नीलमण्याभकान्तिः ।

शूलं खड्गं् वहन्ती निजकरयुगले भक्तरक्षैकदक्षा ,

सेयं प्रत्यङ्गिरा संक्षपयतु रिपुभिर्निर्मितं वोभिचारम् ‍ ॥१०७॥

सिंहारुढ, अत्यन्त कृष्णवर्णा, त्रिभुवन को भयभीत करने वाले रुपकों को धारण करने वाली, मुख से आग की ज्वाला उगलती हुई, नवीन दो वस्त्रों को धारण किये हुये, नीलमणि की आभा के समान कान्ति वाली, अपने दोनों हाथों में शूल तथा खड्‌ग धारण करने वाली, स्वभक्तों की रक्षा में अत्यन्त सावधान रहने वाली, ऐसी प्रत्यङ्गिरा देवी हमारे शत्रुओं के द्वारा किये गये अभिचारों को विनष्ट करे ॥१०७॥

अयुतं प्रजपेन्मन्त्रं सहस्रं तिजराजिकाः ।

हुत्वा सिद्धमनुं मन्त्रं प्रयोगेषु शत्म जपेत् ‍ ॥१०८॥

इस मन्त्र का दश हजार जप करना चाहिए तथा तिल एवं राई का होम एक हजार की संख्या में निष्पन्न कर मन्त्र सिद्ध करना चाहिए । फिर काम्य प्रयोगों में मात्र १०० की संख्या में जप करना चाहिए ॥१०८॥

ग्रहभूतादिकाविष्टं सिञ्चेन्मन्त्रं जपञ्जलैः ।

विनाशयेत्परकृतं यन्त्रमन्त्रादिकर्मणाम् ‍ ॥१०९॥

ग्रह बाधा, भूत बाधा आदि किसी प्रकार की बाधा होने पर इस मन्त्र का जप करते हुए से रोगी को अभिसिञ्चित करना चाहिए । इसी प्रकार शत्रुद्वारा यन्त्र मन्त्रादि द्वारा अभिचार भी विनिष्ट करना चाहिए ॥१०९॥

शत्रुनाशकमन्त्रः

मन्त्रं विरोधिशमकं प्रवक्ष्ये षोडशाक्षरम् ‍ ।

प्रणवः केशवः सेन्दुर्वर्गाद्याः पञ्चसेन्दवः ॥११०॥

वियच्चद्रान्वितं रान्तसद्योजातः सशांकयुक् ‍ ।

मायात्रिकर्णचन्द्राढ्यो भृगुः सर्गी सवर्मफट् ‌ ॥१११॥

स्वाहान्तः षोडशार्णोऽयं मन्त्रः शत्रुविनाशनः ।

अब षोडशाक्षर वाला शत्रुविनाशक मन्त्र बतलाता हूँ –

प्रणवं (ॐ), सेन्दु केशव (अं), सेन्दु पञ्चवर्गो के आदि अक्षर (कं चं टं तं पं ), चन्द्रान्वित वियत् (हं), सद्योजात (ओ), शशांक (अनुस्वार), उससे युक्त रान्त (ल), इस प्रकार (लों), माया (ह्रीं), कर्ण (उकार), चन्द्र (अनुस्वार), इससे युक्त अत्रि (द्) (अर्थात् दुं), सर्गी (विसर्गयुक्त), भृगु, (स), इस प्रकार (सः), वर्म (हुं) फिर ‘फट्‍’ इसके अन्त में अन्त में ‘स्वाहा’ लगाने से उक्त मन्त्र निष्पन्न होता है ॥११०-११२॥

विमर्श – मन्त्र का स्वरुप इस प्रकार – ‘ॐ अं कं चं टं तं पं हं लों ह्रीं दुं सः हुं फट् स्वाहा’ ॥११०-१११॥

विधाताष्टिऋषिश्छन्दः पर्वताब्ध्याग्निवायवः ॥११२॥

धराकाशौ महापूर्वा देवताः परिकीर्तिताः ।

हुंबीजं पार्वतीशक्तिर्मायया तु षडङ्गकम् ‍ ॥११३॥

इस मन्त्र के विधाता ऋषि है, अष्टि छन्द हैं १, २, ३, ४, ५, ६, ७, ८, ९, ११ महाअग्नि, महापर्वत, महासमुद्र, महावायु, महाधरा तथा महाकाश देवता कहे गये हैं, हुं बीज है, पार्वती (ह्रीं) शक्ति है । षड्‌दीर्घ सहित माय बीज से इसके षडङगन्यास का विधान कहा गया है ॥११२-११३॥

विमर्श – विनियोग –  ‘अस्य विरोधिशामकमन्त्रस्य ब्रह्याऋषिरष्टिर्च्छन्दः

महापार्वताब्ध्याग्निवायुधराकाश देवताः हुं बीज्म ह्रीं शक्तिः शत्रुशमनार्थ जपे विनियोगः ।

षडङ्गन्यास – ॐ हां हृदाय नमः,        ॐ ह्रीं शिरसे स्वाहा,

ॐ ह्रूं शिखायै वषट्,        ॐ ह्रैं कवचाय हुम् ,

ॐ ह्रौं नेत्रत्रयाय वौषट्,    ॐ हः अस्त्राय फट् ॥११२-११३॥

षडङ्गक्रमेण ध्यानवर्णनम् ‍

नानारत्नार्चिराक्रान्तं वृक्षाम्भः स्रवर्णैर्युतम् ‍ ।

व्याघ्रादिपशुभिर्व्याप्तं सानुयुक्तं गिरिं स्मरेत् ‍ ॥११४॥

अब उन छः देवताओं का ध्यान कहते हैं –

(१) अनेक रत्नों की प्रभा से आक्रान्त वृक्ष झरनों एवं व्याघ्रादि महाभयानक पशुओं से व्याप्त अनेक शिखर युक्त महापार्वत का ध्यान कराना चाहिए ॥११४॥

मत्स्यकूर्मादिबीजाढ्यं नवरत्नसमन्वितम् ‍ ।

घनच्छायं सकल्लोलकूपारं विचिन्तयेत् ‍ ॥११५॥

(२) मछली एवं कछा रुपी बीजों वाला, नव रत्न समन्वित, मेघ के समान कान्तिमान् कल्लोलों से व्याप्त महासमुद्र का स्मरण करना चाहिए ॥११५॥

ज्वालावतीसमाक्रान्त जगत्त्रितयमद्‌भुतम् ‍ ।

पीतवर्णं महावहिनं संस्मरेच्छत्रुशान्तये ॥११६॥

(३) अपने ज्वाला से तीनों लोकों को आक्रान्त करने वाले अद्‌भुत एवं पीतवर्ण वाले महाग्नि का शत्रुनाश के लिए स्मरण करना चाहिए ॥११६॥

धरासमुत्थरेण्वौघमलिनं रुद्धभूदिवम् ‍ ।

पवनं संस्मरेद्विश्वजीवनं प्राणरुपतः ॥११७॥

(४) पृथ्वी की उडाई गई धूलराशि से द्युलोक एवं भूलोक को मलिन एवं उनकी गति को अवरुद्ध करने वाले प्राण रुप से सारे विश्व को जीवन दान करने वाले महापवन का स्मरण करना चाहिए ॥११७॥

नदीपर्वतवृक्षादिफलिताग्रामसंकुला ।

आधारभूता जगतो ध्येया पृथ्वीह मन्त्रिणा ॥११८॥

(५) नदी, पर्वत, वृक्षादि, रुप दलों वाली, अनेक प्रकार ग्रामों से व्याप्त समस्त जगत् की आधारभूता महापृथ्वी तत्त्व का स्मरण करना चाहिए ॥११८॥

सूर्यादिग्रहनक्षत्रकालचक्रसमन्वितम् ‍ ।

निर्मलं गगनं ध्यायेत्प्राणिन्गमाश्रयप्रदम् ‍ ॥११९॥

(६) सूर्यादि ग्रहों, नक्षत्रों एवं कालचक्र से समन्वित, तथा सारे प्राणियों को अवकाश देने वाले निर्मल महाआकाश का ध्यान करना चाहिए ॥११९॥

एवं षड्‌देवता ध्यात्वा सहस्राणि तु षोडश ।

जपेन्मन्त्रं दशांशेन षड्‌द्रव्यैर्होममाचरेत् ‍ ॥१२०॥

इस प्रकार उक्त छः देवताओं का ध्यान कर सोलह हजार की संख्या में उक्त मन्त्र का जप करना चाहिए । तदनन्तर षड्‌द्रव्यों से दशांश होम करना चाहिए ॥१२०॥

व्रीह्यस्तन्दुलाआज्यं सर्षपाश्च यवास्तिलाः ।

एतैर्हुत्वा यथाभागं पीठे पूर्वोदिते यजेत् ‍ ॥१२१॥

१. धान, २. चावल. ३. घी, ४. सरसों, ५. जौ एवं ६. तिल – इन षड्‌द्रव्यों में प्रत्येक से अपने अपने भाग के अनुसार २६७, २६७ आहुतियाँ देकर पूर्वोक्त पीठ पर इनका पूजन करना चाहिए ॥१२१॥

अङ्गदिक्पालवज्राद्यैरेवं सिद्धो भवेन्मनुः ।

शत्रूपद्रवमापन्नो युञ्ज्यात्तन्नष्टये मनुम् ‍ ॥१२२॥

फिर अङ्गपूजा, दिक्पाल पूजा एवं वज्रादि आयुधों की पूजा करने पर इस मन्त्र की सिद्धि होती है । शत्रु के उपद्रवों से उद्विग्न व्यक्ति को शत्रुनाश के लिए इस मन्त्र का प्रयोग करना चाहिए ॥१२२॥

अस्य मन्त्रस्य प्रयोगकथनम् ‍

अकारं पर्वताकारं धावन्तं शत्रुसम्मुखम् ‍ ।

पतनोन्मुखमत्युग्रं प्राच्यां दिशि विचिन्तयेत् ‍ ॥१२३॥

अकार का ध्यान –  पर्वत के समान आकृति वाले शत्रु संमुख दौडते हुये एवं उस पर झपटते हुये अकार का पूर्वदिशा में ध्यान चाहिए ॥१२३॥

ककारं क्षुब्धकल्लोलं प्लाविताखिलभूतलम् ‍ ।

समुद्ररुपिणं भीमं प्रतीच्यां दिशि संस्मरेत् ‍ ॥१२४॥

समुद्र के समान आकृति वाले अपने तरङ्गों से सारे पृथ्वी मण्डल को बहाते हुये भयङ्ग्कर रुप धारी ककार का पश्चिम दिशा में स्मरण करना चाहिए ॥१२४॥

वर्णं तदग्रिमं ज्वालासंघव्याप्तभस्तलम् ‍ ।

याम्येरब्धजगद्‌दाहं स्मरेत्प्रलयपावकम् ‍ ॥१२५॥

अपने ज्वाला समूहों से आकाश मण्डल को व्याप्त करते हुए सारे जगत् को जलाने वाले प्रलयाग्नि के समान चक्रार का पृथ्वी रुप में एवं पञ्चम वर्ग के प्रथमाक्षर पकार का गगन रुप में जितेन्द्रिय साधक की ध्यान करना चाहिए ॥१२५॥

तृतीयवर्गप्रथमं प्रकम्पिजगत्त्रयम् ‍ ।

युगान्तपवनाकारमुत्तरस्या दिशि स्मरेत् ‍ ॥१२६॥

सारे जगत्‍ को प्रकम्पित करने वाले युगान्त कालीन पवन के समान आकृति वाले तृतीय वर्ग का प्रथमाक्षर टकार का उत्तर दिशा में ध्यान करना चाहिए ॥१२६॥

तुरीयपञ्चमाद्यार्णो पृथ्वीगगनरुपिणो ।

शत्रुवर्गं बाधमानौ चिन्तयेन्नोयतात्मवान् ‍ ॥१२७॥

शत्रुवर्ग को बाधित करने वाले चतुर्थ वर्ग के प्रथमाक्षर तकार का पृथ्वी रुप में एवं पञ्चम वर्ग के प्रथमाक्षर पकार का गगन रुप में जितेन्द्रिय साधक को ध्यान करना चाहिए ॥१२७॥

तदग्रिमं वर्णयुगं शत्रोर्निःश्वासपद्धतिम् ‍ ।

निरुन्धानं स्मरेन्मन्त्री विदधद्रिपुमाकुलम् ‍ ॥१२८॥

शत्रु की श्वास प्रणाली को अवरुद्ध कर उसे व्याकुल करते हुये आगे के अग्रिम दो वर्णो (हं लों) का ध्यान करना चाहिए ॥१२८॥

मायादिवर्णत्रिअयं शत्रोर्नेश्रुतीमुखम् ‍ ।

प्रत्येकं तु निरुन्धानं चिन्तयेत्साधकोत्तमः ॥१२९॥

वर्मसंक्षोभितं त्वस्त्रं रिपोराधारदेशतः ।

उत्थाप्य वहिन तद्‌देहं प्रदहन्समनुस्मरेत् ‍ ॥१३०॥

फिर श्रेष्ठ साधक को शत्रु के नेत्र, मुख एवं को अवरुद्ध करने वाले माया आदि तीन वर्णो का (ह्रीं दुं सः) ध्यान करना चाहिए । फिर वर्म (हुङ्कार) से संक्षोभित तथा अस्त्र (फट्)  से शत्रु को मूलाधार से उठा कर अग्नि में फेक कर उनके शरीर को जलाते हुये दो अक्षर हुं फट् का ध्यान करना चाहिए ॥१२९-१३०॥

एवं वर्णान् ‍ स्मरन्मन्त्रं जपेन्मन्त्रीसहस्रकम् ‍ ।

मण्डलत्रितयादर्वाङ् ‌ मारयत्येव विद्विषम् ‍ ॥१३१॥

इस प्रकार मन्त्र के सब वर्णो का आदि के ॐ कार तथा अन्त में स्वाहा इन तीन वर्णो को छोडकर (मात्र तेरह वर्णो का) ध्यान करने वाला मालिक एक हजार की संख्या में निरन्तर जप करे तो तीन मण्डलों (उन्चास दिन) के भीतर ही वह अपने शत्रु को मार सकता हैं ॥१३१॥

एवं यः कुरुते कर्मप्राणायामजपादिभिः ।

संशोधयित्वा स्वात्मानं स्वरक्षायै हरिं स्मरेत् ‍ ॥१३२॥

जिसे शत्रुमारण कर्म करना हो उस साधक को प्राणायाम तथा इष्टदेवता के मन्त्र के जप से नित्य आत्मशुद्धि कर लेनी चाहिए तथा अपनी रक्षा के लिए भगवान् विष्णु का स्मरण करते रहना चाहिए ॥१३२॥

॥ इति श्रीमन्महीधरविरचिते मन्त्रमहोदधावन्नपूर्णादि मन्त्रप्रकाशनं नाम नवमस्तरङ्गः ॥९॥

इति श्रीमन्महीधरविरचितायां मन्त्रमहोदधिव्याख्यायां नौकायामन्नपूर्णादिनिरुपणं नाम नवमस्तरङ्गः ॥९॥

इस प्रकार श्रीमन्महीधर विरचित मन्त्रमहोदधि के नवम तरङ्ग की महाकवि पं० रामकुबेर मालवीय के द्वितीय आत्मज डॉ सुधाकर मालवीय कृत ‘अरित्र’ हिन्दी व्याख्या पूर्ण हुई ॥९ ॥

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