मन्त्रमहोदधि तरङ्ग १८ || Mantra Mahodadhi Taranga 18

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मन्त्रमहोदधि तरङ्ग १८ में कालरात्रि के मन्त्र, नवार्णमन्त्र शतचण्डी और सहस्त्रचण्डी विधान का सविस्तार वर्णन किया गया है।

मन्त्रमहोदधि अष्टादशः तरङ्गः

मन्त्रमहोदधि – अष्टादश तरङ्ग

मंत्रमहोदधि तरंग १८     

मंत्रमहोदधि अट्ठारहवां तरंग    

मन्त्रमहोदधिः        

अथ अष्टादशः तरङ्गः

अरित्र

कालरात्रिमथो वक्ष्ये सपत्नगण सूदनीम् ।

कालरात्रिमन्त्रस्तद्विधिकथनं च

तारवाक्छक्तिकन्दर्परमाः कानेश्वरीति च ॥१॥

सर्वजनमनोवर्णा हरिसर्वमुखान्ततः ।

स्तम्भन्यन्ते सर्वराजवशंकरिपदं ततः ॥ २॥

सर्वदुष्टनिर्दलनि सर्वस्त्रीपुरुषार्णकाः ।

कर्षिणीति ततो बन्दीश्रृंखलास्त्रोटयद्वयम् ॥ ३॥

सर्वशत्रून् भञ्जयद्विद्वेष्टुन्निर्दलयद्वयम् ।

सर्वस्तम्भययुग्मं स्यान्मोहनास्त्रेण तत्परम् ॥ ४॥

द्वेषिणः पदमुच्चार्य तत उच्चाटयद्वयम् ।

सर्ववशंकुरुद्वन्द्वं स्वाहा देहि युगं पुनः॥ ५॥

सर्व च कालरात्रीति कामिनीति गणेश्वरी ।

नमोऽन्तेऽयं महाविद्या गुणरामधराक्षरा ॥ ६॥

अब शत्रुसमुदाय को नष्ट करने वाली कालरात्रि के मन्त्रों को कहता हूँ – तार (ॐ), वाक्‍ (ऐं), शक्ति (ह्रीं), कन्दर्प (क्लीं) तथा रमा (श्रीं), फिर सर्वदुष्टनिर्दलनि सर्वस्त्रीपुरुषा’, इतने वर्णो के बाद ‘कर्षिणि’ फिर ‘बन्दीश्रृंखलास्’ के बाद दो बार त्रोटय (त्रोटय त्रोटय), फिर ‘सर्वशत्रून’, के बाद दो बार ‘भञ्जय भञ्जय’, फिर ‘द्वेष्टुन’ के बाद दो बार निर्दल्य पद (निर्दलय निर्दलय), फिर ‘सर्व’ के बाद दो बार स्तम्भय (स्तम्भय स्तम्भय), फिर ‘मोहनास्त्रेण’ के बाद ‘द्वेषिणः’ पद का उच्चारण कर दो बार उच्चाटय (उच्चाटय उच्चाटय), फिर ‘सर्व वशं’ के बाद दो बार कुरु (कुरु कुरु), फिर ‘स्वाहा’, इसके बाद दो बार देहि पद (देहि देहि), फिर ‘सर्व कालरात्रि कामिनि’ एवं ‘गणेश्वरि’ के बाद अन्त में नमः जोडने से १३३ अक्षरों की महाविद्या निष्पन्न होती है ॥१-६॥

विमर्श – इस मन्त्र का स्वरुप इस प्रकार है – ॐ ऐं ह्रीं क्लीं श्रीं काहनेश्वरि सर्वजनमनोहरि, सर्वमुखस्तम्भिनि सर्वराजवशंकरि सर्वदुष्टनिर्दलनि, सर्वस्त्रीपुरुषाकर्षिणि बन्दीश्रृंखलास्त्रोटय त्रोटय सर्वशत्रून भञ्जय भञ्जय द्वेष्टृन् निर्दलय निर्दलय सर्वस्तम्भय स्तम्भय मोहनास्त्रेण द्वेषिणः उच्चाटय उच्चाटय सर्ववशं कुरु कुरु स्वाहा देहि देहि सर्वकालरात्रि कामिनि गणेश्वरि नमः ॥१-६॥

ऋषिर्दक्षोतिजगती छन्दोलर्कनिवासिनी ।

देवता कालरात्रिः स्यात् कालिकाबीजमीरितम् ॥ ७ ॥

मायाराज्ञीति शक्तिः स्यान्नियोगः स्वेष्टसिद्धये ।

पञ्चांगुलिषु ताराचं विन्यसेद् बीजपञ्चकम् ॥ ८॥

इस मन्त्र के दक्ष ऋषि, अतिजगती छन्द, अलर्कनिवासिनी कालरात्री देवता, कालिका (क्रीं) बीज तथा मायाराज्ञी (ह्रीं) शक्ति है तथा अपनी अभीष्टसिद्धि के लिए इस मन्त्र का उपयोग करना चाहिए ॥७-८॥

विमर्श – विनियोग – अस्य कालरात्रिमहाविद्यामन्त्रस्य दक्षऋषिरतिजगतीच्छन्दः अलर्कनिवासिनि कालरात्रिदेवता क्रीं बीजं मायाराज्ञीं ह्रीं शक्तिः आत्मनोऽभीष्टसिद्धयर्थे जपे विनियोगः ।

ऋष्यादिन्यासः – ॐ दक्षाय ऋषये नमः शिरसि, ॐ अतिजगतीच्छन्द से नमः मुखे, ॐ कालरात्रिदेवतायै नमः हृदिः क्रीं बीजाय नमः गुह्ये ॐ मायाराज्ञीशक्त्यै नमः पादयोः ॥७-९॥

हृदयं वेदनेत्राणैः शिरो बाणाक्षिवर्णकैः।

प्रोक्ता शिखैकविंशत्या वर्माष्टादशभिः स्मृतम् ॥ ९॥

षड्विंशत्यानेत्रमस्त्रं नन्दचन्द्राक्षरैर्मतम् ।

विधायैव षडङ्गानि ध्यायेद्विश्वविमोहिनीम् ॥ १०॥

पञ्चाङ्‌गुलियों में क्रमशः प्रणवादि पाँच बीजों का एक एक क्रम से न्यास करना चाहिए । फिर मन्त्र के २४ वर्णों का हृदय पर, उसके बाद के २५ वर्णों का हृदय पर, फिर बाद के २१ वर्णों का शिखा पर, उसके बाद के १० वर्णों का कवच पर, २६ वर्णों का नेत्र पर शेष १९ वर्णों का अस्त्र पर न्यास करना चाहिए । इस प्रकार न्यास कर लेने के बाद विश्वमाहिनी कालरात्रि महाविद्या का ध्यान करना चाहिए ॥८-१०॥

विमर्श – न्यास विधि – ॐ अगुष्ठाभ्यां नमः,        ऐं तर्जनीभ्यां नमः,

ह्रीं मध्यमाभ्यां नमः,        क्लीं अनामिकांभ्या नमः,        श्रीं कनिष्ठिकाभ्यां नमः

इस प्रकार पाँचों अंगुलियों पर ५ बीज मन्त्रों का न्यास कर हृदयादि षडङगन्यास करे । यथा –

ॐ ऐं ह्रीं क्लीं श्रीं काहनेश्वरि सर्वजनमनोहरि सर्वमुखस्तम्मिनि हृदयाय नमः,

सर्वराजवशंकरि सर्वदुष्टनिर्दलनि, सर्वस्त्रीपुरुषाकर्षिणि शिरसे स्वाहा,

बन्दीश्रृंखलास्त्रोटय त्रोटय सर्वशत्रून भञ्जय भञ्जय शिखायै वषट्,

द्वेष्टृन् निर्दलय निर्दलय सर्वस्तम्भयं स्तम्भय कवचाय हुम्,

मोहनास्त्रेण द्वेषिणः उच्चाटय उच्चाटय सर्वं वशं कुरु कुरु स्वाहा नेत्रत्रयाय वौषट,

देहि देहि सर्वकालरात्रि कामिनि गणेश्वरि नमः अस्त्राय फट् ॥८-१०॥

उद्यन्मार्तण्डकान्तिं विगलितकबरी कृष्णवस्त्रावृताङ्गी

दण्ड लिङ्ग कराब्जैर्वरमथ भुवनं सन्दधानां त्रिनेत्राम् ।

नानाकल्पौघभासां स्मितमुखकमलां सेवितां देवसंघै

र्मायां राज्ञी मनोभूशरविकलतनूमाश्रये कालरात्रिम् ॥ ११ ॥

अब मायाराज्ञि कालरात्रि का ध्यान कहते हैं – उदीयमान सूर्य के समान देदीप्यमान आभा वाली बिखरे हुये केशों वाली, काले वस्त्र से आवृत शरीर वाली, हाथों में क्रमशः दण्ड, लिङ्ग वर तथा भुवनों को धारण करने वाली त्रिनेत्रा, विविधाभारणभूषिता, प्रसन्नमुखकमल वाली, देवगणों से सुसेविता कामबाण से विकल शरीरा मायाराज्ञी कालरात्रि स्वरुपा महाविद्या का मैं ध्यान करता हूँ ॥११॥

अयुतं प्रजपेन्मन्त्रं दशांशं जुहुयात्तिलैः ।

पयोरुहैर्वा विप्रेन्द्रान् सन्तर्प्य श्रेय आप्नुयात् ॥ १२ ॥

इन मन्त्र का दश हजार जप करना चाहिए । तिलों से अथवा कमलों से दशांश होम कर श्रेष्ठ ब्राह्मणों को भोजनादि से संतुष्ट करना चाहिए । ऐसा करने से साधक श्रेय प्राप्त करता है ॥१२॥

तां यजेत्कालिकापीठे पूजार्थ यन्त्रमुच्यते ।

पूजायन्त्रप्रकारः आवरणदेवताश्च

बिन्दुत्रिकोणषट्कोणवृत्ताष्टदलवृत्तकम् ॥ १३॥

कलापत्रं पुनर्वृत्तं त्रिरेखं धरणीगृहम् ।

कालिका पीठ पर देवी का पूजन करना चाहिए । अब पूजा के लिये यन्त्र कहता हूँ –

बिन्दु, उसके बाद त्रिकोण, उसके बाद षट्‌कोण, फिर वृत्त, अष्टदल, तदनन्तर पुनः वृत्त, तत्पश्चात् षोडशदल, पुनः वृत्त और उसके बाद तीन रेखा, जिसमें चार द्वार जो ऐसे चतुष्कोण, को भूपुर से आवृत कर देना चाहिए ॥१३-१४॥

चतुरियुतं कृत्वा बिन्दौ देवीमथार्चयेत् ॥ १४ ॥

तद्यन्त्रं विलिखेद् भूर्जे क्षीरद्रोः फलकेऽपि वा ।

शान्तयेत्वष्टगन्धेन लेखिन्या चम्पकोत्थया ॥ १५ ॥

ऐसा यन्त्र लिखकर मध्य बिन्दु में देवी का पूजन करना चाहिए । यह यन्त्र भोजपत्र पर अथवा दूध वाले वृक्ष जैसे पीपल, पाकड गूलर या बरगद के पत्ते पर बनाना चाहिए । शान्तिक तथा पौष्टिक कर्म के लिये यन्त्र को अष्टगन्ध से तथा चम्पा की कलम द्वारा लिखना चहिए ॥१४-१५॥

कर्चूरागुरुकर्पूररोचनारक्तचन्दनम् ।

कुंकुम चन्दनं चापि कस्तूरीत्यष्टगन्धकम् ॥ १६ ॥

कर्चूर अगुरु, कपूर, गोरोचन, रक्त चन्दन, कुंकुम, श्वेत चन्दन और कस्तूरी यह अष्टगन्ध कहा गया है ॥१६॥

सिन्दूरहिंगुलाभ्यां च वश्याय विलिखेत्सुधीः ।

सारसोद्भवलेखिन्या स्तम्भने कोकिलच्छदैः॥ १७॥

हरितालहरिद्राभ्यां मारणे वायसच्छदैः ।

धत्तूरभानुनिर्गुण्डीखराश्वमहिषासृजा ॥ १८॥

वशीकरण के लिए सिन्दूर द्वारा हिंगुल (वनभण्टा) के कमल से लिखना चाहिए तथा स्तम्भन के लिये यह मन्त्र हरताल एवं हल्दी द्वारा कोयल के पंख से लिखना चाहिए । मारणकर्म, के लिये धत्तूर, आक और निर्गुण्डी (सिन्दुवार) के रस में गदहा, घोडा तथा महिष के रक्त को मिश्रित कर कौए के पंखों से लिखना चाहिए ॥१७-१८॥

विमर्श – पीठ पूजा – सर्वप्रथम १८. ११ में उल्लिखित कालरात्रि के स्वरुप का ध्यान कर मानसोपचार से उनका पूजन कर अर्घ्य स्थापित करे ।

फिर पीठ देवताओं का इस प्रकार पूजन करे । यथा – पीठमध्ये –

ॐ आधारशक्त्यै नमः        ॐ प्रकृत्यै नमः        ॐ कूर्माय नमः,

ॐ मणिद्वीपाय नमः,        ॐ पृथिव्यै नमः,        ॐ सुधाम्बुधये नमः,

ॐ श्मशानाय नमः,        ॐ चिन्तामणिगृहाय नमः,    ॐ श्मशानाय नमः,

ॐ पारिजाताय नमः,

तदनन्तर कर्णिका में – ॐ रत्नवेदिकायै नमः, चतुर्दिक्षु,

ॐ मुनिभ्यो नमः,        ॐ देवेभ्यो नमः,        ॐ शिवाभ्यो नमः,

ॐ शिवकर्णिकोपरि नमः,    ॐ मणिपीठय नमः ।

पुनः चतुष्कोण में और चतुर्दिक्षु में – ॐ धर्माय नमः, आग्नेये,

ॐ ज्ञानाय नमः नैऋत्ये        ॐ वैराग्याय नमः, वायव्ये,

ॐ ऐश्वर्याय नमः, ऐशान्ये,        ॐ अधर्माय नमः, पूर्वे,

ॐ अज्ञानाय नमः, दक्षिणे,        ॐ अवैराग्याय नमः, पश्चिमे,

ॐ अनैश्वर्याय नमः उत्तरे,

इसके बाद केसरों में पूर्वादि दिशाओं में तथा मध्य में जयादि शक्तियों की निम्न मन्त्रों से पूजा करनी चाहिए । यथा – ॐ जयायै नमः,

ॐ विजयायै नमः        ॐ अजितायै नमः        ॐ अपराजितायै नमः,

ॐ नित्यायै नमः        ॐ विलासिन्यै नमः         ॐ द्रोग्ध्र्यै नमः

ॐ अघोरायै नमः,        ॐ मङ्गलायै नमः ।

इसके बाद ‘ह्रीं कालिकायोगपीठात्मने नमः’ मन्त्र से आसन देकर मूल मन्त्र से मूर्ति की कल्पना कर ध्यान से के कर पुष्पाञ्जलि समर्पण पर्यन्त कालरात्रि की विधिवत् पूजाकर उनकी आज्ञा से आवरण पूजा प्रारम्भ करे ॥१३-१८॥

एवं विलिखिते यन्त्रे कुर्यादावरणार्चनम् ।

त्रिकोणे देवतास्तिस्रो वामावर्तेन पूजयेत् ॥ १९ ॥

सम्मोहिनी मोहिनी च तृतीयां च विमोहिनीम् ।

उक्त प्रकार से लिखित मन्त्र पर आवरण पूजा इस प्रकार करनी चाहिए । प्रथम त्रिकोण में सम्मोहिनी, मोहिनी और विमोहिनी इन ३ देवताओं की वामावर्त से पूजा करनी चाहिए ॥१९-२०॥

षट्सु कोणेषु वढ्यादिषडङ्गानि ततो यजेत् ॥ २० ॥

वृत्ते स्वराः समभ्यया॑ मातरोऽष्टौ वसुच्छदे ।

कादिक्षान्ता हलो वृत्ते उर्वश्याद्याः कलादले ॥ २१ ॥

उर्वशीमेनकारम्भाघृताचीमंजुघोषया ।

सहजन्यासुकेशौस्यादष्टमीतु तिलोत्तमा ॥ २२ ॥

गन्धर्वी सिद्धकन्या च किन्नरीनागकन्यका ।

विद्याधरीकिम्पुरुषायक्षिणीति पिशाचिका ॥ २३ ॥

फिर षट्‍कोण में आग्नेयादि कोणों के क्रम से षडङ्गन्यास वृत्त में अकारादि १६ स्वरों का तथा अष्टदल में ब्राह्यी आदि अष्टमातृकाओं का पूजन करना चाहिए । द्वितीय वृत्त में अकार से लेकर क्षकार पर्यन्त ३४ व्यञ्जनों का, पुनः षोडशदल में १. उर्वशी, २. मेनका, ३. रम्भा, ४. घृताची, ५. मञ्जुघोषा के साध ६ सहजनी, ७. सुकेशी और अष्टम ८. तिलोत्तमा, ९. गन्धर्वीए, १०. सिद्धकन्या, ११. किन्नरी, १२. नागकन्या, १३. विद्याधरी, १४. किंपुरुषो, १५. यक्षिणी और १६. पिशाचिका का पूजन करना चाहिए ॥२०-२३॥

पुनर्वृत्ते यजेन्मन्त्री देवतादशकं यथा ।

मन्त्रादिम पञ्चबीजं स्वस्वदेवतयायुतम् ॥ २४ ॥

पञ्चबाणान् स्वबीजाद्यानित्युक्त्वा दशदेवताः ।

फिर तृतीय वृत्त में ५ बीजों का अपने अपने देवताओं के साथ तथा अपने अपने बीजों के साथ पञ्चबाणों का इस प्रकार कुल १० देवताओं का पूजन करना चाहिए ॥२४-२५॥

भूगृहान्तः समभ्या अणिमाद्यष्टसिद्धयः ॥ २५॥

भूगृहस्य त्रिरेखासु सम्पूज्या नवदेवताः ।

इच्छाशक्तिः क्रियाशक्तिर्ज्ञानशक्तिरिति त्रयम् ॥ २६ ॥

आद्यरेखागतं पूज्यं द्वितीयायां शिवाजकाः ।

तृतीयायां तु रेखायां सत्त्वमुख्यं गुणत्रयम् ॥ २७ ॥

फिर भूपुर के भीतर अणिमादि अष्टसिद्धियों का तथा भूपुर की तीनों रेखाओं में ९ देवताओं का पूजन करना चाहिए । पहली रेखा में इच्छाशक्ति, किर्याशक्ति और ज्ञानशक्ति का, दूसरी रेखा में रुद्र, विष्णु और ब्रह्मदेव का तथा तीसरी रेखा में सत्त्व, रज एवं तमो गुण का पूजन करना चाहिए ॥२५-२७॥

पूर्वादिषु चतुर्कीर्षु गणेशं क्षेत्रपालकम् ।

बटुकं योगिनीश्चापि यजेदिन्द्रादिकानपि ॥ २८ ॥

एवं बाह्यार्चनं कृत्वा देवीपार्श्वगताः पुनः ।

देव्यो द्वादश सम्पूज्याः प्रतिदिकत्रितयं त्रयम् ॥ २९ ॥

फिर मन्त्र के पूर्वादि चारों दिशाओं में क्रमशः गणेश, क्षेत्रपाल, बटुक और योगिनियों का पूजन करना चाहिए । फिर इन्द्रादि दिक्पालों का भी पूजन करना चाहिए । इस रीति से ब्राह्य पूजा करने के पश्चात् देवी के पास चारों दिशाओ में तीन तीन के क्रम से १२ देवियों का पूजन करना चाहिए ॥२८-२९॥

मायाद्या कालरात्रिश्च तृतीया वटवासिनी ।

गणेश्वरी च कानाख्या व्यापिकालार्कवासिनी ॥ ३० ॥

मायाराज्ञी च मदनप्रिया स्यादशमी रतिः ।

लक्ष्मीःकानेश्वरी चेति देव्यो द्वादश कीर्तिताः ॥ ३१॥

नैवेद्यान्तार्चनं कृत्वा दद्यान्मद्यादिना बलिम् ।

एवं सम्पूजिता स्वेष्टं कालरात्रिः प्रयच्छति ॥ ३२॥

१. माया, २. कालरात्रि, ३. वटवासिनी, ४. गणेश्वरी, ५. काहना, ६. व्यापिका, ७. अलर्कवासिनी, ८. मायाराज्ञी, ९. मदनप्रिया, १०. रति, ११. लक्ष्मी एवं १२. काहनेश्वरी – ये १२ देवियाँ है । इन देवियों को नैवेद्य समर्पणान्त पूजन कर अन्त में मद्य आदि की बलि देनी चाहिए । इस रीति से पूजन करने पर कालरात्रि साधक को अभीष्ट फल देती है ॥३०-३२॥

विमर्श – आवरण पूजा विधि – सर्वप्रथम त्रिकोण में वामावर्त क्रम से सम्मोहिनी आदि का निम्नलिखित रीति से पूजन करना चाहिए । यथा –

ॐ सम्मोहिन्यै नमः,        ॐ मोहिन्यै नमः,        ॐ विमोहिन्यै नमः

फिर षट्‌कोण में आग्नेयादि कोणों के क्रम से निम्न मन्त्रों से षडङ्गपूजा करनी चाहिए  । यथा –

ॐ ऐं ह्रीं क्लीं श्रीं काहनेश्वरि सर्वजन मनोहरि सर्वमुखस्तभ्भिनि हृदयाय नमः,

सर्वराजवशंकरि सर्वदुष्टनिर्दलिनि सर्वस्त्रीपुरुषाकर्षिणि शिरसे स्वाहा,

बन्दी श्रृखंलास्त्रोटय त्रोटय सर्वशत्रून भञ्जय भञ्जय शिखायै वषट्,

द्वेष्टृन् निर्दलय निर्दलय सर्वस्तम्भयं स्तम्भय कवचाय हुम्,

मोहनास्त्रेण द्वेषिणः उच्चाटय उच्चाटय सर्व वशं कुरु कुरु स्वाहा नेत्रत्रयाय वौषट्

देहि देहि सर्व कालरात्रि कामिनि गणेश्वरि नमः अस्त्राय फट्

तत्पश्चात् वृत्त में १६ स्वरों का पूजन करना चाहिए । यथा –

ॐ अं नमः,    ॐ आं नमः,    ॐ इं नमः    ॐ ई नमः,

ॐ उं नमः,    ॐ ऊ नमः,    ॐ एं नमः    ॐ ऐं नमः,

ॐ ओं नमः,    ॐ औं नमः    ॐ अं नमः     ॐ अः नमः ।

फिर अष्टदल में ब्राह्यी आदि आठ अष्टमातृकाओं की नाममन्त्रों से पूर्वादि दलों के क्रम से पूजा करनी चाहिए । यथा –

ॐ ब्राह्ययै नमः,    ॐ माहेश्वर्यै नमः,    ॐ कौमार्यै नमः,

ॐ वैष्णव्यै नमः,    ॐ वाराह्यै नमः,    ॐ इन्द्राण्यै नमः,

ॐ चामुण्डायै नमः,    ॐ महालक्ष्म्यै नमः,

फिर द्वितीय वृत्त में कं नमः, खं नमः इत्यादि मन्त्रों से ककार से ले कर क्षकार पर्यन्त व्यञ्जनों का पूजन कर षोडशदल में उर्वशी आदि का निम्न मन्त्रों से पूजन करना चाहिए । यथा – ॐ उर्वश्यै नमः,’

ॐ मेनकायै नमः,    ॐ रम्भायै नमः,    ॐ घृताच्यै नमः,

ॐ मञ्जुघोषायै नमः,    ॐ सहजन्यायै नमः,    ॐ सुकेश्यै नमः,

ॐ त्रिलोत्तमायै नमः,    ॐ गन्धर्व्यै नमः,    ॐ सिद्धकान्यायै नमः,

ॐ किन्नर्यै नमः,    ॐ नागकन्यायै नमः,    ॐ विद्याधर्यै नमः,

ॐ किं पुरुषायै नमः,    ॐ यक्षिण्यै नमः,    ॐ पिशाचिकायै नमः,

इसके बाद तृतीय वृत्त में मूलमन्त्र के ५ बीजों में के एक एक बीज और उनके एक एक देवता का पूजन करना चाहिए । यथा – ॐ परमात्मने नमः,

ऐं सरस्वत्यै नमः,        ह्रीं गौर्यै नमः,        क्लीं कामायै नमः,

श्रीं रमायै नमः,        द्रां द्रावणबाणय नमः,    द्रीं क्षोभणबाणाय नमः,

क्लीं वशीकरणबाणाय नमः, ब्लूं आकर्षणबाणाय नमः, सः उन्मादन बाणाय नमः,

तत्पश्चात्‍ भूपुर के भीतर अणिमा आदि ८ सिद्धियों का पूजन करना चाहिए । यथा – ॐ अणिमायै नमः,        ॐ महिमायै नमः,

ॐ लघिमायै नमः,        ॐ गरिमायै नमः,        ॐ प्राप्त्यै नमः,

ॐ प्राकाम्यायै नमः,        ॐ ईशितायै नमः,        ॐ वशितायै नमः

तदनन्तर भूपुर के तीन रेखाओं में क्रमशः प्रथम रेखा से तीन रेखाओं पर तीन-तीन देवताओं का निम्न रीति से पूजन करना चाहिए । यथा –

आद्यरेखा – ॐ इच्छाशक्त्यै नमः, ॐ क्रियाशक्त्यै नमः, ॐ ज्ञानशक्त्यै नमः,

द्वितीयरेखा – ॐ रुद्राय नमः, ॐ विष्णवे नमः, ॐ ब्रह्मणे नमः,

तृतीयरेखा – ॐ सं सत्त्वाय नमः, ॐ रं रजसे नमः, ॐ तं तमसे नमः,

फिर पूर्व आदि चारों दिशाओं में क्रमशः गणेश, क्षेत्रपाल, बटुक एवं योगिनियों का पूजन करना चाहिए । यथा –

ॐ गं गणपतये नमः,        ॐ क्षं क्षेत्रपालाय नमः,

ॐ वं वटुकाय नमः,        ॐ यं योगिनीभ्यो नमः,

इसके बाद पूर्व आदि अपनी दिशाओं में सायुध इन्द्रादि का निम्नलिखित मन्त्रों से पूजन करना चाहिए । यथा –

ॐ लं इन्द्राय सायुधाय नमः,        ॐ रं अग्नये सायुधाय नमः,

ॐ मं यमाय सायुधाय नमः,        ॐ क्षं निऋतये सायुधाय नमः,

ॐ वं वरुणाय सायुधाय नमः        ॐ यं वायवे सायुधाय नमः,

ॐ सं सोमाय सायुधाय नमः        ॐ हं ईशानाय सायुधाय नमः,

ॐ आं ब्रह्मणे सायुधाय नमः        ॐ ह्रीं अनन्तयाय सायुधाय नमः

इस रीति से बाह्य पूजा समाप्त कर देवी के समीप पूर्वादि चारों दिशाओं में तीन तीन के क्रम से १२ देवियों का उनके नाम मन्त्रों से पूजन करना चाहिए । यथा –

पूर्वे – ॐ मायायै नमः,        ॐ कालरात्र्यै नमः    ॐ वटवासिन्यै नमः,

दक्षिण – ॐ गणेश्वर्यै नमः,    ॐ काहनायै नमः,    ॐ व्यापिकायै नमः,

पश्चिमे – ॐ अलर्कवासिन्यै नमः,    ॐ मायाराज्ञयै नमः,    ॐ मदनप्रियायै नमः,

उत्तरे – ॐ रत्यै नमः    ॐ लक्ष्म्यै नमः,    ॐ काहनेश्वर्यै नमः,

इस प्रकार आवरण पूजा के पश्चात् धूप, दीप, नैवेद्यापि से विधिवत् देवी का पूजन कर मद्यादि पदार्थो से उन्हें बलि देनी चाहिए । इस प्रकार के पूजन से कालरात्रि प्रसन्न होकर साधक को अभीष्ट फल देती है ॥१९-३२॥

वशीकरणांगत्वेन जलौकापूजनम्

शनिवारे तु सन्ध्यायां गच्छेद्रम्यं सरोवरम् ।

हरिद्राक्षतपुष्पैस्तन्मन्त्रेणानेन पूजयेत् ॥ ३३॥

तारो नमो जलौक़ायै द्वितयं सर्वतः परम् ।

जनं वशं कुरुद्वन्द्व हुमन्तो मनुरीरितः ॥ ३४॥

अब काम्यप्रयोग कहते है – सर्वप्रथम वशीकरण का प्रयोग साधक शनिवार के दिन सांयकाल किसी रमणीक सरोवर पर जावे । इसके बाद हल्दी, अक्षत एवं पुष्पों से तार (ॐ), फिर ‘नमो’ पद, फिर दो बार जलौकायै, फिर ‘सर्व’ पद के बाद ‘जनं वशं’ कह कर २ बार ‘कुरु कुरु’, फिर अन्त में हुं, अर्थात् – ‘ॐ नमो जलौकायै जलौकायै सर्वजनं वशं कुरु कुरु हुं’ इस मन्त्र से सरोवर का पूजन करे ॥३३-३४॥

गृहमागत्य गोत्रायां स्वप्याद्देवीं स्मरन्निशि ।

प्रातस्तत्रैव गत्वाथ जलौकाद्वितयं ततः ॥ ३५॥

गृहीत्वा तत्प्रशोष्याथ च्छायायां चूर्णयेत्पुनः ।

जलूका चूर्णयुक्तेन कृष्णकार्पाससूत्रतः ॥ ३६ ॥

वातं विधाय मुञ्चेत भाजने निर्मिते मृदा ।

कुलालचक्रोत्थितया तत्र तैलं पुनः क्षिपेत् ॥ ३७ ॥

तैलं यन्त्रात्समानीतं भ्रमतो निर्मलं शुचि ।

वारस्त्रीसदनाद् वह्निमानीय ज्वालयेत्तु तम् ॥ ३८ ॥

दारुभिः कोकिलाक्षस्य प्रकुर्यात्तत्र दीपकम् ।

फिर घर जा कर रात्रि में देवी का स्मरण करते हुये सो जावे । पुनः प्रातः उसी सरोवर पर जा करे वहाँ से २ जलौका (जोंक) ला कर छाया में सुखा कर उसका चूरा बना लें । इस चूरे का काले कपास की रुई में मिलाकर, बत्ती बना कर, कुह्यार के चाक पर से लाई गई मिट्टी का दीप बनाकर, उसमें वह बत्ती डाल देवे । फिर चलते हुये कोल्हू से निर्मल एवं शुद्ध तेल लाकर उसमें डाल देवे । तत्पश्चात् (वारस्त्री) के घर से अग्नि लाकर कुचिला की लकडी जलाकर उसी से दीपक को प्रज्वलित करे ॥३५-३९॥

वह्नःपुरद्वयं क्षोणी पुरयन्त्रे निधापनम् ॥ ३९ ॥

निशारसेन रचिते मध्ये लाजासमन्विते ।

कालरात्रिं ततो दीपे समावाह्य प्रपूजयेत् ॥ ४० ॥

युक्तामावरणैः पश्चान्नवीनं खर्परं न्यसेत् ।

दीपोत्थपात्रपतितमादद्यात् कज्जलं सुधीः ॥ ४१॥

पश्चिमाभिमुखो मन्त्री कज्जलं तत्तु मन्त्रयेत् ।

वक्ष्यमाणेन मनुना शतत्रितय सम्मितम् ॥ ४२ ॥

फिर हल्दी के रस से त्रिकोण षट्‌कोण एवं भूपुर से बने यन्त्र पर बीच में लाज रखकर उस दीपक को स्थापित करे देना चाहिए । ऐसा कर लेने के बाद उसी दीपक पर कालरात्रि का आवाहन कर आवरण सहित उनकी पूजा करे। फिर दीपक पर नवीन खप्पर रखकर दीपक की ज्योति से उत्पन्न काजल ले कर साधक पश्चिमाभिमुकिह बैठकर तीन सौ बार उक्त वक्ष्यमाण मन्त्र द्वारा उस काजल को अभिमन्त्रित करे ॥३९-४२॥

तारो वाङ्मदनो मायारमाभूमिर्बलूं हसौः ।

नमः काळेश्वरि पदं सर्वान् मोहय मोहय ॥ ४३ ॥

कृष्णेऽन्ते कृष्णवर्णे च कृष्णाम्बरसमन्विते ।

सर्वानाकर्षयद्वन्द्वं शीघ्रं वशं कुरुद्वयम् ॥ ४४ ॥

वाग्भवागिरिजाकामश्रीबीजान्तो महामनु: ।

वसुसायकवर्णोऽयमञ्जनस्याभिमन्त्रणे ॥ ४५ ॥

अब अञ्जनाभिमन्त्रण मन्त्र कहते हैं –

तार (ॐ), वाग् (ऐं), मदन (क्लीं), माया (ह्रीं), रमा (श्रीं), भूमि (ग्लौं), फिर ‘ब्लूं ह्सोः नमः’ काहनेश्वरि के बाद ‘सर्वान्मोहय मोहय कृष्ण’, इसके बाद ‘कृष्णवर्णे’, फिर ‘कृष्णाम्बरसमन्विते सर्वानाकर्षय आकर्षय’, फिर ‘शीघ्रं वशं’ तथा २ बार कुरु कुरु, फिर वाग् (ऐं), गिरिजा (ह्रीं), काम (क्लीं) एवं उसके अन्त में श्री बीज (श्रीं) लगाने से ५८ अक्षरों का अञ्जनाभिमन्त्रण का महामन्त्र बन जाता है ॥४३-४५॥

विमर्श – इस मन्त्र का स्वरुप इस प्रकार है – ॐ ऐं क्लीं ह्रीं श्रीं ग्लौं ब्लूं ह्सौः नमः काहनेश्वरि सर्वान्मोहय मोहय कृष्णे कृष्णवर्णे कृष्णाम्बरसमन्विते सर्वानाकर्षय आकर्षय शीघ्रं वशं कुरु कुरु ऐं ह्रीं क्लीं श्रीं ॥४३-४५॥

दीपादात्मनि संयोज्य देवतामञ्जनं पुनः ।

भौमवारे समभ्यर्च्य नवनीतेन मर्दयेत् ॥ ४६॥

मूलेनाऽष्टोत्तरशतं पुन:मं समाचरेत् ।

मधूककुसुमैः साष्टशतं वह्नौ सुसंस्कृते ॥ ४७॥

कुमारी बटुकं नारी भोजयेन्मधुरान्वितम् ।

तेनाञ्जनेन रचितं तिलको मन्त्रिसत्तमः ॥ ४८ ॥

दर्शनादेव वशयेन्नरनारीनरेश्वरान् ।

दुग्धेनादौ प्रदत्तं तन्नराणां दशकारकम् ॥ ४९॥

इसके पश्चात् दीपक से दीप देवता को अपनी आत्मा में स्थापित कर, मङ्गलवार के दिन पुनः देवी एवं अञ्जन का पूजन करे अञ्जन को मक्खन से मर्दित करना चाहिए । तदनन्तर सुसंस्कृत अग्नि में मूल मन्त्र से १०८ आहुती, फिर मूल मन्त्र से महुआ के फूलों से एक सौ आठ आहुतियों द्वारा होम कर कुमारी, वटुक एवं स्त्रियों को मिष्ठान्न का भोजन कराना चाहिए ॥४६-४९॥

इस प्रकार निष्पन्न हुये अञ्जन का तिलक लगाकर साधक अपने दुष्टिपात मात्र से नर, नारी किं बहुना राजा को भी वशीभूत कर लेता है । दूध में मिलाकर पिलाने से पीने वाला पुरुष वशीभूत हो जाता है । किं बहुना ऐसा साधक जिसका स्पर्श करता है वह पुरुष सदैव उसका दास बना रहता है ॥४८-५०॥

तेन स्पृष्टो नरो नूनं दासः स्प्रष्टुर्भवेत्सदा ।

वशीकरणमाख्यातं स्तम्भनं प्रोच्यतेऽधुना ॥ ५० ॥

स्तम्भनकथनं मन्त्रश्च

हरिद्रारञ्जिते वस्त्रे लिखेद्यन्त्रमिदं शुभम् ।

निशागोरोचनाकुष्ठाजनैर्गोमूत्रमर्दितैः ॥ ५१॥

लिखेदष्टदलं पद्म रिपुनामाढ्यकर्णिकम् ।

दलेषु विलिखेत्तारद्वयं भूबीजयुग्मकम् ॥ ५२ ॥

चटद्वयं ततो यन्त्रं पीतसूत्रेण वेष्टयेत् ।

यहाँ तक वशीकरण की विधि कही गई । अब स्तम्भनमन्त्र कहा जा रहा है – हल्दी, गोरोचन कूट एवं तगर को गोमूत्र में पीस कर उससे हल्दी में रंगे वस्त्र पर अष्टदल निर्माण करना चाहिए । फिर उसकी कर्णिका में शत्रु का नाम (अमुकं स्तम्भय) तथा दलों में २ बार प्रणव तथा भूबीज (ग्लौं) दो बार और चार दलों में दो बार ‘चट’ शब्द लिखना चाहिए । फिर उस मन्त्र को पीले वस्त्र से वेष्टित करना चाहिए ॥५०-५३॥

कोकिलाख्यतरोः सप्तकण्टकैः परिकीलितम् ॥ ५३॥

भानुवृक्षदलैः सम्यग्वेष्टितं निःक्षिपेत् पुनः ।

वल्मीकरन्धे मेषस्य मूत्रेणोपरि पूरयेत् ॥ ५४॥

अश्मानं रन्ध्रवदने निधायाश्मस्थितः सुधीः ।

सहस्रं प्रजपेन्मन्त्रं निशाचरदिशामुखः ॥ ५५ ॥

निशया निर्मितैरक्षैः समन्त्रः प्रोच्यतेऽधुना ।

उसके बाद कुचिला की लकडी की सात कीलों से उसे विद्धकर आक के पत्ते में लपेट कर, उस यन्त्र को वल्मीक (बाँबी) में रखकर, उस बाँबी को भेंडे के मूत्र से भर देना चाहिए । फिर बाँबी के ऊपर पत्थर रखकर उस पर बैठकर साधक नैऋत्य कोण की ओर मुख कर हरिद्रा से निर्मित माला द्वारा वक्ष्यमाण मन्त्र का एक हजार की संख्या में जप करे ॥५३-५६॥

प्रणवो गगनक्षोण्यौ चन्द्रदीर्घत्रयान्वितौ ॥ ५६ ॥

कामाक्षिमायावर्णोन्ते रूपिणीतिपदं ततः ।

सर्वान्ते च मनोहारिण्यन्ते स्तम्भययुग्मकम् ॥ ५७॥

रोधयद्वितयं पश्चान्मोहयद्वितयं पुनः ।

दीर्घत्रयाढ्यकामस्य बीज कामोऽन्तिमो भगी ॥ ५८ ॥

कालेश्वरि ततो वर्मत्रयं पञ्चाशदक्षरः ।

प्रोक्तो मन्त्रः प्रजप्तेस्मिञ्छत्रूणां स्तम्भनं भवेत् ॥ ५९ ॥

अब जप का मन्त्र कहते हैं – प्रणव (ॐ), चन्द्र एवं दीर्घत्रय सहित गगन एवं क्षोणी (ह्रां ह्रीं ह्रूं), फिर ‘कामाक्षिमाया’ एवं ‘रुपिणि’ पद के बाद ‘सर्व एवं ‘मनोहारिणि’ पद, फिर दो बार ‘स्तम्भय’, फिर दो बार ‘रोधय’, फिर दो बार ‘मोहय’, फिर दीर्घत्रय सहित कामबीज (क्लां क्लीं क्लूं), फिर ‘कामा’ पद, फिर भगी, अन्तिम (क्षे), फिर काहनेश्वरि, तदनन्तर अन्त में वर्मत्रय (हुं हुं हुं) लगाने से ५० अक्षरों का (स्तम्भक) जप मन्त्र बनता है । इस मन्त्र का उपर्युक्त संख्या में जप करने से शत्रु का स्तम्भन होता है ॥५६-५९॥

विमर्श – इस मन्त्र का स्वरुप इस प्रकार है – ‘ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं कामाक्षि मायारुपिणि सर्वमनोहारिणि स्तम्भय स्तम्भय रोधय रोधय मोहय मोहय क्लां क्लीं क्लूं कामाक्षे काहनेश्वरि हुं हुं हुम्” ॥५६-५९॥

मोहनं तस्य मन्त्रश्च

रवौ हरिद्रामानीय पिष्ट्वा दुग्धेन योषितः ।

तद्रसेन लिखेद् भूर्जे वृत्तमन्तः स्मरान्वितम् ॥ ६०॥

तवृत्तं वेष्टयेत्कामबीजैर्दशभिरादरात् ।

पुनर्वृत्तं प्रकल्प्याथ वेष्टयेदर्कमन्मथैः ॥ ६१ ॥

विरच्याथ पुनर्वृतं वेष्टयेत्षोडशस्मरैः ।

तस्योपरिष्टात्षट्कोणं कोणेषु मदनान्वितम् ॥ ६२ ॥

वाग्बीजमध्ये तत्सर्व यन्त्रं मोहनकारकम् ।

अब मोहन का विधान कहते हैं – रविवार के दिन हल्दी ला कर उसे स्त्री के दूध में पीसकर बने रस से भोजपत्र पर के वृत्त बनाकर उसमें कामबीज लिखना चाहिए । पुनः उस वृत्त को १० कामबीजों से वेष्टित करना चाहिए । इसके बाद उसके ऊपर एक वृत्त बनाकर उसे १२ कामबीज (क्लीं) से वेष्टित करना चाहिए । फिर उसके ऊपर एक वृत्त और बना कर उसे सोलह कामबीजों से वेष्टित करना चाहिए । पुनः उसके ऊपर षट्‍कोण लिखकर उसके कोणों में काम बीज (क्लीं) लिखना चाहिए । फिर इस संपूर्ण यन्त्र को वाग्बीज (ऐं) के मध्य में करने से वह यन्त्र मोहन करने वाला हो जाता है ॥६०-६३॥

उपविश्याथ तद्यन्त्रे दशवणं मनुं जपेत् ॥ ६३ ॥

डेन्तः कामः कामबीजं कामिन्यै कामसम्पुटः ।

ताराद्यो दशवर्णोऽयं मनुलॊकविमोहनः ॥ ६४ ॥

पञ्चाहं प्रजपेन्मन्त्रं प्रत्यहं क्रुद्धमानसः ।

तद्दशांशं प्रजुहुयात्तिलैराज्यपरिप्लुतैः ॥ ६५ ॥

होमोत्थभस्मना कुर्वस्तिलकं नरसत्तमः ।

मोहयेदखिलं विश्वं तद्यन्त्रस्यापि धारणात् ॥६६ ॥

इसके बाद उस यन्त्र पर बैठकर क्रुद्ध मन से ५ दिन पर्यन्त सह्स्त्र-सह्स्त्र की संख्या में दशाक्षर मन्त्र का जप करे । चतुर्थ्यन्त काम (कामाय) फिर कामबीज (क्लीं) तदनन्तर काम सम्पुटित ‘कामिन्यै’ पद और प्रारम्भ में तार (ॐ) अर्थात् – ॐ कामाय क्लीं क्लीं कामिन्यै क्लीं’ यह जगत् को मोहित करने वाला दशाक्षर मन्त्र बनता है ।

तदनन्तर घृत मिश्रित तिलों से दशांश हवन करना चाहिए । इस प्रकार लिये गये भस्म का तिलक लगाकर या उस यन्त्र को धारण कर साधक सारे विश्व को मोहित कर लेता है ॥६३-६६॥

आकर्षणं तद्विधिकथनम्

उक्त मोहनमाकर्ष वक्ष्ये कृष्णाष्टमीदिने ।

भूते वा भूमिजन्मार्कयुक्ते प्रातर्जलान्तरे ॥ ६७ ॥

नाभिदघ्ने स्थितो मूलं सहस्रं सशतं जपेत् ।

ततो गृह समागत्य तैलाभ्यक्त कलेवरः ॥ ६८ ॥

पीठादावजनैः कृत्वा स्त्र्याकारं वा नराकृतिम् ।

इष्ट्वा लज्जावतीपत्रैः प्रोक्षेत्तन्मूलजै रसैः ॥ ६९ ॥

यहां तक मोहन का विधान कहा गया । अब आकर्षण का विधान कहते हैं –

कृष्णपक्ष की अष्टमी या चतुर्दशी को मङ्गल या रविवार का दिन होने पर प्रातः नाभिपर्यन्त जल में खडे होकर मूलमन्त्र का ११ सौ जप करना चाहिये । फिर घर आ कर शरीर में तेल लगाकर पीठ पर अञ्जन से स्त्री की आकृति अथवा पुरुष की आकृति बनाकर उसकी लज्जावती के पत्तों से पूजा कर उसकी जड के रस से उस आकृति का प्रोक्षण करना चाहिए ॥६७-६९॥

तदने प्रजपेच्चत्वारिंशदक्षरकं मनुम् ।

तारो नमः कालिकायै सर्वाकर्षपदं ततः ॥ ७० ॥

रतिवायू भौतिकस्थावमुकीमिति वर्णतः ।

आकर्षयद्वयं शीघ्रमानयद्वितयं ततः ॥ ७१ ॥

पाशोमायांकुश भद्रकाल्यै हृदयमन्ततः ।

चत्वारिंशल्लिपिमन्त्रः प्रोक्त आकर्षणक्षमः ॥ ७२ ॥

फिर उसके आगे बैठकर वक्ष्यमाण ४४ अक्षरों वाले इस मन्त्र का जप करना चाहिए –

तार (ॐ), फिर ‘नमः कालिकायै सर्वोत्कर्ष’, उसके आगे भौतिकस्थ रति एवं वायु (ण्यै), फिर अम्रकीं, दो बार आकर्षय, उसके बाद पुनः दो बार शीघ्रमानय, फिर पाश (आं), माया (ह्रीं), अंकुश (क्रों), ‘भद्रकाल्यै’ पद तथा अन्त में हृद (नमः) जोड देने से ४४ अक्षरों का आकर्षण मन्त्र निष्पन्न होता है ॥७०-७२॥

विमर्श – आकर्षण मन्त्र का स्वरुप – ॐ नमः कालिकायै सर्वोकर्षण्यै अमुकीं अमुकं साध्य (स्त्री या पुरुष के नाम में द्वितीयान्त) आकर्षय आकर्षय शीघ्रमानय शीघ्रमानय आं ह्रीं क्रों भद्रकाल्यै नमः ॥७०-७२॥

शतं षष्ट्याधिकं जप्त्वा लोहितैः करवीरजैः।

पञ्चाशत्प्रभितैर्मन्त्री पूजयेल्लिखिताकृतिम् ॥ ७३॥

मातृकावर्णमेकैकं तन्नामाकर्षयद्वयम् ।

नम इत्यभि सञ्जप्य पुष्पमेकैकमर्पयेत् ॥ ७४ ॥

इस मन्त्र का एक सौ साठ बार जप कर साधक ५० लाल कनेर के पुष्पों से पूर्वलिखित आकृति का पूजन करे । फिर वर्णमाला के एक-एक अक्षर का उच्चारण करते हुये साध्य का द्वितीयान्त नाम फिर २ बार ‘आकर्षय’ शब्द तथा अन्त में उसके आगे ‘नमः’ जोड कर बने मन्त्रों से एक एक पुष्प चढाना चाहिए ॥७३-७४॥

विमर्श – पुष्प चढाने का मन्त्र – ॐ अं अमुकीं अमुकं वा (साध्य स्त्री या पुरुष का द्वितीयान्त नाम) आकर्षय आकर्षय नमः ॐ आं अमुकीं अमुकं वा आकर्षय आकर्षय नमः इत्यादि ॥७३-७४॥

धूपदीपनिवेद्यानि कृत्वा होम समाचरेत् ।

चणकैराज्यसम्मिभैराकर्षमनुना शतम् ॥ ७५ ॥

कृष्णकार्पाससूत्रस्य कुमारीनिर्मितस्य च ।

गुणं देहमितं कृत्वा अष्टाविंशति तन्तुभिः॥ ७६ ॥

आकर्षमनुना दद्याद् ग्रन्थीनष्टोत्तरं शतम् ।

तद्दोरके धृते शीघ्रमायाति स्त्रीनरोपि वा ॥ ७७ ॥

त्रिराबाद ग्राममध्यस्थोन्यदेश्यो नवरात्रतः ।

उक्तमाकर्षणमिदमुच्चाटनमथोच्यते ॥ ७८ ॥

उच्चाटनमन्त्रस्तद्विधिकथनं च

शून्यागारे चतुर्दश्यां कृष्णायां कुक्कुटासनः ।

फिर धूप, दीप, नैवेद्यादि से उस आकृति का पूजन कर आकर्षण मन्त्र से घी मिश्रित चनों की १०० आहुतियाँ प्रदान करनी चाहिए । तत्पश्चात् कुमारी द्वारा काते गये काले सूतों के २८ धागे जिसमें एक एक अपने शरीर की लम्बाई के तुल्य हो उसमें आकर्षण मन्त्र से १०८ ग्रन्थि लगनी चाहिए । इस प्रकार के निर्मित्त गण्डे को धारण करने से अपने गाँव या नगर में रहने वाली स्त्री अथवा पुरुष ३ दिन के भीतर अन्यत्र रहने वाले स्त्री या पुरुष ९ दिन के भीतर शीघ्र आ जाते है ॥७५-७९॥

यमाशावदनो मुक्तकचो नीलाम्बरावृतः ॥ ७९ ॥

ग्रन्थिसंयुतया मौंज्या रज्ज्वा मन्त्रमिमं जपेत् ।

सहस्रद्वयसंख्यातं शबर्योदेवता स्मरने ॥ ८० ॥

यहाँ तक आकर्षण प्रयोग कहा गया । अब उच्चाटन की विधि कहता हूँ –

कृष्णपक्ष की चतुर्दशी के दिन किसी निर्जन मकान में दक्षिण की ओर मुख कर शिखा खोले, नीला वस्त्र पहन कर साधक कुक्कुटासन से बैठे । फिर शबरी देवता का स्मरण कर ग्रन्थियुक्त मूञ्च की रस्सी की माला से वक्ष्यमाण मन्त्र का दो हजार जप करे ॥७९-८०॥

तारो भूधरभृग्वर्कसम्वर्ताः क्रिययान्विताः।

प्रत्येक दीपिकाचन्द्रयुक्ता बीजचतुष्टयम् ॥ ८१॥

कालरात्रिमहाध्वांक्षिपदान्तेऽमुकमुच्चरेत् ।

आशूच्चाटय युग्मं तु छिन्धि भिन्धि शुचिप्रिया ॥ ८२ ॥

प्रासादबीजं कामाक्षिसृण्यन्तो मनुरीरितः ।

षट्त्रिंशद्वर्णसंयुक्तः शीघ्रमुच्चाटको रिपोः ॥ ८३॥

तार (ॐ), फिर क्रमशः भूधर (व), भृगु (स), अर्क (मः) संवर्त (क्ष), इन चारों को प्रत्येक से क्रिया (लकार) से संयुक्त, कर, फिर दीपिका (ऊकार) और चन्द्र (बिन्दु) से संयुक्त, कर निष्पन्न ४ बीजाक्षरों (ब्लूं स्लूं म्लूं क्षूं) के बाद ‘कालरात्रि महाध्वांक्षि’ पद के बाद, अमुकं (साध्य नाम के आगे द्वितीयान्त) फिर दो बार ‘आशूच्चाटय’ पद, फिर दो बार छिन्धि, फिर भिन्धि, तदनन्तर शुचिप्रिया (स्वाहा), फिर प्रसादबीज (हौं), फिर ‘कामाक्षि’ पद इसके अन्त में सृणि (क्रों) लगाने से ३६ अक्षरों का मन्त्र निष्पन्न होता है जो शीघ्र ही शत्रुओं का उच्चाटन कर देता है ॥८१-८३॥

विमर्श – मन्त्र का स्वरुप – ॐ ब्लूं स्लूं म्लूं क्ष्लूं कालरात्रि महाध्वांक्षि अमुक-माशूच्चाटय आशूच्चाटय छिन्धि, छिन्धि भिन्धि स्वाहा हीं कामाक्षी क्रों ॥८१-८३॥

जपान्ते तद्दशांशेन सर्षपैर्जुहुयान्निशि ।

ततः सर्षपपिण्याकैस्तत्तैलोदकसंयुतैः ॥ ८४ ॥

बलिं प्रदद्यात्तेनैवं मनुना विशिखो भुवि ।

एवं कृते सप्तरात्रं देशाडूरं व्रजेदरिः ॥ ८५॥

जप के बाद रात्रि में सरसों से दशांश होम करना चाहिए । फिर सरसों की खली तथा सरसों के तेल को जल में मिलाकर उक्त मन्त्र से अपनी शिखा खोलकर भूमि में बलि देनी चाहिए । इस क्रिया को ७ रात पर्यन्त लगातार करते रहने से शत्रु देश छोडकर अन्यत्र भाग जाता है ॥८४-८५॥

विद्वेषणं तत्प्रयोगश्च

ययो विद्वेषमन्विच्छेत्तयोर्जन्मतरूद्भवम् ।

फलकद्वितयं कृत्वा तत्राकारौ तयोर्लिखेत् ॥ ८६ ॥

विषाष्टकेन वालेयीदुग्धाक्तेनाभिधान्वितम् ।

तत्स्पृष्ट्वा प्रजपेन्मन्त्रं सहस्रमधियामिनि ॥ ८७॥

जिन दो व्यक्तियों में विद्वेष करना हो उनके जन्म नक्षत्र वाले वृक्ष की लकडी (द्र० ९. ५२) के दो फलक बना कर उस पर गधी के दूध में विषाष्टक (द्र० २५. ५७) मिलाकर उसी से उन दोनों के नाम सहित आकृति बनानी चाहिए । फिर उनका स्पर्श करते हुये अर्द्धरात्रि में वक्ष्यमाण मन्त्र का एक हजार जप करना चाहिए ॥८६-८७॥

वियत्पावकमन्विन्दुयुक्ग्लौं खं मनुहंसयुक् ।

निद्राग्निमनुबिन्दुस्था भगवत्यन्ते तिदण्डधा ॥ ८८ ॥

रिण्यन्तेऽमुकममुकं शीघ्र विद्वेषयद्वयम् ।

रोधयद्वितयं पश्चाद् भञ्जयद्वितयं रमा ॥ ८९ ॥

मायाराज्ञी चतुर्थ्यन्ता प्रणवं कवचत्रयम् ।

पञ्चाशदक्षरो मन्त्रस्तारादिः सर्वसिद्धिदः ॥ ९० ॥

पावक (र), मनु(औ), इन्दु (बिन्दु) सहित वियत् (ह), इस प्रकार (ह्रौं), फिर ग्लौ, फिर खं (ह), फिर इन्दु एवं मनु सहित हंस (सौं), अर्थात हसौं, फिर अग्नि, मनु एवं बिन्दुसहित निद्रा (भ्रौ), फिर ‘भगव’ पद के बाद ‘तिदण्डधारिणी पद, फिर अमुकमुकं (साध्य नाम का द्वितीयान्त), फिर शीघ्रं, फिर दो बार ‘विद्वेषय’, फिर दो बार ‘रोधय’, फिर २ बार ‘भञ्जय’, फिर रमा (श्रीं), माया (ह्रीं) फिर चतुर्थ्यन्त राज्ञी (राज्ञयै), प्रणव (ॐ) और इसके अन्त में ३ बार कवच (हुं), और इस मन्त्र के मन्त्र के प्रारम्भ में तार (ॐ) लगाने से ५० अक्षरों का सर्वसिद्धिदायक मन्त्र निष्पन्न होता है ॥८८-९०॥

विमर्श – विद्वेषण मन्त्र का स्वरुप – ॐ ह्रौं ग्लौं हसौं भ्रौं भगवति दण्डधारिणि अमुकमुकं शीघ्रं विद्वेषय विद्वेषय रोधय रोधय भञ्जय भञ्जय श्रीं ह्रीं राज्ञ्‌यै ॐ हुं हुं हुं ॥८८-९०॥

जपान्ते फलकद्वन्द्व बद्धा रज्ज्वा परस्परम् ।

ख रसैरिभगन्धर्वपुच्छरोमसमुत्थया ॥ ९१॥

वल्मीकरन्ध्र निखनेत्पुनस्तावज्जपेन्नरः।

सप्ताहाज्जायते वैरं तयोः प्रीतिमतोरपि ॥ ९२ ॥

जप करने के बाद उन दोनों फलकों को गदहा, भैस तथा घोडे की पूँछ के बालों से बनी रस्सी बाँधकर बाँवी के भीतर गाङकर एक हजार की संख्या में जप करना चाहिए । ऐसा करने से उन दोनों में परस्पर प्रेम नष्ट होकर आपस में शत्रुता हो जाती है ॥९१-९२॥

मारणमन्त्रः पुत्तलीकरणविधिश्च

मारणं तु प्रकुर्वीत ब्राह्मणेतरविद्विषि ।

तच्छद्ध्यर्थं जपेन्मूलमन्त्रमष्टोत्तरं शतम् ॥ ९३ ॥

मारण का प्रयोग तभी करना चाहिए जप ब्राह्मणोतर शत्रु हो, ब्राह्मण पर कभी मारण प्रयोग न करे, शास्त्र से निषिद्ध है । मारण प्रयोग करने पर शुद्धि के लिये मूल मन्त्र का एक सौ आठ बार जप करना चाहिए ॥९३॥

कृष्णाङ्गारचतुर्दश्यां गोपुराद्वा चतुष्पथात ।

श्मशानाद्वा समानीय मृदं तत्र विनिःक्षिपेत् ॥ ९४॥

विडङ्गानि हयार्यर्ककुसुमान्यपि मन्त्रवित् ।

कृष्णपक्ष की चतुर्दशी को जप मङ्गलवार का दिन जो तो गोपुर, चतुष्पथ या श्मशान से मिट्टी ला कर उसमें बायबिडङ्ग कनेर और आक (मन्दार) का फूल मिला कर उससे पुतली का निर्माण करना चाहिए ॥९४-९५॥

तन्मृदापुत्तली कुर्याच्छमशाने निर्जनालये ॥ ९५॥

उपविश्य शिखामुक्तो नीलवस्त्रावृतो निशि ।

तद्वक्षसि रिपोर्नाम लिखित्वा स्थापयेदसून ॥ ९६ ॥

फिर रात्रि के समय श्मशान में अथवा किसी शून्य घर में शिखा खोल कर, नीला वस्त्र पहन कर, बैठ कर पुतली की छाती पर शत्रु का नाम लिख कर, उसमें प्राण प्रतिष्ठा करनी चाहिए । फिर उसको कफन से ढँक कर तेल में डुबो कर उसका पूजन करना चाहिए ॥९५-९६॥

श्मशानवाससाच्छाद्य तैलाभ्यक्तामथार्चयेत् ।

स्नापयेत्पुत्तली तां तु खराश्वमहिषासृजा ॥ ९७ ॥

रक्तचन्दनधत्तूरकुसुमान्यर्पयेत्ततः ।

मारणाख्येन मनुना कुर्याद्धोमं च पूजनम् ॥ ९८ ॥

तदनन्तर उस पुतली को गदहा, घोडा, और भैंस के रक्त से स्नान कराना चाहिए । फिर लालचन्दन और धतूरे के फूल चढा कर मारण मन्त्र से होम कर पुनः उसका पूजन करना चाहिए ॥९७-९८॥

दीर्घत्रयाग्नि रात्रीशयुक्ता तन्द्रीमृतीश्वरि ।

कं कृत्यन्तेऽमुकं शीघं मारयद्वितयं सृणिः ॥ ९९ ॥

त्रयोविंशत्यक्षराढ्यो ध्रुवादिौरणे मनुः ।

प्रथम मारण मन्त्र का उद्धार कहते है – दीर्घत्रय अग्नि (र) और रात्रीश (बिन्दु) सहित तन्द्री (म्‍) अर्थात्‍ म्रां म्रीं म्रूं, फिर ‘मृतीश्वरि; पद एवं ‘कृं कृत्ये’ पद के पश्चात अमुकं (साध्य का द्वितीयान्त नाम), फिर ‘शीघ्रं’ पद, फिर दो बार ‘मारय’ पद तथा अन्त में सृणि (क्रों) और मन्त्र के प्रारम्भ में ध्रुव (ॐ) लगाने से २३ अक्षरों का मारण मन्त्र निष्पन्न होता है ॥९९-१००॥

विमर्श – मारण मन्त्र का स्वरुप – ॐ म्रां, म्रीं म्रूं मृतीश्वरि कृं कृत्ये अमुकं शीघ्रं मारय मारय क्रोम्(२३) ॥९४-१००॥

अनेन मनुना पूजां कृत्वां होम समाचरेत् ॥ १०० ॥

उग्रासर्षपभल्लातोन्मत्तबीजैः सुमिश्रितैः।

श्मशानाग्नौ शतं साग्रं च्छित्वा तत्प्रतिमा शिरः ॥ १०१॥

तदग्नौ प्रदहेन्मन्त्री पूर्णाहुतिमथाचरेत् ।

एवं कृते त्रिसप्ताहाद्रिपुः स्यात्सूर्यजातिथिः ॥ १०२॥

इस मन्त्र से पूजन वचा, सरसों, भिलावां और धतूरे के बीजों को एक में मिलाकर श्मशानाग्नि में १०१ आहुतियाँ देनी चाहिए । फिर पुतली का शिर काट कर उसी अग्नि में डाल देना चाहिए । तदनन्तर पूर्णाहुति करना चाहिए।  २१ दिन पर्यन्त इस क्रिया को निरन्तर करते रहने से शत्रु मर जाता है ॥१००-१०२॥

कर्मस्वेवं विधेष्वादौ भैरवाय बलि दिशेत् ।

माषान्नपलमद्याद्यैरेवं सिद्धिर्भवेद् ध्रुवम् ॥ १०३॥

यो मन्त्री विदधातीदृक्कर्म तेन प्रयत्नतः ।

आत्मावनाय संसेव्यो नरसिंहो हरोऽपि वा ॥ १०४ ।।

मारण प्रयोग करने के पहले उडद से बन पदार्थ, मांस और मद्य आदि की बलि भैरव को देनी चाहिए । ऐसा करने से कार्य निश्चित रुप से सिद्ध हो जाता है । जो मान्त्रिक ऐसे कृत्यों का अनुष्ठान कर उसे अपनी रक्षा के लिये भगवान् नृसिंह अथवा शिव की उपासना अवश्य करनी चाहिए ॥१०३-१०४॥

विमर्श – बिना गुरु के मारण आदि विनाशकारी प्रयोगों को करने से स्वयं पर आघात हो जाता है । अतः मारणप्रयोग नहीं ही करना चाहिए ॥९३-१०४॥

अथ चण्डीविधानम्

अथो नवाक्षरं मन्त्रं वक्ष्ये चण्डीप्रवृत्तये ।

वाङ्माया मदनो दीर्घालक्ष्मीस्तन्द्री श्रुतीन्दुयुक् ॥ १०५॥

डायैसदृग्जलं कूर्मद्वयं झिण्टीशसंयुतम् ।

अब चण्डी विधान कहते हैं – सर्वप्रथम चण्डी के अनुष्ठान में प्रयुक्त होने वाले नवार्ण मन्त्र का उद्धार कहता हूँ –

वाक्‍ (ऐं), माया (ह्रीं), मदन (क्लीं), फिर दीर्घालक्ष्मी  (चा), श्रुति उकार इन्द्रु (बिन्दु) सहित तन्द्रि (म) अर्थात् (मुं), फिर ‘डायै’ पद, फिर सदृक्‌जले (वि), तदनन्तर झिण्टीश सहित कूर्म द्वय (च्चे), यह नवार्ण मन्त्र कहा गया है ॥१०५-१०६॥

विमर्श – मन्त्र का स्वरुप – ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ॥१०५-१०६॥

नवाक्षरोऽस्य ऋषयो ब्रह्माविष्णुमहेश्वराः ॥ १०६ ।।

छन्दास्युक्तानि मुनिभिर्गायत्र्युष्णिगनुष्टुभः ।

देव्यः प्रोक्ता महापूर्वाः काली लक्ष्मीः सरस्वतीः ॥ १०७ ॥

नन्दाशाकम्भरीभीमाः शक्तयोऽस्य मनोः स्मृताः ।

स्याद्रक्तदन्तिका दुर्गा भ्रामर्यो बीजसञ्चयः ॥ १०८ ॥

अग्निर्वायुर्भगस्तत्त्वं फलं वेदत्रयोद्भवम् ।

सर्वाभीष्टप्रसिद्ध्यर्थ विनियोग उदाहृतः ॥ १०९।।

अब विनियोग कहते है – इस नवार्ण मन्त्र के ब्रह्मा, विष्णु और महेश्वर ऋषि है । गायत्री, उष्णिग् और अनुष्टुप् छन्द मुनियों ने कहा है तथा महाकाली महालक्ष्मी एवं महासरस्वती ये देवियाँ इसकी देवता हैं, नन्दा, शाकम्भरी और भीमा इसकी शक्तियाँ है । रक्तदन्तिका दुर्गा और भ्रामरी बीज है । अग्नि, वायु और सूर्य तत्त्व है । वेदत्रय से उत्पन्न इसका फल है । इस प्रकार सर्वाभीष्ट सिद्धियों का हेतु इसका विनियोग कहा गया है ॥१०६-१०९॥

नवार्णमन्त्रस्य देवतादिकथनम्

ऋषिश्छन्दो दैवतानि शिरो मुखहृदि न्यसेत् ।

शक्तिबीजानि स्तनयोस्तत्त्वानि हृदये पुनः ॥ ११० ॥

अब ऋष्यादिन्यास कहते हैं – ऋषियों का शिर, छन्दों का मुख तथा देवताओं का हृदय, पर, शक्ति और बीज का क्रमशः दोनो स्तन पर तथा तत्त्वों का पुनः हृदय पर न्यास करना चाहिए ॥११०॥

विमर्श – ऋष्यादिन्यास – ब्रह्माविष्णुरुद्रऋषिभ्यो नमः, शिरसे,

गायत्र्युष्ण्गिनुष्टुप्छन्देभ्यो नमः, मुखे,

महाकालीमहालक्ष्मीमहारसरस्वतीदेवताभ्यो नमः, हृदि,

नन्दाशाकम्भरीबेहेमाशक्तिभ्यो नमः, दक्षिणस्तने,

रक्तदन्तिकादुर्गाभ्रामरीबीजेभ्यो नमः, वामस्तने,

अग्नीवायुसूर्यतत्त्वेभ्यो नमः, हृदि ॥११०॥

सारस्वतायेकादशन्यासास्तेषां फलानि च

तत एकादशन्यासान् कुर्वीतेष्टफलप्रदान् ।

प्रथमो मातृकान्यासः कार्यः पूर्वोक्तमार्गतः ॥ १११ ॥

कृतेन येन देवस्य सारूप्यं याति मानवः।

एकादशन्यास – (१) शुद्धमातृकान्यास – इसकी बाद समस्त अभीष्ट फल देने वाले एकादश न्यासों को करना चाहिए । सर्वप्रथम पूर्वोक्त मार्ग से मातृकान्यास करना चाहिए जिसके करने से मनुष्य देवसदृश हो जाता है ॥१११-११२॥

विमर्श – ॐ अं नमः शिरसि, ॐ आं नमः मुखे, इत्यादि मातृकान्यास के लिये द्रष्टव्य विधि – १. ८९-९१ पृ० १८॥१११-११२॥

अथ द्वितीयं कुर्वीत न्यासं सारस्वताभिधम् ॥ ११२ ॥

बीजत्रयं तु मन्त्राचं तारादि हृदयान्तिकम् ।

क्रमादंगुलिषु न्यस्य कनिष्ठाद्यासु पञ्चसु ॥ ११३॥

करयोर्मध्यतः पृष्ठे मणिबन्धे च कूपरे ।

हृदयादिषडङ्गेषु विन्यसेज्जातिसंयुतम् ॥ ११४ ।।

अस्मिन्सारस्वते न्यासे कृते जाड्यं विनश्यति ।

(२) सारस्वतन्यास – इसके बाद सारस्वत संज्ञक द्वितीय न्यास करना चाहिए । उसकी विधि इस प्रकार है – मूल मन्त्र के प्रारम्भिक ३ बीजों के प्रारम्भ में प्रणव तथा अन्त में ‘नमः’ लगाकर कणिष्ठिका आदि पाँच अंगुलियों करतल, करपृष्ठ, मणिबन्ध एवं कोहिनी पर क्रमशः न्यास करना चाहिए । फिर हृदय आदि ६ अंगो पर जाति सहित न्यास करना चाहिए । इस सारस्वत न्यास के करने से जडता नष्ट हो जाती है ॥११२-११५॥

विमर्श – सारस्वतन्यास विधि ॐ ऐं ह्रीं क्लीं नमः कनिष्ठिकयोः,

ॐ ऐं ह्रीं क्लीं नमः अनामिकयोः,

इसी प्रकार मध्यमा, तर्जनी, अंगुष्ठ, करतल, करपृष्ठ, मणिबन्ध एवं कूर्पर स्थानों में द्विवचन का उहापोह कर न्यास कर लेना चाहिए । पुनः ॐकार सहित तीनों बीजों से हृदयादि स्थानों पर न्यास करना चाहिए । यथा

ॐ ऐं ह्रीं क्लीं हृदयाय नमः,        ॐ ऐं ह्रीं क्लीं शिरसे स्वाहा,

ॐ ऐं ह्रीं क्लीं शिखायै वषट्,        ॐ ऐं ह्रीं क्लीं कवचाय हुम्

ॐ ऐं ह्रीं क्लीं नेत्रत्रयाय वौषट्,    ॐ ऐं ह्रीं क्लीं अस्त्राय फट् ॥११२-११५॥

त्रैलोक्यविजयकरो मातृगणन्यासः

ततस्तृतीयं कुर्वीत न्यासं मातृगणान्वितम् ॥ ११५॥

मायाबीजादिका ब्राह्मी पूर्वतः पातु मां सदा ।

माहेश्वरी तथाग्नेय्यां कौमारी दक्षिणेऽवतु ॥ ११६ ॥

वैष्णवी पातु नैर्ऋत्ये वाराही पश्चिमेऽवतु ।

इन्द्राणीपावके कोणे चामुण्डा चोत्तरेऽवतु ॥ ११७ ॥

ऐशाने तु महालक्ष्मीरूवं व्योमेश्वारी तथा ।

सप्तद्वीपेश्वरी भूमौ रक्षेत्कामेश्वरी तले ॥ ११८ ॥

तृतीयेस्मिन्कृते न्यासे त्रैलोक्यविजयी भवेत् ।

(३) इसके बाद मातृकागण संज्ञक तृतीयन्याय करना चाहिए । उसकी विधि इस प्रकार है प्रारम्भ में मायाबीज (ह्रीं) लगाकर ‘ब्राह्यी पूर्वतः मां पातु’ से पूर्व, ‘माहेश्वरी आग्नेयां मां पातु’ से आग्नेय, ‘कौमारे दक्षिण मां पातु’ से दक्षिण, ‘वैष्णवी नैऋत्ये मां पातु’ से नैऋत्य में, वाराही पश्चिमे मां पातु’ से पश्चिम में, ‘इन्द्राणि वायव्ये मां पातु’ से वायव्य में, ‘चामुण्डा उत्तरे मां पातु’ से उत्तर में, ‘महालक्ष्मी ऐशान्ये मां पातु’ से ईशान में, ‘व्योमेश्वरी ऊर्ध्व मां पातु’ से ऊपर, ‘सप्तद्वीपेश्वरी भूमौ मां पातु’ से भूमि पर तथा ‘कामेश्वरी पाताले मां पातु’ से नीचे न्यास करना चाहिए । इस तृतीयन्यास के करने से साधक त्रैलोक्य विजयी जो जाता है ॥११५-११९॥

विमर्श – इसका न्यास ‘ह्रीं ब्रह्मी पूर्वतः मां पातु पूर्वे’ , ‘ह्रीं माहेश्वरी आग्नेयां मां पातु’ इत्यादि प्रकार से करना चाहिए ॥११५-११९॥

न्यासं चतुर्थ कुर्वीत नन्दजादि समन्वितम् ॥ ११९ ॥

नन्दजा पातु पूर्वाङ्ग कमलांकुशमण्डिता ।

खड्गपात्रकरा पातु दक्षिणे. रक्तदन्तिका ॥ १२०॥

पृष्ठे शाकम्भरी पातु पुष्पपल्लव संयुता ।

धनुर्बाणकरा दुर्गा वामे पातु सदैव माम् ॥ १२१ ॥

शिरः पात्रकराभीमा मस्तकाच्चरणावधि ।

पादादि मस्तकं यावद् भ्रामरीचित्रकान्तिभृत् ॥ १२२ ।।

(४) षड्‌वीन्यास – नन्दजा आदि पदों से युक्त मन्त्रों द्वारा चतुर्थन्यास इस प्रकार करना चाहिए –

‘कमलाकुशमण्डिता नन्दजा पूर्वाङ्गं मे पातु’ इस मन्त्र से पूर्वाङ्ग पर, ‘खड्‌गपात्रकरा रक्तदन्तिका दक्षिणाङ्गं मे पातु’ से दक्षिणाङ्ग पर, ‘पुष्पपल्लवसंयुता शाकम्भरी पृष्ठाङ्गं मे पातु’ से पृष्ठ पर, ‘धनुर्बाणकरा दुर्गा वामाङ्ग मे पातु’ से वामाङ्ग पर, ‘शिरःपात्रकराभीमा मस्तकादि चरणान्तं मे पातु’ से मस्तक से पैरों तक तथा ‘चित्रकान्तिभृत् भ्रामरी पादादि मस्तकान्त्म मे पातु’ से पादादि मस्तक पर्यन्त न्यास करना चाहिए । इस चतुर्थन्यास के करने से मनुष्य वृद्धावस्था और मृत्यु से मुक्त हो जाता है ॥११९-१२२॥

तुर्य न्यासं नरः कुर्याज्जरामृत्यूं व्यपोहति ।

अथ कुर्वीत ब्रह्माख्यं न्यासं पञ्चममुत्तमम् ॥ १२३ ॥

पादादिनाभिपर्यन्तं ब्रह्मा पातु सनातनः।

नाभेर्विशुद्धिपर्यन्तं पातु नित्यं जनार्दनः ॥ १२४ ॥

विशुद्धेब्रह्मरन्धान्तं पातु रुद्रस्त्रिलोचनः ।

हंसः पातुपदद्वन्द्वं वैनतेयः करद्वयम् ॥ १२५ ॥

चक्षुषी वृषभः पातु सर्वांगानि गजाननः ।

परापरौ देहभागौ पात्वानन्दमयो हरिः॥ १२६ ।।

कृतेऽस्मिन् पञ्चमे न्यासे सर्वान्कामानवाप्नुयात् ।

षष्ठं न्यासं ततः कुर्यान्महालक्ष्म्यादि संयुतम् ॥ १२७ ॥

(५) इसके बाद न्यासों में उत्तम ब्रह्मसंज्ञक पञ्चमन्यास करना चाहिए । उसकी विधि इस प्रकार है –

‘ॐ सनातनः ब्रह्या पादादिनाभिपर्यन्तः मां पातु’ से पैरों से नाभि पर्यन्त,

‘ॐ जनार्दनः नाभेर्विशुद्धिपर्यन्तं नित्यं मां पातु’ से नाभि से विशुद्धि चक्र पर्यन्त,

‘ॐ रुद्रस्त्रिलोचनः विशुर्द्धेब्रह्मरंध्रान्तं मां पातु’ से विशुद्धिचक्र से ब्रह्मरन्ध्र पर्यन्त,

‘ॐ हंसः पदद्वद्वं में पातु’ से दोनों पैरों पर, ‘ॐ वैनतेयः करद्वय्म मे पातु’ से दोनों हाथों पर ‘ॐ वृषभः चक्षुषी मे पातु’ से नेत्रों पर, ‘ॐ गजाननः सर्वाङ्गानि मे पातु’ से सभी अंगोम पर और ‘ॐ अनन्दमयो हरिः परापरौ देहभागौ मे पातु से शरीर के दोनोम भागों पर न्यास करना चाहिए । इस पञ्चमन्यास को करने से साधक के सभी मनोरथपूर्ण जो जाते है ॥१२३-१२७॥

मध्यं पातु महालक्ष्मीरष्टादशभुजान्विता ।

ऊर्ध्वं सरस्वती पातु भुजैरष्टाभिरूर्जिता ॥ १२८ ॥

अधः पातु महाकाली दशबाहुसमन्विता ।

सिंहो हस्तद्वयं पातु परं हंसोक्षियुग्मकम् ॥ १२९ ॥

महिष दिव्यमारूढो यमः पातु पदद्वयम् ।

महेशश्चण्डिकायुक्तः सर्वाङ्गनि ममाऽवतु ॥ १३० ॥

षष्ठेऽस्मिन्विहिते न्यासे सद्गतिं प्राप्नुयान्नरः ।

(६) इसके बाद महालक्ष्मी आदि पद से संयुक्त मन्त्रों द्वारा षष्ठन्यास करना चाहिए । उसकी विधि इस प्रकार है –

षष्ठन्यास विधि – ‘ॐ अष्टादशभुजान्विता महालक्ष्मी मध्यं मे पातु’ – इस मन्त्र से मध्य भाग पर, ‘ॐ अष्टभुजोर्जिता सरस्वती ऊर्ध्वे मे पातु’ इस मन्त्र से ऊर्ध्व भाग पर, ‘ॐ दशबाहुसमन्विता महाकाली अधः मे पातु’ – इस मन्त्र से अधो भाग पर, ‘ॐ सिंहो हस्तद्वय्म मे पातु’ – इस मन्त्र से दोनों हाथों पर, ‘ॐ परंहंसो अक्षियुग्मं मे पातु’ – इस मन्त्र से दोनों नेत्रों पर, ‘ॐ दिव्यं महिषमारुढो यमः पदद्वयं मे पातु’ – इस मन्त्र से दोनों पैरों पर, ‘ॐ चण्डिकायुक्तो महेशः सर्वाङ्गानि मे पातु’ – इस मन्त्र से सभी अङ्गों पर न्यास करना चाहिए । इस षष्ठ न्यास के करने से मनुष्य सद्‌गति प्राप्त करता है ॥१२७-१३१॥

मूलाक्षरन्यासरूपं न्यासं कुर्वीत सप्तमम् ॥ १३१॥

ब्रह्मरन्धे नेत्रयुग्मे श्रुत्यो सिकयोर्मुखे ।

पायौ मूलमनोवस्ताराद्यान्नमसान्वितान् ॥ १३२॥

विन्यसेत्सप्तमे न्यासे कृते रोगक्षयो भवेत् ।

(७) अब इसके बाद मूल मन्त्र के एक एक वर्णों से सप्तम न्यास करना चाहिए । इसे मूलाक्षर न्यास कहते है । इसके विधि इस प्रकार है –

वर्णन्यास विधि – ब्रह्मरन्ध्र, दोनों नेत्र, दोनों कान, दोनों नासापुट मुख और गुदा पर एक एक वर्णों के आदि में प्रणव तथा अन्त में ‘नमः’ लगाकर न्यास करना चाहिए । इस सप्तमन्यास के करने से साधक के सारे रोग नष्ट हो जाते है ॥१३१-१३३॥

विमर्श – सप्तमन्यास विधि – ॐ ऐं नमः ब्रह्मरन्ध्रे, ॐ ह्रीं नमः दक्षिणनेत्रे,

ॐ क्लीं नमः वामनेत्रे,    ॐ चां नमः दक्षिणकर्णे,    ॐ म्रं नमः वामकर्णे,

ॐ डाँ नमः दक्षनासापुटे,    ॐ यै नमः वामनासापुटे, ॐ विं नमः मुखे,

ॐ च्चें नमः मूलाधारे ॥१३१-१३३॥

अन्यो न्यासास्तेषां फलानि

पायुतो ब्रह्मरन्ध्रान्तं पुनस्तानेव विन्यसेत् ॥ १३३॥

कृतेऽस्मिन्नष्टमे न्यासे सर्व दुःखं विनश्यति ।

(८) अब विलोमक्रम वर्णन्यास नामक अष्टमन्यास कहते हैं – इस न्यास में विलोम क्रम से गुदा से ब्रह्मारध्रान्त पर्यन्त स्थानों पर विलोम पूर्वक मन्त्र के एक एक वर्णों के न्यास का विधान है । इस न्यास से साधक के समस्त दुःख दूर हो जाते है ॥१३३-१३४॥

विमर्श – विलोमवर्णन्यास विधि – ॐ च्चें नमः, मूलाधारे ॐ विं नमः,मुखे, ॐ यैं नमः, वामनासापुटे, ॐ डां नमः दक्षिणनासापुटे, ॐ मुं नमः, वामकर्णे, ॐ चां नमः, दक्षिणकर्णे, ॐ क्लीं नमः वामनेत्रे, ॐ ह्रीं नमः, दक्षिण नेत्रे, ॐ ऐं नमः ब्रह्यरन्ध्रे ॥१३३-१३४॥

कुर्वीत नवमं न्यास मन्त्रव्याप्ति स्वरूपकम् ॥ १३४ ॥

मस्तकाच्चरणं यावच्चरणान्मस्तकावधि ।

पुरो दक्षे पृष्ठदेशे वामभागेष्टशो न्यसेत् ॥ १३५॥

मूलमन्त्रकृतो न्यासो नवमो देवताप्तिकृत् ।

(९) अब मन्त्रव्याप्तिरुप नामक नवमन्यास कहते हैं – उसकी विधि इस प्रकार है –

शिर से पाद पर्यन्त मूलमन्त्र का न्या आठ बार करे । इसी प्रकार क्रमशः आगे, दाहिने भाग में एवं पृष्ठभाग में तथा उसी प्रकार वामभाग में मस्तक से पैरों तक तथा पैरों से मस्तक पर्यन्त प्रत्येक भाग में आठ बार मूल मन्त्र का न्या करना चाहिए । इस नवम न्यास करने से साधक को देवत्व की प्राप्ति होती है ॥१३४-१३६॥

विमर्श – नवमन्यास विधि – ‘ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे मस्तकाच्चरणान्तं’ पूर्णाङ्गे (अष्टवारम्), ‘ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे पादाच्छिरोन्तम्’ दक्षिणाङ्गे (अष्टवारम्), ‘ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे’ पृष्ठे (अष्टवारम्) ‘ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामूण्डायै वामाङ्गे (अष्टवारम्)’, ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे मस्तकाच्चरणात्नम्’ (अष्टवारम्), ‘ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे चरणात् मस्तकावधि’ (अष्टवारम्) ॥१३४-१३६॥

ततः कुर्वीत दशमं षडङ्गन्यासमुत्तमम् ॥ १३६ ॥

मूलमन्त्रं जातियुक्तं हृदयादिषु विन्यसेत् ।

कृतेऽस्मिन्दशमे न्यासे त्रैलोक्यं वशगं भवेत् ॥ १३७ ॥

(१०) इसके बाद दशम षडङ्गन्यास रुपी करना चाहिए । मूल मन्त्र का जाति के साथ हृदयादि ६ अङ्गो पर न्यास करना चाहिए । इस दशम न्यास को करने से तीनों लोक साधक के वश में हो जाते हैं ॥१३६-१३७॥

विमर्श – दशमन्यास विधि – ‘ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे हृदयाय नमः, ‘ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डयै विच्चे शिरसे स्वाहा’, (शिरसि), ‘ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे शिखायै वषट्’ (शिखायाम्), ‘ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे कवचाय हुम्’ (बाहौ), ‘ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे नेत्रत्रयाय वौषट्’ (नेत्रयोः), ‘ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे अस्त्राय फट् ॥१३६-१३७॥

दशन्यासोक्तफलदं कुर्यादेकादशं ततः ।

खड्गिनीशूलिनीत्यादि पठित्वा श्लोकपञ्चकम् ॥ १३८ ॥

आद्यं कृष्णतरं बीजं ध्यात्वा सर्वाङ्गके न्यसेत् ।

शूलेन पाहि नो देवीत्यादि श्लोकचतुष्टयम् ॥ १३९ ॥

पठित्वा सूर्यसदृशं द्वितीयं सर्वतो न्यसेत् ।

‘सर्वस्वरूपे सर्वेशे इत्यादिश्लोकपञ्चकम् ॥ १४० ॥

पठित्वा स्फटिकाभासं तृतीयं स्वतनौ न्यसेत् ।

(११) इन उक्त दश न्यासों को कर लेने के पश्चात् फलदायी एकादश न्यास इस प्रकार करना चाहिए –

‘खडि‌गनी शूलिनी घोरा’ इत्यादि ५ श्लोकों को पढकर आद्य कृष्णतर बीज (ऐं) का ध्यान कर सर्वाङ्ग में न्यास करना चाहिए । ‘शूलेन पाहि नो देवि’ इत्यादि ४ श्लोकों का उच्चारण कर सूर्य सदृश आभा द्वितीय बीज (ह्रीं) ५ श्लोकों को पढकर स्फटिक जैसी आभा वाले तृतीय बीज (क्लीं) का ध्यान अर सर्वाङ्ग में न्यास करना चाहिए ॥१३८-१४१॥

विमर्श – अथैकादशन्यास विधि

तृतीयं क्लीं बीजं स्फटिककाभं ध्यात्वा सर्वाङ्गे न्यसामि ॥१३८-१४१॥

ततः षडंगं कुर्वीत विभक्तैर्मूलवर्णकैः ॥ १४१ ॥

एकेनैकेन चैकेन चतुर्भिर्युगलेन च ।

समस्तेन च मन्त्रेण कुर्यादगानि षट् सुधीः ॥ १४२ ॥

विद्वान् साधक को इस के बाद मूलमन्त्र के १, १, १, ४, २, वर्णों से तथा समस्त वर्णों से षडङ्गन्यास करना चाहिए ॥१४१-१४२॥

विमर्श – मूलमन्त्र के वर्णों से षडङ्गन्यास विधि इस प्रकार है । यथा –

ऐं हृदयाय नमः,    ह्रीं शिरसे स्वाहा,    क्लीं शिखायै वषट्

चामुण्डायै कवचाय हुम्        विच्चे नेत्रत्रयाय वौषट्

ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे अस्त्राय फट् ॥१४१-१४२॥

शिखायां नेत्रयोः श्रुत्योर्नसोर्वक्त्रे गुदे न्यसेत् ।

मन्त्रवर्णान्समस्तेन व्यापकं त्वष्टशश्चरेत् ॥ १४३ ॥

अक्षरन्यास – शिखा, दोनो नेत्र, दोनों कान, दोनों नासापुट, मुख एवं गुह्य स्थान में मन्त्र के एक एक अक्षर का न्यास करना चाहिए । फिर समस्त मन्त्र से आठ बार व्यापक न्यास करना चाहिए ॥१४३॥

विमर्श – अक्षर न्यास विधि – ऐं नमः शिखायाम्, ह्रीं नमः दक्षिणनेत्रे, क्लीं नमः, वामनेत्रे चां नमः दक्षिणकर्णे, मुं नमः वामकर्णे, डां नमः दक्षिणनासापुटे, यै नमः वामनासायाम् विं नमः मुखे, नमः गुह्ये, ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै नमः सर्वागें ॥१४३॥

महाकाल्यादितिसृणां ध्यानानि

खड्गं चक्रगदेषु चापपरिघाञ्छूलं भुशुण्डी शिरः

शंख सन्दधतीं करैस्त्रिनयनां सांगभूषावृताम् ।

यामस्तोत्स्वपिते हरौ कमलजो हन्तुं मधु कैटभं

नीलाश्मधुतिमास्यपाददशकां सेवे महाकालिकाम् ॥ १४४ ॥

अब महाकाली महालक्ष्मी तथा महासरस्वती का ध्यान कहते हैं –

जिन्होने अपने १० भुजाओं में क्रमशः खड्‌ग, चक्र, गदा, बाण, धनुष, परिध, त्रिशूल, भुशुण्डी मुण्ड एवं शंख धारण किया है, ऐसी त्रिनेत्रा, सभी अंगों में आभूषणों से विभूषित, नीलमणि जैसी आभा वाली, दशमुख एवं दश पैरों वाली महाकाली का ध्यान करता हूँ जिनकी स्तुति मधु कैटभ का वध करने के लिये भगवान् विष्णु के सो जाने पर ब्रह्मदेव ने की थी ॥१४४॥

अक्षस्रक्परशूगदेषु कुलिशं पदम् धनुः कुण्डिकां

दण्ड शक्तिमसिं च चर्मजलजं घण्टां सुराभाजनम् ।

शूलं पाशसुदर्शने च दधतीं हस्तैः प्रवालप्रभां

सेवे सैरिभमर्दिनीमिह महालक्ष्मी सरोजस्थिताम् ॥ १४५॥

अपनी १८ भुजाओं में क्रमशः अक्षमाला, परशु, गदा, बाण, वज्र, कमल, धनुष, कमण्डलु, दण्ड शक्ति, तलवार, ढाल, शंख, घण्टा, पानपात्र, त्रिशुल , पाश एवं सुदर्शन धारन करने वाली, प्रवाल जैसी शरीर की कान्तिवाली कमल पर विराजमान महिषासुरमर्दिनी महालक्ष्मी का ध्यान करता हूँ ॥१४५॥

घण्टाशूलहलानि शंखमुसले चक्र धनुः सायकं

हस्ताब्जैर्दधतीं घनान्तविलसच्छीतांशु तुल्य प्रभाम् ।

गौरीदेहसमुद्भवां त्रिजगतामाधारभूतां महा

पूर्वामत्र सरस्वतीमनु भजे शुम्भादिदैत्यार्दिनीम् ॥ १४६ ॥

अपनी ८ भुजाओं में क्रमशः घण्टा, शूल, हल, शंख, मुषल, चक्र, धनुष एवं बाण धारण किये हुये, बादलों से निकलते हुये चन्द्रमा के समान आभा वाली, गौरी के देह से उत्पन्न त्रिलोकी की आधारभूता, शुम्भादि दैत्यों का मर्दन करने वाली श्री महासरस्वती का ध्यान करता हूँ ॥१४६॥

एवं ध्यात्वा जपेल्लक्षचतुष्कं तद्दशांशतः ।

पायसान्नेन जुहुयात्पूजिते हेमरेतसि ॥ १४७ ॥

इस प्रकार ध्यान कर उपर्युक्त नवार्णमन्त्र का ४ लाख जप करना चाहिए । तदनन्तर विधिवत् पूजित अग्नि में खीर का दशांश होम करना चाहिए ॥१४७॥

आवरणदेवताकथनं पूजनं च

जयादि शक्तिभिर्युक्ते पीठे देवीं यजेत्ततः ।

तत्त्वपत्रावृतत्र्यस्र षट्कोणाष्टदलान्विते ॥ १४८ ॥

इसके बाद जयादि शक्तियों वाले पीठ पर तथा त्रिकोण, षट्‌कोण, अष्टदल एवं चतुर्विशति दल, तदनन्तर भूपुर वाले यन्त्र पर देवी का पूजन करना चाहिए ॥१४८॥

विमर्श – पीठ पूजा विधि – (१८.१४४-१४५) में वर्णित चण्डी के तीनों स्वरुपों का ध्यान कर मानसोपचारों से उनका पूजन कर अर्घ्य स्थापित करे । फिर पीठ देवताओं का इस प्रकार पूजन करे । पीठमध्ये

ॐ आधारशक्तये नमः,

ॐ प्रकृतये नमः,

ॐ कूर्माय नमः

ॐ शेषाय नमः,

ॐ पृथिव्यै नमः,

ॐ सुधाम्बुधये नमः,

ॐ मणिद्वीपाय नमः,

ॐ चिन्तामणि गृहाय नमः,

ॐ श्मशानाय नमः,

ॐ पारिजात्याय नमः,

ॐ रत्नवेदिकायै नमः कर्णिकायाः मूले

ॐ मणिपीठाय नमः कर्णिकोपरि

ततश्चतुर्दिक्षु– ॐ नानामुनिभ्यो नमः,

ॐ नानादेवेभ्यो नमः,        ॐ शवेभ्यो नमः,        ॐ सर्वमुण्डेभ्यो नमः,

ॐ शिवाभ्यो नमः        ॐ धर्माय नमः,        ॐ ज्ञानाय नमः

ॐ वैराग्याय नमः         ॐ ऐश्वर्याय नमः,

चतुष्कोणेषु– ॐ अधर्माय नमः,        ॐ अज्ञानाय नमः,

ॐ अवैराग्याय नमः,        ॐ अनैश्वर्याय नमः ।

मध्ये – ॐ आनन्दकन्दाय नमः,        ॐ संविन्नालाय नमः

ॐ सर्वतत्त्वात्मकपद्‌माय नमः        ॐ प्रकृतमयपत्रेभ्यो नमः,

ॐ विकारमयकेसरेभ्यो नमः,            ॐ पञ्चशद्‌बीजाद्यकर्णिकायै नमः,

ॐ अं द्वादशकलात्मने सूर्यमण्डल नमः,    ॐ वं षोडशकलात्मने सोममण्डलाय नमः

ॐ सं दशकलात्मने वहिनमण्डलाय नमः,    ॐ सं सत्त्वाय नमः,

ॐ रं रजसे नमः,                ॐ तं तमसे नमः,

ॐ आं आत्मने नमः,                ॐ अं अन्तरात्मने नमः,

ॐ पं परमात्मने नमः,            ॐ ह्रीं ज्ञानात्मने नमः ।

इसके बाद पूर्वादि आठ दिशाओं में तथा मध्य में जयादि शक्तियों की इस प्रकार पूजा करनी चाहिए – ॐ जयायै नमः पूर्वे, ॐ विजयायै नमः, आग्नेये,

ॐ अजितायै नमः दक्षिणे,        ॐ अपराजितायै नमः, नैऋत्ये,

ॐ नित्यायै नमः पश्चिमे,        ॐ विलासिन्यै नमः, वायव्ये,

ॐ दोग्ध्र्यै नमः उत्तरे,            ॐ अधोरायै नमः ऐशान्ये

ॐ मङ्गलायै नमः मध्ये ।

इसके बाद ‘ह्रीं चण्डिकायोगपीठत्मने नमः’ इस पीठ मन्त्र से आसन देकर मूल मन्त्र से मूर्ति कल्पित कर ध्यान आवाहनादि उपचारों से पञ्चपुष्पाञ्जलि समर्पण पर्यन्त चण्डी की विधिवत् पूजा कर उनकी आज्ञा ले आवरण पूजा करनी चाहिए ॥१४८॥

त्रिकोणमध्ये सम्पूज्य ध्यात्वा तां मूलमन्त्रतः ।

पूर्वकोणे विधातारं सुरया सह पूजयेत् ॥ १४९ ॥

विष्णु श्रिया च नैर्ऋत्ये वायव्ये तूमया शिवम् ।

उदग्दक्षिणयोः सिहं महिषं चक्रमाद्यजेत् ॥ १५० ॥

अब आवरण पूजा का विधान कहते है –

त्रिकोण के मध्य बिन्दु में देवी का ध्यान कर मूलमन्त्र से उनकी पूजा करनी चाहिए । फिर त्रिकोण के पूर्व वाले कोण में सरस्वती के साथ ब्रह्मा का, नैऋत्य वाले कोण में महालक्ष्मी के साथ विष्णु का तथा वायव्य कोण में उमा के साथ शिव का पूजन करना चाहिए । उत्तर एवं दक्षिण दिशा में क्रमशः सिंह एवं महिष का पूजन करना चाहिए ॥१४९-१५०॥

षट्सु कोणेषु पूर्वादिनन्दजा रक्तदन्तिकाम् ।

शाकम्भरी तथा दुर्गा भीमा च भ्रामरी यजेत् ॥ १५१॥

सबिन्दुनादाद्यर्णाद्यास्ताराद्याश्च नमोन्तिकाः ।

नन्दजाद्या यजेच्छक्तीर्वक्ष्यमाणा अपीदृशीः ॥ १५२ ।।

षट्‌कोण में पूर्वादि ६ कोणों में क्रमशः नन्दजा, रक्तदन्तिका, शाकम्भरी, दुर्गा, भीमा एवं भ्रामरी का पूजन करना चाहिए । नन्दजा आदि शक्तियों के प्रारम्भ में प्रणव लगाकर उनके नामों के आदि अक्षर में अनुस्वार लगाकर अन्त में नमः लगाकर निष्पन्न मन्त्रों से पूजन करना चाहिए ॥१५१-१५२॥

अष्टपत्रेषु ब्रह्माणी पूज्या माहेश्वरी परा ।

कौमारी वैष्णवी चाथ वाराही नारसिंह्यपि ॥ १५३॥

पश्चादैन्द्री च चामुण्डा तथा तत्त्वदलेष्विमाः ।

फिर अष्टदल में ब्रह्माणी, माहेश्वरी, कौमारी, वैष्णवी, वाराही, नारसिंही, ऐन्द्री तथा चामुण्डा का पूजन करना चाहिए ॥१५३-१५४॥

विष्णुमायाचेतना च बुद्धिर्निद्राक्षुधा ततः ॥ १५४ ॥

छायाशक्तिः परा तृष्णा क्षान्तिर्जातिश्च लज्जया ।

शान्तिः श्रद्धा कान्तिलक्ष्म्यौ धृतिर्वृत्तिः श्रुतिः स्मृति ॥ १५५ ॥

तुष्टिः पुष्टिर्दया माता भ्रान्तिः शक्तिरिति क्रमात् ।

तदनन्तर चतुर्विंशति दलों में, विष्णुमाया चेतना, बुद्धि, निद्रा, क्षुधा, छाया, शक्ति, तृष्णा, क्षान्ति, जाति, लज्जा, शान्ति, श्रद्धा कान्ति, लक्ष्मी, धृति, वृत्ति, श्रुति,  स्मृति, तुष्टि, पुष्टि, दया, माता एवं भ्रान्ति का पूजन करना चाहिए ॥१५४-१५६॥

बहिर्भूगृहकोणेषु गणेशः क्षेत्रपालकः ॥ १५६ ॥

बटुकश्चापि योगिन्यः पूज्या इन्द्रादिका अपि ।

एवं सिद्धे मनौ मन्त्री भवेत्सौभाग्यभाजनम् ॥ १५७ ॥

भूपुर के बारह कोणो में गणेश, क्षेत्रपाल, बटुक और योगिनियों का, तदनन्तर पूर्वादि दिशाओं में इन्द्रादि दिक्पालों का भी पूजन करना चाहिए । इस प्रकार मन्त्र के सिद्ध हो जाने पर साधक सौभाग्यशाली बन जाता है ॥१५६-१५७॥

विमर्श – आवरण पूजा विधि – त्रिकोण के मध्य बिन्दु पर देवी का ध्यान कर मूल मन्त्र से पूजन करने के बाद पुष्पाञ्जलि लेकर ‘ॐ संविन्मये परे देवि परामृतरसप्रिये अनुज्ञां चण्डिके देहि परिवारार्चनाय में’ इस मन्त्र से पुष्पाञ्जलि चढाकर देवी की आज्ञा ले इस प्रकार आवरण पूजा करनी चाहिए । आवरण पूजा में सर्वप्रथम षडङ्गपूजा का विधान है । अतः त्रिकोण के बाहर आग्नेयादि कोणों में मध्य में तथा चतुर्दिक्षु इस प्रकार प्रथमावरण में षडङ्ग पूजा करनी चाहिए-

ऐं हृदयाय नमः, आग्नेये,        ह्रीं शिरसे स्वाहा, ऐशान्ये,

क्लीं शिखायै वषट्, नैऋत्ये,        चामुण्डायै कवचाय हुम्, वायव्ये,

विच्चे नेत्रत्रयाय वौषट्, मध्ये,         ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे अस्त्राय फट् चतुर्दिक्षु

इसके बाद पुष्पाञ्जलि लेकर ‘अभीष्टसिद्धिं’ में देहि शरनागतवत्सले भक्त्या समर्पये तुभ्य्म प्रथमावरणार्चनम’ – इस मन्त्र से पुष्पाञ्जलि देनी चाहिए ।

द्वितीयावरण में त्रिकोण के पूर्वादि कोणों में सरस्वती ब्रह्मादिक की पूजा निम्न रीति से करनी चाहिए । यथा – ॐ सरस्वतीब्रह्माभ्यां नमः पूर्वकोणे,

ॐ लक्ष्मीविष्णुभ्यां नमः, नैऋत्यकोणे        ॐ गौरीरुद्राभ्यां नमः, वायव्यकोणे,

ॐ सिं सिंहाय नमः, उत्तरे,            ॐ मं महिषाय नमः दक्षिणे,

फिर पुष्पाञ्जलि पर्यान्त मन्त्र पढकर द्वितीय पुष्पाञ्जलि समर्पित करनी चाहिए ।

इसके बाद तृतीयावरण में षट्‌कोणो में नन्दजा आदि ६ शक्तियों की निम्मलिखित मन्त्रों से पूजा करनी चाहिए । यथा – ॐ नं नन्दजायै नमः पूर्वे, ॐ रं रक्तदन्तिकायै नमः आग्नेये, ॐ शां शाकर्म्भ्यै नमः, दक्षिणे, ॐ दुं दुर्गायै नमः, नैऋत्ये, ॐ भीं भीमायै नमः, पश्चिमे, ॐ भ्रां भ्रामर्णै नमः, वायव्ये ।

तदनन्तर पुष्पाञ्जलि दे कर मूल मन्त्र के साथ ‘अभीष्टसिद्धिं … तृतीयावरणार्चनम’ पर्यन्त मन्त्र बोल कर तृतीय पुष्पाञ्जलि समर्पित करनी चाहिए ।

चतुर्थ आवरण में अष्टदल में पूर्वादि दल के क्रम से ब्रह्माणी आदि ८ मातृकाओं की निम्न नाम मन्त्रों से पूजा करनी चाहिए । यथा –

ॐ ब्रं ब्रह्मण्यै नमः पूर्वोदले,        ॐ मां माहेश्वर्यै नमः आग्नेयदले,

ॐ कीं कौमार्यै नमः दक्षिणदले,    ॐ वैं वैष्णव्यै नमः नैऋत्यदले,

ॐ वां वाराह्यै नम्ह पश्चिमदले,    ॐ नां नारसिंहयै नमः वायव्यदले,

ॐ ऐं ऐन्द्रयै नमः उत्तरदले,        ॐ चां चामुण्डायै नमः, ऐशान्य दल

इसके पश्चात् पुष्पाञ्जलि लेकर मूल मन्त्र के साथ ‘अभीष्टसिद्धिं…चतुर्थवरणार्चनम्’ पर्यन्त मन्त्र पढकर चतुर्थ पुष्पाञ्जलि समर्पित करनी चाहिए ।

पञ्चम आवरण में चतुर्विंशति दल में पूर्वादि क्रम से विष्णु माया आदि २४ शक्तियों की इस प्रकार पूजा करनी चाहिए । यथा –

ॐ विं विष्णुमायायै नमः,        ॐ चे चेतनायै नमः        ॐ बुं बुद्धयै नमः,

ॐ निं निद्रायै नमः            ॐ क्षुं क्षुधायै नमः,        ॐ छां छायायै नमः

ॐ शं शक्त्यै नमः            ॐ तृं वृष्णायै नमः,        ॐ क्षां क्षान्त्यै नमः,

ॐ जां जात्यै नमः            ॐ लं लज्जायै नमः        ॐ शां शान्त्यै नमः

ॐ श्रं श्रद्धायै नमः,            ॐ कां कान्त्यै नमः        ॐ लं लक्ष्म्यै नमः

ॐ धृं धृत्यै नमः,            ॐ वृं वृत्यै नमः        ॐ श्रुं श्रुत्यै नमः

ॐ स्मृं स्मृत्यै नमः            ॐ तुं तुष्ट‌यै नमः        ॐ पु पुष्टयै नमः

ॐ दं दयायै नमः            ॐ मां मात्रे नमः        ॐ भ्रां भ्रान्त्यै नमः

इसके बाद पुष्पाञ्जलि लेकर मूलमन्त्र के साथ ‘अभीष्टसिद्धिं … षष्ठावरणार्चनम्’ पर्यन्त मन्त्र पढकर षष्ठ पुष्पाञ्जलि समर्पित करनी चाहिए ।

षष्ठ आवरण में भूपुर के बाहर आग्नेयादि कोणों में निम्न मन्त्रों से गणेश आदि का पूजन करना चाहिए । यथा –

गं गणपतये नमः, आग्नेये,        क्षं क्षेत्रपालाय नमः, नैऋत्ये,

बं बटुकाय नमः, वायव्ये,        यों योगिनीभ्यो नमः, ऐशान्ये,

इसके बाद पुष्पाञ्जलि लेकर मूल मन्त्र के साथ ‘अभीष्टसिद्धिं…षष्ठावरणार्चनम्‍’ पर्यन्त मन्त्र पढकर षष्ठ पुष्पाञ्जलि समर्पित करनी चाहिए ।

सप्तम आवरण में भूपुर के पूर्वादि अपनी अपनी दिशाओं में इन्द्रादि दिक्पालों का निम्नलिखित मन्त्रों से पूजन करना चाहिए । यथा –

ॐ लं इन्द्राय नमः पूर्वे,            ॐ रं अग्नये नमः आग्नेये,

ॐ म यमाय नमः दक्षिणे,             ॐ क्षं निऋतये नमः नैऋत्ये,

ॐ वं वरुणाय नमः, पश्चिमे            ॐ यं वायवे नमः, वायव्ये,

ॐ सं सोमाय नमः उत्तरे,            ॐ हं ईशानाय नमः ऐशान्ये,

ॐ अं ब्रह्मणे नमः पूर्वशानयोर्मध्ये,        ॐ ह्रीं अनन्ताय नमः नैऋत्यपश्चिमयोर्मध्ये

तदनन्तर पुष्पाञ्जलि लेकर मूलमन्त्र के साथ ‘अभीष्टसिद्धिं… सप्तमावरणार्चनम’ पर्यन्त मन्त्र बोल कर सप्तम् पुष्पाञ्जलि चढानी चाहिए ।

अष्टम आवरण में भूपुर के बाहर पूर्वादि दिशाओं में दिक्पालों के वज्रादि आयुधों की पूजा करनी चाहिए । यथा – वं वज्राय नमः,

ॐ शं शक्तये नमः,        ॐ दं दण्डाय नमः,        ॐ खं खड्‌गाय नमः,

ॐ पां पाशय नमः,        ॐ अं अंकुशाय नमः,        ॐ गं गदायै नमः,

ॐ शूं शूलाय नमः,        ॐ चं चक्राय नमः,        ॐ पं पद्माय नमः

फिर पुष्पाञ्जलि लेकर मूल मन्त्र के साथ ‘अभीष्टसिद्धिं… अष्टमावरणार्चनम्’ मन्त्र से अष्टम पुष्पाञ्जलि समर्पित करनी चाहिए । इस प्रकार आवरण पूजा के बाद महाकाली, महालक्ष्मी और महासरस्वती देवताओं की धूप दीपादि उपचारों से विधिवत् पूजा करनी चाहिए ॥१४९-१५७॥

चरित्रत्रयनित्यपठनस्य फलम्

मार्कण्डेयपुराणोक्तं नित्यं चण्डीस्तवं पठन् ।

पटितं मूलमन्त्रेण जपन्नाप्नोति वाञ्छितम् ॥ १५८ ॥

साधक मूलमन्त्र से संपुटित मार्कण्डेय पुराणोक्त चण्डी पाठ को करने से तथा नवार्ण मन्त्र का जप करने से अभीष्ट सिद्धि प्राप्त करता है ॥१५८॥

आश्विनस्य सिते पक्षे आरभ्याग्नितिथिं सुधीः ।

अष्टम्यन्तं जपेल्लक्ष दशांश होममाचरेत् ॥ १५९ ॥

आश्विन शुक्ल प्रतिपद से अष्टमी पर्यन्त मूल मन्त्र का एक लाख जप तथा उसका दशांश होम करना चाहिए ॥१५९॥

प्रत्यहं पूजयेद्देवीं पठेत्सप्तशतीमपि ।

विप्रानाराध्य मन्त्री स्वमिष्टार्थ लभतेऽचिरात् ॥ १६० ॥

प्रतिदिन देवी का पूजन तथा सप्तशती का पाठ और साधक को अन्त में ब्राह्यण भोजन कराना चाहिए । ऐसा करने से वह शीध्र ही मनोवाञ्छित फल प्राप्त करता है ॥१६०॥

सप्तशत्याश्चरित्रे तु प्रथमे पद्मभूर्मुनिः।

छन्दो गायत्रमुदितं महाकाली तु देवता ॥ १६१॥

वाग्बीजं पावकस्तत्त्वं धर्मार्थे विनियोजनम् ।

अब प्रकरण प्राप्त सप्तशती के तीनों चरित्रों का विनियोग कहते है – सप्तशती के प्रथम चरित्र के ब्रह्मा ऋषि है, गायत्री छन्द तथा महाकाली देवता हैं । वाग्बीज (ऐं) अग्नि तत्त्व तथा धमार्थ इसका विनियोग किया जाता है ॥१६१-१६२॥

मध्यमे तु चरित्रेऽत्र मुनिर्विष्णुरुदाहृतः ॥ १६२ ।।

उष्णिक्छन्दो महालक्ष्मीर्देवताबीजमद्रिजा ।

वायुस्तत्त्वं धनप्राप्त्यै विनियोग उदाहृतः ॥ १६३ ॥

मध्यम चरित्र के विष्णु ऋषि, उष्णिक् छन्द तथा महालक्ष्मी देवता कही गई है । अद्रिजा (ह्रीं) बीज तथा वायुतत्त्व है तथा धन प्राप्ति हेतु इसका विनियोग होता है ॥१६२-१६३॥

उत्तरस्य चरित्रस्य ऋषिः शंकर ईरितः ।

त्रिष्टुप्छन्दो देवतास्य प्रोक्ता महासरस्वती ॥ १६४ ।।

कामबीजं रविस्तत्त्वं कामाप्त्यै विनियोजनम् ।

उत्तर चरित्र के रुद्र ऋषि कहे गये हैं, त्रिष्टुप् छन्द और महासरस्वती देवता हैं । काम (क्लीं) बीज तथा सूर्य तत्त्व हैं काम प्राप्ति हेतु इसका विनियोग होता है ॥१६४-१६५॥

विमर्श – विनियोग विधि १. अस्य श्रीप्रथमचरित्रस्य ब्रह्माऋषिः गायत्रीछन्दः महाकालीदेवता ऐं बीजमग्निस्तत्त्वं धमार्थे जपे विनियोगः ।

२. अस्य श्रीमध्यमचरित्रस्य विष्णुऋषिरुष्णिक‌छन्दः महालक्ष्मीदेवता ह्रीं बीज्म वायुस्तत्त्वं धनप्राप्त्यै जपे विनियोगः ।

३. अस्य श्रीउत्तरचरित्रस्य रुद्रऋषिस्त्रिष्टुप्‌छन्दः महासरस्वतीदेवता क्लीं बीजं सूर्यस्तत्त्व्म कामप्रदायै जपे विनियोगः ॥१६१-१६५॥

एवं संस्मृत्य ऋष्यादीन् ध्यात्वा पूर्वोक्तमार्गतः ॥ १६५॥

सार्थस्मृति पठेच्चण्डीस्तवं स्पष्टपदाक्षरम् ।

समाप्तौ तु महालक्ष्मी ध्यात्वा कृत्वा षडङ्गकम् ॥ १६६ ॥

जपेदष्टशतं मूलं देवतायै निवेदयेत् ।

अब ऋष्यादिन्यास तथा सप्तशती के पाठ का विधान कहते हैं –

इस प्रकार सप्तशती के ऋषि देवता तथा छन्दादि का विनियोग कर पूर्वोक्त (द्र० १८. १४४-१४६) मार्ग से देवी का ध्यान कर, उसके अर्थ का स्मरण करते हुये, पद एवं अक्षरों का स्पष्टरुप में उच्चारण करते हुये, सप्तशतीस्तव का पाठ करना चाहिए । पाठ की समाप्ति में महालक्ष्मी का ध्यान षडङ्गान्यास तथा मूलमन्त्र का १०८ बार जप करना चाहिए । फिर देवी को सारा जप निवेदन कर देना चाहिए ॥१६५-१६७॥

एवं यः कुरुते स्तोत्रं नावसीदति जातुचित् ॥ १६७ ॥

चण्डिका प्रभजन्मो धनैर्धान्यैर्यशश्चयैः ।

पुत्रैः पौत्रैरुतारोग्यैर्युक्तो जीवेद् बहूः समाः ॥ १६८ ॥

इस विधि से जो व्यक्ति सप्तशती का पाठ करता है वह कभी भी दुःख नहीं प्राप्त करता है । चण्डिका की उपासना करने वाला व्यक्ति धन, धान्य, यश, पुत्र पौत्र और आरोग्य सहित बहुत वर्षो तक जीवित रहता है ॥१६७-१६८॥

अथ शतचण्डीविधानम्

शतचण्डीविधानं तु प्रवक्ष्ये प्रीतये नृणाम् ।

नृपोपद्रव आपन्ने दुर्भिक्षे भूमिकम्पने ॥ १६९ ॥

अतिवृष्ट्यामनावृष्टौ परचक्रभये क्षये ।

सर्वे विघ्ना विनश्यन्ति शतचण्डीविधौ कृते ॥ १७० ॥

रोगाणां वैरिणां नाशो धनपुत्रसमृद्धयः ।

मनुष्यों के कल्याण के लिये शतचण्डी का विधान कहता हूँ –

शास्त्रोक्त विधान से शतचण्डी का अनुष्ठान करने से राजा के द्वारा उपद्रव दुर्भिक्ष, भूकम्प, अतिवृष्टि, अनावृष्टि, शत्रु का आक्रमण तथा निरन्तर होने वाला विनाश ये सारे उपद्रव नष्ट हो जाते हैं । रोग एवं शत्रुओं का विनाश तो हो जाता है धन और पुत्रादि की अभिवृद्धि भी होती है ॥१६९-१७१॥

शंकरस्य भवान्या वा प्रासादान्निकटे शुभम् ॥ १७१॥

मण्डपद्वारवेद्याद्यं कुर्यात् सध्वजतोरणम् ।

तत्र कुण्डं प्रकुर्वीत प्रतीच्यां मध्यतोपि वा ॥ १७२ ॥

अब शतचण्डी अनुष्ठान का प्रयोग कहते है –

शास्त्रोक्त विधि के अनुसार शिवालय अथवा किसी देवी मन्दिर के सन्निकट ध्वज एवं तोरण, वन्दनवारों से सजे हुए सुन्दर मण्डप, द्वार एवं मध्य में वेदी का और पश्चिम दिशा में अथवा मध्य में कुण्ड का निर्माण करे ॥१७१-१७२॥

स्नात्वा नित्यकृतिं कृत्वा वृणुयादशवाडवान ।

जितेन्द्रियान्सदाचारान्कुलीनान् सत्यवादिनः ॥ १७३॥

व्यत्पन्नाश्चण्डिकापाठरताल्लज्जादयावतः ।

मधुपर्कविधानेन वस्त्रस्वर्णादिदानतः ॥ १७४ ॥

जपार्थमासनं मालां दद्यात्तेभ्योऽपि भोजनम् ।

फिर स्नानादि नित्यक्रिया कर (मण्डप में पधार कर ‘अमुक कामोऽहं शतचण्डी विधानमहं करिष्ये’ इस प्रकार का संकल्प कर गणेश पूजनादि मातृस्थापन, नान्दीश्राद्ध, स्वस्ति वाचनादि कर्म कर) जितेन्दिय, सदाचारी, कुलीन, सत्यवादी, चण्डीपाठ में व्युत्पन्न लज्जालु, दयावान् एवं शीलवान् दश ब्राह्मणों का मधुपर्क विधान से वस्त्र, स्वर्ण और जप के लिये आसन और माला दे कर वरण करे और उन्हें भोजन कराए ॥१७३-१७५॥

तेहविष्यान्नमश्नन्तो मन्त्रार्थगतमानसाः ॥ १७५ ॥

भूमौ शयानाः प्रत्येक जपेयुश्चण्डिकास्तवम् ।

मार्कण्डेयपुराणोक्त दशकृत्वः सुचेतसः ॥ १७६॥

नवार्ण चण्डिकामन्त्र जपेयुश्चायुतं पृथक् ।

यजमानः पूजयेच्च कन्यानां दशकं शुभम् ॥ १७७ ॥

वे ब्राह्मण भी यजमान द्वारा प्रदत्त आसन पर बैठकर समाहित चित्त से देवी को स्मरण कर, सप्तशती के मूलमन्त्र से वेदी पर कलश स्थापित कर, उस पर देवों का आवाहन कर, षोडशोपचार से पूजन करे, उसी कलश के आगे बैठकर पूजन करें । उन ब्राह्मणों को हविष्यान्न का भोजन कराते हुए और भूमि में ब्रह्मचर्यपूर्वक शयन करते हुए मन्त्रों के अर्थों में मन लगाकर दश दश की संख्या में मार्कण्डेय पुराणोक्त सप्तशती का पाठ करना चाहिए (तथा प्रत्येक दश दश की संख्या में पृथक् पृथक् नवार्ण मन्त्र का जप करे तथा अस्पृश्य का स्पर्श न करना आदि समस्त वर्जित नियमों का भी पालन करे ॥१७५-१७७॥

द्विवर्षाद्या दशाब्दान्ताः कुमारीः परिपूजयेत् ।

नाधिकाङ्गी न हीनांगी कुष्ठिनी च ब्रणांकिताम् ॥ १७८ ॥

अब कुमारी पूजन का विधान कहते हैं – इसके बाद यजमान अधिकाङ्ग हीनाङ्गादि दुर्लक्षणो से रहित २ वर्ष से लेकर १० वर्ष की आयु वाली बटुक सहित १० कन्याओं का पूजन करे ॥१७७॥

अन्धा काणां केकरां च कुरूपां रोमयुक्तनुम् ।

दासीजातां रोगयुक्तां दुष्टां कन्यां न पूजयेत् ॥ १७९ ॥

विप्रां सर्वेष्टसंसिद्ध्यै यशसे क्षत्रियोद्भवाम् ।

वैश्यानां धनलाभाय पुत्राप्त्यै शूद्रजां यजेत् ॥ १८० ॥

कुण्ठ रोग ग्रस्त, व्रत, अन्धी, कानी, केकराक्षी, कुरुपा, रोगयुक्ता दासी पुत्री और दुष्टा कन्या का पूजन वर्जित है । अभीष्ट सिद्धि हेतु ब्राह्मणकन्या, यशोवृद्धि के लिये क्षत्रिय कन्या, धनलाभ के लिये वैश्य कन्या तथा पुत्र प्राप्ति के लिये शूद्र कन्या का पूजन करना चाहिए ॥१७९-१८०॥

द्विवर्षा सा कुमार्युक्ता त्रिमूर्तिर्हायनत्रिका ।

चतुरब्दा तु कल्याणी पञ्चवर्षा तु रोहिणी ॥ १८१॥

षडब्दा कालिका प्रोक्ता चण्डिका सप्तहायनी ।

अष्टवर्षा शाम्भवी स्याद दुर्गा च नवहायनी ॥ १८२ ॥

सुभद्रा दशवर्षोक्तास्तामन्त्रैः परिपूजयेत् ।

दो वर्ष की कन्या – कुमारी, ३ वर्ष की – त्रिमूर्ति, ४ वर्ष की – कल्याणी, ५ वर्ष की – रोहिणी, ६ वर्ष की – कालिका, ७ वर्ष की – चण्डिका, ८ वर्ष की – शाम्भवी, ९ वर्ष की – दुर्गा तथा १० वर्ष की कन्या सुभद्रा कही जाती है । इनका मन्त्रों के द्वारा पूजन करना चाहिए ॥१८१-१८३॥

एकाब्दायाः प्रीत्यभावो रुद्राब्दास्तु विवर्जिताः ॥ १८३ ॥

तासामावाहने मन्त्राः प्रोच्यन्ते शंकरोदिताः ।

मन्त्राक्षरमयीं लक्ष्मी मातॄणां रूपधारिणीम् ॥ १८४॥

१ वर्ष की कन्या में प्रीति का अभाव होने से पूजन मे अयोग्य तथा ११ वर्ष वाली कन्या पूजन में वर्जित है ॥१८३-१८४॥

नवदुर्गात्मिकां साक्षात्कन्यामावाहयाम्यहम् ।

कुमारिकादिकन्यानां पूजामन्त्रान्वेऽधुना ॥ १८५॥

अब उनके आवाहनादि के लिये शंकराचार्य द्वारा संप्रोक्त मन्त्र कहता हूँ…

‘मन्त्राक्षरमयीं’ से लेकर ‘कन्यामावाह्याम्यहम्  पर्यन्त (द्र० १८. १८४-१८५) मन्त्र का उच्चारण करते हुये उन कुमारियों का आवाहन करना चाहिए ॥१८५॥

कन्यकापूजनप्रकारस्तासां मन्त्राश्च

जगत्पूज्ये जगद्वन्द्ये सर्वदेवस्वरुपिणी ।

पूजां गृहाण कौमारि जगन्मातर्नमोऽस्तु ते ॥ १८६ ॥

त्रिपुरा त्रिपुराधारां त्रिवर्गज्ञानरूपिणीम् ।

त्रैलोक्यवन्दितां देवीं त्रिमूर्ति पूजयाम्यहम् ॥ १८७ ॥

कालात्मिका कलातीतां कारुण्यहृदयां शिवाम् ।

कल्याणजननी देवीं कल्याणी पूजयाम्यहम् ॥ १८८ ॥

अणिमादि गुणाधारामकाराद्यक्षरात्मिकाम् ।

अनन्तशक्तिका लक्ष्मी रोहिणीं पूजयाम्यहम् ॥ १८९ ॥

कामचारां शुभां कान्तां कालचक्रस्वरूपिणीम् ।

कामदां करुणोदारां कालिकां पूजयाम्यहम् ॥ १९० ॥

चण्डवीरां चण्डमायां चण्डमुण्डप्रभञ्जनीम् ।

पूजयामि महादेवी चण्डिकां चण्डविक्रमाम् ॥ १९१ ॥

सदानन्दकरी शान्तां सर्वदेव नमस्कृताम् ।

सदानन्दकरी शान्तां सर्वदेव नमस्कृताम् ।

सर्वभूतात्मिकां देवीं शाम्भवीं पूजयाम्यहम् ॥ १९२ ॥

दुर्गमे दुस्तरे कार्ये भवार्णवविनाशिनि ।

पूजयामि सदा भक्त्या दुर्गादुर्गातिनाशिनीम् ।। १९३॥

सुन्दरी स्वर्णवर्णाभां सुखसौभाग्यदायिनीम् ।

सुभद्रजननी देवीं सुभद्रां पूजयाम्यहम् ॥ १९४ ॥

फिर १. ‘ॐ जगत्पुज्ये… नमोस्तुते’ पर्यन्त मन्त्र (द्र०. १९. १८६) से कुमारी का, २. ‘ॐ त्रिपुरा त्रिपुराधाराम्’ से त्रिमूर्ति का, ३. ‘ॐ कालात्मिकाकलातीता’ से कल्याणी कां, ४, ४. ‘ॐ अणिमाणिदिगुणाधराम्’ से रोहिणी का, ५. ‘ॐ कामचारां शुभां कान्ताम्’ स कालिका का, ६. ‘ॐ चण्डवीरां चण्डमाया०’ से चण्डिका का, ७. ‘ॐ सदानन्दकरीम शान्ताम्‍०’ से शाम्भई का, ८. ‘ॐ दुर्गमे दुस्तरे कार्ये०’ से दुर्गा का, ९, ‘ॐ सुन्दरीं स्वर्णवर्णाभां०’ से सुभद्रा का पूजन करना चाहिए ॥१८६-१९४॥

एतैर्मन्त्रैः पुराणोक्तः स्नातां कन्यां प्रपूजयेत् ।

गन्धैः पुष्पैर्भक्ष्यभोज्यैर्वस्त्रैराभरणैरपि ॥ १९५ ॥

पुराणोक्त इन इन मन्त्रों से स्नान की हुई कन्याओं का गन्ध, पुष्प, भक्ष्य, भोज्य, वस्त्र एवं आभूषणों से पूजन करना चाहिए ॥१९५॥

वेद्या विरचिते रम्ये सर्वतोभद्रमण्डले ।

घट संस्थाप्य विधिवत्तत्रावाह्यार्च्चयेच्छिवाम् ॥ १९६ ॥

तदने कन्यकाश्चापि पूजयेद् ब्राह्मणानपि ।

उपचारैस्तु विविधैः पूर्वोक्तावरणान्यपि ॥ १९७ ॥

अब सर्वतोभद्रमण्डल पर घटस्थापन, पूजन एवं हवन का विधान कहते हैं –

वेदी पर बनाये गये परम रमणीय सर्वतोभद्रमण्डल पर घटस्थापन कर भगवती का विधिवत् आवाहन एवं पूजन करना चाहिए। उसके आगे यथोपलब्ध विविध उपचारों से कन्या एवं ब्राह्मणों का विधिवत् पूजन करना चाहिए। तदनन्तर पूर्वोक्त (द्र०, १८, १४६-१५७) आवरण पूजा करनी चाहिए ॥१९६-१९७॥

पञ्चमदिने हवनकृत्यम्

एवं चतुर्दिनं कृत्वा पञ्चमे होममाचरेत् ।

पायसान्नैस्त्रिमध्वक्त क्षारम्भाफलैरपि ॥ १९८ ॥

मातुलिङ्गैरिक्षुखण्डैर्नारिकेलैः पुरैस्तिलैः ।

जातीफलैराम्रफलैरन्यैर्मधुरवस्तुभिः ॥ १९९ ।।

इस विधि से ४ दिन तक अनुष्ठान कर ५ वें दिन होम करना चाहिए । सप्तशती १० आवृत्तियों से प्रत्येक श्लोक से मधुरत्रय (घृत, शक्कर, मधु) सहित खीर, अंगूर, केला, बिजौरा, उख के टुकडे नारियल, तिल, आम और अन्य मधूर वस्तुओं से होम करना चाहिए ॥१९८-१९९॥

सप्तशत्या दशावृत्या प्रतिश्लोकं हुतं चरेत् ।

अयुतं च नवार्णेन स्थापिताग्नौ विधानतः ॥ २०० ॥

कृत्वावरण देवानां होमं तन्नाममन्त्रतः ।

कृत्वा पूर्णाहुतिं सम्यग्देवमग्निं विसर्म्य च ॥ २०१॥

इसी प्रकार विधिवत् स्थापित अग्नि में नवार्ण मन्त्र से १० हजार आहुतियाँ भी देनी चाहिए । फिर आवरण देवताओं का उनके नाम मन्त्रों के आरम्भ में प्रणव तथा अन्त में ‘स्वाहा’ लगाकर एक एक आहुति देनी चाहिए । फिर पूर्णाहुति कर विधिवत् देवताओं और अग्नि का विसर्जन करना चाहिए । कुम्भस्थ देवी का पूजन बलिदान प्रदान कर प्रत्येक ऋत्विजों को निष्क अथवा अशक्त होने पर सुवर्ण दक्षिणा देवे ॥२००-२०१॥

अभिषिञ्चेच्च यष्टारं विप्रौघः कलशोदकैः ।

निष्कं सुवर्णमथवा प्रत्येक दक्षिणां दिशेत् ॥ २०२ ॥

भोजयेच्च शतं विप्रान भक्ष्यभोज्यैः पृथाग्विधैः ।

तेभ्योऽपि दक्षिणां दत्त्वा गृहणीयादाशिषस्ततः ॥ २०३ ॥

अब अभिषेक विधान एवं ब्राह्मण भोजन का प्रकार कहते है –

होम के अनन्तर समस्त वरण किए गए ब्राह्मणो को चाहिए कि कलश के जल से यजमान का अभिषेक कर आशीर्वाद प्रदान करें । यजमान भी प्रत्येक ब्राह्मणों को निष्क अथवा सुवर्ण दक्षिणा देवे और विविध भक्ष्य भोज्यादि पदार्थों से सौ की संख्या में ब्राह्मणों को भोजन करावे । उन्हें भी यथाशक्ति दक्षिणा देवे और उनका आशीर्वाद भी ग्रहण करे ॥२०२-२०३॥

शतचण्डीविधानस्य फलकथनम्

एवं कृते जगद्वश्यं सर्वे नश्यन्त्युपद्रवाः ।

राज्यं धनं यशः पुत्रानिष्टमन्यल्लभेत सः ॥ २०४ ॥

ऐसा करने से संसार वश में हो जाता है । सारे उपद्रव नष्ट हो जाते हैं तथा राज्य, धन, यश, पुत्र की प्राप्ति एवं सारे मनोरथों की पूर्ति भी हो जाती है ॥२०४॥

सहस्रायुतादिचण्डीविधानफलं च

एतद्दशगुणं कुर्याच्चण्डी साहस्रजं विधिम् ।

विद्यावतः सदाचारान् ब्रह्माणान् वृणुयाच्छतम् ॥ २०५॥

अब सहस्त्रचण्डी का विधान कहते हैं –

सह्स्त्र चण्डी विधान में शतचण्डी विधान का दश गुना कार्य (पाठ, जप, होम, दक्षिणा, कन्या पूजन, ब्राह्यण वरण, और ब्राह्मण भोजन) करना चाहिए । इस अनुष्ठान में विद्वान् और सदाचारी १०० ब्राह्मणों का वरण करना चाहिए ॥२०५॥

प्रत्येकं चण्डिकापाठान् विदध्युस्ते दिशामितान् ।

अयुतं प्रजपेयुस्ते प्रत्येकं नववर्णकम् ॥ २०६ ॥

उनमें से प्रत्येक को १०-१० चण्डी पाठ तथा १०-१० हजार नवार्ण मन्त्र का जप करना चाहिए ॥२०६॥

पूर्वोक्ताः कन्यकाः पूज्याः पूर्वमन्त्रैः शतं शुभाः ।

एवं दशाह सम्पाद्य होमं कुर्युः प्रयत्नतः ॥ २०७ ॥

इसी प्रकार पूर्वोक्त शुभ लक्षण वाली (द्र०, १८. १७७-१८३) सौ कन्याओं का पूर्वोक्त मन्त्रों से (द्र० १८. १८४-१९४) पूजन करना चाहिए । इस प्रकार १० दिन पर्यन्त कार्य करने के बाद विधिवत् होम करना चाहिए ॥२०७॥

सप्तशत्याः शतावृत्त्या प्रतिश्लोकं विधानतः ।

लक्षसंख्यं नवार्णेन पूर्वोक्तैर्द्रव्यसञ्चयैः ॥ २०८ ॥

होतृभ्यो दक्षिणां दत्त्वा पूर्वोक्तान्भोजयेद् द्विजान् ।

सहस्रसम्मितान्साधून देव्याराधनतत्परान् ॥ २०९ ॥

सप्तशती की १०० आवृत्तियों से, एक-एक श्लोक द्वारा तथा एक लाख नवार्ण मन्त्रों द्वारा विधिपूर्वक पूर्वोक्त द्रव्यों से हवन करना चाहिए । फिर ऋत्विजों को दक्षिणा देने के बाद पूर्वोक्त लक्षण युक्त (द्र० १८. १७३-१७६) एक हजार सज्जन और देवी की आराधना में तत्पर ब्राह्मणों को भोजन कराना चाहिए ।२०८-२०९॥

एवं सहस्रसंख्याके कृते चण्डीविधौ नृणाम् ।

सिद्ध्यत्यभीप्सितं सर्व दुःखौघश्च विनश्यति ॥ २१०॥

इस प्रकार विधिवत् सह्स्त्रचण्डी करने पर उपासक की सारी कामनायें पूरी होती है तथा समस्त दुःख और पाप नष्ट हो जाते है ॥२१०॥

मारी दुर्भिक्षरोगाद्या नश्यन्ति व्यसनोच्चयाः ।

नेमं विधिं वदेहुष्टे खले चौरे गुरुद्रुहि ॥ २११ ॥

सह्स्त्रचण्डी के पाठ से महामारि, दुर्भिक्ष, रोग तथ सभी प्रकार के दुर्व्यसनादि नष्ट हो जाते है । चण्डी का विधान दुष्ट, खल, चोर, गुरुद्रोही को नहीं बताना चाहिए ॥२११॥

साधौ जितेन्द्रिये दान्ते वदेद्विधिमिमं परम् ।

एवं सा चण्डिका तुष्टा वक्तृञ्छोतॄश्च रक्षति ॥ २१२ ।।

सज्जन, जितेन्द्रिय और संयमी को ही इस विधि का उपदेश करना चाहिए । इस प्रकार सत्पात्र को उपदेश करने से भगवती चण्डिका वक्ता और और श्रोता दोनों की रक्षा करती हैं ॥२१२॥

॥ इति श्रीमन्महीधरविरचिते मन्त्रमहोदधौ कालरात्रिचण्डीमन्त्र शतचण्ड्यादिनिरूपणं नाम अष्टादशस्तरङ्गः ॥ १८ ॥

इस प्रकार श्रीमन्महीधर विरचित मन्त्रमहोदधि के अष्टादश तरङ्ग की महाकवि पं० रामकुबेर मालवीय के द्वितीय आत्मज डॉ० सुधाकर मालवीयकृत ‘अरित्र’ नामक हिन्दी व्याख्या पूर्ण हुई ॥ १८ ॥

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