मन्त्रमहोदधि तरङ्ग ७ || Mantra Mahodadhi Taranga 7
मन्त्रमहोदधि तरङ्ग ७ में वटयक्षिणी, वटयक्षिणी के भेद, वाराही, ज्येष्ठा, कर्णपिशाचिनी, स्वप्नेश्वरी, मातङ्गी, बाणेशी एवं कामेशी के मन्त्रों को प्रतिपादित दिया गया है।
मन्त्रमहोदधि सप्तम तरङ्ग
मन्त्रमहोदधिः सप्तमः तरङ्गः
मन्त्रमहोदधि तरङ्ग ७
अथ सप्तमः तरङ्गः
अथ सर्वेष्टसंसिद्धये प्रवक्ष्ये वटयक्षिणीम् ।
अब सभी मनोरथों की सिद्धि के लिए वटयक्षिणी मन्त्र कहता हूँ –
सर्वेष्टसिद्धिदोवट्यक्षिणीमन्त्रः
पद्मनाभो वियद्वायूझिण्टीशस्थौ सदृग्वियत् ॥१॥
यक्षि यक्षि महायक्षि वटतोयं सनासिकम् ।
क्षनिवासिनि शीघ्रं मे सर्वसौख्यं कुरुद्वयम् ॥२॥
स्वाहा द्वात्रिंशदर्णोऽयं मन्त्रोऽखिलसमृद्धिदः ।
ऋषिः स्याद्विश्रावश्छन्दोऽनुष्टुब्देवीं तु यक्षिणी ॥३॥
पद्मनाभ (ए) झिण्टीशस्थ (ए) वियद् और वायु ह्य (ह्यो) सदृक् (एकारसहित) वियत् (ह) अर्थात अर्थात् हि तदनन्तर ‘यक्षि यक्षि महायक्षि वट’ पद फिर सनासिक ऋकार सहित तोय व् (अर्थात् वृ) तदनन्तर ‘क्षनिवासिनी शीघ्रं मे सर्वसौख्यं’ इतना पद फिर दो बार कुरु (कुरु कुरु) इसके अन्त में ‘स्वाहा’ लगाने से सर्वसमृद्धिदायक बत्तीस अक्षरों का मन्त्र निष्पन्न होता है। इस मन्त्र के विश्रवा ऋषि हैं, अनुष्टुप छन्द है, तथा यक्षिणी देवता हैं ॥१-३॥
विमर्श – वटयक्षिणी मन्त्र का स्वरुप इस प्रकार है – ‘एह्येहि यक्षि यक्षि महायक्षि वटवृक्षनिवासिनी शीघ्रं मे सर्वसौख्यं कुरु कुरु स्वाहा’ (३२) ॥१-३॥
विमर्श – विनियोग विधि – ‘ॐ अस्य श्रीवटयक्षिणीमन्त्रस्य विश्रवाऋषिरनुष्टुप्छन्दः यक्षिणीदेवतात्मनोऽभीष्टसिद्धयर्थं जप विनियोगः’ ॥१-३॥
षडड्गन्यासोऽङ्गन्यासश्च
वहिनभिः श्रुतिभिर्वेदैर्वसुभिः सप्तभी रसैः ।
प्रकुर्वीत षडङानि मन्त्रवर्णान्न्यसेत्तनौ ॥४॥
मस्तके नेत्रयोर्वक्त्रे नासाकर्णांसयुग्मतः ।
स्तनयोः पार्श्वयोर्द्वन्द्वे हृदि नाभौ शिवोदरे ॥५॥
कट्यूरुनाभिर्जङ्घासु जानुनोर्मणिबन्धयोः ।
हस्तयोर्मूर्ध्नि विन्यस्य ध्यायेद् देवीं वटस्थिताम् ॥६॥
मन्त्र के क्रमशः ३, ४, ४, ८, ७, एवं ६ अक्षरों से अङ्गन्यास करना चाहिए । फिर मस्तक, दोनों नेत्र, मुख, नासिकाद्वय, दोनों कान, दोनों कन्धे, दोनों स्तन, दोनों पार्श्वभाग, हृदय-नाभि, लिङ्ग, उदर, कटि, ऊरु, नाभि, दोनों जंघा, दोनों जानु, दोनों मणिबन्ध, दोनों हाथ तथा शिर में मन्त्र के प्रत्येक वर्णों से न्यास कर वटवृक्ष में स्थित देवी का ध्यान करना चाहिए ॥४-६॥
विमर्श – प्रयोग विधि – ‘एह्येहि हृदयाय नमः, यक्षि यक्षि शिरसे स्वाहा, महायक्षि शिखायै वषट्, वटवृक्षनिवासिनि कवचाय हुं, शीघ्रं में सर्वसौख्य नेत्रत्रयाय वौषट्, कुरु कुरु स्वाहा अस्त्राय फट् ।
सर्वाङ्गन्यास – ॐ ऐं नमः मस्तके, ह्यें नमः दक्षनेत्रे, हिं नमः वामनेत्रे,
यं नमः मुखे, क्षिं नमः दक्षनासायाम्, यं नमः वामसायाम,
क्षिं नमः दक्षकर्णे, में नमः वामकर्णे, हां नमः दक्षांसे,
यं नमः वामांसे, क्षि नमः दक्षिणस्तने वं नमः वामस्तने,
टं नमः दक्षिणपार्श्वे वृं नमः वामपार्श्वे, क्ष्म नमः हृदि,
निं नमः नाभौ, वां नमः लिङ्गे सिं नमः उदरे,
निं नमः दक्षिणकट्याम्, शीं नमः वामकट्याम्, घ्रं नमः दक्षिणउरौ,
में नमः वामउरौ, सं नमः नाभौ, र्वं नमः दक्षिणजंघायाम्,
सौं नमः वामजंघायाम् ख्यं नमः दक्षिणजानौ, कुं नमः वामजानौ,
रुं नमः दक्षिणमणिबन्धे, कुं नमः वाममणिबन्धे, रुं नमः दक्षिणहस्ते
स्वां नमः वामहस्ते हां नमः शिरसि ॥४-६॥
ध्यानजपहोमावरणदेवतादिकथनम्
अरुणचन्द्रनवस्त्रविभूषितां सजलतोयतुल्यतनूरुचम् ।
स्मरकुरङ्गदृशं वटयाक्षिणीं क्रमुकनागलतादलयुक्कराम् ॥७॥
अब देवी का ध्यान कहते हैं – लाल चन्दन एवं लाल वस्त्रों से विभूषित शरीर वाली, विशाल जलधर के समान कान्ति वाली, मदमत्त हरिणी के समान चञ्चल नेत्रों वाली, अपने दो हाथों में पूगींफल एवं नागवल्ली दल लिए हुये वटयक्षिणी का मैं ध्यान करता हूँ ॥७॥
मन्त्रमहोदधि सप्तम तरङ्ग वटयक्षिणीपूजनयन्त्र
लक्षदयं जपेन्मन्त्रं बन्धूकैस्तद्दशांशतः ।
हुत्वा पीठे यजेद्देवीमुच्यन्ते पीठशक्तयः ॥८॥
इस मन्त्र का २ लाख जप करना चाहिए अथा बन्धूक पुष्पों से उसका दशांश होम करना चाहिए । अब पीठशक्तियों का वर्णन करता हूँ ॥८॥
कामदामानदानक्तामधुरा मधुरानना ।
नर्मदाभोगदानन्दाप्राणदा पीठशक्तयः ॥९॥
मनोहराय यक्षिण्या योगपीठाय हृन्मनुः ।
पीठस्योक्तस्तत्र देवीं पूजयेद्वटयक्षिणीम् ॥१०॥
१. कामदा, २. मानदा, ३. नक्ता, ४. मधुरा, ५. मधुरानना, ६. नर्मदा, ७. भोगदा, ८. नन्दा और ९. प्राणदा ये पीठ की नव शक्तियाँ कहीं गही हैं । ‘मनोहराय यक्षिणी योगपीठाय नमः’ यह पीठ मन्त्र है, इसी पूजित पीठ पर वटयक्षिणी का पूजन करना चाहिए ॥९-१०॥
विमर्श – प्रयोग विधि – पूर्वोक्त श्लोक (७) के अनुसार देवी का ध्यान कर मानसोपचार से पूजन करने के अनन्तर अर्घ्यपत्र इस प्रकार स्थापित करना चाहिए । यथा – ‘फट्’ से अर्घ्यपात्र प्रक्षलित कर ॐ से, जल, गन्ध, पुष्पादि डाल कर ‘गंगे च यमुने चैव’ इस मन्त्र से उस जले में तीर्थ का आवाहन करना चाहिए । तदनन्तर धेनुमुद्रा प्रदर्शित कर अर्घ्यपात्र पर हाथ रखकर मूल मन्त्र का दश बार जप करना चाहिए फिर अर्घ्यपात्र से कुछ जल प्रोक्षणी पात्र में डालकर मूलमन्त्र पढकर वृत्ताकार कर्णिका, उसके बाद अष्टदल कमल, तदनन्तर भूपुर इस प्रकार का यन्त्र बनाकार यक्षिणी देवी का पूजन करना चाहिए ।
इसके बाद पीठ पूजा इस प्रकार करनी चाहिए – ॐ आधार शक्तये नमः,
ॐ प्रकृतये नमः, ॐ कूर्माय नमः, ॐ अनन्ताय नमः,
ॐ पृथिव्यै नमः, ॐ क्षीरसमुद्राय नमः, ॐ रत्नद्वीपाय नमः,
ॐ कल्पवृक्षाय नमः, ॐ स्वर्णसिंहासनाय नमः, ॐ आनन्दकन्दाय नमः,
ॐ संविन्नालाय नमः, ॐ सर्वतत्त्वात्मकपद्माय नमः, ॐ सं सत्त्वाय नमः,
ॐ रं रजसे नमः, ॐ तं तमसे नमः, ॐ आं आत्मने नमः,
ॐ अं अन्तरात्मने नमः, ॐ परमात्मने नमः, ॐ ह्रीं ज्ञानात्मने नमः ।
इसके बाद पूर्वादिदिशाओं के क्रम से नव शक्तियों की पूजा करनी चाहिए ।
यथा – ॐ कामदायै नमः, ॐ मानदायै नमः, ॐ नक्ताय नमः,
ॐ मधुरायै नमः, ॐ मधुराननायै नमः, ॐ नर्मदायै नमः,
ॐ भोगदायै नमः, ॐ नन्दायै नमः, ॐ प्राणदायै नमः ।
तदनन्तर ‘ॐ मनोहराय यक्षिणी योगपीठाय नमः,’ इस मन्त्र से पीठ पूजा कर, देवी के यन्त्र में देवी की कल्पना कर श्लोक ७ में वर्णित देवी के स्वरुप का ध्यान कर, पूजोपचार से उनका पूजन कर, ‘आज्ञापय आवरणं ते पूजयामि’ इस मन्त्र से आज्ञा ले आवरण पूजन करनी चाहिए ॥९-१०॥
कर्णिकायां षडङ्गानि पत्रेष्वेता यजेत्पुतः ।
सुनन्दाचन्द्रिकाहासा सुलापामदविहवला ॥११॥
आमोदा च प्रमोदापि वसुदेत्यष्टशक्तयः ।
इन्द्रादीनथ वज्रादीन् सम्पूज्य लभते सुखम् ॥१२॥
अब आवरण पूजा विधान करते हैं –
कर्निका में षडङ्गपूजा तथा पत्रों में १. सुनन्दा, २. चन्द्रिका, ३. हासा, ४. सुलापा, ५. मदविहवला, ६. आमोदा, ७. प्रमोदा एवं ८. वसुदा एन आठ शक्तियों का पूजन करना चाहिए । इसके बाद भूपुर में इन्द्रादि दश दिक्पालों का तथा भूपुर से बाहर उनके वज्रादि आयुधों का पूजन करने से साधक सुख प्राप्त करता हैं ॥११-१२॥
विमर्श – आवरण पूजा प्रयोग – प्रथमावरण में वृत्ताकार कर्णिका में
एह्येहि हृदयाय नमः, यक्षियक्षि शिरसे स्वाहा,
महायक्षि शिखायै वषट् वटवृक्षनिवासिनि कवचाय हुम्
शीघ्रं में सर्वसौख्य नेत्रत्रयाय वौषट् कुरु कुरु स्वाहा अस्त्राय फट् ।
द्वितीयवरण में अष्टदलों में – ॐ सुनन्दायै नमः, ॐ चन्द्रिकायै नमः,
ॐ हासायै नमः, ॐ सुलापायै नमः, ॐ महविहवलायै नमः,
ॐ आमोदायै नमः, ॐ प्रमोदायै नमः, ॐ वसुदायै नमः,
इसके बाद तृतीयावरण में भूपुर के भीतर पूर्वादि दिशाओं के क्रम से
ॐ इन्द्राय नमः, पूर्वे, ॐ अग्नये नमः, आग्नेये,
ॐ यमाय नमः, दक्षिणे, ॐ निऋतये नमः, नैऋत्ये,
ॐ वरुणाय नमः, पश्चिमे, ॐ वायवे नमः, वायव्ये,
ॐ सोमाय नमः, उत्तरे ॐ ईशानाय नमः, ऐशान्ये,
ॐ ब्रह्मणे नमः, पूर्वेशानयोर्मध्ये, ॐ अननताय नमः, पश्चिमनैऋत्ययोर्मध्ये
इसके बाद चतुर्थावरण में भूपुर के बाहर वज्रादि आयुधों का पूजन करना चाहिए-
ॐ वज्राय नमः, पूर्वे, ॐ शक्तये नमः, आग्नेये,
ॐ दण्डाय नमः, दक्षिणे, ॐ खड्गाय नमः, नैऋत्येम
ॐ पाशाय नमः पश्चिमे ॐ अकुंशाय नमः वायव्ये,
ॐ गदायै नमः पूर्वेशानयोर्मध्ये ॐ त्रिशूलाय नमः ऐशान्ये,
ॐ चक्राय नमः निऋतिपश्चिमयोर्मध्ये ।
इस प्रकार आवरण पूजा कर पञ्चोपचारों से देवी का पूजन कर चार पुष्पाञ्जलि समर्पित कर विधिवत् जप प्रारम्भ करना चाहिए ॥११-१२॥
एवमाराधितो मन्त्रः प्रयोगेषु क्षमो भवेत् ।
देव्याः प्रत्यक्षदर्शनादिफलकथनम्
निर्मनुष्ये वने गत्वा न्यग्रोधाधस्तले जपेत् ॥१३॥
प्रतिघस्रं तमस्विन्यां सहस्रं नियतेन्द्रियः ।
सप्तमे दिवसे प्राप्ते कृत्वा चन्दनमण्डलम् ॥१४॥
तत्राज्यदीपं कृत्वास्मिन्पूजयेद्वटयाक्षिणीम् ।
तदग्रे प्रजमेन्मन्त्रमानिशीथं समाहितः ॥१५॥
श्रृणोति नूपुरारावं मन्त्रीगीतध्वनिं ततः ।
श्रुत्वैव प्रजपेन्मन्त्रं वीतत्रासश्च तां स्मरेत् ॥१६॥
ततः प्रत्यक्षतो देवीमीक्षते सुरतार्थिनीम् ।
तत्कामपूरणात् सा तु ददातीष्टानि मन्त्रिणे ॥१७॥
इस प्रकार आराधना करने से साधक काम्य प्रयोग का अधिकारी हो जाता है । किसी निर्जन वन में जाकर वट वृक्ष के नीचे प्रतिदिन रात्रि में संयम पूर्वक जप करना चाहिए । तदनन्तर सातवें दिन चन्दन से मण्डल बनाकर उसमें घी का दीपक प्रज्वलित कर मण्डल में वटयक्षिणी का पूजन करना चाहिए । अत्यन्त सावधानी से मध्य रात्रिपर्यन्त उसके सामने जप करते रहने से साधक को नूपुर की ध्वनि सुनाई पडने लगती है । शब्द को सुनते हुये साधक को देवी का स्मरण करते हुये जप में निर्भय होकर लगे रहना चाहिए । ऐसा करते रहने से कुछ क्षणों के बाद मदविहवला यक्षिणी देवी रति की इच्छा करती हुई साधक के सामने प्रत्यक्ष दिखलाई पडने लगती है । साधक द्वारा उसकी कामना पूर्ति किये जाने पर वह उसे वर प्रदान करती है इस विषय में बहुत क्या कहें, वह साधकों के सारे मनोरथों को पूर्ण कर देती हैं ॥१३-१७॥
किं बहूक्तेन सर्वेष्टपूरणीवटयक्षिणी ।
सर्वसौख्यप्रदोऽपरो यक्षिणीमन्त्रः
पद्माद्वयं यक्षिणीति सचन्द्रं गगनत्रयम् ॥१८॥
वैश्वानरप्रियान्तोऽयं दशवर्णो मनुर्मतः ।
ऋषिः पूर्वोदितश्छन्दः पंक्तिर्देवो तु यक्षिणी ॥१९॥
अब वटयक्षिणी का अन्य मन्त्र कहते हैं –
पद्माद्वय (श्रीं श्रीं) फिर ‘यक्षिणी’ पद फिर सचन्द्र गगनत्रय (हं हं हं) इसके बाद वैश्वानर प्रिया (स्वाहा) लगाने से वटयक्षिणी का दूसरा दशाक्षर मन्त्र निष्पन्न जो जाता है ॥१८-१९॥
विमर्श – वटयक्षिणी देवी के इस दशाक्षर मन्त्र का स्वरुप इस प्रकार है –
‘श्रीं श्रीं यक्षिणी हं हं हं स्वाहा’ ।
इस मन्त्र के पूर्वोक्त विश्रवा ऋषि, हैं, पंक्ति छन्द है तथा यक्षिणी देवता हैं ॥१९॥
चन्द्रैकत्रित्रियुग्मेन सर्वेणाङ्गाक्रिया मता ।
स्मरेच्चम्पककान्तारे रत्नसिंहासनस्थिताम् ॥२०॥
सुवर्णप्रभां रत्नभूषाभिरामां जपापुष्पसच्छायवासो युगाढ्याम् ।
चतुर्दिक्षु दासीगणैः सेवितांघ्रि भजे सर्वसौख्यप्रदाम यक्षिणीं ताम् ॥२१॥
मन्त्र के १, १, ३, ३ और २ अक्षरों से न्यास करे तथा समस्त मन्त्राक्षरों से षडङ्गन्यास करना चाहिए ॥२०॥
अब यक्षिणी देवी का ध्यान कहते हैं –
चम्पक वन में रत्नसिंहासन पर विराजमान सुवर्ण के समान कान्तिवाली, रत्ननिर्मित आभूषणों से सुशोभित जपा, कुसुम के समान लाल वर्ण के युगल वस्त्र धारण करने वाली दासियों द्वारा चारों दिशाओं में सेव्यमान चरणयुगलों वाली एवं अपने साधकों को समस्त सुख प्रदान करने वाली यक्षिणी देवी का ध्यान करता हूँ ॥२०-२१॥
एवं ध्यात्वा जपेल्लक्षं जपापुष्पैर्दशांशतः ।
जुहुयात् पूर्ववत् पीठे पूर्वोक्ते प्रयजेदिमाम् ॥२२॥
इस प्रकार ध्यान कर उक्त दशाक्षर मन्त्र का एक लाख जप करना चाहिए । फिर जपा कुसुम से दशांश होम करना चाहिए । पुनः पूर्वोक्त पीठ पर देवी का पूजन करना चाहिए ॥२२॥
विमर्श – प्रयोग विधि – ‘ॐ अस्य श्रीवटयक्षिणीमन्त्रस्य विश्रवाऋषिः, पक्तिंश्छन्दः वटयक्षिणीदेवता आत्मनोऽभीष्टसिद्धये मन्त्रजपे विनियोगः ।
षडङ्गन्यास – श्री हृदयाय नमः, श्रीं शिरसे स्वाहा, यक्षिणी शिखायै वषट् हं हं हं कवचाय हुम्, स्वाहा नेत्रत्रयाय वौषट् श्रीं श्रीं श्रीं यक्षिणी हं हं हं स्वाहा अस्त्राय फट् । आगे की पूजा विधि ७-८-१२ के अनुसार करनी चाहिए ॥२१-२२॥
भूमिगतनिधिदर्शनदो मेखलायक्षिणीमन्त्रः
क्रोधीशवहनीमन्विन्दुयुक्तौ मदनमेखले ।
हृदयाग्निप्रियान्तोऽयं ताराद्यो द्वादशाक्षरः ॥२३॥
अब मेखला यक्षिणी मन्त्र कहते हैं –
औ एवं बिन्दु युक्त क्रोधीश एवं वहिन (क्रौं) तदनन्तर ‘मदनमेखले’ यह पद फिर हृद (नमः) अन्त में अग्निप्रिया (स्वाहा) तथा आदि में तार (ॐ) लगाने से १२ अक्षरों का मन्त्र निष्पन्न होता है ॥२३॥
विमर्श – मेखलायक्षिणी मन्त्र का स्वरुप इस प्रकार है – ‘ॐ क्रौं मदन मेखले नमः स्वाहा’ ॥२३॥
अस्येज्यापूर्ववत्सर्वा मेखलायक्षिणी त्वियम् ।
चतुर्दशाहपर्यन्तं मधूकावनिरुट्तले ॥२४॥
प्रजपेदयुतं नित्यं सहस्त्रं हवनं चरेत् ।
मधूकपुष्पैर्मध्वक्तैस्तत्काष्ठैश्च हुताशने ॥२५॥
सन्तुष्टैवं कृते देवी प्रयच्छेदञ्जनं शुभम् ।
येनाक्तनयनो मन्त्री निधिं पश्येद्धरागतम् ॥२६॥
यह मेखलायक्षिणी मन्त्र है । इसके भी पूजन का विधान पूर्ववत् है ।
महुआ के वृक्ष के नीचे निरन्तर १४ दिन पर्यन्त १० हजार की संख्या में प्रतिदिन के क्रम से जप करना चाहिए तथा महुए की लकडी से प्रज्वलित अग्नि में मधुमिश्रित महुये के फूलों की एक हजार आहुतियाँ देनी चाहिए । इस प्रकार जब साधक यक्षिणी को संतुष्ट करता है तब देवी एक दिव्य अञ्जन साधक को प्रदान करती हैं, जिसे आँखो में लगाने से जमीन में गडे हुये सारे खजाने निश्चित रुप से दिखाई पडने लगते हैं ॥२४-२६॥
रोगनाशको विशालायक्षिणीमन्त्रः
प्रणवो वाग्विशाले च माया पदमा मनोभव ।
ठद्वयान्तो दशार्णोऽयं विशालायक्षिणी मनुः ॥२७॥
अब विशालायक्षिणी मन्त्र कहते हैं –
प्रणव (ॐ), वाग (ऐं), फिर ‘विंशाले’ पद, फिर माया (ह्र), पदमा (श्रीं), मनोरथ (क्लीं), तदनन्तर ठद्वय (स्वाहा) लगाने १० अक्षरों का विशालायक्षिणी मन्त्र निष्पन्न होता है ॥२७॥
विमर्श – दशाक्षर विशालायक्षिणी मन्त्र का स्वरुप इस प्रकार हैं – ‘ॐ ऐं विशाले ह्रीं श्रीं क्लीं स्वाहा’ ॥२७॥
मुन्यादि पूजापर्यन्तं पूर्ववत्समुदीरितम् ।
चिन्तातरोरधःस्थित्वा शुचिर्लक्षं जपेन्मनुः ॥२८॥
शतपत्रैर्दशांशेन जुहुयात्तोषिता ततः ।
रसं ददाति येनासौ नीरोगायुरवाप्नुयात् ॥२९॥
अब प्रयोग विधि कहते हैं – इस मन्त्र के विनियोग से लेकर पूजा पर्यन्त समस्त विधान पूर्वोक्त समझना चाहिए ॥२८॥
चिञ्चा नामक वृक्ष के नीचे बैठकर पवित्रता पूर्वक नियमतः एक लाख जप करना चाहिए । तदनन्तर शतपत्र से दशांश होम करना चाहिए । ऐसा करने से संतुष्ट हुई देवी रस प्रदान करती हैं जिसके पीने से साधक निरोग रह करे आयुष्मान् होता है ॥२८-२९॥
वाराहीमन्त्र शत्रुनिग्रहकरः
वाक्चन्द्रशेखरौ शार्ङी पिनाकीशौ मनुस्थितौ ।
लाङुलित्रितयं सेन्दुवर्मदीर्घं शुचिप्रिया ॥३०॥
वस्वक्षरमनोः शत्रुघातिनः कपिलो मुनिः ।
छन्दोऽनुष्टुप् च वाराहीवार्तादेवतोदिता ॥३१॥
अब वार्त्ताली (वाराही अथवा शत्रुघाती) मन्त्र कहते हैं –
वाक् (ऐं) मनुस्थितौ चन्द्रशेखरौ (ओ बिन्दुयुतौ) शार्ङी पिनाकीश (ग्ल) अर्थात् ग्लौं, सेन्दुलाङ्गलित्रयं (ठं ठं ठं) दीर्घ वर्म (हूँ) तथा अन्त में शुचिप्रिया (स्वाहा) इस प्रकार आठ अक्षरों का यह मन्त्र निष्पन्न होता है ॥३०-३१॥
इस शत्रुघाती मन्त्र के कपिल ऋषि हैं, अनुष्टुप छन्द है, तथा वाराही वार्ताली देवता हैं ॥३१॥
विमर्श – मन्त्र का स्वरुप इस प्रकार है -‘ऐं ग्लौ ठं ठं ठं हूँ स्वाहा’ ।
विनियोग विधि – ‘ॐ अस्य श्रीशत्रुघातिनः मन्त्रस्य कपिलऋषिरनुष्टुप्छन्दः वाराहीवार्त्तालीदेवताऽत्मनोऽभीष्टसिद्धयर्थे मन्त्र जपे विनियोगः’ ॥३०-३१॥
इस मन्त्र के २, १, १, १, १, एवं २ वर्णों से षडङ्गन्यास करना चाहिए ।
द्विचन्द्रभूमिचन्द्रैकयुग्मार्णैरङ्गकल्पना ।
वाराहीं चेतसि ध्यायेच्छत्रुनिग्रहकारिणीम् ॥३२॥
तदनन्तर शत्रुनिग्रहकारिणी वार्त्ताली देवता का ध्यान करना चाहिए ।
विमर्श – षडङ्गन्यास विधि – ॐ एं ग्लौं हृदयाय नमः, ठं शिरसे स्वाहा, ठं शिखायै वषट्, ठं कवचाय हुम्, हूं नेत्रत्रयाय वौषट्, स्वाहा अस्त्राय फट् ॥३२॥
वाराहीध्यानम्
विद्युद्रोचिर्हस्तपद्मैर्दधाना पाशं शक्तिं मुद्गरं चाङ्ग्कुशं च ।
नेत्रोद्भूतैर्वितिहोत्रैस्त्रिनेत्रा वाराही नः शत्रुवर्गं क्षिणोतु ॥३३॥
अब वार्त्ताली का ध्यान कहते हैं –
विद्युत के समान कान्तिवाली अपने चारों करकमलों में क्रमशः पाश, शक्ति मुद्गर एवं अंकुश धारण किये हुये त्रिनेत्रा वाराही देवी हमारे शत्रुओं को अपने नेत्रों से निकलने वाली अग्नि से भस्म कर दें ॥३३॥
वसुलक्षं जपित्वान्ते बिल्वपत्रैर्हयारिजैः ।
धात्रीफलैर्भृङ्गराजैः कुशैर्हूयाद् दशांशतः ॥३४॥
उक्त मन्त्र का ८ लाख जप करना चाहिए । तदनन्तर विल्वपत्र, कनेर, आँवला भृङराज एवं कुशाओं से दशांश होम करना चाहिए ॥३४॥
पूर्वोदिते यजेत्पीठे षडङ्गैर्दिगिनायुधैः ।
एवं सिद्धं मनुं मन्त्री यो जपेच्छत्रुनिग्रहे ॥३५॥
सृणिना शत्रुमानीय बद्ध्वा पाशेन तं दृढम् ।
मुद्रगरेण ध्नतीं मूर्ध्नि तां स्मरन्नयुतं जपेत् ॥३६॥
जुहुयादयुतं शुद्धैर्वनशुष्कैस्तु गोमयैः ।
प्रक्षिपेद्धोमजं भस्मवापीकूपादिपाथसि ॥३७॥
तत्पानीयस्य पातारो भ्रियन्ते रिपवो ध्रुवम् ।
निर्यान्ति हित्वा स्थानं वा विद्विषन्तः परस्परम् ॥३८॥
अब प्रयोग विधि कहते हैं – पूर्वोक्त पीठ पर षडङ्ग दिक्पाल एवं उनके आयुधों का पूजन करना चाहिए । इस प्रकार मन्त्र सिद्ध हो जाने पर, साधक इस मन्त्र का शत्रुनिग्रह के लिए जपे करें । अंकुश से शत्रु को पकड कर उसे पाश से दृढतापूर्वक बाँधकर, गदा से शत्रु के शिर पर बार बार प्रहार करती हुई वार्त्ताली का ध्यान कर १० दश हजार जप करना चाहिए । इस प्रकार जप करने के पश्चात् वन में सूखे गोबर के कण्डों से १० हजार की संख्या में हवन करना चाहिए । फिर हवन के भस्म को वापी कूँओं आदि के जल में फेंक देना चाहिए । इस प्रकार के पानी को पीने वाले शत्रु निश्चित रुप से मर जाते हैं । अथवा वे आपस में लड झगड कर उस स्थान को छोडकर अन्यत्र भाग जाते हैं ॥३५-३८॥
शत्रुनिग्रहणे दक्षा स्मरणादपि मन्त्रिणाम् ।
प्रकीर्तितयं वाराही धूमावत्यधूनोच्यते ॥३९॥
यह देवी साधक द्वारा स्मरण करने मात्र से शत्रु विनाश के लिए उद्यत हो जाती हैं । यहाँ तक हमने शत्रुघातिनी वाराही के विषय में बतलाया अब धूमावती के विषय में बतलाता हूँ ॥३९॥
धूमावतीविधाने धूमावत्यष्टार्णमन्त्रः
सात्वतत्रितयं सार्घि तत्राद्यौ चन्द्रशेखरौ ।
बैकुण्ठोनन्तसंयुक्तो जलं नेत्रयुतो हरिः ॥४०॥
अब धूमावती (ज्येष्ठा) मन्त्र का स्वरुप कहते हैं –
सर्धि (ऊकार से युक्त), सात्वत्रितयधकार (धू धू धू), इसके आदि में रहने वाले दो धू पर दो चन्द्रशेखर (धूं धूं धूं), फिर अनन्तर संयुक्त वैकुण्ठ (मा), फिर जल (व), फिर नेत्रयुत हरि (ति), तदनन्तर वहिनजाया (स्वाहा) लगाने से आठ अक्षरों का शत्रुविनाशक धूमावती मन्त्र निष्पन्न होता है ॥४०॥
विमर्श – धूमावती (ज्येष्ठा) मन्त्र का स्वरुप इस प्रकार है – ‘ धूँ धूँ धूमावति स्वाहा’ ॥४०॥
अष्टोर्णो वहिनजायान्तो मन्त्रः शत्रुविनाशनः ।
धूमावतीमन्त्रस्यर्षिदेवतादिकथनम्
पिप्पलादो निचृज्ज्येष्ठा मुनिश्छन्दोऽस्य देवता ॥४१॥
इस मन्त्र के पिप्लाद ऋषि हैं, निचृद् छन्द है तथा ज्येष्ठा देवता है ॥४१।
आद्यबीजद्वयान्तस्थैः षड्वर्णैरङ्गमीरितम् ।
श्मशाने संस्थिता ध्यायेज्ज्येष्ठां वायससंस्थिताम् ॥४२॥
जप के प्रारम्भ में मन्त्र के आदि में रहने वाले मात्र दो वर्णो से षडङ्गन्यास करना चाहिए । फिर श्मशान में वायस (कौआ) पर विराजमान ज्येष्ठा देवी का ध्यान करना चाहिए ॥४२॥
विमर्श – विनियोग विधि – ‘ॐ अस्य श्रीधूमावतीमन्त्रस्य पिप्पलाद ऋषिर्निचृच्छदः ज्येष्ठदेवता शत्रुविनाशार्थे जपे विनियोगः’ ॥४१-४२॥
षडङ्गन्यास विधि – धूं धूं हृदयाय नम:, धूं धूं शिरसे स्वाहा, धूं धूं शिखायै वषट् धूं धूं कवचाय हुं, धूं धूं नेत्रत्रयाय वौषट्, धूं धूं अस्त्राय फट् ॥४१-४२॥
अत्युच्चामलिनाम्बराखिअजनोद्वेगावहादुर्मना
रुक्षाक्षित्रितया विशालदशना सूर्योदरी चञ्चला ।
प्रस्वेदाम्बुचिताक्षुधाकुलतनुः कृष्णातिरुक्षप्रभा
ध्येया मुक्तकचा सदाप्रियकलिर्धूमावती मन्त्रिणा ॥४३॥
अब ध्यान विधि कहते हैं – जो कद में बहुत ऊँची (लम्बी) हैं मैला कुचैला वस्त्र धारण करने वाली जिस देवी के दर्शन मात्र से मनुष्य उद्विग्न हो जाता है । खिन्न मन वाली जिस देवी के तीन रुखे (क्रोध युक्त) नेत्र हैं, दाँत बहुत बडे बडे हैं सूर्य के समान जिनका पेट बहुत गोल एवं बडा है, जो स्वभावतः चञ्चल हैम, पसीने से लथपथ कृष्णवर्णा जिन देवी के शरीर की कान्ति अत्यन्त रुक्ष है । भूख से तडपती हुई सर्वदा कलहकारिणी, विशीर्ण केशो वाली ऐसी धूमावती देवी का ध्यान साधक को करना चाहिए ॥४३॥
धूमावतीमन्त्रफलम्
एवं ध्यात्वा जपेल्लक्षं श्मशाने विगताम्बरः ।
निशाभोजी दशांशेन तिलैर्हवनमाचरेत् ॥४४॥
इस प्रकार देवी का ध्यान करते हये श्मशान स्थल में विवस्त्र (नंगा) होकर रात्रि में भोजन करते हुये एक लाख जप करना चाहिए । तदनन्तर उसका दशांश तिलों से होम करना चाहिए ॥४४॥
पूर्वोक्ते पूजयेत्पीठे ज्येष्ठां शत्रुविनष्टये ।
केसरेषु षङ्ङ्गनि पत्रस्था अष्टशक्तयः ॥४५॥
शत्रुनाश के लिए पूर्वोक्त पीठ पर ज्येष्ठा देवी का पूजन करना चाहिए । केशरों में षडङ्गों की पूजा चाहिए, तथा पत्रों में आठ शक्तियों की पूजा करनी चाहिए ॥४५॥
क्षुधातृष्णारतिर्निद्रानिऋतिर्दुर्गतीरुषा ।
अक्षमेति ततो देवा इन्द्राद्या आयुधानि च ॥४६॥
एवं ज्येष्ठां समाराध्य सिद्धमन्त्रः प्रजायते ।
१. क्षुधा, २. तृष्णा, ३. रति, ४. निऋति, ५. निद्रा, ६. दुर्गति, ७. रुषा और ८. अक्षमा ये अष्ट शक्तियाँ हैं, तदनन्तर इन्द्रादि दश दिक्पालों की, फिर उनके वज्रादि आयुधों की पूजा करे । इस प्रकार ज्येष्ठा (धूमावती) की आराधना कर साधक शीघ्र ही सिद्धि प्राप्त कर लेता है ॥४६-४७॥
उपोष्य कृष्णभूताहे नग्नो मुक्तशिरोरुहः ॥४७॥
शून्यागारे श्मशाने वा कान्तारे भूधरऽथवा ।
प्रत्यहं प्रजपेन्निर्भीर्ध्यायन्देवीं क्षपाशनः ॥४८॥
एवं लक्षं जपन्मन्त्रीं नाशयेदचिरादरिम् ।
जुहवता लवणोपेतां राजिकां निशि तत्फलम् ॥४९॥
अब ज्येष्ठा की आराधना विधि कहते हैं –
ज्येष्ठा मास के कृष्ण पक्ष में चतुर्दशी तिथि को उपवास करते हुए नग्नावस्था में शिर के बालों को विकीर्णे विखरा हुआ कर किसी शून्य घर में, श्मशान में, किसी गहन वन में अथवा किसी गुफा में देवी (धूमावती) का ध्यान कर रात्रि में भोजन करते हुए प्रतिदिन नियतसंख्या में जप करें । साधक इस प्रकार एक लाख जप कर लेने पर शीघ्र ही अपने शत्रुओं का विनाश कर देता है । किन्तु उसे वह फल तब होता है जब वह रात्रि के समय नमक युक्त राई का प्रतिदिन हवन करे ॥४७-४९॥
कर्णपिशाचिनीमस्तद्विधानवर्णनम्
तारो मायाकर्णिपिशा सदृशौ कूर्मधान्तिमौ ।
कर्णे मे विधिदण्डीरो ठद्वयं षोडशार्णकम् ॥५०॥
अब कर्णपिशाचिनी मन्त्र का उद्धार कहते हैं –
तार (ॐ), माया (ह्री), फिर ‘कर्णपिशा’, फिर सदृक् कूर्मघान्तिम (चिनि), फिर ‘कर्णे’ ‘मे’, फिर विधि (क), दण्डी (थ), फिर इ (य) और अन्त में ठद्वय (स्वाहा) लगाने से सोलह अक्षरों का मन्त्र निष्पन्न होता है ॥५०॥
विमर्श – मन्त्र का स्वरुप इस प्रकार हैं – ‘ॐ ह्रीं कर्णपिशाचिनि कर्णे मे कथय स्वाहा’ ॥५०॥
मनुऋष्यादिपूर्वोक्तं देवता तु पिशाचिनी ।
एकैकाङ्गन्गिरामाक्षिवर्णैरङ मनो मतम् ॥५१॥
इस मन्त्र के ऋषि छन्द पूर्वोक्त (द्र० ७-४१) हैं तथा कर्णपिशाचिनी देवता हैं । इस मन्त्र के १, १, ६, ३, और दो इन मन्त्राक्षरों से षडङ्गन्यास करना चाहिए ॥५१॥
विमर्श – विनियोग – अस्य श्रीकर्णपिशाचिनीमन्त्रस्य पिप्लादऋषिः निचृदछन्दः कर्णपिशाचिनीदेवता अभीष्टसिद्धयर्थ मन्त्र जपे विनियोगः ।
षडङ्गन्यास – ॐ हृदयाय नमः, ॐ ह्रीं शिरसे स्वाहा,
ॐ कर्णपिशाचिनि शिखायै वषट्, ॐ कर्णे में कवचाय हुम्
ॐ कथय नेत्रत्रयाय वौषट् ॐ स्वाहा अस्त्राय फट् ॥५१॥
चितासनस्थां नरमुण्डमालां विभूषितामस्थिणीन्कराब्जैः ।
प्रेतां नरान्त्रैर्दधतीं कुवस्त्रां भजामहे कर्णपिशाचिनीं ताम् ॥५२॥
अब कर्णपिशाचिनि देवी का ध्यान कहते हैं –
चिता पर आसन लगाकर कर बैठी हुई नर मुण्ड माला से विभूषित अपने कर कमलों में अस्थि की मणियों को धारण की हुई मनुष्य की आँतो से प्रसन्न रहने वाली मैला, कुचैला, फटा कुक्स्त्र धारण करने वाली कर्णपिशाचिनी का मै ध्यान करता हूँ ॥५२॥
श्मशानस्थः शवस्थो वा जपेल्लक्षं समाहितः ।
द्शांशं जुहुयाद्वहनौ बिभीतकसमिद्वरैः ॥५३॥
श्मशान में अथवा शव पर बैठकर एकाग्र मन से पिशाचिनी मन्त्र का एक लाख जप करें । तदनन्तर बिभीतक (बहेडा) की समिधाओं से दशांश हवन करें ॥५३॥
यजेत् पूर्वोदिते पीठे षडङ्गमरहेतिभिः ।
सिद्धमन्त्रे जपं कुर्यादधस्ताद् बदरोतरोः ॥५४॥
अशुचिर्लक्षसंख्यातं तेन तुष्टा पिशाचिनी ।
परचित्तस्थितां वार्तां भाविनीं च वदेच्छुतौ ॥५५॥
पूर्वोक्त पीठ पर षड्ङ्ग पूजा, दिक्पाल एवं उनके वज्रादि आयुधों सहित देवी का पूजन करना चाहिए । इस प्रकार मन्त्र सिद्ध हो जाने पर बेर के पेड के नीचे अपवित्रतापूर्वक लक्ष संख्या में जप करना चाहिए । इस क्रिया से संतुष्ट पिशाचिनी दूसरों की मन की बातें तथा भावी घटनाओं को काम में बतला देती हैम ॥५४-५५॥
शीतलामन्त्रस्तद्विधानवर्णनम्
ध्रुवः शिवारमाशीतलायै हार्द नवाक्षरः ।
उपमन्युश्च बृहतीं शीतला मुनिपूर्विका ।
षड्दीर्घयुक्छिवालक्ष्मीर्बीजाभ्यां स्यात्षडङ्गकम् ॥५६॥
अब शीतला देवी के मन्त्र का उद्धार कहते हैं –
घ्रुव (ॐ)शिवा (ह्रीं) रमा (श्रीं) फिर शीतलायै इसके अन्त में हृदय (नमः) लगाने से नवाक्षर शीतला मन्त्र निष्पन्न होता है ॥५६॥
विमर्श – इस मन्त्र का स्वरुप इस प्रकार है – ॐ ह्रीं श्रीं शीतलायै नमः ।
इस मन्त्र के उपमन्यु ऋषि हैं, बृहती छंद है, शीतला देवता हैं व दीघ्रवर्ण से युक्त शिवा माया बीज और लक्ष्मीबीज (श्रीं) से षडङ्गन्यास करना चाहिए ॥५६॥
विमर्श – ॐ ह्रा श्रीं हृदयाय नमः ॐ ह्रीं श्रीं कवचाय हुं,
ॐ हूँ श्रीं शिखायै वषट्, ॐ हृः श्रीं अस्त्राय फट् ॥५६॥
दिग्वाससं मार्जनिका च शूर्पं करद्वये सन्दधतीं घनाभाम् ।
श्रीशीतलां सर्वरुजार्तिनष्टौ रक्ताङ्गरागस्रजमर्चयामि ॥५७॥
अब शीतला देवी का ध्यान कहते हैं –
दिगम्बरा (नग्ना) अपने दोनों हाथों में क्रमशः झाडू और सूप लिए हुये बादलों के समान काले आभा वाली, रक्तवर्ण का अङ्गराग तथा रक्तवर्ण की मालाधारण की हुई श्री शीतला देवी का समस्त रोगों के विनाश के लिए मैं ध्यान करता हूँ ॥५७॥
अयुतं प्रजपेन्मन्त्रं पायसेन सहस्रकम् ।
जुहुयात्पूर्ववत्पीठे स्फोटानां नाशिनी त्वियम् ॥५८॥
शीतला मन्त्र का दश हजार की संख्या में जप करना चाहिए । तदनन्तर खीर की एक हजार आहुतियाँ देनी चाहिए । यह देवी स्फोट (फोटका) की जाति के समस्त घावों को अच्छा कर देने वाली मानी गई है ॥५८॥
नाभिपात्रे जले स्थित्वा यः सहस्रं जपेन्मनुम् ।
तेन सम्मार्जितास्तीव्राः स्फोटा नश्यन्ति तत्क्षणात् ॥५९॥
जो व्यक्ति नाभि मात्र जल में स्थित होकर इस मन्त्र का एक हजार जप करता है उस व्यक्ति के द्वारा संस्मार्जित कुशा से सभी प्रकार के भयानक स्फोट (फोटका) आदि तत्काल नष्ट हो जाते हैं ॥५९॥
स्वप्नेश्वरीमन्त्रस्तद्विधानवर्णनम्
प्रणवः कमला स्वप्नेश्वरिकार्यं च मे वद ।
स्वाहा त्रयोदशार्णोऽयं मन्त्रो मुन्यादिपूर्ववत् ॥६०॥
अब स्वप्नेश्वरी का मन्त्रोद्धार कहते हैं –
प्रणव (ॐ), कमला (श्रीं), फिर ‘स्वप्नेश्वरी कार्यं में वद,’ इसके बाद स्वाहा लगाने से तेरह अक्षरों का स्वप्नेश्वरी मन्त्र निष्पन्न होता हैं – इसके मुनि आदि पूर्ववत हैं ॥६०॥
विमर्श – मन्त्र का स्वरुप इस प्रकार है – ‘ॐ श्रीं स्वप्नेश्वरी कार्यं में वद स्वाहा’।
विनियोग – ‘अस्य श्रीस्वप्नेश्वरीमन्त्रस्य उपमन्युऋषिः बृहतीछन्दः स्वप्नेश्वरीदेवता ममाभीष्टसिद्धयर्थे जपे विनियोगः ॥६०॥
अक्षिवेदाक्षिभूयुग्मनेत्रार्णैरङ्गकं मनोः ।
विन्यस्य देवतां ध्यायेत्स्वप्नेशीमिष्टसिद्धये ॥६१॥
इस मन्त्र के २, ४, २, १, २ और २ अक्षरों से षडङ्गान्यास करना चाहिए । न्यास करने के पश्चात स्वप्नेश्वरी का ध्यान करना चाहिए ॥६१॥
विमर्श – षडङ्गन्यास – ॐ श्रीं हृदयाय नमः, ॐ स्वप्नेश्वरि शिरसे स्वाहा,
ॐ कार्यं शिखायै वषट् मे कवचाय हुं, वद नेत्रत्रयाय वौषट्,
ॐ स्वाहा अस्त्राय फट् ॥६१॥
वराभयेपद्मयुगं दधानां करैश्चतुर्भिः कनकासनस्थाम् ।
सिताम्बरां शारदचन्द्रकान्तिं स्वप्नेश्वरीं नौमि विभूषणाढ्याम् ॥६२॥
अब स्वप्नेश्वरी देवी का ध्यान कहते हैं –
अपने चारों हाथों में वर, अभय एवं दो कमलों को धारण की हुई स्वर्णरचित आसन पर विराजमान, श्वेत वस्त्र धारण करने वाली तथा शरत्कालीन चन्द्रमा के समान कान्तिमती, विविध आभूषणों से अलंकृत भगवती स्वप्नेश्वरी का मैं ध्यान करता हूँ ॥६२॥
लक्षं जपेद्बिल्वपत्रैर्जुहुयात्तद्दशांशतः ।
पूर्वोदिते यजेत्पीठे षडङ्गत्रिदशायुधैः ॥६३॥
इस मन्त्र का एक लाख जप करें तथा विल्वपत्रों से तद्दशांश हवन करना चाहिए । पूर्वोक्त पीठ पर षडङ्ग दिक्पाल एवं उनके आयुधों का पूजन करें ॥६३॥
रात्रौ सम्पूज्य देवेशीमयुतं पुरतो जपेत् ।
शयीतब्रह्मचर्येण भूमौ दर्भास्थिताजिनैः ॥६४॥
देव्यै निवेद्य स्वहार्दं सा स्वप्ने वदति ध्रुवम् ।
यक्षिण्याद्या इति प्रोच्य मातङ्गी गद्यतेऽधुना ॥६५॥
इस प्रकार पुरश्चरण द्वारा मन्त्र सिद्ध हो जाने पर रात्रि में देवी की पूजाकर उनके आगे दश हजार करना चाहिए। जप काल में ब्रह्यचर्य व्रत का पालन करते हुये कुशाओं पर मृगचर्म बिछा कर सोना चाहिए । सीते समय देवी को अपने हृदय की बात निवेदन करना चाहिये । ऐसा करने से वह स्वप्न में उसका उत्तर अवश्य दे देती हैं । यहाँ तक यक्षिणी के विषय में कहा अब मातङ्गी के विषय में कहता हूँ ॥६४-६५॥
मातङीमन्त्रविधानवर्णनम्
तारो मायाच वाग्लक्ष्मीहृन्निद्रास्मृतिलान्तिमाः ।
सनेत्रो हरिरुच्छिष्टचाण्डानेत्रयुता क्रिया ॥६६॥
श्रीमातङ्गेश्वरिपदं सर्वशूलीनलान्तशम् ।
करिवहिनप्रियामन्त्रो द्वात्रिंशद्वर्णवानयम् ॥६७॥
अब मातङ्गी मन्त्र का उद्धार कहते हैं –
तार (ॐ), माया (ह्रीं), वाग् (ऐं), लक्ष्मी (श्रीं), हृद (नमः), निद्रा (भ), स्मृति (ग), लान्तिम (व), नेत्रो हरि (ति), फिर ‘उच्छिष्ट चाण्डा’ फिर नेत्रायुत क्रिया (लि), फिर ‘श्रीमातंगेश्वरि सर्व’ पद, इसके बाद शूली (ज), फिर न, फिर लान्त (व), फिर ‘शङ्करि’, इसके बाद वहिनप्रिया (स्वाहा) लगाने से बत्तीस अक्षरों का मन्त्र निष्पन्न होता है ॥६६-६७॥
विमर्श – इस मन्त्र स्वरुप इस प्रकार है – ‘ॐ ह्रीं ऐं श्रीं नमो भगवति उच्छिष्टिचाण्डालि श्रीमातंगेश्वरि सर्वजनवशंकरि स्वाहा ॥६६-६७॥
मन्त्रमहोदधिः सप्तमः तरङ्गः मातङ्गीपूजनयन्त्रम्
मतङ्गो मुनिरस्योक्तोऽनुष्टुप्छन्दस्तु देवता ।
मातङ्गीसर्वजनता वशीकरणतत्परा ॥६८॥
चतुर्भिः षड्भिरङ्गैश्च षडष्टनयनैरपि ।
मन्त्रोऽस्य वर्णैरङगानि न्यस्य देवीं विचिन्तयेत् ॥६९॥
इस मन्त्र के मतङ्ग ऋषि हैं, अनुष्टुप् छन्द है तथा सब लोगोम को वश में करने में तत्पर मातङ्गी देवता है । मन्त्र के ४, ६, ६, ८ एवं २ वर्णो से षड्ङ्गन्यास करे देवी का ध्यान करना चाहिए ॥६८-६९॥
विमर्श – विनियोग – ‘अस्य श्रीमातङीमन्त्रस्य मतङ्गऋषिरनुष्टुपछन्दः श्रीमातङीदेवता ममाऽभीष्टसिद्धयर्थं विनियोग ।
षडङ्गन्यास – ‘ॐ ह्रीं ऐं श्रीं हृदयाय नमः, ॐ नमो भगवति शिरसे स्वाहा,
ॐ उच्छिष्टचान्डालि शिखायै वषट् ॐ श्री मातङेश्वरि कवचाय हुम्,
ॐ सर्वजनवशङ्करि नेत्रत्रयाय वौषट् ॐ स्वाहा अस्त्राय फट् ॥६८-६९॥
घनश्यामलांङ्गी स्थितां रत्नपीठे शुकस्योदितं श्रृण्वतीं रक्तवस्त्राम् ।
सुरापानमत्तां सरोजस्थितां श्रीं भजे वल्लकीं वादयन्तीं मतङ्गीम् ॥७०॥
अब मातङ्गी देवी का ध्यान कहते हैं –
मेघ के समान श्याम वर्णो वाली रत्नपीठ पर विराजमान, शुक की बोली सुनने में तत्पर, रक्त वस्त्र धारण करने वाली सुरापान से उन्मत्त सरोज पर स्थित वल्लकी वीणा बजाती हुई श्रीं मातङ्गी का मैं ध्यान करता हूँ ॥७०॥
जपोयुतं सहस्रं तु होमः पुष्पैर्मधूकजैः ।
मध्वक्तैः पूजयेत्पीठे वक्ष्यमाण विधानतः ॥७१॥
उपर्युक्त मन्त्र का १० हजार जप करना चाहिए, तथा मधु सहित मधूक (महुआ) के पुष्पों से एक हजार आहुतियाँ देनी चाहिए । तदनन्तर पूर्वोक्त पीठ पर वक्ष्यमाण रीति से देवी का पूजन करना चाहिए ॥७१॥
त्रिकोणाष्टदलद्वन्द्वं कलास्त्रचतुरस्त्रकम् ।
पीठं कृत्वा यजेत्तस्मिन्पीठशक्तिर्नवेष्टदाः ॥७२॥
अब मातङ्गी यन्त्र का प्रकार कहते हैं – त्रिकोण के बाद दो अष्ट दल कमल फिर १६ दल का कमल उसके, ऊपर चतुरस्त्र और भूपुर युक्त पीठ रचना कर उस पर अभीष्टदायिनी नौ शक्तियों की पूजा करनी चाहिए ॥७२॥
विभूतिरुन्नतिः कान्तिः सृष्टिः कीर्तिश्च सन्नतिः ।
व्युष्टिरुत्कृष्टिऋद्धी च मातंग्यताः समीरिताः ॥७३॥
१. विभूति, २. उन्नति, ३. कान्ति, ४. सृष्टि, ५. कीर्ति, ६. सन्नति, ७. व्युष्टि, ८. उत्कृष्टिऋद्धि और ८. मातङ्गी ये नौ शक्तियाँ कही गई हैं ॥७३॥
पीठमन्त्रपीठपूजाविधिवर्णनम्
सर्वशक्तिकमस्यान्ते लासनायहृदयान्तिकः ।
तारमायावाग्रमाद्यः पीठमन्त्रः कलार्णकः ॥७४॥
विश्राण्यासनमेतेन पाद्यादीने प्रकल्पयेत् ।
मूलेन पुष्पपूजान्ते कुर्यादावरनार्चनम् ॥७५॥
‘सर्वशक्तिकम् इस पद पद के बाद ‘लासनाय नमः’ तथा प्रारम्भ में तार (ॐ), माया (ह्री), वाग (ऐं), तथा रमा (श्रीं), लगाने से सोलह अक्षर का ‘ॐ ह्रीं ऐं श्रीम सर्वशक्तिकमलासनायै नमः’ यह मन्त्र बनता है । इस मन्त्र से देवी को आसन देकर मूल मन्त्र से मूर्ति की कल्पना कर पाद्य आदि सपर्या के बाद पुष्पाञ्जलि समर्पित करनी चाहिए । फिर अनुज्ञा लेकर आवरण पूजा प्रारम्भ करना चाहिए ॥७४-७५॥
विमर्श – पीठ पूजा विधि – (द्र० ७. ९-१-) । इसके बाद निम्नलिखित विधि से पूर्व आदि दिशाओं मे आठ शक्तियों की तथा मध्य में मातङ्गी की इस प्रकार की पूजा करनी चाहिए – ॐ विभूत्यैः, पूर्वे,
ॐ उन्नत्यै नमः, आग्नेये, ॐ कान्त्यै नमः, दक्षिणे, ॐ सृष्टयै नमः नैऋत्ये,
ॐ कीर्त्यै नमः, पश्चिमे, ॐ सन्नर्त्यै नमः, वायव्ये, ॐ व्युष्ट्यै नमः, उत्तरे,
ॐ उत्कृष्टिऋद्धिभ्यां नमः, ईशान, ॐ मातङ्गयै नमः, मध्ये ॥७४-७५॥
त्रिकोणेष्वर्चयेत् तिस्रो रतिप्रीतिमनोभवाः ।
केसरेषु षडङ्गानि मातृश्च दलमध्यगाः ॥७६॥
द्वितीयेऽष्टदले पूज्या असिताङ्गादिभैरवाः ।
षोडशाख्ये तु वामाख्या ज्येष्ठरौद्रीप्रशान्तिका ॥७७॥
श्रद्धामाहेश्वरी चापि क्रियाशक्तिश्च सप्तमी ।
सुलक्ष्मीः सृष्टिमोहिन्यौ प्रमथाश्वासिनी तथा ॥७८॥
विद्युल्लता च चिच्छक्तिः सुन्दरीनन्दया सह ।
नन्दबुद्धिः षोडशी तु पूजनीयाः प्रयत्नतः ॥७९॥
अब आवरण पूजा का विधान कहते हैं –
त्रिकोण में रति, प्रीति एवं मनोभवा इन तीन देवियों का अर्चन करें, केशरों में षडङ्ग, तदनन्तर प्रथम अष्टदल मे मातृकाओं की और दूसरे अष्टदल में आसिताङ्गदि अष्ट भैरवों की पूजा करनी चाहिए । फिर षोडश दल में -१. वामा, २. ज्येष्ठा, ३. रौद्री, ४. प्रशान्तिका, ५. श्रद्धा, ६. माहेश्वरी, ७. क्रियाशक्ति, ८.सुलक्ष्मी, ९. सृष्टि. १० मोहिनी, ११. प्रमथा, १२. श्वासिनी, १३. विद्युल्लता, १४. चिच्छक्ति, १५. नन्दसुन्दरी, एवं १६. नन्दबुद्धि – इन सोलह शक्तियों का प्रयत्न पूर्वक पूजन करना चाहिए ॥७६-७९॥
चतुरस्त्रे चतुर्दिक्षु मातङ्गी सामहादिका ।
महालक्ष्मीस्तथासिद्धं पुनर्वहन्यादिकोणतः ॥८०॥
विघ्नेश दुर्गाबटुकक्षेत्रेशादिग्धवास्ततः ।
वज्राद्याः पूजनीयाः स्युरित्थं सिद्धिर्मनोर्भवेत् ॥८१॥
चतुरस्त्र में चारों दिशाओं में १. महामातङ्गी, २. महालक्ष्मी, ३. महासिद्धि एवं ४. महादेवी का, तथा आग्नेयादि चार कोणों में १. विघ्नेश, २. दुर्गा, ३. बटुक एवं ४. क्षेत्रपाल का पूजन करना चाहिए । उसके बाद दिक्पाल, उनके वज्रादि आयोधों का पूजन करना चाहिए । इस प्रकार पूजन करने से मन्त्र सिद्ध हो जाता है ॥८०-८१॥
ध्रुवं भवानी वाग्बीजं रमामादौ प्रयोजयेत् ।
सर्वावरणदेवानां मातङ्गीपदमन्ततः ॥८२॥
समस्त आवरण देवताओं के आदि में ध्रुव (ॐ), भवानी (ह्रीं), वाग् (ऐं), राम (श्रीं) तथा अन्त में चतुर्थ्यन्त मातङ्गी पद लगाकर पूजनमन्त्रों की कल्पना करनी चाहिए ॥८२॥
विमर्श – आवरण पूजाविधि – प्रथमावरण त्रिकोण में – ॐ ह्रीं ऐं श्रीं रत्यै मातङ्ग्यै नमः, ॐ ह्रीं ऐं श्रीं प्रीत्यै मातङ्गी नमः, ॐ ह्रीं ऐं श्रीं मनोभवायै मातङ्ग्यै नमः ।
इसके बाद प्रथम अष्टदल में पूर्वादिक्रम से अष्टमातृकाओं का इस प्रकर पूजन करना चाहिए –
१ – ॐ ह्रीं ऐं श्रीं ब्राह्मयै मातङ्ग्यै नमः, पूर्वे
२ – ॐ ह्रीं ऐं श्रीं माहेश्वर्यै मातङ्ग्यै नमः, आग्नेये
३ – ॐ ह्रीं ऐं श्रीं कौमार्यै मातङ्ग्यै नमः, दक्षिणे
४ – ॐ ह्री ऐं श्री वैष्णव्ये मातङ्ग्यै नमः, नैऋत्ये
५ – ॐ ह्रीं ऐं श्री वाराह्यै मातङ्ग्यै नमः, पश्चिमे
६ – ॐ ह्रीं ऐं श्रीं इन्द्रायै मातङ्ग्यै नमः, वायव्ये
७ – ॐ ह्रीं ऐं श्रीं चामुण्डायै मातङ्ग्यै नमः, उत्तरे
८ – ॐ ह्रीं ऐं श्रीं महालक्ष्म्यै मातङ्ग्यै नमः ऐशान्यै
इसके बाद द्वितीय अष्टदल में पूर्वादि दिशाओं के क्रम से असिताङ्गादि भैरवों का इस प्रकार पूजन करना चाहिए-
१ – ॐ ह्रीं ऐं श्रीं असिताङ्गभैरवाय मातङ्गीरुपाय नमः पूर्वे
२ – ॐ ह्रीं ऐं श्रीं रुरुभैरवाय मातङ्गीरुपाय नमः आग्नेये
३ – ॐ ह्रीं ऐं श्रीं चण्डभैरवाय मातङ्गीरुपाय नमः दक्षिणे
४ – ॐ ह्रीं ऐं श्रीं क्रोधभैरवाय मातङ्गीरुपाय नमः नैऋत्ये
५ – ॐ ह्रीं ऐं श्रीं उन्मत्तभैरवाय मातङ्गीरुपाय नमः पश्चिमे
६ – ॐ ह्रीं ऐं श्रीं कपालीभैरवाय मातङ्गीरुपाय नमः वायव्ये
७ – ॐ ह्रीं ऐं श्रीं भीषणभैरवाय मातङ्गीरुपाय नमः उत्तरे
८ – ॐ ह्रीं ऐं श्रीं संहारभैरवाय मातङ्गीरुपाय नमः ऐशान्यै
इसके अनन्तर सोलह दलों में प्रदक्षिण क्रम से वामा आदि सोलह शक्तियों की इस प्रकार पूजा करें –
१ – ॐ ह्रीं ऐं श्रीं वामायै मातङ्गीस्वरुपिण्यै नमः,
२ – ॐ ह्रीं ऐं श्रीं ज्येष्ठायै मातङ्गीस्वरुपिण्यै नमः,
३ – ॐ ह्रीं ऐं श्रीं रोद्रायै मातङ्गीस्वरुपिण्यै नमः,
४ – ॐ ह्रीं ऐं श्रीं प्रशान्तिकायै मातङ्गीस्वरुपिण्यै नमः,
५ – ॐ ह्रीं ऐं श्रीं श्रद्धायै मातङ्गीस्वरुपिण्यै नमः,
६ – ॐ ह्रीं ऐं श्रीं माहेश्वर्यै मातङ्गीस्वरुपिण्यै नमः,
७ – ॐ ह्रीं ऐं श्रीं क्रियाशक्त्यै मातङ्गीस्वरुपिण्यै नमः,
८ – ॐ ह्रीं ऐं श्रीं सुलभ्यै मातङ्गीस्वरुपिण्यै नमः,
९ – ॐ ह्रीं ऐं श्रीं सृष्टयै मातङ्गीस्वरुपिण्यै नमः,
१० – ॐ ह्रीं ऐं श्रीं प्रमथायै मातङीस्वरुपिण्यै नमः,
११ – ॐ ह्रीं ऐं श्रीं मोहिन्यै मातङ्गीस्वरुपिण्यै नमः,
१२ – ॐ ह्रीं ऐं श्रीं स्वासिन्यै मातङ्गीस्वरुपिण्यै नमः,
१३ – ॐ ह्रीं ऐं श्रीं विद्युल्लतायै मातङ्गीस्वरुपिण्यै नमः,
१४ – ॐ ह्री ऐं श्रीं चिच्छक्त्यै मातङ्गीस्वरुपिण्यै नमः,
१५ – ॐ ह्रीं ऐं श्री नन्दसुन्दर्यै मातङ्गीस्वरुपिण्यै नमः,
१६ – ॐ ह्रीं ऐं श्रीं नन्दबुद्धयै मातङ्गीस्वरुपिन्य़ै नमः,
इसके बाद चतुरस्त्र भूपुर से पूर्वादि दिशाओं के क्रम से महामातङ्गी आदि का पूजन करना चाहिए ।
१ – ॐ ह्रीं ऐं श्रीं महामातङ्गी मातङ्ग्यै नमः, पूर्वे
२ – ॐ ह्रीं ऐं श्रीं महालक्ष्म्यै मातङ्ग्यै नमः, दक्षिणे
३ – ॐ ह्रीं ऐं श्रीं महासिद्धयै मातङ्ग्यै नमः, पश्चिमे
४ – ॐ ह्रीं ऐं श्री महादेव्यै मातङ्ग्यै नमः, उत्तरे
इसके बाद पुनः चतुरस्र में आग्नेयादि त्रिकोणों में क्रम से विघ्नेशादि का पूजन करना चाहिए –
१ – ॐ ह्रीं ऐं श्रीं विध्नेशाय मातङ्गीस्वरुपायै नमः, आग्नेये
२ – ॐ ह्रीं ऐं श्रीं दुर्गायै मातङ्गीस्वरुपायै नमः, नैऋत्ये
३ – ॐ ह्रीं ऐं श्रीं बटुकाय मातङ्गीस्वरुपायै नमः, वायव्ये
४ – ॐ ह्री ऐं श्रीं क्षेत्रपालाय मातङ्गीस्वरुपायै नमः, ऐशान्ये ।
इसके बाद पुनः भूपुर में पूर्वादि दिशाओं क्रम में, इन्द्र आदि दश दिक्पालों की पूजा करनी चाहिए –
१ – ॐ ह्रीं ऐं श्रीं इन्द्राय मातङ्गीरुपाय नमः, पूर्वे
२ – ॐ ह्रीं ऐं श्रीं अग्नये मातङ्गीरुपाय नमः, अग्नेये
३ – ॐ ह्रीं ऐं श्रीं यमाय मातङ्गीरुपाय नमः, दक्षिणे
४ – ॐ ह्रीं ऐं श्रीं निऋतये मातङ्गीरुपाय नमः, नैऋत्ये
५ – ॐ ह्रीं ऐं श्रीं वरुणाय मातङ्गीरुपाय नमः, पश्चिमे
६ – ॐ ह्रीं ऐं श्रीं वायवे मातङ्गीरुपाय नमः, वायव्ये
७ – ॐ ह्रीं ऐं श्रीं सोमाये मातङ्गीरुपाय नमः, उत्तरे
८ – ॐ ह्रीं ऐं श्रीं ईशानाय मातङ्गीरुपाय नमः, ईशाने
९ – ॐ ह्रीं ऐं श्रीं ब्रह्मणे मातङ्गीरुपाय नमः, पूर्वेशानयोर्मध्ये
१० – ॐ ह्रीं ऐं श्रीं अनन्ताय मातङ्गीरुपाय नमः, नैऋत्य पश्चिमर्योर्मध्ये
पुनः अन्त में भूपुर के बाहर पूर्वादि दिशाओं के क्रम से वर्जादि आयुधों की पूजा करनी चाहिए –
१ – ॐ ह्रीं ऐं श्रीं वज्राय मातङ्गीरुपाय नमः, पूर्वे
२ – ॐ ह्रीं ऐं श्रीं शक्तये मातङ्गीरुपाय नमः, आग्नेये
३ – ॐ ह्रीं ऐं श्रीं दण्डाय मातङ्गीरुपाय नमः, दक्षिणे
४ – ॐ ह्रीं ऐं श्रीं खड्गाय मातङ्गीरुपाय नमः, नैऋत्ये
५ – ॐ ह्रीं ऐं श्रीं पाशाय मातङ्गीरुपाय नमः, पश्चिमे
६ – ॐ ह्रीं ऐं श्रीं अंकुशाय मातङ्गीरुपाय नम्, वायव्ये
७ – ॐ ह्रीं ऐं श्रीं गदायै मातङ्गीरुपाय नमः, उत्तरे
८ – ॐ ह्रीं ऐं श्रीं शूलायै मातङ्गीरुपाय नमः, वायव्ये
९ – ॐ ह्रीं ऐं श्रीं पद्मान्य मातङ्गीरुपाय नमः, पूर्वेशानयोर्मध्ये
१० – ॐ ह्रीं ऐं श्रीं चक्राय मातङ्गीरुपाय नमः, पश्चिमनैऋत्ययोर्मध्ये
इस प्रकार प्रत्येक आवरण पूजा के अनन्तर एक एक पुष्पाञ्जलि समर्पित कर यन्त्र में देवी की विधिवदुपचारों से पूजा कर उक्त मन्त्र का जप करना चाहिए ॥८१-८२॥
मल्लिकाकुसुमैर्होमाद् भोगो राज्यं च बिल्वजैः ।
पत्रै फलैर्वा वश्यास्याज्जनताब्रह्मवृक्षजैः ॥८३॥
रोगनाशोमृशामृताखण्डैर्निम्बैः श्रीस्तण्डुलैरपि ।
आकृष्टिर्लवर्णौर्विद्यात्तगरैर्वेतसैर्जलम् ॥८४॥
लवर्णैर्निम्बतैलाक्तैः शत्रुनाशोऽन्धसाशनम् ।
निशाचूर्णयुतैर्लोणैर्होमात्स्यात्स्तम्भनं नृणाम् ॥८५॥
अब काम्य प्रयोग में होम की विधि कहते हैं –
मल्लिका पुष्पों के होम से भोग, विल्वपत्रों के होम से राज्य, ब्रह्मवृक्ष के पत्र या फल के होम से सभी लोग वश में हो जाते हैं । अमृता (गुरुचा) के टुकडो के होम से रोगों का विनाश, नीम या चावल के होम से लक्ष्मी, लोण के होम से आकर्षण, तगर तथा बेतस के होम से जल, निम्ब के तेल में डुबोये गये लोण के होम से शत्रु का नाश, भात के होम से उत्तम भोजन, हरदी के चूर्णयुत लोण के होम से मनुष्यों का स्तम्भन हो जाता है ॥८३-८५॥
रक्तचन्दनकर्चूरमांसीकुंकुमरोचनाः ।
चन्दनागुरुकर्पूरैर्गन्धाष्टकमुदीरितम् ॥८६॥
एतद्धोमाज्जगद्वश्यं जायते मन्त्रिणो ध्रुवम् ।
एतत्पिष्टवा शतं जप्त्वा तिलकेन जगत्प्रियः ॥८७॥
कदलीफलहोमेन सर्वेष्टं समवाप्नुयात् ।
किंबहूक्तेन मातङ्गी पूजिता कामदा नृणाम् ॥८८॥
लाल चन्दन, कर्चूर, जटामाँसो, कुंकुम, गोरोचन, चन्दन, अगरु, कर्पूर – ये गन्धाष्टक कहे गये हैं । इनके होम से सारा जगत् उस साधक के वश में हो जाता है । इस गन्धाष्टक को पीसकर उक्त मन्त्र का जप कर तिलक लगावे तो व्यक्ति सर्वलोक प्रिय हो जाता है । कदलीफल के होम से व्यक्ति अपना समस्त अभीष्ट प्राप्त कर लेता है । इस विषय में विशेष क्या कहें – मातङ्गी देवी की उपासना से सारी कामनायें पूर्ण हो जाती है ॥८६-८८॥
मध्वक्तलोणरचिताम पुत्तलीं दक्षिणांघ्रितः ।
हूयादष्टोत्तरशतं खादिराग्नौ वशं निशि ॥८९॥
शालिपिष्टमयीं तां तु भक्षयेत्स्त्रीवशीकृतो ।
मध्वक्तलोण से बनी पुतली को प्रदक्षिण क्रम से खैर की प्रज्वलित अग्नि में रात्रि के समय मूल मन्त से १०८ बार होम करें तो वशीकरण प्राप्त होता है । चावल के आँटे की बनी पुतली को, स्त्री को वश में करने के इस मन्त्र का जप कर जिस स्त्री को खिलावे तो वह वश में हो जाती है ॥८९-९०॥
कृष्णभूतनिशि ध्वाङ्ग्क्षोदरे क्षिप्त्वा समुद्रजम् ॥९०॥
नीलसूत्रेण संवेष्टय् चिताग्नौ प्रदहेदमुम् ।
सहस्रजप्तं तद्भस्मं यस्मै दद्यात् स दासवत् ॥९१॥
कृष्णपक्ष की चतुर्दशी की रात्रि में समुद्री नमक कौवे के पेट में खिलाकर काले धागे से लपेटकर चिता की अग्नि में उसे जला दे । फिर उस भस्म को इस मन्त्र से एक सहस्त्र बार अभिमान्त्रित, करें, तो जिसे वह भस्म दिया जाता है वह दास के समान हो जाता है ॥९०-९१॥
बाणेशीमन्त्रस्तद्विधानवर्णनम्
सत्योऽग्नियुक्तोऽनन्तेन्दुसंयुक्तं बीजमादिमम् ।
एतस्यानन्तसंस्थाने शान्तियुक्तो द्वितीयकम् ॥९२॥
ब्रह्मेन्द्रशान्तिबिन्द्वाढ्यस्तृतीयं बीजमीरितम् ।
भूधरो वसुधोर्घीशचन्द्राढ्यस्तत्तुरीयकम् ॥९३॥
अब बाणेशी मन्त्र का उद्धार कहते हैं –
अनन्त (आकार) इन्द्र अनुस्वार सहित सत्य (दकार) एवं अग्निरकार (अर्थात् द्रां) यह बाणेशी का प्रथम बीज है इस बीज मन्त्र में अनन्त के स्थान में शान्ति (ईकार) लगाने से द्वितीय बीज पुनः इन्द्र शान्ति एवं बिन्दु सहित ब्रह्या (क्लीं) यह तृतीय बीज, वसुधा अर्घीश चन्द्रसहिता भूधर अर्थात् ब्लूँ यह चतुर्थ्य बीज हे । सर्गी हंसः विसर्ग सहित सकार (सः) यह पाँचवाँ बीज हैं । इस प्रकार पञ्च बीजात्मक मन्त्र बनता है ॥९२-९३॥
विमर्श – मन्त्र का स्वरुप इस प्रकार है – ‘द्रां द्रीं क्लीं ब्लूँ सः’ ॥९२-९३॥
मन्त्रमहोदधि तरङ्ग ७ बाणेशीपूजनयन्त्रम्
सर्गी हंसः पञ्चमः स्यात् पञ्चबीजात्मको मनुः ।
ऋषिः सम्मोहनश्छन्दो गायत्रीदेवता पुनः ॥९४॥
बाणेशी व्यस्तवर्णेन मन्त्रेणोक्तं षडङ्गकम् ।
मूर्ध्नि पादे मुखे गुह्ये हृदये पञ्चदेवताः ॥९५॥
न्यस्तव्याः पञ्चबीजाद्या द्राविणीक्षोभिणी पुनः ।
वशीकरण्याकर्षण्यौ सम्मोहिन्यपि पञ्चमी ॥९६॥
इस मन्त्र के सम्मोहन ऋषि हैं, गायत्री छन्द है तथा बाणेशी देवता हैं । मन्त्र के बीजों के विलोमक्रम से तदनन्तर समस्त मन्त्र से षडङ्गन्यास करना चाहिए । फिर षडङ्गन्यास के अनन्तर उक्त पाँच बीजों के साथ द्राविणी, क्षोभिणी, वशीकरणी, आकर्षणी एवं सम्मोहिनी इन पाँच देवताओं को क्रमशः सिर पैर मुख गुप्ता एवं हृदय में इस प्रकार न्यास करना चाहिए ॥९४-९६॥
विमर्श – विनियोग – ‘ॐ अस्य श्रीबाणेशीमन्त्रस्य सम्मोहनऋषिर्गायत्रीछन्दः बाणेशीदेवता ममाऽभीष्टसिद्धयर्थे जपे विनियोगः ।
षडङ्गन्यास – सः हृदयाय नमः, ब्लूँ शिरसे स्वाहा, ब्लीं शिखायै वषट्, द्रीं कवचाय हुम्, द्रां नेत्रत्रयाय वौषट् द्रां द्रीं ब्लीं ब्लूँ सः अस्त्राय फट् ।
सर्वाङ्गन्यास – द्रां द्राविन्य़ै नमः, मूर्ध्नि द्रीं क्षिबिण्यै नमः पादयोः,
ब्लीं वशीकरिण्यै नमः, मुखे, ब्लूँ आकर्षिण्यै नमः, गुह्ये,
सः सस्म्मोहिन्यै नमः, हृदि ॥९४-९६॥
बाणेशीध्यानम्
उद्यद्भास्वत्सन्निभा रक्तवस्त्रा नानारत्नालंकृताङ्गी वहन्ती ।
हस्तैः पाशं चांकुशं चापबाणौ बाणेशी नः कामपूर्तिं विद्यत्ताम् ॥९७॥
अब बाणेशी देवी का ध्यान कहते हैं-
बाणेशी का ध्यान उदीयमान सूर्य के समान आभावाली रक्त वस्त्र धारण की हुई, अनेक प्रकार के रत्नजटित आभूषणॊं से जगमगाती हाथों में क्रमशः पाश, अंकुश, धनुष, एवं बाण धारण की हुई बाणेशी हमारी मनोकामना पूर्ण करें ॥९७॥
एवं ध्यात्वा जपेल्लक्षपञ्चकं तद्दशांशतः ।
हुत्वा बाणेश्वरी देवीं पूजयेद्विधिपूर्वकम् ॥९८॥
इस प्रकार ध्यान कर प्रतिदिन नियमतः उक्तमन्त्र का ५ लाख जप करना चाहिए । फिर तद्दशांश हवन करना चाहिए । तदनन्तर वाणेशी का विधि पूर्वक पूजन करना चाहिए ॥९८॥
मोहिनीक्षोभोणीत्रासीस्तम्भिन्याकर्षिणी तथा ।
द्राविण्याहलादिनी क्लिन्नाक्लेदिनीपीठशक्तयः ॥९९॥
१. मोहिनी, २. क्षोभिणी, ३. त्रासी, ४. स्तम्भिनी, ५. आकर्षिणी, ६. द्राविणी, ७. आहलादिनी, ८. क्लिन्ना तथा ९. क्लेदिनी – ये पीठ की ९ शक्तियाँ कहीं गई हैं ॥९९॥
बाणेशी योगपीठाय नमो मूलादिको मनुः ।
दत्त्वा तेनासनं मन्त्री तस्मिन्देवीं प्रपूजयेत् ॥१००॥
‘बाणेशीयोगपीठाय नमः’ इस मन्त्र के प्रारम्भ में मूलमन्त्र लगाने से पीठ मन्त्र निष्पन्न हो जाता है । प्रारम्भ में पीठ पूजा कर इस मन्त्र से आसन देकर साधक पीठ पूजा करे ॥१००॥
यन्त्र निर्माण – वृत्ताकार कर्णिका अष्टदल एवं भूपुर सहित यन्त्र का निर्माण करें फिर (७.८-१०) के अनुसार पीठ पूजा करें । इसके बाद यन्त्र पर मोहिनी आदि पीठ शक्तियों की तथा मध्य में क्लेदिनी शक्ति की इस प्रकार पूजा करें-
१ – ॐ मोहिन्यै नमः, पूर्व
२ – ॐ क्षिभिण्यै नमः, आग्नेये
३ – ॐ त्रास्यै नमः, दक्षिणे
४ – ॐ स्तम्भिन्यै नमः, नैऋत्ये
५ – ॐ आकर्षिण्यै नमः, पश्चिमे
६ – ॐ द्राविण्यै नमः, वायव्ये
७ – ॐ आहलादिन्यै नमः, उत्तरे
८ – ॐ क्लिन्नायै नमः, ऐशान्ये
९ – ॐ क्लेदिन्यै नमः, मध्ये
तदनन्तर ‘द्रां द्रीं ब्लीं ब्लूँ सः बाणेशीयोगपीठाय नमः’ मन्त्र से बाणेशी देवी को आसन देकर श्लोक ९७ में वर्णित देवी के स्वरुप का ध्यान कर मूलमन्त्र से पुष्पाञ्जलि दे । तदनन्तर निम्न मन्त्र पढकर प्रार्थना करनी चाहिए ।
‘देवेशि भक्तिसुलभे परिवारासमन्विते ।
यावत्त्वां पूजयिष्यामि तावत्त्वं सुस्थिरा भव’ ॥९९-१००॥
आदौ षडङ्गान्याराध्य दिक्ष्वग्रे द्राविणीमुखा ।
दलेष्वनङ्गरुपा स्यादनङ्गमदना तथा ॥१०१॥
अनङ्गमन्मथानङ्गकुसुमामदनापरा ।
अनङ्गाद्या तथानङ्गशिशिरानङ्गमेखला ॥१०२॥
अनङ्गदीपिकेत्यष्टौय शक्राद्या आयुधान्यपि ।
एवं सिद्धं मनुं मन्त्री काम्येषु विनियोजयेत् ॥१०३॥
यन्त्र में सर्वप्रथम षडङ्गपूजा कर, तदनन्तर पूर्वादि दिशाओं में १. द्राविणी आदि का एवं २., क्षोभिणी, ३. वशीकरणी, ४. आकर्षणी का तथा मध्य में ५. सम्मोहिनी का बीज मन्त्र के एक एक अक्षर को आदि में लगाकर पूजन करना चाहिए । तदनन्तर अष्टदल में १. अनङ्गरुपा, २. अनङ्गमदना, ३. अनङ्गन्मथा, ४. अनङ्गकुसुमा, ५. अनङ्गवदना, ६. अनङ्गशिशिरा, ७. अनङ्गमेखला, ८. अनङ्गदीपिका आदि आठ देवियों का, फिर इन्द्रादि दश दिक्पालों का, फिर उनके वज्रादि आयुधों का पूजन करना चाहिए । इस प्रकार मन्त्र सिद्ध हो जाने पर साधक को अन्य काम्य प्रयोगों में उसका विनियोग करना चाहिए ॥१०१-१०३॥
विमर्श – आवरण पूजा – सर्वप्रथम वृत्ताकार कर्णिका में विलोम रीति से सः हृदयाय नमः,
ब्लूँ शिरसे स्वाहा, ब्लीं शिखायै वषट्,
द्रां कवचाय हुम्, द्रां नेत्रत्रयाय वौषट् द्रां द्रीं ब्लीं ब्लूं सः अस्त्राय फट्
तदनन्तर पूर्वादि दिशाओं में – द्रां द्राविण्यै नमः पूर्वे,
द्रीं क्षोभिण्यै नमः दक्षिणे, ब्लीं वशीकरण्यै नमः पश्चिमे,
ब्लूँ, आकर्षण्यै नमः उत्तर, सः सम्मोहिन्यै नमः अग्रे ।
तदनन्तर अष्टदल में पूर्वादि दिशओं के क्रम से इस प्रकार पूजा करें –
ॐ अनङ्गरुपायै नमः, पूर्वे ॐ अनङ्गमदनायै नमः आग्नेये,
ॐ अनङ्गमन्मथायै नमः, दक्षिणे, ॐ अनङ्गकुसुमायै नमः नैऋत्ये,
ॐ अनङ्गमदनायै नमः, पश्चिमे, ॐ अनङ्गशिशिरायै नमः वायव्ये,
ॐ अनङ्गमेखालायै नमः वायव्ये, ॐ अनङ्गपिकायै नमः ऐशान्ये ।
तत्पश्चात् भूपुर के भीतर पूर्व आदि दिशाओं में पूवर्वत् इन्द्रादि दश दिक्पालों की, तथा भूपुर के बाहर उनके वज्रादि आयुधों की पूर्वावत् पूजा करें । उपर्युक्त रीति से देवी के आवरणों की पूजा कर मूलमन्त्र से यथोपलव्ध उपचारों द्वारा देवी की पूजा कर जप प्रारम्भ करें पुरश्चरण करने से मन्त्र सिद्ध हो जाने पर साधक काम्य प्रयोगों के लिए उसका उपयोग करे ॥१०१-१-३॥
दधियुक्तैरशोकस्य पुष्पैर्यो दिवसत्रयम् ।
सहस्रं जुहुयात्तस्य वश्याः स्युः प्राणिनोऽखिलाः ॥१०४॥
अब काम्य प्रयोग कहते हैं – जो व्यक्ति ३ दिन तक दधिमिश्रित अशोक पुष्पों से प्रतिदिन १००० आहुतियाँ देता है, उसके वश में समस्त प्राणी हो जाते हैं ॥१०४॥
लाजैर्दधियुतैर्होमान् मन्त्री कन्यामवाप्नुयात् ।
कन्यापि वरमाप्नोति मासद्वितयमध्यतः ॥१०५॥
दही सहित लाजा के होम से उतनी ही संख्या में होम करने से साधक को पत्नी प्राप्त होती है, तथा कन्या भी इसके प्रयोग से दो मास के भीतर उत्तम वर प्राप्त करती हैं ॥१०५॥
गव्याज्येन ससम्पातं हुत्वा साऽष्टशतं नरः ।
आज्यं सम्पातितं दद्यात्स्त्रियै विश्राणितश्रियै ॥१०६॥
सा तदाज्यं निजं कान्तं भोजयित्वा वशं नयेत् ।
सुगन्धकुसुमैर्हुत्वा धनमाप्नोति वाञ्छितम् ॥१०७॥
गोघृत से संपात हुत शेष स्रुवस्थित धी का प्रोक्षणी पात्र में गिराना पूर्वक १०८ आहुतियाँ देकर शेष संस्रव वाले घृत को दक्षिणा लेकर स्त्री को दे देवें, वह स्त्री उस संस्रव को अपने पति को खिलावे तो पति वश में हो जाता है । सुगन्धित पुष्पों के होम से साधक मनिवाञ्छित फल प्राप्त कर लेता है ॥१०६-१०७॥
कामेशीमन्त्रस्तद्विधानवर्णनम्
मायामन्मथावाग्बीजे ब्लूं स्त्रीं पञ्चाक्षरो मनुः ।
ऋषिश्छन्दश्च पूर्वोक्ते कामेशीदेवतास्मृता ॥१०८॥
अब कामेशी मन्त्र का उद्धार कहते हैं –
माया (ह्रीं), मन्मथ (क्ली), वाग्वीज (ऐं), फिर ब्लूँ, तदनन्तर स्त्रीं लगाने ५ अक्षरों का कामेशी मन्त्र बनता है । इस मन्त्र के ऋषि और छन्द पूर्वोक्त (द्र० ७.४९) कामेशी देवता हैं ॥१०८॥
विमर्श – मन्त्र का स्वरुप इस प्रकार हैं – ‘ह्रीं क्लीं ऐं ब्लूँ स्त्री’ ।
विनियोग विधि – अस्य श्रीकामेशीमन्त्रस्य सम्मोहनऋषिर्गायत्रीछन्दः कामेशीदेवता ममाऽभीष्टसिद्धयर्थे जपे विनियोगः ।
मन्त्र के विलोम क्रम से षडङन्यास करना चाहिए –
षडङ्गन्यास – ॐ हृदयाय नमः, ॐ ब्लूँ शिरसे स्वाहा,
ॐ ऐं शिखायै वषट्, ॐ क्लीं कवचाय हुम्,
ॐ ह्रीं नेत्रत्रयाय वौषट्, ॐ ह्रीं क्ली ऐं ब्लूं अस्त्राय फट् ॥१०८॥
कामेशीध्यानम्
पाशांकुशाविक्षुशरासबाणौ करैर्वहन्तीमरुणांशुकाढ्यम् ।
उद्यत्पतङगाभिरुचिं मनोज्ञां कामेश्वरीं रत्नचितां प्रणौमि ॥१०९॥
अब कामेशी देवी का ध्यान कहते हैं –
अपने चारों हाथो में क्रमशः पाश, अंकुश, इक्षुचाप एवं बाण धारण की हुई, लाल वर्ण का वस्त्र हुये, उदीयमान सूर्य के समान कान्ति वाली, रत्नों से विभूषित महासुन्दरी कामेश्वरी को मैं प्रणाम करता हूँ ॥१०९॥
भूतलक्षं जपित्वैनामर्धलक्षं पलाशजैः ।
कुसुमैर्जुहुयात्पीठे पूर्वोक्ते पूजयेदिमाम् ॥११०॥
इस मन्त्र का पाँच लाख पर करे । पलाश के फूलों से ५० हजार की संख्या में आहुति देवे तथा पूर्वोक्त पीठ पर इनकी पूजा करे ॥११०॥
आदावङ्गानि सम्पूज्य दिक्षु मध्ये मनोभवम् ।
मकर्ध्वजकन्दर्पो मन्मथं कामदेवकम् ॥१११॥
फिर पूर्वादि दिशाओं में १. मनोभव, २. मकरध्वज, ३. कन्दर्प, ४. मन्मथ एवं मध्य में ५. कामदेव का पूजन करें ॥१११॥
ततो हयनङ्गरुपाद्यां इन्द्राद्यस्त्राणि तद्बहिः ।
एवं सिद्धमनुर्मन्त्री पूर्वोक्तं योगमाचरेत् ॥११२॥
॥ इति श्रीमन्महीधरविरचिते मन्त्रमहोदधौ यक्षिण्यादिमन्त्रकथनं नाम सप्तमस्तरङ्गः ॥७॥
फिर अनङ्गरुपा आदि शक्तियों का, तदनन्तर इन्द्रादि दश दिक्पालोम काम तथा भूपुर के बाहर उनके वज्रादि आयुधों का पूजन करना चाहिए । इस प्रकार मन्त्र के सिद्ध हो जाने साधक पूर्वोक्त काम्य प्रयोगों को करे ॥११२॥
विमर्श – आवरण पूजा विधि – वृत्ताकार कर्णिका उसके ऊपर चतुर्दल कमल फिर अष्टदल कमल एवं भूपुर से बने यन्त्र पर कामेशी का पूजन करें ।
१०९ श्लोक में वर्णित कामेशी का ध्यान करें तथा मानसोपचार से पूजन करें । फिर उपर्युक्त पीठ पर श्लोक ७-९९-१०० में बतलायी गई रीति से पीठ पूजन तथा देवी का पूजन कर उनकी अनुज्ञा प्राप्त कर इस प्रकार आवरण पूजा करें ।
सर्वप्रथम वृत्ताकार कर्णिका में षडङ्गपूजन निम्न रीति से करें । यथा –
ॐ श्रीं हृदयाय नमः, ॐ ब्लूँ शिरसे स्वाहा, ॐ ऐं शिखायै वषट्,
ॐ क्लीं कवचाय नमः, ॐ ह्रीं नेत्रत्र्याय वौषट्,
ॐ ह्रीं क्लीं ऐं ब्लूं स्त्रें अस्त्राय फट् ।
तदनन्तर चतुर्दल में पूर्व आदि दिशाओं के क्रम से मनोभाव आदि का पूजन इस प्रकार करना चाहिए । यथा –
ॐ मनोभवाय नमः, पूर्वदले, ॐ मकरध्वजाय नमः दक्षिणदिग्दले,
ॐ कन्दर्पाय नमः पश्चिमादिग्दले, ॐ मन्मथाय नमः उत्तरदले,
ॐ कामदेवाय नमः मध्ये,
पुनः ७. २०१-२०३ में बतलायी गई विधि से अनङ्गरुपा आदि ८ शक्तियों का पूजन कर भूपुर के भीतर इन्द्रादि दश दिक्पालों का तथा बाहर उनके वज्रादि आयुधोम का पूवर्वत् पूजन कर पुष्पाञ्जलि समर्पित करें । फिर कामेशी देवी का यथोपलब्ध उपचारों से पूजन कर जप प्रारम्भ करें ॥१११-११२॥
इति श्रीमन्महीधरविरचितायां मन्त्रमहोदधिव्याख्यायां नौकायां यक्षिण्यादिकथनं नाम सप्तमस्तरङ्गः ॥७॥
इस प्रकार श्रीमन्महीधर विरचित मन्त्रमहोदधि के सप्तम तरङ्ग की महाकवि पं० रामकुबेर मालवीय के द्वितीय आत्मज डॉ सुधाकर मालवीय कृत ‘अरित्र’ हिन्दी व्याख्या पूर्ण हुई ॥७ ॥