यमुना स्तोत्र || Yamuna Stotra

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श्रीयमुना स्तोत्र अथवा यमुनास्तव का पाठ समस्त सिद्धियों को देनेवाला तथा धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष का फल देनेवाला है ।

श्रीयमुना स्तोत्र अथवा यमुनास्तवम्

अथ श्रीयमुनास्तोत्र

मान्धातोवाच –

यमुनायाः स्तवं दिव्यं सर्वसिद्धिकरं परम् ।

सौभरे मुनिशार्दूल वद मां कृपया त्वरम् ॥ १॥

मांधाता बोले-हे मुनिश्रेष्ठ सौभरे ! सम्पूर्ण सिद्धि प्रदान करनेवाला जो यमुनाजी का दिव्य उत्तम स्तोत्र है, उसका कृपापूर्वक मुझसे वर्णन कीजिये ॥ १ ॥

श्रीसौभरिरुवाच –

मार्तण्डकन्यकायास्तु स्तवं श्रृणु महामते ।

सर्वसिद्धिकरं भूमौ चातुर्वर्ग्यफलप्रदम् ॥ २॥

श्रीसौभरि मुनि ने कहा-हे महामते! अब तुम सूर्य कन्या यमुना का स्तोत्र सुनो, जो इस भूतल पर समस्त सिद्धियों को देनेवाला तथा धर्म, अर्थ, काम और मोक्षरूपी चारों पुरुषार्थों का फल देनेवाला है ॥ २॥

कृष्णवामांसभूतायै कृष्णायै सततं नमः ।

नमः श्रीकृष्णरूपिण्यै कृष्णे तुभ्यं नमो नमः ॥ ३॥

श्रीकृष्ण के बांये कंधे से प्रकट हुई ‘कृष्णा’ को सदा मेरा नमस्कार है । हे कृष्णे ! तुम श्रीकृष्णस्वरूपिणी हो; तुम्हें बारंबार नमस्कार है ॥३॥

यः पापपङ्काम्बुकलङ्ककुत्सितः कामी कुधीः सत्सु कलिं करोति हि ।

वृन्दावनं धाम ददाति तस्मै नदन्मिलिन्दादि कलिन्दनन्दिनी ॥ ४॥

जो पापरूपी पङ्कजल के क़लङ्क से कुत्सित कामी तथा कुबुद्धि मनुष्य सत्पुरुषों के साथ कलह करता है, उसे भी गुंजते हुए भ्रमर और जलपक्षियों से युक्त कलिन्दनन्दिनी यमुना वृन्दावनधाम प्रदान करती हैं ॥ ४॥

कृष्णे साक्षात्कृष्णरूपा त्वमेव वेगावर्ते वर्तसे मत्स्यरूपी ।

ऊर्मावूर्मौ कूर्मरूपी सदा ते बिन्दौ बिन्दौ भाति गोविन्ददेवः ॥ ५॥

हे कृष्णे ! तुम्हीं साक्षात्‌ श्रीकृष्णस्वरूपा हो । तुम्हीं प्रलय सिन्धु के वेगयुक्त भँवर में महामत्स्यरूप धारण करके विराजती हो । तुम्हारी ऊर्मि-ऊर्मि में भगवान्‌ कुर्मरूप से निवास करते हैं तथा तुम्हारे बिन्दु-बिन्दु में श्रीगोविन्ददेव की आभा का दर्शन होता है ॥ ५॥

वन्दे लीलावतीं त्वां सघनघननिभां कृष्णवामांसभूतां

वेगं वै वैरजाख्यं सकलजलचयं खण्डयन्तीं बलात्स्वात् ।

छित्वा ब्रह्माण्डमारात्सुरनगरनगान् गण्डशैलादिदुर्गान्

भित्वा भूखण्डमध्ये तटनिधृतवतीमूर्मिमालां प्रयान्तीम् ॥ ६॥

हे तटिनि ! तुम लीलावती हो, मैं तुम्हारी वन्दना करता हूँ। तुम घनीभूत मेघ के समान श्याम कान्ति धारण करती हो । श्रीकृष्ण के बांये कंधे से तुम्हारा प्राकट्य हुआ है । सम्पूर्ण जलों की राशिरूपा जो विरजा नदी का वेग है, उसको भी अपने बल से खण्डित करती हुई, ब्रह्माण्ड को छेदकर देवनगर, पर्वत, गण्डशैल आदि दुर्गम वस्तुओं का भेदन करके तुम इस भूमिखण्ड के मध्यभाग में अपनी तरङ्गमालाओं को स्थापित करके प्रवाहित होती हो ॥ ६ ॥

दिव्यं कौ नामधेयं श्रुतमथ यमुने दण्डयत्यद्रितुल्यं

पापव्यूहं त्वखण्डं वसतु मम गिरां मण्डले तु क्षणं तत् ।

दण्ड्यांश्चाकार्यदण्ड्या सकृदपि वचसा खण्डितं यद्गृहीतं

भ्रातुर्मार्तण्डसूनोरटति पुरि दृढस्ते प्रचण्डोऽतिदण्डः ॥ ७॥

हे यमुने ! पृथ्वी पर तुम्हारा नाम दिव्य है । वह श्रवणपथ में आकर पर्वताकार पापसमूह को भी दण्डित एवं खण्डित कर देता है । तुम्हारा वह अखण्ड नाम मेरे वाङ्मण्डल-वचनसमूह में क्षण भर भी स्थित हो जाय। यदि वह एक बार भी वाणी द्वारा गृहीत हो जाय तो समस्त पापों का खण्डन हो जाता है। उसके स्मरण से दण्डनीय पापी भी अदण्डनीय हो जाते हैं । तुम्हारे भाई सूर्यपुत्र यमराज के नगर में तुम्हारा ‘प्रचण्डा’ यह नाम सुदृढ़ अतिदण्ड बनकर विचरता है ॥ ७॥

रज्जुर्वा विषयान्धकूपतरणे पापाखुदर्वीकरी ।

वेण्युष्णिक् च विराजमूर्तिशिरसो मालास्ति वा सुन्दरी ।

धन्यं भाग्यमतः परं भुवि नृणां यत्रादिकृद्वल्लभा ।

गोलोकेऽप्यतिदुर्लभातिशुभगा भात्यद्वितीया नदी ॥ ८॥

तुम विषयरूपी अन्धकुप से पार जाने के लिये रस्सी हो; अथवा पापरूपी चूहों को निगल जानेवाली काली नागिन हो; अथवा विराट्‌ पुरुष की मूर्ति की वेणी को अलंकृत करनेवाला नीले पुष्पों का गजरा हो या उनके मस्तक पर सुशोभित होनेवाळी सुन्दर नीलमणि की माला हो। जहाँ आदिकर्ता भगवान्‌ श्रीकृष्ण की वल्लभा, गोलोक में भी अतिदुर्लभा, अति सौभाग्यवती तथा अद्वितीया नदी श्रीयमुना प्रवाहित होती हैं, उस भूतल के मनुष्यों का भाग्य इसी कारण से धन्य है ॥ ८॥

गोपीगोकुलगोपकेलिकलिते कालिन्दि कृष्णप्रभे

त्वत्कूले जललोलगोलविचलत्कल्लोलकोलाहलः ।

त्वत्कान्तारकुतूहलालिकुलकृज्झङ्कारकेकाकुलः

कूजत्कोकिलसङ्कुलो व्रजलतालङ्कारभृत्पातु माम् ॥ ९॥

गौओं के समुदाय तथा गोप-गोपियों की क्रीडा से कलित, कलिन्दनन्दिनी हे यमुने ! हे कृष्णप्रभे ! तुम्हारे तट पर जो जल की गोलाकार, चपल एवं उत्ताल तरङ्गों का कोलाहल ( कल-कलरव ) होता है, वह सदा मेरी रक्षा करे। तुम्हारे दुर्गम कुञ्जों के प्रति कौतुहल रखनेवाले भ्रमर समुदाय के गुञ्जारव, मयुरों की केका तथा कूजते हुए कोकिलों की काकली का शब्द भी उस कोलाहल में मिला रहता है तथा वह ब्रज लताओं के अळंकार को धारण करनेवाला है ॥ ९ ॥

भवन्ति जिह्वास्तनुरोमतुल्या गिरो यदा भूसिकता इवाशु ।

तदप्यलं यान्ति न ते गुणान्तं सन्तो महान्तः किल शेषतुल्याः ॥ १०॥

शरीर में जितने ‘रोम हैं, उतनी ही जिह्वाएँ हो जाये, धरती पर जितने सिकताकण हैं, उतनी ही वाग्देवियाँ आ जायं और उनके साथ संत-महात्मा भी शेषनाग के समान सहस्रों जिह्वाओं से युक्त होकर गुणगान करने लग जायं, तथापि तुम्हारे गुणों का अन्त कभी नहीं पा सकता ॥ १०॥

कलिन्दगिरिनन्दिनीस्तव उषस्ययं वापरः

श्रुतश्च यदि पाठितो भुवि तनोति सन्मङ्गलम् ।

जनोऽपि यदि धारयेत्किल पठेच्च यो नित्यशः

स याति परमं पदं निजनिकुञ्जलीलावृतम् ॥ ११॥

कलिन्दगिरिनन्दिनी यमुना का यह उत्तम स्तोत्र यदि उषाकाल में ब्राह्मण के मुख से सुना जाय अथवा स्वयं पढ़ा जाय तो भूतल पर परम मंगल का विस्तार करता है। जो कोई भी मनुष्य यदि नित्यशः इसका धारण ( चिन्तन ) करे तो वह भगवान की निज निकुञ्ज-लीला के द्वारा वरण किये गये परमपद को प्राप्त होता है ॥११॥

इति श्रीगर्गसंहितायां माधुर्यखण्डे श्रीनारदबहुलाश्वसंवादे श्रीसौभरिमान्धातृसंवादे श्रीयमुनास्तवो नाम सप्तदशोऽध्यायः ॥ १७॥

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